प्रेम उठे तो स्वर्ग, गिरे तो नर्क

किशोर कुमार //

दुनिया भर में वेलेंटाइन वीक की धूम है। रोमांटिक शेर ओ शायरी से सोशल मीडिया अंटा पड़ा है। प्रेम का संदेश देने वाले भारतीय सूफी संत परंपरा के महान कवि बुल्लेशाह के प्रेम के रंग में रंगे दोहे भी सोशल मीडिया पर साझा किए जा रहे हैं। पचास साल पहले सुप्रसिद्ध भजन गायक नरेंद्र चंचल द्वारा राजकपूर की फिल्म “बॉबी” के लिए गाया गया गीत बैकग्राउंड में बज रहा है – बेशक मंदिर मस्जिद तोड़ो, बुल्लेशाह वे कहते। पर प्यार भरा दिल कभी न तोड़ो, इस दिल में दिलबर रहता…। हमें फिल्म का संदर्भ याद रह गया, गीत के बोल याद रह गए। पर उसकी आत्मा को हम नहीं समझ पाए। बुल्लेशाह ने तो आत्मा-परमात्मा के प्रेम की बात की थी। पर हम तो मानो श्रीरामचरित मानस की चौपाई “जिन्ह कें रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी” को चरितार्थ कर रहे हैं।  

इसे ऐसे समझिए। दुनिया के एक सौ से ज्यादा देशों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने वाले बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य और आधुनिक युग के वैज्ञानिक संत परमहंस निरंजनानंद सरस्वती लाखों भक्तों के गुरू हैं। पर उनका अध्ययन कीजिए तो पता चलेगा कि उनका दिल गुरूभक्ति से भरा हुआ है। किसी ने उनसे कहा कि मैं आपका शिष्य हूं…अभी वह अपनी बात पूरी कर पाता, इसके पहले ही स्वामी निरंजन बोल पड़े – “मैं चेला नहीं बनाता। मैं तो अपने गुरू के पद-चिन्हों पर बढ़े जा रहा हूं। चाहो तो तुम भी मेरे पीछे हो लो। जीवन धन्य हो जाएगा।” अनूठी है ऐसी गुरू-भक्ति, ऐसा प्रेम। हर वक्त गुरू के साए में ही जीते हैं। 14 फरवरी को उनका 63वां जन्मदिवस है। पर हमारी तरह खुद के लिए केक नहीं काटेंगे। रोज की तरह गुरूभक्ति में ही दिन बीतेगा।

दूसरी तरफ सांसारिक सुख चाहने वाले लड़के-लड़कियों ने एक दूसरे को वेलेंटाइन मानकर अपने प्रेम का इजहार करने के लिए विशेष दिन या सप्ताह चुन रखा है। इसमें कुछ गलत भी नहीं। सबके अपने-अपने प्रेमी या वेलेंटाइन होते हैं। गुण-धर्म भिन्न होने से पथ भी अलग-अलग हो जाते हैं। बात प्रेम करने, न करने की नहीं है। बात संस्कारयुक्त प्रेम की है। हम तो प्रेम की सत्ता को सनातन काल से स्वीकार करते रहे हैं। आज अनेक पश्चिमी देशों को प्रगतिशील कहा जाता हैं। पर हमारा देश तो अनुशासित तरीके से लीवइन का उदाहरण हजारो साल पहले पेश कर चुका है। भारद्वाज मुनि की बेटी लोपमुद्रा इसकी मिसाल है। महर्षि अगस्त्य से शादी तो बाद में हुई थी। स्वयंवर का भी प्रचलन था। सीता जी ने अपनी मर्जी से ही तो शादी की थी। दूसरी तरफ सोहिनी-महिवाल, सस्सी-पुन्नू, हीर-रांझा जैसी प्रेम कहानियां भी हैं। यानी, हम स्वतंत्र थे, प्रगतिशीलता की आड़ में स्वच्छंद नहीं।  

कालांतर में पश्चिम के उपभोक्तावादी युवाओं के दिलो-दिमाग में यह बात बैठाने में सफल रहे कि रोमन धर्म गुरू संत वेलेंटाइन की याद में प्रेम का इजहार करने से चूके तो जीवन व्यर्थ जाएगा। और यह भी कि प्रेम के इजहार के लिए वास्तविक फूल की जरूरत नहीं है, कागज के फूल यानी ग्रीटिंग कार्ड और दिल की आकृति वाली टॉफियां ही काफी हैं। नतीजतन, भारत में जिस प्रेम की जड़े गहरी थी, उसे हमने कुल्हाड़ी से काट दिया और प्रेम करने की नई वजह, नए तरीकों को आत्मसात कर लिया। नतीजा सामने है। प्रेम गिरा तो नर्क के द्वार खुल गए। तभी अधूरी या दुखद प्रेम कहानियों की खबरों से अखबार अंटे पड़े होते हैं।

सवाल हो सकता है कि आदर्श प्रेम क्या है? स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं – “प्रेम या इश्क की उत्पत्ति के दो केंद्र हैं – इश्क मजाजी और इश्क हकीकी। दोनों ही प्रेम है। पर इश्क हकीकी हृदय से प्रेरित होता है और इश्क मजाजी दिमाग से। आम आदमी जिस प्रेम का अनुभव करता है, वह इश्क मजाजी है। दिल की बात नहीं है, दिमाग की बात है औऱ दिमाग में तो वासनाएं हैं, कुछ न कुछ कामनाएं हैं। इसलिए दोस्ती दुश्मनी में बदलती रहती है। पर जब इश्क हकीकी हो तो प्रेम हृदय से फूटता है। वह पवित्र प्रेम होता है। ऐसे प्रेम में कोई कामना नहीं होती, कोई वासना नहीं होती। इच्छा होती है तो इतनी ही कि यह प्रेम अनवरत बढ़ता जाए। आदर्श प्रेम तो उसे कहेंगे, जिसकी ज्वाला में सभी द्वेष जलकर भस्म हो जाएं।“

फिर क्या किया जाए कि प्रेम की उत्पत्ति का केंद्र इश्क हकीकी ही रह जाए या प्रेम उसके ईर्द-गिर्द ही घूमे? महर्षि पजंतजलि के योगसूत्रों का पहला ही सूत्र है – अथ योगानुशासनम्। यानी अब योग की व्याख्या करते हैं। स्पष्ट है कि ऐसे लोगों को योग शिक्षा देने की बात है, जो यम और नियम का अभ्यास करके योग की पात्रता प्राप्त कर चुके हैं। नई पीढी युवाओं के जीवन में भी सुंदर फूल खिले और प्रेम परमात्मा सदृश्य बन जाए, इसके लिए योगमय जीवन जरूरी है। इसकी तैयारी समय रहते यानी बाल्यावस्था से हर माता-पिता को करानी होगी। शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक स्तर पर प्रशिक्षित करना होगा। समझना होगा कि केवल किताबी ज्ञान से बात नहीं बनती।

तैयारी किस तरह की होनी चाहिए? स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं कि बच्चे जब लगभग आठ साल के हो जाएं तो उनसे नियमित रूप से सूर्य नमस्कार, भ्रामरी प्राणायाम, नाड़ी शोधन प्राणायाम और गायत्री मंत्र का अभ्यास कराया जाना चाहिए। इससे पीनियल ग्रंथि बिल्कुल स्वस्थ रहेगी, विघटित नहीं होगी। वरना, बुद्धि और अंतर्दृष्टि के मूल स्थान वाली यह ग्रंथि किशोरावस्था में ही विघटित हुई तो बड़ी समस्या खड़ी हो जाएगी। कामवासना ऐसे समय में जागृत हो जाएगी, जब बच्चे मानसिक रूप से इसके लिए तैयार नहीं होते हैं। समस्या यहीं से शुरू हो जाएगी। प्रतिभा का समुचित विकास नहीं हो पाता।

योग जीवन को कैसे रूपांतरित कर देता है, इसके उदाहरण खुद स्वामी निरंजन ही हैं। उन्होंने कभी स्कूल का मुंह तक नहीं देखा, पर नासा के पांच सौ वैज्ञानिकों के समूह में शामिल हैं। मात्र बारह वर्ष की अवस्था में यूनिवर्सिटी ऑफ कैम्ब्रिज में बायोफीडबैक तकनीक के ऐसे तथ्य प्रस्तुत कर दिए, जिन्हें जानने के लिए वैज्ञानिक शोध करने वाले थे। उन्हें तमाम लौकिक-अलौकिक ज्ञान योगनिद्रा में गुरूकृपा से प्राप्त हो गई थी। पर इसके लिए उन्हें पात्र बनाना पड़ा था। प्रेम, श्रद्धा, करूणा और भक्ति से प्राण कोमल होने पर ही यौगिक बीज प्रस्फुटित हुआ। ऐसी प्रेममूर्ति, महान वैज्ञानिक संत को उनकी जयंती पर सादर नमन। आज जैसे हालात बने हैं, वे युवापीढ़ी के लिए प्रेरणा के स्रोत हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

विज्ञान के लिए चुनौती है ब्रह्मर्षि कृष्णदत्त की सूक्ष्म शक्तियां

ब्रह्मर्षि कृष्णदत्त महाराज कई मायनों में अनूढे थे। शवासन की अवस्था में भौतिक रूप से समाज के बीच होते हुए भी चेतना के स्तर पर किसी और लोक में चले जाते थे। तब ऐसा लगता मानों वे कोई बड़े ऋषि हैं, जो तपस्वियों को संबोधित कर रहे हैं। वे प्राचीन काल के ऋषियों जैसी शास्त्रसम्मत बातें करते थे। कठिन यौगिक साधनाओं की बात करते और अपने एक खास शिष्य महानंद के सवालों का जबाव भी देतें। हैरतंगेज बात यह कि महानंद की आवाज भी महाराज के मुख से ही निकलती थी। दोनों की आवाज अलग-अलग होने से आसानी से पहचान हो जाती थी। तुरीयावस्था कितनी देर बनी रहेगी, यह निश्चित नहीं होता था। पर इस अवस्था से बाहर होते ही अति सामान्य व्यक्ति होते थे, जिन्हें न लिखना आता था, न पढ़ना। वे अब इस दुनिया में नहीं हैं। पर विज्ञान के लिए चुनौती बने हुए हैं। मानव चेतना पर बड़े स्तरों पर वैज्ञानिक शोध हुए हैं। पर ब्रह्मर्षि कृष्णदत्त की विशिष्ट अतीन्द्रिय शक्तियां अब भी रहस्यमय ही हैं।    

योगबल की बदौलत आत्म-दर्शन होने से मनुष्य में देवत्व का उदय होना असाधारण बात तो है, पर दुर्लभ नहीं। पुनर्जन्म, परकाया प्रवेश और एक ही काया को कई स्थानों पर उपस्थित कर देने के भी उदाहरण हैं। अक्षर ज्ञान न होते हुए भी शास्त्रों का ज्ञान होने के उदाहरण तो भरे पड़े हैं। योग की बदौलत मिलने वाली इन शक्तियों का वैज्ञानिक आधार प्रस्तुत किया जाता रहा है। परं पिछले कई युगों के ऋषियों जैसे ज्ञान के साथ शरीर धारण करना, तुरीयावस्था में वह ज्ञान प्रकट करना और दो लोगों के बीच का संवाद एक ही मुख से उच्चारित होना इस युग के लिए दुर्लभ बात है। गाजियाबाद जिले के एक गांव में अति सामान्य परिवार मे जन्मे ब्रह्मर्षि कृष्णदत्त जी ऐसे ही दुर्लभ संयोग की देन थे। 

कृष्णदत्त जी बेपढ़ थे। यौगिक साधनाओं से दूर-दूर का वास्ता न था। पर शवासन में होते ही कई युगों में मौजूद रहे देवतुल्य ऋषियों जैसी बातें करने लगते थे। वेद और उपनिषद की बातें, शुद्ध संस्कृत शब्दों के उच्चारण के साथ धाराप्रवाह बोलते जाते थे। योग के शास्त्रीय पक्षों पर खूब बोलते थे। यौगिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण शरीर के चक्रों की वैज्ञानिक बातें करते थे। पर शवासन से उठते ही एक ऐसा व्यक्ति होते थे, जिसका शास्त्रीय ज्ञान से दूर-दूर का नाता न होता था। अनेक विश्लेषणों के आधार पर माना गया कि वे जागृत चक्रों के साथ पूर्व जन्मों के ऋषियों वाले वैदिक ज्ञान के साथ जन्मे थे।

शवासन में जब उनकी अतीन्द्रिय शक्तियां (साइकिक पावर्स) जागृत होती थीं तो ऐसा लगता था कि वे इस लोक में नहीं हैं। वे कभी सत्ययुग की तो कभी त्रेतायुग तो कभी द्वापर युग की बात करने लगते। कलियुग की प्राचीन बातें भी करते थे। कई बार उनकी आवाज और बोलने का अंदाज बदल जाता था। विश्लेषण से पता चला कि वे जब महानंद नाम के अपने किसी शिष्य के साथ वार्तालाप कर रहे होते थे तब ऐसी स्थिति बनती थी। यानी गुरू-शिष्य की आवाज एक ही भौतिक शरीर से निकलती थी। उनका मुख उस स्पीकर की तरह हो जाता था, जिससे जुड़ी माइक में जो भी बोलता है, उसकी आवाज सुनाई देती है।

ब्रह्मर्षि कृष्णदत्त जी अवचेतन मन से नाता जुड़ते ही ऐसे बोलने लगतें मानों वे नहीं, किसी ऋषि की आत्मा बोल रही हो। एक बार अचानक बोल पड़े – “पूज्यपाद गुरुदेव ने कहा जाओ, लघु मस्तिष्क में प्रवेश कर जाओ। मैने बारह वर्षों तक अनुष्ठान करके लघु मस्तिष्क को दृष्टिपात किया तो ब्रह्माण्ड, लोक-लोकान्तर वाली प्रतिभाएं मेरे समीप आने लगी। इसके पश्चात् पूज्यपाद के चरणों में विद्यमान हो गया। मैंने कहा कि प्रभु! मैं लघु मस्तिष्क मे चला गया हूँ। मैं लघु मस्तिष्क में सूर्यों की गणना करता रहा, लघु मस्तिष्क में पृथ्वियों की गणना करता रहा, सौर मण्डलों में प्रवेश कर गया। हे प्रभु! मैं अनन्तमयी ब्रह्माण्ड में प्रवेश कर गया। हे प्रभु! मैं विचित्र-सा अनुभव करने लगा हूं। मुझे और मार्ग में प्रवेश कराइए।….”

कृष्णदत्त जी के ज्यादातर प्रवचनों की वॉयस रिकार्डिंग की जा चुकी है। शवासन अवस्था वाले कृष्णदत्त जी महाराज शांत स्वभाव वाले ज्ञानी ऋषि की तरह होते थे। वहीं उनका शिष्य महानंद बेहद आक्रामक होता था। ऐसा लगता था कि महानंद की आत्मा कलियुग के किसी काल-खंड की यादों के साथ उपस्थित होती थी, जिसे समाज की विकृतियां बेचैन रखती थीं। तभी कृष्णदत्त जी जब किसी अन्य युगों की बात कर रहे होते थे तो वह दखल देता और कहता, गुरूदेव, आपकी बात कोई नहीं समझेगा, आप इस युग के लिहाज से बोलिए। एक और चौंकाने वाली बात यह कि कृष्णदत्तजी जब मुनिवरो शब्द का प्रयोग करते हुए संबोधन शुरू करते तो ऐसा लगता था कि वे अन्य युगों के मुनियों के बीच प्रवचन कर रहे हैं। इसके साथ ही वे कभी महाभारतकालीन घटनाओं का आंखो देखा हाल बयां करने लगते तो कभी राजा दशरथ के लिए श्रृंगी ऋषि के पुत्रेष्टि यज्ञ का। योग की शक्तियों का बखान तो अक्सर करते थे।

धरती पर ऐसे संतों की कमी नहीं रही, जिन्हें अक्षर ज्ञान तो नहीं था। पर वे शास्त्रसम्मत बातें, विज्ञानसम्मत बातें करते थे। कबीर पर तो न जाने कितने ही शोध होते रहते हैं। पर उसी कबीर ने अपने बारे में कहा था – “मसि कागद छुयो नहीं, कलम गह्यी नहीं हाथ।“ इतनी पुरानी बात छोड़ भी दें तो चित्रकूट की धरती एक संत थे। नाम था परमहंस परमानंद। प्रसिद्ध थे। लेकिन एक बार उनके हस्ताक्षर की जरूरत पड़ी तो अजीब संकट खड़ा हो गया। इसलिए कि अक्षर ज्ञान बिल्कुल नहीं था। शिष्यों को नाम लिखने का अभ्यास कराना पड़ा था। पर सन् 1969 में शरीर त्यागने से पहले धर्म की रूढ़ीवादी प्रथाओं पर चोट करते रहे और अपनी अलौकिक शक्तियों से जन-कल्याण करते रहे। वेदों और उपनिषदों के वैज्ञानिक व व्यवहारिक ज्ञान की बाते करते थे।

पुनर्जन्म होता है, इसके भी कई उदाहरण हैं। धनबाद में कोयला खदान मालिक की पत्नी को तीन जन्मों की बातें याद थीं। इससे उनका जीवन आशांत होता जा रहा था। बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की शरण में जाने के बाद राहत मिली थी। स्वामी सत्यानंद जी की पुस्तकों में इस बात का उल्लेख है। पूर्व जन्म की बात गीता में भी है। श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, “हे अर्जुन! तेरे औऱ मेरे बहुत से जन्म बीत चुके हैं। तू नहीं जानता, मैं जानता हूं….।” शरीर से ऊर्जा और चेतना को पृथक करके महीनों बाद उसे संयुक्त करने के भी उदाहरण हैं। इस संदर्भ में राजा रणजीत सिंह के दरबार के साधु हरीदास का नाम उल्लेखनीय है। फ्रांस और यूरोप के चिकित्सकों ने साधु हरीदास की इस शक्ति का चिकित्सीय परीक्षण किया था और पाया कि मृत शरीर कई महीनों बाद जीवित हो उठता था। परमहंस योगानंद ने विदेशी चिकित्सकों की फाइलों तक पहुंच बनाकर उन्हें सार्वजनिक किया था। संतों के सूक्ष्म रूप से एक ही साथ एक ही समय में दो विपरीत दिशाओं वाले स्थानों पर उपस्थिति के भी उदाहरण हैं। ऋषिकेश में दिव्य जीवन संघ के संस्थापक स्वामी शिवानंद सरस्वती से जुड़े ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं। अमेरिका के टेड सीरियो की अतीन्द्रिय शक्ति ऐसी थी कि उसकी आंखें हजारो मील दूर की तस्वीरें लेने में सक्षम थी।         

परमहंस योगानंद कहा करते थे कि महान संत मृत्युलोक में कुछ अधूरा कार्य छोड़ जाते हैं तो उन्हें दोबारा जन्म लेना होता है। शास्त्रों के मुताबिक कुछ ऋषि किसी श्राप के कारण भी मृत्युलोक मे जन्म लेते हैं, कर्मफल भुगतने के लिए। जो ऋषि मृत्युलोक में भौतिक शरीर धारण करते हैं उनके तुरीयावस्था में चले जाने का उल्लेख भी योगशास्त्र की पुस्तकों में मिलता है। उसके मुताबिक तुरीयावस्था के अनुभव देवलोक के अनुभव माने जाते हैं। जैसे, अमुक ऋषि स्वर्गलोक पहुंच गए, वहां विष्णुजी से उनका साक्षात्कार हुआ, फिर लक्ष्मीजी या शिवजी से साक्षात्कार हुआ आदि आदि। कृष्णदत्त जी भी अक्सर ऐसी ही बातें किया करते थे।

ब्रह्मर्षि कृष्णदत्त जी अब शरीर त्याग चुके हैं। उनके अनुयायी उन्हें श्रृंगी ऋषि का अवतार मानते हुए उनके संदेशों को प्रसाद स्वरूप ग्रहण करते रहते हैं। श्रृंगी ऋषि वेद विज्ञान प्रतिष्ठान कृष्णदत्त जी महाराज की रिकार्ड की गई बातों को पुस्तकाकार देकर उनके संदेशों को प्रचारित करता है। डॉ कृष्णावतार और उनके सहयोगी पूरी तल्लीनता से इस काम को आगे बढ़ा रहे हैं। पर कृष्णदत्त जी महाराज की विशिष्ट अतीन्द्रिय शक्ति को आधुनिक विज्ञान के लिहाज से सही-सही परिभाषित किया जाना बाकी है। मानव चेतना पर बड़े स्तरों पर वैज्ञानिक शोध हुए हैं। सेरीब्रल कार्टेक्स और थैलेमस के साथ उसकी कार्य-प्रणाली पर हुए शोधों से चेतना की कई परतें खुली हैं। सेक्रल प्लेक्सस तंत्रिका तंतुओं यानी नर्वस सिस्टम का नेटवर्क होता है, जो शरीर के निचले अंगों पेल्विस और लोअर लिंब को त्वचा और मांसपेशियों की आपूर्ति करता है। सेरीब्रल कार्टेक्स और थैलेमस का एक दूसरे सें गहरा नाता है। अध्ययनों से संकेत मिला है कि चेतना की उपस्थिति और इससे जुड़े अन्य मामलों में थैलेमस की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। अब तक मानव चेतना के विस्तार संबंधी जो सूत्र मिल रहे हैं, उनको ध्यान में रखते हुए लगता है कि भविष्य में चेतना के किसी खास स्तर पर कृष्णदत्त जी की खास अवस्था प्राप्त कर लेने के रहस्यों का भेद मिल ही जाएगा।

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वैसे, कुछ घटनाओं और शरीर के चक्रो की यौगिक विवेचना से प्रतीत होता है कि शरीर की सूक्ष्म ऊर्जा के खास तरीके से प्रवाहित होने से कृष्णदत्त जी की चेतना पूर्व जन्मों की चेतना के साथ समस्वरित हो जाती रही होगी। योगशास्त्र के मुताबिक, शरीर के मुख्य सात चक्रों में स्वाधिष्ठान चक्र का एक गुण वीडियो कैमरे की तरह होता है, जो जन्म-जन्मांतर की बातों को संग्रहित करके रखता है। गणित के विद्वान श्रीनिवास रामानुजन के बारे में कौन नहीं जानता। उनसे पूछा गया कि सवाल करो नहीं कि जबाव जाहिर। यह चमत्कार कैसे होता है? उनका उत्तर था – “मैं नहीं जानता। तुम मुझसे प्रश्न करते हो तो कहीं नीचे से उत्तर आता है, सिर से नहीं।” उनके इस उत्तर से भी स्वाधिष्ठान चक्र का ही संकेत मिलता है। स्वाधिष्ठान चक्र का स्थान शरीर में रीढ़ की हड्डी के सबसे निचले छोड़ पर स्थित है। इसका संबंध सेक्रल प्लेक्सस से है, जो अचेतन मन को नियंत्रित करता है।

आज्ञा चक्र को शिव का नेत्र या तीसरी आंख भी कहा जाता है। यह अतीन्द्रिय अनुभूतियों का स्थान है, जहां व्यक्ति में उसके संस्कार और मानसिक प्रवृत्तियों के अनुसार अनेकानेक सिद्धियां प्रकट होती हैं। दरअसल, यह चक्र मुख्य रूप से मन का चक्र है, जो चेतना की उच्च अवस्था का प्रतिनिधित्व करता है। इसके जागृत होने से स्वाधिस्थान चक्र की संग्रहित बातों को प्रकट करना संभव हो पाता है। यह चक्र रीढ़ की हड्डी के ऊपर और भ्रूमध्य के ठीक पीछे होता है। इसका संबंध पीनियल ग्रंथि से है। इसका एक अन्य महत्वपूर्ण काम शरीर की पेशियों और काम-प्रवृत्ति को नियंत्रित करना भी है। योग साधाना में इसका बड़ा महत्व है। इतिहास गवाह है कि अनेक संत जागृत चक्रों के साथ जन्मे। पर ब्रह्मर्षि कृष्णदत्त जी का मामला केवल चक्रों के जागरण तक सीमित नहीं है। कई गूढ़ बातें और भी हैं, जिन्हें विज्ञान की कसौटी पर परिभाषित किया जाना बाकी है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

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