कम हियर, माई डीयर कृष्ण कन्हाई….

किशोर कुमार

“नंद के आनंद भयो, जय कन्हैया लाल की….. गोकुल के भगवान की, जय कन्हैया लाल की…… “ जन्माष्टमी के मौके पर ब्रज में ही नहीं, बल्कि देश-दुनिया के भक्त इस बोल के साथ दिव्य आनंद में डूब जाएंगे। सर्वत्र उत्सव, उल्लास और उमंग का माहौल होगा। भजन-संकीर्तन से पूरा वातावरण गूंजायमान होगा। ऐसा हो भी क्यों नहीं। श्रीकृष्ण विश्व इतिहास और वैश्विक-संस्कृति के एक अनूठे व्यक्ति जो थे। विश्व के इतिहास में वैसा विलक्षण पुरुष फिर पैदा नहीं हुआ। वे लीलाधर थे, महान् दार्शनिक थे, महान् वक्ता थे, महायोगी थे, योद्धा थे, संत थे….और भी बहुत कुछ। तभी पांच हजार साल बाद भी सबके हृदय में विराजते हैं।

उनकी महिमा से जुडा एक ऐतिहासिक प्रसंग मौजूदा समय के लिए बड़ा संदेश है। कलियुग में भक्ति का महत्व और उसकी श्रेष्ठता का पता चलता है। कृष्ण-भक्त चैतन्य महाप्रभु को तो श्रीकृष्ण का ही अवतार माना जाता है। वे जगन्नाथ पुरी से झारखंड होते हुए काशी जा पहुंचे। उन दिनों काशी के संन्यासियों में स्वामी प्रकाशानंद की बड़ी प्रतिष्ठा थी। वेदांत के प्रकांड विद्वान थे और उनके तप, तेज और पांडित्य के आगे सभी अपना मस्तक झुकाते थे। पर चैतन्य महाप्रभु तो ठहरे भक्तिभाव वाले। उन्हें पंडिताऊ बातों से कहां सरोकार था। वे तो सीधे-सीधे कहते थे कि श्रीकृष्ण मंत्र के के निरन्तर जप और यहां तक कि श्रवण मात्र से मनुष्य अपने जीवन के इच्छित उद्देश्य को प्राप्त कर सकता है। पर स्वामी प्रकाशानंद को चैतन्य महाप्रभु का तरीका बिल्कुल नहीं भाया। उन्होंने अपने शिष्यों से कह दिया कि कि वे संन्यास-धर्म के विपरीत काम करते हैं और जादू-टोने की बदौलत अपनी महिमा फैलाते हैं। उनक फेर में नहीं पड़ना।

चैतन्य महाप्रभु को तो वैसे भी वृंदावन ही जाना था। सो वे काशी वासियों के रूखे व्यवहार से दुखी होकर वृंदावन के लिए कूच कर गए। कृष्ण-भक्ति के लिहाज से वृंदावन की भूमि बेहद ऊर्वर थी। चैतन्य महाप्रभु का भक्ति आंदोलन जल्दी ही चरम पर जा पहुंचा। राधा-कृष्ण की समस्त लीलाएं मानों जीवंत हो उठीं। चैतन्य महाप्रभु कुछ समय बाद फिर काशी लौटे तो एक भोज में उनका सीधा सामना स्वामी प्रकाशानंद से हो गया। स्वामी प्रकाशानंद ने तो महाप्रभु का नाम भर सुना था। देख रहे थे पहली बार। वे महित हो गए। बगल में बिठाया और मन की बात कह दी – आप तो साक्षात नारायण के समान दर्शनीय हैं। पर संन्यासियों के लिए दूषित नृत्य-गीत आदि में निमग्न क्यों रहते हैं? चैतन्य महाप्रभु ने अपने गुरू केशव भारती का हवाला देते हुए कहा, “कलिकाल में नापजप से ही कर्मबंध का क्षय होगा। मैं गुरू की आज्ञा शिरोधार्य करके कृष्णनाम का जप करता हूं। आप देख सकते हैं कि मेरी प्रकृति बदल चुकी है। मैं जान चुका हूं कि कोरा ज्ञान आस्था नहीं दे पाता।“ उन्होंने अपने तर्कों से सिद्ध किया कि वेद वैष्णव धर्म का पोषण करते हैं। स्वामी प्रकाशानंद इन तर्कों से इतने प्रभावित हुए और महाप्रभु के चरणों में साष्टांग लेट गए थे। इसके बाद तो पूरी काशी चैतन्य महाप्रभु के चरणों में मानो लेट गई थी।   

कृष्णभक्ति आंदोलन के तमाम संत कहते रहे हैं कि श्रीकृष्ण को मायावादी दृष्टिकोण से नहीं देखा जाना चाहिए। उनके नाम, उनके रूप, उनके गुणों और उनकी लीलाओं में अंतर नहीं है। वह परब्रह्म हैं। पर हम सब श्रीकृष्ण की बहिरंग शक्ति से मोहित हैं, जो माया के सिवा कुछ भी नहीं है। शुद्ध प्रेम की आंखें नहीं होने के कारण तथाकथित बुद्धिमत्ता अवरोध उत्पन्न कर देती है। आखिर मीरा जब श्रीकृष्ण के प्रेम में पड़ीं थीं तो उस समय के समाज को उनका प्रेम अंधा मालूम पड़ा ही था न। लेकिन आज हम सब जान गए हैं कि उनके हृदय के प्रेम की अंतिम परिणति क्या थी। श्रीकृष्ण की लीलाओं और उनके संदेशों को आध्यात्मिक नजरिए देखा जाना चाहिए। इस बात को एक कथा के जरिए समझिए, जिसे बीसवीं सदी के महान संत और बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती अक्सर सुनाया करते थे – श्रीकृष्ण को अपनी बांसुरी से बेहद प्रेम था। सोते-जगते, उठते-बैठते हर समय उनके पास ही होती थी। उनकी दिव्य ऊर्जा के प्रभाव के कारण बांसुरी की ध्वनि इतनी शक्तिशाली हो गई थी कि संपूर्ण सृष्टि का निर्माण हो गया। श्रीकृष्ण के प्रेमरस के लिए व्याकुल रहने वाली गोपियों को बड़ा अजीब लगता था। सूखे और खोखले बांस से बनी बांसुरी श्रीकृष्ण को इतनी प्यारी क्यों है? रहा न गया तो गोपिकाओं ने सीधे-सीधे बांसुरी से ही पूछ लिया – बांसुरी, हमें सच-सच बताओ कि तुममें ऐसा क्या है कि भगवान के इतने प्यारे हो?

बांसुरी तो अपने प्रियतम के प्रेमरस में सराबोर थी। उसे क्या पता जादू क्या होता है। लिहाजा उसने जबाव दिया – मुझे न तो जादू करना आता है और न सम्मोहन कला आती है। मैं तो जंगलों में पलती-बढ़ती हूं। अंदर से सदा खोखली ही रहती हूं। मेरे इष्टदेव को मेरी कमियों की जानकारी है। फिर भी वे प्रसन्न रहते हैं। वे एक ही बात कहते हैं – “अपने आप को खाली रखो, मैं तुम्हें भर दूंगा।“ मैं जिसे अपनी कमजोरी समझती रही हूं, भगवान की नजर में वही मेरी शक्ति है।“ इस कथा का संदेश यह कि निरहंकारिता का मंदिर जिसे मिल गया, उसके अपने भीतर के मंदिर के द्वार खुल जाते हैं। सवाल है कि अहंकार से मुक्ति कैसे मिले? श्रीकृष्ण ने इसके लिए अनेक विधियां बतलाईं। उनमें भक्ति को सबसे श्रेष्ठ बतलाया।

श्रीभागवतम् में कथा है कि द्वापर युग के अंत में नारद जी ब्रह्मा जी के पास गए और उनसे पूछा भगवन्, मैं इस संसार में रमते हुए कलियुग को कैसे पार कर सकूंगा ?” ब्रह्मा जी ने कहा- “तुम उस कप की सुनो, जो श्रुतियों में सन्निहित है और जिससे मनुष्य कलियुग में संसार को पार कर सकता है। केवल नारायण का नाम लेने से मनुष्य इस कराम कलियुग के बुरे प्रभाव को दूर कर सकता है।” फिर नारद ने ब्रह्माजी से पूछा- “मुझे वह नाम बताइए।” तब ब्रह्माजी ने कहा-

“हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे । हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ॥”

ये सोलह नाम हमारे सन्देह, भ्रम तथा कलियुग के बुरे प्रभाव को दूर कर देते हैं। ये प्रज्ञान का निवारण कर देते हैं। ये मन के अंधकार को दूर कर देते हैं। फिर जैसे कि ठीक दोपहर के समय सूर्य अपने पूर्ण तेज सहित भासमान होता है, वैसे ही परब्रह्म अपने पूर्ण प्रकाश के साथ हमारे हृदयाकाश में प्रकाशित हो जाते हैं और हम समस्त संसार में केवल उनसे हो अनुभूति करते हैं।

इस्कॉन के संस्थापक श्रील प्रभुपाद अक्सर कहा करते थे, जैसे चिकित्सक संक्रमण को रोकने के लिए पूर्वोपाय के रूप में टीके लगता है। वैसे ही सभी तरह के पापों को फलित होने से रोकने के लिए पूर्णतया कृष्णभावना भक्ति का परायण हो जाना आवश्यक है। वे इस संदर्भ में, श्रीमद्भागवत (६.२.१७) का उदाहरण देते थे, जिसमें शुकदेव गोस्वामी ने अजामिल की एक कथा बतलाई है। अजामिल ने अपना जीवन एक कुशल और कर्तव्य-परायण ब्राह्मण के रूप में प्रारम्भ किया था; परन्तु यौवन में वेश्या-संग से बिल्कुल भ्रष्ट हो गया। फिर भी, अपने पापमय जीवन के अंत में नारायण नाम पुकारने के फलस्वरूप उसका सब पापों से उद्धार हो गया। शुकदेव गोस्वामी ने कहा है कि तप, दान, व्रत आदि से पापों का नाश तो हो जाता है; परन्तु हृदय से पाप-बीज का नाश नहीं होता, जैसा यौवन में अजामिल के साथ हुआ। इस पाप-बीज का नाश एकमात्र कृष्णभावनाभावित होने पर ही हो सकता है । श्रीचैतन्य महाप्रभु का सन्देश है कि कृष्णभावना की प्राप्ति हरेकृष्ण महामन्त्र का जप कीर्तन करने से बड़ी सुगमतापूर्वक हो जाती है।

संतों ने नामजप और संकीर्तन को आधुनिक युग के लिहाज से सबसे उपयुक्त माना। उनकी वाणी है कि इसी शताब्दी में लोग नामजप और संकीर्तन को आधार बनाकर भक्ति का आश्रय लेंगे। भक्ति यानी श्रद्धा, प्रेम, केवल विशुद्ध प्रेम। किसी मान्यता नहीं, बल्कि विज्ञान के आधार पर इसके महत्व को समझा जाएगा। हम सब देख रहे हैं कि संकीर्तन और मंत्रों की शक्ति पर दुनिया भर में अध्ययन किया जा रहा है। पता चल चुका है कि मंत्रों की ध्वनि मानसिक और भावनात्मक स्तर पर आश्चर्यजनक ढंग से सकारात्मक प्रभाव डालती है। इसलिए कि इस ध्वनि से मानव के वेगस तंत्रिका तंत्र झंकृत होता है। शोध का दायर जैसे-जैसे व्यापक हो रहा है, अवसादग्रस्त लोग या चेतना के उत्थान के लिए सजग लोग भक्तियोग का अनुसरण करने लगे हैं। श्रीकृष्ण के संदेशों की प्रासंगिकता बढ़ती जा रही है। तभी भारतीयों की कौन कहे, बड़ी संख्या में विदेशी भी मंत्र साधना तो करते ही हैं, “कम हियर, माई डीयर कृष्ण कन्हाई….” के धुन पर थिरकते दिखते हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

भावातीत स्वरूप वाली महान संत आनंदमयी मां

किशोर कुमार //

बीसवीं सदी की महान योगिनी श्री आनंदमयी मां विंध्याचल स्थित अपने आश्रम में थीं। मिर्जापुर के जिलाधिकारी उनके दर्शन के लिए आश्रम पहुंचे तो मां ने उन्हें आश्रम के अहाते की एक जगह दिखाते हुए कहा, इस भूमि के गर्भ में अनेक देवी-देवताओं की मूर्तियां सदियों से गड़ी हैं। अब उनका दम घुटने लगा है। आप उस स्थल की खुदाई करवा कर उन्हें निकालने का प्रबंध कर दें। यह बात सन् 1955 की है। जिलाधिकारी नृसिंह चटर्जी ने मां के इस आग्रह को किसी दैवी आदेश की तरह लिया और हैरानी की बात यह रही कि लंबे समय तक चली खुदाई के बाद लगभग दो सौ मूर्तियां मिल गई थीं। यह घटना किसी चमत्कार से कम न थी।

कोई दो दशकों तक मां की साधना का मुख्य केंद्र काशी रहा। शुरूआती दिनों में आश्रम के लिए जगह की तलाश की जा रही थी। पर बात बन नहीं पा रही थी। सन् 1942 में मां अपनी शिष्या श्री गुरुप्रिया आनंद गिरि, जिन्हें सभी दीदी थे, के साथ बनारस रेलवे स्टेशन के प्रतिक्षालय में बैठी थीं। तभी उनकी नजर बनारस के मानचित्र पर गई। वह एक स्थान पर उंगली रखकर कहा, देखो दीदी, यह रहा तुम्हारा आश्रम। वह स्थान अस्सी और भदैनी के बीच था। मां के शिष्य उस स्थल पर गए तो ऐसा लगा मानो जमीन का मालिक इंतजार में ही था कि वहां कितनी जल्दी मां का आश्रम बन जाए। 

मां एक बार कानपुर से लखनऊ कार से जा रहीं थीं। उन्नाव के पास एक गांव से गाड़ी गुजर रही थी तो मां सहसा बोल पड़ीं – “कितना सुन्दर गांव है, कितना सुन्दर पेड़ हैं।” मां की शिष्या श्री गुरुप्रिया आनंद गिरि ने यह सुनते ही गाड़ी रूकवा दी। फिर वहां पहुंची जहां सुंदर पेड़ थे। दरअसल, तालाब के किनारे दो छोटे-छोटे नीम व बट के पेड़ थे। मां ने गाड़ी से उतर कर पेड़ों का खूब आदर किया। बोली, “अच्छा तुम लोग इस शरीर को ले आए।” गाड़ी से फलों की टोकरी व माला मंगवाई। मालाएं वृक्षों पर अपने हाथों से सजा दीं और फल बांट दिए। स्थानीय लोगों से कहा, इन वृक्षों की पूजा करना। भला होग

मां ने बचपन से लेकर समाधि तक ऐसी लीलाएं इतनी की कि उनकी गिनती ही न रह गई। वह ऐसी लीलाएं क्यों करती थीं? महान संत तो चमत्कारों के पीछे भागते ही नहीं। फिर मां आजीवन ऐसा क्यों करती रहीं? उत्तर मिलता है कि भगवान का चरित्र उजागर करने, भगवान का संदेश फैलाने का उनका यही तरीका था। आधुनिक विज्ञान नए-नए अनुसंधान करके अवचेतन मन की शक्तियों पर प्रकाश डालते रहता है। पर मां की हर लीला में मानव चेतना के विकास के लिए, मानव के कल्याण के लिए कोई न कोई संदेश होता था। वह कहती थीं कि व्यक्ति अपने गुण-कर्म के आधार पर उन शक्तियों को यथा संभव जागृत करके जीवन को धन्य बना सकता है। मां के आचरण में साधुता, प्रज्ञा में ज्ञान की चमक और भाव के स्तर पर भक्ति थी। वे बतलाती थी कि पुनर्जन्म होता है। यदि कोई व्यक्ति ऊंचे सिंहासन पर बैठा है तो उसमें पूर्व जन्म के पुण्यों का भी योगदान होता है।  इसलिए जीवन में सत्व गुण की प्रधानता रहे, यह बहुत जरूरी है।

मां की शक्तियां भी उनके पूर्व जन्मों के सत्कर्मों का ही प्रतिफल था। इसलिए कि इस जन्म में तो उनके न कोई गुरू थे और न ही उन्होंने कहीं योग और अध्यात्म की शिक्षा ली थी। औपचारिक शिक्षा भी न थी। पर, बचपन से ही भक्तियोग के रस टपकने लगे थे। ढाई साल की उम्र में ननिहाल में थीं और वहां मां के साथ कीर्तन में गईं तो वहां शरीर शिथिल होकर लुढक गया था। पर किसी के लिए भी समझना मुश्किल था कि यह कीर्तन का प्रभाव है। समय बीतता गया और दैवीय शक्तियां स्फुटित होती गईं। मां को बचपन से नाम संकीर्तन खूब भाता था। आध्यात्मिक अनुभवों से इसकी वैज्ञानिकता भी समझ में आ गई। लिहाजा चैतन्य महाप्रभु कि तरह उन्होंने संकीर्तन को ही भवगत् संदेश बांटने का जरिया बनाया था।

रामचरितमानस में कागभुशुंडिजी की कथा है। वह पक्षीराज गरूड़जी से कहते हैं कि कौए का शरीर ही मुझे बहुत प्यारा है। क्यों? क्योंकि इस शरीर में प्रभु की भक्ति अंकुरित हुई और इसी शरीर से भजन हो पाता है। वे फिर कलियुग गुण-धर्म का वर्णन करते हुए कहते हैं, सतयुग में ध्यान करने से, त्रेता युग में यज्ञ करने से और द्वापर में पूजा करने से जो फल मिलता है, वैसा ही फल कलियुग में नाम संकीर्त्तन, जप से मिलता है। मां कहती थीं कि यदि किसी में सत्व गुण की प्रधानता है और पूर्व जन्म का प्रारब्ध भी सहयोग में है तो ऐसा व्यक्ति कलियुग में भी सतयुग या अन्य युगों जैसा बेहतर फल प्राप्त कर सकता है। पर आम लोगों के लिए तो “कलियुग केवल नाम अधारा, सुमिर-सुमिर नर उतरहि पारा…।“ इसलिए कीर्तन करो, नाम के जप और कीर्तन से ही सब कुछ होता है।

मां कहतीं, ‘स्मरण रक्खो, स्मरण रक्खो, भगवान् का नाम सर्वदा स्मरण करते-करते इस संसार रूपी कारागार के दिन कट जाएंगे। स्वयं तो अच्छे होने की चेष्टा करना ही, जो जहाँ हो, उसे भी बुला लेना, जिसके कर्म के साथ धर्म का संबंध नहीं है; उसको ईश्वर का नाम (भजन) करने के लिए निरंतर विनती करो। जो उसको (भगवान् को) जिस किसी विशुद्ध-भाव से पाने को चेष्टा कर रहा है, उसको उसी भाव से आलिंगन करो, और जिसने उसकी महिमा को जान लिया है उसके सत्संग से अपने जीवन को कृतार्थ करो।”

श्रीमद्भागवत गीता में उल्लेख है, कागभुसुंडि जी की कथा है और आधुनिक युग के संत भी वैज्ञानिक आधार पर कहते रहे हैं कि हम अपनी यात्रा इस जन्म में जहां खत्म करते हैं, अगले जन्म में वहीं से शुरू करते हैं। इसलिए आध्यात्मिक यात्रा शुरू करने का कोई समय नहीं होता। जब जागे, तभी सबेरा। क्षय शरीर का होता है, आत्मा अमर है। मां यह बात सबसे कहती थीं। लगभग पांच दशकों तक देश के कोने-कोने में हरि-स्मरण, हरि-संकीर्तन का अलख जगाकर भक्ति की गंगा प्रवाहित करने वाली मां के पास उनके समकालीन साधु-संतों से लेकर राजनीति और दूसरे क्षेत्र के दिग्गजों का आना-जाना लगा रहता था। मां भी नन्हीं बच्ची की तरह सभी आत्मज्ञानी संतों के दर्शन के लिए जाया करती थीं।

परमहंस योगानंद ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “योगी कथामृत” में वर्णन किया हुआ है – मैं पहली बार आनन्दमयी माँ से मिला था तो मसझते देर न लगी कि भीड़ में होते हुए भी वे समाधि की एक उच्च अवस्था में थीं। अपने बाह्य नारी रूप का उन्हें कोई भान नहीं था। उन्हें केवल अपने परिवर्तनातीत आत्म-स्वरूप का भान था। उस अवस्था में वे ईश्वर के एक अन्य भक्त से आनन्द के साथ मिल रही थीं। उनकी यात्रा में देरी होते देख मैं जल्दी ही निकल लेना चाहता था। पर वह बोल पड़ीं, “बाबा! मैं कई युगों बाद इस जन्म* में आपसे पहली बार मिल रही हूँ! इतनी जल्दी तो मत जाइए!” योगानंद जी दरअसल अपनी भतीजा अमिया बोस के आग्रह पर मां से मिलने गए थे। अमिया ने उनसे कहा था – “निर्मला देवी यानी मां के दर्शन किए बिना कृपया भारत से मत जाइए। उनमें अत्यंत तीव्र भक्तिभाव है; सब तरफ वे आनन्दमयी माँ के नाम से विख्यात हैं। मैं उनसे मिली हूँ। अभी हाल ही में वे मेरे छोटे- से नगर जमशेदपुर पधारी थीं। एक शिष्य के अनुरोध पर आनन्दमयी माँ एक मरणासन्न मनुष्य के घर गईं। वे उसकी शय्या के पास खड़ी हो गयींउनके हाथ ने जैसे ही उसके माथे का स्पर्श किया, उसकी घर्र-घर्र बन्द हो गई। उसकी बीमारी तत्क्षण गायब हो गई। वह भी देखकर आनन्दित और विस्मित हो गया कि वह पूर्ण रूप से स्वस्थ हो चुका था।”

विश्व प्रसिद्ध बिहार योग विद्यालय के संस्थापक स्वामी सत्यानंद सरस्वती अक्सर मां के दैवीय स्वरूप में चर्चा करते थे। उन्हें परमहंस की उपाधि मां ने ही दी थी। डा० अलेक्जेंडर लिपस्की परमहंस स्वामी योगानन्द की पुस्तक ‘योगी कथामृत’ पढकर मां की ओर आकर्षित हुए थे। वाराणसी में १९६५ में मां से मिले तो उनके ही होकर रह गए। उन्होंने लिखा कि उनका अनुभव था कि मस्तिष्क की अन्तरतम परतों में भी मां का सहज प्रवेश है। मां की तुलना उन्होंने वृहत आध्यात्मिक चुम्बक से की है, जिसके सामने से अपने को अलग कर पाना कठिन प्रतीत होता है। अपने को एकदम अनपढ़ कहने वाली मा आनन्दमयी के मुख से बड़े बड़े विद्वानों द्वारा पूछे गये गूढ़ प्रश्नों के उत्तर इतनी सहजता, सरलता एवं दृढ़ता से सुनने को मिले कि आश्चर्य हुआ। मां के श्रीमुख से ‘हे भगवान्. और सत्यं ज्ञान अनन्तम् ब्रह्म का कीर्तन उन्हें ईश्वर के प्रेम और आनन्द का उच्छवास प्रतीत हुआ और यह कहने को लिपस्की विवश हो गये कि ‘पृथ्वी में अगर कहीं स्वर्ग है तो यही है, यहीं है, यहीं है।

आम लोगों की कौन कहे, बड़े-बड़े संतों को भी मां परमात्मा की अवतार जैसी लगती थीं। महर्षि दयानंद सरस्वती से रहा न गया। उन्होंने मां से पूछ लिया था, मां तुम कौन हो? कोई कहता है तुम अवतार हो, कोई कहता है तुम आवेश हो, कोई कहता है साधक या बद्ध जीव हो, मुझे यथार्थतः जानने की इच्छा है तुम कौन हो? मां ने कहा, “बाबा, तुम मुझे क्या समझते हो? तुम जो समझते हो मैं वही हूं।” इस उत्तर को ऐसे समझिए। श्रीमद्भागवत गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे पृथानन्दन! जो भक्त जिस प्रकार मेरी शरण लेते हैं, मैं उन्हें उसी प्रकार आश्रय देता हूँ; क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकार से मेरे मार्ग का अनुकरण करते हैं। इस तरह महर्षि दयानंद जी को मां के उत्तर में ही मां के स्वरूप का वास्तविक परिचय मिल गया था। जीवन पर्यंत प्रेम, परोपकार और भक्ति का संदेश देकर लोगों का जीवन धन्य बनाने वाली महान योगिनी को महासमाधि दिवस (27 अगस्त) पर सादर नमन।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

महाशिवरात्रि के आध्यात्मिक आयाम

किशोर कुमार

पृथ्वी के किसी न किसी भू-भाग पर परमाणु संपन्न शक्तियां आमने-सामने हो जाती हैं और मानवता पर खतरा मंडराने लगता है। ऐसे में जरा सोचिए कि वह कौन-सी शक्ति है, जिसकी ऊर्जा बार-बार सृष्टि को विनाश से बचाती है? समुद्र मंथन हुआ था तो अमृत के दावेदार सभी थे। विष पीने के लिए भला कौन तैयार होता? ऐसे में आदियोगी को आगे आना पड़ा। उन्होंने विषपान किया। पर कलियुग में कौन विषपान करे? भगवान शिव आदिगुरू हैं, प्रथम गुरू हैं। उन्हीं से योग शुरू होता है और उन्हीं से गुरू-शिष्य की परंपरा शुरू होती है। जहां कहीं भी योग है, अध्यात्म है और गुरू-शिष्य की परंपरा है, उन सबके मूल में आदिगुरू शिव ही हैं। इसलिए मानना होगा कि उनकी ऊर्जा सर्वत्र है और वही विनाश-लीला से मानवता को बचाती है।

अध्यात्मिक दृष्टिकोण से विचार करें तो शिव कोई व्यक्ति नहीं है। शिव-शक्ति के बारे में जितनी भी कथाएं हैं, उन सबका संबंध मनुष्य की जीवन एवं उसकी चेतना से है। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती शिव-शक्ति के आध्यात्मिक महत्व को समझाते हुए कहते थे कि मनुष्य के शरीर के परे, उसके मन और बुद्धि के परे एक वस्तु और है, जिसे आत्मा या चेतना कहते हैं। चेतना बहुत गहरी चीज है। यह इतना शब्दातीत है कि इसे समझाने के लिए हमें किसी न किसी कहानी का सहारा लेना पड़ता है। उदाहरण के लिए मनुष्य के भीतर दो विपरीत शक्तियां और दो समानार्थी शक्तियां काम करती हैं। विपरीत शक्तियों में एक दिव्य शक्ति है और दूसरी आसुरी। इन दोनों के बीच जो संघर्ष चलता है, उसे ही समझाने के लिए देवासुर संग्राम की कहानी का आश्रय लेना पड़ता है।

तंत्रशास्त्र के मुताबिक शरीर में जो दो समानार्थी शक्तियां हैं, वे हैं शिव यानी पुरूष और प्रकृति यानी देवी या शक्ति। पुरूष का अर्थ है शुद्ध चेतना। यह समस्त वस्तुओं में उसी प्रकार छिपी हुई है, जिस तरह काष्ठ में अग्नि छिपी होती है। शक्ति शरीर के निचले भाग में अवस्थित मूलाधार में सोई हुई है। जब वह जागृत होती है तो सुषुम्ना नाड़ी के मार्ग से ऊपर उठकर सहस्रार में परमशिव से योग करती है। वहीं शिव-शक्ति का मिलन होता है। इस बात को समझाने के लिए ही शिव विवाह की कथा कही जाती है। इस कथा से पता चलता है कि शुद्ध चेतना या पुरूष का योग देवी शक्ति से किस प्रकार करना है। यही योग का मार्ग है। ध्यान साधना का यही मार्ग है। इसलिए ध्यान के समय कल्पना करनी चाहिए कि शुद्ध चेतना को धीर-धीरे हम हिमालय को ओर ले जा रहे हैं।

आध्यात्मिक उत्थान और योग के सर्वाधिक लाभों के लिहाज से शिवरात्रि का बड़ा महत्व है। “मीरा के प्रभु गहर गंभीरा, हृदय धरो जी धीरा। आधी रात प्रभु दरसन दीन्हों, प्रेम नदी के तीरा।।“ परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती मीराबाई के इस पद के जरिए महाशिवरात्रि का महत्व समझाते थे। वे कहते थे कि चेतना के लिए भी दिन, शाम और रात निर्धारित है। जागृत अवस्था में चेतना बाहर की ओर विचरण कर रही होती है तो दिन। इंद्रियों का संबंध बाहर से टूट जाए और केवल विचार रह जाए तो शाम। इंद्रियों का संबंध बाहर से टूट जाए और विचार भी न रहे तो रात। शिवरात्रि में यहीं अंतिम अवस्था रहती है। यानी इस अवस्था में जन्मों-जन्मों की वृत्त्तियों और खराब संस्कारों से मुक्ति पाने का विधान बताया गया है। शिवजी की बारात में भूत-पिशाच की उपस्थिति प्रतिकात्मक है। वे जन्मो की वृत्तियों के प्रतीक हैं। आधी रात को साधना के जरिए उनसे मुक्ति मिलनी होती है। इस लिहाज से शिवरात्रि आध्यात्मिक उत्थान और योग-शक्ति के जागरण का अनुष्ठान है।  

कथा के मुताबिक इसी रात्रि को मानव जाति के कल्याण के लिए, आत्म-रूपांतरण के लिए शिव ने अपनी प्रथम शिष्या पार्वती को एक सौ बारह विधियां बतलाई थी, जो योगशास्त्र के आधार हैं। इसके बाद ही मत्स्येंद्रनाथ का प्रादुर्भाव हुआ। शिष्य गोरखनाथ और नाथ संप्रदाय ने योग का जनमानस के बीच प्रचार किया। इस तरह पाशुपत योग के रूप में हठयोग, राजयोग, भक्तियोग, कर्मयोग आदि से आमजन परिचित हुए। कहा जा सकता है कि योग की जितनी भी शाखाएं हैं, सबका आधार शिव-पार्वती संवाद ही है। इस बात को शांभवी मुद्रा के बारे में उपलब्ध कथा से समझा जा सकता है। कथा के मुताबिक, पार्वती जी ने शिव जी को अपने मन की उलझन बताई। कहा, “स्वामी मन बड़ा चंचल है। एक जगह टिकता नहीं।“ फिर उपाय पूछा, “क्या करूं? किसी विधि समस्या से निजात मिलेगी?”

शिव जी एक सरल उपाय बता दिया – “दृष्टि को दोनों भौंहों के मध्य स्थिर कर चिदाकाश में ध्यान करें। मन शांत होगा, त्रिनेत्र जागृत हो जाएगा। इसके बाद बाकी सिद्धि के लिए कुछ शेष नहीं रह जाएगा।“ आदियोगी ने इस क्रिया को नाम दिया – शांभवी मुद्रा। पार्वती जी का एक नाम शांभवी भी है। ऐसा संभव है कि उन्होंने इस क्रिया का नामकरण अपनी पत्नी के नाम को ध्यान में रखकर और उन्हें खुश करने के लिए किया होगा। कहते हैं कि पार्वती जी ने भ्रूमध्य में आसानी से ध्यान लगाने के लिए बिंदी लगाई थी। तभी से महिलाओं में बिंदी लगाने का चलन शुरू हुआ।

जाहिर है कि शांभवी मुद्रा बेहद प्रभावशाली योग मुद्रा है। “योगी कथामृत” के लेखक और पश्चिमी दुनिया में क्रिया योग का प्रचार करने वाले परमहंस योगानंद से किसी ने पूछ लिया – “क्रियायोग के अतिरिक्त और कोई वैज्ञानिक विधि है, जो साधक को ईश्वर की ओर ले जा सके?” पहमहंस जी बोले, “अवश्य। परमात्मा को पाने का एक पक्का और द्रुतगामी रास्ता है अपने भ्रूमध्य स्थित कूटस्थ चैतन्य पर ध्यान करना।“  पुराणों से लेकर विज्ञान तक की बातों और नए-पुराने योगियों के मंतव्यों से शांभवी महामुद्रा की अहमियत का सहज अंदाज लगाया जा सकता है। साथ ही योग के लिहाज से महाशिवरात्रि की अहमियत को भी समझा जा सकता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग…

भूल जाने की बीमारी हमारे जीवन की आम परिघटना है। पर लंबे समय में विविध लक्षणों के साथ यह लाइलाज अल्जाइमर और अनियंत्रित होकर डिमेंसिया में भी बदल जाती हो तो निश्चित रूप से हमें दो मिनट रूककर विचार करना चाहिए कि हम जिसे सामान्य परिघटना मान रहे हैं, कहीं उसमें भविष्य के लिए संकेत तो नहीं छिपा है। इसलिए विश्व अल्जाइमर दिवस (21 सितंबर) जागरूकता के लिहाज से हमारे लिए भी बड़े महत्व का है। आंकड़े बताते हैं कि भारत में इस रोग से ग्रसित लोगों की संख्या पांच मिलियन है और अगले आठ-नौ वर्षों में मरीजों की संख्या में डेढ़ गुणा वृद्धि हो जानी है। विश्वसनीय इलाज न होना चिंता का कारण है। पर हमारे पास योग की शक्ति है, जिसकी बदौलत हम चाहें तो इस लाइलाज बीमारी की चपेट में आने से बहुत हद तक बच सकते हैं।

किशोर कुमार

अल्जाइमर, डिमेंसिया और सिजोफ्रेनिया जैसी न्यूरोडीजेनरेटिव बीमारियों के मामले में आम धारणा यही है कि ये वृद्धावस्था की बीमारियां हैं। पर विभिन्न स्तरों पर किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि न्यूरोडीजेनरेटिव बीमारियां युवाओं को भी अपने आगोश में तेजी से ले रही हैं। इन बीमारियों की वजह कुछ हद तक ज्ञात है भी तो ऐसा लगता है कि चिकित्सा विज्ञान को विश्वसनीय इलाज के लिए अभी लंबी दूरी तय करनी होगी। लक्षणों के आधार पर इलाज करने की मजबूरी होने के कारण कई बार गलत दवाएं चल जाने का खतरा भी रहता है। इसे एक उदाहरण से समझिए। कोई पैतालीस साल की एक महिला में वे सारे मानसिक लक्षण उभर आए, जो आमतौर पर अल्जाइमर के शुरूआती लक्षण होते हैं। चिकित्सक ने उपलब्ध दवाओं के आधार पर अल्जाइमर का इलाज शुरू कर दिया। लंबे समय बाद चिकित्सकों को अपनी गलती का अहसास हुआ। दरअसल, अल्जाइमर जैसे लक्षण एस्ट्रोजन (स्त्री हार्मोन) के स्तर में भारी गिरावट होने के कारण उभर आए थे। मेनोपॉज से पहले अनेक मामलों में ऐसे हालात पैदा होते हैं।

इन सभी बीमारियों और कुछ खास तरह के हार्मोनल बदलावों के कई लक्षण लगभग एक जैसे होते हैं। मसलन, तनाव, अवसाद और भूल जाना। योग मनोविज्ञान के विशेषज्ञों के मुताबिक इन सारी बीमारियों की असल वजह मानसिक अशांति है। परमहंस योगानंद ने सन् 1927 में दिए अपने व्याख्यान में कहा था, मानसिक अशांति का एक ही इलाज है और वह है शांति। यदि मन शांत रहे तो स्नायविक विकार यानी नर्वस डिसार्डर्स जैसी समस्या आएगी ही नहीं। यह समस्या तो तब आती है, जब भय, क्रोध, ईर्ष्या आदि विकार हमारे जीवन में लंबे समय तक बने रह जाते हैं। मेडिकल साइंस में सिरदर्द का इलाज तो है। पर असुरक्षा, भय, ईर्ष्या और क्रोध का क्या इलाज है? हम विज्ञान के नियमों के आलोक में जानते हैं कि कोई भी शक्ति जितनी सूक्ष्म होती जाती है, वह उतनी ही शक्तिशाली होती जाती है। ऐसे में हमारे मन रूपी समुद्र में विविध कारणों से ज्वार-भाटा उठने लगे तो उसी समय सावधान हो जाने की जरूरत है। इसलिए कि लाइलाज बीमारियों की जड़ यहीं हैं।

सवाल है कि सावधान होकर करें क्या? इस बात को आगे बढ़ाने से पहले थोड़ा विषयांतर करना चाहूंगा। इसलिए कि योग विद्या के तहत मस्तिष्क के मामलों में विचार करने के लिए सहस्रार चक्र को समझ लेना जरूरी होता है। हम सब अक्सर आध्यात्मिक चर्चा के दौरान शिव-शक्ति के मिलन की बात किया करते हैं। मंदिरों के आसपास भक्ति गीत शिव – शक्ति को जिसने पूजा उसका ही उद्धार हुआ… आमतौर पर बजते ही रहता है। मैंने अनेक लोगों से पूछा कि इस गाने का अर्थ क्या है? बिना देर किए उत्तर मिलता है कि शिवजी और पार्वती जी की जो पूजा करेगा, उसे सभी कष्टों से मुक्ति मिल जाएगी। पर तंत्र विज्ञान और उस पर आधारित योगशास्त्र में शिव-शक्ति के मिलने से अभिप्राय अलग ही है। सहस्रार चक्र सिर के शिखर पर अवस्थित शरीर की बहत्तर हजार नाड़ियों का कंट्रोलर है। इनमें चंद्र व सूर्य नाड़ियां भी हैं, जिन्हें हम इड़ा तथा पिंगला के रूप में जानते हैं। इसे ही शिव-शक्ति भी कहते हैं। आधुनकि विज्ञान उसे सूक्ष्म ऊर्जा कहता है। सहस्रार चक्र में शरीर की तमाम ऊर्जा एकाकार हो जाती हैं। यही शिव-शक्ति का मिलन है। यह पूर्ण रूप से विकसित चेतना की चरमावस्था है।

योगशास्त्र के मुताबिक यदि मस्तिष्क की किसी ग्रंथि से जुड़ी नाड़ी का सहस्रार रूपी कंट्रोलर से संपर्क टूट जाता है तो वहां बीमारियों का डेरा बनता है। इसे ऐसे भी समझा जा सकता है। यदि सहस्रार मुख्य सतर्कता अधिकारी है तो नाड़ियां उसके संदेशवाहक। ऐसे में यदि संदेशवाहक किसी कारण अपना काम न करने की स्थिति में हो तो पर्याप्त सूचना के अभाव में मुख्य सतर्कता अधिकारी अपने कर्तव्य का निर्वहन कैसे कर पाएगा? अब आते हैं मुख्य सवाल पर कि भूलने आदि समस्याएं उत्पन्न होने लगी है तो समय रहते क्या करें? इसका सीधा-सा जबाव तो यह है कि वे सारे यौगिक उपाय करने चाहिए, जिनसे आंतरिक ऊर्जा का प्रबंधन होता है।

पर किस उपाय से ऐसा संभव होगा? उपाय कई हो सकते हैं। आमतौर पर ऐसी समस्या के निराकरण के लिए इंद्रियों पर नियंत्रण और चित्तवृत्तियों के निरोध की सलाह दी जाती है। सनातन समय से मान्यता रही है कि चित्तवृत्तियों का निरोध करके मन पर काबू पाया जा सकता है। इस विषय के विस्तार में जाने से पहले यह समझ लेने जैसा है कि चित्तवृत्तियां क्या हैं और उनके निरोध से अभिप्राय क्या होता है? स्वामी विवेकानंद ने इस बात को कुछ इस तरह समझाया है – हमलोग सरोवर के तल को नहीं देख सकते। क्यों? क्योंकि उसकी सतह छोटी-छोटी लहरों से व्याप्त होती है। जब लहरें शांत हो जाती हैं और पानी स्थिर हो जाता है तब तल की झलक मिल पाती है। यही बात मानव-चेतना के स्तरों पर उठने वाली लहरों के मामले में भी लागू है।  

श्रीमद्भागवत गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं – “तू पहले इंद्रियों को वश में करके ज्ञान व विज्ञान को नाश करने वाले पापी काम को निश्चयपूर्वक मार।“ मतलब यह कि योग साधना की बदौलत भ्रांत हुईं इंद्रियों को वश में करके मन का रूपांतरण कर। यानी श्रीमद्भगवत गीता से लेकर महर्षि पतंजलि के योगसूत्रों तक में मन के वैज्ञानिक प्रबंधन पर जो बातें कही गई थीं, वे सर्वकालिक हैं और आज भी प्रासंगिक। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती इन शास्त्रीय संदेशों को स्पष्ट करते हुए सलाह देते थे – “भावना के कारण मन बीमार है तो भक्तियोग, दैनिक जीवन की कठिनाइयों के कारण मन बीमार है तो कर्मयोग, चित्त विक्षेप के कारण, चित्त की चंचलता के कारण मन के अंदर निराशाएं, बीमारियां हैं तो राजयोग औऱ नासमझी या अज्ञान की वजह से मानसिक पीड़ाएं हैं, जैसे धन-हानि, निंदा आदि तो ज्ञानयोग और यदि शारीरिक पीड़ाओं के कारण मन अशांत है तो हठयोग करना श्रेयस्कर है।“

ये सारे उपाय मुख्य रूप से उन लोगों के लिए है, जो स्वस्थ्य हैं या जिनमें बीमारी के शुरूआती लक्षण दिखने लगे हैं। पर गंभीरावस्था के रोगी क्या करें? योगी कहते हैं कि ऐसे लोगों के लिए प्राण विद्या बेहद कारगर साबित हो सकती है। ऋषिकेश में डिवाइन लाइफ सोसाइटी के संस्थापक और बीसवीं सदी के महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती अनेक गंभीर रोगों के इलाज के लिए प्राण विद्या की सिफारिश करते थे। अनेक उदाहरणों से पता चलता है कि इस विद्या के तहत प्राणायाम की शक्ति का उपयोग करने से चमत्कारिक लाभ मिलते हैं। यानी समन्वित योग से ही बात बनेगी। आजकल शारीरिक व मानसिक व्याधियों से निबटने के लिए हठयोग को साधना तो मुमकिन हो पाता है। पर योगशास्त्र की बाकी विद्याओं को आधार बनाकर मन को प्रशिक्षित करना अनेक कारणों से चुनौतीपूर्ण कार्य है, जबकि मानसिक उथल-पुथल के इस दौर में केवल हठयोग से बात नहीं बनने वाली। विश्व अल्जाइमर दिवस के आलोक में योग शिक्षकों औऱ प्रशिक्षकों को निश्चित रूप से मानसिक रोगियों को समन्वित योग के व्यावहारिक पक्षों का पूर्ण लाभ दिलाने की दिशा में ठोस पहल करने हेतु मंथन करना चाहिए।

वैसे, मैं संतों की वाणी और यौगिक ग्रंथों के आधार पर दोहराना चाहूंगा कि यदि मानसिक उथल-पुथल के दौर में समर्थ योगी का सानिध्य न मिल पा रहा हो और दूसरा कोई उपाय समझ में न आ रहा हो, तो भक्तियोग का मार्ग पकड़ लिया जाना चाहिए। संकीर्तन या जप कुछ भी चलेगा। मैं अपनी बात संत कबीर के इन संदेशों के साथ खत्म करता हूं – “नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग; और रसायन छांड़ि के, नाम रसायन लाग” इस दोहा के जरिए कबीरदास जी कहते हैं कि हे प्राणी! उठ जाग, नींद मौत की निशानी है। दूसरे रसायनों को छोड़कर तू भगवान के नाम रूपी रसायनों मे मन लगा। इसके साथ ही वे कहते हैं – “मैं उन संतन का दास, जिन्होंने मन मार लिया।” यानी भक्ति मार्ग पर चलकर चित्त-वृत्तियों का निरोध हो गया।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

मंडे ब्लूज : योग है इस मर्ज की दवा

किशोर कुमार

“मंडे ब्लूज” यानी कार्यदिवस के पहले दिन ही काम के प्रति अरूचि। पाश्चात्य देशों में आम हो चुका यह रोग अब भारतीय युवाओं को भी तेजी से अपने आगोश में ले रहा है। भारत भूमि तो जगत्गुरू शंकाराचार्य, स्वामी विवेकानंद और महात्मा गांधी जैसे आध्यात्मिक नेताओं और कर्मयोगियों की भूमि रही है। फिर मंडे ब्लूज के रूप में पाश्चात्य देशों की अपसंस्कृति अपने देश कैसे पसर गई? स्वामी विवेकानंद की युवाओं से अपील कि “उठो, जागो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य ना प्राप्त हो जाए” तथा “काल करे सो आज कर, आज करे सो अब…” जैसी कबीर वाणी को आत्मसात करने वाले देश की युवा-शक्ति ही राष्ट्रीय चरित्र को बनाए रखने के लिए आध्यात्मिक और राजनैतिक क्रांति का बिगुल बजाती रही हैं। फिर चूक कहां हो रही है कि कर्म बोझ बनता जा रहा है?

इस मर्ज को लेकर कई स्तरों पर अध्ययन किया गया है। मैं उसके विस्तार में नहीं जाऊंगा। पर सभी अध्ययनों का सार यह है कि गलत जीवन शैली और नकारात्मक विचार व व्यवहार मंडे ब्लूज जैसी परिस्थितियों के लिए ज्यादा जिम्मेवार होते हैं। वैदिक ग्रंथों में मानसिक पीड़ाओं को तीन वर्गों में विभाजित किया गया है – आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक। बिहार योग विद्यालय के निवृत परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती समझाने के लिए इसे क्रमश: देवताकृत, परिस्थितिकृत और स्वकृत कहते हैं। जाहिर है कि तीसरे प्रकार के दु:ख के लिए हम स्वयं जिम्मेवार होते हैं और मौजूदा समस्या की जड़ में वही है। हम हर वक्त काम, क्रोध, लोभ, मोह व अहंकार से घिरे होते हैं। कोरोना महामारी कोढ़ में खाज की तरह है। ऐसे में मानसिक पीड़ा और अवसाद होना लाजिमी ही है।

यह समस्या लंबे अंतराल में साइकोसिस और न्यूरोसिस जैसे हालात बनती है। साइकोसिस यानी कोई समस्या न होने पर भी मानसिक भ्रांतियों के कारण हमें लगता है समस्या विकराल है। दूसरी तरफ न्यूरोसिस की स्थिति में समस्या कहीं होती है और हम उसे ढूंढ़ कही और रहे होते हैं। योगशास्त्र में साइकोसिस को माया और न्यूरोसिस को अविद्या कहते हैं। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि प्रेम व घृणा, आकर्षण व विकर्षण, दु:ख व सुख ये सभी मन के इन्हीं दो दृटिकोणों के कारण उत्पन्न होता है। उपनिषदों में भी कहा गया है कि यदि किसी को पत्नी प्यारी लगती है तो इस प्रेम का कारण पत्नी में नहीं, व्यक्ति के स्वंय में है।

परमहंस योगानंद के गुरू युक्तेश्व गिरि मन की शक्ति की व्याख्या करते कहते थे – लक्ष्यहीन दौड़ में शामिल लोग निराश और नाना प्रकार की मनासिक पीड़ाओं के शिकार होते हैं। जबकि मन की शक्ति इतनी प्रबल है कि दृढ़ इच्छा-शक्ति हो और चाहत उस चीज को पाने की हो, तो ब्रह्मांड में नहीं होने पर भी उसे उत्पन्न कर दिया जाएगा। बस, इच्छा ईश्वरीय होनी चाहिए। सवाल है कि क्या इस शक्तिशाली मन का प्रबंधन संभव है और है तो किस तरह? योगशास्त्र में अनेक उपाय बतलाए गए हैं, जिनके अभ्यास से मानव न सिर्फ अवसाद से उबरेगा, बल्कि कर्मयोगी बनकर राष्ट्र के नवनिर्माण में महती भूमिका निभाएगा।  

इसे ऐसे समझिए कि यदि मानव लोहा है तो योग पारस है। इन दोंनों का मेल होते ही कुंदन बनते देर न लगेगी। मानव में वह शक्ति है। बस, योगियों से मार्ग-दर्शन पा कर मन पर नियंत्रण करके अपनी ऊर्जा को सही दिशा देने के प्रति श्रद्धा और इच्छा-शक्ति होनी चाहिए। अष्टांग योग से लेकर कर्मयोग और भक्तियोग तक में अनेक उपाय बतलाए गए हैं, जो अलग-अलग व्यक्तियों के लिए उनकी सुविधा के लिहाज से अनुकूल होंगे। तंत्र-शास्त्र का अद्भुत ग्रंथ है रूद्रयामल तंत्र। उसमें महायोगी शिव कहते हैं कि योग एक ऐसा माध्यम है, जिससे मनुष्य अपने दु:खों से छुटकारा पा सकता है। इस बात को विस्तार मिलता है माता पार्वती के सवाल से। वह शंकर भगवान से पूछती हैं कि चंचल मन को किस विधि काबू में किया जाए? प्रत्युत्तर में महायोगी 112 उपाय बतलाते है और कहते हैं कि इनमें से कोई भी उपाय कारगर है। ये उपाय ही आधुनिक योग में धारणा और ध्यान की प्रचलित विधियां बने हुए हैं।

श्रीमद्भागवतगीता तो अपने आप में पूर्ण मनोविज्ञान और योगशास्त्र ही है। उसके मुताबिक, अर्जुन श्रीकृष्ण से पूछते हैं – हे कृष्ण, मन चंचल है, प्रमथन करने वाला है, बली और दृढ़ है। इसका निग्रह वायु के समान दुष्कर है। जबाव में श्रीकृष्ण ने कर्मयोग और भक्तियोग के जो उपाय बतलाए उसके लाभों को आधुनिक विज्ञान भी संदेह से परे मानता है। महर्षि पतंजलि के अष्टांगयोग के चमत्कारिक प्रभावों से भी हम सब वाकिफ हैं। असल सवाल ऐसी परिस्थिति में व्यक्ति के अनुकूल योगाभ्यास के चुनाव का है। श्रीमद्भागवत महापुराण में कथा है कि नारद पृथ्वीलोक पर विचरण करते हुए यमुनाजी के तट पर पहुंचे तो उनका सामना भक्ति से हो गया, जो अपने दोनों पुत्रों ज्ञान और वैराग्य की पीड़ाओं से बेहाल थी।

कर्नाटक में पली-बढ़ी और गुजरात में वृद्धावस्था प्राप्त करके जीर्ण-शीर्ण हुई भक्ति के पांव वृंदावन की धरती पर पड़ते ही पुन: सुरूपवती नवयुवती बन गई थी। पर उसके पुत्र अधेर और रोगग्रस्त ही रह गए थे। यही उसके विषाद का कारण था। भक्ति नारद जी से इसकी वजह और इस स्थिति से उबरने के उपाय जानना चाहती थी। नारद जी ने ध्यान लगाया और उन्हें उत्तर मिल गया। उन्होंने भक्ति को बतलाया कि कलियुग के प्रभाव के कारण ज्ञान और वैराग्य निस्तेज पड़े हैं। कलियुग में मानव भक्ति तो करता है, पर उसके जीवन में न तो ज्ञान यानी आत्म-दर्शन का स्थान है और न ही वैराग्य का। इसलिए श्रीमद्भागवत कथा ज्ञान महायज्ञ से ही बात बनेगी। दैवयोग से ऐसा ही हुआ।    

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती से किसी साधक ने पूछ लिया कि मन अशांत रहता है और काम में जी नहीं लगता, क्या करें?  परमहंस जी ने जबाव दिया – आसन-प्राणायाम से बीमारी दूर होती है, प्रत्याहार-ध्यान से आत्म-सम्मोहन होता है। इसलिए ये स्थायी उपाय नहीं हैं। यदि स्थायी उपाय चाहिए तो भक्तियोग और कर्मयोग का सहारा लेना होगा। कलियुग में ये ही उपाय हैं। भक्तियोग के तहत संकीर्तन, जप, अजपाजप आदि। इतना ही काफी है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

भक्ति-भावना से होगा चित्त वृत्तियों का निरोध

अवसाद से ग्रसित या विभिन्न प्रकार के उलछनों में फंसे जो लोग अष्टांग योग की साधनाओं यथा प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा आदि के जरिए चित्त को एकाग्र करने की स्थिति में नहीं होतें, वे प्रार्थना, संकीर्त्तन आदि के जरिए भक्तियोग के मार्ग पर सहजता से बढ़कर चित्त को एकाग्र कर सकते हैं। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि हठयोग, राजयोग, क्रियायोग या अन्य योगों का अभ्यास लोग इसलिए करते हैं कि उनमें भक्ति नहीं है। ये सारी क्रियाएं भक्तिभाव जागृत करने के लिए ही जाती हैं। ध्यान रहे कि इस योग-कर्म का कर्म-कांड से कोई संबंध नहीं है।

कोरोनाकाल में शारीरिक और मानसिक रूप से अपने को स्वस्थ्य रखने और अवसाद से बचने के लिए सारे उपाय किए। बात न बनी। मर्ज बढ़ता गया ज्यों ज्यों दवा की। इसलिए कि जीवन इतनी जटिलताएं हैं कि अशांत मन को किसी बात से सांत्वना नहीं मिल पाती। चाहे आसन हो या प्राणायाम या फिर ध्यान, कोई भी योगाभ्यास फलित नहीं होता। कई बार स्थिति इतनी विकराल होती है कि उसकी परिणति आत्म-हत्या के रूप में सामने आती है।  

विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक कोरोना महामारी के कारण उत्पन्न समस्याओं की वजह से दक्षिण-पूर्व एशिया में प्रति 100,000 लोगों में 16.5 आत्महत्याएं हो रही हैं। इनमें भारत का योगदान सर्वाधिक है। अवसादग्रस्त मरीजों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। भारत के योगियों ने ऐसे लोगों को संकट से निकलने के लिए अनेक उपाय बतलाए। ध्यान साधना पर खूब जोर दिया गया। सजगता के विकास और मन की एकाग्रता के लिए सरल उपाय बतलाए गए। पर अनेक लोगों को इससे बात बनती नहीं दिख रही। आम शिकायत है कि जीवन में समस्याओं का इतना समावेश हो चुका है कि मन स्थिर होता ही नहीं।  

पुराणों पर गौर करें तो पता चलता है कि मृत्युलोक में मानव जाति को विकट समस्याओं से बार-बार गुजरना पड़ता रहा है। पर संतों की युक्तियों से मानव जाति का उद्धार होता रहा है। रूद्रयामल तंत्र की रचना ही पार्वती जी की मानसिक बेचैनी की वजह से हो गई। आदियोगी शिव ने मन पर काबू करके अभीष्ट की सिद्धि के लिए इतने उपाय सुझाए कि प्रत्याहार, धारणा और ध्यान से लेकर मोक्ष तक की बात हो गई। संत कबीर कहा करते थे – मैं उस संतन का दास जिसने मन को मार लिया। पर आधुनिक युग में मन को मार लेना आम आदमी के लिए चुनौती भरा कार्य बना हुआ है। अंधकार में डूबा मन अपनी जिद पर अड़ा है। पल भर में दुनिया की सैर करता है।

दिनो-दिन ऐसी परिस्थितियों का निर्माण हो रहा है कि हम मल्टी साइकिक होते जा रहे हैं। सुबह कुछ तय करो, शाम होते-होते विचार बदल जाता है। योग की महत्ता समझने वाले मानते हैं कि ध्यान को उपलब्ध होने से ही बात बनेगी। पर उनकी एकांतवास की चाहत पूरी नहीं हो पाती। हिमालय में भी नहीं। कही पढ़ा था कि प्रसिद्ध अमरीकी लेखक और प्रेरक सेम्युअल लेन्गहोर्न क्लेमेन्स, जो मार्क ट्वेन के नाम से ख्यात हुए थे, से किसी मित्र ने पूछ लिया – आपका आज का व्याख्यान कैसा रहा? ट्वेन ने पलट कर सवाल कर दिया – कौन-सा व्याख्यान? मित्र ने कहा – आज आपने एक ही व्याख्यान तो दिया है, उसी की बात कर रहा हूं। मार्क ट्वेन ने इसका जो उत्तर दिया, उससे आदमी के अनियंत्रित मन को आसानी से समझा जा सकता है। उसने कहा – “मैंने आज तीन व्याख्यान दिए। एक तो मैंने व्याख्यान देने से पहले अपने मन में व्याख्यान दिया। एक व्याख्यान लोगों के बीच दिया और तीसरा व्याख्यान अभी दे रहा हूं।“ यानी मन के भीतर इतना शोर-गुल वाला बाजार सजा हुआ है तो चित्त की एकाग्रता की बात बेमानी होगी ही।

फिर हमें बैठने भी तो नहीं आता। बैठने आ जाए तो भी कुछ बात बने। कुछ रास्ता निकले। हम बैठते हैं इस तरह कि शारीरिक ऊर्जा का प्रवाह गलत दिशा में होता है। यह स्थिति मन को अशांत बनाने में उत्प्रेरक की भूमिका निभाती है। मैंने पिछले लेख में सिद्धासन की चर्चा की थी। बताया था कि सिद्धासन प्राण-शक्ति को, शारीरिक ऊर्जा के प्रवाह को मूलाधार से सहस्रार की ओर ले जाने में किस तरह बेहतर जरिया बनता है। योग के वैज्ञानिक संत कहते रहे हैं कि सिद्धासन न लगे तो आदमी रीढ़ सीधी करके सुखासन में ही बैठ जाएं और अपने श्वासों के प्रवाह पर ध्यान देने की कोशिश कर ले तो चीजें बदल जा सकती हैं। इसलिए कि इस स्थिति में शरीर की ऊर्जा कम से कम बर्बाद होगी तो उस ऊर्जा का दिशांतरण करना आसान होगा। योग का सारा खेल ऊर्जा की दिशा बदलने को लेकर है।      

पर ऐसा करना भी संभव न हो तो सवाल उठना लाजिमी है कि आदमी दूसरा कौन-सा मार्ग अपनाए कि अंधकार से प्रकाश की ओर यात्रा हो सके?  संतों की मानें तो आधुनिक युग में चित्त की एकाग्रता के लिए भक्तियोग का संकीर्त्तन आसान भी है और असरदार भी। अवसाद से ग्रसित या विभिन्न प्रकार के उलछनों में फंसे जो लोग अष्टांग योग की साधनाओं यथा प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा आदि के जरिए चित्त को एकाग्र करने की स्थिति में नहीं होतें, वे प्रार्थना, संकीर्त्तन आदि के जरिए भक्तियोग के मार्ग पर सहजता से बढ़कर चित्त को एकाग्र कर सकते हैं।

भक्ति योग के सन्दर्भ में आदर्श योगी किसे कहेगे? अर्जुन के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए श्री कृष्ण श्रीमद्भगवद गीता में कहते हैं –

मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः ॥१२- २॥

“जो व्यक्ति अपना मन सिर्फ मुझमें लगाता है और मैं ही उनके विचारों में रहता हूँ, जो मुझे प्रेम और समर्पण के साथ भजते हैं, और मुझ पर पूर्ण विश्वास रखते हैं, वो उत्तम श्रेणी के होते हैं। ”

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि हठयोग, राजयोग, क्रियायोग या अन्य योगों का अभ्यास लोग इसलिए करते हैं कि उनमें भक्ति नहीं है। ये सारी क्रियाएं भक्तिभाव जागृत करने के लिए ही जाती हैं। पर आदमी के भीतर भक्ति का सही दृष्टिकोण है तो कुछ भी करने की जरूरत नहीं। भक्त के जीवन में प्रेम की अभिव्यक्ति होती है। चाहे वह प्रेम परमात्मा के लिए हो या फिर अपने चारों तरफ के लोगों के लिए।

महान योगी और योगी कथामृत के लेखक परमहंस योगानंद की बातों से इस बात की पुष्टि होती है। वे कहा करते थे, “अनेक लोग जीवन की समस्याओं से घबरा जाते हैं। अवसादग्रस्त हो जाते हैं। मेरे जीवन में जब भी ऐसी परिस्थितियों का निर्माण हुआ, मैंने सदा यह प्रार्थना की है कि हे प्रभु, आपकी शक्ति की मुझमें वृद्धि हो। मुझे सदा सकारात्मक चेतना में रखना। ताकि मैं आपकी सहायता से अपनी कठिनाइयों पर सदा विजय प्राप्त कर सकूं। यकीनन प्रार्थना फलित होती गई। प्रार्थना में बड़ी शक्ति है। श्रद्धा की तीब्रता जितनी अधिक होती है, प्रार्थना उतनी ही तीब्रता से फलित होती है।“ चालीस के दशक में कही गई यह बात कोरोनाकाल में बेहद प्रासंगिक है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

हरे कृष्ण हरे राम मंत्र की शक्ति, विवादों से कहां दबती

एसी भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद के श्रीकृष्ण भावनामृत अभियान और  इंटरनेशनल सोसाइटी फॉर कृष्णा कॉन्शियसनेस (इस्कॉन) का विवादों से नाता पुराना है। पश्चिमी देशों में बीते चार सालों से एक बार फिर मीडिया ने इस आंदोलन के विरूद्ध अभियान ही चला रखा है। पर शायद पहली बार है कि भारत में किसी शंकराचार्य ने इस्कॉन को घेरा है। शंकराचार्य स्वरूपानंद के मुताबिक इस्कॉन के मंदिरों की कमाई अमेरिका भेजी जा रही है, क्योंकि इस्कॉन भारत में नहीं बल्कि अमेरिका में पंजीकृत संस्था है। यह विवाद ऐसे समय में छिड़ा हुआ है जब एसी भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद की 124वीं जयंती पर इस्कॉन परिवार जश्न के मूड में है।  

अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद के परलोक सिधाने के चार दशक बाद भी हरे कृष्ण, हरे राम के रूप में पूरी दुनिया में ख्यात श्रीकृष्ण भावनामृत अभियान की चमक बरकरार है। इंटरनेशनल सोसाइटी फॉर कृष्णा कॉन्शियसनेस (इस्कॉन) शनै-शनै ही सही, विस्तार पा रहा है। यह आलम तब है, जब इस अभियान को नेतृत्व देने के लिए श्रील स्वामी प्रभुपाद जैसा अलौकित शक्ति वाला ऊर्जावान आध्यात्मिक नेता नहीं है। दूसरी तरफ पश्चिमी जगत का मीडिया लगातार हमलावर बना रहता है। दुनिया भर के साठ से ज्यादा देशों में इस्कॉन की मजबूत उपस्थिति और अनुयायियों की संख्या में इजाफा देखकर ऐसा लगता है मानों कोई अदृश्य शक्ति सब कुछ संचालित कर रही है।

Shril Prabhupada

श्रीकृष्णभावनामृत ही मौलिक चेतना है। अवांछनीय उपाधियों से आवृत्त चेतना को स्वच्छ करना होगा। ऐसा होते ही चेतना श्रीकृष्णभावनामृत में परिणत हो जाएगा। यह भक्ति मार्ग है। कलियुग में यही श्रेष्ठ है।

चार साल पहले सन् 2016 में जब इस्कॉन की स्वर्ण जयंती दुनिया भर में भव्यता के साथ मनाई जा रही थी तो पश्चिम का मीडिया यह बताने में जुटा हुआ था कि इस्कॉन किस तरह अपना असर खो रहा है और श्रीकृष्ण भावनामृत अभियान बेहद कमजोर हो चुका है। इसके साथ ही लिंगभेद की अनेक कहानियां उछाली गई थीं। वह सिलसिला अब भी जारी है। पर इन सब से अप्रभावित श्रीकृष्ण भावनामृत अभियान अपने मूलभूत सिद्धांतों की वैज्ञानिकता मनवाने में सफल होता दिख रहा है। इस लेख में इन तमाम बातों विस्तार दिया जाएगा। पर पहले श्रीकृष्ण भावनामृत अभियान के प्रणेता और इस्कॉन के संस्थापक अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद की बात। उन्होंने यदि अपना भौतिक शरीर न छोड़ा होता तो 1896 में कलकत्ता में जन्में श्रील प्रभुपाद 1 सितंबर को 124 वर्ष के हो गए होतें। 

भक्त के अद्भुत भाव: श्रीचैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ मंदिर में गरूड़स्तंभ के पास खड़े होकर बड़ी तन्मयता से आरती गा रहे थे। एक स्थनीय महिला भी भगवान के दर्शन करना चाहती थी। पर भीड़ इतनी कि जगह नहीं मिल पा रही थी। उसने तरकीब निकाली। गरूड़स्तंभ पर चढ़ गई और एक पांव चैतन्य महाप्रभु के कंधे पर रखकर आरती देखने लगी। बाकी भक्तों की आपत्ति पर उस महिला को अपनी गलती का अहसास हुआ तो वह तुरंत नीचे उतर गई और महाप्रभु के चरण पकड़ लिए। चैतन्य महाप्रभु ने कहा – अरे, तुम यह क्या कर रही हो? मुझे तो तुम्हारे चरणों की वंदना करनी चाहिए ताकि तुम जैसा भक्तिभाव मैं भी प्राप्त कर सकूं।

कोई व्यक्ति 69 साल की उम्र में समुद्री मार्ग से अमेरिका जाए और एक मलिन बस्ती में अनजान लोगों और क्राइस्ट को मामने वाले लोगों के बीच अपनी जगह बनाकर अपने श्रीकृष्ण भावनामृत अभियान को जनांदोलन जैसा बना दे, यह फिल्मों में तो संभव है। पर व्यवहार रूप में भी ऐसा ही होना कम हैरान करने वाली बात नहीं है। श्रील प्रभुपाद ने अपने अदम्य साहस और अलौकिक प्रतिभा की बदौलत असंभव को संभव कर दिखाया था। वे 1965 में अमेरिका गए थे। साल पूरा होते-होते अंतर्राष्ट्रीय श्रीकृष्ण भावनामृत संघ की स्थापना की। इसी बैनर तले भक्तियोग आंदोलन शुरू किया। गोरे युवक-युवतियों का इस आंदोलन के प्रति बढता आकर्षण चर्च के धार्मिक नेताओं को परेशान करने लगा था। मीडिया हमलावर हो गया था। ऐसे में श्रील प्रभुपाद कदम-कदम पर हरे कृष्ण हरे राम…मंत्र-शक्ति व संकीर्तन की वैज्ञानिकता साबित करते हुए और तर्कों व तथ्यों के आधार पर यह बताते हुए कि कृष्ण और क्राइस्ट एक ही परमात्मा के अलग-अलग नाम हैं, आगे बढ़ते चले गए थे।

नदिया में राजा कृष्णानंद दत्त के 7वें पुत्र केदारनाथ दत्त अपनी अलौकिक शक्ति के कारण श्रील भक्तिविनोद ठाकुर के रूप में ख्यात हुए। उन्होंने संकीर्तन आंदोलन के अद्वितीय महत्व को समझा और गौड़ीय वैष्णव परंपरा को पुनर्जीवित किया।

श्रील प्रभुपाद को अभियान के शुरूआती दिनों में एक तरफ श्रीकृष्ण और हिंदू धर्म के बीच के संबंधों पर सफाई देनी होती थी तो दूसरी तरफ आत्मा-परमात्मा पर शास्त्रार्थ करना होता था। बाद के दिनों में उनके आंदोलन को बड़े स्तर पर ऐसी स्वीकार्यता मिली कि वह अमेरिका और यूरोप सहित साठ से ज्यादा देशों में छा गया था। श्रील प्रभुपाद श्री चैतन्य महाप्रभु की शिष्य परंपरा में महान वैष्णव आचार्य श्रील भक्तिविनोद ठाकुर के पुत्र श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर के शिष्य थे। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर को आधुनिक युग में श्रीचैतन्य महाप्रभु के भक्ति आंदोलन को पुनर्जीवित करने का श्रेय जाता है। वे सरकारी सेवक थे। पर श्रीकृष्ण और उनके उपासक श्रीचैतन्य महाप्रभु से बेहद प्रभावित थे। वे उनके भक्ति आंदोलन को बढ़ाने के लिए इस तरह ब्याकुल रहते थे, मानों उनका जन्म इसी काम के लिए हुआ हो। 

दैवीय शक्ति वाले भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर श्रील भक्तिविनोद ठाकुर के पुत्र और श्रील भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद के गुरू थे। कथा है कि जब वे शैशवावस्था में थे तो रथ यात्रा के दौरान भगवान जगन्नाथ का रथ उनके घर के सामने तब तक रूका रहा जब तक कि उन्हें दर्शन नहीं करा दिया गया था।

उनकी पदस्थापना डिप्टी मजिस्ट्रेट के रूप में जगन्नपुरी में हुई तो मंदिर की सेवा में जुट गए थे। वे श्रीचैतन्य महाप्रभु के भक्ति आंदोलन को गति देना चाहते थे। पर अकेले इस काम को कर पाने में असमर्थ पा रहे थे। एक दिन उन्हें कुछ आभास हुआ और वे जगन्नाथ मंदिर में अवस्थित विमला देवी की प्रतिमा के समक्ष प्रस्तुत होकर अलौकिक शक्ति वाले पुत्र की इच्छा व्यक्त कर दी। बात आई गई हो गई। कुछ समय बाद यानी 6 फरवरी 1874 को उन्हें पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई तो उसका नाम विमला देवी के नाम पर विमला प्रसाद रख दिया। कुछ समय बाद एक चमत्कार हुआ। जगन्नाथ जी की रथयात्रा निकाली तो रथ अपने आप श्रील भक्तिविनोद ठाकुर (तब उन्हें केदारनाथ दत्त के नाम से जाना जाता था) के घर के सामने रूक गया। तीन दिनों तक रूका रहा। कितने तकनीशियनों का दिमाग लग गया कि रथ आगे बढ़ क्यों नहीं रहा है। पर बात नहीं बनी थी। फिर श्रील भक्तिविनोद ठाकुर को कुछ आभास हुआ। उन्होंने अपने नवजात शिशु को जगन्नाथजी के विग्रह से जैसे स्पर्श कराया, शिशु पर एक माला गिरा और रथ चल पड़ा था। वही शिशु आगे चलकर चौसठ गौड़ीय मठों के संस्थापक श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर के रूप में मशहूर हुए थे। उन्हीं की प्रेरणा से अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद पश्चिमी दुनिया को कृष्णभक्ति का पाठ पढ़ाने के लिए वृद्धावस्था में अमेरिका कूच कर गए थे।

श्रील प्रभुपाद के बेहतरीन ग्रंथों की वजह से श्रीकृष्णभावनामृत अभियान को काफी बल मिला था। सच कहिए तो उन ग्रंथों ने उत्प्रेरक का काम किया था। मूल रूप से अंग्रेजी में लिखे गए ग्रंथों के अनेक भाषाओं में अनुवाद किए गए।

अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद जब अमेरिका पहुंचे थे तो उनके पक्ष में कुछ बातें थीं, जिनसे प्रकारांतर से उन्हें मदद मिली होगी। पहला तो यह कि स्वामी विवेकानंद के कारण अमेरिका की धरती भक्ति आंदोलन के लिए बंजर नहीं रह गई थी। श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती का कृष्ण भक्ति साहित्य अमेरिका के पुस्तकालयों तक पहुंच चुका था। श्रील प्रभुपाद से उम्र में कोई तीन वर्ष बड़े पहमहंस योगानंद क्रियायोग का प्रचार करने 1920 में ही अमेरिका चले गए थे। यानी श्रील प्रभुपाद से 45 साल पहले। वे योग और अध्यात्म के दृष्टिकोण से उस जमीन को उर्वर बनाने के लिए बड़े पैमाने पर काम कर रहे थे। साथ ही धार्मिक अवरोधों को दूर करने के लिए लोगों के मन में बात बैठाते जा रहे थे कि श्रीमद्भगतवत गीता और बाइबिल की बातें और उनके संदेश प्रकारांतर से एक ही हैं। श्रीकृष्ण के भौतिक शरीर धारण करने के बाद की परिस्थितियां और ईशा मसीह का जीवन लगभग एक जैसा है। दूसरी तरफ साठ के दशक के प्रारंभ में ही महर्षि महेश योगी के भावातीत ध्यान का जादू अमेरिकियों पर काम करने लगा था। स्वामी सत्यानंद सरस्वती के वैज्ञानिक योग की बातें तथा नाम संकीर्तन व मंत्रयोग की महत्ता भी अमेरिका और यूरोप के लोग लोग समझने लगे थे।

Biggest iskon temple of Delhi - Reviews, Photos - ISKCON Temple Delhi -  Tripadvisor

इस्कॉन मंदिर, नई दि्ल्ली, जहां प्रतिदिन एक-दो-तीन हजार नहीं, पूरे डेढ़ लाख लोगों का खाना बन रहा है। वह भी तेल नहीं, गाय के शुद्ध घी से। दिल्ली के द्वारका स्थित इस्कॉन मंदिर में प्रतिदिन सात विधानसभा क्षेत्रों के निवासी डेढ़ लाख लोगों का पेट भर रहा है

आजतक, न्यूज चैनल

परमहंस योगानंद अमेरिकी नागरिकों को बताते थे कि जीसस ने शैतान पर विजय पाई थी तो कृष्ण ने कालिया राक्षस पर विजय पाई। जीसस ने एक जहाज में बैठे अपने भक्तों को बचाने के लिए समुद्र के तूफान को रोक दिया था तो कृष्ण ने अपने भक्तों और उनके पशुओं को प्रलयंकारी वर्षा में डूबने से बचाने के लिए गोवर्धन पर्वत को एक छाते की तरह उनके ऊपर उठा लिया था। जीसस की मैरी, मार्था और मैरी मैगडेलन जैसी महिला शिष्याएं थीं तो कृष्ण की महिला शिष्य़ाओं राधा और गोपियों (ग्वालनों) ने भी उसी प्रकार की दिव्य भूमिकाएं निभाईं। जीसस को कीलें ठोक कर सलीब पर चढ़ा दिया गया था। दूसरी तरफ कृष्ण एक शिकारी के तीर से प्राणघातक रूप से घायल हो गए थे। एक ने समाज के भगवद्गीता दिया तो एक ने बाइबिल। आदि आदि।

जीसस ने शैतान पर विजय पाई थी तो कृष्ण ने कालिया राक्षस पर विजय पाई। जीसस ने एक जहाज में बैठे अपने भक्तों को बचाने के लिए समुद्र के तूफान को रोक दिया था तो कृष्ण ने अपने भक्तों और उनके पशुओं को प्रलयंकारी वर्षा में डूबने से बचाने के लिए गोवर्धन पर्वत को एक छाते की तरह उनके ऊपर उठा लिया था। जीसस की मैरी, मार्था और मैरी मैगडेलन जैसी महिला शिष्याएं थीं तो कृष्ण की महिला शिष्य़ाओं राधा और गोपियों (ग्वालनों) ने भी उसी प्रकार की दिव्य भूमिकाएं निभाईं। जीसस को कीलें ठोक कर सलीब पर चढ़ा दिया गया था। दूसरी तरफ कृष्ण एक शिकारी के तीर से प्राणघातक रूप से घायल हो गए थे। एक ने समाज को भगवद्गीता दिया तो एक ने बाइबिल।

परमहंस योगानंद

अध्यात्म के दृष्टिकोण से इतनी जमीन तैयार होने के बावजदू श्रील स्वामी प्रभुपाद को विशेष राहत न थी। उन्हें धर्म परिवर्तन कराने आए संत के तौर पर देखा जाता था। सैंडी निक्सन अमेरिका के बड़े पत्रकार थे। उन्होंने स्वामी प्रभुपाद से पूछा था कि श्रीकृष्णभावनामृत और क्राइस्टभावनामृत में क्या अंतर है? कृष्ण भक्त बनकर हम समाज की बेहतर सेवा किस तरह कर सकते हैं? क्या यह अभियान जाति व्यवस्था को जागृत करने का जरिया नहीं है? महिलाओं के आध्यात्मिक जीवन के लिए इस आंदोलन में कोई जगह है या नहीं? आदि आदि। इसी तरह के सवाल अनेक पत्र-पत्रिकाओं के पत्रकार अक्सर किया करते थे। श्रील प्रभुपाद सभी प्रश्नों के तर्कसम्मत उत्तर देते थे। वे कहते थे कि विभिन्न रूपो में कृष्ण प्रेम का तत्व सबके जीवन में पहले से मौजूद है। महामंत्र हरे कृष्ण हरे कृष्ण, हरे राम हरे राम…… श्रीकृष्णभावनामृत को जागृत कर देता है। तभी जो लोग भगवान कृष्ण से अनजान हैं, वे लोग भी हरे कृष्ण हरे कृष्ण, हरे राम हरे राम अभियान को लेकर दीवाने हुए जा रहे हैं। उन्हें समझ में आ गया कि संकीर्तन विज्ञान है औऱ इससे उत्पन्न स्पंदन स्नायुओं को आराम पहुंचाता है। इससे मन का नियंत्रण और प्रबंधन होता है। रही बात क्राइस्टभावनामृत की वह भी कृष्णभावनामृत ही है। जो लोग जीसस के आदेशों का पालन नहीं करते वे कृष्णभावनामृत तक नहीं पहुंच पातें।

यौगिक परंपरा में कहा गया है कि हठयोग और राजयोग में आधारभूत प्रशिक्षण प्राप्त किए बिना मंत्र योग के प्रयोग से चक्रों औऱ कुंडलिनी को जागृत करना संभव है।

श्रील प्रभुपाद अमेरिका के लोगों को समझातें कि यह भ्रांति दूर होनी चाहिए कि गीता में जाति की बात भी है। श्रीमद्भगवत गीता में समाज के चार वर्णों की परिभाषा दी गई है। वे हैं – ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य और शूद्र। मनुष्य की योग्यताओं के मुताबिक उनके वर्ण बतलाए गए हैं। जाति की बात कहीं नहीं है। श्रीकृष्णभावनामृत अभियान स्त्रियों और पुरूषों के बीच समानता की वकालत करता है। लिंगभेद की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। उन्हें लोगों की आशंकाओं को दूर करने के लिए यहां तक कहना पड़ता था – “मैं यह शरीर नहीं हूं, मै भारतीय नहीं हूं….आपलोग अमेरिकन नहीं हैं…हम सब आत्मा हैं।“ पर जब उन्होंने 1968 में मैसाच्युसेट्स इंस्टीच्यूट ऑफ टेक्नालॉजी के छात्रों को संबोधित किया तो उनकी वैज्ञानिक बातों के आगे सभी नतमस्तक थे। उन्होंने अपने संबोधन में सवाल किया था – यद्यपि आपके पास ज्ञान के अनेकानेक विभाग हैं। पर एक मृत एवं जीवित शरीर में अंतर की खोज करने के उद्देश्य पर आधारित विभाग कहां है? फिर जबाव का प्रतीक्षा किए बिना बोलते गए थे – आधुनिक विज्ञान यद्यपि देह की यांत्रिक कार्य-प्रणाली को समझने में विकसित हो चुका है। पर वह देह को सजीव रखने वाले चिन्मय स्फुलिग (आत्मा) के विषय में अध्ययन करने के लिए बहुत कम ध्यान देता है। जबकि आध्यात्मिक शक्तियों का विकास करके आत्मा का अनुभव किया जा सकता है। इसके साथ ही उन्होंने इसके पक्ष में कई वैज्ञानिक तथ्य प्रस्तुत किए थे।

जगन्नाथ जी की रथयात्रा निकाली तो एक घर के सामने रथ रूक गया। तीन दिनों तक रूका रहा। कितने तकनीशियनों का दिमाग लग गया। पर बात नहीं बनी थी। एक नवजात शिशु को जगन्नाथजी के विग्रह से जैसे स्पर्श कराया, शिशु पर एक माला गिरा और रथ चल पड़ा था। वही शिशु आगे चलकर चौसठ गौड़ीय मठों के संस्थापक श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर के रूप में मशहूर हुए थे।

अमेरिका और यूरोप के युवाओं को उनके वैज्ञानिक तर्क सही मालूम पड़े और वे श्रीकृष्णभावनामृत अभियान से जुड़ते चले गए थे। पांच दशक बाद पश्चिम का कुछ मीडिया घराना इस अभियान के विरोध में मुखर हुआ है और साबित करने की कोशिश की जाती है कि श्रील प्रभुपाद महिलाओं को इस्कॉन में महती भूमिकाएं देने के पक्ष में नहीं थे। लिंगभेद के इसी सिद्धांत के कारण महिलाएं अपने को आंदोलन में उपेक्षित महसूस करती हैं, जबकि हकीकत ऐसा नहीं है। इस्कॉन के विशाखापत्तनम शाखा में निताई सेविनी माता जी गुरूत्तर भूमिका निभा रही हैं। और भी जगहों पर महिलाएं गुरूत्तर भूमिका में हैं। इसलिए मीडिया की बातें असरहीन साबित हो रही हैं और इस्कॉन की दुनिया भर में जादू बरकरार है। स्वामी प्रभुपाद की कोशिशों के कारण मात्र दस वर्ष के अल्प समय में ही समूचे विश्व में 108 मंदिरों का निर्माण हो चुका था। इस समय पूरे विश्व में करीब  400 इस्कॉन मंदिर हैं। श्रील प्रभुपाद और गौड़ीय वैष्णव परंपरा को मुकाम दिलाने वाले अन्य सिद्ध संतों के प्रति इससे बड़ी श्रद्धांजलि और क्या होगी? 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।) 

इस शताब्दी का विज्ञान है भक्ति मार्ग

यह भक्ति की शताब्दी है। भक्ति भावना और भक्ति योग पर जोर होगा। वैज्ञानिक अनुसंधानों के परिणाम इसके आधार होंगे। वैज्ञानिक उत्प्रेरक की भूमिका में होंगे। उन्होंने अब तक पदार्थ पर शोध किए, उनकी तकनीकें विकसित की। अब वे भावनाओं, विचारों, संवेदनाओं और समर्पण के क्षेत्र में काम करेंगे। आधुनिक यौगिक व तांत्रिक पुनर्जागरण के प्रेरणास्रोत और 20वीं सदी के महानतम संत परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती को ब्रह्मलीन होने से पहले ऐसी झलक मिली थी। उन्होंने दावे के साथ कहा था कि ऐसा हो कर रहेगा और यह विध्वंस की ओर बढ़ रही दुनिया के लिए शुभ है। उनके संन्यास दिवस (12 सितंबर) पर प्रस्तुत है यह आलेख।

“अचानक मुझे नई शताब्दी की घटनाओं की झलक मिली है। इस शताब्दी में योग नेपथ्य में चला जाएगा, भक्ति की भूमिका प्रधान होगी। भक्ति यानी श्रद्धा, प्रेम, केवल विशुद्ध प्रेम। यह अवश्य घटित होगा, एक मान्यता के रूप में नहीं, बल्कि विज्ञान के रूप में।“ योग की प्राचीन पद्धति को आधुनिक विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने वाले 20वीं सदी को महानतम संत और बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस सत्यानंद सरस्वती कोई तीन दशक पहले सत्संग करते हुए प्रसंग बदलकर इस बात को इस तरह कहने लगे थे, मानों उन्हें उसी क्षण 21वीं शताब्दी में भक्ति युग के आगमन की झलक मिली हो। मौजूदा समय में उनका भौतिक शरीर नहीं है। पर उनकी बात विविध रूपों में हकीकत में तब्दील होती दिख रही है।

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती के संन्यास के 73 साल पूरे हो गए। उन्हें 12 सितंबर 1947 ऋषिकेश में स्वामी शिवानंद सरस्वती ने संन्यास दीक्षा दी थी। इससे जुड़ी एक रोचक कहानी है, जो देश के विभाजन से पहले की है। वे अपने गुरू की पुस्तकों के प्रकाशन के सिलसिले में लाहौर में थे। तभी सांप्रदायिक दंगा भड़क गया। दंगाइयों की ज्यादती से इतने दु:खी हुए कि संन्यास-मार्ग से अलग रास्ता बनाने की इच्छा बलवती हो गई। अपनी इच्छा गुरू को बताई और कहा कि वे कल आश्रम छोड़ देंगे। स्वामी शिवानंद ने बड़े प्यार से समझाया – “तुम जीनियस हो। विशेष प्रयोजन के लिए पैदा हुए हो। वैसे, मैं किसी को रोकता नही। पर तुम अपना जीवन बर्बाद न करो। कल तुम संन्यास ग्रहण करने वाले हो।“ वे  गुरू के शक्तिशाली शब्दों से निरूत्तर हो गए और अगले दिन यानी 12 सिंतबर को उनका पुनर्जन्म हो गया। धर्मेंद्र सिहं तयाल से स्वामी सत्यानंद सरस्वती बन गए थे।    

इस महान संत को सत्तर के दशक में योग को लेकर भी ऐसी ही झलक मिली थी। तब उन्होंने कहा था – “आने वाला समय योग का है। योग भारत ही नहीं, बल्कि विश्व की संस्कृति बनेगा। प्राचीन काल में योग को जैसी वैश्विक मान्यता थी, वैसी ही मान्यता फिर मिलेगी। फर्क इतना होगा कि इस बार आधुनिक विज्ञान लोगों को आश्वस्त करेगा। वह बताएगा कि योग का वैज्ञानिक आधार है और उससे मानव का कल्याण संभव है।“ हम सब देख रहे हैं कि 21वीं सदी प्रारंभ होते-होते दुनिया भर में योग छा चुका है। वैज्ञानिक अनुसंधान का बड़ा विषय़ बना हुआ है। दुनिया का कोई भी प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय या वैज्ञानिक अनुसंधान संस्थान नहीं बचा है, जहां योग की वैज्ञानिकता पर तरह-तरह के परिणाम हासिल करने की कवायदें नहीं की जा रही हैं। अब भक्ति योग के रूप में भक्ति काल मुहाने पर खड़ा दिख रहा है। वैज्ञानिक श्रीमद्भगवतगीता के मनोविज्ञान पर अध्ययन कर रहे हैं तो मंत्रों और संकीर्तन की वैज्ञानिकता पर भी अनुसंधान कर रहे हैं। शुरूआती नतीजे उत्साहजनक होने के कारण अनुसंधान का फलक व्यापक होता जा रहा है।

दीक्षा लेने से पहले स्वामी सत्यानंद  कॉन्वेंट स्कूल  के विद्यार्थी थे। एक दिन स्कूल जाते हुए निर्जन स्थान पर सड़क किनारे दिगंबर वेश में बैठी एक महिला ने उन्हें आवाज दी, ऐ लड़के इधर आ। फिर ग्लास देते हुए कहा, इसमें दूध ला दे। उसकी वाणी में इतनी ताकत थी कि स्वामी सत्यानंद कॉलेज जाने के बदले दूध लेकर आ गए। उस महिला को थोड़ी बात से समझ में आ गई कि लड़का आध्यात्मिक है। उसने कहा – देखो, किताबें पढ़ने से कुछ नहीं मिलने वाला, कुछ करेगा? स्वामी सत्यानंद ने कहा – मैं पिता जी से पूछकर बताऊंगा। ठीक है, जा। पर जब वापस आना तो आधी रात को आना और अकेले एवं निहत्था – उस महिला ने यह हुए उन्हें मुक्त कर दिया। स्वामी सत्यानंद ने अपने पिता से सारी बातें बताईं तो उन्होंने हामी भर दी। स्वामी सत्यानंद कहते थे कि साधना के दौरान ऐसी उच्च अनुभूतियां हुईं, जैसी कृष्ण से योशोदा को और आर्जुन को हुई होंगी। वह योगिनी कोई और नहीं, बल्कि जूना अखाड़े की सिद्ध तांत्रिक सुखमन गिरि थीं।

स्वामी सत्यानंद ने श्रीअरविंद का हवाला देते हुए कहा था कि तर्क एक सहारा था, अब तर्क एक अवरोध है। अगली शताब्दी में वैज्ञानिक इस अवरोध को दूर करेंगे। वे विभिन्न अनुसंधानों के आधार पर भक्ति विज्ञान का गूढार्थ समझाएंगे। वे बताएंगे कि भक्ति मात्र एक दर्शन नहीं है, कोई धर्म नहीं है। भक्ति एक विज्ञान है, ऐसा विज्ञान जो व्यक्ति को आमूल परिवर्तित कर देता है। भक्ति व्यक्ति की विचारधारा को तथा वृत्तियों को रूपांतरित कर देती है। वे संगीत की पुनर्व्याख्या करेंगे और नाद योग की महत्ता प्रतिपादित करेंगे। वे प्रार्थना और संकीर्तन की वैज्ञानिकता समझाएंगे। तब मानव को अपनी ऊर्जा के दिशांतरण का ख्याल आएगा। इसके साथ ही आशांत मन को शांति मिलेगी। दुनिया भर में विध्वंसक गतिविधियों पर लगाम लगेगी।   

स्वामी सत्यानंद को एक दिन अचानक गुरू शिवानंद सरस्वती ने पास बुलाया। हाथ में 108 रूपए दिए, शक्तिपात विधि से क्षण भर में योगशिक्षा दी और कहा, “जाओ सत्यानंद, दुनिया को योग सिखाओ।“ आदेश मिलते ही स्वामी सत्यानंद अपने इष्ट देव के पास त्र्यंबकेश्वर चले गए। वहां ध्यान लगाकर पूछा कि शुरू कहां से करूं? उत्तर में मुंगेर की उत्तरवाहिनी गंगा और उसके किनारे का स्थान दिखा। वे बिना देर किए मुंगेर पहुंचे। फिर परिस्थियां इतनी अनुकूल होती गईं कि जिस स्थान पर बैठकर दानवीर कर्ण सोना दान किया करते थे, उसी स्थान पर बैठकर वे योग विद्या का दान करने लगे थे। यह काम बीस साल तक करते रहे। उसके बाद अपने आध्यात्मिक उत्तराधिकारी स्वामी निरंजनानंद को कमान सौंप कर चल दिए। फिर मुंगेर की ओर मुड़कर देखा तक नहीं। उनके द्वारा स्थापित बिहार योग विद्यालय की पहचान अब दुनिया भर में है।   

प्राचीन काल में भक्ति का आधार आत्मज्ञान था और आम लोग उसे आस्था व विश्वास के रूप में स्वीकारते थे। इस शताब्दी में वैज्ञानिक और वैज्ञानिक संत बताएंगे कि भक्ति का विज्ञान क्या है, यह मानव पर किस तरह काम करता है और उसकी जरूरत क्यों है। इसका मतलब हुआ कि वह समय भी आएगा, जब वैज्ञानिक अनुसंधान करके पता लगाएंगे कि मीराबाई जहर का प्याला पी गईं और उन पर उसका असर क्यों नहीं हुआ था? ईसा मसीह तीन दिनों तक सूली पर लटके होने के बावजूद जीवित कैसे रह गए थे? तैलंग स्वामी, जिन्हें बनारस का चलता-फिरता महादेव कहा जाता था, कड़े पहरे में जेल में होने के बावजूद किस तरह सड़कों पर घूमते-फिरते दिख जाते थे? पदार्थ, वैद्युतिकी, नाभिकीय भौतिकी आदि पर अनुसंधान करने वाले वैज्ञानिक भक्ति पर अनुसंधान करके बताएंगे कि आस्था, विश्वास और भक्ति का मानव पर किस तरह प्रभाव डालता है? भक्ति मानव मस्तिष्क के विद्युत चुंबकीय तरंगों को किस तरह प्रभावित करती है?  एंजाइमों को किस तरह प्रभावित करती है? उससे हृदयवाहिका तंत्र में किस तरह का बदलाव होता है?  शारीरिक और मानसिक अवस्थाओं में जो परिवर्तन होता है, उसे वैज्ञानिक भाषा में किस तरह परिभाषित किया जाए और उसे कौन-सा नाम दिया जाए? वैज्ञानिक अपने अनुसंधान का दायरा अब पदार्थ, वैद्युतिकी, नाभिकीय भौतिकी आदि तक ही सीमिति नहीं रखेंगे।

स्वामी सत्यानंद ने योग शास्त्रों की कई योग पद्धतियों का आधुनिक युग के लिहाज से सरलीकरण करके प्रस्तुत किया। उनके मानव पर होने वाले प्रभावों का वैज्ञानिक अध्ययन किया। इसके लिए विश्व के नामचीन चिकित्सा अनुसंधान संस्थानों का सहयोग लिया। फिर अपने ही संस्थान में योग अनुसंधान केंद्र स्थापित किया। वे चाहते थे योग विद्या इतनी उन्नत हो कि विद्यार्थियों को योग के शास्त्रीय ज्ञान से लेकर उसके ऐतिहासिक पृष्ठभूमि तक पता रहे। उन्हें पता रहे कि योग का सिंधु घाटी की समभ्यता से क्या संबंध है, योग का कश्मीर के शैव दर्शन से क्या संबंध है, योग में हठयोग कैसे आया, वेद व उपनिषदों में योग कहां-कहां है आदि आदि। इसलिए वैज्ञानिक आधार पर उच्च कोटि का साहित्य सृजन किया तो समन्वित योग की शिक्षा देने की व्यवस्था की। इसका असर हुआ कि दुनिया के अनेक देशों में यह शिक्षा-पद्धति लोकप्रिय हो गई।    

वैदिक काल के वैज्ञानिकों यानी हमारे ऋषि-मुनियों ने कहा था कि सृष्टि में छोटे अणु से लेकर विशाल आकाशगंगा तक सभी कुछ एक परमात्मा में व्याप्त है। उन्होंने इसे संस्कृत में ऐसे कहा – “अणोरणियाम् महतो महीयान्।“ वेद व्यास से लेकर महर्षि वाल्मिकी तक और उनके बाद के संत भी देश-काल को ध्यान में रखकर वेद और उपनिषदों की इस बात को समझाते रहे। वे बताते थे कि मानव के अस्तित्व के अलावा भी ब्रह्मांड में अन्य कोई अस्तित्व है, जिसका स्वरूप दिव्य है। आत्म-ज्ञानी संतों ने अपने अनुभवों के आधार पर कहा था कि मनुष्य ही ब्रह्मांड की प्रतिमूर्ति है। जो बाहर है, वह भीतर भी है। आधुनिक काल में भी हम इसे अद्वैत वेदांत कहते हैं। तभी निष्कर्ष निकाला गया कि चेतना का विस्तार करके पारलौकिक चीजों से साक्षात्कार संभव है। पर तर्क की दुनिया में जीने वाले बुद्धिजीवियों को यह बात तब समझ में आई, जब अल्बर्ट आइंस्टाइन ने इसे युनिफाइड फील्ड थीयरी के रूप में परिभाषित कर दिया। इस थीयरी की मान्यता है कि ब्रह्मांड में सृष्टि का हर पदार्थ अदृश्य माध्यम के द्वारा एक-दूसरे से जुड़ा है।

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती का अंतिम सत्संग

आइंस्टाइन ने कहा था – “आंखों से दिखने वाली यह पृथकता केवल भ्रम है। असलियत में इस ब्रह्मांड में स्थित हम सभी एक ही हैं। बस, हमें अपनी अनुकंपा की सीमाओं को इतना बढ़ाना होगा कि हम सारे विश्व को अपने दायरे में समां लें।“ स्वामी सत्यानंद कहते थे कि यह अजीब बात है कि जब आइस्टाइन कहते हैं E = mc2 तो उसे परखने की जरूरत महसूस नहीं होती। यदि शास्त्रसम्मत बातें हों तो कई सवाल खड़े किए जाते हैं। पर समय बदल रहा है। इसके स्पष्ट संकेत मिल रहे हैं। अब वह दिन दूर नहीं जब वैज्ञानिक भी खुले तौर पर कहेंगे कि इस विश्व और आकाश गंगा में हर जीव-जंतु जिस अदृश्य शक्ति से आपस में जुड़े हैं, वही तो परमात्मा है।   

स्वामी सत्यानंद कहते थे – “मैं विश्वास दिलाता हूं कि योग की आध्यात्मिकता को बरकरार रखूंगा। मुझे मालूम है कि किसी भी संस्था को चलाने के लिए धन की जरूरत होती है। पर यदि योग की संस्थाएं व्यापार करना शुरू करेंगी तो आध्यात्मिक ऊर्जा का पलायन हो जाएगा।“ उन्होंने जैसा कहा था, वैसा ही हुआ। उनकी संस्था बिहार योग विद्यालय के बीते लगभग साठ वर्षों के इतिहास पर गौर करें तो कहना होगा कि इसने न केवल आध्यात्मिक योग की परंपरा को कायम रखा, बल्कि भारतीय ऋषि परंपरा, वैदिक जीवन शैली और योग की सनातन संस्कृति को भी कायम रखा।

नई शताब्दी में बच्चे सवाल करेंगे कि आत्मा क्या है और उसका स्थान कहां है? वे ऐसा सवाल करके संन्यास की बात नहीं, बल्कि विज्ञान की बात कर रहे होंगे। उन्हें थोड़ा सरल तरीके से और थोड़ा विस्तार से बताना होगा कि भगवान बुद्ध और ईसामसीह से लेकर सुकरात, अरस्तू व प्लेटो तक की मान्यता थी कि प्रत्येक वस्तु चाहे वह दृश्य हो या अदृश्य, शक्ति या ऊर्जा की अभिव्यक्ति है। आधुनिक युग में वैज्ञानिक अणु, परमाणु, इलेक्टॉन, प्रोटॉन आदि की चर्चा करते हैं। बात एक ही है। यह इस बात का प्रमाण है कि प्रत्येक वस्तु, प्रत्येक सजीव या निर्जीव पदार्थ, चल या अचल, दृश्य या अदृश्य ऊर्जा कणों का समिश्रण हैं। सभी वस्तुओं व जीवों का मूल स्रोत एक ही है। शास्त्रों में भी कहा गया है कि आत्मा सर्वव्यापक है। किसी ने स्वामी सत्यानंद से पूछा था – आत्मा कहां होती है? इसके जबाव में वे कई सवाल करते गए और खुद ही जबाव भी देते गए थे। मसलन, दूध में मक्खन कहां है? सब जगह। काठ में आग कहा है? सब जगह। बीज में वृक्ष कहां है? सब जगह। उसी तरह सृष्टि में आत्मा कहा है? सब जगह।

भक्तियोग में सेवा, प्रेम और दान आंतरिक शुद्धता के लिए अनिवार्य हैं। स्वामी सत्यानंद के जीवन में यह क्रम प्रत्यक्ष रूप से दिखता रहा। वे योग के कार्यों को पूरा करने के बाद देवघर जिले के निहायत ही पिछड़े गांव में साधना कर रहे थे तो उन्हें अंतर्रात्मा की आवाज सुनाई पड़ी थी – “सत्यानंद, मैंने जो सुविधा तुम्हें प्रदान की है, वही सुविधा तुम अपने पड़ोसियों को प्रदान करो।“  स्वामी जी मुंगेर से तो खाली हाथ निकल गए थे। पर उन्हें जैसा आदेश मिला और उन्होंने जैसा चाहा, वैसा होता गया। नतीजतन, आज देवघर जिले में रिखिया पंचायत और आसपास के इलाकों के लोगों का जीवन बदल चुका है। आश्रम की ओर से लगभग 80 हजार लोगों को जीने के सारे साधन उपलब्ध कराए जाते हैं।

इसी तरह बच्चे परमात्मा को लेकर भी सवाल करेंगे। उन्हें बताना होगा कि प्रत्येक घटना ब्रह्मांडीय चेतना की अभिव्यक्ति है, जिसे लीला भी कहा जाता है। पर चेतना का बोध मनुष्य को ही हो पाता है। तभी उसके मन में सवाल आता रहा कि मैं कैसे जान जाता हूं कि यह अमुक वस्तु है? रात में मृतावस्था में होने के बावजूद जब नींद खुलती है तो कैसे पता चलता है कि मैं वही आदमी हूं? अनुसंधान करके पता लगाया गया कि इसकी वजह चेतन मन की सजगता है। फिर सवाल उठा कि यह सजगता क्या है और यह कैसे हासिल होती है? पता चला कि चेतना के पार भी कुछ है, जो हर व्यक्ति में विराजमान है। उसी की आंशिक अभिव्यक्ति है सजगता। योगियो और आत्मज्ञानियों ने योगबल व भक्ति की बदौलत चेतना के पार तक पहुंच बनाई। उन्होंने उसे परमचेतना मानते हुए व्यवस्था दी कि वही परमात्मा है। अब आधुनिक युग के वैज्ञानिक परमचेतना की गुत्थियां सुलझाने के लिए तत्पर दिख रहे हैं। भक्ति युग में इसी परमात्मा से साक्षात्कार की बात है, जो सुख-शांति देने में सहायक है।   

योग ने मनुष्य को भौतिकता से उठाकर आध्यात्मिकता में ला दिया है। आसन, प्राणायाम, मुद्रा, बंध ये सभी भौतिकतावादी मानव को वापस भक्ति के मार्ग में लाने के साधन थे। यदि योग आंदोलन बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में प्रारंभ न हुआ होता तो मनुष्य आध्यात्मिकता की तरफ न बढ़ा होता। योग निमित्त बना है। कह सकते हैं कि योग छोटा भाई है और भक्ति बड़ी बहन है। भक्ति हमारा नैसर्गिक गुण है। केवल उसकी सजगता को विकसित करना है। भक्ति से उत्पन्न शक्ति का दिशांतरण कर दो। उसे परमात्मा में लगा दो। मन पर नियंत्रण हो जाएगा। इसके साथ ही नाना प्रकार की समस्याओं से छुटकारा मिलेगा। जीवन सुगम होगा।

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती  

भारतीय संतों को तो शुरू से ही इस बात का भान था कि विभिन्न राजनैतिक कारणों से विलुप्त होती संस्कृति हमें कहीं का नहीं छोड़ेगी। शायद यही वजह है कि स्वामी रामतीर्थ, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद व स्वामी शिवानंद सरस्वती जैसे न जाने कितने ही संतो ने अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करके अध्यात्म को जिंदा रखा। कुछ अन्य वजहों से भी आध्यात्मिक उत्थान के अभियान को बल मिला। जैसे, पॉल ब्रंटन “गुप्त भारत की खोज” करते हुए भारतीय संतों से इस तरह प्रभावित हुए कि आए थे पत्रकार के रूप में और अपने देश अमेरिका लौटे रमण महर्षि के शिष्य के रूप में। देश की आजादी से पहले कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायधीश रहे सर जॉन वुडरफ भारतीय तंत्र विद्या से इतने प्रभावित हुए थे कि नौकरी छोड़कर तंत्र साधना करने लगे थे। बाद में योग व तंत्र-शास्त्र पर कई किताबें लिख दी। उनमें “द सर्पेंट पावर” बेहद चर्चित है। इन पुस्तकों से पश्चिमी जगत के लोगों को योग और अध्यात्म को लेकर बड़ी आश्वस्ति मिली थी।

आधुनिक युग में तेजी से लोप होती गुरू-शिष्य परंपरा के बीच स्वामी शिवानंद सरस्वती से शुरू होकर स्वामी सत्यानंद सरस्वती और उनके उत्तराधिकारी स्वामी निरंजनानंद सरस्वती से आगे बढ़ती गुरू-शिष्य परंपरा अविस्मरणीय है। इस वजह से योग और अध्यात्म का ज्ञान बांटने की अटूट श्रृंखला आज कायम है। अब न स्वामी शिवानंद हैं और न ही स्वामी सत्यानंद। पर उनकी ऊर्जा से योग का प्रकाश पूरी दुनिया में फैल रहा है। परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती बिहार योग – सत्यानंद योग की परंपरा को और भी विस्तार देकर जनमानस को जीवन की नई दिशा देने में तल्लीन हैं।

स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि उनके पास दुनिया के अनेक देशों के वैज्ञानिक आते हैं और कहते हैं कि अब बहुत हो गया। हम जितना प्रयोग कर रहे हैं, दुनिया उसका उपयोग अपने विनाश के लिए कर रही है। मानव उनको विकृत कर रहे हैं, उनका दुरूपयोग कर रहे हैं। यह भोग की अतिशयता है। विकसित देशों के लोगों को भी थोड़ा-थोड़ा समझ में आने लगा है कि भोगवाद में सिवाय अशांति के कुछ हाथ नहीं लगा। पदार्थ पर वैज्ञानिक अनुसंधानों से अनेक उपलब्धियां हासिल हुईं। पर उसी अनुपात में मन अशांत होता गया और शरीर नाना प्रकार की बीमारियों का घर बनता गया। इन सबका मिलाजुला परिणाम यह है कि आज भारत के आश्रमों में भारतीयों से ज्यादा विदेशियों की भरमार होती है। वे संकीर्तन करते हैं, मंत्रोच्चारण करते हैं और भक्ति मार्ग पर बढ़ते रहने के लिए ईमानदार कोशिशें करते दिखते हैं। यह भक्ति युग के आगमन की आहट ही तो है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

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