ये है भक्तियोग का जमाना !

IIकिशोर कुमारII

अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस हाल ही मनाया गया। हम सबने देखा कि कसरती स्टाइल के कथित हठयोग की नहीं, बल्कि समग्र योग की स्वीकार्यता दुनिया भर में तेजी से बढ़ती जा रही है। इनमें कर्मयोग और भक्तियोग भी शामिल हैं। जाहिर है कि बौद्धिक युग में भक्ति, भाव—साधना के मार्ग की तलाश शुरू है। ऐसे में राष्ट्रपति पद की प्रत्याशी द्रौपदी मुर्मू का हाथ में श्रीमद्भगवतगीता लिए मौजूदा राष्ट्रपति से मिलने के निहितार्थ को समझा जा सकता है। श्रीमती मुर्मू तर्कशील महिला और कॉलेज की व्याख्याता रही हैं। पर विपत्तियों के पहाड़ इस कदर टूटते रहे कि बच्चों से लेकर पति तक असमय ही कालकलवित हो गए। यदि आध्यात्मिक अभिरूचि न होती और योग का सहारा न मिला होता तो कर्मयोगी की तरह शून्य से शिखर तक की यात्रा शायद मुश्किल होती। अब जबकि उनके हाथों में श्रीमद्भगवतगीता है तो यह सबके लिए बड़ा संदेश है कि कलियुग में जीवन की नैया हंसी-खुशी किस तरह पार लग सकती है।

भारत के महान संत श्रीअरविंद ने कहा था – “तर्क एक सहारा था, अब तर्क एक अवरोध है।“ उनके इस वकतव्य के कोई सात दशक बीतते-बीतते पूर्वी देशों के वैज्ञानिक भी प्रकारांतर से इस बात को स्वीकार रहे हैं। इसलिए कि बुद्धि से जो—जो आशाएं बांधी गई थीं, वे सभी असफल हो गई हैं। जो हासिल करना था, वह बुद्धि से नहीं हासिल हुआ और जो मिला है, वह बहुत कष्टपूर्ण है। पश्चिमी देशों में तो काफी पहले ऐसी धारणा बलवती होने लगी थी। ओशो कहते थे कि आज अगर अमेरिका में विचारशील युवक है, तो वह पूछता है, हम जो पढ़ रहे हैं, उससे क्या होगा? क्या मिल जाएगा? और पिताओ व गुरुओं के पास उत्तर नहीं है। आज पश्चिम में अगर युवकों का बड़ा वर्ग विद्रोह कर रहा है शिक्षा से, संस्कृति से, समाज से, तो उसका मौलिक कारण यही है कि बुद्धि ने जो—जो आशाएं दी थीं, वे पूरी नहीं हुईं।

बर्ट्रेड रसेल बीसवीं शदी के प्रख्यात दार्शनिक, महान गणितज्ञ और शांति के अग्रदूत थे। इन्हें मानवता से प्रेम था और वे जीवनपर्यंत युद्ध, परमाणविक परीक्षण एवं वर्णभेद का विरोध में लड़ते रहे। जंगल में गए थे तो जीवन में पहली बार आदिवासियों को पूरी तन्मयता से नाचते देखा। लौटकर अपनी डायरी में लिखा – काश! वैसा नृत्य मैं भी कर पाता। मैं अपनी सारी बुद्धि को दांव पर लगाने को तैयार हूं। अगर चांदनी रात में वैसा ही उन्मुक्त गीत मैं भी गा सकने में सक्षम होता। यह किसी तरह से महंगा सौदा नहीं है। लेकिन सौदा महंगा भले न हो, करना. बहुत कठिन है। क्यों? क्योंकि बुद्धि के तनाव को छोड़कर भाव और हृदय की तरफ उतरना जटिल है।   

बीसवीं सदी के महान संत परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने आज से कोई पांच दशक पहले ही कहा था कि 21वीं शताब्दी भक्ति की शताब्दी होगी। भक्ति यानी श्रद्धा, प्रेम, केवल विशुद्ध प्रेम। यह अवश्य घटित होगा, एक मान्यता के रूप में नहीं, बल्कि विज्ञान के रूप में। उनके पास दुनिया के अनेक देशों के वैज्ञानिक आते हैं और कहते हैं कि पदार्थ पर वैज्ञानिक अनुसंधानों से अनेक उपलब्धियां हासिल हुईं। पर उसी अनुपात में मन अशांत होता गया और शरीर नाना प्रकार की बीमारियों का घर बनता गया। इन सबका मिलाजुला परिणाम यह है कि आज भारत के आश्रमों में भारतीयों से ज्यादा विदेशियों की भरमार होती है। वे संकीर्तन करते हैं, मंत्रोच्चारण करते हैं और भक्ति मार्ग पर बढ़ते रहने के लिए ईमानदार कोशिशें करते दिखते हैं।

संतों का मानना है कि आध्यात्मिक चेतना का विकास ही मनुष्य की नियति है। निम्न वासनाओं और कामनाओं के दायरे में सीमित रहना हमारी नियति नहीं है। महर्षि अरविंद का इस विषय पर सुंदर और तार्किक व्याख्यान है। वे कहते थे कि आने वाले युग में दिव्य चेतना मानव जीवन में अवश्य प्रकट होगी। कोई चाहे, न चाहे, मगर यह होकर रहेगा। यही मानवता की निर्धारित नियति है। शायद यही कारण है कि आज के युवाओं में आध्यात्मिक चेतना का विकास हो रहा है। वे बौद्धिकता व तार्किकता को पार कर आध्यात्मिक आयाम के प्रवेश-द्वार पर खड़े दिखते हैं। इस बात को ऐसे समझिए।  

जब-जब रथयात्रा का समय आता है, मीडिया में जगन्नाथ मंदिर से जुड़े रहस्यों की चर्चा होती ही है। जैसे, मंदिर का झंडा हमेशा हवा की दिशा के विपरीत उड़ता है। मंदिर पर लगा वजनी सुदर्शन चक्र को शहर के किसी भी हिस्से से देखा जाए तो सीधा ही दिखता है। मंदिर के गुंबद की बात कौन कहे, आसपास भी कोई पक्षी नहीं फटकती। सूर्य चाहे पूरब में रहे, मध्य में रहे या पश्चिम में, मंदिर के सबसे ऊंचे गुंबद की भी परछाई नहीं बनती। मंदिर के मुख्य द्वार सिम्हद्वारम् के पास तो समुद्र की गर्जना सुनाई देती है। पर मंदिर में कदम रखते ही, आवाज आनी बंद हो जाती है। आदि आदि। आज के युवाओं को इस सूचना मात्र में रूचि नहीं है। वे इसके पीछे का विज्ञान जानना चाहते हैं। सोशल मीडिया पर नजर डालिए तो अनेक युवा यह जानने को आतुर दिखते हैं कि पुरी में जगन्नाथ मंदिर के गुंबद का ध्वज हवा की विपरीत दिशा में क्यों फहराते रहता है और नरसिंह स्वामी पोटेशियम साइनाइड खा कर भी जिंदा कैसे रह गए थे? 

बीसवीं शताब्दी में नरसिंह स्वामी कोलकाता के प्रेसिडेंसी कॉलेज में विख्यात वैज्ञानिक और नोबेल पुरस्कार विजेता सर सी. वी. रमण की मौजूदगी में सल्फ़्यूरिक एसिड और कार्बोलिक एसिड से लेकर पोटेशियम साइनाइड तक पी गए थे। पर उनका बाल बांका नहीं हुआ था। तीन घंटे बाद कोलकाता के चिकित्सकों ने नरसिंह स्वामी के पेट से सारे जहरीले पदार्थ वापस निकाल लिए थे। उनके पेट में विष भी यथावत मौजूद था। तब सर सी. वी. रमण को कहना पड़ा था कि यह आधुनिक विज्ञान के लिए चुनौती है।

अब सवाल है कि हमारी बदलती सोच क्या भक्ति युग के आगमन की आहट है? सिद्ध संतों की आत्मानुभूतियों और यौगिक अनुसंधानों की दिशा-दशा इस बात की गवाही दे रही है। संकेतों के आधार पर कहना होगा कि इस शताब्दी में भक्ति भावना और भक्तियोग पर जोर होगा। वैज्ञानिक अनुसंधानों के परिणाम इसके आधार होंगे। वैज्ञानिक उत्प्रेरक की भूमिका निभाएंगे। उन्होंने अब तक पदार्थ पर शोध किए, उनकी तकनीकें विकसित की। अब वे भावनाओं, विचारों, संवेदनाओं और समर्पण के क्षेत्र में काम करेंगे।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग…

भूल जाने की बीमारी हमारे जीवन की आम परिघटना है। पर लंबे समय में विविध लक्षणों के साथ यह लाइलाज अल्जाइमर और अनियंत्रित होकर डिमेंसिया में भी बदल जाती हो तो निश्चित रूप से हमें दो मिनट रूककर विचार करना चाहिए कि हम जिसे सामान्य परिघटना मान रहे हैं, कहीं उसमें भविष्य के लिए संकेत तो नहीं छिपा है। इसलिए विश्व अल्जाइमर दिवस (21 सितंबर) जागरूकता के लिहाज से हमारे लिए भी बड़े महत्व का है। आंकड़े बताते हैं कि भारत में इस रोग से ग्रसित लोगों की संख्या पांच मिलियन है और अगले आठ-नौ वर्षों में मरीजों की संख्या में डेढ़ गुणा वृद्धि हो जानी है। विश्वसनीय इलाज न होना चिंता का कारण है। पर हमारे पास योग की शक्ति है, जिसकी बदौलत हम चाहें तो इस लाइलाज बीमारी की चपेट में आने से बहुत हद तक बच सकते हैं।

किशोर कुमार

अल्जाइमर, डिमेंसिया और सिजोफ्रेनिया जैसी न्यूरोडीजेनरेटिव बीमारियों के मामले में आम धारणा यही है कि ये वृद्धावस्था की बीमारियां हैं। पर विभिन्न स्तरों पर किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि न्यूरोडीजेनरेटिव बीमारियां युवाओं को भी अपने आगोश में तेजी से ले रही हैं। इन बीमारियों की वजह कुछ हद तक ज्ञात है भी तो ऐसा लगता है कि चिकित्सा विज्ञान को विश्वसनीय इलाज के लिए अभी लंबी दूरी तय करनी होगी। लक्षणों के आधार पर इलाज करने की मजबूरी होने के कारण कई बार गलत दवाएं चल जाने का खतरा भी रहता है। इसे एक उदाहरण से समझिए। कोई पैतालीस साल की एक महिला में वे सारे मानसिक लक्षण उभर आए, जो आमतौर पर अल्जाइमर के शुरूआती लक्षण होते हैं। चिकित्सक ने उपलब्ध दवाओं के आधार पर अल्जाइमर का इलाज शुरू कर दिया। लंबे समय बाद चिकित्सकों को अपनी गलती का अहसास हुआ। दरअसल, अल्जाइमर जैसे लक्षण एस्ट्रोजन (स्त्री हार्मोन) के स्तर में भारी गिरावट होने के कारण उभर आए थे। मेनोपॉज से पहले अनेक मामलों में ऐसे हालात पैदा होते हैं।

इन सभी बीमारियों और कुछ खास तरह के हार्मोनल बदलावों के कई लक्षण लगभग एक जैसे होते हैं। मसलन, तनाव, अवसाद और भूल जाना। योग मनोविज्ञान के विशेषज्ञों के मुताबिक इन सारी बीमारियों की असल वजह मानसिक अशांति है। परमहंस योगानंद ने सन् 1927 में दिए अपने व्याख्यान में कहा था, मानसिक अशांति का एक ही इलाज है और वह है शांति। यदि मन शांत रहे तो स्नायविक विकार यानी नर्वस डिसार्डर्स जैसी समस्या आएगी ही नहीं। यह समस्या तो तब आती है, जब भय, क्रोध, ईर्ष्या आदि विकार हमारे जीवन में लंबे समय तक बने रह जाते हैं। मेडिकल साइंस में सिरदर्द का इलाज तो है। पर असुरक्षा, भय, ईर्ष्या और क्रोध का क्या इलाज है? हम विज्ञान के नियमों के आलोक में जानते हैं कि कोई भी शक्ति जितनी सूक्ष्म होती जाती है, वह उतनी ही शक्तिशाली होती जाती है। ऐसे में हमारे मन रूपी समुद्र में विविध कारणों से ज्वार-भाटा उठने लगे तो उसी समय सावधान हो जाने की जरूरत है। इसलिए कि लाइलाज बीमारियों की जड़ यहीं हैं।

सवाल है कि सावधान होकर करें क्या? इस बात को आगे बढ़ाने से पहले थोड़ा विषयांतर करना चाहूंगा। इसलिए कि योग विद्या के तहत मस्तिष्क के मामलों में विचार करने के लिए सहस्रार चक्र को समझ लेना जरूरी होता है। हम सब अक्सर आध्यात्मिक चर्चा के दौरान शिव-शक्ति के मिलन की बात किया करते हैं। मंदिरों के आसपास भक्ति गीत शिव – शक्ति को जिसने पूजा उसका ही उद्धार हुआ… आमतौर पर बजते ही रहता है। मैंने अनेक लोगों से पूछा कि इस गाने का अर्थ क्या है? बिना देर किए उत्तर मिलता है कि शिवजी और पार्वती जी की जो पूजा करेगा, उसे सभी कष्टों से मुक्ति मिल जाएगी। पर तंत्र विज्ञान और उस पर आधारित योगशास्त्र में शिव-शक्ति के मिलने से अभिप्राय अलग ही है। सहस्रार चक्र सिर के शिखर पर अवस्थित शरीर की बहत्तर हजार नाड़ियों का कंट्रोलर है। इनमें चंद्र व सूर्य नाड़ियां भी हैं, जिन्हें हम इड़ा तथा पिंगला के रूप में जानते हैं। इसे ही शिव-शक्ति भी कहते हैं। आधुनकि विज्ञान उसे सूक्ष्म ऊर्जा कहता है। सहस्रार चक्र में शरीर की तमाम ऊर्जा एकाकार हो जाती हैं। यही शिव-शक्ति का मिलन है। यह पूर्ण रूप से विकसित चेतना की चरमावस्था है।

योगशास्त्र के मुताबिक यदि मस्तिष्क की किसी ग्रंथि से जुड़ी नाड़ी का सहस्रार रूपी कंट्रोलर से संपर्क टूट जाता है तो वहां बीमारियों का डेरा बनता है। इसे ऐसे भी समझा जा सकता है। यदि सहस्रार मुख्य सतर्कता अधिकारी है तो नाड़ियां उसके संदेशवाहक। ऐसे में यदि संदेशवाहक किसी कारण अपना काम न करने की स्थिति में हो तो पर्याप्त सूचना के अभाव में मुख्य सतर्कता अधिकारी अपने कर्तव्य का निर्वहन कैसे कर पाएगा? अब आते हैं मुख्य सवाल पर कि भूलने आदि समस्याएं उत्पन्न होने लगी है तो समय रहते क्या करें? इसका सीधा-सा जबाव तो यह है कि वे सारे यौगिक उपाय करने चाहिए, जिनसे आंतरिक ऊर्जा का प्रबंधन होता है।

पर किस उपाय से ऐसा संभव होगा? उपाय कई हो सकते हैं। आमतौर पर ऐसी समस्या के निराकरण के लिए इंद्रियों पर नियंत्रण और चित्तवृत्तियों के निरोध की सलाह दी जाती है। सनातन समय से मान्यता रही है कि चित्तवृत्तियों का निरोध करके मन पर काबू पाया जा सकता है। इस विषय के विस्तार में जाने से पहले यह समझ लेने जैसा है कि चित्तवृत्तियां क्या हैं और उनके निरोध से अभिप्राय क्या होता है? स्वामी विवेकानंद ने इस बात को कुछ इस तरह समझाया है – हमलोग सरोवर के तल को नहीं देख सकते। क्यों? क्योंकि उसकी सतह छोटी-छोटी लहरों से व्याप्त होती है। जब लहरें शांत हो जाती हैं और पानी स्थिर हो जाता है तब तल की झलक मिल पाती है। यही बात मानव-चेतना के स्तरों पर उठने वाली लहरों के मामले में भी लागू है।  

श्रीमद्भागवत गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं – “तू पहले इंद्रियों को वश में करके ज्ञान व विज्ञान को नाश करने वाले पापी काम को निश्चयपूर्वक मार।“ मतलब यह कि योग साधना की बदौलत भ्रांत हुईं इंद्रियों को वश में करके मन का रूपांतरण कर। यानी श्रीमद्भगवत गीता से लेकर महर्षि पतंजलि के योगसूत्रों तक में मन के वैज्ञानिक प्रबंधन पर जो बातें कही गई थीं, वे सर्वकालिक हैं और आज भी प्रासंगिक। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती इन शास्त्रीय संदेशों को स्पष्ट करते हुए सलाह देते थे – “भावना के कारण मन बीमार है तो भक्तियोग, दैनिक जीवन की कठिनाइयों के कारण मन बीमार है तो कर्मयोग, चित्त विक्षेप के कारण, चित्त की चंचलता के कारण मन के अंदर निराशाएं, बीमारियां हैं तो राजयोग औऱ नासमझी या अज्ञान की वजह से मानसिक पीड़ाएं हैं, जैसे धन-हानि, निंदा आदि तो ज्ञानयोग और यदि शारीरिक पीड़ाओं के कारण मन अशांत है तो हठयोग करना श्रेयस्कर है।“

ये सारे उपाय मुख्य रूप से उन लोगों के लिए है, जो स्वस्थ्य हैं या जिनमें बीमारी के शुरूआती लक्षण दिखने लगे हैं। पर गंभीरावस्था के रोगी क्या करें? योगी कहते हैं कि ऐसे लोगों के लिए प्राण विद्या बेहद कारगर साबित हो सकती है। ऋषिकेश में डिवाइन लाइफ सोसाइटी के संस्थापक और बीसवीं सदी के महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती अनेक गंभीर रोगों के इलाज के लिए प्राण विद्या की सिफारिश करते थे। अनेक उदाहरणों से पता चलता है कि इस विद्या के तहत प्राणायाम की शक्ति का उपयोग करने से चमत्कारिक लाभ मिलते हैं। यानी समन्वित योग से ही बात बनेगी। आजकल शारीरिक व मानसिक व्याधियों से निबटने के लिए हठयोग को साधना तो मुमकिन हो पाता है। पर योगशास्त्र की बाकी विद्याओं को आधार बनाकर मन को प्रशिक्षित करना अनेक कारणों से चुनौतीपूर्ण कार्य है, जबकि मानसिक उथल-पुथल के इस दौर में केवल हठयोग से बात नहीं बनने वाली। विश्व अल्जाइमर दिवस के आलोक में योग शिक्षकों औऱ प्रशिक्षकों को निश्चित रूप से मानसिक रोगियों को समन्वित योग के व्यावहारिक पक्षों का पूर्ण लाभ दिलाने की दिशा में ठोस पहल करने हेतु मंथन करना चाहिए।

वैसे, मैं संतों की वाणी और यौगिक ग्रंथों के आधार पर दोहराना चाहूंगा कि यदि मानसिक उथल-पुथल के दौर में समर्थ योगी का सानिध्य न मिल पा रहा हो और दूसरा कोई उपाय समझ में न आ रहा हो, तो भक्तियोग का मार्ग पकड़ लिया जाना चाहिए। संकीर्तन या जप कुछ भी चलेगा। मैं अपनी बात संत कबीर के इन संदेशों के साथ खत्म करता हूं – “नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग; और रसायन छांड़ि के, नाम रसायन लाग” इस दोहा के जरिए कबीरदास जी कहते हैं कि हे प्राणी! उठ जाग, नींद मौत की निशानी है। दूसरे रसायनों को छोड़कर तू भगवान के नाम रूपी रसायनों मे मन लगा। इसके साथ ही वे कहते हैं – “मैं उन संतन का दास, जिन्होंने मन मार लिया।” यानी भक्ति मार्ग पर चलकर चित्त-वृत्तियों का निरोध हो गया।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

मित्रता दिवस और नाता पूर्व जन्मों का

मित्रता दिवस पर सभी मित्रों को बधाई। हम सब में सात्विक गुणों की अभिवृद्धि हो और पिछले जन्मों की मित्रता के विकास करने की भी दृष्टि मिले, यही कामना है।

किशोर कुमार

पूर्व जन्म की बात बचपन से सुनता था। जब पूज्य गुरू के संपर्क में आया तो पूर्व जन्म औऱ संचित कर्मों के बारे में थोड़ी समझ बनी। पर मन में यह सवाल हमेशा बना रहता था कि जब पुनर्जन्म होता है तो पूर्व जन्मों के स्नेहीजनों की पहचान किस तरह हो सकती है?

एक बार ट्रेन से यात्रा कर रहा था। त्योहार होने के कारण भीड़ काफी थी। ट्रेन खुलते ही पास ही खड़े एक युवा ने पूछा कि क्या वे थोड़ी देर मेरे बर्थ पर बैठ सकते हैं। इसे महज संयोग ही कहिए कि उस युवक को देखकर मेरे मन में सहज भी भाव प्रकट हो चुका था कि उसे अपनी सीट पर बैठ जाने को कह देना चाहिए। जाहिर है कि मैंने तुरंत ही हां में सिर हिला दिया। हम तुरंत ही काफी घुल-मिल गए। लगा था मानों वर्षों का नाता है। यह सुखद है कि ट्रेन में बना वह नाता आज बीस साल बाद बेहद प्रगाढ़ हो चुका है। कमाल यह कि हम न एक जाति के हैं औऱ न एक धर्म के हैं।

श्रीगुरू जी से इस घटना का जिक्र किया तो उनका उत्तर था कि पूर्व जन्मों का प्रेमपूर्ण नाता चुंबकीय प्रभाव पैदा करता है। यदि हम सजग हैं और सात्विक गुणों की अधिकता है तो पूर्व जन्मों के संबंधों का अहसास सहज हो जाता है और उसे विकसित करना आसान होता है।

हिंदू और इसाई सहित कई धर्मों में पूर्व जन्मों के पक्ष में शास्त्रसम्मत तरीके से तर्क उपस्थित किए जाते रहे हैं। आधुनिक विज्ञान भी ऐसे अनेक तर्कों से सहमत दिखता है। सच तो यह है कि वैज्ञानिकों ने क्वांटम सिद्धांत के जरिए मानव चेतना के रहस्यों से पर्दा उठाने में बड़ी भूमिका निभाई है। इससे इस सिद्धांत को बल मिलता है कि आत्म-चेतना का अस्तित्व मृत्यु के बाद भी बना रहता है और नए शरीर में प्रवेश करता है।

भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया भर में आत्म-चेतना के संदर्भ में जीने की कला या आर्ट ऑफ लिविंग पर काफी काम हुआ है। योगियों ने अनुभव किया कि मानव अपनी अवचेतन शक्तियों को जागृत करके न केवल अतीन्द्रिय शक्तियों का विकास कर सकता है, बल्कि सामान्य जन योगमय जीवन जी कर स्मरण शक्ति बढ़ा सकते हैं, पूर्व जन्म के मित्रों व स्नेही जनों की पहचान करके इस जीवन को आनंदमय बना सकते हैं।

परमहंस योगानंद बीसवीं सदी के प्रारंभ में ही इस तरह के संकेतों को जीवन के लिए अहम् मानते थे। इस संदर्भ में 22 जनवरी 1939 को कैलिफोर्निया स्थित सेल्फ-रियलाइजेशन फेलोशिप मंदिर का उनका व्याख्यान उल्लेखनीय है। उन्होंने कहा था कि दो अपरिचितों का एक दूसरे के प्रति सहज ही आकर्षित होना मित्रता बढ़ाने का दैवीय आदेश माना जाना चाहिए। ऐसा आकर्षण इस बात का द्योतक है कि उन दोनों के बीच पूर्व जन्म में मित्रता या कोई प्रिय संबंध रहा होगा। इसलिए पूर्व जन्म के संबंधों की नींव पर इस जन्म में महल खड़ा किया गया तो जीवन सुखमय और आनंदमय हो जाएगा।

इसी तरह परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती योग की शक्ति से स्मरण शक्ति बढ़ाने और पूर्व जन्म के संचित ज्ञान में अभिवृद्धि करने पर काफी बल देते थे। वे कहते थे कि ये दोनों ही बातें शास्त्रसम्मत तो हैं ही, विज्ञानसम्मत भी हैं। दरअसल, स्वामी सत्यानंद सरस्वती विभिन्न यौगिक विधियों का देश-विदेश में वैज्ञानिक विश्लेषण करने कराने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे। इसलिए वे बार-बार कहते थे कि योग की जरूरत सबसे ज्यादा बच्चों को है। आठ साल की उम्र से योगाभ्यास कराया जाना चाहिए। ताकि पीनियल ग्रंथि स्वस्थ्य रहे।  आज्ञा चक्र जागृत हो जाए। तभी पूर्व जन्म के बेहतर गुणों का विकास हो पाएगा। वे कहते थे कि विज्ञान आज न कल मानेगा, पर आत्मज्ञानी जानते हैं कि जन्म-जनमांतर के कर्म जीवन में किस तरह फलित होते हैं। सत्संग के दौरान स्वामी जी से ही किसी ने पूछ लिया कि आप संन्यासी क्यों बन गए? स्वामी जी का उत्तर था – संन्यासी कोई बनता नहीं, बनकर आता है। इस जन्म में तो योग साधानाओं के जरिए पिछले जन्म के बेहतर गुणों का विकास करना होता है।

उपरोक्त तथ्यों से साफ है कि जन्म-जनमांतर के बेहतर कर्मों में सफलता के सूत्र छिपे हुए हैं। उन्हें योग की बदौलत डिकोड करने की जरूरत है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

भक्ति-भावना से होगा चित्त वृत्तियों का निरोध

अवसाद से ग्रसित या विभिन्न प्रकार के उलछनों में फंसे जो लोग अष्टांग योग की साधनाओं यथा प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा आदि के जरिए चित्त को एकाग्र करने की स्थिति में नहीं होतें, वे प्रार्थना, संकीर्त्तन आदि के जरिए भक्तियोग के मार्ग पर सहजता से बढ़कर चित्त को एकाग्र कर सकते हैं। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि हठयोग, राजयोग, क्रियायोग या अन्य योगों का अभ्यास लोग इसलिए करते हैं कि उनमें भक्ति नहीं है। ये सारी क्रियाएं भक्तिभाव जागृत करने के लिए ही जाती हैं। ध्यान रहे कि इस योग-कर्म का कर्म-कांड से कोई संबंध नहीं है।

कोरोनाकाल में शारीरिक और मानसिक रूप से अपने को स्वस्थ्य रखने और अवसाद से बचने के लिए सारे उपाय किए। बात न बनी। मर्ज बढ़ता गया ज्यों ज्यों दवा की। इसलिए कि जीवन इतनी जटिलताएं हैं कि अशांत मन को किसी बात से सांत्वना नहीं मिल पाती। चाहे आसन हो या प्राणायाम या फिर ध्यान, कोई भी योगाभ्यास फलित नहीं होता। कई बार स्थिति इतनी विकराल होती है कि उसकी परिणति आत्म-हत्या के रूप में सामने आती है।  

विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक कोरोना महामारी के कारण उत्पन्न समस्याओं की वजह से दक्षिण-पूर्व एशिया में प्रति 100,000 लोगों में 16.5 आत्महत्याएं हो रही हैं। इनमें भारत का योगदान सर्वाधिक है। अवसादग्रस्त मरीजों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। भारत के योगियों ने ऐसे लोगों को संकट से निकलने के लिए अनेक उपाय बतलाए। ध्यान साधना पर खूब जोर दिया गया। सजगता के विकास और मन की एकाग्रता के लिए सरल उपाय बतलाए गए। पर अनेक लोगों को इससे बात बनती नहीं दिख रही। आम शिकायत है कि जीवन में समस्याओं का इतना समावेश हो चुका है कि मन स्थिर होता ही नहीं।  

पुराणों पर गौर करें तो पता चलता है कि मृत्युलोक में मानव जाति को विकट समस्याओं से बार-बार गुजरना पड़ता रहा है। पर संतों की युक्तियों से मानव जाति का उद्धार होता रहा है। रूद्रयामल तंत्र की रचना ही पार्वती जी की मानसिक बेचैनी की वजह से हो गई। आदियोगी शिव ने मन पर काबू करके अभीष्ट की सिद्धि के लिए इतने उपाय सुझाए कि प्रत्याहार, धारणा और ध्यान से लेकर मोक्ष तक की बात हो गई। संत कबीर कहा करते थे – मैं उस संतन का दास जिसने मन को मार लिया। पर आधुनिक युग में मन को मार लेना आम आदमी के लिए चुनौती भरा कार्य बना हुआ है। अंधकार में डूबा मन अपनी जिद पर अड़ा है। पल भर में दुनिया की सैर करता है।

दिनो-दिन ऐसी परिस्थितियों का निर्माण हो रहा है कि हम मल्टी साइकिक होते जा रहे हैं। सुबह कुछ तय करो, शाम होते-होते विचार बदल जाता है। योग की महत्ता समझने वाले मानते हैं कि ध्यान को उपलब्ध होने से ही बात बनेगी। पर उनकी एकांतवास की चाहत पूरी नहीं हो पाती। हिमालय में भी नहीं। कही पढ़ा था कि प्रसिद्ध अमरीकी लेखक और प्रेरक सेम्युअल लेन्गहोर्न क्लेमेन्स, जो मार्क ट्वेन के नाम से ख्यात हुए थे, से किसी मित्र ने पूछ लिया – आपका आज का व्याख्यान कैसा रहा? ट्वेन ने पलट कर सवाल कर दिया – कौन-सा व्याख्यान? मित्र ने कहा – आज आपने एक ही व्याख्यान तो दिया है, उसी की बात कर रहा हूं। मार्क ट्वेन ने इसका जो उत्तर दिया, उससे आदमी के अनियंत्रित मन को आसानी से समझा जा सकता है। उसने कहा – “मैंने आज तीन व्याख्यान दिए। एक तो मैंने व्याख्यान देने से पहले अपने मन में व्याख्यान दिया। एक व्याख्यान लोगों के बीच दिया और तीसरा व्याख्यान अभी दे रहा हूं।“ यानी मन के भीतर इतना शोर-गुल वाला बाजार सजा हुआ है तो चित्त की एकाग्रता की बात बेमानी होगी ही।

फिर हमें बैठने भी तो नहीं आता। बैठने आ जाए तो भी कुछ बात बने। कुछ रास्ता निकले। हम बैठते हैं इस तरह कि शारीरिक ऊर्जा का प्रवाह गलत दिशा में होता है। यह स्थिति मन को अशांत बनाने में उत्प्रेरक की भूमिका निभाती है। मैंने पिछले लेख में सिद्धासन की चर्चा की थी। बताया था कि सिद्धासन प्राण-शक्ति को, शारीरिक ऊर्जा के प्रवाह को मूलाधार से सहस्रार की ओर ले जाने में किस तरह बेहतर जरिया बनता है। योग के वैज्ञानिक संत कहते रहे हैं कि सिद्धासन न लगे तो आदमी रीढ़ सीधी करके सुखासन में ही बैठ जाएं और अपने श्वासों के प्रवाह पर ध्यान देने की कोशिश कर ले तो चीजें बदल जा सकती हैं। इसलिए कि इस स्थिति में शरीर की ऊर्जा कम से कम बर्बाद होगी तो उस ऊर्जा का दिशांतरण करना आसान होगा। योग का सारा खेल ऊर्जा की दिशा बदलने को लेकर है।      

पर ऐसा करना भी संभव न हो तो सवाल उठना लाजिमी है कि आदमी दूसरा कौन-सा मार्ग अपनाए कि अंधकार से प्रकाश की ओर यात्रा हो सके?  संतों की मानें तो आधुनिक युग में चित्त की एकाग्रता के लिए भक्तियोग का संकीर्त्तन आसान भी है और असरदार भी। अवसाद से ग्रसित या विभिन्न प्रकार के उलछनों में फंसे जो लोग अष्टांग योग की साधनाओं यथा प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा आदि के जरिए चित्त को एकाग्र करने की स्थिति में नहीं होतें, वे प्रार्थना, संकीर्त्तन आदि के जरिए भक्तियोग के मार्ग पर सहजता से बढ़कर चित्त को एकाग्र कर सकते हैं।

भक्ति योग के सन्दर्भ में आदर्श योगी किसे कहेगे? अर्जुन के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए श्री कृष्ण श्रीमद्भगवद गीता में कहते हैं –

मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः ॥१२- २॥

“जो व्यक्ति अपना मन सिर्फ मुझमें लगाता है और मैं ही उनके विचारों में रहता हूँ, जो मुझे प्रेम और समर्पण के साथ भजते हैं, और मुझ पर पूर्ण विश्वास रखते हैं, वो उत्तम श्रेणी के होते हैं। ”

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि हठयोग, राजयोग, क्रियायोग या अन्य योगों का अभ्यास लोग इसलिए करते हैं कि उनमें भक्ति नहीं है। ये सारी क्रियाएं भक्तिभाव जागृत करने के लिए ही जाती हैं। पर आदमी के भीतर भक्ति का सही दृष्टिकोण है तो कुछ भी करने की जरूरत नहीं। भक्त के जीवन में प्रेम की अभिव्यक्ति होती है। चाहे वह प्रेम परमात्मा के लिए हो या फिर अपने चारों तरफ के लोगों के लिए।

महान योगी और योगी कथामृत के लेखक परमहंस योगानंद की बातों से इस बात की पुष्टि होती है। वे कहा करते थे, “अनेक लोग जीवन की समस्याओं से घबरा जाते हैं। अवसादग्रस्त हो जाते हैं। मेरे जीवन में जब भी ऐसी परिस्थितियों का निर्माण हुआ, मैंने सदा यह प्रार्थना की है कि हे प्रभु, आपकी शक्ति की मुझमें वृद्धि हो। मुझे सदा सकारात्मक चेतना में रखना। ताकि मैं आपकी सहायता से अपनी कठिनाइयों पर सदा विजय प्राप्त कर सकूं। यकीनन प्रार्थना फलित होती गई। प्रार्थना में बड़ी शक्ति है। श्रद्धा की तीब्रता जितनी अधिक होती है, प्रार्थना उतनी ही तीब्रता से फलित होती है।“ चालीस के दशक में कही गई यह बात कोरोनाकाल में बेहद प्रासंगिक है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

पश्चिम में योग व अध्यात्म के पितामह परमहंस योगानंद के 100 साल

परमहंस योगानंद के पश्चिम में आगमन की 100 वीं वर्षगांठ पर उन्हें अमेरिका ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में याद किया जा रहा है। वे भारत के एक ऐसे संत थे, जिन्होंने अमेरिका की धरती से पूरी दुनिया में मानव जाति के आध्यात्मिक उत्थान के लिए उल्लेखनीय कार्य किए। यही वजह है कि उनकी यश की गाथाएं सबकी जुबान पर हैं। अमेरिका में उनके द्वारा स्थापित सेल्फ रियलाइजेशन फेलोशिप के मौजूदा अध्यक्ष स्वामी चिदानंद अपने गुरू को याद करते हुए कहते हैं कि उन्होंने पश्चिम को क्रियायोग के रूप में भारत की ऐसी अमूल्य निधि दी, जो स्वयं को जानने का प्राचीन विज्ञान है। यह मानव जाति के लिए शायद सबसे महत्वपूर्ण उपहारों में से एक है।

परमहंस योगानंद अमेरिका के बोस्टन पहुंंचे थे तो गर्मजोशी से हुआ था स्वागत।

अपने अलौकिक आध्यात्मिक प्रकाश से पश्चिमी जगत ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया को आलोकित करने वाले जगद्गुरू परमहंस योगानंद के अमेरिका की धरती पर कदम रखने के 100 साल पूरे हो गए। वे पहली बार सन् 1920 में 19 सितंबर को एक धर्म सभा में भाग लेने बोस्टन गए थे। वहां उनकी अलौकिक ऊर्जा इस तरह प्रवाहित हुई कि क्रियायोग के रथ पर सवार आध्यात्मिक आंदोलन कम समय में ही जनांदोलन बन गया था। आध्यात्मिक चेतना के विकास के लिए किए गए इस ऐतिहासिक कार्य की वजह से वे अमर हो गए। उनकी प्रासंगिकता युगों-युगों तक बनी रहेगी।

परमहंस योगानंद वैज्ञानिक सिद्धांतों के आधार पर धर्म और योग की शास्त्रसम्मत बातें करते थे। इसलिए ध्यान के योग विज्ञान, संतुलित जीवन की कला, सभी महान धर्मों में अंतर्निहित एकता जैसी उनकी बातें अकाट्य होती थीं। तभी श्रीमद्भगवतगीता में श्रीकृष्ण द्वारा बतलाए गए क्रियायोग की विराट शक्ति से अमेरिकी नागरिकों को परिचित कराने के मार्ग के अवरोध दूर होते चले गए थे। क्राइस्ट को मानने वाले कृष्ण को भी मान बैठे और परमहंस योगानंद योग व अध्यात्म के पितामह के तौर पर स्वीकार कर लिए गए।

 “ऑटोबायोग्राफी ऑफ अ योगी” 20वीं शताब्दी का एक ऐसा आध्यात्मिक आत्मकथा है, जो संतों, योगियों, विज्ञान व चमत्कार और मृत्यु व पुनरूत्थान के जगत् की एक अविस्मरणीय यात्रा पर ले जाता है। यह पुस्तक जब प्रकाशित हुई थी तो अमेरिका सहित दुनिया भर के अखबारों की सुर्खियां बनी थी।  न्यूयार्क टाइम्स की खबर का शीर्षक था – एक अद्वितीय वृतांत। इंडिया जर्नल ने लिखा – “ऑटोबायोग्राफी ऑफ अ योगी” एक ऐसी पुस्तक है, जो मन और आत्मा के द्वार खोल देती है। शेफील्ड टेलीग्राफ ने लिखा – एक स्मारकीय कार्य। न्यूजवीक ने लिखा – एक दिलचस्प एवं स्पष्ट व्याख्यापूर्ण अध्ययन।

परमहंस योगानंद अपने गुरू युक्तेश्वर गिरि, परमगुरू लाहिड़ी महाशय और परमगुरू के गुरू महावतारी बाबाजी की प्रेरणा से अमेरिका गए थे। उन्हें क्रियायोग का प्रचार करने को इसलिए कहा गया था, क्योंकि यह अशांत मन को शांति प्रदान करके उसे आध्यात्मिक मार्ग पर अग्रसर करने में सक्षम है। इस योग को अति प्राचीन पाशुपत महायोग का अंश माना जाता है। ऋषि-मुनि पाशुपत महायोग को गुप्त रखते थे और अपनी अंतर्यात्रा के लिए उपयोग करते थे। बाद में तंत्र के आधार पर विकसित पाशुपत योग को कुंडलिनी योग और राजयोग के आधार पर विकसित योग को क्रियायोग कहा गया। श्रीमद्भगवतगीता में श्रीकृष्ण ने उसी क्रियायोग की दो बार चर्चा की है।

योगदा सत्संग सोसाइटी के 100 साल पूरे होने पर सन् 2017 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने परमहंस योगानंद की याद में डाक टिकट जारी किया था।

क्रियायोग के बारे में अपनी पुस्तक “योगी कथामृत” में पहमहंस योगानंद ने कहा है कि इस लुप्तप्राय: प्रचीन विज्ञान को महावतारी बाबाजी ने प्रकट किया और अपने शिष्य लाहिड़ी महाशय को उपलब्ध कराया था। तब बाबाजी ने लाहिड़ी महाशय से कहा था – “19वीं शताब्दी में जो क्रियायोग तुम्हारे माध्यम से विश्व को दे रहा हूं, उसे श्रीकृष्ण ने सहस्राब्दियों पहले अर्जुन को दिया था। बाद में महर्षि पतंजलि, ईसामसीह, सेंट जॉन, सेंट पॉल और ईसामसीह के अन्य शिष्यों को प्राप्त हुआ।“ युक्तेश्वर गिरि कहा करते थे कि क्रियायोग एक ऐसी साधना है, जिसके द्वारा मानवी क्रमविकास की गति बढ़ाई जा सकती है। बिहार योग के जनक स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि शरीर ऊर्जा का क्षेत्र है. यह क्रियायोग का मूल दर्शन है। चिंता और परेशानियों के इस युग में मनुष्य की आध्यत्मिक प्रतिभा को जागृत करने की सबसे शक्तिशाली विधि है।

गोरखपुर का यह वही मकान है, जिसमें मुकुंद घोष का जन्म हुआ था, जो बाद में पूरी दुनिया में परमहंस योगानंद के नाम से मशहूर हुए थे। उनका जन्म 5 जनवरी 1893 को हुआ था। तब उनके पिता भगवती चरण घोष रेलवे के पदाधिकारी के रूप में गोरखपुर में पदस्थापित थे और मुफ्तीपुर थाना क्षेत्र में शेख मोहम्मद अब्दुल हाजी के मकान में किराएदार थे। मौजूदा समय में वह मकान कानूनी दांव-पेंच में फंसा हुआ है।

परमहंस योगानंद को पता था कि धार्मिक भिन्नता के कारण अमेरिका में क्रियायोग का प्रचार करना औऱ अपनी बातें लोगों को मनवाना आसान न होगा। ऐसे में उन्होंने दो सूत्र पकड़े। पहला तो लोगों को समझाया कि ज्यादातर मामलों में गीता के संदेश औऱ बाइबल के संदेश प्रकारांतर से एक ही हैं। फिर युवाओं को समझाया कि वे एक ऐसा यौगिक उपाय जानते हैं, जो मानसिक अशांति से उबारने में कारगर है। वह एक ऐसा दौर था जब अमेरिकी युवा मानसिक अशांति से बचने के लिए टैंक्वेलाइजर जैसी दवाओं के दास बनते जा रहे थे। परमहंस योगानंद कहते थे कि आध्यात्मिकता की सच्ची परिभाषा है शांति और अशांति की दवा भी यही है। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इसी यौगिक उपाय के जरिए अशांति से उबारा था। क्राईस्ट ने भी शांति को ही अशांति का एकमात्र उपाय माना था। इसलिए हर व्यक्ति शांति का राजकुमार बनकर आत्म-संतुलन के सिंहासन पर बैठ सकता है और अपने कर्म-साम्राज्य का निर्देशन कर सकता है। यह शांति कुछ और नहीं, बल्कि क्रियायोग है, जिसकी शिक्षा श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दी थी। विज्ञान की कसौटी पर कही गई ये बातें मानसिक समस्याओं से जूझते पश्चिम के लोगों को समझ में आई और क्रियायोग लोकप्रिय हो गया था।

परमहंस योगानंद की 125वीं जयंती पर बीते साल भारत सरकार ने 125 रुपये का सिक्का जारी किया था। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने ने इस मौके पर कहा कि परमहंस योगानंद भारत के महान सपूत थे, जिन्होंने दुनिया भर में अपनी पहचान कायम की। लोगों को मानवता के प्रति वैश्विक रूप से जागरूक करने का काम तब किया, जब संचार के साधन भी सीमित थे। भारत को अपने इस महान सपूत पर गर्व है, जिन्होंने दुनिया भर के लोगों के दिलों में एकता का संदेश भरा।’

परमहंस योगानंद का अमेरिका में सबसे पहला व्याख्यान “धर्म का विज्ञान” विषय पर हुआ था। उन्होंने एक तरफ जहां धर्म को परिभाषित किया तो दूसरी तरफ योग की व्यापकता की भी व्याख्या की। इसके साथ ही कहा कि धर्म का आधार वैज्ञानिक है और योगबल के जरिए धर्म मार्ग पर यात्रा करके ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है। आत्मा और परमात्मा बाहर नहीं अपने भीतर है। वहां तक पहुंचने के यौगिक मार्ग हैं, उपाय हैं। मेडिटेशन का लाभ तभी मिलेगा जब ईश्वर को प्राप्त करने के लिए पहले से बनाए गए आध्यात्मिक राजमार्ग पर चला जाएगा। इस काम में रश्म अदायगी से भी बात नहीं बनने वाली। वे कहते थे – यदि आप एक या दो डुबकियों में मोती प्राप्त नहीं कर पातें तो सागर को दोष न दें। अपनी डुबकी को दोष दें। पर ख्याल रखें कि ध्यान करना धर्म का सच्चा अभ्यास है।

परमहंस योगानंद ने 2017 में अविभाजित बिहार के झारखंड क्षेत्र के रांची शहर में योगदा सत्संग सोसाइटी की स्थापाना करके अपने आध्यात्मिक आंदोलन का श्रीगणेश किया था।

कैलिफोर्निया में आध्यात्मिक सभा हुई तो उन्होंने कृष्ण और क्राईस्ट के उपदेशों को आधार बनाकर अपना व्याख्यान दिया था – “बाइबल में कहा गया है कि मैं द्वार हूं। मेरे द्वारा यदि कोई मानव प्रवेश करता है तो वह उद्धार पाएगा। अंदर व बाहर आया-जाया करेगा। आहार प्राप्त करेगा। दूसरी तरफ भारतीय संत पहले से कहते रहे हैं कि सर्वप्रथम ईश्वर को जानो, फिर जो कुछ भी आप जानने की इच्छा करेंगे, वे आपके समक्ष प्रकट कर देंगे। यह सब उनका साम्राज्य है, यह उनकी ही ज्ञान है। योगशास्त्र कहता है कि भ्रूमध्य कूटस्थ केंद्र है, जो कि आध्यात्मिक नेत्र का स्थान है। केवल दिव्य चेतना में हम इस द्वार के पीछे विशुद्ध आनंद को प्राप्त कर सकते हैं।“ इन सभी बातों का सार एक ही है।

विज्ञान की भाषा में भ्रू-मध्य को पीनियल ग्रंथि का स्थान कहा जाता है। इस ग्रंथि से मेलाटोनिन हार्मोन का स्राव होता है, जो पिट्यूटरी ग्रंथि और मस्तिष्क पर सीधा प्रभाव डालता है। पीनियल ग्रंथि आध्यात्मिक यात्रा के लिहाज से बड़े काम की है। पीनियल ग्रंथि पर ध्यान की अवस्था में होने वाले प्रभावों का अध्ययन किया गया तो पता चला कि इस दौरान पीनियल ग्रंथि की क्रियाशीलता बढ़ जाती है। इससे मेलाटोनिन हार्मोन का स्राव होने लगता है तो मानसिक उथल-पुथल कम जाता है। योग विज्ञान में इस स्थान को आज्ञा चक्र और तीसरा नेत्र का स्थान कहते हैं। इसे जागृत करने की कई यौगिक उपाय हैं। उनमें एक है शांभवी मुद्रा। शिव संहिता के मुताबिक शंकर भगवान ने पार्वती को त्रिनेत्र जागृत करने के लिए यह विधि बताई थी। इसलिए इसे महामुद्रा कहते हैं। क्रियायोग से संपूर्ण चक्र क्रियाशील होते हैं तो इसके अद्भुत नतीजे मिलते हैं। ऐसी तर्कसंगत और विज्ञानसम्मत बातें पश्मिम के लोगों को समझते देर न लगी थी।

परमहंस योगाानंद और उनके गुरू युक्तेश्वर गिरि, परमगुरू लाहिड़ी महाशय और परम गुरू के गुरू महावतार बाबा जी।

पश्चिम के वैज्ञानिकों, मनोवैज्ञानिको, दर्शन शास्त्रियों और अन्य आध्यात्मिक लेखकों की पुस्तकें भी इस बात की गवाह हैं कि परमहंस योगानंद अपने मिशन में पूरी तरह कामयाब हुए थे। तभी उनकी मान्यताओं को आधार बनाकर शोध किए जा रहे हैं। उन शोधों के परिणामों के आधार पर पुस्तकें लिखी जा रही हैं। ऐसी असरदार है उनकी आध्यात्मिक ऊर्जा। सर जॉन मार्क्स टेंप्लेटन और रॉबर्ट एल हर्मन की पुस्तक है – “ईज गॉड द ओनली रियलिटी – साइंस प्वाइंट्स डीपर मीनिंग ऑफ यूनिवर्स?” उसमें कहा गया है कि यद्यपि विज्ञान और धर्म में विरोधाभास दिखता है। पर दोनों एक दूसरे से घनिष्ट रूप से जुड़े हुए हैं। यदि ईश्वराभिमुख कार्य होगा, जो कि होगा, तो चौंकाने वाले रहस्यों पर से पर्दा उठ सकता है।

यह सुखद है कि पश्चिमी दुनिया में आध्यात्मिक आंदोलन के प्रणेता जगद्गुरू परमहंस योगानंद और उनकी शिक्षाओं पर बीते तीन सालों से लगातार अंतर्राष्ट्रीय फलक पर चर्चा हो रही है। इसके कारण उनके कालजयी आध्यात्मिक संदेश नई पीढ़ी तक पहुंच रहे हैं। पर आध्यात्मिक राजमार्ग पर चलने के लिए इतने से बात बनने वाली नहीं। परमहंस जी सेल्फ रियलाइजेशन फेलोशिप के विस्तार की योजनाओं के बारे में शिष्यों को बताते हुए कहा था – “याद रखो, मंदिर मधु का छाता है, लेकिन ईश्वर ही मधु है। लोगों को आध्यात्मिक सत्य के विषय में बता कर ही संतुष्ट न रहो। उन्हें दिखलाओ कि वे स्वयं किस प्रकार ईश्वरीय अनुभूति पा सकते हैं।”

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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