ओशो : हमने कांटों को भी नरमी से छुआ अक्सर

किशोर कुमार //

ओशो कालजयी हैं, शाश्वत, सदैव प्रासंगिक। बीसवीं सदी में संभवत: वे पहले विचारक, पहले आध्यात्मिक गुरू हुए, जिन्होंने अपने अनुभवों, अपने तर्कों से साबित किया कि आंतरिक आध्यात्मिकता का वाह्य समृद्धि या बाह्य दरिद्रता से कुछ लेना-देना नहीं है। उन्होंने प्रेम, श्रद्धा, भक्ति, संभोग और समाधि से लेकर स्वस्थ्य राजनीति तक पर अपने स्वतंत्र विचार प्रस्तुत किए। उनकी बातें दुनिया भर के लाखों लोगों के लिए एक मार्ग-दर्शक प्रकाश बन गईं। पर आलोचना भी कम न हुई। बिस्मिल सईदी का शेर है – “हमने काँटों को भी नरमी से छुआ है अक्सर, लोग बेदर्द हैं फूलों को मसल देते हैं।“ ओशो के साथ भी कुछ ऐसा ही होता रहा।     

यह सच है कि नए विचारों और उसके आलोक में धर्म की व्याख्या का सदैव विरोध होता रहा है। बुद्ध हों या जीसस, जीते जी उनकी बातों पर कहां विश्वास किया गया। जीसस को तो सूली पर ही चढ़ा दिया गया था। ऐसे में ओशो अपवाद नहीं रहे तो चौंकाने जैसी बात नहीं थी। इसलिए उन्हें जेल में डाला गया तो तनिक भी विचलित नहीं हुए थे, बल्कि जेल में ही क्रांति के बीज बो दिए थे। प्रख्यात कवि और प्रेरक वक्ता कुमार विश्वास शायद इकलौते हैं, जिन्होंने भरी सभा में खुले तौर पर स्वीकार किया कि उन्होंने ओशो की चर्चित व विवादास्पद पुस्तक “संभोग से समाधि तक” को छात्र जीवन से लेकर अब तक चार बार पढ़ा। वे इस निष्कर्ष पर हैं कि संभोग शब्द केवल टाइटल भर है। पुस्तक में बातें समाधि की है, ऊर्जा की है, उसके रूपांतरण की है। हालांकि समय के अनुसार चीजें बदली हैं। ओशो के महाप्रयाण के बाद उनके विचारों की स्वीकार्यता बढ़ती जा रही है। जिस तरह बुद्ध की अनुपस्थिति में बुद्ध धर्म पनपा, जीसस की अनुपस्थिति में ईसाई धर्म पनपा और उसे विस्तार मिला, उसी तरह ओशो के शब्द भी साक्षी बन रहे हैं।

धर्म ग्रंथों का अध्ययन करें तो कई बार ऋषियों-मुनियों की बातों में विरोधाभास दिखता है। रास्ते अलग-अलग दिखते हैं। पर लक्ष्य एक ही होता है। ऋग्वेद में कहा गया है कि सत्य बुहाआयामी है। ऋषिगण इस सत्य को विभिन्न पद्धतियों से उद्घोषित करते हैं। रामकृष्ण परमहंस कहते थे कि जिस प्रकार कोई व्यक्ति घर की छत पर सीढी, बांस, रस्सी अथवा किसी अन्य उपाय से चढ़ता है, उसी प्रकार ईश्वर तक पहुंचने के मार्ग भी अनेक हैं। संसार का प्रत्येक धर्म इनमें से किसी एक मार्ग का निर्देश करता है। इसलिए यहां यह चर्चा का विषय नहीं है कि ओशो ने जो कहा वह सत्य है या दूसरों ने जो कहा, वह सत्य है। इतना जरूर है कि ओशो ने जीवन पद्धति की जैसी व्याख्या की, वह ज्यादातर मामलों में वैदिक साहित्य के अनुरूप ही है। इसे कैवल्य उपनिषद की व्याख्या के जरिए भी समझा जा सकता है।

सर्वविदित है कि ओशो ने ध्यान योग को सर्वोपरि माना था। कैवल्योपनिषद् में भी ध्यानाभ्यास का विशद वर्णन मिलता है। मैंने इसलिए श्रद्धा, भक्ति, ध्यान और योग के मामले में ओशो के विचारों को कुछ शब्दों में व्यक्त करने के लिए कैवल्योपनिषद् पर उनके भाष्य को चुना है। इससे उनके मौलिक और स्वतंत्र चिंतन का भी पता चल जाता है। कैवल्योपनिषद् में शिष्य आश्वलायन परम स्वतंत्रता की आकांक्षा लिए सनत्कुमारों को ज्ञान का उपदेश देने वाले ब्रह्मा जी के पास जाते हैं और विनयपूर्वक ब्रह्म विद्या के लिए जिज्ञासा व्यक्त करते हैं। प्रत्युत्तर में ब्रह्मा जी कहते हैं, उस परमतत्व को पाने के लिए श्रद्धा, भक्ति, ध्यान और योग का आश्रय लेना पड़ता है। ओशो इस संवाद की सुंदर व्याख्या करते हैं। पर वे इसी बात को स्वतंत्र रूप से, उपनिषद का नाम लिए बिना कहते हैं तो उल्टा मालूम पड़ता है। पर ओशो ऐसी बातों की परवाह कहां रही। वे खुलकर कहते रहे कि आध्यात्मिक जीवन की शुरूआत श्रद्धा से होनी चाहिए। फिर भक्ति, ध्यान और योग।

ओशो कहते हैं कि श्रद्धा कास्मिक है, ब्रह्मभाव है। भक्ति आत्मिक है, व्यक्तिभाव है। ध्यान मानसिक है और योग शारीरिक है। ज्यादातर लोग क्या करते हैं, शरीर से शुरू करते हैं, फिर मन पर जाते हैं, फिर आत्मा पर और फिर ब्रह्म पर। यानी कैवल्योपनिषद में बतलाए गए क्रम से उलट। इसलिए हर चरण सहज न होकर कठिन होता चला जाता है। इसलिए आमतौर पर ऐसा होता है कि योग से शुरू करने वाले योग पर अटक जाते हैं और आसन वगैर करके निपट जाते हैं। ध्यान तक पहुंच ही नहीं पाते। ध्यान से शुरू करने वालों के लिए भक्ति कठिन हो जाती है और भक्ति से शुरू करने वाले श्रद्धा तक नहीं पहुंच पाते। इसलिए शुरूआत श्रद्धा से होनी चाहिए।

श्रीमद्भगवतगीता में श्रीकृष्ण ने कहा है – “जो-जो भक्त जिस-जिस देवताका श्रद्धापूर्वक पूजन करना चाहता है, उस-उस देवताके प्रति मैं उसकी श्रद्धाको दृढ़ कर देता हूँ।“ पर श्रद्धावान बनें कैसें? परमहंस योगानंद ने अपने गीताभाष्य में कहा है कि कोई भक्त अपने ईष्ट देवता पर अत्यधिक गहनता से एकाग्र होता है तो वही अभिव्यक्ति एक जीवित रूप धारण करके भक्त के हृदय की सच्ची पुकार को संतुष्ट करती है। ओशो के मुताबिक, मीरा या कबीर जब कहते हैं कि ऐ री मैंने राम-रतन धन पायो, तो वह श्रद्धा ही तो है। उनकी श्रद्धा मजबूत हुई तो सब भ्रम टूट गया। फिर मिला क्या? राम-रतन धन। यानी कोहिनूर हीरा। अब जिसे कोहिनूर हीरा मिल गया, तो वह कंकड़—पत्थर क्यों चुनेगा!

ओशो कहते हैं कि श्रद्धा के बाद है भक्ति। श्रद्धा जैसी अंतर्घटना की अभिव्यक्ति। एक बार श्रद्धा का जन्म हो जाए तो भक्ति अनिवार्य छाया की तरह उसके पीछे चली आती है। अब किसी पदार्थ में भी प्रेमी या परमात्मा के दर्शन हो सकते हैं। इन दो परिघटनाओं के बाद ध्यान सुगंध की तरह पीछा करता है। मीरा बाई और चैतन्य महाप्रभु इसके उदाहरण हैं। सबसे आखिर में योग को रखा गया है। जिसे ध्यान सध जाता, उसके पीछे योग चला आता है। हम हैं कि इसके उलट कठिन रास्ता चुन लेते हैं। ओशो की प्राय: ऐसी ही बातें उनके समकालीन प्रबुध्दजनों को उल्टी मालूम पड़ती थी। प्रसिध्द गीतकार गुलजार सदैव ओशो के विचारों से खासे प्रभावित रहे हैं। वे कहते हैं कि ओशो कुछ और नहीं, बल्कि अस्तित्व की अभिव्यक्ति हैं। अस्तित्व का माधुर्य हैं। उनकी करूणा का सहारा पाकर मानवता धन्य हुई। ओशो को उनकी 91वीं जयंती पर सादर नमन।  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

मंडे ब्लूज : योग है इस मर्ज की दवा

किशोर कुमार

“मंडे ब्लूज” यानी कार्यदिवस के पहले दिन ही काम के प्रति अरूचि। पाश्चात्य देशों में आम हो चुका यह रोग अब भारतीय युवाओं को भी तेजी से अपने आगोश में ले रहा है। भारत भूमि तो जगत्गुरू शंकाराचार्य, स्वामी विवेकानंद और महात्मा गांधी जैसे आध्यात्मिक नेताओं और कर्मयोगियों की भूमि रही है। फिर मंडे ब्लूज के रूप में पाश्चात्य देशों की अपसंस्कृति अपने देश कैसे पसर गई? स्वामी विवेकानंद की युवाओं से अपील कि “उठो, जागो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य ना प्राप्त हो जाए” तथा “काल करे सो आज कर, आज करे सो अब…” जैसी कबीर वाणी को आत्मसात करने वाले देश की युवा-शक्ति ही राष्ट्रीय चरित्र को बनाए रखने के लिए आध्यात्मिक और राजनैतिक क्रांति का बिगुल बजाती रही हैं। फिर चूक कहां हो रही है कि कर्म बोझ बनता जा रहा है?

इस मर्ज को लेकर कई स्तरों पर अध्ययन किया गया है। मैं उसके विस्तार में नहीं जाऊंगा। पर सभी अध्ययनों का सार यह है कि गलत जीवन शैली और नकारात्मक विचार व व्यवहार मंडे ब्लूज जैसी परिस्थितियों के लिए ज्यादा जिम्मेवार होते हैं। वैदिक ग्रंथों में मानसिक पीड़ाओं को तीन वर्गों में विभाजित किया गया है – आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक। बिहार योग विद्यालय के निवृत परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती समझाने के लिए इसे क्रमश: देवताकृत, परिस्थितिकृत और स्वकृत कहते हैं। जाहिर है कि तीसरे प्रकार के दु:ख के लिए हम स्वयं जिम्मेवार होते हैं और मौजूदा समस्या की जड़ में वही है। हम हर वक्त काम, क्रोध, लोभ, मोह व अहंकार से घिरे होते हैं। कोरोना महामारी कोढ़ में खाज की तरह है। ऐसे में मानसिक पीड़ा और अवसाद होना लाजिमी ही है।

यह समस्या लंबे अंतराल में साइकोसिस और न्यूरोसिस जैसे हालात बनती है। साइकोसिस यानी कोई समस्या न होने पर भी मानसिक भ्रांतियों के कारण हमें लगता है समस्या विकराल है। दूसरी तरफ न्यूरोसिस की स्थिति में समस्या कहीं होती है और हम उसे ढूंढ़ कही और रहे होते हैं। योगशास्त्र में साइकोसिस को माया और न्यूरोसिस को अविद्या कहते हैं। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि प्रेम व घृणा, आकर्षण व विकर्षण, दु:ख व सुख ये सभी मन के इन्हीं दो दृटिकोणों के कारण उत्पन्न होता है। उपनिषदों में भी कहा गया है कि यदि किसी को पत्नी प्यारी लगती है तो इस प्रेम का कारण पत्नी में नहीं, व्यक्ति के स्वंय में है।

परमहंस योगानंद के गुरू युक्तेश्व गिरि मन की शक्ति की व्याख्या करते कहते थे – लक्ष्यहीन दौड़ में शामिल लोग निराश और नाना प्रकार की मनासिक पीड़ाओं के शिकार होते हैं। जबकि मन की शक्ति इतनी प्रबल है कि दृढ़ इच्छा-शक्ति हो और चाहत उस चीज को पाने की हो, तो ब्रह्मांड में नहीं होने पर भी उसे उत्पन्न कर दिया जाएगा। बस, इच्छा ईश्वरीय होनी चाहिए। सवाल है कि क्या इस शक्तिशाली मन का प्रबंधन संभव है और है तो किस तरह? योगशास्त्र में अनेक उपाय बतलाए गए हैं, जिनके अभ्यास से मानव न सिर्फ अवसाद से उबरेगा, बल्कि कर्मयोगी बनकर राष्ट्र के नवनिर्माण में महती भूमिका निभाएगा।  

इसे ऐसे समझिए कि यदि मानव लोहा है तो योग पारस है। इन दोंनों का मेल होते ही कुंदन बनते देर न लगेगी। मानव में वह शक्ति है। बस, योगियों से मार्ग-दर्शन पा कर मन पर नियंत्रण करके अपनी ऊर्जा को सही दिशा देने के प्रति श्रद्धा और इच्छा-शक्ति होनी चाहिए। अष्टांग योग से लेकर कर्मयोग और भक्तियोग तक में अनेक उपाय बतलाए गए हैं, जो अलग-अलग व्यक्तियों के लिए उनकी सुविधा के लिहाज से अनुकूल होंगे। तंत्र-शास्त्र का अद्भुत ग्रंथ है रूद्रयामल तंत्र। उसमें महायोगी शिव कहते हैं कि योग एक ऐसा माध्यम है, जिससे मनुष्य अपने दु:खों से छुटकारा पा सकता है। इस बात को विस्तार मिलता है माता पार्वती के सवाल से। वह शंकर भगवान से पूछती हैं कि चंचल मन को किस विधि काबू में किया जाए? प्रत्युत्तर में महायोगी 112 उपाय बतलाते है और कहते हैं कि इनमें से कोई भी उपाय कारगर है। ये उपाय ही आधुनिक योग में धारणा और ध्यान की प्रचलित विधियां बने हुए हैं।

श्रीमद्भागवतगीता तो अपने आप में पूर्ण मनोविज्ञान और योगशास्त्र ही है। उसके मुताबिक, अर्जुन श्रीकृष्ण से पूछते हैं – हे कृष्ण, मन चंचल है, प्रमथन करने वाला है, बली और दृढ़ है। इसका निग्रह वायु के समान दुष्कर है। जबाव में श्रीकृष्ण ने कर्मयोग और भक्तियोग के जो उपाय बतलाए उसके लाभों को आधुनिक विज्ञान भी संदेह से परे मानता है। महर्षि पतंजलि के अष्टांगयोग के चमत्कारिक प्रभावों से भी हम सब वाकिफ हैं। असल सवाल ऐसी परिस्थिति में व्यक्ति के अनुकूल योगाभ्यास के चुनाव का है। श्रीमद्भागवत महापुराण में कथा है कि नारद पृथ्वीलोक पर विचरण करते हुए यमुनाजी के तट पर पहुंचे तो उनका सामना भक्ति से हो गया, जो अपने दोनों पुत्रों ज्ञान और वैराग्य की पीड़ाओं से बेहाल थी।

कर्नाटक में पली-बढ़ी और गुजरात में वृद्धावस्था प्राप्त करके जीर्ण-शीर्ण हुई भक्ति के पांव वृंदावन की धरती पर पड़ते ही पुन: सुरूपवती नवयुवती बन गई थी। पर उसके पुत्र अधेर और रोगग्रस्त ही रह गए थे। यही उसके विषाद का कारण था। भक्ति नारद जी से इसकी वजह और इस स्थिति से उबरने के उपाय जानना चाहती थी। नारद जी ने ध्यान लगाया और उन्हें उत्तर मिल गया। उन्होंने भक्ति को बतलाया कि कलियुग के प्रभाव के कारण ज्ञान और वैराग्य निस्तेज पड़े हैं। कलियुग में मानव भक्ति तो करता है, पर उसके जीवन में न तो ज्ञान यानी आत्म-दर्शन का स्थान है और न ही वैराग्य का। इसलिए श्रीमद्भागवत कथा ज्ञान महायज्ञ से ही बात बनेगी। दैवयोग से ऐसा ही हुआ।    

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती से किसी साधक ने पूछ लिया कि मन अशांत रहता है और काम में जी नहीं लगता, क्या करें?  परमहंस जी ने जबाव दिया – आसन-प्राणायाम से बीमारी दूर होती है, प्रत्याहार-ध्यान से आत्म-सम्मोहन होता है। इसलिए ये स्थायी उपाय नहीं हैं। यदि स्थायी उपाय चाहिए तो भक्तियोग और कर्मयोग का सहारा लेना होगा। कलियुग में ये ही उपाय हैं। भक्तियोग के तहत संकीर्तन, जप, अजपाजप आदि। इतना ही काफी है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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