“हरे कृष्ण हरे राम” मंत्र की शक्ति, आक्रमणों से कहां दबती

किशोर कुमार

एसी भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद के श्रीकृष्ण भावनामृत अभियान और इंटरनेशनल सोसाइटी फॉर कृष्णा कॉन्शियसनेस (इस्कॉन) पर दुनिया के किसी भी कोने में जब-जब हमले हुए, इस्कॉन की शक्ति बढ़ती ही गई। इतिहास गवाह है कि जब-जब आसुरी शक्तियों ने दैवी शक्तियों से भिड़ने की कोशिश की, दैवी शक्तियों को ही विजय श्री की प्राप्ति हुई। चिन्मय मिशन के संस्थापक स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती ने श्रीमद्भगवतीता के भाष्य में लिखा है कि हिंदू धर्म समस्याओं से भागने को नहीं कहता, बल्कि मोर्चे पर डटे रहकर स्वयं में और अपने आसपास के संसार में विश्वास रखते हुए तथा अपनी भीतरी व बाहरी क्रूर प्रकृति के आक्रमणों पर अंतिम सफलता और विजय की आशा के साथ बुद्धिमत्तापूर्वक कर्म करने को कहता है। इस्कॉन इस कसौटी पर सौ फीसदी खरा है। तभी बंगलादेश में इस्कॉन मंदिर पर बड़े हमले के बावजूद इस्कॉन के सेवादारों के हौसले बुलंद हैं और परिस्थितियों का मजबूती से सामना कर रहे हैं।

मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, ढाका के इस्कॉन राधाकांत मंदिर पर करीब दो सौ चरमपंथियों ने 17 मार्च रात हमला किया। तोड़फोड़ और मारपीट की गई। वैसे, इस्कॉन पर हमला कोई नई बात नहीं है। दुनिया के अनेक भागों में नाना प्रकार से इस विश्वव्यापी संस्था को बदनाम करने और उसकी जड़ें कमजोर करने की भरपूर कोशिशें की जाती रही हैं। पश्चिमी देशों में तो बीते चार-पांच सालों से मीडिया ने इस आंदोलन के विरूद्ध अभियान ही चला रखा है। पर तमाम हमलों और अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद के परलोक सिधाने के चार दशक बाद भी हरे कृष्ण, हरे राम के रूप में पूरी दुनिया में ख्यात श्रीकृष्ण भावनामृत अभियान की चमक बरकरार है। इंटरनेशनल सोसाइटी फॉर कृष्णा कॉन्शियसनेस (इस्कॉन) शनै-शनै ही सही, विस्तार पा रहा है। दुनिया भर के साठ से ज्यादा देशों में इस्कॉन की मजबूत उपस्थिति और अनुयायियों की संख्या में इजाफा देखकर ऐसा लगता है मानों कोई अदृश्य शक्ति सब कुछ संचालित कर रही है।

श्रील प्रभुपाद 1965 में अमेरिका गए थे। साल पूरा होते-होते अंतर्राष्ट्रीय श्रीकृष्ण भावनामृत संघ की स्थापना की। इसी बैनर तले भक्तियोग आंदोलन शुरू किया। गोरे युवक-युवतियों का इस आंदोलन के प्रति बढता आकर्षण चर्च के धार्मिक नेताओं को परेशान करने लगा था। मीडिया हमलावर हो गया था। इसके बावजूद श्रील प्रभुपाद कदम-कदम पर हरे कृष्ण हरे राम…मंत्र-शक्ति व संकीर्तन की वैज्ञानिकता साबित करते हुए और तर्कों व तथ्यों के आधार पर यह बताते हुए कि कृष्ण और क्राइस्ट एक ही परमात्मा के अलग-अलग नाम हैं, आगे बढ़ते चले गए थे। उनके आंदोलन को बड़े स्तर पर ऐसी स्वीकार्यता मिली कि वह अमेरिका और यूरोप सहित साठ से ज्यादा देशों में छा गया था।

अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद जब अमेरिका पहुंचे थे तो उनके पक्ष में कुछ बातें थीं, जिनसे प्रकारांतर से उन्हें मदद मिली होगी। पहला तो यह कि स्वामी विवेकानंद के कारण अमेरिका की धरती भक्ति आंदोलन के लिए बंजर नहीं रह गई थी। श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती का कृष्ण भक्ति साहित्य अमेरिका के पुस्तकालयों तक पहुंच चुका था। श्रील प्रभुपाद से उम्र में कोई तीन वर्ष बड़े पहमहंस योगानंद क्रियायोग का प्रचार करने 1920 में ही अमेरिका चले गए थे। यानी श्रील प्रभुपाद से 45 साल पहले। वे योग और अध्यात्म के दृष्टिकोण से उस जमीन को उर्वर बनाने के लिए बड़े पैमाने पर काम कर रहे थे। साथ ही धार्मिक अवरोधों को दूर करने के लिए लोगों के मन में बात बैठाते जा रहे थे कि श्रीमद्भगतवत गीता और बाइबिल की बातें और उनके संदेश प्रकारांतर से एक ही हैं। श्रीकृष्ण के भौतिक शरीर धारण करने के बाद की परिस्थितियां और ईशा मसीह का जीवन लगभग एक जैसा है। दूसरी तरफ साठ के दशक के प्रारंभ में ही महर्षि महेश योगी के भावातीत ध्यान का जादू अमेरिकियों पर काम करने लगा था। स्वामी सत्यानंद सरस्वती के वैज्ञानिक योग की बातें तथा नाम संकीर्तन व मंत्रयोग की महत्ता भी अमेरिका और यूरोप के लोग लोग समझने लगे थे।

अध्यात्म के दृष्टिकोण से इतनी जमीन तैयार होने के बावजदू श्रील स्वामी प्रभुपाद को विशेष राहत न थी। उन्हें धर्म परिवर्तन कराने आए संत के तौर पर देखा जाता था। सैंडी निक्सन अमेरिका के बड़े पत्रकार थे। उन्होंने स्वामी प्रभुपाद से पूछा था कि श्रीकृष्णभावनामृत और क्राइस्टभावनामृत में क्या अंतर है? कृष्ण भक्त बनकर हम समाज की बेहतर सेवा किस तरह कर सकते हैं? क्या यह अभियान जाति व्यवस्था को जागृत करने का जरिया नहीं है? महिलाओं के आध्यात्मिक जीवन के लिए इस आंदोलन में कोई जगह है या नहीं? आदि आदि। इसी तरह के सवाल अनेक पत्र-पत्रिकाओं के पत्रकार अक्सर किया करते थे।

श्रील प्रभुपाद सभी प्रश्नों के तर्कसम्मत उत्तर देते थे। वे कहते थे कि विभिन्न रूपो में कृष्ण प्रेम का तत्व सबके जीवन में पहले से मौजूद है। महामंत्र हरे कृष्ण हरे कृष्ण, हरे राम हरे राम…… श्रीकृष्णभावनामृत को जागृत कर देता है। तभी जो लोग भगवान कृष्ण से अनजान हैं, वे लोग भी हरे कृष्ण हरे कृष्ण, हरे राम हरे राम अभियान को लेकर दीवाने हुए जा रहे हैं। उन्हें समझ में आ गया कि संकीर्तन विज्ञान है औऱ इससे उत्पन्न स्पंदन स्नायुओं को आराम पहुंचाता है। इससे मन का नियंत्रण और प्रबंधन होता है। रही बात क्राइस्टभावनामृत की वह भी कृष्णभावनामृत ही है। जो लोग जीसस के आदेशों का पालन नहीं करते वे कृष्णभावनामृत तक नहीं पहुंच पातें।

अमेरिका और यूरोप के युवाओं को उनके वैज्ञानिक तर्क सही मालूम पड़े और वे श्रीकृष्णभावनामृत अभियान से जुड़ते चले गए थे। पांच दशक बाद पश्चिम का कुछ मीडिया घराना इस अभियान के विरोध में मुखर हुआ है और साबित करने की कोशिश की जाती है कि श्रील प्रभुपाद महिलाओं को इस्कॉन में महती भूमिकाएं देने के पक्ष में नहीं थे। लिंगभेद के इसी सिद्धांत के कारण महिलाएं अपने को आंदोलन में उपेक्षित महसूस करती हैं, जबकि हकीकत ऐसा नहीं है। इस्कॉन की विशाखापत्तनम शाखा में निताई सेविनी माता जी गुरूत्तर भूमिका निभा रही हैं। और जगहों पर भी महिलाएं गुरूत्तर भूमिका में हैं। इसलिए मीडिया की बातें असरहीन हैं और  इस्कॉन की दुनिया भर में जादू बरकरार है। ऐसे में बंगलादेश में भी हरे कृष्ण हरे राम मंत्र की शक्ति, आक्रमणों से दब जाएगी, ऐसा भ्रम पालना दिवास्वप्न ही है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

हरे कृष्ण हरे राम मंत्र की शक्ति, विवादों से कहां दबती

एसी भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद के श्रीकृष्ण भावनामृत अभियान और  इंटरनेशनल सोसाइटी फॉर कृष्णा कॉन्शियसनेस (इस्कॉन) का विवादों से नाता पुराना है। पश्चिमी देशों में बीते चार सालों से एक बार फिर मीडिया ने इस आंदोलन के विरूद्ध अभियान ही चला रखा है। पर शायद पहली बार है कि भारत में किसी शंकराचार्य ने इस्कॉन को घेरा है। शंकराचार्य स्वरूपानंद के मुताबिक इस्कॉन के मंदिरों की कमाई अमेरिका भेजी जा रही है, क्योंकि इस्कॉन भारत में नहीं बल्कि अमेरिका में पंजीकृत संस्था है। यह विवाद ऐसे समय में छिड़ा हुआ है जब एसी भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद की 124वीं जयंती पर इस्कॉन परिवार जश्न के मूड में है।  

अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद के परलोक सिधाने के चार दशक बाद भी हरे कृष्ण, हरे राम के रूप में पूरी दुनिया में ख्यात श्रीकृष्ण भावनामृत अभियान की चमक बरकरार है। इंटरनेशनल सोसाइटी फॉर कृष्णा कॉन्शियसनेस (इस्कॉन) शनै-शनै ही सही, विस्तार पा रहा है। यह आलम तब है, जब इस अभियान को नेतृत्व देने के लिए श्रील स्वामी प्रभुपाद जैसा अलौकित शक्ति वाला ऊर्जावान आध्यात्मिक नेता नहीं है। दूसरी तरफ पश्चिमी जगत का मीडिया लगातार हमलावर बना रहता है। दुनिया भर के साठ से ज्यादा देशों में इस्कॉन की मजबूत उपस्थिति और अनुयायियों की संख्या में इजाफा देखकर ऐसा लगता है मानों कोई अदृश्य शक्ति सब कुछ संचालित कर रही है।

Shril Prabhupada

श्रीकृष्णभावनामृत ही मौलिक चेतना है। अवांछनीय उपाधियों से आवृत्त चेतना को स्वच्छ करना होगा। ऐसा होते ही चेतना श्रीकृष्णभावनामृत में परिणत हो जाएगा। यह भक्ति मार्ग है। कलियुग में यही श्रेष्ठ है।

चार साल पहले सन् 2016 में जब इस्कॉन की स्वर्ण जयंती दुनिया भर में भव्यता के साथ मनाई जा रही थी तो पश्चिम का मीडिया यह बताने में जुटा हुआ था कि इस्कॉन किस तरह अपना असर खो रहा है और श्रीकृष्ण भावनामृत अभियान बेहद कमजोर हो चुका है। इसके साथ ही लिंगभेद की अनेक कहानियां उछाली गई थीं। वह सिलसिला अब भी जारी है। पर इन सब से अप्रभावित श्रीकृष्ण भावनामृत अभियान अपने मूलभूत सिद्धांतों की वैज्ञानिकता मनवाने में सफल होता दिख रहा है। इस लेख में इन तमाम बातों विस्तार दिया जाएगा। पर पहले श्रीकृष्ण भावनामृत अभियान के प्रणेता और इस्कॉन के संस्थापक अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद की बात। उन्होंने यदि अपना भौतिक शरीर न छोड़ा होता तो 1896 में कलकत्ता में जन्में श्रील प्रभुपाद 1 सितंबर को 124 वर्ष के हो गए होतें। 

भक्त के अद्भुत भाव: श्रीचैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ मंदिर में गरूड़स्तंभ के पास खड़े होकर बड़ी तन्मयता से आरती गा रहे थे। एक स्थनीय महिला भी भगवान के दर्शन करना चाहती थी। पर भीड़ इतनी कि जगह नहीं मिल पा रही थी। उसने तरकीब निकाली। गरूड़स्तंभ पर चढ़ गई और एक पांव चैतन्य महाप्रभु के कंधे पर रखकर आरती देखने लगी। बाकी भक्तों की आपत्ति पर उस महिला को अपनी गलती का अहसास हुआ तो वह तुरंत नीचे उतर गई और महाप्रभु के चरण पकड़ लिए। चैतन्य महाप्रभु ने कहा – अरे, तुम यह क्या कर रही हो? मुझे तो तुम्हारे चरणों की वंदना करनी चाहिए ताकि तुम जैसा भक्तिभाव मैं भी प्राप्त कर सकूं।

कोई व्यक्ति 69 साल की उम्र में समुद्री मार्ग से अमेरिका जाए और एक मलिन बस्ती में अनजान लोगों और क्राइस्ट को मामने वाले लोगों के बीच अपनी जगह बनाकर अपने श्रीकृष्ण भावनामृत अभियान को जनांदोलन जैसा बना दे, यह फिल्मों में तो संभव है। पर व्यवहार रूप में भी ऐसा ही होना कम हैरान करने वाली बात नहीं है। श्रील प्रभुपाद ने अपने अदम्य साहस और अलौकिक प्रतिभा की बदौलत असंभव को संभव कर दिखाया था। वे 1965 में अमेरिका गए थे। साल पूरा होते-होते अंतर्राष्ट्रीय श्रीकृष्ण भावनामृत संघ की स्थापना की। इसी बैनर तले भक्तियोग आंदोलन शुरू किया। गोरे युवक-युवतियों का इस आंदोलन के प्रति बढता आकर्षण चर्च के धार्मिक नेताओं को परेशान करने लगा था। मीडिया हमलावर हो गया था। ऐसे में श्रील प्रभुपाद कदम-कदम पर हरे कृष्ण हरे राम…मंत्र-शक्ति व संकीर्तन की वैज्ञानिकता साबित करते हुए और तर्कों व तथ्यों के आधार पर यह बताते हुए कि कृष्ण और क्राइस्ट एक ही परमात्मा के अलग-अलग नाम हैं, आगे बढ़ते चले गए थे।

नदिया में राजा कृष्णानंद दत्त के 7वें पुत्र केदारनाथ दत्त अपनी अलौकिक शक्ति के कारण श्रील भक्तिविनोद ठाकुर के रूप में ख्यात हुए। उन्होंने संकीर्तन आंदोलन के अद्वितीय महत्व को समझा और गौड़ीय वैष्णव परंपरा को पुनर्जीवित किया।

श्रील प्रभुपाद को अभियान के शुरूआती दिनों में एक तरफ श्रीकृष्ण और हिंदू धर्म के बीच के संबंधों पर सफाई देनी होती थी तो दूसरी तरफ आत्मा-परमात्मा पर शास्त्रार्थ करना होता था। बाद के दिनों में उनके आंदोलन को बड़े स्तर पर ऐसी स्वीकार्यता मिली कि वह अमेरिका और यूरोप सहित साठ से ज्यादा देशों में छा गया था। श्रील प्रभुपाद श्री चैतन्य महाप्रभु की शिष्य परंपरा में महान वैष्णव आचार्य श्रील भक्तिविनोद ठाकुर के पुत्र श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर के शिष्य थे। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर को आधुनिक युग में श्रीचैतन्य महाप्रभु के भक्ति आंदोलन को पुनर्जीवित करने का श्रेय जाता है। वे सरकारी सेवक थे। पर श्रीकृष्ण और उनके उपासक श्रीचैतन्य महाप्रभु से बेहद प्रभावित थे। वे उनके भक्ति आंदोलन को बढ़ाने के लिए इस तरह ब्याकुल रहते थे, मानों उनका जन्म इसी काम के लिए हुआ हो। 

दैवीय शक्ति वाले भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर श्रील भक्तिविनोद ठाकुर के पुत्र और श्रील भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद के गुरू थे। कथा है कि जब वे शैशवावस्था में थे तो रथ यात्रा के दौरान भगवान जगन्नाथ का रथ उनके घर के सामने तब तक रूका रहा जब तक कि उन्हें दर्शन नहीं करा दिया गया था।

उनकी पदस्थापना डिप्टी मजिस्ट्रेट के रूप में जगन्नपुरी में हुई तो मंदिर की सेवा में जुट गए थे। वे श्रीचैतन्य महाप्रभु के भक्ति आंदोलन को गति देना चाहते थे। पर अकेले इस काम को कर पाने में असमर्थ पा रहे थे। एक दिन उन्हें कुछ आभास हुआ और वे जगन्नाथ मंदिर में अवस्थित विमला देवी की प्रतिमा के समक्ष प्रस्तुत होकर अलौकिक शक्ति वाले पुत्र की इच्छा व्यक्त कर दी। बात आई गई हो गई। कुछ समय बाद यानी 6 फरवरी 1874 को उन्हें पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई तो उसका नाम विमला देवी के नाम पर विमला प्रसाद रख दिया। कुछ समय बाद एक चमत्कार हुआ। जगन्नाथ जी की रथयात्रा निकाली तो रथ अपने आप श्रील भक्तिविनोद ठाकुर (तब उन्हें केदारनाथ दत्त के नाम से जाना जाता था) के घर के सामने रूक गया। तीन दिनों तक रूका रहा। कितने तकनीशियनों का दिमाग लग गया कि रथ आगे बढ़ क्यों नहीं रहा है। पर बात नहीं बनी थी। फिर श्रील भक्तिविनोद ठाकुर को कुछ आभास हुआ। उन्होंने अपने नवजात शिशु को जगन्नाथजी के विग्रह से जैसे स्पर्श कराया, शिशु पर एक माला गिरा और रथ चल पड़ा था। वही शिशु आगे चलकर चौसठ गौड़ीय मठों के संस्थापक श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर के रूप में मशहूर हुए थे। उन्हीं की प्रेरणा से अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद पश्चिमी दुनिया को कृष्णभक्ति का पाठ पढ़ाने के लिए वृद्धावस्था में अमेरिका कूच कर गए थे।

श्रील प्रभुपाद के बेहतरीन ग्रंथों की वजह से श्रीकृष्णभावनामृत अभियान को काफी बल मिला था। सच कहिए तो उन ग्रंथों ने उत्प्रेरक का काम किया था। मूल रूप से अंग्रेजी में लिखे गए ग्रंथों के अनेक भाषाओं में अनुवाद किए गए।

अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद जब अमेरिका पहुंचे थे तो उनके पक्ष में कुछ बातें थीं, जिनसे प्रकारांतर से उन्हें मदद मिली होगी। पहला तो यह कि स्वामी विवेकानंद के कारण अमेरिका की धरती भक्ति आंदोलन के लिए बंजर नहीं रह गई थी। श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती का कृष्ण भक्ति साहित्य अमेरिका के पुस्तकालयों तक पहुंच चुका था। श्रील प्रभुपाद से उम्र में कोई तीन वर्ष बड़े पहमहंस योगानंद क्रियायोग का प्रचार करने 1920 में ही अमेरिका चले गए थे। यानी श्रील प्रभुपाद से 45 साल पहले। वे योग और अध्यात्म के दृष्टिकोण से उस जमीन को उर्वर बनाने के लिए बड़े पैमाने पर काम कर रहे थे। साथ ही धार्मिक अवरोधों को दूर करने के लिए लोगों के मन में बात बैठाते जा रहे थे कि श्रीमद्भगतवत गीता और बाइबिल की बातें और उनके संदेश प्रकारांतर से एक ही हैं। श्रीकृष्ण के भौतिक शरीर धारण करने के बाद की परिस्थितियां और ईशा मसीह का जीवन लगभग एक जैसा है। दूसरी तरफ साठ के दशक के प्रारंभ में ही महर्षि महेश योगी के भावातीत ध्यान का जादू अमेरिकियों पर काम करने लगा था। स्वामी सत्यानंद सरस्वती के वैज्ञानिक योग की बातें तथा नाम संकीर्तन व मंत्रयोग की महत्ता भी अमेरिका और यूरोप के लोग लोग समझने लगे थे।

Biggest iskon temple of Delhi - Reviews, Photos - ISKCON Temple Delhi -  Tripadvisor

इस्कॉन मंदिर, नई दि्ल्ली, जहां प्रतिदिन एक-दो-तीन हजार नहीं, पूरे डेढ़ लाख लोगों का खाना बन रहा है। वह भी तेल नहीं, गाय के शुद्ध घी से। दिल्ली के द्वारका स्थित इस्कॉन मंदिर में प्रतिदिन सात विधानसभा क्षेत्रों के निवासी डेढ़ लाख लोगों का पेट भर रहा है

आजतक, न्यूज चैनल

परमहंस योगानंद अमेरिकी नागरिकों को बताते थे कि जीसस ने शैतान पर विजय पाई थी तो कृष्ण ने कालिया राक्षस पर विजय पाई। जीसस ने एक जहाज में बैठे अपने भक्तों को बचाने के लिए समुद्र के तूफान को रोक दिया था तो कृष्ण ने अपने भक्तों और उनके पशुओं को प्रलयंकारी वर्षा में डूबने से बचाने के लिए गोवर्धन पर्वत को एक छाते की तरह उनके ऊपर उठा लिया था। जीसस की मैरी, मार्था और मैरी मैगडेलन जैसी महिला शिष्याएं थीं तो कृष्ण की महिला शिष्य़ाओं राधा और गोपियों (ग्वालनों) ने भी उसी प्रकार की दिव्य भूमिकाएं निभाईं। जीसस को कीलें ठोक कर सलीब पर चढ़ा दिया गया था। दूसरी तरफ कृष्ण एक शिकारी के तीर से प्राणघातक रूप से घायल हो गए थे। एक ने समाज के भगवद्गीता दिया तो एक ने बाइबिल। आदि आदि।

जीसस ने शैतान पर विजय पाई थी तो कृष्ण ने कालिया राक्षस पर विजय पाई। जीसस ने एक जहाज में बैठे अपने भक्तों को बचाने के लिए समुद्र के तूफान को रोक दिया था तो कृष्ण ने अपने भक्तों और उनके पशुओं को प्रलयंकारी वर्षा में डूबने से बचाने के लिए गोवर्धन पर्वत को एक छाते की तरह उनके ऊपर उठा लिया था। जीसस की मैरी, मार्था और मैरी मैगडेलन जैसी महिला शिष्याएं थीं तो कृष्ण की महिला शिष्य़ाओं राधा और गोपियों (ग्वालनों) ने भी उसी प्रकार की दिव्य भूमिकाएं निभाईं। जीसस को कीलें ठोक कर सलीब पर चढ़ा दिया गया था। दूसरी तरफ कृष्ण एक शिकारी के तीर से प्राणघातक रूप से घायल हो गए थे। एक ने समाज को भगवद्गीता दिया तो एक ने बाइबिल।

परमहंस योगानंद

अध्यात्म के दृष्टिकोण से इतनी जमीन तैयार होने के बावजदू श्रील स्वामी प्रभुपाद को विशेष राहत न थी। उन्हें धर्म परिवर्तन कराने आए संत के तौर पर देखा जाता था। सैंडी निक्सन अमेरिका के बड़े पत्रकार थे। उन्होंने स्वामी प्रभुपाद से पूछा था कि श्रीकृष्णभावनामृत और क्राइस्टभावनामृत में क्या अंतर है? कृष्ण भक्त बनकर हम समाज की बेहतर सेवा किस तरह कर सकते हैं? क्या यह अभियान जाति व्यवस्था को जागृत करने का जरिया नहीं है? महिलाओं के आध्यात्मिक जीवन के लिए इस आंदोलन में कोई जगह है या नहीं? आदि आदि। इसी तरह के सवाल अनेक पत्र-पत्रिकाओं के पत्रकार अक्सर किया करते थे। श्रील प्रभुपाद सभी प्रश्नों के तर्कसम्मत उत्तर देते थे। वे कहते थे कि विभिन्न रूपो में कृष्ण प्रेम का तत्व सबके जीवन में पहले से मौजूद है। महामंत्र हरे कृष्ण हरे कृष्ण, हरे राम हरे राम…… श्रीकृष्णभावनामृत को जागृत कर देता है। तभी जो लोग भगवान कृष्ण से अनजान हैं, वे लोग भी हरे कृष्ण हरे कृष्ण, हरे राम हरे राम अभियान को लेकर दीवाने हुए जा रहे हैं। उन्हें समझ में आ गया कि संकीर्तन विज्ञान है औऱ इससे उत्पन्न स्पंदन स्नायुओं को आराम पहुंचाता है। इससे मन का नियंत्रण और प्रबंधन होता है। रही बात क्राइस्टभावनामृत की वह भी कृष्णभावनामृत ही है। जो लोग जीसस के आदेशों का पालन नहीं करते वे कृष्णभावनामृत तक नहीं पहुंच पातें।

यौगिक परंपरा में कहा गया है कि हठयोग और राजयोग में आधारभूत प्रशिक्षण प्राप्त किए बिना मंत्र योग के प्रयोग से चक्रों औऱ कुंडलिनी को जागृत करना संभव है।

श्रील प्रभुपाद अमेरिका के लोगों को समझातें कि यह भ्रांति दूर होनी चाहिए कि गीता में जाति की बात भी है। श्रीमद्भगवत गीता में समाज के चार वर्णों की परिभाषा दी गई है। वे हैं – ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य और शूद्र। मनुष्य की योग्यताओं के मुताबिक उनके वर्ण बतलाए गए हैं। जाति की बात कहीं नहीं है। श्रीकृष्णभावनामृत अभियान स्त्रियों और पुरूषों के बीच समानता की वकालत करता है। लिंगभेद की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। उन्हें लोगों की आशंकाओं को दूर करने के लिए यहां तक कहना पड़ता था – “मैं यह शरीर नहीं हूं, मै भारतीय नहीं हूं….आपलोग अमेरिकन नहीं हैं…हम सब आत्मा हैं।“ पर जब उन्होंने 1968 में मैसाच्युसेट्स इंस्टीच्यूट ऑफ टेक्नालॉजी के छात्रों को संबोधित किया तो उनकी वैज्ञानिक बातों के आगे सभी नतमस्तक थे। उन्होंने अपने संबोधन में सवाल किया था – यद्यपि आपके पास ज्ञान के अनेकानेक विभाग हैं। पर एक मृत एवं जीवित शरीर में अंतर की खोज करने के उद्देश्य पर आधारित विभाग कहां है? फिर जबाव का प्रतीक्षा किए बिना बोलते गए थे – आधुनिक विज्ञान यद्यपि देह की यांत्रिक कार्य-प्रणाली को समझने में विकसित हो चुका है। पर वह देह को सजीव रखने वाले चिन्मय स्फुलिग (आत्मा) के विषय में अध्ययन करने के लिए बहुत कम ध्यान देता है। जबकि आध्यात्मिक शक्तियों का विकास करके आत्मा का अनुभव किया जा सकता है। इसके साथ ही उन्होंने इसके पक्ष में कई वैज्ञानिक तथ्य प्रस्तुत किए थे।

जगन्नाथ जी की रथयात्रा निकाली तो एक घर के सामने रथ रूक गया। तीन दिनों तक रूका रहा। कितने तकनीशियनों का दिमाग लग गया। पर बात नहीं बनी थी। एक नवजात शिशु को जगन्नाथजी के विग्रह से जैसे स्पर्श कराया, शिशु पर एक माला गिरा और रथ चल पड़ा था। वही शिशु आगे चलकर चौसठ गौड़ीय मठों के संस्थापक श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर के रूप में मशहूर हुए थे।

अमेरिका और यूरोप के युवाओं को उनके वैज्ञानिक तर्क सही मालूम पड़े और वे श्रीकृष्णभावनामृत अभियान से जुड़ते चले गए थे। पांच दशक बाद पश्चिम का कुछ मीडिया घराना इस अभियान के विरोध में मुखर हुआ है और साबित करने की कोशिश की जाती है कि श्रील प्रभुपाद महिलाओं को इस्कॉन में महती भूमिकाएं देने के पक्ष में नहीं थे। लिंगभेद के इसी सिद्धांत के कारण महिलाएं अपने को आंदोलन में उपेक्षित महसूस करती हैं, जबकि हकीकत ऐसा नहीं है। इस्कॉन के विशाखापत्तनम शाखा में निताई सेविनी माता जी गुरूत्तर भूमिका निभा रही हैं। और भी जगहों पर महिलाएं गुरूत्तर भूमिका में हैं। इसलिए मीडिया की बातें असरहीन साबित हो रही हैं और इस्कॉन की दुनिया भर में जादू बरकरार है। स्वामी प्रभुपाद की कोशिशों के कारण मात्र दस वर्ष के अल्प समय में ही समूचे विश्व में 108 मंदिरों का निर्माण हो चुका था। इस समय पूरे विश्व में करीब  400 इस्कॉन मंदिर हैं। श्रील प्रभुपाद और गौड़ीय वैष्णव परंपरा को मुकाम दिलाने वाले अन्य सिद्ध संतों के प्रति इससे बड़ी श्रद्धांजलि और क्या होगी? 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।) 

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