पाचन प्रक्रिया का द्वार खोलता योग

किशोर कुमार //

पुरानी कहावत है – ताड़ से गिरे, खजूर पर अटके। भारत कोविड-19 से तो बहुत हद तक मुक्ति पा चुका हैं। पर उसका आफ्टर इफेक्ट कहर बरपा रहा है। कोराना महामारी के शिकार हुए लोग अब हृदय रोग, गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल रोग, फेफड़े की समस्या आदि से दो-चार हो रहे हैं। बीते दो वर्षों में विभिन्न स्तरों में किए गए अध्ययनों से ये तथ्य सामने आए हैं। इनमें पेट की समस्या ज्यादा ही विकट है।

चिकित्सा विज्ञान के मुताबिक, फंक्शनल गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल डिसॉर्डर्स (जठरांत्र विकार), हाइपोथायरायडिज्म, पिट्यूटरी ग्रंथि में विकार, मानसिक तनाव और मधुमेह अनियंत्रित होने से भी पेट संबंधी रोग प्रकट हो रहे हैं। हाल ही स्वीडेन के गोथेनबर्ग यूनिवर्सिटी के अध्ययन से पता चला है कि केवल फंक्शनल गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल डिसॉर्डर्स यानी जठरांत्र विकार की वजह से ही भारत सहित दुनिया के 33 देशों के औसतन दस में से चार लोग परेशान हैं। इस संबंध में 73,000 लोगों पर अध्ययन किया गया।

श्रीश्री रविशंकर के अगुआई वाले आर्ट ऑफ लिविंग के मुताबिक, हाइपोथायरायडिज्म यानी अंडरएक्टिव थाइरायड भी पेट की बीमारी में बड़ी भूमिका निभा रहा है। यह ग्रंथि जब पर्याप्त थॉइरायड नहीं बना पाती है तो शरीर में मेटाबॉलिज्म यानी चयापचय गतिविधियां नियंत्रित नहीं रह पाती हैं। इस वजह से वजन बढ़ता है और कब्ज की समस्या आती है। मुंबई स्थित द योगा इस्टीच्यूट के मुताबिक अनियंत्रित मधुमेह पाचन तंत्र को बिगाड़ने में बड़ी भूमिका निभा रही है। ऐसा इसलिए कि मधुमेह के मरीजों में इंसुलिन हार्मोन का स्तर अपर्याप्त होने पर ब्लड सूगर यानी रक्त शर्करा प्रभावित होता है। रक्त शर्करा में वृद्धि नसों को नुकसान पहुंचाती है, जिससे कब्ज होता है। इस तरह समझा जा सकता है कि पेट की सामान्य-सी दिखने वाली समस्या कई बड़ी बीमारियों की वजह हो सकती है।

बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने तो साठ के दशक में ही अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “समस्या पेट की, समाधान योग का” में पेट संबंधी विकारों को लेकर वे सारी बातें स्पष्ट कर दी थीं, जो बातें अब वैज्ञानिक अनुसंधानों से सामने आ रहे हैं। पुस्तक में कहा गया है कि षट्कर्म की दो क्रियाओं के अलावा आसनों में शवासन, सर्वांगासन, शशांकासन, पश्चिमोत्तानासन, भुजंगासन, धनुरासन व पवन मुक्तासन, प्राणायाम की विधियों में कपालभाति, उज्जायी और भ्रामरी प्राणायाम और प्रत्याहार की विधियों में केवल योगनिद्रा का अभ्यास ही कर लिया जाए तो पेट सहित कोविड-19 के बाद के कई कुप्रभावों से बचा जा सकता है या उनके प्रभावों को कम किया जा सकता है।

षट्कर्म में मुख्य रूप से कुजल और शंखप्रक्षालन की अनुशंसा की गई है। कुछ समय पहले कुंजल क्रिया खूब चर्चा में थी। अमेरिका के एक कंप्यूटर प्रोफेसनल ने दावा किया था कि वे कुंजल क्रिया की बदौलत कोरोनामुक्त हो गए थे। कुंजल अपच, गैस, एसिडिटी, विषाक्त भोजन, अजीर्ण आदि रोगों के उपचार में भी सहायक है। पेट की बीमारी खासतौर से कब्ज से मुक्ति दिलाने में शंखप्रक्षालन की बड़ी भूमिका होती है। आसन पेट संबंधी बीमारियों के लिए बड़े काम के होते हैं। इस बात को लेकर देश-विदेश में कई अनुसंधान हुए। सबका सार यह कि योगासनों से उदर प्रदेश के पाचन अंगों में जब दबाव बढ़ता-घटता है तो रक्त संचार भी का तरीका बदल जाता है। दबाव पड़ते ही रक्त संचार बंद हो जाता है और दबाव हटते ही रक्त तेजी से पाचन अंगों में भर जाता है। इस तरह पाचन अंगों की गंदगी हटती है और उसे शुद्ध आक्सीजन और पोषक तत्व मिल जाते हैं।

मिसाल के तौर पर भुजंगासन को ही ले लीजिए। यह आसन मस्तिष्क के तंत्रिका तंत्र के साथ ही पाचन तंत्र के लिए भी प्रभावी और लाभदायक है। यह पेट की मांसपेशियों को मजबूत करता है और पूरे पाचन तंत्र को साफ करता है। कब्ज और अपच की समस्या को ठीक करता है। यदि थॉइराइड ग्रंथि के कारण पेट की समस्या है तो सर्वांगासन सर्वाधिक उपयोगी माना जाता है। इस आसन से पड़ने वाला दबाव थाइराइड ग्रंथियों को सुचारू रूप से कार्य करने के लिए प्रोत्साहित करता है। इन ग्रंथियों को नियंत्रित करने में पीयूष (पिट्यूटरी) व पीनियल ग्रंथियों की बड़ी भूमिका होती है। यह आसन इन ग्रंथियों को भी सही तरीके से कार्य करने में सहायता करता है।

पश्चिमोत्तानासन कब्ज और पाचन संबंधी विकारों के लिए एक उत्कृष्ट आसन है। इससे पेट पर गहरा दबाव पड़ने के कारण पेट की मालिश हो जाती है और कब्ज, कमजोर पाचन तंत्र और सुस्त जिगर से संबंधित परेशानियों से राहत मिल जाती है। योग के अभ्यासों से अधिकतम लाभ प्राप्त करने के लिए एकाग्रता काफी मायने रखती है। जिस तरह आधुनिक विज्ञान मानव शरीर को मुख्यत: ग्यारह तंत्रों या संस्थानों में विभाजित करता है। उसी तरह योग शास्त्र के मुताबिक शरीर में मूलाधार पिंड से लेकर ऊपर तक सात चक्र होते हैं। नीचे से तीसरा है मणिपुर चक्र। यह पाचन और चयापचय (मेटाबालिज्म) का मुख्य केंद्र है। पश्चिमोत्तानासन का अभ्यास करते समय ध्यान मणिपुर चक्र पर केंद्रित रखने से आसन का पूरा फल मिलता है। जिस आसनों या अन्य योगाभ्यासों का संबंध जिन चक्रों से है, उन सबके लिए यह बात लागू है। पश्चिमोत्तानासन उच्च रक्तचाप, हृदयरोग और स्पॉडिलाइटिस से पीड़ित लोगों को यह आसन नहीं करने की सलाह दी जाती है।

आसनों की तरह प्राणायम का भी पाचन तंत्र पर असर होता है। योग रिसर्च फाउंडेशन अपने अनुसंधानों से इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि योग मन व प्राणमय शरीर को परिचालित करके ही पाचन संबंधी समस्याओं का इतना प्रभावशाली उपचार करने में सफल हो पाता है। सच तो यह है कि पेट संबंधी योग साधना का मुख्य उद्देश्य मणिपुर चक्र को जाग्रत करना ही होता है। ताकि मणिपुर चक्र से जठराग्नि को पर्याप्त प्राण-शक्ति मिलती रहे। इसके लिए आमतौर पर कपालभाति, उज्जायी और भ्रामरी प्राणायाम की अनुशंसा की जाती है। बिहार योग विद्यलय पेट संबंधी बीमारियों में प्रत्याहार की विधियों में योग निद्रा पर ज्यादा जोर देता है। उसके मुताबिक पेट संबंधी बीमारियों में मानसिक तनाव और नकारात्मक दृष्टिकोण की बड़ी भूमिका होती है।

इस तरह स्पष्ट है कि जीवनशैली में बड़ा बदलाव किए बिना योगाभ्यासों की बदौलत प्राकृतिक रूप से पेट और उससे जुड़ी अन्य समस्याओं से छुटकारा पाया जा सकता है। यह जरूरी भी है। इसलिए कि साबित हो चुका है कि गठिया से लेकर अनेक प्रकार के कैंसर तक में पाचन तंत्र के विकारों की बड़ी भूमिका होती है। 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

मंडे ब्लूज : योग है इस मर्ज की दवा

किशोर कुमार

“मंडे ब्लूज” यानी कार्यदिवस के पहले दिन ही काम के प्रति अरूचि। पाश्चात्य देशों में आम हो चुका यह रोग अब भारतीय युवाओं को भी तेजी से अपने आगोश में ले रहा है। भारत भूमि तो जगत्गुरू शंकाराचार्य, स्वामी विवेकानंद और महात्मा गांधी जैसे आध्यात्मिक नेताओं और कर्मयोगियों की भूमि रही है। फिर मंडे ब्लूज के रूप में पाश्चात्य देशों की अपसंस्कृति अपने देश कैसे पसर गई? स्वामी विवेकानंद की युवाओं से अपील कि “उठो, जागो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य ना प्राप्त हो जाए” तथा “काल करे सो आज कर, आज करे सो अब…” जैसी कबीर वाणी को आत्मसात करने वाले देश की युवा-शक्ति ही राष्ट्रीय चरित्र को बनाए रखने के लिए आध्यात्मिक और राजनैतिक क्रांति का बिगुल बजाती रही हैं। फिर चूक कहां हो रही है कि कर्म बोझ बनता जा रहा है?

इस मर्ज को लेकर कई स्तरों पर अध्ययन किया गया है। मैं उसके विस्तार में नहीं जाऊंगा। पर सभी अध्ययनों का सार यह है कि गलत जीवन शैली और नकारात्मक विचार व व्यवहार मंडे ब्लूज जैसी परिस्थितियों के लिए ज्यादा जिम्मेवार होते हैं। वैदिक ग्रंथों में मानसिक पीड़ाओं को तीन वर्गों में विभाजित किया गया है – आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक। बिहार योग विद्यालय के निवृत परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती समझाने के लिए इसे क्रमश: देवताकृत, परिस्थितिकृत और स्वकृत कहते हैं। जाहिर है कि तीसरे प्रकार के दु:ख के लिए हम स्वयं जिम्मेवार होते हैं और मौजूदा समस्या की जड़ में वही है। हम हर वक्त काम, क्रोध, लोभ, मोह व अहंकार से घिरे होते हैं। कोरोना महामारी कोढ़ में खाज की तरह है। ऐसे में मानसिक पीड़ा और अवसाद होना लाजिमी ही है।

यह समस्या लंबे अंतराल में साइकोसिस और न्यूरोसिस जैसे हालात बनती है। साइकोसिस यानी कोई समस्या न होने पर भी मानसिक भ्रांतियों के कारण हमें लगता है समस्या विकराल है। दूसरी तरफ न्यूरोसिस की स्थिति में समस्या कहीं होती है और हम उसे ढूंढ़ कही और रहे होते हैं। योगशास्त्र में साइकोसिस को माया और न्यूरोसिस को अविद्या कहते हैं। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि प्रेम व घृणा, आकर्षण व विकर्षण, दु:ख व सुख ये सभी मन के इन्हीं दो दृटिकोणों के कारण उत्पन्न होता है। उपनिषदों में भी कहा गया है कि यदि किसी को पत्नी प्यारी लगती है तो इस प्रेम का कारण पत्नी में नहीं, व्यक्ति के स्वंय में है।

परमहंस योगानंद के गुरू युक्तेश्व गिरि मन की शक्ति की व्याख्या करते कहते थे – लक्ष्यहीन दौड़ में शामिल लोग निराश और नाना प्रकार की मनासिक पीड़ाओं के शिकार होते हैं। जबकि मन की शक्ति इतनी प्रबल है कि दृढ़ इच्छा-शक्ति हो और चाहत उस चीज को पाने की हो, तो ब्रह्मांड में नहीं होने पर भी उसे उत्पन्न कर दिया जाएगा। बस, इच्छा ईश्वरीय होनी चाहिए। सवाल है कि क्या इस शक्तिशाली मन का प्रबंधन संभव है और है तो किस तरह? योगशास्त्र में अनेक उपाय बतलाए गए हैं, जिनके अभ्यास से मानव न सिर्फ अवसाद से उबरेगा, बल्कि कर्मयोगी बनकर राष्ट्र के नवनिर्माण में महती भूमिका निभाएगा।  

इसे ऐसे समझिए कि यदि मानव लोहा है तो योग पारस है। इन दोंनों का मेल होते ही कुंदन बनते देर न लगेगी। मानव में वह शक्ति है। बस, योगियों से मार्ग-दर्शन पा कर मन पर नियंत्रण करके अपनी ऊर्जा को सही दिशा देने के प्रति श्रद्धा और इच्छा-शक्ति होनी चाहिए। अष्टांग योग से लेकर कर्मयोग और भक्तियोग तक में अनेक उपाय बतलाए गए हैं, जो अलग-अलग व्यक्तियों के लिए उनकी सुविधा के लिहाज से अनुकूल होंगे। तंत्र-शास्त्र का अद्भुत ग्रंथ है रूद्रयामल तंत्र। उसमें महायोगी शिव कहते हैं कि योग एक ऐसा माध्यम है, जिससे मनुष्य अपने दु:खों से छुटकारा पा सकता है। इस बात को विस्तार मिलता है माता पार्वती के सवाल से। वह शंकर भगवान से पूछती हैं कि चंचल मन को किस विधि काबू में किया जाए? प्रत्युत्तर में महायोगी 112 उपाय बतलाते है और कहते हैं कि इनमें से कोई भी उपाय कारगर है। ये उपाय ही आधुनिक योग में धारणा और ध्यान की प्रचलित विधियां बने हुए हैं।

श्रीमद्भागवतगीता तो अपने आप में पूर्ण मनोविज्ञान और योगशास्त्र ही है। उसके मुताबिक, अर्जुन श्रीकृष्ण से पूछते हैं – हे कृष्ण, मन चंचल है, प्रमथन करने वाला है, बली और दृढ़ है। इसका निग्रह वायु के समान दुष्कर है। जबाव में श्रीकृष्ण ने कर्मयोग और भक्तियोग के जो उपाय बतलाए उसके लाभों को आधुनिक विज्ञान भी संदेह से परे मानता है। महर्षि पतंजलि के अष्टांगयोग के चमत्कारिक प्रभावों से भी हम सब वाकिफ हैं। असल सवाल ऐसी परिस्थिति में व्यक्ति के अनुकूल योगाभ्यास के चुनाव का है। श्रीमद्भागवत महापुराण में कथा है कि नारद पृथ्वीलोक पर विचरण करते हुए यमुनाजी के तट पर पहुंचे तो उनका सामना भक्ति से हो गया, जो अपने दोनों पुत्रों ज्ञान और वैराग्य की पीड़ाओं से बेहाल थी।

कर्नाटक में पली-बढ़ी और गुजरात में वृद्धावस्था प्राप्त करके जीर्ण-शीर्ण हुई भक्ति के पांव वृंदावन की धरती पर पड़ते ही पुन: सुरूपवती नवयुवती बन गई थी। पर उसके पुत्र अधेर और रोगग्रस्त ही रह गए थे। यही उसके विषाद का कारण था। भक्ति नारद जी से इसकी वजह और इस स्थिति से उबरने के उपाय जानना चाहती थी। नारद जी ने ध्यान लगाया और उन्हें उत्तर मिल गया। उन्होंने भक्ति को बतलाया कि कलियुग के प्रभाव के कारण ज्ञान और वैराग्य निस्तेज पड़े हैं। कलियुग में मानव भक्ति तो करता है, पर उसके जीवन में न तो ज्ञान यानी आत्म-दर्शन का स्थान है और न ही वैराग्य का। इसलिए श्रीमद्भागवत कथा ज्ञान महायज्ञ से ही बात बनेगी। दैवयोग से ऐसा ही हुआ।    

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती से किसी साधक ने पूछ लिया कि मन अशांत रहता है और काम में जी नहीं लगता, क्या करें?  परमहंस जी ने जबाव दिया – आसन-प्राणायाम से बीमारी दूर होती है, प्रत्याहार-ध्यान से आत्म-सम्मोहन होता है। इसलिए ये स्थायी उपाय नहीं हैं। यदि स्थायी उपाय चाहिए तो भक्तियोग और कर्मयोग का सहारा लेना होगा। कलियुग में ये ही उपाय हैं। भक्तियोग के तहत संकीर्तन, जप, अजपाजप आदि। इतना ही काफी है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

इस मर्ज की दवा है योग

भारत में मधुमेह पर पहली बार वैज्ञानिक शोध करने वाले परमहंस सत्यानंद सरस्वती कहते थे, “योग और औषधि के तालमेल से हम एक नए और बेहतर विश्व का निर्माण कर सकते हैं, जिसमें हमारी शारीरिक, भावनात्मक, मानसिक और अधिमानसिक आवश्यकताओं पर पूरा ध्यान दिया जा सकेगा। योग और अन्य चिकित्सा-पद्धतियां एक दूसरे की पूरक हैं। वे परस्पर विरोधी नहीं हैं। यदि दवाओं के साथ योग का समन्वय किया जाए तो यह मधुमेह के निदान में एक शक्तिशाली क्रिया होगी।”

किशोर कुमार

एक तरफ कोरोना की मार तो दूसरी तरफ कहर बरपाता मधुमेह। योग की जन्मभूमि में यह हाल है, जबकि वैज्ञानिक शोधों से भी पता चल चुका है कि मधुमेह से बचाव में योग की बड़ी भूमिका है। सफलता की कहानियां भरी पड़ी हैं कि किस तरह समन्वित योग यानी षट्कर्म, आसन, प्राणायाम और सजगता के नियमित अभ्यासों से दो महीनों के भीतर प्राकृतिक रूप से शरीर में इंसुलिन बनने लगा और इंसुलिन के इंजेक्शन से मुक्ति मिल गई। बावजूद विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 7.7 करोड़ लोग इस बीमारी के शिकार हैं। इतना ही नहीं, वैश्विक पैमाने पर हर छठा भारतीय व्यक्ति इस रोग की गिरफ्त में हैं। यह चिंताजनक है।

पूरे देश में आजकल बहस चल रही है कि बीमरियों के इलाज में कौन-सी पैथी बेहतर या कारगर। पर विशेषज्ञ जानते हैं कि हर पैथी, हर उपचारात्मक विधियों की सीमाएं हैं। यह बात योग के साथ भी लागू है। हम जानते हैं कि योग विशुद्ध रूप से रोग-निवारण की पद्धति नहीं है। तभी मधुमेह के यौगिक उपचार के दौरान भी आधुनिक चिकित्सा पद्धति की दवाओं की जरूरत बनी रहती है। पर यह भी सत्य है कि अनेक मामलों में यौगिक क्रियाएं आधुनिक चिकित्सा प्रणाली की सीमाओं को लांघ जाती है। बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस सत्यानंद सरस्वती ने तो साठ के दशक में ही कहा था – “योग और औषधि के तालमेल से हम एक नए और बेहतर विश्व का निर्माण कर सकते हैं, जिसमें हमारी शारीरिक, भावनात्मक, मानसिक और अधिमानसिक आवश्यकताओं पर पूरा ध्यान दिया जा सकेगा।“  वे बार-बार कहते थे कि योग और अन्य चिकित्सा-पद्धतियां एक दूसरे की पूरक हैं। वे परस्पर विरोधी नहीं हैं।

तभी उन्होंने सत्तर के दशक में उड़ीसा में संबलपुर के बुर्ला स्थित मेडिकल कालेज के साथ मिलकर मधुमेह से बचाव के लिए यौगिक अनुसंधान किया था। इसके नतीजे ऐसे रहे कि चिकित्सा विज्ञान भी चौंका। साबित हुआ कि आधुनिक चिकित्सा पद्धति की सहायता लेकर चालीस दिनों के यौगिक अभ्यास से इंसुलिन लेने वाले मधुमेह रोगियों को पहले इंसुलिन से और बाद में मधुमेह से ही मुक्ति मिल सकती है। बिहार योग की इस पद्धति से बड़ी संख्या में मधुमेह रोगी स्वस्थ्य होने लगे तो भारत के विभिन्न योग संस्थानों से लेकर विदेशों में भी इस पद्धति को मधुमेह रोगियों पर आजमाया गया। विवेकानंद योग केंद्र के प्रमुख एचआर नगेंद्र ने अपने कन्याकुमारी स्थित केंद्र में सबसे पहले 15 मधुमेह रोगियों पर यौगिक प्रभावों को देखा और पाया कि इंसुनिल पर निर्भर मरीज ठीक हो गए थे। झारखँड के बोकारो इस्पात संयंत्र में एके श्रीवास्तव नाम के एक वास्तुविद हुआ करते थे। उनका मधुमेह इतना गंभीर था कि एक दिन में 40-50 यूनिट इंसुलिन लेना पड़ता था। यौगिक उपायों से दवाओं पर निर्भरता कम होती गई और कुछ महीनों बाद से ब्लड शुगर सामान्य हो गया था।

योग पब्लिकेशन ट्रस्ट ने इन अध्ययनों के आधार पर सन् 1977 में एक पुस्तक प्रकाशित की थी – “यौगिक मैनेजमेंट ऑफ आस्थमा एंड डायबेट्स।” उसमें बताया गया कि मधुमेह के मरीजों को प्रारंभिक एक महीना हर सप्ताह तक कौन-सी यौगिक क्रियाएं करनी हैं और दवाओं व भोजन का प्रबंधन किस प्रकार करना है? इसके बाद बिना दवा लिए रक्त शर्करा यानी ब्लड शुगर सामान्य हो जाने के बाद किन योग विधियों को अपने जीवन का हिस्सा बना लेना है। शुद्धिकरण की क्रियाओं में शंखप्रक्षालन तथा कुंजल व नेति; आसनों में पश्चिमोत्तानासन, अर्द्ध मत्स्येंद्रासन, भुंजगासन, धनुरासन, सर्वांगासन और हलासन; प्राणायामो में नाड़ी शोधन, भ्रामरी और भस्त्रिका और ध्यान के अभ्यासों में योगनिद्रा व अजपाजप करने की सलाह दी गई है। पर साप्ताहिक अभ्यास में पवनमुक्तासन (सत्यानंद योग पद्धति) पर बल दिया गया है। ऐसा इसलिए कि कभी योगाभ्यास नहीं करने वाले मरीजों को योग करने योग्य तैयार किया जा सके। वैसे यह आसन वातरोग, गठिया, उच्च रक्तचाप, हृदय रोग के मरीजों को काफी फायदा पहुंचाता है।                                                    

मधुमेह की रोकथाम में शंखप्रक्षालन और कुंजल क्रियाओं की बड़ी भूमिका होती है। आमतौर पर अंतड़ियों में कचरा और मल भरा रहता है उसके भीतरी दीवारों पर इकट्ठा होता जाता है। यह सूखता जाता है और अति कठोर होता जाता है। यह खून को विषाक्त बनाता है। इन यौगिक क्रियाओं से अन्न पथ की पूर्ण सफाई हो जाती है और अधिक ग्लुकोज का उपभोग न किया जाए तो ब्लड शुगर का स्तर नियंत्रित रखने में मदद मिलती है। कुंजल क्रिया से अधिक मात्रा में खाए हुए भोजन और शरीर में सड़े भोजन से बचाव होता है। मधुमेह में तंत्रिका तंत्र को क्षति होती है। डायबिटिक पेरिफेरल न्यूरोपैथी इसी वजह से होती है। आसन का प्रभाव यह है कि तंत्रिका आवेगों और ग्रंथि क्षेत्रों में रक्त के समुचित वितरण हो जाता है। इससे मधुमेह से संबंधित अवयवों की क्रियाएं समायोजित होती हैं। प्राणायाम से शरीर के उन भागों में ऊर्जा पहुंचने लगती है, जहां इसकी कमी की वजह से रोग में इजाफा हो रहा होता है। मस्तिष्क से ले कर पैक्रियाज तक को फायदा पहुंचता है।  

अंतर्राष्ट्रीय योग शिक्षा और अनुसंधान केन्द्र, पुदुचेरी के अध्यक्ष योगाचार्य डॉ. आनंद बालयोगी भवनानी के मुताबिक इन्स और विन्सेन्ट की एक व्यापक समीक्षा में योग से कई जोखिम सूचकों में लाभदायक बदलाव पाए गए। जैसे ग्लूकोस सहिष्णुता, इंसुलिन संवेदनशीलता, लिपिड प्रोफाइल, एन्थ्रोपोमेट्रिक विशेषताओं, रक्तचाप, ऑक्सीडेटिव तनाव,  कोग्यूलेशन प्रोफाइल, सिम्पेथेटिक एक्टिवेशन और पलमोनरी फंक्शन में इसे काफी फायदेमंद पाया गया। योगाभ्‍यास से मधुमेह के रखरखाव और उसकी रोकथाम में सहायता होती है तथा उच्‍च रक्‍तचाप और डिसलिपिडेमिया जैसी परिस्थितियों से बचाव होता है। लंबे समय तक योगाभ्‍यास करने से इन्‍सुलिन के प्रति संवेदनशीलता बढ़ती है और शरीर के वजन या कमर के घेरे तथा इन्‍सुलिन संवेदनशीलता के बीच का नकारात्‍मक संबंध घट जाता है। 

गौर करने लायक बात यह है कि मधुमेह केवल जीवन-शैली से जुड़ी बीमारी नहीं रही, बल्कि प्रदूषण इस बीमारी को महामारी में तब्दील करने में बड़ी भूमिका निभा रहा है। वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण और ध्वनि प्रदूषण के साथ ही प्रदूषित भोज्य पदार्थ इसकी जड़ में हैं। विश्वव्यापी शोधों से यह बात साबित हो चुकी है। पश्चिम के अनेक देश इस दिशा ठोस काम कर रहे हैं। पर भारत में इस दिशा में काम होना बाकी है। रिसर्च सोसाइटी फॉर डायबिटीज इन इंडिया ने इस दिशा में पहल की है। इस संगठन के झारखंड चैप्टर के अध्यक्ष डॉ एनके सिंह ने अध्ययनों के बाद विस्तृत रिपोर्ट तैयार की है, जिसे सरकार को सौंपा जा चुका है। जाहिर है कि मधुमेह से बचना है तो योगमय जीवन तो अपना ही होगा। साथ ही रसायनयुक्त भेज्य पदार्थों से भी बचना होगा।

आधुनिक चिकित्सा विज्ञान अभी मधुमेह का रामबाण इलाज नहीं ढ़ूंढ़ पाया है। इसुलिन ही सहारा है। पर योगमय जीवन हो तो इंसुलिन पर से निर्भरता समाप्त भी हो जा सकती है। हमने देखा कि कोरोना संक्रमण के कारण मधुमेह के मरीजों पर किस तरह कहर बरपा। यह सिलासिला आज भी जारी है। यदि हमारे जीवन में योग के लिए थोड़ी भी जगह होती तो मधुमेह रोगियों के लिए कोरोना महामारी इतनी बड़ी चुनौती न बनी होती।  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)    

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