संत कबीर : मैं कहता आंखन देखी

किशोर कुमार

बात संतमत और संतों की

एस.के.राय /

इस धरती पर अनेकानेक संत अवतरित हुए और जनमानस के बीच ब्रह्मज्ञान से संबंधित अनुभव साझा किए। वे न तो अपना कोई साम्राज्य स्थापित करने आए थे, न ही धर्म। सच तो यह है कि संतों का एक ही प्रयोजन होता है और वह होता है-पीड़ित मानवता के कष्टों का निवारण और उन्हें सन्मार्ग पर चलने के लिए सत्प्रेरित करते रहना। संत भी इन्सान ही होते हैं, इसलिये उनकी भाषा, उनका रहन सहन आम इंसान आसानी से ग्रहण कर सकता हैं, अपना सकता हैं।

ऋग्वेद, छान्दोग्योपनिषद् और तैत्तिरीयोपनिषद् में सत् शब्द का प्रयोग परमात्मा और संत के लिए हुआ है। संत शब्द श्रीमद्भगवद्गीता, वाल्मीकि रामायण, अध्यात्म रामायण, रामचरितमानस, महाभारत आदि सद्ग्रंथों में मिलते हैं। इन्हीं संतों को सद्ग्रंथों में ब्रह्मर्षि, देवर्षि, महर्षि, ऋषि, मुनि आदि भी कहा गया है। संत शब्द का प्रयोग प्रायः सदाचारी पवित्रात्मा महापुरुषों के लिए किया गया है। वस्तुतः संत उनको कहा गया है, जो अंतस्साधना के द्वारा जड़-चेतन की ग्रंथि को खोलकर सभी संशयों को निर्मूल नाश कर परम प्रभु परमात्मा का साक्षात्कार करने में समर्थ हों।

संत शब्द संस्कृत के सन् शब्द में अस् धातु की संधि से बना हुआ सत् रूप हो गया है। जिसका अर्थ सदा एकरस रहनेवाला  होता है। सभी परमात्म- प्राप्त महापुरुषों का, शरीर की नश्वरता, माया की असत्यता, जीव की नित्यता, ईश्वर की शाश्वतता आदि विषयक विचार एक समान मिले रहने के कारण ही कहा गया कि सभी संतों का एक ही मत है। वही एक मत संतमत है।

जबसे इस धराधाम पर संतों का प्रादुर्भाव हुआ, तब से संत मत है। इसीलिए संतमत को परम प्राचीन मत कहा गया है। संतमत किसी संकीर्ण सीमा में आबद्ध नहीं है। किसी भी देश या जाति के परमात्म-प्राप्त महापुरुषों का विचार संतमत है।भगवान ऋषभदेवजी महाराज, भगवान बुद्ध, भगवान महावीर, आचार्य शंकर, मत्स्येन्द्रनाथजी महाराज, गोरखनाथजी महाराज, स्वामी रामानंदजी महाराज, संत कबीर साहब, गुरु नानक साहब, संत भीखा साहब, संत पलटू साहब, संत जगजीवन साहब, संत दरिया साहब, संत शिवनारायण स्वामी, संत नामदेवजी महाराज, समर्थ रामदासजी महाराज, गोस्वामी  तुलसीदासजी महाराज आदि जितने महापुरुष हो गये; इन सभी महापुरुष ने देश-काल के अनुसार संसार के लोगों को अपना-अपना उपदेश दिये।

यही उपदेश उनके पीछे किसी विशेष कारणवश इन्हीं महापुरुषों के शिष्यों द्वारा अलग-अलग पंथ, संप्रदाय और मत के रूप में स्थापित होते हैं। जैसे, जैन मत, बौद्ध मत, नाथ पंथ, रामानंदी पंथ, कबीर पंथ, नानक पंथ, दरिया पंथ, शिवरामी पंथ आदि। स्वामी रामानन्द जी के शिष्य कबीरदास जी का संतमत में अच्छा ख़ासा दखल दिखता है। संतों की कड़ी में सबसे पहले कबीर साहब को लेते हैं, जिनका उपदेश है कि शरीर के अंदर ही परमात्मा का वजूद है व उनकी साक्षात अनुभूति हम साधना के माध्यम से कर सकते हैं। यद्यपि कि यह बात अनेक संतों ने की कही है ।

अपने इस अलौकिक अनुभव को कबीर साहब ने एक शबद के माध्यम से जनमानस से साझा किया है। यह शबद बतीस दोहे में अंकित है, जिसमें बहुत विस्तार से शरीर और उसके सात चक्रों का वर्णन किया गया है। उसी शबद की सात पंक्तियाँ साझा कर रहा हूँ।

कर नैनो दीदार महल में प्यारा है ॥

काया भेद किया निर्बारा, यह सब रचना पिंड मंझारा ।

माया अवगति जाल पसारा, सो कारीगर भारा है ॥

आदि माया कीन्ही चतुराई, झूठी बाजी पिंड दिखाई ।

अवगति रचन रची अंड माहीं, ता का प्रतिबिंब डारा है ॥

सब्द बिहंगम चाल हमारी, कहैं कबीर सतगुर दइ तारी ।

खुले कपाट सब्द झुनकारी, पिंड अंड के पार सो देस हमारा है॥

संतमत का यह बेहतरीन शबद अंड, पिंड और ब्रह्मांड के सारे रहस्यों को परत दर परत खोल कर रख देता है।  शरीर के भिन्न-भिन्न चक्रों में देवताओं का निवास और उनकी महिमा का अद्भुत वर्णन दिखता है। संत मत इस बात का दावा करता है कि यह संत का अनुभव है। संतमत में यह बताया जाता है कि कबीर साहब के जिस शबद की चर्चा  हमलोगों ने कल किया है, वह कबीर साहब का अपना अनुभव है।

शबद का शीर्षक है “ कर नैनो  दीदार महल में प्यारा है “। इसका शाब्दिक अर्थ यह हुआ कि ऐ साधक ! साधना में लग जाओ और अपने इस शरीर के अंदर ही परमात्मा का दर्शन कर लो।साधक के लिये इस शबद में दो दोहे वर्णित है जिनका अनुपालन अनिवार्य है।

“काम क्रोध मद लोभ बिसारो, सील संतोष छिमा सत धारो ।

मद्य मांस मिथ्या तजि डारो, हो ज्ञान घोड़े असवार, भरम से न्यारा है ॥1॥

धोती नेती वस्ती पाओ, आसन पद्म जुगत से लाओ ।

कुंभक कर रेचक करवाओ, पहिले मूल सुधार कारज हो सारा है ॥2॥

हमारे  शरीर के पैर के तलवे से सहस्त्रार तक के भाग में जो कुछ भी स्थित है, वह बहुमूल्य है और मनुष्य को मिला एक अनमोल ख़ज़ाना है।यही अंड, पिंड और ब्रह्माण्ड हमारे यात्रा के मार्ग हैं। हमें अंड से निकलकर ब्रह्म और परब्रह्म के आगे जाकर अनामी, अगम लोक की यात्रा इसी शरीर के माध्यम से ही करनी है।यह ऐसी यात्रा है जिसके आदि और अंत का कोई अता पता नहीं ।नौ द्वारों वाले इस शरीर ( दो आँखें, दो नाक , दो कान , एक मुँह, एक मल द्वार और एक मूत्र द्वार ) का दसवाँ द्वार दोनों आँखों के पीछे स्थित है जिसे तीसरा तिल भी कहते हैं।

रूहानी सफ़र तीसरे तिल से प्रारम्भ होता है और सहस्त्रार तक का रास्ता तय करना होता है। सुषुम्ना नाड़ी इस यात्रा का मुख्य माध्यम है।शरीर के अंदर जो सात चक्र हैं उनका विवरण इस शबद में इस प्रकार अंकित है।

मूल कँवल दल चतुर बखानो, कलिंग जाप लाल रंग मानो ।

देव गनेस तह रोपा थानो, रिध सिध चँवर ढुलारा है ॥3॥

स्वाद चक्र षट्दल बिस्तारो, ब्रह्मा सावित्री रूप निहारो ।

उलटि नागिनी का सिर मारो, तहां शब्द ओंकारा है ॥4॥

नाभी अष्टकँवल दल साजा, सेत सिंहासन बिस्नु बिराजा।

हिरिंग जाप तासु मुख गाजा, लछमी सिव आधारा है ॥5॥

द्वादस कँवल हृदय के माहीं, जंग गौर सिव ध्यान लगाई ।

सोहं शब्द तहां धुन छाई, गन करै जैजैकारा है ॥6॥

षोड़श दल कँवल कंठ के माहीं, तेहि मध बसे अविद्या बाई ।

हरि हर ब्रह्मा चँवर ढुराई, जहं शारिंग नाम उचारा है ॥7॥

ता पर कंज कँवल है भाई, बग भौरा दुह रूप लखाई ।

निज मन करत तहां ठुकराई, सौ नैनन पिछवारा है ॥8॥

कंवलन भेद किया निर्वारा, यह सब रचना पिण्ड मंझारा ।

सतसंग कर सतगुरु सिर धारा, वह सतनाम उचारा है ॥9॥

इस प्रकार उपर के सात दोहे में शरीर के सात चक्रों एवं उनके रंग, उस चक्र के देवता और वहाँ का पूरा वृत्तांत बताया है।

मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र,  मणिपुर चक्र या नाभि चक्र ,  अनाहत चक्र  , विशुद्धि चक्र और आज्ञा चक्र  का वर्णन है। यहीं से रूहानी सफ़र शुरू कर सहस्त्रार तक पहुँचने का विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया गया है।

कबीर साहब ने इसी शबद के दोहा 10 से दोहा 32 तक में इस मार्ग को जनमानस को प्रस्तुत किया है। कहते हैं कि इस मार्ग पर चलनेवाले साधक पहले चींटी चाल से , फिर मकड़ी चाल से तत्पश्चात् मीन ( मछली ) चाल से और फिर विहंगम चाल से चलने लगते हैं, संत मत ऐसा दावा करता है।

शब्द बिहंगम चाल हमारी, कहैं कबीर सतगुर दइ तारी ।

खुले कपाट सब्द झुनकारी, पिंड अंड के पार सो देस हमारा है ।।32॥

सतगुरू की अनिवार्यता बताते हुए साधक से प्रार्थना की गयी है कि परमात्मा से मिले इस शरीर का भरपूर उपयोग करते हुए अंड और पिंड को लाँघकर ब्रह्माण्ड में जाने का यत्न करें।

नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग…

भूल जाने की बीमारी हमारे जीवन की आम परिघटना है। पर लंबे समय में विविध लक्षणों के साथ यह लाइलाज अल्जाइमर और अनियंत्रित होकर डिमेंसिया में भी बदल जाती हो तो निश्चित रूप से हमें दो मिनट रूककर विचार करना चाहिए कि हम जिसे सामान्य परिघटना मान रहे हैं, कहीं उसमें भविष्य के लिए संकेत तो नहीं छिपा है। इसलिए विश्व अल्जाइमर दिवस (21 सितंबर) जागरूकता के लिहाज से हमारे लिए भी बड़े महत्व का है। आंकड़े बताते हैं कि भारत में इस रोग से ग्रसित लोगों की संख्या पांच मिलियन है और अगले आठ-नौ वर्षों में मरीजों की संख्या में डेढ़ गुणा वृद्धि हो जानी है। विश्वसनीय इलाज न होना चिंता का कारण है। पर हमारे पास योग की शक्ति है, जिसकी बदौलत हम चाहें तो इस लाइलाज बीमारी की चपेट में आने से बहुत हद तक बच सकते हैं।

किशोर कुमार

अल्जाइमर, डिमेंसिया और सिजोफ्रेनिया जैसी न्यूरोडीजेनरेटिव बीमारियों के मामले में आम धारणा यही है कि ये वृद्धावस्था की बीमारियां हैं। पर विभिन्न स्तरों पर किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि न्यूरोडीजेनरेटिव बीमारियां युवाओं को भी अपने आगोश में तेजी से ले रही हैं। इन बीमारियों की वजह कुछ हद तक ज्ञात है भी तो ऐसा लगता है कि चिकित्सा विज्ञान को विश्वसनीय इलाज के लिए अभी लंबी दूरी तय करनी होगी। लक्षणों के आधार पर इलाज करने की मजबूरी होने के कारण कई बार गलत दवाएं चल जाने का खतरा भी रहता है। इसे एक उदाहरण से समझिए। कोई पैतालीस साल की एक महिला में वे सारे मानसिक लक्षण उभर आए, जो आमतौर पर अल्जाइमर के शुरूआती लक्षण होते हैं। चिकित्सक ने उपलब्ध दवाओं के आधार पर अल्जाइमर का इलाज शुरू कर दिया। लंबे समय बाद चिकित्सकों को अपनी गलती का अहसास हुआ। दरअसल, अल्जाइमर जैसे लक्षण एस्ट्रोजन (स्त्री हार्मोन) के स्तर में भारी गिरावट होने के कारण उभर आए थे। मेनोपॉज से पहले अनेक मामलों में ऐसे हालात पैदा होते हैं।

इन सभी बीमारियों और कुछ खास तरह के हार्मोनल बदलावों के कई लक्षण लगभग एक जैसे होते हैं। मसलन, तनाव, अवसाद और भूल जाना। योग मनोविज्ञान के विशेषज्ञों के मुताबिक इन सारी बीमारियों की असल वजह मानसिक अशांति है। परमहंस योगानंद ने सन् 1927 में दिए अपने व्याख्यान में कहा था, मानसिक अशांति का एक ही इलाज है और वह है शांति। यदि मन शांत रहे तो स्नायविक विकार यानी नर्वस डिसार्डर्स जैसी समस्या आएगी ही नहीं। यह समस्या तो तब आती है, जब भय, क्रोध, ईर्ष्या आदि विकार हमारे जीवन में लंबे समय तक बने रह जाते हैं। मेडिकल साइंस में सिरदर्द का इलाज तो है। पर असुरक्षा, भय, ईर्ष्या और क्रोध का क्या इलाज है? हम विज्ञान के नियमों के आलोक में जानते हैं कि कोई भी शक्ति जितनी सूक्ष्म होती जाती है, वह उतनी ही शक्तिशाली होती जाती है। ऐसे में हमारे मन रूपी समुद्र में विविध कारणों से ज्वार-भाटा उठने लगे तो उसी समय सावधान हो जाने की जरूरत है। इसलिए कि लाइलाज बीमारियों की जड़ यहीं हैं।

सवाल है कि सावधान होकर करें क्या? इस बात को आगे बढ़ाने से पहले थोड़ा विषयांतर करना चाहूंगा। इसलिए कि योग विद्या के तहत मस्तिष्क के मामलों में विचार करने के लिए सहस्रार चक्र को समझ लेना जरूरी होता है। हम सब अक्सर आध्यात्मिक चर्चा के दौरान शिव-शक्ति के मिलन की बात किया करते हैं। मंदिरों के आसपास भक्ति गीत शिव – शक्ति को जिसने पूजा उसका ही उद्धार हुआ… आमतौर पर बजते ही रहता है। मैंने अनेक लोगों से पूछा कि इस गाने का अर्थ क्या है? बिना देर किए उत्तर मिलता है कि शिवजी और पार्वती जी की जो पूजा करेगा, उसे सभी कष्टों से मुक्ति मिल जाएगी। पर तंत्र विज्ञान और उस पर आधारित योगशास्त्र में शिव-शक्ति के मिलने से अभिप्राय अलग ही है। सहस्रार चक्र सिर के शिखर पर अवस्थित शरीर की बहत्तर हजार नाड़ियों का कंट्रोलर है। इनमें चंद्र व सूर्य नाड़ियां भी हैं, जिन्हें हम इड़ा तथा पिंगला के रूप में जानते हैं। इसे ही शिव-शक्ति भी कहते हैं। आधुनकि विज्ञान उसे सूक्ष्म ऊर्जा कहता है। सहस्रार चक्र में शरीर की तमाम ऊर्जा एकाकार हो जाती हैं। यही शिव-शक्ति का मिलन है। यह पूर्ण रूप से विकसित चेतना की चरमावस्था है।

योगशास्त्र के मुताबिक यदि मस्तिष्क की किसी ग्रंथि से जुड़ी नाड़ी का सहस्रार रूपी कंट्रोलर से संपर्क टूट जाता है तो वहां बीमारियों का डेरा बनता है। इसे ऐसे भी समझा जा सकता है। यदि सहस्रार मुख्य सतर्कता अधिकारी है तो नाड़ियां उसके संदेशवाहक। ऐसे में यदि संदेशवाहक किसी कारण अपना काम न करने की स्थिति में हो तो पर्याप्त सूचना के अभाव में मुख्य सतर्कता अधिकारी अपने कर्तव्य का निर्वहन कैसे कर पाएगा? अब आते हैं मुख्य सवाल पर कि भूलने आदि समस्याएं उत्पन्न होने लगी है तो समय रहते क्या करें? इसका सीधा-सा जबाव तो यह है कि वे सारे यौगिक उपाय करने चाहिए, जिनसे आंतरिक ऊर्जा का प्रबंधन होता है।

पर किस उपाय से ऐसा संभव होगा? उपाय कई हो सकते हैं। आमतौर पर ऐसी समस्या के निराकरण के लिए इंद्रियों पर नियंत्रण और चित्तवृत्तियों के निरोध की सलाह दी जाती है। सनातन समय से मान्यता रही है कि चित्तवृत्तियों का निरोध करके मन पर काबू पाया जा सकता है। इस विषय के विस्तार में जाने से पहले यह समझ लेने जैसा है कि चित्तवृत्तियां क्या हैं और उनके निरोध से अभिप्राय क्या होता है? स्वामी विवेकानंद ने इस बात को कुछ इस तरह समझाया है – हमलोग सरोवर के तल को नहीं देख सकते। क्यों? क्योंकि उसकी सतह छोटी-छोटी लहरों से व्याप्त होती है। जब लहरें शांत हो जाती हैं और पानी स्थिर हो जाता है तब तल की झलक मिल पाती है। यही बात मानव-चेतना के स्तरों पर उठने वाली लहरों के मामले में भी लागू है।  

श्रीमद्भागवत गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं – “तू पहले इंद्रियों को वश में करके ज्ञान व विज्ञान को नाश करने वाले पापी काम को निश्चयपूर्वक मार।“ मतलब यह कि योग साधना की बदौलत भ्रांत हुईं इंद्रियों को वश में करके मन का रूपांतरण कर। यानी श्रीमद्भगवत गीता से लेकर महर्षि पतंजलि के योगसूत्रों तक में मन के वैज्ञानिक प्रबंधन पर जो बातें कही गई थीं, वे सर्वकालिक हैं और आज भी प्रासंगिक। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती इन शास्त्रीय संदेशों को स्पष्ट करते हुए सलाह देते थे – “भावना के कारण मन बीमार है तो भक्तियोग, दैनिक जीवन की कठिनाइयों के कारण मन बीमार है तो कर्मयोग, चित्त विक्षेप के कारण, चित्त की चंचलता के कारण मन के अंदर निराशाएं, बीमारियां हैं तो राजयोग औऱ नासमझी या अज्ञान की वजह से मानसिक पीड़ाएं हैं, जैसे धन-हानि, निंदा आदि तो ज्ञानयोग और यदि शारीरिक पीड़ाओं के कारण मन अशांत है तो हठयोग करना श्रेयस्कर है।“

ये सारे उपाय मुख्य रूप से उन लोगों के लिए है, जो स्वस्थ्य हैं या जिनमें बीमारी के शुरूआती लक्षण दिखने लगे हैं। पर गंभीरावस्था के रोगी क्या करें? योगी कहते हैं कि ऐसे लोगों के लिए प्राण विद्या बेहद कारगर साबित हो सकती है। ऋषिकेश में डिवाइन लाइफ सोसाइटी के संस्थापक और बीसवीं सदी के महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती अनेक गंभीर रोगों के इलाज के लिए प्राण विद्या की सिफारिश करते थे। अनेक उदाहरणों से पता चलता है कि इस विद्या के तहत प्राणायाम की शक्ति का उपयोग करने से चमत्कारिक लाभ मिलते हैं। यानी समन्वित योग से ही बात बनेगी। आजकल शारीरिक व मानसिक व्याधियों से निबटने के लिए हठयोग को साधना तो मुमकिन हो पाता है। पर योगशास्त्र की बाकी विद्याओं को आधार बनाकर मन को प्रशिक्षित करना अनेक कारणों से चुनौतीपूर्ण कार्य है, जबकि मानसिक उथल-पुथल के इस दौर में केवल हठयोग से बात नहीं बनने वाली। विश्व अल्जाइमर दिवस के आलोक में योग शिक्षकों औऱ प्रशिक्षकों को निश्चित रूप से मानसिक रोगियों को समन्वित योग के व्यावहारिक पक्षों का पूर्ण लाभ दिलाने की दिशा में ठोस पहल करने हेतु मंथन करना चाहिए।

वैसे, मैं संतों की वाणी और यौगिक ग्रंथों के आधार पर दोहराना चाहूंगा कि यदि मानसिक उथल-पुथल के दौर में समर्थ योगी का सानिध्य न मिल पा रहा हो और दूसरा कोई उपाय समझ में न आ रहा हो, तो भक्तियोग का मार्ग पकड़ लिया जाना चाहिए। संकीर्तन या जप कुछ भी चलेगा। मैं अपनी बात संत कबीर के इन संदेशों के साथ खत्म करता हूं – “नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग; और रसायन छांड़ि के, नाम रसायन लाग” इस दोहा के जरिए कबीरदास जी कहते हैं कि हे प्राणी! उठ जाग, नींद मौत की निशानी है। दूसरे रसायनों को छोड़कर तू भगवान के नाम रूपी रसायनों मे मन लगा। इसके साथ ही वे कहते हैं – “मैं उन संतन का दास, जिन्होंने मन मार लिया।” यानी भक्ति मार्ग पर चलकर चित्त-वृत्तियों का निरोध हो गया।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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