गीता महोत्सवों की व्यापकता के मायने

किशोर कुमार

श्रीमद्भगवतीता यानी भगवान् श्रीकृष्णके मुखारविन्दसे निकली हुर्इ दिव्य वाणी। आगामी 22 दिसंबर को इस संजीवनी विद्या के प्रकटीकरण के 5161 साल पूरे हो जाएंगे। उसी दिन भारत सहित विश्व के अनेक देशों में गीता जयंती मनाई जाएगी। सनातन धर्म के अनुयायी पूरे उत्साह से गीता जयंती की तैयारियों में जुटे हुए हैं। इंग्लैंड से लेकर मारीशस तक और अमेरिका से लेकर कनाडा तक में गीता महोत्सव मनाया जाना है। दुनिया भर के इस्कॉन मंदिरों में गीता जयंती की व्यापक तैयारियां हैं। पर हरियाणा के कुरूक्षेत्र, जहां युद्ध के मैदान में कृष्ण द्वारा स्वयं अर्जुन को ‘भगवदगीता’ प्रकट की गई थी, 7 दिसंबर से ही अंतर्राष्ट्रीय गीता महोत्सव मनाया जा रहा है। समापण 24 दिसंबर को होना है। यह महोत्सव अध्यात्म, संस्कृति और कला का दिव्य संगम है, जहां श्रीमद्भगवतगीता के संदेशों को आज के संदर्भ में प्रकटीकरण के लिए विविध कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं। अमृतपान के लिए वहां देश-विदेश के लोग पहुंच रहे हैं।

इसकी खास वजह है। दुनिया भर के बड़े-बड़े विद्वानों और मनोविज्ञानियों से लेकर चिकित्सा विज्ञानियों तक की मान्यता है कि श्रीमद्भगवतगीता कलियुग के लिए किसी संजीवनी विद्या से कम नहीं मानते। यानी इसकी महत्ता तब जैसी थी, आज भी वैसी ही बनी हुई है। इसे कुछ उदाहरणों से समझा जा सकता है। महाभारत की लड़ाई समाप्त होने पर एक दिन श्रीकृष्ण और अर्जुन प्रेमपूर्वक बातचीच कर रहे थे। उस समय अर्जुन के मन में इच्छा हुई कि श्रीकृष्ण से एक बार फिर गीता सुने।  अर्जुन ने विनती की, “महाराज! आपने जो उपदेश मुझे युद्ध के आरम्भ में दिया था, उसे मैं भूल गया हूँ। कृपा करके फिर एक बार उसे बताइए।” तब श्रीकृष्ण भगवान् ने उत्तर दिया, “उस समय मैंने अत्यन्त योगयुक्त अन्तःकरण से उपदेश किया था। अब सम्भव नहीं कि मैं वैसे ही उपदेश फिर कर सकूँ।”

इस प्रसंग का उल्लेख महाभारत के अश्वमेघ अध्याय में है। सवाल है कि क्या सचमुच श्रीकृष्ण के लिए फिर से गीता का उपदेश देना मुश्किल था? अनेक आत्मज्ञानी संतो का मानना है कि श्रीकृष्ण के लिए कुछ भी असंभव नहीं था। पर उन्होंने ऐसा क्यों कहा? इसका उत्तर लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने दिया है। उनके मुताबिक, भगवान् के उक्त कथन से पता चलता है कि गीता का महत्त्व कितना अधिक है। तभी यह ग्रन्थ वैदिक-धर्म के भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों में वेद के समान आज करीब पांच हजार वर्षों से सर्वमान्य तथा प्रमाणस्वरूप हो गया है। गीता-ध्यान में श्रीमद्भगवतगीता का वर्णन कुछ इस प्रकार किया गया है –  जितने उपनिषद् हैं, वे मानो गौएँ हैं, श्रीकृष्ण स्वयं दूध दुहने वाले (ग्वाला) हैं, बुद्धिमान् अर्जुन (उन गौओं का पन्हानेवाला) भोक्ता बछड़ा (वत्स) है और जो दूध दुहा गया, वही मधुर गीतामृत है। तभी इस गीतामृत का भारतीय भाषाओं में ही नहीं, बल्कि विदेशी भाषाओं में भी इस ग्रंथ का अनुवाद और उसका विवेचन किया जा चुका है।

श्रीमद्भगवतगीता का महत्व बताने वाला एक और दृष्टांत है। मुख्य शास्त्र कौन है? इस सवाल पर धर्माचार्यों के बीच विवाद छिड़ गया था। काफी मशक्त के बाद भी हल न निकला। विद्वतजन समझ गए कि प्रभु की कृपा के बिना सही उत्तर शायद ही मिल पाए। इसलिए जगन्नाथपुरी में धर्मसभा हुई तो सभी विद्वतजन अपने समक्ष कोरा कागज और कलम रखकर ध्यनामग्न हो गए। वे समस्या के समाधान के लिए आर्तभाव से प्रार्थना करने लगे। ध्यान टूटा तो सभी विद्वतजन यह देखकर हैरान थे कि सभी कोरे कागजों पर एक ही श्लोक लिखा था – एकं शास्त्रं देवकी पुत्र गीतं, एको देव देवकी पुत्र एव। एको मंत्रस्तस्य नामानी यानि कर्माप्येकं तस्य देवस्य सेवा।। मतलब यह कि देवकी पुत्र श्रीकृष्ण द्वारा कही गई श्रीमद्भगवद्गीता मुख्य शास्त्र है, देवकी नन्दन श्रीकृष्ण ही मुख्य देव हैं, भगवान श्रीकृष्ण का नाम ही मुख्य मंत्र है तथा परमेश्वर श्रीकृष्ण की सेवा ही सर्वश्रेष्ठ कर्म है। इसके बाद श्रीमद्भगवतगीता श्रेष्ठ शास्त्र के तौर पर सर्वमान्य हो गई।

आध्यात्मिक संतों की मानें तो इस युग के लिए भी श्रीमद्भगवतगीता की प्रासंगिकता जरा भी कम नहीं है। बल्कि इसमें हर मर्ज की दवा है। आजकल विषाद बड़ी समस्या बनी हुई है। अर्जुन विषाद से ज्यादा उलझा हुआ मामला जान पड़ता है। अर्जुन जैसा महाज्ञानी विषाद का शिकार हुआ स्वयं भगवान को उसे इस स्थिति से उबारने के लिए कितनी कुश्ती करनी पड़ी थी। आज की पीढ़ी को विषाद से कौन बचाए? तमाम युक्तियां आजमाने के बाद गीता ज्ञान से ही बात बन पाती है।

पर आधुनिक युग के लिहाज से क्या कुछ किया जाए कि श्रीमद्भगवतगीता के संदेशों का अधिकतम लाभ मिल सके? उत्तर मिलता है कि इसके लिए योग या कर्मयोग का मार्ग ही श्रेष्ठ है। महर्षि पतंजलि के योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः यानी चित्तवृत्तियों का निरोध योग से इत्तर। इसमें भगवान ने योग: कर्मसु कौशलम् कहते हुए योग की निश्चित और स्वतंत्र व्याख्या कर दी है। अभिप्राय यह कि कर्म करने की एक प्रकार की विशेष युक्ति योग हैं। वह युक्ति क्या हो सकती है? पूरी गीता ही युक्तियों से भरी पड़ी है। वैसे, तुलसीदास जी के मुताबिक, कलियुग की प्रारंभिक साधना है कीर्तन। चैतन्य महाप्रभु के जीवन से भी यही प्रेरणा मिलती है।

वैसे, स्वामी विवेकानंद ने सन् 1897 में कलकत्ता प्रवास के दौरान अपने अनुयायियों के बीच  गीता की प्रासंगिकता पर दिए गए आपने भाषण में कहा था – ऐ मेरे बच्चों, यदि तुमलोग दुनिया को यह संदेश पहुंचा सको कि ‘’क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते। क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप।।‘’ तो सारे रोग, शोक, पाप और विषाद तीन दिन में धरती से निर्मूल हो जाएं। दुर्बलता के ये सब भाव कहीं नहीं रह जाएंगे। भय के स्पंदन का प्रवाह उलट दो और देखो, रूपांतरण का जादू।… इस श्लोक को व्यवहार में लाते ही जीवन में क्रांतिकारी बदलाव होगा। संपूर्ण गीता-पाठ का लाभ मिलेगा, क्योंकि इसी एक श्लोक में पूरी गीता का संदेश निहित है।

साधनाएं चाहे जैसी भी हों, महत्व श्रीमद्भगवतगीता रूपी मानव निर्माण कला को आत्मसात करने का है। यह सृकून देने वाली बात है कि आज की पीढ़ी में भी श्रीमद्भगवतगीता की स्वीकार्यता तेजी से ब़ढ़ रही है। गीता जयंती की शुभकामनाएं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

योग साधाना और श्रद्धा

किशोर कुमार

अमेरिका के हार्वर्ड विश्वविद्यालय ने अपने एक शोध-पत्र में खुलासा किया है कि कोरोनाकाल में कोविड-19 के संक्रमण के मामलों को छोड़ दें तो चिकित्सकों के पास पहुंचने वाले रोगियों में नब्बे फीसदी अवसादग्रस्त या अन्य मानसिक पीड़ाओं से ग्रस्त थे। ऐसे मरीजों को चिकित्सकीय उपचार के बदले मुख्यत: मेडिटेशन और योग की अन्य विधियों से काफी फायदा हुआ। मौजूदा समय में कोविड-19 के ओमिक्रॉन वैरिएंट के कारण नई मुसीबत खड़ी हो चुकी है तो योग की प्रासंगिकता फिर बढ़ गई है। पर चिंताजनक बात यह है कि इस आजमायी हुई विद्या पर अनेक लोगों को भरोसा नहीं बन पाया है। इसका आधार उनका व्यक्तिगत अनुभव नहीं, बल्कि किन्हीं कारणों से उनकी धारणा प्रमुख है।

योगी कहते हैं कि मन हमेशा प्रश्न और संदेह खड़े करता है। नतीजा होता है कि किसी भी चीज में श्रद्धा विकसित करना मुश्किल हो जाता है और यदि श्रद्धा न हो तो किसी भी साधना का इच्छित परिणाम मिलना मुश्किल ही होता है। इसलिए संत-महात्मा कहते रहे हैं कि अपनी श्रद्धा और अपने बीच बुद्धि को मत आने दो। वरना विज्ञानसम्मत योग साधाएं कदापि फलित नहीं होंगी। इसे दो प्रसंगों से समझिए। इनका उल्लेख पद्मविभूषण परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने अपने सत्संग में किया था। एक ईसाई पादरी समुद्री जहाज से सुदूर टापुओं की यात्रा कर रहा था। इसी क्रम में वह एक ऐसे टापू पर पहुंचा जहां जंगली आदिवासी रहते थे। उसे इस बात से हैरानी हुई कि वे टूटी-फूटी भाषा में एक खास प्रार्थना अनिवार्य रूप से करते थे।

पादरी ने आदिवासियों से कहा कि आप प्रार्थना करते हो, यह तो ठीक है। पर उच्चारण की शुद्धता के बिना उसका फल मिलना मुश्किल ही है। आदिवासियों की मांग पर पादरी ने उन्हें सही प्रार्थना बता दी। फिर वह किसी अन्य टापू के लिए प्रस्थान कर गया। उसका जहाज बीच समुद्र में जैसे ही पहुंचा कि जहाज पर सवार कुछ लोगों की नजर किसी अनजान चीज की ओर गई, जो तेजी से जहाज की तरह बढ़ रही थी। जब वह चीज जहाज के पास पहुंची तो पता चला कि वे जंगली आदिवासी हैं। दरअसल, पादरी ने जो शुद्ध प्रार्थना बतलाई थी, उसे आदिवासी भूल गए थे और पादरी से दोबारा अपनी गलतियों को दुरूस्त कराना चाहते थे। पर पादरी इस बात से हैरान था कि पानी पर चलने की जो क्षमता प्रभु ईसा मसीह के पास थी, वही क्षमता उन आदिवासियों के पास भी थी। पादरी ने आदिवासियों को दोबारा प्रार्थना बताने से मना कर दिया और कहा, तुम लोग जो प्रार्थना करते हो, वही सही है। क्योंकि उससे तुम्हें हृदय की निष्कपटता और शुद्धता प्राप्त हुई है। तभी ईश्वर के इतने करीब आ सके। यह श्रद्धा है, भावनात्मक श्रद्धा। हृदय से उपजी हुई श्रद्धा। यह बनी रहे।

ऐसा ही एक और प्रसंग है। बरसात के दिन थे और गंगा का जलस्तर काफी ऊंचा था। एक व्यक्ति गंगा पार अपने गुरू के सत्संग में आया था। पर लौटते समय नाव न मिली तो गुरू ने कागज पर एक मंत्र लिखकर दिया। कहा, इसे अपनी जेब में रख लो। इस मंत्र की शक्ति तुम्हें नदी पार करा देगी। भक्त ने ऐसा ही किया और उसने उफनती गंगा नदी में पांव रखा को उसे आश्चर्य का ठिकाना न रहा। वह पानी के ऊपर चला जा रहा था। वह जब नदी के बीचोबीच पहुंचा तो उसके मन में विचार आया कि आखिर ऐसा कौन-सा शक्तिशाली मंत्र है, जो उसे पानी पर चलने में सक्षम बना रहा है। यदि उस मंत्र को जान लिया जाए तो ढेर सारे रूपए कमाए जा सकते हैं। लिहाजा उसने जेब से कागज निकाली तो देखा कि कागज के टुकड़े पर केवल एक शब्द लिखा था – राम। यह पढ़ते ही उसकी आस्था डगमगा गई। उसके मुंह से निकाला कि यह भी कोई मंत्र है? राम शब्द का उच्चारण तो लोग दिन-रात करते रहते हैं। इस तरह का विचार मन में आते ही वह पानी में डूब गया। यानी श्रद्धा से नाता टूटा और बौद्धिकता हावी हुई नहीं कि पानी पर चलने की शक्ति जाती रही।  

अनेक लोगों को ये दोनों ही प्रसंग कपोल-कल्पना लग सकते हैं। पर यह ठीक वैसी ही बात हुई, जैसी पोलैंड में जन्में खगोलशास्त्री व गणितज्ञ निकोलस कोपरनिकस और इटली के महान विचारक व खगोलशास्त्री गैलीलियो गैलिली के मामले में थी। कोपरनिकस ने जब कहा कि पृथ्वी गोल है तो लोगों ने उसे पागल समझा। इसलिए कि मान्यता थी कि धरती सपाट है। यही बात गैलीलियो साथ भी लागू की गई थी। गैलीलियो ने कहा था कि सूर्य नहीं, बल्कि पृथ्वी ही सूर्य की परिक्रमा करती है। उसकी बात लोगों को आसानी से नहीं पची थी। इसलिए कि मान्यता थी कि सूर्य ही पृथ्वी की परिक्रमा करती है।

खैर, किसी भी साधना में श्रद्धा का बड़ा महत्व है। कई बार श्रद्धा से युक्त होने पर इच्छित परिणाम नहीं मिल पाता। श्रीमद्भगवतगीता के छठे अध्याय में अर्जुन श्रीकृष्ण से सवाल करते है, हे कृष्ण, श्रद्धा से युक्त होने पर भी जो साधक अपने मन को संयत नहीं कर पाया तथा जिसका मन योग से भटक गया है, वह योग को प्राप्त न होकर किस गति को प्राप्त करता है? चिन्मय मिशन के संस्थापक स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती इस प्रसंग की व्याख्या करते हुए कहते हैं, श्रद्धा कोई कोरा विश्वास अथवा मान्यता नहीं है। यह एक ऐसा विश्वास है, जो ज्ञान पर आधारित है और एक ऐसी मान्यता है जिसकी जड़ें पूर्ण बौद्धिक सूझ-बूझ में अंतर्निहित है। पर मन के उद्धत व अशांत स्वभाव के कारण साधक ध्यान योग से गिर सकता है। इसलिए श्रद्धा को संयत मन का आधार मिलना अनिवार्य है। तभी इच्छित फल की प्राप्ति संभव है।

इसलिए श्रद्धा के साथ योग विधियों के जरिए मन का प्रबंधन किया जाए तो बड़ी बात होगी। भारत के आध्यात्मिक संतों से लेकर योग के वैज्ञानिक संत तक कहते रहे हैं कि किसी को प्रत्याहार की एक भी विधि जैसे, योगनिद्रा ही सध जाए तो इसे उपलब्धि मानिए। वरना यौगिक साधना का अपेक्षित परिणाम मिलना मुश्किल हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

मंडे ब्लूज : योग है इस मर्ज की दवा

किशोर कुमार

“मंडे ब्लूज” यानी कार्यदिवस के पहले दिन ही काम के प्रति अरूचि। पाश्चात्य देशों में आम हो चुका यह रोग अब भारतीय युवाओं को भी तेजी से अपने आगोश में ले रहा है। भारत भूमि तो जगत्गुरू शंकाराचार्य, स्वामी विवेकानंद और महात्मा गांधी जैसे आध्यात्मिक नेताओं और कर्मयोगियों की भूमि रही है। फिर मंडे ब्लूज के रूप में पाश्चात्य देशों की अपसंस्कृति अपने देश कैसे पसर गई? स्वामी विवेकानंद की युवाओं से अपील कि “उठो, जागो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य ना प्राप्त हो जाए” तथा “काल करे सो आज कर, आज करे सो अब…” जैसी कबीर वाणी को आत्मसात करने वाले देश की युवा-शक्ति ही राष्ट्रीय चरित्र को बनाए रखने के लिए आध्यात्मिक और राजनैतिक क्रांति का बिगुल बजाती रही हैं। फिर चूक कहां हो रही है कि कर्म बोझ बनता जा रहा है?

इस मर्ज को लेकर कई स्तरों पर अध्ययन किया गया है। मैं उसके विस्तार में नहीं जाऊंगा। पर सभी अध्ययनों का सार यह है कि गलत जीवन शैली और नकारात्मक विचार व व्यवहार मंडे ब्लूज जैसी परिस्थितियों के लिए ज्यादा जिम्मेवार होते हैं। वैदिक ग्रंथों में मानसिक पीड़ाओं को तीन वर्गों में विभाजित किया गया है – आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक। बिहार योग विद्यालय के निवृत परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती समझाने के लिए इसे क्रमश: देवताकृत, परिस्थितिकृत और स्वकृत कहते हैं। जाहिर है कि तीसरे प्रकार के दु:ख के लिए हम स्वयं जिम्मेवार होते हैं और मौजूदा समस्या की जड़ में वही है। हम हर वक्त काम, क्रोध, लोभ, मोह व अहंकार से घिरे होते हैं। कोरोना महामारी कोढ़ में खाज की तरह है। ऐसे में मानसिक पीड़ा और अवसाद होना लाजिमी ही है।

यह समस्या लंबे अंतराल में साइकोसिस और न्यूरोसिस जैसे हालात बनती है। साइकोसिस यानी कोई समस्या न होने पर भी मानसिक भ्रांतियों के कारण हमें लगता है समस्या विकराल है। दूसरी तरफ न्यूरोसिस की स्थिति में समस्या कहीं होती है और हम उसे ढूंढ़ कही और रहे होते हैं। योगशास्त्र में साइकोसिस को माया और न्यूरोसिस को अविद्या कहते हैं। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि प्रेम व घृणा, आकर्षण व विकर्षण, दु:ख व सुख ये सभी मन के इन्हीं दो दृटिकोणों के कारण उत्पन्न होता है। उपनिषदों में भी कहा गया है कि यदि किसी को पत्नी प्यारी लगती है तो इस प्रेम का कारण पत्नी में नहीं, व्यक्ति के स्वंय में है।

परमहंस योगानंद के गुरू युक्तेश्व गिरि मन की शक्ति की व्याख्या करते कहते थे – लक्ष्यहीन दौड़ में शामिल लोग निराश और नाना प्रकार की मनासिक पीड़ाओं के शिकार होते हैं। जबकि मन की शक्ति इतनी प्रबल है कि दृढ़ इच्छा-शक्ति हो और चाहत उस चीज को पाने की हो, तो ब्रह्मांड में नहीं होने पर भी उसे उत्पन्न कर दिया जाएगा। बस, इच्छा ईश्वरीय होनी चाहिए। सवाल है कि क्या इस शक्तिशाली मन का प्रबंधन संभव है और है तो किस तरह? योगशास्त्र में अनेक उपाय बतलाए गए हैं, जिनके अभ्यास से मानव न सिर्फ अवसाद से उबरेगा, बल्कि कर्मयोगी बनकर राष्ट्र के नवनिर्माण में महती भूमिका निभाएगा।  

इसे ऐसे समझिए कि यदि मानव लोहा है तो योग पारस है। इन दोंनों का मेल होते ही कुंदन बनते देर न लगेगी। मानव में वह शक्ति है। बस, योगियों से मार्ग-दर्शन पा कर मन पर नियंत्रण करके अपनी ऊर्जा को सही दिशा देने के प्रति श्रद्धा और इच्छा-शक्ति होनी चाहिए। अष्टांग योग से लेकर कर्मयोग और भक्तियोग तक में अनेक उपाय बतलाए गए हैं, जो अलग-अलग व्यक्तियों के लिए उनकी सुविधा के लिहाज से अनुकूल होंगे। तंत्र-शास्त्र का अद्भुत ग्रंथ है रूद्रयामल तंत्र। उसमें महायोगी शिव कहते हैं कि योग एक ऐसा माध्यम है, जिससे मनुष्य अपने दु:खों से छुटकारा पा सकता है। इस बात को विस्तार मिलता है माता पार्वती के सवाल से। वह शंकर भगवान से पूछती हैं कि चंचल मन को किस विधि काबू में किया जाए? प्रत्युत्तर में महायोगी 112 उपाय बतलाते है और कहते हैं कि इनमें से कोई भी उपाय कारगर है। ये उपाय ही आधुनिक योग में धारणा और ध्यान की प्रचलित विधियां बने हुए हैं।

श्रीमद्भागवतगीता तो अपने आप में पूर्ण मनोविज्ञान और योगशास्त्र ही है। उसके मुताबिक, अर्जुन श्रीकृष्ण से पूछते हैं – हे कृष्ण, मन चंचल है, प्रमथन करने वाला है, बली और दृढ़ है। इसका निग्रह वायु के समान दुष्कर है। जबाव में श्रीकृष्ण ने कर्मयोग और भक्तियोग के जो उपाय बतलाए उसके लाभों को आधुनिक विज्ञान भी संदेह से परे मानता है। महर्षि पतंजलि के अष्टांगयोग के चमत्कारिक प्रभावों से भी हम सब वाकिफ हैं। असल सवाल ऐसी परिस्थिति में व्यक्ति के अनुकूल योगाभ्यास के चुनाव का है। श्रीमद्भागवत महापुराण में कथा है कि नारद पृथ्वीलोक पर विचरण करते हुए यमुनाजी के तट पर पहुंचे तो उनका सामना भक्ति से हो गया, जो अपने दोनों पुत्रों ज्ञान और वैराग्य की पीड़ाओं से बेहाल थी।

कर्नाटक में पली-बढ़ी और गुजरात में वृद्धावस्था प्राप्त करके जीर्ण-शीर्ण हुई भक्ति के पांव वृंदावन की धरती पर पड़ते ही पुन: सुरूपवती नवयुवती बन गई थी। पर उसके पुत्र अधेर और रोगग्रस्त ही रह गए थे। यही उसके विषाद का कारण था। भक्ति नारद जी से इसकी वजह और इस स्थिति से उबरने के उपाय जानना चाहती थी। नारद जी ने ध्यान लगाया और उन्हें उत्तर मिल गया। उन्होंने भक्ति को बतलाया कि कलियुग के प्रभाव के कारण ज्ञान और वैराग्य निस्तेज पड़े हैं। कलियुग में मानव भक्ति तो करता है, पर उसके जीवन में न तो ज्ञान यानी आत्म-दर्शन का स्थान है और न ही वैराग्य का। इसलिए श्रीमद्भागवत कथा ज्ञान महायज्ञ से ही बात बनेगी। दैवयोग से ऐसा ही हुआ।    

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती से किसी साधक ने पूछ लिया कि मन अशांत रहता है और काम में जी नहीं लगता, क्या करें?  परमहंस जी ने जबाव दिया – आसन-प्राणायाम से बीमारी दूर होती है, प्रत्याहार-ध्यान से आत्म-सम्मोहन होता है। इसलिए ये स्थायी उपाय नहीं हैं। यदि स्थायी उपाय चाहिए तो भक्तियोग और कर्मयोग का सहारा लेना होगा। कलियुग में ये ही उपाय हैं। भक्तियोग के तहत संकीर्तन, जप, अजपाजप आदि। इतना ही काफी है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

: News & Archives