अनिद्रा से मुक्ति दिलाएंगी ये योग विधियां

किशोर कुमार

कोरोना महामारी के बाद अनिद्रा की समस्या से पीड़ित और अवसादग्रस्त लोगों की बढ़ती तादाद स्वास्थ्य से जुड़ी बड़ी समस्या बनकर उभरी है। जब बच्चे अनिद्रा की शिकायत करने लगें और तनावग्रस्त हो जाएं तो मान लेना चाहिए कि पानी सिर से ऊपर बह रहा है। आर्थिक महाशक्ति बनने का सपना देखने वाले भारत के लिए यह चिंता का विषय है। इसलिए कि इस समस्या का सीधा संबंध हमारी अर्थ-व्यवस्था से भी है। मेलाटोनिन हार्मोन का न बनना अनिद्रा की सबसे बड़ी वजह है। पर अनिद्रा की समस्या दूर हो जाए तो स्वास्थ्य संबंधी बहुत सारी समस्याओं से मुक्ति मिल जाएगी। भारत के योगी सदियों से बतलाते रहे हैं कि प्राकृतिक तौर पर मेलाटोनिन के उत्पादन में किसी कारण से बाधा आती है तो उसका यौगिक समाधान है। पर मेलोटोनिन स्राव के लिए दवा तैयार करने वाली कंपनियों का धंधा जिस तरह चमका है, वह चिंताजनक है। इसलिए कि इसके परिणाम अधिक घातक होने वाले हैं।

महाभारत की एक कथा इस संदर्भ में प्रासंगिक है। श्रीकृष्ण महाभारत युद्ध से पूर्व कौरवों के पास संधि प्रस्ताव लेकर गए थे। कहा था, क्यों आपस में झगड़ने पर आमादा हो? पांच राज्य नहीं, तो पांच गांव ही दे दो। दुर्योधन तैयार न हुआ तो श्रीकृष्ण ने उसे राजधर्म की याद दिलाई। इसके प्रत्युत्तर में दुर्योधन ने जो कहा, वह गौर करने लायक है। वह कहता है – “राजधर्म क्या है, मैं जानता हूं। पर उस ओर मेरी प्रवृत्ति नहीं है। अधर्म क्या है, मैं उसको भी जानता हूं। पर अधर्मों से अपने को दूर नहीं रख पाता। पता नहीं, वह कौन-सी शक्ति है, जो मेरे भीतर बैठकर पापकर्म कराती है।“ श्रीमद्भगवतगीता में अर्जुन इस बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि तमोगुणी व्यक्ति बड़ा ही अहंकारी होता है, अज्ञानी होता है। उसमें “मैं” की भावना प्रबल होती है। इस वजह से सज्जनों की बातों से राजी होने को तैयार नहीं होता, बल्कि इसके उलट काम करता है। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि मानसिक शांति से ही मैपन छूटेगा, अहंकार टूटेगा, तमोगुण मिटेगा और जीवन सुखमय होगा। इसके लिए उपाय एक ही है और वह है – अभ्यास योगेन तत: मामिच्छाप्तुं धनंजय। यानी योगाभ्यास।

आज के संदर्भ में हम सबकी स्थिति भी कुछ दुर्योधन जैसी ही हो गई है। तभी यौगिक उपायों का ज्ञान होते हुए भी हम सब दवाओं के पीछे भागे चले जा रहे हैं। इसके कुपरिणाम तक झेलने को तैयार हैं। यह बात किसी से छिपी नहीं रही कि अनिद्रा दूर करने वाला कृत्रिम मेलाटोनिन कुछ समय बाद अनिद्रा का ही कारण बन जाता है। अठारहवीं सदी के लखनवी शायर लाला मौजी राम मौजी ने लिखा था – “दिल के आइने में हैं तस्वीरें यार, जब जरा गर्दन झुकाई देख ली।“ हम सब भी नजरिया बदल लें तो बात बन जाएगी। योगाभ्यास से प्राकृतिक तौर पर मेलाटोनिन का उत्पादन होने लगेगा। इसके विस्तार में जाने से पहले जानना जरूरी है कि आखिर मेलाटोनिन हार्मोन होता क्या है? अनुसंधानों से पता चल चुका है कि भ्रू-मध्य के ठीक पीछे मस्तिष्क में अवस्थित पीयूष या पीनियल ग्रंथि के भीतर की पीनियलोसाइट्स कोशिकाओं से मेलाटोनिन हॉर्मोन बनना बंद हो जाता है तो अनुकंपी (पिंगला) और परानुकंपी (इड़ा) नाड़ी संस्थान के बीच का संतुलन बिगड़ जाता है।

इसके उलट यदि मेलाटोनिन हार्मोन का स्राव होते रहता है तो अनिद्रा की समस्या आती ही नहीं। अब तो यह भी पता चल चुका है कि इंफ्लूएंजा जैसी संक्रामक बीमारी के विरूद्ध प्रतिरोधक क्षमता तैयार करने में भी इसकी बड़ी भूमिका होती है। टी-सेल्स श्वेत रक्त-कोशिकाएं होती हैं, जो कि हमारी इम्युनिटी में बेहद अहम भूमिका निभाती हैं। ये ऐंटीबॉडी रिलीज करती हैं, जिससे वायरस मरता है। जब हम रात्रि में कमरे की लाइटें बंद करके विश्राम करते हैं तो मेलाटोनिन का स्राव होने लगता है। यदि कमरे में रोशनी रही तो इस कार्य में बाधा आती है। मेलाटोनिन का स्राव जितना गहरा होता है, नींद भी उतनी ही गहरी होती है। चार घंटों की नींद भी आठ घंटों की नींद जैसी जान पड़ती है। इससे शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य दुरूस्त रहता है। रोग प्रतिरोधक क्षमता का विकास होता है।

शास्त्रों में भी नींद की महत्ता बतलाई गई है। भविष्य पुराण, पदंम पुराण और मनुस्मृति में बतलाया गया है कि रात्रि में विश्राम की तैयारी किस तरह हो कि गहरी नींद आए। पर यदि नींद में बाधा है तो योग के साथ ही मंत्रों की अहमियत भी बतलाई गई है। कहा गया है कि “या देवी सर्वभूतेषु निद्रा-रूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः“ मंत्र का नींद से संबंध है। इस मंत्र का जप श्रद्धापूर्वक करने से निद्रा में व्यवधान खत्म होता है। पर मंत्रयोग हो या योग की कोई अन्य विधि, लाभ तो तभी होगा, जब हम अनुशासित जीवन-शैली के लिए तैयार रहेंगे। कैफीन का सेवन करने वालों को भला कौन-सी युक्ति काम आएगी?   

खैर, जहां तक नींद के लिए यौगिक उपायों का सवाल है तो यह विज्ञानसम्मत है कि यदि योगनिद्रा, अजपा जप, भ्रामरी प्राणायाम, सोऽहं मंत्र के साथ नाडी शोधन प्राणायाम आदि योग विधियों में से किसी एक का भी निरंतर अभ्यास किया जाए, तो अनिद्रा की समस्या जाती रहेगी। अवसाद से भी छुटकारा मिलेगा। चिकित्सकीय परीक्षणों से साबित हुआ कि योगनिद्रा के अभ्यास के दौरान बीटा और थीटा तरंगे परस्पर बदलती रहती हैं। यानी चेतना अंतर्मुखता और बहिर्मुखता के बीच ऊपर-नीचे होती रहती है। चेतना के अंतर्मुख होते ही मन तमाम तनावों, उत्तेजनाओं से मुक्त हो जाता है। यह गहरी निद्रा से भी आगे सूक्ष्म निद्रा की अवस्था होती है। बीटा और थीटा की यही अदला-बदली योगनिद्रा का रहस्य है। तभी कई गंभीर बीमारियों से जूझते मरीजों पर यह कमाल का असर दिखाता है।

सत्यानंद योग पद्धति में कहा गया है कि अजपा योग की ऐसी विधि है, जो नींद नहीं आती तो ट्रेंक्विलाइजर है, दिल की बीमारी है तो कोरामिन है और सिर में दर्द है तो एनासिन है। इसी तरह भ्रामरी प्राणायाम है। बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं कि रात में नींद खुल जाए तो तीन बार विधि पूर्वक भ्रामरी प्राणायाम कीजिए, नींद आ जाएगी। इसलिए कि इससे भी मेलाटोनिन का स्राव होने लगता है। पर योगनिद्रा तुरंत-तुरंत के लाभ के लिए बेहद उपयोगी है। वैसे, इन योग विधियों का नींद के लिए उपयोग वैसा ही जैसे सुई का काम तलवार से लिया जाए। पर संकट गहरा है तो तलवार से ही काम लेने में ही बुद्धिमानी है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

योग साधाना और श्रद्धा

किशोर कुमार

अमेरिका के हार्वर्ड विश्वविद्यालय ने अपने एक शोध-पत्र में खुलासा किया है कि कोरोनाकाल में कोविड-19 के संक्रमण के मामलों को छोड़ दें तो चिकित्सकों के पास पहुंचने वाले रोगियों में नब्बे फीसदी अवसादग्रस्त या अन्य मानसिक पीड़ाओं से ग्रस्त थे। ऐसे मरीजों को चिकित्सकीय उपचार के बदले मुख्यत: मेडिटेशन और योग की अन्य विधियों से काफी फायदा हुआ। मौजूदा समय में कोविड-19 के ओमिक्रॉन वैरिएंट के कारण नई मुसीबत खड़ी हो चुकी है तो योग की प्रासंगिकता फिर बढ़ गई है। पर चिंताजनक बात यह है कि इस आजमायी हुई विद्या पर अनेक लोगों को भरोसा नहीं बन पाया है। इसका आधार उनका व्यक्तिगत अनुभव नहीं, बल्कि किन्हीं कारणों से उनकी धारणा प्रमुख है।

योगी कहते हैं कि मन हमेशा प्रश्न और संदेह खड़े करता है। नतीजा होता है कि किसी भी चीज में श्रद्धा विकसित करना मुश्किल हो जाता है और यदि श्रद्धा न हो तो किसी भी साधना का इच्छित परिणाम मिलना मुश्किल ही होता है। इसलिए संत-महात्मा कहते रहे हैं कि अपनी श्रद्धा और अपने बीच बुद्धि को मत आने दो। वरना विज्ञानसम्मत योग साधाएं कदापि फलित नहीं होंगी। इसे दो प्रसंगों से समझिए। इनका उल्लेख पद्मविभूषण परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने अपने सत्संग में किया था। एक ईसाई पादरी समुद्री जहाज से सुदूर टापुओं की यात्रा कर रहा था। इसी क्रम में वह एक ऐसे टापू पर पहुंचा जहां जंगली आदिवासी रहते थे। उसे इस बात से हैरानी हुई कि वे टूटी-फूटी भाषा में एक खास प्रार्थना अनिवार्य रूप से करते थे।

पादरी ने आदिवासियों से कहा कि आप प्रार्थना करते हो, यह तो ठीक है। पर उच्चारण की शुद्धता के बिना उसका फल मिलना मुश्किल ही है। आदिवासियों की मांग पर पादरी ने उन्हें सही प्रार्थना बता दी। फिर वह किसी अन्य टापू के लिए प्रस्थान कर गया। उसका जहाज बीच समुद्र में जैसे ही पहुंचा कि जहाज पर सवार कुछ लोगों की नजर किसी अनजान चीज की ओर गई, जो तेजी से जहाज की तरह बढ़ रही थी। जब वह चीज जहाज के पास पहुंची तो पता चला कि वे जंगली आदिवासी हैं। दरअसल, पादरी ने जो शुद्ध प्रार्थना बतलाई थी, उसे आदिवासी भूल गए थे और पादरी से दोबारा अपनी गलतियों को दुरूस्त कराना चाहते थे। पर पादरी इस बात से हैरान था कि पानी पर चलने की जो क्षमता प्रभु ईसा मसीह के पास थी, वही क्षमता उन आदिवासियों के पास भी थी। पादरी ने आदिवासियों को दोबारा प्रार्थना बताने से मना कर दिया और कहा, तुम लोग जो प्रार्थना करते हो, वही सही है। क्योंकि उससे तुम्हें हृदय की निष्कपटता और शुद्धता प्राप्त हुई है। तभी ईश्वर के इतने करीब आ सके। यह श्रद्धा है, भावनात्मक श्रद्धा। हृदय से उपजी हुई श्रद्धा। यह बनी रहे।

ऐसा ही एक और प्रसंग है। बरसात के दिन थे और गंगा का जलस्तर काफी ऊंचा था। एक व्यक्ति गंगा पार अपने गुरू के सत्संग में आया था। पर लौटते समय नाव न मिली तो गुरू ने कागज पर एक मंत्र लिखकर दिया। कहा, इसे अपनी जेब में रख लो। इस मंत्र की शक्ति तुम्हें नदी पार करा देगी। भक्त ने ऐसा ही किया और उसने उफनती गंगा नदी में पांव रखा को उसे आश्चर्य का ठिकाना न रहा। वह पानी के ऊपर चला जा रहा था। वह जब नदी के बीचोबीच पहुंचा तो उसके मन में विचार आया कि आखिर ऐसा कौन-सा शक्तिशाली मंत्र है, जो उसे पानी पर चलने में सक्षम बना रहा है। यदि उस मंत्र को जान लिया जाए तो ढेर सारे रूपए कमाए जा सकते हैं। लिहाजा उसने जेब से कागज निकाली तो देखा कि कागज के टुकड़े पर केवल एक शब्द लिखा था – राम। यह पढ़ते ही उसकी आस्था डगमगा गई। उसके मुंह से निकाला कि यह भी कोई मंत्र है? राम शब्द का उच्चारण तो लोग दिन-रात करते रहते हैं। इस तरह का विचार मन में आते ही वह पानी में डूब गया। यानी श्रद्धा से नाता टूटा और बौद्धिकता हावी हुई नहीं कि पानी पर चलने की शक्ति जाती रही।  

अनेक लोगों को ये दोनों ही प्रसंग कपोल-कल्पना लग सकते हैं। पर यह ठीक वैसी ही बात हुई, जैसी पोलैंड में जन्में खगोलशास्त्री व गणितज्ञ निकोलस कोपरनिकस और इटली के महान विचारक व खगोलशास्त्री गैलीलियो गैलिली के मामले में थी। कोपरनिकस ने जब कहा कि पृथ्वी गोल है तो लोगों ने उसे पागल समझा। इसलिए कि मान्यता थी कि धरती सपाट है। यही बात गैलीलियो साथ भी लागू की गई थी। गैलीलियो ने कहा था कि सूर्य नहीं, बल्कि पृथ्वी ही सूर्य की परिक्रमा करती है। उसकी बात लोगों को आसानी से नहीं पची थी। इसलिए कि मान्यता थी कि सूर्य ही पृथ्वी की परिक्रमा करती है।

खैर, किसी भी साधना में श्रद्धा का बड़ा महत्व है। कई बार श्रद्धा से युक्त होने पर इच्छित परिणाम नहीं मिल पाता। श्रीमद्भगवतगीता के छठे अध्याय में अर्जुन श्रीकृष्ण से सवाल करते है, हे कृष्ण, श्रद्धा से युक्त होने पर भी जो साधक अपने मन को संयत नहीं कर पाया तथा जिसका मन योग से भटक गया है, वह योग को प्राप्त न होकर किस गति को प्राप्त करता है? चिन्मय मिशन के संस्थापक स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती इस प्रसंग की व्याख्या करते हुए कहते हैं, श्रद्धा कोई कोरा विश्वास अथवा मान्यता नहीं है। यह एक ऐसा विश्वास है, जो ज्ञान पर आधारित है और एक ऐसी मान्यता है जिसकी जड़ें पूर्ण बौद्धिक सूझ-बूझ में अंतर्निहित है। पर मन के उद्धत व अशांत स्वभाव के कारण साधक ध्यान योग से गिर सकता है। इसलिए श्रद्धा को संयत मन का आधार मिलना अनिवार्य है। तभी इच्छित फल की प्राप्ति संभव है।

इसलिए श्रद्धा के साथ योग विधियों के जरिए मन का प्रबंधन किया जाए तो बड़ी बात होगी। भारत के आध्यात्मिक संतों से लेकर योग के वैज्ञानिक संत तक कहते रहे हैं कि किसी को प्रत्याहार की एक भी विधि जैसे, योगनिद्रा ही सध जाए तो इसे उपलब्धि मानिए। वरना यौगिक साधना का अपेक्षित परिणाम मिलना मुश्किल हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

मंडे ब्लूज : योग है इस मर्ज की दवा

किशोर कुमार

“मंडे ब्लूज” यानी कार्यदिवस के पहले दिन ही काम के प्रति अरूचि। पाश्चात्य देशों में आम हो चुका यह रोग अब भारतीय युवाओं को भी तेजी से अपने आगोश में ले रहा है। भारत भूमि तो जगत्गुरू शंकाराचार्य, स्वामी विवेकानंद और महात्मा गांधी जैसे आध्यात्मिक नेताओं और कर्मयोगियों की भूमि रही है। फिर मंडे ब्लूज के रूप में पाश्चात्य देशों की अपसंस्कृति अपने देश कैसे पसर गई? स्वामी विवेकानंद की युवाओं से अपील कि “उठो, जागो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य ना प्राप्त हो जाए” तथा “काल करे सो आज कर, आज करे सो अब…” जैसी कबीर वाणी को आत्मसात करने वाले देश की युवा-शक्ति ही राष्ट्रीय चरित्र को बनाए रखने के लिए आध्यात्मिक और राजनैतिक क्रांति का बिगुल बजाती रही हैं। फिर चूक कहां हो रही है कि कर्म बोझ बनता जा रहा है?

इस मर्ज को लेकर कई स्तरों पर अध्ययन किया गया है। मैं उसके विस्तार में नहीं जाऊंगा। पर सभी अध्ययनों का सार यह है कि गलत जीवन शैली और नकारात्मक विचार व व्यवहार मंडे ब्लूज जैसी परिस्थितियों के लिए ज्यादा जिम्मेवार होते हैं। वैदिक ग्रंथों में मानसिक पीड़ाओं को तीन वर्गों में विभाजित किया गया है – आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक। बिहार योग विद्यालय के निवृत परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती समझाने के लिए इसे क्रमश: देवताकृत, परिस्थितिकृत और स्वकृत कहते हैं। जाहिर है कि तीसरे प्रकार के दु:ख के लिए हम स्वयं जिम्मेवार होते हैं और मौजूदा समस्या की जड़ में वही है। हम हर वक्त काम, क्रोध, लोभ, मोह व अहंकार से घिरे होते हैं। कोरोना महामारी कोढ़ में खाज की तरह है। ऐसे में मानसिक पीड़ा और अवसाद होना लाजिमी ही है।

यह समस्या लंबे अंतराल में साइकोसिस और न्यूरोसिस जैसे हालात बनती है। साइकोसिस यानी कोई समस्या न होने पर भी मानसिक भ्रांतियों के कारण हमें लगता है समस्या विकराल है। दूसरी तरफ न्यूरोसिस की स्थिति में समस्या कहीं होती है और हम उसे ढूंढ़ कही और रहे होते हैं। योगशास्त्र में साइकोसिस को माया और न्यूरोसिस को अविद्या कहते हैं। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि प्रेम व घृणा, आकर्षण व विकर्षण, दु:ख व सुख ये सभी मन के इन्हीं दो दृटिकोणों के कारण उत्पन्न होता है। उपनिषदों में भी कहा गया है कि यदि किसी को पत्नी प्यारी लगती है तो इस प्रेम का कारण पत्नी में नहीं, व्यक्ति के स्वंय में है।

परमहंस योगानंद के गुरू युक्तेश्व गिरि मन की शक्ति की व्याख्या करते कहते थे – लक्ष्यहीन दौड़ में शामिल लोग निराश और नाना प्रकार की मनासिक पीड़ाओं के शिकार होते हैं। जबकि मन की शक्ति इतनी प्रबल है कि दृढ़ इच्छा-शक्ति हो और चाहत उस चीज को पाने की हो, तो ब्रह्मांड में नहीं होने पर भी उसे उत्पन्न कर दिया जाएगा। बस, इच्छा ईश्वरीय होनी चाहिए। सवाल है कि क्या इस शक्तिशाली मन का प्रबंधन संभव है और है तो किस तरह? योगशास्त्र में अनेक उपाय बतलाए गए हैं, जिनके अभ्यास से मानव न सिर्फ अवसाद से उबरेगा, बल्कि कर्मयोगी बनकर राष्ट्र के नवनिर्माण में महती भूमिका निभाएगा।  

इसे ऐसे समझिए कि यदि मानव लोहा है तो योग पारस है। इन दोंनों का मेल होते ही कुंदन बनते देर न लगेगी। मानव में वह शक्ति है। बस, योगियों से मार्ग-दर्शन पा कर मन पर नियंत्रण करके अपनी ऊर्जा को सही दिशा देने के प्रति श्रद्धा और इच्छा-शक्ति होनी चाहिए। अष्टांग योग से लेकर कर्मयोग और भक्तियोग तक में अनेक उपाय बतलाए गए हैं, जो अलग-अलग व्यक्तियों के लिए उनकी सुविधा के लिहाज से अनुकूल होंगे। तंत्र-शास्त्र का अद्भुत ग्रंथ है रूद्रयामल तंत्र। उसमें महायोगी शिव कहते हैं कि योग एक ऐसा माध्यम है, जिससे मनुष्य अपने दु:खों से छुटकारा पा सकता है। इस बात को विस्तार मिलता है माता पार्वती के सवाल से। वह शंकर भगवान से पूछती हैं कि चंचल मन को किस विधि काबू में किया जाए? प्रत्युत्तर में महायोगी 112 उपाय बतलाते है और कहते हैं कि इनमें से कोई भी उपाय कारगर है। ये उपाय ही आधुनिक योग में धारणा और ध्यान की प्रचलित विधियां बने हुए हैं।

श्रीमद्भागवतगीता तो अपने आप में पूर्ण मनोविज्ञान और योगशास्त्र ही है। उसके मुताबिक, अर्जुन श्रीकृष्ण से पूछते हैं – हे कृष्ण, मन चंचल है, प्रमथन करने वाला है, बली और दृढ़ है। इसका निग्रह वायु के समान दुष्कर है। जबाव में श्रीकृष्ण ने कर्मयोग और भक्तियोग के जो उपाय बतलाए उसके लाभों को आधुनिक विज्ञान भी संदेह से परे मानता है। महर्षि पतंजलि के अष्टांगयोग के चमत्कारिक प्रभावों से भी हम सब वाकिफ हैं। असल सवाल ऐसी परिस्थिति में व्यक्ति के अनुकूल योगाभ्यास के चुनाव का है। श्रीमद्भागवत महापुराण में कथा है कि नारद पृथ्वीलोक पर विचरण करते हुए यमुनाजी के तट पर पहुंचे तो उनका सामना भक्ति से हो गया, जो अपने दोनों पुत्रों ज्ञान और वैराग्य की पीड़ाओं से बेहाल थी।

कर्नाटक में पली-बढ़ी और गुजरात में वृद्धावस्था प्राप्त करके जीर्ण-शीर्ण हुई भक्ति के पांव वृंदावन की धरती पर पड़ते ही पुन: सुरूपवती नवयुवती बन गई थी। पर उसके पुत्र अधेर और रोगग्रस्त ही रह गए थे। यही उसके विषाद का कारण था। भक्ति नारद जी से इसकी वजह और इस स्थिति से उबरने के उपाय जानना चाहती थी। नारद जी ने ध्यान लगाया और उन्हें उत्तर मिल गया। उन्होंने भक्ति को बतलाया कि कलियुग के प्रभाव के कारण ज्ञान और वैराग्य निस्तेज पड़े हैं। कलियुग में मानव भक्ति तो करता है, पर उसके जीवन में न तो ज्ञान यानी आत्म-दर्शन का स्थान है और न ही वैराग्य का। इसलिए श्रीमद्भागवत कथा ज्ञान महायज्ञ से ही बात बनेगी। दैवयोग से ऐसा ही हुआ।    

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती से किसी साधक ने पूछ लिया कि मन अशांत रहता है और काम में जी नहीं लगता, क्या करें?  परमहंस जी ने जबाव दिया – आसन-प्राणायाम से बीमारी दूर होती है, प्रत्याहार-ध्यान से आत्म-सम्मोहन होता है। इसलिए ये स्थायी उपाय नहीं हैं। यदि स्थायी उपाय चाहिए तो भक्तियोग और कर्मयोग का सहारा लेना होगा। कलियुग में ये ही उपाय हैं। भक्तियोग के तहत संकीर्तन, जप, अजपाजप आदि। इतना ही काफी है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

आधुनिक विज्ञान को भी भा रहा है गीता का ज्ञान। वजह स्थापित मान्यताएं नहीं, बल्कि वैज्ञानिक शोधों के परिणाम हैं। विश्वव्यापी कोरोना संकट के कारण व्याप्त विषाद और अवसाद से पार जाने के उपाय गीता के ज्ञान से ही मिलते दिख रहे हैं। बीती सदी के महानतम संत स्वामी सत्यानंद सरस्वती भी कहा करते थे कि चिंतन करने से विषाद दूर नहीं होगा। इसलिए कि जो आदमी अंधा है, उसे कितना ही अच्छा चश्मा दे दो, वह देख नहीं सकता। पर गीता में वह शक्ति है कि उससे प्रेरणा लेने वाला तमाम विपरीत परिस्थितियों से जूझ सकता है और विषाद से उबर भी सकता है।

जन्माष्टमी यानी कर्तव्यों को स्मरण करने और तदनुरूप निष्काम कर्म का संकल्प लेने का दिन। श्रीकृष्ण को अवतारी महामानव के रूप में पूजने का कोई अर्थ नहीं, जब तक कि हम उनके उपदेशों से सीख लेने को तैयार नहीं हैं। कंस, दुर्योधन और जरासंघ जैसे उत्पीड़क, स्वार्थी और अनैतिक तत्वों को विनष्ट करने के लिए परिश्रम, नीति, बल, व्यवहार, कौशल और न्याय के सभी मार्गों का समन्वय करना होता है। हम जिस समाज में जीते हैं, वहां की ऐसी ही प्रवृत्तियों से नहीं लड़ते, तटस्थ रह जाते हैं या उसी जमात में शामिल हो जाते हैं तो जन्माष्टमी की सार्थकता नहीं रह जाती।

श्रीकृष्ण का एक अन्य संदेश कि कर्मठ बनो, कर्मयोगी बनो पर दृढ़निश्चयी रहो, अपेक्षारहित रहो, कोरोनाकाल के लिए ज्यादा ही प्रासंगिक बन पड़ा है। इस जीवन-मंत्र से जब अर्जुन से एकाकार हुआ था तो हम जानते हैं कि असंभव संभव में बदल गया था। दुश्मन की मजबूत फौज और अपनी मानसिक कमजोरियां जीत में आड़े नहीं आ पाई थी। विषाद से निकल कर कठिन चुनौतियों का सामना करने में वही मंत्र हमें भी संबल प्रदान कर सकता है। गीता का ज्ञान बेहद शक्तिशाली है। अक्षय ऊर्जा का स्रोत है। अवसाद दूर करने की आधुनिक चिकित्सा की इतनी सारी विधियों पर महाभारत कालीन गीता, श्रीकृष्ण के उपदेशों कई गुणा भारी हैं। श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व बड़ा अद्भुत है, अनूठा है। हजारों साल पुराने उनके संदेश सर्वकालिक हैं। लगता ही नहीं कि उनकी बातें आज के संदर्भ में नहीं हैं। तभी उनकी प्रासंगिकता हर युग में, हर काल में बनी रहती है। आज भी है।

श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव इस बार ऐसे वक्त में है, जब कोरोना महामारी के कारण सर्वत्र भय, संताप और दुविधा की स्थिति है। मानव जाति के विरूद्ध अभूतपूर्व वैश्विक युद्ध जैसे हालात हैं। सोशल मीडिया पर यह पंक्ति तेजी से वायरल है कि अस्पताल युद्ध के मैदान बने हुए हैं और स्वस्थ्यकर्मी सैनिकों की भूमिका में हैं। इस वायरल बात में जितनी सच्चाई है, उतनी ही सच्चाई इस बात में भी है कि जिस तरह अर्जुन विषाद में डूबा हुआ था, आज लगभग वैसी ही स्थिति स्वास्थ्यकर्मियों और अन्य लोगों की है। बस, संदर्भ और वजह बदले हुए हैं। संपूर्ण गीता योग का अद्भुत ग्रंथ है। पर योग को आज जैसी विश्वव्यापी मान्यता कई सौ वर्षों के इतिहास में पहले कभी नहीं थी। चिकित्सा विज्ञानी तो हाल हाल तक योग की उपयोगिता को स्वीकारने को तैयार न थे। पर आज योग और संपूर्ण गीता का ज्ञान स्वास्थ्यकर्मियों को सबसे ज्यादा लुभा रहा है। इस अनूठे ज्ञान से कुछ को कर्म से विमुख न होने की प्रेरणा मिल रही है तो कुछ को रणक्षेत्र में मजबूती से टिके रहने की शक्ति मिल रही है।

मनोविज्ञान और चिकित्सा के क्षेत्र में श्रीमद्भगवत गीता पर बड़े-बड़े शोध किए जा चुके हैं। श्रीकृष्ण के संदेशों की वैज्ञानिकता पर किसी को संदेह नहीं रहा। मनोविज्ञानी डॉ अशोक कुमार सक्सेना की पुस्तक “डिप्रेशन इन द बैटलफील्ड – अ काग्निटिव स्टडीज ऑफ गीता” इस संदर्भ में उल्लेखनीय है

मनोविज्ञान और चिकित्सा के क्षेत्र में श्रीमद्भगवत गीता पर बड़े-बड़े शोध किए जा चुके हैं। श्रीकृष्ण के संदेशों की वैज्ञानिकता पर किसी को संदेह नहीं रहा। मनोविज्ञानी डॉ अशोक कुमार सक्सेना की पुस्तक “डिप्रेशन इन द बैटलफील्ड – अ काग्निटिव स्टडीज ऑफ गीता” इस संदर्भ में उल्लेखनीय है। ब्रिटेन के टेमसाइड अस्पताल के वरिष्ठ चिकित्सक डॉ आनंद कुलकर्णी ने कोविड-19 के आलोक में श्रीमद्भगवदगीता की सुंदर व्याख्या की है। वे कोविड-19 से संक्रमित लोगों की दर्दनाक मौतों के साक्षी रहे हैं तो खतरों से खेलते स्वास्थ्यकर्मियों और उनके परिवार वालों की भावनाओं से भी रू-ब-रू होते रहे हैं। दुनिया भर की घटनाओं का अध्ययन भी किया है। विशेष तौर से भारत का। उन्हें ऐसे पीड़ादायक वकत में अवसाद से उबरने और कर्मयोग के मार्ग पर अग्रसर रहने का एक ही उपाय सूझा है और वह है श्रीमद्भगवदगीता का स्मरण, उसके संदेशों से सीख। तभी घने अंधेरे के बावजूद पत्थरीली राह से गुजर जाना मुमकिन हो सकता है।

भारतीय मूल के श्री कुलकर्णी श्रीमद्भगवदगीता के संदेशों से अभिभूत हैं। वे कहते हैं कि इस महामारी के विरूद्ध सैनिकों की तरह काम करने वाले स्वास्थ्यकर्मियों के पास अर्जुन जैसे ही कुछ व्यावहारिक तर्क और चिंताएं हैं। इसलिए उन्हें मनोचिकित्सा की आवश्यकता है और यह चिकित्सा श्रीमद्भगवदगीता को अस्त्र बनाकर ही संभव है। महाभारत का अर्जुन एक सैनिक के रूप में जिस तरह चिंतित था कि युद्ध छिड़ने से उसके अपने लोगों की जानें चली जाएंगी। उसी तरह स्वास्थ्यकर्मियों के परिवार के लोग भी अपने प्रियजनों को लेकर चिंतित रहते हैं। फिर भी स्वास्थ्यकर्मियों को इन भावनाओं को पीछे रखना पड़ता है। ठीक उसी तरह जैसे श्रीकृष्ण की सलाह पर अर्जुन को अपनी भावनाओं को दरकिनार करना पड़ा था।

ब्रिटेन ही नहीं, भारत के चिकित्सा जगत ने भी आज से संदर्भ में श्रीमद्भगवदगीता के महत्व को समझा है। एंडोक्राइन सोसायटी ऑफ इंडिया के जर्नल इंडियन जर्नल ऑफ एंडोक्रिनोलॉजी एंड मेटाबॉलिज्म में कई श्लोकों की व्याख्या करते हुए बताया गया है कि स्वास्थ्यकर्मियों के लिए श्रीमद्भगवदगीता के क्या मायने हैं। इस शोध प्रबंध को तैयार करने में देश-विदेश के 19 चिकित्सा संस्थानों के चिकित्सकों के सहयोग लिए गए हैं। जर्नल के मुताबिक, गीता ऐसा मनोवैज्ञानिक ग्रंथ है कि चिकित्सकों को प्रेरित करता है कि वे सौहार्द्रपूर्ण व्यवहार रखते हुए अपने कौशल का बेहतर प्रदर्शन किस तरह कर सकते हैं। इस जर्नल के एक अन्य यह शोध पत्र खासतौर से मधुमेह रोगियों को अवसाद से उबारने में श्रीमद्भगवदगीता के संदेशों की भूमिका को लेकर है। उसमें कहा गया है कि श्रीमद्भगवदगीता में वह शक्ति है वह कि किसी भी परिस्थिति का सामना करने के लिए समर्थ बनाती है।

श्रीमद्भगवदगीता का अध्याय ही अर्जुन के विषाद से शुरू होता है और बाकी के सत्रह अध्यायों में श्रीकृष्ण ने तरह-तरह से समझाया है कि मनुष्य को अपने मन की इस विषादमयी परिस्थितियों से कैसे लोहा लेना चाहिए। श्रीकृष्ण के संदेशों को किसी धर्मिक व्याख्यान या अध्यात्मिक सांचे में न देखकर ऐसे योग के रूप में देखने की जरूरत है, जिसका कोई रंग नहीं होता। वह विशुद्ध योग है, योग का मनोविज्ञान है। बीती सदी के महानतम संत स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहा करते थे कि मन के विषाद को दूर करने के लिए मनुष्य को केवल एक रास्ता अपनाना है और वह रास्ता है योग का। योग से ही विषाद दूर होगा। विषाद पर चिंतन करने से विषाद दूर नहीं होगा। इसलिए कि जो आदमी अंधा है, उसे कितना ही अच्छा चश्मा दे दो, वह देख नहीं सकता। परन्तु गीता में वह शक्ति है कि उससे प्रेरणा लेने वाला तमाम विपरीत परिस्थितियों से जूझ सकता है और विषाद से उबर भी सकता है।

श्री कृष्ण हम सबके भीतर एक आकर्षक और आनंदमय धारा हैं। जब मन में कोई बेचैनी, चिंता या इच्छा न हो तब ही हम गहरा विश्राम पा सकते हैं और गहरे विश्राम में ही श्री कृष्ण का जन्म होता है। यह समाज में खुशी की एक लहर लाने का समय है – यही जन्माष्टमी का संदेश है। पर समय विषाद योग का हो तब वे ज्यादा ही प्रासंगिक हो जाते हैं।

आध्यात्मिक गुरु श्रीश्री रविशंकर ने जन्माष्टमी के मौके पर श्रीकृष्ण के चरित्र को बिल्कुल अलग तरीके से रेखांकित करके आज के संदर्म में मानवता को बेहतर संदेश देने की कोशिश की है। श्रीश्री कहते हैं कि हमारी प्राचीन कहानियों का सौंदर्य यह है कि वे कभी भी विशेष स्थान या विशेष समय पर नहीं बनाई गई हैं। रामायण या महाभारत प्राचीन काल में घटी घटनाएं मात्र नहीं हैं। ये हमारे जीवन में रोज घटती हैं। इन कहानियों का सार शाश्वत है। श्री कृष्ण जन्म की कहानी का भी गूढ़ अर्थ है। श्री कृष्ण हम सबके भीतर एक आकर्षक और आनंदमय धारा हैं। जब मन में कोई बेचैनी, चिंता या इच्छा न हो तब ही हम गहरा विश्राम पा सकते हैं और गहरे विश्राम में ही श्री कृष्ण का जन्म होता है। यह समाज में खुशी की एक लहर लाने का समय है – यही जन्माष्टमी का संदेश है। पर समय विषाद योग का हो तब वे ज्यादा ही प्रासंगिक हो जाते हैं।

सच है कि गीता योग और मनोविज्ञान का अद्वितीय ग्रंथ है। यह हमें जीवन, जीवन की समस्याओं और उन समस्याओं को सुलझाने की विधियों के बारे में बताती है। कोरोनाकाल ही नहीं, बल्कि आम दिनों में भी हम सबके जीवन में महाभारत चलते रहता है और गीता से प्रेरणा मिलती है कि सावधानी और बुद्धिमानी से जीवन को संचालित किया जा सकता है। ताकि संग्राम में जीत हासिल हो सके। ओशो तो गीता पर इतने फिदा थे कि बार-बार कहा करते थे – “गीता मनुष्य जाति का पहला मनोविज्ञान है। मेरा वश चले तो मैं कृष्ण को मनोविज्ञान का पिता कहूं। श्रीकृष्ण ने ही पहली बार दुविधाग्रस्त चित्त, माइंड इन कांफ्लिक्ट, संतापग्रस्त मन और टूटे हुए संकल्प को अखंड, इंटिग्रेट करने की बात की।”   

ऐसे में श्रीमद्भगवदगीता का विषाद योग औऱ उस आलोक में श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दी गई शिक्षा आज भी प्रासंगिक है। तभी स्वास्थ्यकर्मियों को गीता का ज्ञान भा रहा है। आइए, इस बार की जनमाष्टमी के मौके पर हम सब भी श्रीमद्भगवदगीता के संदेशों का स्मरण करें और कोरोना के खिलाफ युद्ध विवेकपूर्ण तरीके से लड़ने का संकल्प लें। 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)  

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