योग : अभी लंबी दूरी तय करनी है

किशोर कुमार

अब यह तथ्य विज्ञानसम्मत है और सर्वमान्य भी कि हृदयरोग से बचाव में योग की बड़ी भूमिका है। हमें ज्ञात हो चुका है कि तनाव, अवसाद और हृदयाघात ये तीन क्रमबद्ध स्टेशनों की तरह हैं। तनाव रूपी स्टेशन से एक बार निर्बाध यात्रा शुरू हुई तो हृदयाघात तक पहुंचना लगभग तय हो जाता है। इसलिए विकसित देशों में योग की लोकप्रियता चरम पर है। पश्चिम के उन देशों में भी योग की स्वीकार्यता बढ़ी है, जहां योगाभ्यास वर्जित था। पर भारत में योग की कितनी स्वीकार्यता बढ़ी? अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस करीब है और सर्वत्र योगोत्सवों की धूम है। पर क्या हम स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से योगाभ्यास के मामले में अमेरिका जैसे विकसित देश की बराबरी कर पा रहे हैं? शायद नहीं।

इस तथ्य को पुख्ता ढंग से प्रस्तुत करने के लिए हमे अमेरिका सहित कई पश्चिमी देशों के आधिकारिक आंकड़े तो सर्वत्र मिल जाते हैं। पर भारत में ऐसे आंकड़ों का टोटा है। इसलिए कि इस मामले में व्यापक स्तर पर काम शैशवावस्था में है। अलबत्ता आयुष मंत्रालय ने अपने अभियान “नियंत्रित मधुमेह भारत” के तहत जो अध्ययन करवाया था, उससे भारत में योगाभ्यासियों की संख्या का मोटा अनुमान लगाना संभव हो सका है। कोई 1,62,330 लोगों पर किए गए सर्वेक्षण से पता चला कि 11.8 फीसदी लोग ही नियमित रूप से योगाभ्यास करते हैं। इनमें उत्तर भारत में योगाभ्यास करने वालों की संख्या सर्वाधिक है। दूसरी तरफ अमेरिकी योग अलायंस की रिपोर्ट के मुताबिक 34 फीसदी लोग नियमित योगाभ्यास करते हैं। इसलिए योग प्रशिक्षकों की संख्या और योग का कारोबार भी अमेरिका में तेजी से बढ़ा है। वैसे, भारत के योगियों ने कभी नहीं चाहा कि योग कारोबार बने। बिहार योग विद्यालय से लेकर रमण महर्षि के आश्रम तक की शिक्षा ऐसी ही रही है।

इसमें दो मत नहीं कि हृदय रोग गैर-संचारी रोगों की श्रेणी में मृत्यु दर का प्रमुख कारण बन गया हैं। इस स्थिति से बचाव के लिए योग की प्रभावशाली विधियां मौजूद होने के बावजूद बीमारी का बेलगाम होते जाना चिंताजनक है। सेंट्रल काउंसिल फॉर रिसर्च इन योगा एंड नेचुरोपैथी  की पहल पर दिल्ली के वर्द्धमान महावीर मेडिकल कालेज एवं सफदरजंग अस्पताल के मनोविज्ञान विभाग में कॉर्डियोवास्कुलर ऑटोनोमिक फंक्शन पर योग के प्रभाव पर अनुसंधान हुआ है। इस अनुसंधान का उद्देश्य यह पता लगाना था कि किस योगाभ्यास से हृदय को ऐसी स्थिति में लाया जाए ताकि धमनियों में रक्त संचार सुगमता से होता रहे। उम्मीद है कि इस अनुसंधान से संबंधित रिपोर्ट जल्दी ही जारी होगी।

पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया (पीएचएफआई) ने देशभर के 24 स्थानों पर किए गए अध्ययन के आधार पर दावा किया है कि योग हृदय रोगियों को दोबारा सामान्य जीवन जीने में मदद करता है। लंबे समय तक किए गए क्लीनिकल ट्रायल के बाद शोधकर्ता इस नतीजे पर पहुंचे हैं। इस ट्रायल के दौरान हृदय रोगों से ग्रस्त मरीजों में योग आधारित पुनर्वास (योगा-केयर) की तुलना देखभाल की उन्नत मानक प्रक्रियाओं से की गई है। लगातार 48 महीनों तक चले इस अध्ययन में अस्पताल में दाखिल अथवा डिस्चार्ज हो चुके चार हजार हृदय रोगियों को शामिल किया गया था। ट्रायल के दौरान तीन महीने तक अस्पतालों और मरीजों के घर पर योग प्रशिक्षण सत्र आयोजित किए गए थे। दस या उससे अधिक प्रशिक्षण सत्रों में उपस्थित रहने वाले मरीजों के स्वास्थ्य में अन्य मरीजों की अपेक्षा अधिक सुधार देखा गया।

पीएचएफआई की इस परियोजना को इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) और मेडिकल रिसर्च काउंसिल – यूके ने प्रायोजित किया था। अध्ययन रिपोर्ट अमेरिकन हार्ट एसोसिएशन के शिकागो में हुई बैठक में जारी की गई थी। अध्ययन के लिए “योगा केयर” नाम से मरीजों के अनुकूल एक पाठ्यक्रम तैयार किया गया था। उसमें ध्यान, श्वास अभ्यास, हृदय अनुकूल चुनिंदा योगासन और जीवन शैली से संबंधित सलाह शामिल किया गया। पुणे स्थित बीजे मेडिकल कॉलेज के मनोविज्ञान विभाग में भी कॉर्डियोवास्कुलर ऑटोनोमिक फंक्शन पर प्राणायाम के प्रभावों का अध्ययन किया गया। नतीजा आशाजनक रहा। पाया गया कि दो महीनों तक नियमित रूप से प्राणायाम की विधियों को अपनाने वाले मरीजों में सुधार सामान्य मरीजों की तुलना में कई गुणा ज्यादा था।

यौन क्रियाओं का हृदय से सीधा संबंध स्थापित सत्य है। इसके लाभ-हानि पर चर्चा होती रहती है। पर हानि से बचाव का कोई यौगिक उपचार है? इस सवाल पर चर्चा कम ही हुई। जबकि विभिन्न स्तरों पर हुए शोधों से साबित हो चुका है कि हृदय को खास परिस्थियों की वजह से होने वाली हानि से बचाव में योग कारगर है। उस योग का नाम है – सिद्धासन। गोरखनाथ के शिष्य स्वामी स्वात्माराम द्वारा शोधित “सिद्धासन” को विज्ञान की कसौटी पर बार-बार कसा गया और हर बार खरा साबित हुआ। नतीजतन, सिद्धासन हृदय रोग से बचाव के लिए अनुशंसित योगाभ्यासों में सबसे महत्वपूर्ण बन गया है। अनुसंधानकर्त्ताओं ने पाया है कि कुछ सावधानियों के साथ यह योगाभ्यास पुरूषों और महिलाओं को समान रूप से लाभ पहुंचाता है।

आम धारणा रही है कि हृदयाघात पुरूषों की अपेक्षा महिलाओं में बेहद कम होता है। वैज्ञानिक शोधों से पता चला कि रजोनिवृत्ति के बाद महिलाओं को भी पुरूषों के बराबर हृदयाघात का खतरा रहता है। डॉ कर्मानंद ने योग के चिकित्सकीय प्रभावों पर अपने अनुसंधानों के बाद अपनी एक चर्चित पुस्तक “यौगिक मैनेजमेंट ऑफ कॉमन डिजीज” में लिखा कि रजोनिवृत्ति से पहले महिलाओं के हृदय की प्रकोष्ठ भित्तियों एवं बडी धमनियों की भित्तियों में विशेष तरह के एण्ड्रोजन रिसेप्टर्स की उपस्थिति होती है, जो एण्ड्रोजन के दुष्प्रभावों से हृदय की रक्षा करता है। मगर यह अंत:स्रावी प्रक्रिया जब रजोनिवृत्ति के बाद बदलती है तो एस्ट्रोजन कम होता है। इससे हृदयाघात की संभावना लगभग पुरूषों के बराबर हो जाती है।

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि तनाव और अवसाद के लक्षण दिखते ही श्वास की सजगता का अभ्यास शुरू कर दिया जाए तो समस्या काफी हद तक सुलझ जाएगी। पर समस्या योग के असर को लेकर नहीं है, बल्कि इसके अभ्यास को लेकर है। योग व्यापक स्तर पर जीवन का हिस्सा बनेगा तभी बनेगी बात।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

योग और स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती

किशोर कुमार

अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस अगले महीने ही है। उसे व्यापक स्तर पर मनाने की तैयारियां जोर-शोर से की जा रही हैं। जोर इस बात पर है कि शरीर को स्वस्थ्य रखने के लिए योगाभ्यास किया जाना चाहिए। योग के जरिए ईश्वरानुभूति की बात आम आदमी के संदर्भ में बेमानी प्रतीत होती है, इसलिए यह मुद्दा गौण प्राय: ही है। पर बीसवीं सदी के महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती और योग की कुछ अन्य परंपराओं के साधक सदैव योग का अंतिम लक्ष्य ईश्वर-दर्शन मानते रहे हैं। आज भी स्वामी सत्यानंद सरस्वती, स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती, स्वामी नित्यानंद आदि योग परंपराओं में योग का महान लक्ष्य ईश्वरानुभूति ही माना जाता है।  

चिन्मय मिशन के लिहाज से मई बड़े महत्व का है। इसलिए इस लेख में बात स्वामी चिन्मयानंद जी की और योग से संबंधित उनके कुछ विचार। बीसवीं सदी के महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती के शिष्य, हिन्दू धर्म व संस्कृति के मूलभूत सिद्धान्त वेदान्त दर्शन के एक महान प्रवक्ता और चिन्मय मिशन के संस्थापक स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती का जन्म कोई 106 साल पहले इसी महीने में हुआ था। उनके महानिर्वाण के भी कोई तीन दशक बीत चुके हैं। पर उनके संदेशों की प्रासंगिकता आज भी उतनी है, जितनी उनके जीवनकाल में थी। योग-दर्शन पर व्याख्यान करते हुए वे ऐसी उपमा देतें थे कि बात लोगों के जेहन में उतरती चली जाती थी। उन्होंने प्राणायाम की चर्चा करते हुए कहा था कि यह सर्वविदित है कि इसका उद्देश्य इंद्रिय संयम है। यदि प्राणायाम का अभ्यास बिना वैराग्य भाव के किया जाए तो यह बच्चों का एक व्यायाम मात्र रह जाता है। जैसे एक मछुआरा श्वास-प्रश्वास को नियंत्रित कर मछली पकड़ने के लिए समुद्र में गोता लगाता है, उसी प्रकार लोग कुंभक व पूरक का अभ्यास शरीर को स्वस्थ्य रखने के लिए करते हैं, ताकि विषय भोगों का अधिक समय तक आनंद ले सकें। प्राणायाम का अंतिम लक्ष्य यह कदापि नहीं होना चाहिए।

स्वामी चिन्मयानंद जी ने भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया के अनेक देशों में ज्ञान की ऐसी अविरल धारा प्रवाहित की थी कि उनकी एक पहचान दूसरे स्वामी विवेकानंद के रूप में भी बनी। स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती जीवन पर्यंत वेदांत दर्शन के जरिए विकृत हो चुकी धार्मिक मान्यताओं की सुस्पष्ट व्याख्या करके ज्ञान यज्ञों और अपने गुरू के मूलमंत्र प्रेम, सेवा व दान के मानक बनकर समाज की दशा-दिशा को नए आयाम देने में जुटे रहे। उनमें राष्ट्रप्रेम की भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी। उन्होंने स्नातक तक की शिक्षा तो मद्रास विश्वविद्यालय हासिल की थी। पर स्नातकोत्तर की पढाई लखनऊ विश्वविद्यालय में की थी। आजादी के आंदोलन में उत्तर प्रदेश में ही सक्रिय रहे। जेल भी गए। बाद में अंग्रेजों के खिलाफ स्वर को धार देने के लिए नेशनल हेराल्ड अखबार के पत्रकार बने। उनकी जीवनी में छात्र जीवन में उनके आध्यात्मिक रूझानों के बारे में ज्यादा कुछ उल्लेख नहीं मिलता। पर उनके मन में अक्सर ये ख्याल आता था कि संतजन कहते हैं कि परोक्ष से प्रेम करो। इसलिए कि प्रत्यक्ष बहुधा भ्रामक होता है। दूसरी तरफ आधुनिक विज्ञान संतों की बातों को मानता तो है। पर आंशिक रूप से। वह प्रत्यक्ष से आगे उतना ही सत्य मानता है, जितना पदार्थ विद्या के अविष्कृत यंत्रों से दिखता है।

स्वामी चिन्मयानंद को सत्य से साक्षात्कार का कोई मार्ग नहीं सूझ रहा था। तभी उनके मन में एक विचार आया। वे आधुनिक युग के शीर्षस्थ ज्ञानयोगी रमण महर्षि से मिलने उनके आश्रम गए। नाम तो स्मरण नहीं। पर मैंने एक विदेशी लेखक की पुस्तक में पढ़ा था कि रमण महर्षि उनसे कुछ बोले नहीं। वे उन्हें काफी देर तक एकटक देखते रहे। कहते हैं कि इसका असर शक्तिपात जैसा हुआ। बालकृष्ण मेनन यानी स्वामी चिन्मयानंद की आध्यात्मिक साधना की भूख बलवती हो गई। इस भूख को मिटाने के लिए ऋषिकेश में स्वामी शिवानंद सरस्वती की शरण में पहुंच गए। वहां स्वामी शिवानंद जी की शिक्षा-अच्छा बनो, अच्छा करो तथा सेवा, प्रेम, आत्मशुद्धि, ध्यानानुभव तथा मुक्ति के संदेश से बेहद प्रभावित हुए। नतीजतन, महाशिवरात्रि के पवित्र दिन 25 फरवरी 1949 को संन्यास की दीक्षा ले ली। इसके साथ ही बालकृष्ण मेनन से स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती बन गए। कुछ समय बाद अपने गुरू के आदेश से वेदांत शिक्षा ग्रहण करने स्वामी तपोवन महाराज के पास उत्तरकाशी चले गए।

ईश्वरीय प्रेम और त्याग व संवेदना के प्रतीक स्वामी चिन्मयानंद अपनी वेदांत शिक्षा के बाद डॉ एस राधाकृष्णन की तरह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि भारत के राष्ट्रीय अस्तित्व और स्वरूप को कायम रखने के लिए उपनिषदों का अध्ययन-अध्यापन और उसके संदेशों का प्रचार-प्रसार जरूरी है। उन्हें गुरूओं के सानिध्य में रहते हुए उत्तर मिल चुका था कि इंद्रियां, मन आदि किसी अदृश्य शक्ति के नियम में बंधकर कार्य करती हैं। वह शक्ति इंद्रियगोचर है और उसे इंद्रियों से नहीं जाना जा सकता। वह मन की गति से भी परे है। साधारण लोग भ्रम में पड़कर परमात्मा के स्थान पर जहान की पूजा करते हैं। जबकि सच यह है कि इंद्रियों में देखने, सुनने, छूने, सूंघने, चखने का जो सामर्थ्य है, मन में मनन की जो शक्ति है, वह सब उस जगन्नियंता की देन है।

इस आत्मानुभूति के बाद ही उन्होंने चिन्मय मिशन की स्थापना की औऱ श्रीमद्भगवत गीता व उपनिषदों का संदेश जन-जन तक पहुंचाने के लिए गीता ज्ञान यज्ञ का श्रीणेश किया। उनका पहला यज्ञ सन् 1951 में महाराष्ट्र के पुणे में हुआ था। इसके बाद तो उन्होंने अपने जीवन काल में लगभग छह सौ ज्ञान यज्ञ किए। बड़ी संख्या में वैदिक ग्रंथों के भाष्य लिखे औऱ पुस्तकें लिखीं। उनकी प्रेरणा से देश-दुनिया में शैक्षणिक संस्थान स्थापित किए गए, जिनके जरिए लोगों तक वैदिक ज्ञान पहुंचाना आसान हुआ। एक छोटी-सी घटना उनका संदेश समझने के लिए पर्याप्त है। ज्ञान यज्ञ में बत्ती बुझ गई। सबने इसे अशुभ माना। तब स्वामी चिन्मयानंद ने कहा था, “बत्ती बुझ गई तो क्या हुआ? बाहरी रौशनी ही तो बुझी, आंतरिक प्रकाश चालू है। वैसे भी, भारतीय दर्शन और अध्यात्म का तेज बड़े-बड़े झंझावातों से भी कम न हुआ तो एक बत्ती बुझने से भला क्या होना है।” स्वामी जी अलौकिक सामर्थ्य के धनी थे। उनका वेदांतिक संदेश आज भी प्रासंगिक है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

प्राणायाम, योगनिद्रा की शक्ति भूले नहीं

किशोर कुमार

अलविदा 2021 – कोरोना महामारी से निबटने में दुनिया भर में योग की महती भूमिका रही। योगाचार्य हो या योग प्रशिक्षक, सबने कोरोना वारियर्स की तरह लोगों को योग से निरोग रखने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी। व्यावसायिक योग प्रतिष्ठानों और योग प्रशिक्षकों के काम-धंधे बंद हो गए थे। पर आर्थिक संकटों के बावजूद वे अपने धर्म के निर्वहन के लिए अटल रहे। योग के सभी उपांगों की अपनी-अपनी विशिष्ट भूमिकाएं होती हैं। पर प्राणायाम और योगनिद्रा की शक्ति क्या होती है, इसे कोरोना महामारी से जूझते लोगों ने शिद्दत से महसूस किया। नया वर्ष सबके लिए शुभ रहे। इसके लिए जरूरी है कि हम इन यौगिक क्रियाओं की शक्ति को हम भूले नहीं। इसलिए कि दुनिया के अनेक देशों में तहलका मचाने के बाद कोविड-19 का नया अवतार ओमीक्रोन अपने देश में भी दस्तक दे चुका है।

कोविड-19 के जीवाणु जहां न केवल फेफड़े को, बल्कि हृदय को भी बुरी तरह प्रभावित कर रहे हैं। कोविड-19 से उबरे अनेक लोगों की मौत हृदयाघात से हो चुकी है। इसलिए एक बार फिर कुछ तथ्यों के आधार पर प्राणायाम और योगनिद्रा की शक्ति को समझने की जरूरत आ पड़ी है। योग रिसर्च फाउंडेशन के अनुसंधान के दौरान देखा गया कि उच्च रक्तचाप के नियंत्रण में योग निद्रा उज्जायी प्राणायाम से भी ज्यादा असरदार है। जिन मरीजों का उज्जायी प्राणायाम के बाद सिस्टोलिक ब्लड प्रेशर 138 था, वह घटकर 128 रह गया था। डायास्टोलिक ब्लड प्रेशर 89 से घटकर 82 हो गया था। पर सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात हर्ट रेट को लेकर थी। प्राणायाम से ब्लड प्रेशर तो कम होता था। पर हर्ट रेट कम होने के बजाए थोड़ा बढ़ ही जाता था। चिकित्सा विज्ञान के मुताबिक ऐसा घटे हुए ब्डल प्रेशर को कंपेन्सेट करने के लिए होता है।

आदर्श स्थिति यह है कि प्रेशर कम हो तो हर्ट रेट भी उसी अनुपात में रहे। ताकि हृदय को अधिक विश्राम मिल सके। योग निद्रा के दौरान देखा गया कि ब्लड प्रशेर कम हुआ तो हर्ट रेट भी कम हो गया था। जाहिर है कि योग निद्रा ज्यादा प्रभावी साबित हुआ। दूसरी तरफ कंट्रोल ग्रुप के मरीजों का ब्लड प्रेशर नियमित दवाओं के बावजूद एक साल के भीतर 141 से बढ़कर 142 हो गया था। डायास्टोलिक प्रेशर 90 ही रह गया था। अब यह जानना दिलचस्प होगा कि एक साल के अनुसंधान के बाद मरीजों की अंग्रेजी दवाओं पर कितनी निर्भरता रह गई थी। योग ग्रुप के 34 मरीजों में से सिर्फ दो मरीजों को ज्यादा दवाएं लेनी पड़ी थी। तेरह लोगों की दवाएँ बेहद कम हो गईं और चार लोगों की दवाएं बंद हो गईं। कंट्रोल ग्रुप के चार लोगों को नियमित दवाओं के अलावा चार दवाएं लेनी पड़ी। बाकी दस लोग साल भर पहले की तरह दवाओं के डोज लेते रहने को मजबूर थे।

जापान की ओसाका प्रेफेक्चर यूनिवर्सिटी के नैदानिक पुनर्वास विभाग ने मध्य आयुवर्ग के लोगों की श्वास-प्रश्वास संबंधी बीमारी पर प्राणायाम के प्रभावों पर अध्ययन किया है। पचास से पचपन साल उम्र वाले 28 ऐसे लोगों पर प्राणायाम का प्रभाव देखा गया जो शारीरिक रूप से निष्क्रिय जीवन व्यतीत कर रहे थे। इन्हें दो ग्रुपों में बांटकर एक ग्रुप को आठ सप्ताह तक प्राणायाम की विभिन्न विधियों खासतौर से अनुलोम विलोम, कपालभाति और भस्त्रिका का अभ्यास कराया गया। नतीजा हुआ कि योग ग्रुप के लोगों की श्वसन क्रिया दूसरे ग्रुप के लोगों की तुलना में काफी सुधर गई। साथ ही अन्य शारीरिक व्याधियों से भी मुक्ति मिल गई। शरीर के लचीलेपन में सुधार हुआ।

कुछ अन्य वैज्ञानिक अध्ययन रिपोर्ट भी गौर करने लायक हैं। नेशनल सेंटर फॉर बायोटेक्नोलॉजी इन्फॉर्मेशन के एक अध्ययन में बताया गया कि प्राणायाम के जरिए इम्यून सिस्टम को मजबूत किया जा सकता है। हॉवर्ड विश्वविद्यालय में कार्डियो फैकल्टी में शोध निर्देशक डॉ. हर्बर्ट वेनसन के मुताबिक नियमपूर्वक बीस मिनट प्रतिदिन प्राणायाम किया जाए, तो शरीर में ऐसे बदलाव आने लगते हैं कि वह रोग और तनाव के आक्रमणों का मुकाबला करने लगता है। इसके लिए अलग से चिकित्सकीय सावधानी नहीं बरतनी पड़ती है।

अमेरिकन हृदय रोग विशेषज्ञ डॉ आरोन फ्राइडेल ने 1948 में हृदय रोगियों पर अनुलोम विलोम का प्रयोग किया था। वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि प्राणायाम की यह विधि हृदय रोगियों में एंजिना के दर्द को नियंत्रित करने और उसे दूर करने का सबसे प्रभावशाली औषधि मुक्त माध्यम है। अजपा की महिमा अपरंपार है। यह सिर्फ प्राणायाम नहीं है। यदि नींद नहीं आती तो ट्रेंक्विलाइजर है और दिल की बीमारी है तो कोरेमिन है। हर रोग की अचूक दवा है। अजपा ठीक से किया जाए तो हो नहीं सकता कि रोग अच्छा न हो।“ सचमुच यह अनोखा योग है, जिसमें ध्यान लगते ही शिथलीकरण की क्रिया भी हो जाती है।

बीकेएस आयंगार की पुस्तक हठयोग प्रदीपिका के मुताबिक,  भस्त्रिका और कपालभाति प्राणायामों से यकृत, प्लीहा, पाचन ग्रंथि और उदर की मांसपेशियों की क्रिया और शक्ति बढ़ जाती है। इन दोनों से ही स्नायुओं का उत्सारण हो जाता है और नाक बहना बंद हो जाता है। पर सावधानियां भी जरूर बरतनी चाहिए। यदि फुफ्सुस कमजोर हो व शरीर दुर्बल हो और दमा, ब्रोंकाइटिस व यक्ष्मा के रोगियों को इन दोनों ही प्राणायाम से दूर रहना चाहिए। वरना रक्त कोशिकाओं और मस्तिष्क को हानि हो सकती है। उच्च रक्तचाप, हृदय रोग, हार्निया गैस्ट्रिक, दौरा, मिर्गी या चक्कर आने की बीमारी वालों को भस्त्रिका प्राणायाम नहीं करना चाहिए। ऐसी परिस्थिति में योग्य योग शिक्षक का परामर्श जरूर लेना चाहिए। 

ईशा योग के प्रणेता सद्गुरू जग्गी वायुदेव के रोज के रूटीन में न आसन का स्थान है और न ही कसरत का। पर प्राणायाम जरूर करते हैं। वे कहते भी हैं कि प्राण का संबंध मन से है और संकल्प-शक्ति के माध्यम से मन का जीवात्मा से संबंध रहता है। यदि प्राणवायु की तरंगों पर नियंत्रण कर लिया जाए तो मानव जीवन के लिए बड़ी बात होगी। तभी भारतीय सनातम परंपरा में प्राणायाम का महत्वपूर्ण स्थान है। इसका अभ्यास करने वाले अपने प्राण-संचार से रोगों को दूर कर सकते हैं।  

उपर्युक्त उदाहरणों से कोरोनाकाल के दौरान प्राणायाम और योगनिद्रा की महत्ता को आसानी से समझा जा सकता है। इन दो योगांगों की शक्ति हमें आसन्न संकटों से बचाए रखे, इन्ही शुभकामनाओं के साथ नए वर्ष के लिए मंगलकामना।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग…

भूल जाने की बीमारी हमारे जीवन की आम परिघटना है। पर लंबे समय में विविध लक्षणों के साथ यह लाइलाज अल्जाइमर और अनियंत्रित होकर डिमेंसिया में भी बदल जाती हो तो निश्चित रूप से हमें दो मिनट रूककर विचार करना चाहिए कि हम जिसे सामान्य परिघटना मान रहे हैं, कहीं उसमें भविष्य के लिए संकेत तो नहीं छिपा है। इसलिए विश्व अल्जाइमर दिवस (21 सितंबर) जागरूकता के लिहाज से हमारे लिए भी बड़े महत्व का है। आंकड़े बताते हैं कि भारत में इस रोग से ग्रसित लोगों की संख्या पांच मिलियन है और अगले आठ-नौ वर्षों में मरीजों की संख्या में डेढ़ गुणा वृद्धि हो जानी है। विश्वसनीय इलाज न होना चिंता का कारण है। पर हमारे पास योग की शक्ति है, जिसकी बदौलत हम चाहें तो इस लाइलाज बीमारी की चपेट में आने से बहुत हद तक बच सकते हैं।

किशोर कुमार

अल्जाइमर, डिमेंसिया और सिजोफ्रेनिया जैसी न्यूरोडीजेनरेटिव बीमारियों के मामले में आम धारणा यही है कि ये वृद्धावस्था की बीमारियां हैं। पर विभिन्न स्तरों पर किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि न्यूरोडीजेनरेटिव बीमारियां युवाओं को भी अपने आगोश में तेजी से ले रही हैं। इन बीमारियों की वजह कुछ हद तक ज्ञात है भी तो ऐसा लगता है कि चिकित्सा विज्ञान को विश्वसनीय इलाज के लिए अभी लंबी दूरी तय करनी होगी। लक्षणों के आधार पर इलाज करने की मजबूरी होने के कारण कई बार गलत दवाएं चल जाने का खतरा भी रहता है। इसे एक उदाहरण से समझिए। कोई पैतालीस साल की एक महिला में वे सारे मानसिक लक्षण उभर आए, जो आमतौर पर अल्जाइमर के शुरूआती लक्षण होते हैं। चिकित्सक ने उपलब्ध दवाओं के आधार पर अल्जाइमर का इलाज शुरू कर दिया। लंबे समय बाद चिकित्सकों को अपनी गलती का अहसास हुआ। दरअसल, अल्जाइमर जैसे लक्षण एस्ट्रोजन (स्त्री हार्मोन) के स्तर में भारी गिरावट होने के कारण उभर आए थे। मेनोपॉज से पहले अनेक मामलों में ऐसे हालात पैदा होते हैं।

इन सभी बीमारियों और कुछ खास तरह के हार्मोनल बदलावों के कई लक्षण लगभग एक जैसे होते हैं। मसलन, तनाव, अवसाद और भूल जाना। योग मनोविज्ञान के विशेषज्ञों के मुताबिक इन सारी बीमारियों की असल वजह मानसिक अशांति है। परमहंस योगानंद ने सन् 1927 में दिए अपने व्याख्यान में कहा था, मानसिक अशांति का एक ही इलाज है और वह है शांति। यदि मन शांत रहे तो स्नायविक विकार यानी नर्वस डिसार्डर्स जैसी समस्या आएगी ही नहीं। यह समस्या तो तब आती है, जब भय, क्रोध, ईर्ष्या आदि विकार हमारे जीवन में लंबे समय तक बने रह जाते हैं। मेडिकल साइंस में सिरदर्द का इलाज तो है। पर असुरक्षा, भय, ईर्ष्या और क्रोध का क्या इलाज है? हम विज्ञान के नियमों के आलोक में जानते हैं कि कोई भी शक्ति जितनी सूक्ष्म होती जाती है, वह उतनी ही शक्तिशाली होती जाती है। ऐसे में हमारे मन रूपी समुद्र में विविध कारणों से ज्वार-भाटा उठने लगे तो उसी समय सावधान हो जाने की जरूरत है। इसलिए कि लाइलाज बीमारियों की जड़ यहीं हैं।

सवाल है कि सावधान होकर करें क्या? इस बात को आगे बढ़ाने से पहले थोड़ा विषयांतर करना चाहूंगा। इसलिए कि योग विद्या के तहत मस्तिष्क के मामलों में विचार करने के लिए सहस्रार चक्र को समझ लेना जरूरी होता है। हम सब अक्सर आध्यात्मिक चर्चा के दौरान शिव-शक्ति के मिलन की बात किया करते हैं। मंदिरों के आसपास भक्ति गीत शिव – शक्ति को जिसने पूजा उसका ही उद्धार हुआ… आमतौर पर बजते ही रहता है। मैंने अनेक लोगों से पूछा कि इस गाने का अर्थ क्या है? बिना देर किए उत्तर मिलता है कि शिवजी और पार्वती जी की जो पूजा करेगा, उसे सभी कष्टों से मुक्ति मिल जाएगी। पर तंत्र विज्ञान और उस पर आधारित योगशास्त्र में शिव-शक्ति के मिलने से अभिप्राय अलग ही है। सहस्रार चक्र सिर के शिखर पर अवस्थित शरीर की बहत्तर हजार नाड़ियों का कंट्रोलर है। इनमें चंद्र व सूर्य नाड़ियां भी हैं, जिन्हें हम इड़ा तथा पिंगला के रूप में जानते हैं। इसे ही शिव-शक्ति भी कहते हैं। आधुनकि विज्ञान उसे सूक्ष्म ऊर्जा कहता है। सहस्रार चक्र में शरीर की तमाम ऊर्जा एकाकार हो जाती हैं। यही शिव-शक्ति का मिलन है। यह पूर्ण रूप से विकसित चेतना की चरमावस्था है।

योगशास्त्र के मुताबिक यदि मस्तिष्क की किसी ग्रंथि से जुड़ी नाड़ी का सहस्रार रूपी कंट्रोलर से संपर्क टूट जाता है तो वहां बीमारियों का डेरा बनता है। इसे ऐसे भी समझा जा सकता है। यदि सहस्रार मुख्य सतर्कता अधिकारी है तो नाड़ियां उसके संदेशवाहक। ऐसे में यदि संदेशवाहक किसी कारण अपना काम न करने की स्थिति में हो तो पर्याप्त सूचना के अभाव में मुख्य सतर्कता अधिकारी अपने कर्तव्य का निर्वहन कैसे कर पाएगा? अब आते हैं मुख्य सवाल पर कि भूलने आदि समस्याएं उत्पन्न होने लगी है तो समय रहते क्या करें? इसका सीधा-सा जबाव तो यह है कि वे सारे यौगिक उपाय करने चाहिए, जिनसे आंतरिक ऊर्जा का प्रबंधन होता है।

पर किस उपाय से ऐसा संभव होगा? उपाय कई हो सकते हैं। आमतौर पर ऐसी समस्या के निराकरण के लिए इंद्रियों पर नियंत्रण और चित्तवृत्तियों के निरोध की सलाह दी जाती है। सनातन समय से मान्यता रही है कि चित्तवृत्तियों का निरोध करके मन पर काबू पाया जा सकता है। इस विषय के विस्तार में जाने से पहले यह समझ लेने जैसा है कि चित्तवृत्तियां क्या हैं और उनके निरोध से अभिप्राय क्या होता है? स्वामी विवेकानंद ने इस बात को कुछ इस तरह समझाया है – हमलोग सरोवर के तल को नहीं देख सकते। क्यों? क्योंकि उसकी सतह छोटी-छोटी लहरों से व्याप्त होती है। जब लहरें शांत हो जाती हैं और पानी स्थिर हो जाता है तब तल की झलक मिल पाती है। यही बात मानव-चेतना के स्तरों पर उठने वाली लहरों के मामले में भी लागू है।  

श्रीमद्भागवत गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं – “तू पहले इंद्रियों को वश में करके ज्ञान व विज्ञान को नाश करने वाले पापी काम को निश्चयपूर्वक मार।“ मतलब यह कि योग साधना की बदौलत भ्रांत हुईं इंद्रियों को वश में करके मन का रूपांतरण कर। यानी श्रीमद्भगवत गीता से लेकर महर्षि पतंजलि के योगसूत्रों तक में मन के वैज्ञानिक प्रबंधन पर जो बातें कही गई थीं, वे सर्वकालिक हैं और आज भी प्रासंगिक। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती इन शास्त्रीय संदेशों को स्पष्ट करते हुए सलाह देते थे – “भावना के कारण मन बीमार है तो भक्तियोग, दैनिक जीवन की कठिनाइयों के कारण मन बीमार है तो कर्मयोग, चित्त विक्षेप के कारण, चित्त की चंचलता के कारण मन के अंदर निराशाएं, बीमारियां हैं तो राजयोग औऱ नासमझी या अज्ञान की वजह से मानसिक पीड़ाएं हैं, जैसे धन-हानि, निंदा आदि तो ज्ञानयोग और यदि शारीरिक पीड़ाओं के कारण मन अशांत है तो हठयोग करना श्रेयस्कर है।“

ये सारे उपाय मुख्य रूप से उन लोगों के लिए है, जो स्वस्थ्य हैं या जिनमें बीमारी के शुरूआती लक्षण दिखने लगे हैं। पर गंभीरावस्था के रोगी क्या करें? योगी कहते हैं कि ऐसे लोगों के लिए प्राण विद्या बेहद कारगर साबित हो सकती है। ऋषिकेश में डिवाइन लाइफ सोसाइटी के संस्थापक और बीसवीं सदी के महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती अनेक गंभीर रोगों के इलाज के लिए प्राण विद्या की सिफारिश करते थे। अनेक उदाहरणों से पता चलता है कि इस विद्या के तहत प्राणायाम की शक्ति का उपयोग करने से चमत्कारिक लाभ मिलते हैं। यानी समन्वित योग से ही बात बनेगी। आजकल शारीरिक व मानसिक व्याधियों से निबटने के लिए हठयोग को साधना तो मुमकिन हो पाता है। पर योगशास्त्र की बाकी विद्याओं को आधार बनाकर मन को प्रशिक्षित करना अनेक कारणों से चुनौतीपूर्ण कार्य है, जबकि मानसिक उथल-पुथल के इस दौर में केवल हठयोग से बात नहीं बनने वाली। विश्व अल्जाइमर दिवस के आलोक में योग शिक्षकों औऱ प्रशिक्षकों को निश्चित रूप से मानसिक रोगियों को समन्वित योग के व्यावहारिक पक्षों का पूर्ण लाभ दिलाने की दिशा में ठोस पहल करने हेतु मंथन करना चाहिए।

वैसे, मैं संतों की वाणी और यौगिक ग्रंथों के आधार पर दोहराना चाहूंगा कि यदि मानसिक उथल-पुथल के दौर में समर्थ योगी का सानिध्य न मिल पा रहा हो और दूसरा कोई उपाय समझ में न आ रहा हो, तो भक्तियोग का मार्ग पकड़ लिया जाना चाहिए। संकीर्तन या जप कुछ भी चलेगा। मैं अपनी बात संत कबीर के इन संदेशों के साथ खत्म करता हूं – “नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग; और रसायन छांड़ि के, नाम रसायन लाग” इस दोहा के जरिए कबीरदास जी कहते हैं कि हे प्राणी! उठ जाग, नींद मौत की निशानी है। दूसरे रसायनों को छोड़कर तू भगवान के नाम रूपी रसायनों मे मन लगा। इसके साथ ही वे कहते हैं – “मैं उन संतन का दास, जिन्होंने मन मार लिया।” यानी भक्ति मार्ग पर चलकर चित्त-वृत्तियों का निरोध हो गया।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

गुणवत्ता पूर्ण योग शिक्षा बड़ी चुनौती

हम जानते हैं कि आध्यात्मिक जीवन की शुरूआत सेवा से होती है और दया, करूणा और प्रेम के योग से वह परिपक्व होता है। यही योगमय जीवन का आधार भी है। पर व्यावसायीकरण की अंधी दौड़ में योग का असल स्वरूप बिगड़ रहा है। यह आत्मघाती काम ऐसे समय में किया जा रहा है, जब छह वर्षों में गूगल सर्च इंजन पर योग की पड़ताल करने वालों की संख्या दोगुनी हो चुकी है। एलाइड मार्केट रिसर्च की रिपोर्ट के मुताबिक केवल भारत में ही योग का कारोबार 4 अरब रूपए से ज्यादा का है। सन् 2027 तक योग का वैश्विक बाजार 66.4 बिलियन अमेरिकी डालर हो जाने की संभावना है। योग शिक्षण-प्रशिक्षण की गुणवत्ता को बेहतर बनाकर बढ़ते बाजार का लाभ लिया जा सकता है। दुनिया के ज्यादातर देशों में भारतीय योगाचार्यों की बड़ी मांग है। पर योग शिक्षण-प्रशिक्षण में गुणवत्ता का सवाल चिंता का सबब बना हुआ है।

बात तो योग की ही होनी है। पर पहले पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी से जुड़ा एक प्रसंग। मोरारजी देसाई राष्ट्रीय योग संस्थान की आधारशिला रखने के लिए दिल्ली के विज्ञान भवन में कार्यक्रम था। चर्चित योग गुरू धीरेंद्र ब्रह्मचारी द्वारा स्थापित केंद्रीय योग अनुसंधान संस्थान व विश्वायतन योगाश्रम के एकीकरण के बाद वृहत्तर उद्देश्यों से नई शुरूआत होनी थी। पर तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री डॉ सीपी ठाकुर के मुंह से निकले एक वाक्य से समन्वित योग और समग्र स्वास्थ्य की अवधारणा की बात चर्चा के केंद्र में आ गई थी।

हुआ यूं कि स्वागत भाषण में श्री ठाकुर ने कह दिया कि योग कीजिए, सफेद बाल काले हो जाएंगे। उस जमाने में योग का विषय केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के अधीन होता था। इसलिए संभवत: मजाकिया लहजे में कही गई यह बात भी श्री वाजपेयी को गंवारा न था। उन्होंने अपने भाषण में योग का असल मकसद बताते हुए कहा कि यदि बाल ही काला करना है तो योग की क्या जरूत? बाजार में बहुत सारे हेयर कलर मिलते हैं।

यह वही दौर था, जब लोग नाखून से नाखून को रगड़ कर बाल काले करने में जुटे हुए थे। खैर, एक दशक बीतते-बीतते योग का हश्र वैसा ही हुआ, जिसकी आशंका श्री वाजपेयी को हुई रही होगी। हालात ऐसे बने कि योग और व्यायाम में फर्क करना मुश्किल हो गया। राजयोग को हठयोग और हठयोग को राजयोग बताने वाले बाजार में छा गए। परंपरागत योग के संस्थानों की योग की अवधारणा विलुप्त होती प्रतीत होने लगी। ऐसे में गुरू-शिष्य परंपरा वाले योगाश्रमों के संन्यासियों का विचलित होना स्वाभाविक था। बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती को दिल्ली में आयोजित योगोत्सव में सार्वजनिक रूप से कहना पड़ा था कि योग कोई टोटका नहीं है सिर नीचे, पैर ऊपर करने से बीमारी ठीक हो जाएगी। एकांकी योग से भी मानव जाति का कुछ भला नहीं होना है। योग वह है, जिससे बुद्धि, भावना व कर्म में सामंजस्य होता है।

यह सुखद है कि 7वें अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के आलोक में योग शिक्षण और प्रशिक्षण संस्थानों की ओर से आयोजित वेबिनारों के जरिए योग शिक्षण-प्रशिक्षण में आई विकृतियों पर चिंता व्यक्त की जा रही है। साथ ही इस स्थिति से उबरने के लिए नाना प्रकार के उपाय भी सुझाए जा रहे हैं। इनमें मोरारजी देसाई राष्ट्रीय योग संस्थान के प्राध्यापक डॉ विनय कुमार भारती का व्याख्यान प्रतिनिध वक्तव्य की तरह है। उन्होंने अल्मोड़ा स्थित सोबन सिहं जीना विश्व विद्यालय के योग विज्ञान विभाग के वेबिनार में अटलबिहारी वाजपेयी वाले प्रसंग को उद्धृत करते हुए कहा कि योग की परंपरा, गुरू परंपरा की योग साधनाओं को आत्मसात किए बिना योग के संवर्द्धन और उससे अधिकतम लाभ लेने की कल्पना नहीं की जा सकती। इसके लिए जरूरी है कि जीवन में समग्र स्वास्थ्य के लिए समन्वित योग को स्थान दिया जाए।

योग के प्रयोगात्मक पक्ष से जुड़े होने के कारण श्री भारती ने योग की विभिन्न विधियों के आनुपातिक अभ्यास की रूपरेखा बनाकर साबित किया कि शरीरिक, मानसिक, सामाजिक व आध्यात्मिक पक्षों का समावेश करके योगाभ्यास हो तो जीवन में किस तरह सुगंधित फूल खिलते हैं। मोरारजी देसाई राष्ट्रीय योग संस्थान में उनकी पहल पर नए योग साधकों के लिए शुरू किया गया फाउंडेशन कोर्स इन योगा साइंस फॉर वेलनेस पाठ्यक्रम इसका प्रमाण है। उसमें समन्वित योग की एक झलक मिलती है। ऋषिकेश स्थित शिवानंद आश्रम और बिहार योग विद्यालय जैसे गुरू-शिष्य परंपरा वाले योग संस्थानों में तो समन्वित योग से इत्तर योग शिक्षा की कल्पना भी नहीं की जा सकती। पर लकीर का फकीर बने सरकारी संस्थान भी इस दिशा में आगे बढ़ते हैं तो निश्चित रूप से जनता के बीच बेहतर संदेश जाता है।

अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस पर इन मुद्दों पर चर्चा जरूरी इसलिए भी है कि दुनिया के अनेक देश योग की महाशक्ति होने के कारण हमारी तरफ आशा भरी नजरों से देख रहे हैं। हमें योग की अपनी गौरवशाली विरासत को दरकिनार कर फास्ट फूड की तरह फटाफट योगाभ्यास और योग शिक्षा की प्रवृत्ति का त्याग करना होगा। मोदी सरकार के योग के प्रति विशेष अनुराग से निश्चित रूप से नई योग-क्रांति का सूत्रपात हुआ है। पर खोई प्रतिष्ठा हासिल करने के लिए हमें अभी लंबी दूरी तय करनी है। गुरू-शिष्य परंपरा वाले योग संस्थान बेहतर काम कर रहे हैं। पर सरकार को भी अल्पकालिक और दीर्घकालिक योजनाएं बनाकर कई सुधारवादी कदम उठाने होंगे।  

मसलन, देश भर में प्लस टू की शिक्षा के बाद डिप्लोमा स्तर की योग शिक्षा देने के लिए गुरू-शिष्य परंपरा वाले योगाश्रमों के सहयोग से पाठ्यक्रम में एकरूपता लानी होगी। मूल्यांकन के लिए सीबीएसई की तरह ही एक स्वतंत्र निकाय जरूरी होगा। पाठ्यक्रम तैयार करते समय ध्यान रखा जाना चाहिए कि योग शिक्षा में अध्यात्म का समावेश अनिवार्य रूप से हो। इसके बिना योग ठीक वैसे ही है, जैसे फुलौरी बिना चटनी। वैसा योग किसी काम का नही, जिससे मनुष्य के जीवन, उसकी प्रतिभा का उत्थान न होता हो। आखिर विश्व स्वास्थ्य संगठन को भी योग के संदर्भ अध्यात्म की भूमिका स्वीकारनी ही पड़ी न।

दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि यौगिक अनुसंधानों को गति देनी होगी। बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में लोनावाला स्थित कैवल्यधाम के संस्थापक स्वामी कुवल्यानंद और उसके बाद परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती इस काम में अग्रणी भूमिका निभाते रहे। वे सीमित साधनों के बावजूद वैज्ञानिक शोधों के परिणामों का आकलन करके योग विधियां साधकों के समक्ष प्रस्तुत किया करते थे। सरकारी स्तर पर इस काम को कभी अहमियत नहीं दी गई। कुछ शोध संस्थान अस्तित्व में आए भी तो लालफीताशाही के कारण अपने मकसद में कामयाब नहीं हो पाए।

स्कूल स्तर पर योग शिक्षा देने का फैसला स्वागत योग्य है। पर पाठ्यक्रम और शिक्षकों की गुणवत्ता ऐसी होनी चाहिए कि बच्चों के जीवन में संयम व अनुशासन कायम हो सकें। वरना योग महज खेल बनकर रह जाएगा। आठ साल से कम उम्र के बच्चों के लिए तो खेल-खेल में योग सही है। पर बड़े बच्चों के लिए योग खेल बना तो पिट्यूटरी ग्रंथि को नियंत्रित करना मुश्किल होगा। ऐसे में प्रतिभा का अपेक्षित विकास नहीं हो पाएगा। इसका कुप्रभाव राष्ट्र के नवनिर्माण पर पड़ेगा। इसलिए कि आज के बच्चे ही तो कल के भविष्य हैं। यह याद रखा जाना चाहिए कि योग का प्रमुख लक्ष्य स्वास्थ्य नहीं, बल्कि मन की एकाग्रता है, मन का प्रबंधन है। स्वास्थ्य तो इसका पार्श्व प्रभाव है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।

नेति और कुंजल : ये हैं कोरोना के विरूद्ध अग्रिम पंक्ति की यौगिक सेनाएं

प्राचीनकाल से योगमार्ग पर आगे बढ़ने के लिए ऋषियों ने षट्कर्म की जिन क्रियाओं को प्रथमत: अनिवार्य माना था, उनमें से नेति और कुंजल जैसी क्रियाएं आधुनिक चिकित्सा जगत को भी लुभा रही हैं। इसलिए कि ये क्रियाएं कोविड-19 जैसे अनजान, किन्तु मारक संक्रमण से बचाव में असरदार साबित हो हैं। वैसे तो कोरोना संक्रमण फैलने के साथ ही योग के वैज्ञानिक संत कहने लगे थे कि रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने और संक्रमण को प्रवेश बिंदु पर ही रोककर कर नष्ट कर देने के कई यौगिक उपाय हैं। पर अब चिकित्सा विज्ञानी भी विभिन्न शोधों की बदौलत इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि आज के माहौल में नेति और कुंजल बड़े काम के हैं।

भारत में कोरोना महामारी फैलने के बाद केंद्र सरकार के विज्ञान एवं प्रावैधिकी मंत्रालय को विभिन्न संस्थानों के लगभग पांच सौ ऐसे शोध-पत्र मिले हैं, जिनमें दावा किया गया है कि यौगिक उपायों से कोविड-19 के संक्रमण से बचाव और एक सीमा तक रोकथाम संभव है। पर सबसे ताजी रिपोर्ट राजस्थान वाली ही है और खास बात यह कि यह रिपोर्ट योग विज्ञानियों की नहीं, बल्कि चिकित्सा विज्ञानियों की है। इन चिकित्सा विज्ञानियों ने माना है कि कोरोना संक्रमण से बचाव में नेति और कुंजल बड़े काम के हैं। भारत सरकार के आयुष मंत्रालय की पहल पर देश के नामचीन योग संस्थानों के सहयोग से कोविड-19 के संक्रमण की रोकथाम के लिए यौगिक प्रभावों पर तीन अनुसंधान किए जा रहे हैं और उसकी रिपोर्ट आनी है। इस बीच राजस्थान से आई ताजा रिपोर्ट को बेहद अहम् माना जा रहा है।

राजस्थान के चार चिकित्सा संस्थानों एसएमएस मेडिकल कालेज के टीबी एवं चेस्ट रोग विभाग, इंटरनेशनल इंस्टीच्यूट ऑफ हेल्थ मैनेजमेंट रिसर्च (आईआईएचएमआर) के महामारी विज्ञान विभाग, आस्थमा भवन के शोध प्रभाग और राजस्थान हास्पीटल के छह चिकित्सकों डा. श्वेता सिंह, डॉ नीरज शर्मा व डॉ दयाकृष्ण मंगल, डॉ उदयवीर सिंह व डॉ तेजराज सिंह और वीरेंद्र सिंह ने कोई 28 दिनों तक अध्ययन किया। इस दौरान नेति और कुंजल क्रियाओं के बेहतर परिणाम मिले। दरअसल, जापान में कोविड-19 के कारण मृत्यु दर काफी कम होने के कारण शोधकर्त्ताओं का उधर ध्यान गया। उन्होंने पाया कि सामाजिक दूरी और मास्क का उपयोग तो बेहतर तरीके से किया ही गया था। साथ ही नमकीन कुनकुने पानी से नाक और गले को साफ रखने पर काफी जोर दिया गया था। ये क्रियाएं योगशास्त्र के जलनेति और कुंजल की तरह की थीं। राजस्थान के चिकित्सकों ने इन्हीं बातों से प्रेरित होकर जलनेति और कुंजल के प्रभावों पर अध्ययन किया।  

चिकित्सा जगत की नजर में यह अध्ययन रिपोर्ट बेहद विश्वसनीय है। तभी एक तरफ इसे इंडियन चेस्ट सोसाइटी के प्रतिष्ठित जर्नल “लंग इंडिया” में जगह मिल गई है। दूसरी तरफ देश को लगभग एक हजार चिकित्सकों का समूह भी इस अध्ययन को विश्वसनीय मान रहा है। कोविड-19 संक्रमण फैलने के बाद इस विषय से संबंधित भारतीय चिकित्सकों के सीएमई इंडिया नाम से चार वाट्सएप्प ग्रुप बन चुके हैं। इसमें दुनिया भर में कोविड-19 के आलोक में किए जा रहे अध्ययनों और चिकित्सकीय उपायों पर चर्चा होती है। इन ग्रुपों से देश के प्राय: तमाम नामचीन चिकित्सक जुड़े हुए हैं। ये सुचारू ढंग से काम काम करें और अर्थपूर्ण चर्चा के नतीजों से जनता को लाभ मिले, इसके लिए मधुमेह के ख्याति प्राप्त चिकित्सक डॉ एनके सिंह संयोजक की भूमिका में हैं। डॉ सिंह के मुताबिक प्राय: सभी चिकित्सक मरीजों को और आम लोगों को भी बताते हैं कि कोरोना महामारी से बचाव के लिए उन्हें अन्य उपायों के साथ ही नेति और कुंजल क्रियाओं के अभ्यास अनिवार्य रूप से करने चाहिए।

भारत की तर्ज पर अमेरिकी शोध संस्थानों की भी यही राय बनी है कि कोविड-19 के वैक्सीन आने तक योग ही सहारा है। योग और ध्यान के जरिए कोरोना संक्रमण से अधिकतम बचाव संभव है। भारतीय मूल के अमेरिकी योग गुरू दीपक चोपड़ा, कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी और इस अध्ययन के लिए हार्वड यूनिवर्सिटी से संबद्ध मासेचुसेट्स इस्टीच्यूट ऑफ टेक्नालॉजी ने यौगिक उपायों पर अध्ययन करके यह निष्कर्ष निकाला है। वैसे इस अध्ययन से पहले ही अमेरिका से धमाकेदार खबर आई थी। भारतीय मूल के कंप्यूटर प्रोफेशनल प्रमोद भगत ने दावा किया था कि वे कोरोना पाजिटिव थे और मुख्यत: कुंजल क्रिया की बदौलत मारक बीमारी से बच निकले थे। दरअसल, कुंजल को दमा के मरीजों के लिए प्रभावशाली माना जाता है। इसलिए कोरोना संक्रण को प्रारंभिक स्तर पर नष्ट करने में कुंजल काम आ गया तो योगियों को हैरानी नहीं हुई थी, क्योंकि दमा और कोरोना के शुरूआती लक्षणों में बड़ी समानता है। 

भारत में कोरोना महामारी का आगाज होते ही महाराष्ट्र के लोनावाला स्थित कैवल्यधाम योग इंस्टीच्यूट के वरीय योग थेरेपिस्ट संदीप वानखेड़े ने अपने संस्थान के यूट्यूब चैनल के जरिए बताया था कि कोरोना महामारी से बचाव में जलनेति की कितनी बड़ी भूमिका हो सकती है। यह कहने का उनके पास वैज्ञानिक आधार भी था। वे भारत सरकार के केंद्रीय योग व प्राकृतिक चिकित्सा अनुसंधान परिषद के सहयोग से लोनावाला में स्थापित अनुसंधान केंद्र के साथ भी जुड़े हुए हैं। यह केंद्र षट्कर्म और प्राणायाम पर शोध कर रहा है। नेति और कुंजल षट्कर्म के तहत ही आते हैं।

आयुर्वेद में एक शब्द है – त्रिदोष। यानी वात, पित्त और कफ। इसे ही बीमारियों की उत्पत्ति के मूल कारण माना गया हैं। योगशास्त्र ने षट्कर्म के रूप में त्रिदोष को जड़ से समाप्त करने का उपाय प्रस्तुत किया। यानी योगियों ने भी माना कि त्रिदोषों के बीच असंतुलन से बीमारियां उत्पन्न होती हैं। षट्कर्म मतलब, नेति, धौति, नौलि, बस्ति, कपालभाति और त्राटक। योग के आध्यात्मिक साधक तो सनातन काल से इन षट्कर्मों की महत्ता समझते रहे हैं। तभी वेद से लेकर प्राचीन योग उपनिषदों तक में इनकी महत्ता प्रतिपादित की गई हैं। पर महर्षि घेरंड की घेरंड संहिता औऱ स्वात्माराम की हठ प्रदीपिका में अनेक बीमारियों में भी इन यौगिक क्रियाओं के लाभ बतलाए गए हैं।

यद्यपि योगियों ने नेति क्रिया का इजाद आज्ञाचक्र यानी पीनियल ग्रंथि से संबंधिति यौगिक क्रियाओं को सुचारू बनाने के मकसद से किया था। बाद में आम लोग इस क्रिया को कोई नाम दिए बिना नसिका क्षेत्र की सफाई के लिए से अपनाने लगे। नेति को मौजूदा स्वरूप प्रदान करने में वैज्ञानिक योगी स्वामी कुवल्यानंद और बिहार योग विद्यालय के संस्थापक स्वामी सत्यानंद सरस्वती का बड़ा योगदान है। बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं कि नेति ईएनटी डाक्टर की क्रियाओं जैसी असर दिखाती है। योग शास्त्रों के मुताबिक पहले कुंजल फिर जलनेति का अभ्यास करना चाहिए। चूंकि इन दोनों ही क्रियाओं में नमकीन कुनकुने पानी का उपयोग किया जाता है। इसलिए इन क्रियाओं के बाद आगे झुककर कपालभाति प्राणायाम अनिवार्य रूप से कर लेना चाहिए। ताकि सारा पानी निकल जाए। साथ ही शरीर व मस्तिष्क में उत्पन्न तनाव भी दूर हो जाता है।   

कोविड-19 के इलाज के लिए विश्वसनीय दवाओं के अभाव में जहां पूरी दुनिया में त्राहिमाम है, वैसे में नेति, कुंजल और कुछ अन्य यौगिक उपाय घने अंधेरे में में उम्मीद की रोशनी की तरह हैं। रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने वाले यौगिक उपायों के साथ ये क्रियाएं अधिक शक्तिशाली हो जाती हैं। योग शास्त्रों के मुताबिक पहले कुंजल फिर जलनेति का अभ्यास करना चाहिए। अंत में आगे झुककर कपालभाति प्राणायाम अनिवार्य रूप से कर लेना चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

योग की बढ़ती स्वीकार्यता और कमजोर होती मजहबी दीवारें

दुनिया भर में योग की बढ़ती स्वीकार्यता की वजह से धार्मिक कट्टरपंथियों द्वारा खड़ी की गई मजहब की दीवारें गिर रही हैं। विभिन्न प्रकार के शारीरिक औऱ मानसिक संकटों से जूझते लोगों के जीवन में योग चमत्कार पैदा करता है तो उन्हें यह स्वीकार करने में तनिक भी कठिनाई नहीं होती कि योग विज्ञान है और इसका किसी मजहब ले लेना-देना नहीं है। यही वजह है कि इस्लामिक देशों में भी सूर्य नमस्कार योग को लेकर पहले जैसा आग्रह नहीं रहा।

भारत में भी ऐसे योगाभ्यासियों की तादाद तेजी से बढ़ी है, जो योग को धर्मिक कर्मकांडों का हिस्सा या धर्म विशेष का अंग मानकर उससे दूरी बनाए हुए थे। ऐसे लोग बिना किसी आग्रह-पूर्वाग्रह के अपनी काया को स्वस्थ्य रखने के लिए योग की किसी भी विधि को अपने से परहेज नहीं कर रहे हैं। बीते सप्ताह उत्तराखंड में ऐतिहासिक काम हुआ। कोटद्वार के कण्वाश्रम स्थित वैदिक आश्रम गुरुकुल महाविद्यालय में 20 से 24 नवंबर तक विश्व का संभवत: पहला मुस्लिम योग साधना शिविर आयोजित किया गया था। यह सुखद अनुभव रहा कि शिविर में बड़ी संख्या में मुस्लिम महिलाओं और पुरूषों ने भाग लिया। शिविर में दूसरे धर्मों के लोगों ने भी हिस्सा लिया। योगीराज ब्रह्मचारी डा. विश्वपाल जयंत ने मुख्यमंत्री की मौजूदगी में मुस्लिम समुदाय समेत सभी समुदाय के साधकों को बज्रासन, शशंकासन, शेरासन, कष्ठासन, बज्रासन और मयूर पद्मासन का अभ्यास कराया।

वडोदरा का तदबीर फाउंडेशन योग को लेकर खासतौर से मुस्लिम महिलाओं का मिजाज बदलने में बड़ी भूमिका निभा रहा है। इसके प्रशिक्षक कुरान के आयतों के उच्चारण के साथ योगाभ्यास कराते हैं। रांची की राफिया नाज की संस्था “योगा बिआण्ड रिलीजन” (वाईबीआर) अब तक पांच हजार से ज्यादा छात्राओं को योग में प्रशिक्षित कर चकी है। बकौल राफिया शुरू में उन्हें भी कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा था। पर लोगों को बात समझ में आती गई तो बाधाएं भी दूर होती गईं।

जिस पाकिस्तान में लंबे समय तक योग के लिए दरवाजा बंद था, वहां भी चीजें तेजी से बदली हैं। योग के वैश्विक बाजार से आकर्षित पाकिस्तानी योग गुरू जब योग की व्याख्या करके उसे शारीरिक पीड़ा से ग्रस्त लोगों तक ले गए और इसके लाभ महसूस किए जाने लगे तो तीन-चार सालों के भीतर तस्वीर पूरी तरह बदलती दिख रही है। वरना सबको याद ही है कि इस्लामाबाद में 10 मार्च 2015 को आर्ट ऑफ लिविंग केंद्र को आग के हवाले कर दिया गया था।  तब इसका किसी ने विरोध तक नहीं किया था। लोगों को योग से इतना नफरत था।

अब पाकिस्तान में योग के विरोध की बात तो छोड़ ही दीजिए, विवाद इस बात को लेकर है कि योग मूल रूप से हिंदुस्तान का है या पाकिस्तान का। पाकिस्तान के एक चर्चित योग गुरू शमशाद हैदर ने यह कहकर नया विवाद को जन्म दिया है कि महर्षि पतंजलि पर भारतीयों का दावा सही नहीं है। इसलिए कि महर्षि पतंजलि का ताल्लुकात मुल्तान से था और मुल्तान पाकिस्तान में है। हालांकि उनका यह दावा निरर्थक ही है। इसलिए कि जब महर्षि पजंजलि जन्में थे तब पाकिस्तान कहां था? खैर, लोगों में योग की स्वीकार्यता दिलाने के लिए मार्केटिंग का यह तरीका भी चलेगा। वह इस तर्क के साथ ही यह बात मजबूती से रखते हैं कि योग को किसी मजहब से जोड़कर देखना उचित नहीं। यह शरीर का विज्ञान है।

दुनिया भर में बदलती जीवन-शैली के कारण तबाही के कगार पड़ी पर खड़ी जिंदगी को पटरी पर लाने के लिए लोग योग को तेजी से अपना रहे हैं। उसी का नतीजा है कि एक तरफ शमशाद हैदर जैसे योग गुरूओं को मानने वालों की फौज बढ़ती जा रही है, वहीं दूसरी ओर डॉ जाकिर नाईक जैसे धर्म गुरूओं और मलेशियाई फतवा परिषद से लेकर सांसद असदुद्दीन ओवैसी की अपीलें तक युवाओं के लिए बेमतलब साबित हो रही हैं। योग-शक्ति का कमाल देखिए कि पाकिस्तान ही नहीं, अन्य इस्लामिक देशों में भी योग को लेकर भ्रांतियां दूर हो रही हैं। फिलिस्तीन, मलेशिया और इंडोनेशिया नित नए योग केंद्र खुल रहे हैं। ईरान जैसे मुस्लिम गणतंत्र में योग फेडरेशन बना हुआ है, जिसके कार्यक्रमों में प्रत्येक आसन के फायदों पर चर्चा की जाती है।

आखिर अचानक आए इस बदलाव की वजह क्या है? केंद्रीय आयुष मंत्री श्रीपाद येसो नाईक कहते हैं, “योग विज्ञान है। इसका किसी धर्म से वास्ता नहीं है। पूर्ववर्ती सरकारों ने योग को लेकर फैली भ्रांतियां दूर करने की कभी कोशिश ही नहीं की। हम सब ने अल्पसंख्यकों को समझाया कि सूर्य नमस्कार आसन का नाम है। इसका सूर्य से कोई संबंध नहीं है। यदि योग करने में ओम् का उच्चारण आड़े आता हो तो उसकी जगह अल्लाह का नाम ले लें। इन बातों का असर हुआ। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर योग दिवस मनाने संबंधी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रस्ताव को संयुक्त राष्ट्र संघ में दुनिया भर से समर्थन मिलना इस बात का परिचायक है कि योग को लेकर फैलाई गईं भ्रांतियां काफी हद तक दूर हुई हैं।“

अपनी मान्यता है कि विभिन्न धर्मों के ठेकेदारों ने निहित स्वार्थों के लिए योग विज्ञान की गलत व्याख्या कर दी। इससे कालांतर में इसका अर्थ बदल गया। अब चीजें दुरूस्त करने के लिए विज्ञान का सहारा लेना पड़ रहा है। तभी हमें जब आज के वैज्ञानिक बताते हैं कि अमुक योग से इस तरह के फायदे होते हैं, तब हमें भरोसा होता है कि योग विज्ञान है और इसका किसी धर्म से वास्ता नहीं है। मैंने बीते सप्ताह ही इस कॉलम में वैज्ञानिक स्थापना के आधार पर लिखा था कि हमारे मस्तिष्क के भीतर चार प्रकार की तरंगें – बीटा, अल्फा, थीटा औऱ डेल्टा उत्पन्न होती हैं, जिन्हें ईईडी के जरिए देखा जा सकता है। मानव जब उत्तेजित होता है तो बीटा तरंग की प्रधानता रहती है। शांति मिलने पर अल्फा तरंग पैदा होता है। योगनिद्रा की अवस्था या अन्य तरीकों से जब मन एकाग्र होता है तो मस्तिष्क में डेल्टा औऱ थीटा तरंगों का आदान-प्रदान होता है। यह योग का विज्ञान ही तो है। इस क्रिया का धर्म से क्या वास्ता?  

आधुनिक काल में योग पर वैज्ञानिक अनुसंधान के अग्रदूत स्वामी कुवल्यानंद ने तो 1920 में ही योग पर वैज्ञानिक अनुसंधान प्रारम्भ कर दिया था। इसके चार साल बाद उन्होने कैवल्यधाम स्वास्थ्य एवं योग अनुसंधान केन्द्र की स्थापना की थी, जहाँ योग पर उनका अधिकांश अनुसंधान हुआ। उन अनुसंधानों से साबित होता गया कि योग पर प्रचीनकाल की स्थापना बिल्कुल सही थी। बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने साठ के दशक में कहा था कि योग विज्ञान है। इसका किसी भी धर्म से कोई वास्ता नहीं। तंत्र, जिसके द्वारा योग विकसित हुआ, उन वेदों से भी अधिक पुरानी पद्धति है, जिसके द्वारा हिंदू धर्म की उत्पत्ति और विकास हो सका है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि योग हिंदू धर्म से अधिक प्राचीन है।

पर इन तमाम उदाहरणों के बावजूद योग को लेकर अंधविश्वास की परतें इतनी मोटी हो चुकी हैं कि उन्हें हटाने के लिए बड़ी मशक्कतें करनी पड़ रही है। जो लोग अब भी योग को धर्म के दायरे में देखते हैं उन्हें यह पता होना चाहिए कि 11वीं सदी में फ़ारसी विद्वान लेखक, वैज्ञानिक, धर्मज्ञ तथा विचारक अल-बरुनी ने पतंजलि के योग-सूत्र का अरबी में अनुवाद करके उसे दुनिया भर में प्रचारित किया था। खुद महर्षि पतंजलि ने भी योग का प्रयोजन “योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:” बताया था। यानी चित्तवृत्ति का निरोध ही योग है। उन्होंने किसी देवी-देवता की बात नहीं की थी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

भारत में परंपरागत योग के दिन फिरे

किशोर कुमार //

अपने देश में योग की दुनिया में क्रांतिकारी बदलाव हो रहा है। अब वह दिन लदने को है, जब आत्म-ज्ञान दिलाने वाली यह महान विद्या कमर दर्द, वजन घटाने आदि तक सीमित होती जा रही थी और पश्चिम के विकसित देश हमारे परंपरागत योग को विज्ञान की कसौटी पर कसने के बाद उसे ऐसे प्रस्तुत करने लगे थे मानों उन्होंने कुछ नया आविष्कार कर दिया हो। 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की योग में विशेष दिलचस्पी की वजह से हालात बदले हैं। वैसे तो बिहार योग विद्यालय और कैवल्यधाम जैसे कई योग संस्थान वर्षों से परंपरागत की मशाल जलाए हुए हैं। पर उन्हें अपने ही देश में सरकारी स्तर पर स्वीकार्यता कम ही मिली। श्री मोदी ने परंपरागत योग के संस्थानों और उनके प्रमुखों को न केवल सम्मानित करके उनके योगदान को स्वीकार किया, बल्कि योग शिक्षा और अनुसंधानों को गति देने के लिए कई काम किए हैं। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र महासभा से 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस घोषित करवाने में अहम् भूमिका निभाने के बाद आयुष मंत्रालय बनाया। इसमें योग और प्राकृतिक चिकित्सा के लिए अलग विभाग है। ऐसी व्यवस्था की कि अपनी हाल पर छोड़ दिए गए देश के परंपरागत व सरकारी योग के संस्थानों को शोध के लिए प्रोत्साहन मिले। नतीजतन, मानव शरीर पर योग के प्रभावों को जानने के लिए विभिन्न स्तरों पर शोध-कार्य किए जा रहे हैं। दूसरी तरफ योग शिक्षा को स्तरीय बनाए रखने के लिए कई उपाय किए गए हैं।

योग के प्रति नरेंद्र मोदी के विशेष अनुराग का ही नतीजा है कि वे कम समय बेहतर स्वास्थ्य के प्रति प्रेरित करने के मामले में देशभर में लगातार दूसरी बार अग्रणी रहे। इसके बाद इस श्रेणी में बॉलीवुड अभिनेता अक्षय कुमार और योग गुरु बाबा रामदेव का नाम आता है। भारत की प्रमुख निवारक स्वास्थ्य देखभाल परितंत्र जीओक्यूआईआई ने हाल ही इस सबंध में अपना अध्ययन पत्र जारी किया था। जीओक्यूआईआई देश की सबसे प्रभावशाली हेल्थकेयर हस्तियों की पहचान करने के लिए इस तरह का अध्ययन करता है।

परंपरागत योग में आम आदमी की अभिरूचि हो, इसके लिए आयुष मंत्रालय प्रचार-प्रसार पर दिल खोलकर खर्च कर रहा है। आयुष मंत्रालय के संयुक्त सचिव पीएन रंजीत कुमार के मुताबिक चालू वित्तीय वर्ष में प्रचार-प्रसार पर 42 करोड़ रूपए खर्च किए जाने हैं। भारत सरकार के सूचना एवं तकनीकी मंत्रालय के साथ मिलकर 12,500 आयुष हेल्थ एवं वेलनेस सेंटर खोले जाने हैं। हालांकि मंत्रालय अपने को देश में योग गतिविधियों को प्रभावशाली बनाने के लिए समन्वयक या मददकर्ता तक ही रखना चाहता है।

शिक्षण संस्थानों में योग को अनिवार्य बनाने की केंद्र सरकार की घोषणा के बाद इन संस्थानों के मूल्यांकन में राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं प्रत्यायन परिषद (NAAC) की भूमिका सुनिश्चित करने के लिए फ्रेमवर्क तैयार किया जा रहा है। विभिन्न प्रकार की कसरतों को योग बताकर बीमारियों से मुक्ति दिलाने का दावा करने वाले झोलाछाप योगाचार्यों की वजह से वास्तविक योग विद्या में लोगों का भरोसा कम हुआ है। दूसरी तरफ इन योगाचार्यों की अज्ञानता से अनेक मरीजों की जान पर बन आई। यदि राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं प्रत्यायन परिषद से सत्यापित संस्थानों के योगाचार्यों की तादाद बढ़ेगी तो निश्चित रूप से तस्वीर बदलेगी।

विभिन्न बीमारियों पर योग के प्रभावों को जानने के लिए स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय और आयुष मंत्रालय के अधीन वाले संस्थानों के अलावा विज्ञान एवं तकनीकी मंत्रालय ने भी कदम बढाया है। इस मंत्रालय ने योग के क्षेत्र में शोध को बढ़ावा देने के लिए सत्यम (साइंस एंड टेक्नोलॉजी ऑफ योगा एंड मेडिटेशन) नाम से एक कार्यक्रम शुरू किया है। इसके अंतर्गत योग और ध्यान पर वैज्ञानिक अनुसंधान कर रहे शोधार्थियों को उनके काम के लिए तीन साल तक वित्तीय सहायता देने का प्रावधान है। आयुष मंत्रालय के अस्पतालों में जैनेटिक लैबोरेटरी या मॉलीक्यूलर बायोलॉजी लैबोरेटरी नहीं होतीं, जबकि विज्ञान और तकनीकी विभाग के पास योग से जुड़े अनुसंधानों के लिए ज्यादा संसाधन हैं। इसलिए माना जा रहा है कि योग विज्ञान के क्षेत्र में सत्यम कार्यक्रम की महती भूमिका होगी। 

मस्तिष्क में हिप्पोकैंपस नाम के क्षेत्र की गतिशीलता उम्र के साथ घटती जाती है। पर बैंगलुरू स्थित राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य एवं तंत्रिका विज्ञान संस्थान (निम्हांस) के मनोवैज्ञानिकों के अनुसंधान से पता चला कि योग करने वालों में छह माह के दौरान हिप्पोकैंपस के भीतर ग्रे मैटर बढ़ जाता है। ग्रे मैटर बढ़ने का मतलब होता है कि मस्तिष्क की क्रियाशीलता पहले की तुलना में बढ़ जाती है। डिमेंशिया से पीड़ित लोगों को भी योग के माध्यम से इसी तरह फायदा होता है। इस अनुसंधान को विज्ञान एवं तकनीकी मंत्रालय ने अहमियत दी है और सूत्रों की मानें तो अनुसंधान को व्यापकता प्रदान करने की कोशिश की जा रही है।

आयुष मंत्रालय के अधीन वाले सेंट्रल काउंसिल फॉर रिसर्च इन योग व नेचुरोपैथी को ज्यादा क्रियाशील बनाया गया है। मौजूदा समय में इस स्वायत्त संगठन के अधीन योग से संबंधित 32 विषयों पर अनुसंधान किया जा रहा है। हृदय रोगियों पर योग के प्रभावों को लेकर किए गए अनुसंधान के परिणामों वाली रिपोर्ट बीते साल जारी की गई थी। उसके पहले सन् 2017 में ब्रेस्ट कैंसर के मरीजों पर योग के प्रभावों का अध्ययन किया गया था। दोनों ही अनुसंधानों से उन बीमारियों में योग के असरदार होने का पता चला था।

भारत सरकार की ओर से परंपरागत योग के संस्थानों जैसे, बिहार योग विद्यालय, कैवल्यधाम आदि को योग के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान के लिए प्रधानमंत्री पुरस्कार से नवाजा जा चुका है। ये दोनों ही संस्थान कई दशकों से दुनिया भर के अनुसंधान संस्थानों के साथ मिलकर योग पर विभिन्न प्रकार के अनुसंधान करते रहे हैं। इन अनुसंधानों के आधार पर दावा किया गया कि कई बीमारियों का शर्तिया इलाज योग से संभव है। इधर, योग गुरु बाबा रामदेव ने धोषणा कर रखी है कि पतंजलि आयुर्वेद लिमिटेड देश में योग अनुसंधान पर 10 हजार करोड़ रुपये खर्च करेगा।

कहा जा सकता है कि अपने देश में परंपरागत योग के दिन फिर गए हैं। सद्गुरू ने ठीक ही कहा है, “भारत की प्राचीन परंपरा से पूरा विश्व लाभ ले रहा है। इसलिए योग दुनिया को दिया भारत का एक बेहतरीन गिफ्ट है।“ अब भारत खुद भी अपनी इस अमूल्य विरासत का भरपूर लाभ उठाने के लिए तत्पर है।

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