भावातीत स्वरूप वाली महान संत आनंदमयी मां

किशोर कुमार //

बीसवीं सदी की महान योगिनी श्री आनंदमयी मां विंध्याचल स्थित अपने आश्रम में थीं। मिर्जापुर के जिलाधिकारी उनके दर्शन के लिए आश्रम पहुंचे तो मां ने उन्हें आश्रम के अहाते की एक जगह दिखाते हुए कहा, इस भूमि के गर्भ में अनेक देवी-देवताओं की मूर्तियां सदियों से गड़ी हैं। अब उनका दम घुटने लगा है। आप उस स्थल की खुदाई करवा कर उन्हें निकालने का प्रबंध कर दें। यह बात सन् 1955 की है। जिलाधिकारी नृसिंह चटर्जी ने मां के इस आग्रह को किसी दैवी आदेश की तरह लिया और हैरानी की बात यह रही कि लंबे समय तक चली खुदाई के बाद लगभग दो सौ मूर्तियां मिल गई थीं। यह घटना किसी चमत्कार से कम न थी।

कोई दो दशकों तक मां की साधना का मुख्य केंद्र काशी रहा। शुरूआती दिनों में आश्रम के लिए जगह की तलाश की जा रही थी। पर बात बन नहीं पा रही थी। सन् 1942 में मां अपनी शिष्या श्री गुरुप्रिया आनंद गिरि, जिन्हें सभी दीदी थे, के साथ बनारस रेलवे स्टेशन के प्रतिक्षालय में बैठी थीं। तभी उनकी नजर बनारस के मानचित्र पर गई। वह एक स्थान पर उंगली रखकर कहा, देखो दीदी, यह रहा तुम्हारा आश्रम। वह स्थान अस्सी और भदैनी के बीच था। मां के शिष्य उस स्थल पर गए तो ऐसा लगा मानो जमीन का मालिक इंतजार में ही था कि वहां कितनी जल्दी मां का आश्रम बन जाए। 

मां एक बार कानपुर से लखनऊ कार से जा रहीं थीं। उन्नाव के पास एक गांव से गाड़ी गुजर रही थी तो मां सहसा बोल पड़ीं – “कितना सुन्दर गांव है, कितना सुन्दर पेड़ हैं।” मां की शिष्या श्री गुरुप्रिया आनंद गिरि ने यह सुनते ही गाड़ी रूकवा दी। फिर वहां पहुंची जहां सुंदर पेड़ थे। दरअसल, तालाब के किनारे दो छोटे-छोटे नीम व बट के पेड़ थे। मां ने गाड़ी से उतर कर पेड़ों का खूब आदर किया। बोली, “अच्छा तुम लोग इस शरीर को ले आए।” गाड़ी से फलों की टोकरी व माला मंगवाई। मालाएं वृक्षों पर अपने हाथों से सजा दीं और फल बांट दिए। स्थानीय लोगों से कहा, इन वृक्षों की पूजा करना। भला होग

मां ने बचपन से लेकर समाधि तक ऐसी लीलाएं इतनी की कि उनकी गिनती ही न रह गई। वह ऐसी लीलाएं क्यों करती थीं? महान संत तो चमत्कारों के पीछे भागते ही नहीं। फिर मां आजीवन ऐसा क्यों करती रहीं? उत्तर मिलता है कि भगवान का चरित्र उजागर करने, भगवान का संदेश फैलाने का उनका यही तरीका था। आधुनिक विज्ञान नए-नए अनुसंधान करके अवचेतन मन की शक्तियों पर प्रकाश डालते रहता है। पर मां की हर लीला में मानव चेतना के विकास के लिए, मानव के कल्याण के लिए कोई न कोई संदेश होता था। वह कहती थीं कि व्यक्ति अपने गुण-कर्म के आधार पर उन शक्तियों को यथा संभव जागृत करके जीवन को धन्य बना सकता है। मां के आचरण में साधुता, प्रज्ञा में ज्ञान की चमक और भाव के स्तर पर भक्ति थी। वे बतलाती थी कि पुनर्जन्म होता है। यदि कोई व्यक्ति ऊंचे सिंहासन पर बैठा है तो उसमें पूर्व जन्म के पुण्यों का भी योगदान होता है।  इसलिए जीवन में सत्व गुण की प्रधानता रहे, यह बहुत जरूरी है।

मां की शक्तियां भी उनके पूर्व जन्मों के सत्कर्मों का ही प्रतिफल था। इसलिए कि इस जन्म में तो उनके न कोई गुरू थे और न ही उन्होंने कहीं योग और अध्यात्म की शिक्षा ली थी। औपचारिक शिक्षा भी न थी। पर, बचपन से ही भक्तियोग के रस टपकने लगे थे। ढाई साल की उम्र में ननिहाल में थीं और वहां मां के साथ कीर्तन में गईं तो वहां शरीर शिथिल होकर लुढक गया था। पर किसी के लिए भी समझना मुश्किल था कि यह कीर्तन का प्रभाव है। समय बीतता गया और दैवीय शक्तियां स्फुटित होती गईं। मां को बचपन से नाम संकीर्तन खूब भाता था। आध्यात्मिक अनुभवों से इसकी वैज्ञानिकता भी समझ में आ गई। लिहाजा चैतन्य महाप्रभु कि तरह उन्होंने संकीर्तन को ही भवगत् संदेश बांटने का जरिया बनाया था।

रामचरितमानस में कागभुशुंडिजी की कथा है। वह पक्षीराज गरूड़जी से कहते हैं कि कौए का शरीर ही मुझे बहुत प्यारा है। क्यों? क्योंकि इस शरीर में प्रभु की भक्ति अंकुरित हुई और इसी शरीर से भजन हो पाता है। वे फिर कलियुग गुण-धर्म का वर्णन करते हुए कहते हैं, सतयुग में ध्यान करने से, त्रेता युग में यज्ञ करने से और द्वापर में पूजा करने से जो फल मिलता है, वैसा ही फल कलियुग में नाम संकीर्त्तन, जप से मिलता है। मां कहती थीं कि यदि किसी में सत्व गुण की प्रधानता है और पूर्व जन्म का प्रारब्ध भी सहयोग में है तो ऐसा व्यक्ति कलियुग में भी सतयुग या अन्य युगों जैसा बेहतर फल प्राप्त कर सकता है। पर आम लोगों के लिए तो “कलियुग केवल नाम अधारा, सुमिर-सुमिर नर उतरहि पारा…।“ इसलिए कीर्तन करो, नाम के जप और कीर्तन से ही सब कुछ होता है।

मां कहतीं, ‘स्मरण रक्खो, स्मरण रक्खो, भगवान् का नाम सर्वदा स्मरण करते-करते इस संसार रूपी कारागार के दिन कट जाएंगे। स्वयं तो अच्छे होने की चेष्टा करना ही, जो जहाँ हो, उसे भी बुला लेना, जिसके कर्म के साथ धर्म का संबंध नहीं है; उसको ईश्वर का नाम (भजन) करने के लिए निरंतर विनती करो। जो उसको (भगवान् को) जिस किसी विशुद्ध-भाव से पाने को चेष्टा कर रहा है, उसको उसी भाव से आलिंगन करो, और जिसने उसकी महिमा को जान लिया है उसके सत्संग से अपने जीवन को कृतार्थ करो।”

श्रीमद्भागवत गीता में उल्लेख है, कागभुसुंडि जी की कथा है और आधुनिक युग के संत भी वैज्ञानिक आधार पर कहते रहे हैं कि हम अपनी यात्रा इस जन्म में जहां खत्म करते हैं, अगले जन्म में वहीं से शुरू करते हैं। इसलिए आध्यात्मिक यात्रा शुरू करने का कोई समय नहीं होता। जब जागे, तभी सबेरा। क्षय शरीर का होता है, आत्मा अमर है। मां यह बात सबसे कहती थीं। लगभग पांच दशकों तक देश के कोने-कोने में हरि-स्मरण, हरि-संकीर्तन का अलख जगाकर भक्ति की गंगा प्रवाहित करने वाली मां के पास उनके समकालीन साधु-संतों से लेकर राजनीति और दूसरे क्षेत्र के दिग्गजों का आना-जाना लगा रहता था। मां भी नन्हीं बच्ची की तरह सभी आत्मज्ञानी संतों के दर्शन के लिए जाया करती थीं।

परमहंस योगानंद ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “योगी कथामृत” में वर्णन किया हुआ है – मैं पहली बार आनन्दमयी माँ से मिला था तो मसझते देर न लगी कि भीड़ में होते हुए भी वे समाधि की एक उच्च अवस्था में थीं। अपने बाह्य नारी रूप का उन्हें कोई भान नहीं था। उन्हें केवल अपने परिवर्तनातीत आत्म-स्वरूप का भान था। उस अवस्था में वे ईश्वर के एक अन्य भक्त से आनन्द के साथ मिल रही थीं। उनकी यात्रा में देरी होते देख मैं जल्दी ही निकल लेना चाहता था। पर वह बोल पड़ीं, “बाबा! मैं कई युगों बाद इस जन्म* में आपसे पहली बार मिल रही हूँ! इतनी जल्दी तो मत जाइए!” योगानंद जी दरअसल अपनी भतीजा अमिया बोस के आग्रह पर मां से मिलने गए थे। अमिया ने उनसे कहा था – “निर्मला देवी यानी मां के दर्शन किए बिना कृपया भारत से मत जाइए। उनमें अत्यंत तीव्र भक्तिभाव है; सब तरफ वे आनन्दमयी माँ के नाम से विख्यात हैं। मैं उनसे मिली हूँ। अभी हाल ही में वे मेरे छोटे- से नगर जमशेदपुर पधारी थीं। एक शिष्य के अनुरोध पर आनन्दमयी माँ एक मरणासन्न मनुष्य के घर गईं। वे उसकी शय्या के पास खड़ी हो गयींउनके हाथ ने जैसे ही उसके माथे का स्पर्श किया, उसकी घर्र-घर्र बन्द हो गई। उसकी बीमारी तत्क्षण गायब हो गई। वह भी देखकर आनन्दित और विस्मित हो गया कि वह पूर्ण रूप से स्वस्थ हो चुका था।”

विश्व प्रसिद्ध बिहार योग विद्यालय के संस्थापक स्वामी सत्यानंद सरस्वती अक्सर मां के दैवीय स्वरूप में चर्चा करते थे। उन्हें परमहंस की उपाधि मां ने ही दी थी। डा० अलेक्जेंडर लिपस्की परमहंस स्वामी योगानन्द की पुस्तक ‘योगी कथामृत’ पढकर मां की ओर आकर्षित हुए थे। वाराणसी में १९६५ में मां से मिले तो उनके ही होकर रह गए। उन्होंने लिखा कि उनका अनुभव था कि मस्तिष्क की अन्तरतम परतों में भी मां का सहज प्रवेश है। मां की तुलना उन्होंने वृहत आध्यात्मिक चुम्बक से की है, जिसके सामने से अपने को अलग कर पाना कठिन प्रतीत होता है। अपने को एकदम अनपढ़ कहने वाली मा आनन्दमयी के मुख से बड़े बड़े विद्वानों द्वारा पूछे गये गूढ़ प्रश्नों के उत्तर इतनी सहजता, सरलता एवं दृढ़ता से सुनने को मिले कि आश्चर्य हुआ। मां के श्रीमुख से ‘हे भगवान्. और सत्यं ज्ञान अनन्तम् ब्रह्म का कीर्तन उन्हें ईश्वर के प्रेम और आनन्द का उच्छवास प्रतीत हुआ और यह कहने को लिपस्की विवश हो गये कि ‘पृथ्वी में अगर कहीं स्वर्ग है तो यही है, यहीं है, यहीं है।

आम लोगों की कौन कहे, बड़े-बड़े संतों को भी मां परमात्मा की अवतार जैसी लगती थीं। महर्षि दयानंद सरस्वती से रहा न गया। उन्होंने मां से पूछ लिया था, मां तुम कौन हो? कोई कहता है तुम अवतार हो, कोई कहता है तुम आवेश हो, कोई कहता है साधक या बद्ध जीव हो, मुझे यथार्थतः जानने की इच्छा है तुम कौन हो? मां ने कहा, “बाबा, तुम मुझे क्या समझते हो? तुम जो समझते हो मैं वही हूं।” इस उत्तर को ऐसे समझिए। श्रीमद्भागवत गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे पृथानन्दन! जो भक्त जिस प्रकार मेरी शरण लेते हैं, मैं उन्हें उसी प्रकार आश्रय देता हूँ; क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकार से मेरे मार्ग का अनुकरण करते हैं। इस तरह महर्षि दयानंद जी को मां के उत्तर में ही मां के स्वरूप का वास्तविक परिचय मिल गया था। जीवन पर्यंत प्रेम, परोपकार और भक्ति का संदेश देकर लोगों का जीवन धन्य बनाने वाली महान योगिनी को महासमाधि दिवस (27 अगस्त) पर सादर नमन।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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