जब योग के प्रचारक बन गए थे जेपी

किशोर कुमार //

हम सब मोरारजी देसाई राष्ट्रीय योग संस्थान से तो परिचित हैं ही। भारत सरकार के आयुष मंत्रालय के अधीन एकमात्र स्वायत्तशासी संगठन है, जिसका उद्देश्य एक केंद्रीय एजेंसी के रूप में योग अनुसंधान, योग चिकित्सा, योग प्रशिक्षण और योग शिक्षा को बढ़ावा देना है। नई पीढ़ी के ज्यादातर लोगों को पता नहीं होगा कि योग के इस मंदिर की स्थापना महान योगी स्वामी धीरेंद्र ब्रह्मचारी की परिकल्पना औऱ उनके श्रमसाध्य प्रयासों का प्रतिफल है। तब यह विश्वायतन योगाश्रम के रूप में जाना जाता था। पर मैं आज स्वामी धीरेंद्र ब्रह्मचारी की जीवनी भी लिखने नहीं बैठा हूं। आज तो संपूर्ण क्रांति के जनक लोकनायक जयप्रकाश नारायण की जयंती है। उनके जीवन से जुड़े विविध पहलुओं पर प्रबुद्धजन अपने विचार प्रकट कर रहे हैं। उसी कड़ी में मैं भी केवल स्मरण करा रहा हूं कि धीरेंद्र ब्रह्मचारी को स्वामी धीरेंद्र ब्रह्चारी के रूप में स्थापित कराकर योग के प्रचार-प्रसार को गति दिलाने में लोकनायक का कितना बड़ा योगदान था।    

कैसे? इस विषय़ पर आने से पहले योग की महत्ता क्या है, शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य के लिए यह कितना अद्भुत टॉनिक है और इसका प्रत्यक्ष अनुभव लोकनायक जयप्रकाश नारायण को कब और कैसे हुआ था, सब कुछ उन्हीं के शब्दों में जानिए, जिसका उल्लेख धीरेंद्र ब्रह्मचारी की पुस्तक “यौगिक सूक्ष्म व्यायाम” में है – “योग-विद्या का कोई ज्ञान मुझे नहीं है। न योग वाङ्मय से ही परिचित हूँ। तथापि अन्य साधारण लोगों की तरह योग की अनन्त महिमाओं का वर्णन जब तब सुनता रहा हूँ। अभी हाल में विश्वायतन योगाश्रम, काश्मीर, के दो योगियों– श्री धीरेन्द्र ब्रह्मचारी और हरिभक्त चैतन्य से परिचय प्राप्त करने का सौभाग्य मिला।

मेरा स्वास्थ्य वर्षों से अच्छा नहीं रहता। इधर दो-ढाई साल से मधुमेह का शिकार रहा हूँ। कुछ महीने पूर्व कलकत्ते गया था, तो मित्रों से इन महात्माओं के विषय में सुना था। यह दोनों महात्मा लगभग एक वर्ष से यौगिक क्रियाओं का शिक्षण कलकते के नागरिकों को दे रहे हैं। इन क्रियाओं से अनेकों ने लाभ उठाया है और पुराने-पुराने रोग भी दूर हो गये हैं। यह सब मित्रों से सुनकर मैंने भी इन क्रियाओं का अनुभव लेने का निश्चय किया। कलकत्ते रहकर इन महात्माओं की कृपा से कुछ क्रियाओं का अभ्यास किया।

कुछ तो अद्भुत क्रियाएं हैं, जैसे “शंखप्रक्षालन” की क्रिया। सूक्ष्म व्यायाम भी अत्यन्त वैज्ञानिक लगते हैं। अभ्यास लगभग एक मास से जारी है। इस थोड़े समय में ही बहुत लाभ का अनुभव कर रहा हूँ। शरीर हल्का लग रहा है। मन अधिक प्रसन्न है। पेशाब में चीनी नहीं आ रही है। खून में भी चीनी पहले से कम है। निश्चित रूप से तो कुछ महीने बाद ही कहा जा सकता है कि स्वास्थ्य में क्या-क्या अन्तर पड़ा है, परन्तु २४-२५ दिनों के ही अभ्यास से जो लाभ हुआ, वह थोड़ा नहीं है ।

यहाँ योग की प्रशंसा करने नहीं बैठा हूँ। उसकी आवश्यकता ही क्या है? जब अनन्त ऋषि-मुनियों ने उसकी प्रशंसा गाई है, जब योगेश्वर श्रीकृष्ण ने उसकी बड़ाई की है और भगवान् बुद्ध ने योगाभ्यास से ज्ञान प्राप्त किया था, तो मुझ जैसे अदना और नानुभवी व्यक्ति के कथन का क्या महत्त्व हो सकता है?  मैं यहां इतना ही कहना चाहता हूँ कि यह दुःख की बात है कि यह प्राचीन भारतीय विद्या आज भारतीय जीवन से लुप्त हो गई है। पाश्चात्य सभ्यता, शिक्षा, चिकित्सा आदि का भूत इस तरह हम पर सवार है कि अपने देश की इस अनमोल वस्तु का हम तिरस्कार ही कर रहे हैं। इस विद्या के जानने वाले भी इस वातावरण से क्षुब्ध होकर जन-जीवन से दूर पड़ गये हैं।

इस अवस्था में यह प्रसन्नता का विषय है कि कुछ ऐसे योगी हैं, जो समाज में आकर फिर से इस दिव्य विद्या को फैलाने का शुभ प्रयास कर रहे हैं। इनमें ही विश्वायतन योगाश्रम के यह दो योगी हैं, जिनका जिक्र ऊपर आया है और जिन्होंने “यौगिक सूक्ष्म व्यायाम” पुस्तक को तैयार किया है। हिन्दी भाषा में इस विषय पर ऐसी दूसरी पुस्तक नहीं है। शायद अन्य किसी भाषा में भी न हो। हजारों वर्षों के अनुभवों और प्रयोगों का सार यहाँ संग्रहीत है। इस पुस्तक का अधिक-से-अधिक प्रचार हो, इसमें देश का कल्याण मैं मनाता है।“

स्वामी धीरेंद्र ब्रह्मचारी के निर्देशन में योगाभ्यास से लोकनायक जयप्रकाश नारायण को चमत्कारिक लाभ मिला तो उन्होंने उन्हें कलकत्ता के बदले दिल्ली को अपना केंद्र बनाने का सुझाव दिया। धीरेंद्र ब्रह्मचारी इसके लिए खुशी-खुशी तैयार भी हो गए। वे जब दिल्ली आए तो जेपी ने ही पंडित जवाहरलाल नेहरू से लेकर बाबू जगजीवन राम तक को धीरेंद्र ब्रह्चारी की विलक्षण यौगिक क्षमता से अवगत कराया। फिर तो धीरेंद्र ब्रह्मचारी की योगविद्या की खुशबू तुरंत ही फैल गई।

साठ के दशक में योग के प्रचार-प्रसार को गति दिलाने में उत्प्रेरक की भूमिका निभाने वाले लोकनायक जयप्रकाश नारायण को उनकी जयंती पर सादर नमन।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

कम हियर, माई डीयर कृष्ण कन्हाई….

किशोर कुमार

“नंद के आनंद भयो, जय कन्हैया लाल की….. गोकुल के भगवान की, जय कन्हैया लाल की…… “ जन्माष्टमी के मौके पर ब्रज में ही नहीं, बल्कि देश-दुनिया के भक्त इस बोल के साथ दिव्य आनंद में डूब जाएंगे। सर्वत्र उत्सव, उल्लास और उमंग का माहौल होगा। भजन-संकीर्तन से पूरा वातावरण गूंजायमान होगा। ऐसा हो भी क्यों नहीं। श्रीकृष्ण विश्व इतिहास और वैश्विक-संस्कृति के एक अनूठे व्यक्ति जो थे। विश्व के इतिहास में वैसा विलक्षण पुरुष फिर पैदा नहीं हुआ। वे लीलाधर थे, महान् दार्शनिक थे, महान् वक्ता थे, महायोगी थे, योद्धा थे, संत थे….और भी बहुत कुछ। तभी पांच हजार साल बाद भी सबके हृदय में विराजते हैं।

उनकी महिमा से जुडा एक ऐतिहासिक प्रसंग मौजूदा समय के लिए बड़ा संदेश है। कलियुग में भक्ति का महत्व और उसकी श्रेष्ठता का पता चलता है। कृष्ण-भक्त चैतन्य महाप्रभु को तो श्रीकृष्ण का ही अवतार माना जाता है। वे जगन्नाथ पुरी से झारखंड होते हुए काशी जा पहुंचे। उन दिनों काशी के संन्यासियों में स्वामी प्रकाशानंद की बड़ी प्रतिष्ठा थी। वेदांत के प्रकांड विद्वान थे और उनके तप, तेज और पांडित्य के आगे सभी अपना मस्तक झुकाते थे। पर चैतन्य महाप्रभु तो ठहरे भक्तिभाव वाले। उन्हें पंडिताऊ बातों से कहां सरोकार था। वे तो सीधे-सीधे कहते थे कि श्रीकृष्ण मंत्र के के निरन्तर जप और यहां तक कि श्रवण मात्र से मनुष्य अपने जीवन के इच्छित उद्देश्य को प्राप्त कर सकता है। पर स्वामी प्रकाशानंद को चैतन्य महाप्रभु का तरीका बिल्कुल नहीं भाया। उन्होंने अपने शिष्यों से कह दिया कि कि वे संन्यास-धर्म के विपरीत काम करते हैं और जादू-टोने की बदौलत अपनी महिमा फैलाते हैं। उनक फेर में नहीं पड़ना।

चैतन्य महाप्रभु को तो वैसे भी वृंदावन ही जाना था। सो वे काशी वासियों के रूखे व्यवहार से दुखी होकर वृंदावन के लिए कूच कर गए। कृष्ण-भक्ति के लिहाज से वृंदावन की भूमि बेहद ऊर्वर थी। चैतन्य महाप्रभु का भक्ति आंदोलन जल्दी ही चरम पर जा पहुंचा। राधा-कृष्ण की समस्त लीलाएं मानों जीवंत हो उठीं। चैतन्य महाप्रभु कुछ समय बाद फिर काशी लौटे तो एक भोज में उनका सीधा सामना स्वामी प्रकाशानंद से हो गया। स्वामी प्रकाशानंद ने तो महाप्रभु का नाम भर सुना था। देख रहे थे पहली बार। वे महित हो गए। बगल में बिठाया और मन की बात कह दी – आप तो साक्षात नारायण के समान दर्शनीय हैं। पर संन्यासियों के लिए दूषित नृत्य-गीत आदि में निमग्न क्यों रहते हैं? चैतन्य महाप्रभु ने अपने गुरू केशव भारती का हवाला देते हुए कहा, “कलिकाल में नापजप से ही कर्मबंध का क्षय होगा। मैं गुरू की आज्ञा शिरोधार्य करके कृष्णनाम का जप करता हूं। आप देख सकते हैं कि मेरी प्रकृति बदल चुकी है। मैं जान चुका हूं कि कोरा ज्ञान आस्था नहीं दे पाता।“ उन्होंने अपने तर्कों से सिद्ध किया कि वेद वैष्णव धर्म का पोषण करते हैं। स्वामी प्रकाशानंद इन तर्कों से इतने प्रभावित हुए और महाप्रभु के चरणों में साष्टांग लेट गए थे। इसके बाद तो पूरी काशी चैतन्य महाप्रभु के चरणों में मानो लेट गई थी।   

कृष्णभक्ति आंदोलन के तमाम संत कहते रहे हैं कि श्रीकृष्ण को मायावादी दृष्टिकोण से नहीं देखा जाना चाहिए। उनके नाम, उनके रूप, उनके गुणों और उनकी लीलाओं में अंतर नहीं है। वह परब्रह्म हैं। पर हम सब श्रीकृष्ण की बहिरंग शक्ति से मोहित हैं, जो माया के सिवा कुछ भी नहीं है। शुद्ध प्रेम की आंखें नहीं होने के कारण तथाकथित बुद्धिमत्ता अवरोध उत्पन्न कर देती है। आखिर मीरा जब श्रीकृष्ण के प्रेम में पड़ीं थीं तो उस समय के समाज को उनका प्रेम अंधा मालूम पड़ा ही था न। लेकिन आज हम सब जान गए हैं कि उनके हृदय के प्रेम की अंतिम परिणति क्या थी। श्रीकृष्ण की लीलाओं और उनके संदेशों को आध्यात्मिक नजरिए देखा जाना चाहिए। इस बात को एक कथा के जरिए समझिए, जिसे बीसवीं सदी के महान संत और बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती अक्सर सुनाया करते थे – श्रीकृष्ण को अपनी बांसुरी से बेहद प्रेम था। सोते-जगते, उठते-बैठते हर समय उनके पास ही होती थी। उनकी दिव्य ऊर्जा के प्रभाव के कारण बांसुरी की ध्वनि इतनी शक्तिशाली हो गई थी कि संपूर्ण सृष्टि का निर्माण हो गया। श्रीकृष्ण के प्रेमरस के लिए व्याकुल रहने वाली गोपियों को बड़ा अजीब लगता था। सूखे और खोखले बांस से बनी बांसुरी श्रीकृष्ण को इतनी प्यारी क्यों है? रहा न गया तो गोपिकाओं ने सीधे-सीधे बांसुरी से ही पूछ लिया – बांसुरी, हमें सच-सच बताओ कि तुममें ऐसा क्या है कि भगवान के इतने प्यारे हो?

बांसुरी तो अपने प्रियतम के प्रेमरस में सराबोर थी। उसे क्या पता जादू क्या होता है। लिहाजा उसने जबाव दिया – मुझे न तो जादू करना आता है और न सम्मोहन कला आती है। मैं तो जंगलों में पलती-बढ़ती हूं। अंदर से सदा खोखली ही रहती हूं। मेरे इष्टदेव को मेरी कमियों की जानकारी है। फिर भी वे प्रसन्न रहते हैं। वे एक ही बात कहते हैं – “अपने आप को खाली रखो, मैं तुम्हें भर दूंगा।“ मैं जिसे अपनी कमजोरी समझती रही हूं, भगवान की नजर में वही मेरी शक्ति है।“ इस कथा का संदेश यह कि निरहंकारिता का मंदिर जिसे मिल गया, उसके अपने भीतर के मंदिर के द्वार खुल जाते हैं। सवाल है कि अहंकार से मुक्ति कैसे मिले? श्रीकृष्ण ने इसके लिए अनेक विधियां बतलाईं। उनमें भक्ति को सबसे श्रेष्ठ बतलाया।

श्रीभागवतम् में कथा है कि द्वापर युग के अंत में नारद जी ब्रह्मा जी के पास गए और उनसे पूछा भगवन्, मैं इस संसार में रमते हुए कलियुग को कैसे पार कर सकूंगा ?” ब्रह्मा जी ने कहा- “तुम उस कप की सुनो, जो श्रुतियों में सन्निहित है और जिससे मनुष्य कलियुग में संसार को पार कर सकता है। केवल नारायण का नाम लेने से मनुष्य इस कराम कलियुग के बुरे प्रभाव को दूर कर सकता है।” फिर नारद ने ब्रह्माजी से पूछा- “मुझे वह नाम बताइए।” तब ब्रह्माजी ने कहा-

“हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे । हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ॥”

ये सोलह नाम हमारे सन्देह, भ्रम तथा कलियुग के बुरे प्रभाव को दूर कर देते हैं। ये प्रज्ञान का निवारण कर देते हैं। ये मन के अंधकार को दूर कर देते हैं। फिर जैसे कि ठीक दोपहर के समय सूर्य अपने पूर्ण तेज सहित भासमान होता है, वैसे ही परब्रह्म अपने पूर्ण प्रकाश के साथ हमारे हृदयाकाश में प्रकाशित हो जाते हैं और हम समस्त संसार में केवल उनसे हो अनुभूति करते हैं।

इस्कॉन के संस्थापक श्रील प्रभुपाद अक्सर कहा करते थे, जैसे चिकित्सक संक्रमण को रोकने के लिए पूर्वोपाय के रूप में टीके लगता है। वैसे ही सभी तरह के पापों को फलित होने से रोकने के लिए पूर्णतया कृष्णभावना भक्ति का परायण हो जाना आवश्यक है। वे इस संदर्भ में, श्रीमद्भागवत (६.२.१७) का उदाहरण देते थे, जिसमें शुकदेव गोस्वामी ने अजामिल की एक कथा बतलाई है। अजामिल ने अपना जीवन एक कुशल और कर्तव्य-परायण ब्राह्मण के रूप में प्रारम्भ किया था; परन्तु यौवन में वेश्या-संग से बिल्कुल भ्रष्ट हो गया। फिर भी, अपने पापमय जीवन के अंत में नारायण नाम पुकारने के फलस्वरूप उसका सब पापों से उद्धार हो गया। शुकदेव गोस्वामी ने कहा है कि तप, दान, व्रत आदि से पापों का नाश तो हो जाता है; परन्तु हृदय से पाप-बीज का नाश नहीं होता, जैसा यौवन में अजामिल के साथ हुआ। इस पाप-बीज का नाश एकमात्र कृष्णभावनाभावित होने पर ही हो सकता है । श्रीचैतन्य महाप्रभु का सन्देश है कि कृष्णभावना की प्राप्ति हरेकृष्ण महामन्त्र का जप कीर्तन करने से बड़ी सुगमतापूर्वक हो जाती है।

संतों ने नामजप और संकीर्तन को आधुनिक युग के लिहाज से सबसे उपयुक्त माना। उनकी वाणी है कि इसी शताब्दी में लोग नामजप और संकीर्तन को आधार बनाकर भक्ति का आश्रय लेंगे। भक्ति यानी श्रद्धा, प्रेम, केवल विशुद्ध प्रेम। किसी मान्यता नहीं, बल्कि विज्ञान के आधार पर इसके महत्व को समझा जाएगा। हम सब देख रहे हैं कि संकीर्तन और मंत्रों की शक्ति पर दुनिया भर में अध्ययन किया जा रहा है। पता चल चुका है कि मंत्रों की ध्वनि मानसिक और भावनात्मक स्तर पर आश्चर्यजनक ढंग से सकारात्मक प्रभाव डालती है। इसलिए कि इस ध्वनि से मानव के वेगस तंत्रिका तंत्र झंकृत होता है। शोध का दायर जैसे-जैसे व्यापक हो रहा है, अवसादग्रस्त लोग या चेतना के उत्थान के लिए सजग लोग भक्तियोग का अनुसरण करने लगे हैं। श्रीकृष्ण के संदेशों की प्रासंगिकता बढ़ती जा रही है। तभी भारतीयों की कौन कहे, बड़ी संख्या में विदेशी भी मंत्र साधना तो करते ही हैं, “कम हियर, माई डीयर कृष्ण कन्हाई….” के धुन पर थिरकते दिखते हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

अध्यात्म-विज्ञान और ओपेनहाइमर

किशोर कुमार

श्रीमद्भगवतगीता के परिप्रेक्ष्य में अमेरिकी परमाणु विज्ञान के जनक माने जाने वाले आध्यात्मिक वैज्ञानिक जे रॉबर्ट ओपेनहाइमर की जीवनी पर बेहद लोकप्रिय और शिक्षाप्रद फिल्म बन सकती थी। दुनिया को बतलाया जा सकता था कि आध्यात्मिक शक्ति-संपन्न विज्ञान किस तरह कल्याणकारी होता है और इसका अभाव विध्वंस का कारण बन जाता है। पर मशहूर फिल्मकार क्रिस्टोफ़र एडवर्ड नोलेन ने गूढ़ार्थ समझे बिना श्रीमद्भगवतगीता को फिल्म में जिस तरह प्रस्तुत किया, उससे उनकी दुकानदारी भले चल गई। पर ओपेनहाइमर का आध्यात्मिक संदेश देने में नाकामयाब हो गए। साथ ही श्रीमद्भगवतगीता का गलत ढंग से प्रस्तुत करके करोड़ों लोगों की आस्था को ठेस भी पहुंचा दी।

भला हाथ में श्रीमद्भगवतगीता और कामवासना का विचार दोनों साथ-साथ कैसे चल सकता है? स्वयं श्रीमद्भगवतगीता का संदेश ऐसे आचरण के विरोध में है। इस ग्रंथ के सोलहवें अध्याय में कहा गया है कि काम, क्रोध और लोभ के मुहाने पर खड़ा जीव नरक रूपी नगरी के मुख्य साभागृह में प्रवेश करता है। जिस ओपेनहाइमर के बारे में कहा जाता है कि वे श्रीमद्भगवतगीता से बेहद प्रभावित थे, वे अपने वास्तविक जीवन में ऐसे रहे होंगे, जैसा कि फिल्म में दिखाया गया है, विश्वास नहीं होता। मैसाचुसेट्स विश्वविद्यालय प्रोफेसर जेम्स ए हिजिया की प्रसिद्ध पुस्तक है – द गीता ऑफ जे रॉबर्ट ओपेनहाइमर। इसमें बतलाया गया कि ओपेनहाइमर किस तरह श्रीमद्भगवतगीता से प्रभावित थे और गीता के अध्ययन के लिए संस्कृत भाषा सीखी थी। खुद ओपेनहाइमर के बयानों से भी यही साबित हुआ कि गीता के कर्मयोग-सिद्धांत का उनके जीवन पर गहरा असर था। उन्होंने कहा था, कि उन्होंने अपना धर्म निभाया था। परमाणु शक्ति का उपयोग किस तरह करना है, यह सरकार को सोचना था।    

परमाणु विज्ञान की विकास यात्रा में यही वह मोड़ है, जहां स्वामी विवेकानंद का कथन प्रासंगिक हो जाता है। स्वामी जी ने कहा था कि अध्यात्म और विज्ञान एक दूसरे का पूरक है। अध्यात्म के बिना विज्ञान अंधा है। विज्ञान को जहां अध्यात्म से मानवीयता की सीख लेने की जरूरत है, वहीं अध्यात्म के क्षेत्र में वैज्ञानिक पद्धतियों के प्रयोग की आवश्यकता है। पर पहले ओपेनहाइमर के बारे में थोड़ा और जान लीजिए। ओपेनहाइमर ही वह भौतिक विज्ञानी थे, जिन्होंने परमाणु बम बनाने की अमेरिका की एक गुप्त परियोजना की अगुआई की थी और उसका सफलतापूर्वक परीक्षण किया था। वही परमाणु बम सन् 1945 में जापान के लिए काल बन गया था।    

दरअसल, परमाणु परीक्षण के साथ ही ओपेनहाइमर को अहसास हो चुका था कि उन्होंने जो किया, वह दुनिया को विनाश के कगार पर पहुंचा दे सकता है। तभी उनके मुख से श्रीकृष्ण का यह वाक्य सहसा निकल पड़ा था – मैं काल हूँ और दुनिया का संहार करने वाला हूं। श्रीमद्भगवतगीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपना विराट स्वरूप दिखाते हुए कहा था – मैं वास्तव में काल हूँ और लोक-संहारके लिए ही बढ़ रहा हूँ। यह देखो, मेरे अनन्त मुख फैले हुए हैं और अब यह सम्पूर्ण विश्व मैं निगल जाऊँगा।” जापान पर परमाणु हमले के साथ ही ओपेनहाइमर की आशंका सत्य में तब्दील हो चुकी थी। वे उस घटना इतने विचलित हुए थे कि परमाणु बम के विरोध में मुखर होकर बोलने लगे थे।

खैर, इस घटना से साबित हुआ कि वास्तव में अध्यात्म के बिना विज्ञान अंधा है। तभी जिस शक्ति का उपयोग राष्ट्र के कल्याण के लिए किया जा सकता था, उसका प्रयोग विध्वंस के लिए कर दिया गया। इस घटना से द्वितीय विश्व युद्ध भले रूक गया। पर राष्ट्रों के बीच परमाणु हथियारों की होड़ शुरू हो गई थी। ओपेनहाइमर ने भले श्रीमद्भगवतगीता के ग्यारहवे अध्याय के 32वें श्लोक ऐसी घटना के लिए उद्धृत कर दिया। पर वह विध्वंसकारी घटना महाभारत के निहितार्थ से से बिल्कुल मेल नहीं खाती। श्रीकृष्ण अधर्म के विरूद्ध थे। उन्होंने अपनी यौगिक शक्तियों से देख लिया था कि कौरवों का हश्र क्या होना है। इसलिए अर्जुन को उस विध्वंस का केवल माध्यम बनना था। पर जापान के साथ तो अधर्म हुआ। अमेरिका के पास ऐसी आध्यात्मिक शक्ति नहीं थी, जो उसे भौतिक शक्तियों का दुरूपयोग करने से रोकती।   

अध्यात्मिक शक्ति बनाम वैज्ञानिक शक्ति पर मत-मतांतर सदैव चलता रहता है। हालांकि सुखद है कि बीते कुछ दशकों में परिस्थितियां बदली हैं। हमारे ऋषि कहते रहे हैं कि मानव की छिपी हुई क्षमता को मंत्रों की शक्ति से जागृत किया जा सकता है। आधुनिक युग में विभिन्न प्रयोगों के बाद पश्चिम के वैज्ञानिक भी मोटे तौर पर इसी निष्कर्ष पर हैं। पर आज भी ऐसे बुद्धिजीवी मिलते हैं, जो यह मानने को तैयार नहीं हैं कि महाभारत के दौरान कौरवों का हश्र पूर्व निर्धारित था, जबकि पश्चिम की प्रयोगशाला में ही साबित किया जा चुका है कि हमारे लिए जो घटनाएं भविष्य में घटित होती हैं, वे प्रकाश के जगत में पहले ही घटित हो चुकी होती हैं। वैदिक ग्रंथों में ऐसा दावा पहले से किया जाता रहा है। इसलिए विज्ञान की कसौटी पर भी मानना होगा कि श्रीकृष्ण ने कौरवों के काल में विनाश की जो तस्वीर प्रस्तुत की थी, वह उनकी कल्पना नहीं, बल्कि सच्चाई थी।

ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में डिलाबार प्रयोगशाला अनूठी है। वहां आध्यात्मिक उपलब्धियों के आधार पर कई सफल प्रयोग किए जा चुके हैं। वहां एक प्रयोग के दौरान वैज्ञानिकों ने देखा कि फूल की कली खिलने के पहले फूल की पत्तियों से जो किरणें निकल रही थी, वे खिल कर पंखुड़ियों के खिलने का रास्ता बनाने लगी थीं। यानी जो पंखुड़ियां हमारी नजर में बाद में खिली थीं, वे प्रकाश की किरणों में पहले ही खिल चुकी थीं। इस प्रयोग के बाद वैज्ञानिकों को भरोसा है कि मानव की मौत से महीनों पहले उसकी आभा धूमिल होने लगती होगी। इसलिए कि प्रयोग में देखा गया कि फूल खिलते समय प्रकाशमंडल की जो किरणें बाहर जा रही थी, उसके लौटकर अपने में गिरने के साथ ही फूल मुरझा गया था। इसी सिद्धांत के आधार पर मानव का जीवन भी चलता होगा।

बीसवीं शताब्दी में भारत के संतों ने भी पश्चिम का रूख शायद इसलिए किया था कि उन्हें भान था कि वैज्ञानिक उपलब्धियों वाले देशों में अध्यात्म की जरूरत ज्यादा है। इसके अभाव में उनकी शक्तियां अनर्थकारी हो जाएंगी। एक फिल्मकार के तौर पर क्रिस्टोफ़र एडवर्ड नोलेन के पास भी बेहतरीन अवसर था, पर वे चूक गए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)  

चिकित्सा विज्ञान ने भी माना बिहार योग का लोहा

किशोर कुमार //

 

चिकित्सा विज्ञान ने भी बिहार योग या सत्यानंद योग का लोहा मान लिया है। इस योग के प्रवर्तक और बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती के योग से रोग भगाने संबंधी अनुसंधानों को आधार बनाकर अगल-अलग देशों के चिकित्सकों व चिकित्सा अनुसंधान संस्थानों ने अध्ययन किया और स्वामी जी के शोध नतीजों को कसौटी पर सौ फीसदी खरा पाया।

बिहार के मुंगेर स्थित विश्व प्रसिद्ध बिहार योग विद्यालय की स्थापना के 50 साल पूरे होने पर मुंगेर में 2013 में विश्व योग सम्मेलन हुआ तो उसमें भी बिहार योग या सत्यानंद योग पर वैज्ञानिक अध्ययनों के प्रभावों पर भी खूब चर्चा हुई थी। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने तांत्रिक योग की प्रधानता के साथ योग के सभी घटकों को मिलाकर समन्वित योग विकसित कर रखा है। तांत्रिक योग की इस पद्धति में कुंडलिनी योग, क्रियायोग, मंत्रयोग, लययोग और प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि के उच्च स्तरों के अभ्यास शामिल हैं। स्वामी जी ने वेदों से भक्तियोग, कर्मयोग, ज्ञानयोग, और चक्रों के सिद्धांत को विभिन्न घटकों के रूप में लिया और ध्यान की पद्धतियां भी विकसित कीं।

पर “योग निद्रा” स्वामी जी का दुनिया को दिया गया अमूल्य उपहार है। योग निद्रा के प्रभाव से कई असाध्य रोग जड़ से समाप्त हो रहे हैं। कई रोगों को नियंत्रण में रखने में सफलता मिल रही है। इसमें कैंसर जैसी घातक बीमारी भी शामिल है। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने तंत्र शास्त्र में वर्णित न्यास पद्धति के गूढ़ ज्ञान को वैज्ञानिक ढ़ंग से विकसित करके योग निद्रा दुनिया के सामने लाया था। उन्होंने लंबे अनुसंधानों और अनुभवों से साबित कर दिया कि “योग निद्रा” के अभ्यास से संकल्प-शक्ति को जागृत कर आचार-विचार, दृष्टिकोण, भावनाओं और सम्पूर्ण जीवन की दिशा को बदला जा सकता हैं।

योग निद्रा केवल तनाव दूर करने और गहन शारीरिक विश्राम व शिथिलता प्राप्त करने की एक विधि मात्र नहीं है, बल्कि प्रयोगों से साबित हो चुका है कि यह सीखने की क्षमता में वृद्धि का एक अत्यंत प्रभावशाली माध्यम है। स्वामी जी तो यहां तक मानते हैं कि वह समय भी आएगा जब सभी उम्र के विद्यार्थियों को योग निद्रा के माध्यम से शिक्षा दी जाएगी। उनकी यह बात हकीकत में बदलती दिख रही है और कई देश इस दिशा में आगे बढ़ भी चुके हैं।

आधुनिक शिक्षा पद्धति में जहां कहीं भी इस विद्या का प्रयोग किया गया है, उसके बेहतर नतीजे देखने को मिले हैं। बुल्गारियन मनोवैज्ञानिक व इंस्टीच्यूट ऑफ सजेस्टोपेडी इन सोफिया के संस्थापक डॉ जॉर्जी लोजानोव योग निद्रा का प्रयोग शिक्षा के क्षेत्र में एक नया वातावरण तैयार करने के लिए कर रहे हैं। ताकि बिना प्रयास के ज्ञान अर्जन किया जा सके। उन्हें इसमें सफलता भी मिल रही है।

अमेरिका के फ्लोरिडा यूनिवर्सिटी के मनोवैज्ञानिकों ने अपने अध्ययन के दौरान बीस छात्रों को पांच दिनों में योग निद्रा के जरिए रूसी भाषा सिखा दी, जबकि इनका रूसी भाषा से दूर-दूर का रिश्ता नहीं था। इन सभी विद्यार्थियों को निद्रा की अवस्था में रूसी संज्ञाओं को उनके अंग्रेजी समानार्थी शब्दों के साथ सुनाया गया। मशीनों के संकेतकों से पता चला कि शुरू की तीन रातों में स्मरण शक्ति 10 फीसदी की दर से बढ़ रही थी जो अंतिम दो रातों में बढ़कर 13 फीसदी हो गई थी। इससे पता चला कि नींद में सीखने की प्रक्रिया समय के साथ प्रगति कर रही है। यह प्रयोग शुरू करने से पहले ईईजी मशीन से जांच करके यह सुनिश्चित किया गया था कि विद्यार्थी सामान्य जागृत अवस्था में नहीं हैं और वे अंतर्मुखी हो गए हैं।

वैसे स्वमी सत्यानंद सरस्वती वर्षों पहले यह प्रयोग अपने उत्तराधिकारी और बिहार योग विद्यालय व विश्व योगपीठ के परमाचार्य परमहंस स्वामा निरंजनानंद सरस्वती पर कर चुके थे। स्वामी निरंजन चार साल की अवस्था में आश्रम आ गए थे। उनकी औपचारिक शिक्षा कुछ भी नहीं है। पर योग निद्रा के जरिए दी गई शिक्षा की बदौलत वह ज्ञान का उच्चतम मुकाम हासिल कर चुके हैं। बीते साल मुंगर के पोलो मैदान में विश्व योग सम्मेलन हुआ तो उसमें आए 56 देशों के प्रतिनिधियों ने अपनी भाषा में व्याख्यान दिया और स्वामी निरंजनानंद सरस्वती तुरंत ही उसे अंग्रेजी और हिंदी में अनुवाद करके बोलते गए थे। 

मनोवैज्ञानिक रोग, अनिद्रा, तनाव, नशीली दवाओं के प्रभाव से मुक्ति, दर्द का निवारण, दमा, पेप्टिक अल्सर, कैंसर, हृदय रोग आदि बीमारियों पर किए गए अनुसंधानों से योग निद्रा के सकारात्मक प्रभावों का पता चल चुका है। अमेरिका के स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ मेडिसिन में किए गए एक अध्ययन में देखा गया कि योग निद्रा के नियमित अभ्यास से रक्तचाप की समस्या का निवारण होता है। अमेरिका के शोधकर्ताओं ने योग निद्रा को कैंसर की एक सफल चिकित्सा पद्धति के रूप में स्वीकार किया है। टेक्सास के रिडियोथैरापिस्ट डा. ओसी सीमोनटन ने एक प्रयोग में पाया कि रेडियोथेरापी से गुजर रहे कैंसर के रोगी को योग निद्रा के अभ्यास से उसका जीवन-काल काफी बढ़ गया था।

योग निद्रा का उपयोग भविष्य में आने वाली परेशानियों का सामना करने के लिए किया जाने लगा है। हाल के कुछ वर्षों में कुछ महान खिलाड़ियों और खेल प्रशिक्षकों ने योग निद्रा का प्रयोग अपनी क्षमता बढाने के लिए किया था। उसके नतीजे सामने आ भी रहे हैं। अमेरिका के पीट्सबर्ग स्थित प्रेसबाईटेरियन यूनिवर्सिटी कालेज हॉस्पीटल की ओर से किए गए अनुसंधान से पता चल चुका है कि योग निद्रा दर्द से मुक्ति दिलाती है। इस अध्ययन में शामिल हुए 54 रोगियों को योग निद्रा की बदौलत दर्द निवारक दवाइयों से मुक्ति मिल गई थी।

स्वामी सत्यानंद कहा करते थे – “अधिकतर लोग अपने तनावों का निराकरण किए बिना सोते हैं। इसे निद्रा कहते हैं। पर योग निद्रा का अर्थ है सभी बोझो को उतार कर सोना। यह एक महत्वपूर्ण विधि है जिसकी बदौलत जीवन आनंदमय बन जाता है।“ वाकई, जिन लोगों ने योग निद्रा को आत्मसात् कर लिया है, उन्हें इसकी अच्छाइयों की अनुभूति निश्चित रूप से होती है।  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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