नववर्ष : नई आशाओं और नए संकल्पों का दिवस

किशोर कुमार      

हम अपनी मान्यताओं के आधार पर किसी भी दिवस को नववर्ष के रूप में मना लें, पर शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक रूप से खुद में बदलाहट का संकल्प लेकर तदनुरूप दृढ़ इच्छा-शक्ति का विकास नहीं कर पाएं तो समझिए कि यह दिवस व्यर्थ गया। हम इंद्रियों का दास बने रहकर भौतिक सुखों यथा मदिरा-मांस व नाना प्रकार की अपसंस्कृतियों के पीछे ही भागते रह गए तो इस दिवस को वर्ष के बाकी दिवसों से भी बदत्तर समझिए। नववर्ष की सार्थकता तब है, जब हम शराब के साथ नहीं, बल्कि परमात्मा की उपस्थिति महसूस करते हुए जश्न मनाएंगे। सिर्फ वाईफाई से जुड़कर नहीं, बल्कि खुद से पूछकर जश्न मनाएंगे कि मैं कौन हूं?  मैं यहाँ क्यों हूँ? मेरा उद्देश्य क्या है? तब जीवन रूपांतरित होगा और नववर्ष सार्थक हो जाएगा।

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती जैसे महान संत के गुरू और ऋषिकेश स्थित दिव्य जीवन संघ के संस्थापक  स्वामी शिवनांद सरस्वती नववर्ष पर अपने शिष्यों से कहते थे – नववर्ष में एक नवीन जीवन प्रारम्भ कीजिए। अपने दोषों-दुर्बलताओं पर धैर्यपूर्वक विजय प्राप्त करिए। एक सच्चे साधक और योगी बनने का दृढ संकल्प करिए। नववर्ष आपके सामने एक नवीन पुस्तिका की भाँति होना चाहिए। इस पुस्तिका के एक नूतन पृष्ठ पर प्रेम एवं एकत्व के सन्देश को अंकित कीजिए। इस पृष्ठ पर स्वर्णिम अक्षरों में लिखिए – केवल प्रेम द्वारा ही घृणा पर विजय प्राप्त की जा सकती है तथा मानव की सेवा ईश्वर की आराधना है। अपने समक्ष उच्च प्रेम, भ्रातृत्व, करुणा एवं क्षमा के आदर्श को सदैव रखिए। अपने प्रत्येक शब्द एवं कर्म में इन आदर्शों को अभिव्यक्त करिए तथा इस नववर्ष को एक दिव्य नवीन युग के अवतरण का माध्यम बनाइए।

पर ये उपलब्धियां कैसे हासिल होंगी? महान योगियों और महापुरूषों के जीवन का संदेश है कि धैर्य रखिए और सद्गुणों के विकास के लिए इच्छा-शक्ति को प्रबल कीजिए। फिर काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार जैसे दुर्गुणों करने का प्रयास कीजिए। किसी ने ठीक ही कहा है कि तन जितना घूमता रहे उतना ही स्वस्थ रहता है और मन जितना स्थिर रहे उतना ही स्वस्थ रहता है। पर हमारा जीवन प्राय: इसके उलट होता है। ऐसे में सद्गुणों के विकास के लिए एकाग्रता और इच्छा-शक्ति प्रबल करने की कल्पना भी कैसे की जा सकती है। जब मन एकाग्र नहीं होता है तो हम अधीर बने रहते हैं। यहां तक की प्रभु की कृपा के लिए भी शॉर्टकट खोजते रहते हैं। फिर तो प्रेम, सेवा, करूणा आदि की बातें भी बेमानी हो जाती हैं। नतीजतन, हमारे जीवन में काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार जैसे दुर्गुणों की प्रबलता बनी रह जाती है।

नए वर्ष में जीवन कहां से शुरू करें कि सद्गुणों का विकास हो सके? स्वामी सत्यानंद सरस्वती की शिक्षा है कि बात यम-नियम से शुरू हो तो सबसे अच्छा। वरना, प्रारंभ शंखप्रक्षालन से कीजिए।  हठयोग में यह अतिश्रेष्ठ क्रिया है। इसके द्वारा शरीर के भीतर की अशुद्धियाँ, पुराने मल का संचय बहिष्कृत किया जाता है। उसी तरह मन को निर्मल करने हेतु मन का शंखप्रक्षालन आवश्यक है। शारीरिक शंखप्रक्षालन में पहले कष्ट होता है, उन कष्टों से विजय प्राप्त करके ही स्वस्थ, रोगरहित, हल्के शरीर की प्राप्ति होती है। इसी तरह मन में वासनाओं की गन्दगी भरी पड़ी है। कुसंस्कारों, दुर्विचारों एवं वासनाओं का पुंज ही तो है यह मन। यह गन्दगी न्यूनाधिक रूप में सबके भीतर विद्यमान है। आप इसे जान भी कैसे सकेंगे? इस हेतु योगशास्व में एक उत्तम क्रिया है, जिसे अनार्मौन कहा जाता है। शंखप्रक्षालन में नमक और पानी का जो कार्य है, वही कार्य अन्तमौन में मंत्र-जप का है। मंत्र-जप के साथ जीवन की गहराई से विचार उठते हैं। भले-बुरे, जैसे भी हों, अच्छे के लिए होते हैं। इन्हें भीतरी सफाई का लक्षण मानिए। मंत्रों की बड़ी महिमा है। मंत्रों की परिभाषा में कहा गया है कि मंत्र वह शक्ति है, जो मन के उसके बंधनों से स्वतंत्र कर देती है।

इन यौगिक क्रियाओं से इच्छा-शक्ति प्रबल बनाने और आध्यात्मिक उन्नति की जमीन तैयार हो जाती है। बीसवीं सदी के महान संत परमहंस योगानंद ने सन् 1944 में नववर्ष के लिए दिए गए अपने संदेश में कहा था कि उनकी सफलता का रहस्य इच्छा-शक्ति ही थी। वे इसी इच्छा-शक्ति की बदौलत इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि भाग्य वैसा है, जैसा आप इसे बनाते हैं। पर यदि हमारी इच्छा अनुचित है या प्रकृति के नियमों के विरूद्ध है तो बात कैसे बनेगी। ध्यान रहे कि जीवन में ईश्वर का सच्चा पुत्र बनने की अपेक्षा एक करोड़पति बनने का प्रयास करना वास्तव में बहुत अधिक कठिन है। ईश्वर ने करोड़पति नहीं, बल्कि अपने जैसा बनने की शक्ति प्रत्येक व्यक्ति को समान रूप से दे रखी है। और जब आप देवत्व पर अधिकार करते हैं तो प्रत्येक वस्तु आपकी हो जाती है।

इसलिए शंखप्रक्षालन और अंतर्मौन से योगमय जीवन की जमीन तैयार हो जाए तो निष्काम कर्मयोग का साधक बनाना जीवन को रूपांतरित करने के लिए श्रेयस्कर है। श्रीमद्भगवतगीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, हे अर्जुन, योग में स्थित रहकर, सफलता और असफलता के प्रति तटस्थ रहते हुए फलों के प्रति आसक्ति का त्याग करके अपने सभी कर्म करते रहो। यह मानसिक समता ही योग कहलाता है। योगी कहते हैं कि यह अवस्था ध्यान की अवस्था या उससे भी बढ़कर है। श्रीकृष्ण द्वितीय अध्याय के इस सूत्र की महत्ता बारहवें अध्याय में बतलाते हैं। वे कहते है कि अभ्यास योग से ज्ञान योग उत्तम है। ज्ञान योग से ध्यान योग उत्तम है और ध्यान योग से कर्मफल का त्याग उत्तम है। क्यों? इसलिए कि कर्मफल के त्याग से तत्क्षण शांति उपलब्ध हो जाती है। जीवन रूपातंरित हो जाता है।   

नववर्ष आत्म-विश्लेषण, आत्म-विकास और आत्म-समपर्ण का दिन है। इसलिए हमें शांति से बैठकर आत-निरीक्षण करने की कोशिश करनी चाहिए। जीवन को रूपातंरित करने वाले नए संकल्प लेनी चाहिए। हमारे गुरूजी कहते थे कि यदि महान कार्य करना चाहते हो तो लघुतम से प्रयास करो। यदि महान बनाना चाहते हो तो अति विनम्र और छोटे बनो। यदि सिद्ध बनना चाहते हो तो सूक्ष्मतिसूक्ष्म अवगुण से उन्मूलन का अभियान प्रारंभ करो। यदि तुम कुछ बनना चाहते हो तो “मैं कुछ नहीं हू” बनो। कुछ नहीं हूं का भाव है अहंकार रहित होने का भाव है, जो निष्काम कर्मयोग से प्राप्त होता है। उसी की बुनियाद पर सुखद, समृद्ध और आनंदमय जीवन का महल खड़ा होता है। नववर्ष की शुभकामनाएं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

मंडे ब्लूज : योग है इस मर्ज की दवा

किशोर कुमार

“मंडे ब्लूज” यानी कार्यदिवस के पहले दिन ही काम के प्रति अरूचि। पाश्चात्य देशों में आम हो चुका यह रोग अब भारतीय युवाओं को भी तेजी से अपने आगोश में ले रहा है। भारत भूमि तो जगत्गुरू शंकाराचार्य, स्वामी विवेकानंद और महात्मा गांधी जैसे आध्यात्मिक नेताओं और कर्मयोगियों की भूमि रही है। फिर मंडे ब्लूज के रूप में पाश्चात्य देशों की अपसंस्कृति अपने देश कैसे पसर गई? स्वामी विवेकानंद की युवाओं से अपील कि “उठो, जागो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य ना प्राप्त हो जाए” तथा “काल करे सो आज कर, आज करे सो अब…” जैसी कबीर वाणी को आत्मसात करने वाले देश की युवा-शक्ति ही राष्ट्रीय चरित्र को बनाए रखने के लिए आध्यात्मिक और राजनैतिक क्रांति का बिगुल बजाती रही हैं। फिर चूक कहां हो रही है कि कर्म बोझ बनता जा रहा है?

इस मर्ज को लेकर कई स्तरों पर अध्ययन किया गया है। मैं उसके विस्तार में नहीं जाऊंगा। पर सभी अध्ययनों का सार यह है कि गलत जीवन शैली और नकारात्मक विचार व व्यवहार मंडे ब्लूज जैसी परिस्थितियों के लिए ज्यादा जिम्मेवार होते हैं। वैदिक ग्रंथों में मानसिक पीड़ाओं को तीन वर्गों में विभाजित किया गया है – आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक। बिहार योग विद्यालय के निवृत परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती समझाने के लिए इसे क्रमश: देवताकृत, परिस्थितिकृत और स्वकृत कहते हैं। जाहिर है कि तीसरे प्रकार के दु:ख के लिए हम स्वयं जिम्मेवार होते हैं और मौजूदा समस्या की जड़ में वही है। हम हर वक्त काम, क्रोध, लोभ, मोह व अहंकार से घिरे होते हैं। कोरोना महामारी कोढ़ में खाज की तरह है। ऐसे में मानसिक पीड़ा और अवसाद होना लाजिमी ही है।

यह समस्या लंबे अंतराल में साइकोसिस और न्यूरोसिस जैसे हालात बनती है। साइकोसिस यानी कोई समस्या न होने पर भी मानसिक भ्रांतियों के कारण हमें लगता है समस्या विकराल है। दूसरी तरफ न्यूरोसिस की स्थिति में समस्या कहीं होती है और हम उसे ढूंढ़ कही और रहे होते हैं। योगशास्त्र में साइकोसिस को माया और न्यूरोसिस को अविद्या कहते हैं। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि प्रेम व घृणा, आकर्षण व विकर्षण, दु:ख व सुख ये सभी मन के इन्हीं दो दृटिकोणों के कारण उत्पन्न होता है। उपनिषदों में भी कहा गया है कि यदि किसी को पत्नी प्यारी लगती है तो इस प्रेम का कारण पत्नी में नहीं, व्यक्ति के स्वंय में है।

परमहंस योगानंद के गुरू युक्तेश्व गिरि मन की शक्ति की व्याख्या करते कहते थे – लक्ष्यहीन दौड़ में शामिल लोग निराश और नाना प्रकार की मनासिक पीड़ाओं के शिकार होते हैं। जबकि मन की शक्ति इतनी प्रबल है कि दृढ़ इच्छा-शक्ति हो और चाहत उस चीज को पाने की हो, तो ब्रह्मांड में नहीं होने पर भी उसे उत्पन्न कर दिया जाएगा। बस, इच्छा ईश्वरीय होनी चाहिए। सवाल है कि क्या इस शक्तिशाली मन का प्रबंधन संभव है और है तो किस तरह? योगशास्त्र में अनेक उपाय बतलाए गए हैं, जिनके अभ्यास से मानव न सिर्फ अवसाद से उबरेगा, बल्कि कर्मयोगी बनकर राष्ट्र के नवनिर्माण में महती भूमिका निभाएगा।  

इसे ऐसे समझिए कि यदि मानव लोहा है तो योग पारस है। इन दोंनों का मेल होते ही कुंदन बनते देर न लगेगी। मानव में वह शक्ति है। बस, योगियों से मार्ग-दर्शन पा कर मन पर नियंत्रण करके अपनी ऊर्जा को सही दिशा देने के प्रति श्रद्धा और इच्छा-शक्ति होनी चाहिए। अष्टांग योग से लेकर कर्मयोग और भक्तियोग तक में अनेक उपाय बतलाए गए हैं, जो अलग-अलग व्यक्तियों के लिए उनकी सुविधा के लिहाज से अनुकूल होंगे। तंत्र-शास्त्र का अद्भुत ग्रंथ है रूद्रयामल तंत्र। उसमें महायोगी शिव कहते हैं कि योग एक ऐसा माध्यम है, जिससे मनुष्य अपने दु:खों से छुटकारा पा सकता है। इस बात को विस्तार मिलता है माता पार्वती के सवाल से। वह शंकर भगवान से पूछती हैं कि चंचल मन को किस विधि काबू में किया जाए? प्रत्युत्तर में महायोगी 112 उपाय बतलाते है और कहते हैं कि इनमें से कोई भी उपाय कारगर है। ये उपाय ही आधुनिक योग में धारणा और ध्यान की प्रचलित विधियां बने हुए हैं।

श्रीमद्भागवतगीता तो अपने आप में पूर्ण मनोविज्ञान और योगशास्त्र ही है। उसके मुताबिक, अर्जुन श्रीकृष्ण से पूछते हैं – हे कृष्ण, मन चंचल है, प्रमथन करने वाला है, बली और दृढ़ है। इसका निग्रह वायु के समान दुष्कर है। जबाव में श्रीकृष्ण ने कर्मयोग और भक्तियोग के जो उपाय बतलाए उसके लाभों को आधुनिक विज्ञान भी संदेह से परे मानता है। महर्षि पतंजलि के अष्टांगयोग के चमत्कारिक प्रभावों से भी हम सब वाकिफ हैं। असल सवाल ऐसी परिस्थिति में व्यक्ति के अनुकूल योगाभ्यास के चुनाव का है। श्रीमद्भागवत महापुराण में कथा है कि नारद पृथ्वीलोक पर विचरण करते हुए यमुनाजी के तट पर पहुंचे तो उनका सामना भक्ति से हो गया, जो अपने दोनों पुत्रों ज्ञान और वैराग्य की पीड़ाओं से बेहाल थी।

कर्नाटक में पली-बढ़ी और गुजरात में वृद्धावस्था प्राप्त करके जीर्ण-शीर्ण हुई भक्ति के पांव वृंदावन की धरती पर पड़ते ही पुन: सुरूपवती नवयुवती बन गई थी। पर उसके पुत्र अधेर और रोगग्रस्त ही रह गए थे। यही उसके विषाद का कारण था। भक्ति नारद जी से इसकी वजह और इस स्थिति से उबरने के उपाय जानना चाहती थी। नारद जी ने ध्यान लगाया और उन्हें उत्तर मिल गया। उन्होंने भक्ति को बतलाया कि कलियुग के प्रभाव के कारण ज्ञान और वैराग्य निस्तेज पड़े हैं। कलियुग में मानव भक्ति तो करता है, पर उसके जीवन में न तो ज्ञान यानी आत्म-दर्शन का स्थान है और न ही वैराग्य का। इसलिए श्रीमद्भागवत कथा ज्ञान महायज्ञ से ही बात बनेगी। दैवयोग से ऐसा ही हुआ।    

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती से किसी साधक ने पूछ लिया कि मन अशांत रहता है और काम में जी नहीं लगता, क्या करें?  परमहंस जी ने जबाव दिया – आसन-प्राणायाम से बीमारी दूर होती है, प्रत्याहार-ध्यान से आत्म-सम्मोहन होता है। इसलिए ये स्थायी उपाय नहीं हैं। यदि स्थायी उपाय चाहिए तो भक्तियोग और कर्मयोग का सहारा लेना होगा। कलियुग में ये ही उपाय हैं। भक्तियोग के तहत संकीर्तन, जप, अजपाजप आदि। इतना ही काफी है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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