आयुष शिखर सम्मेलन : योगियों और चिकित्सा विज्ञानियों का महाकुंभ

किशोर कुमार //

वेदों में आचार, व्यवहार, आध्यात्मिक जीवन, ज्योतिष आदि जीवन के विविध आयाम हैं तो स्वास्थ्य – चिकित्सा भी एक महत्वपूर्ण आयाम है। सच कहिए तो चिकित्सा की पारंपरिक प्रणालियों की जड़ें वेदों में निहित है। चिकित्सा की जितनी भी पारंपरिक प्रणालियों से हम सब वाकिफ हैं, उन सबका संबंध किसी न किसी देवता से माना गया है। वेद ग्रंथों में इसका उल्लेख जगह-जगह मिलता है। जैसे, चरक संहिता हो या सुश्रुत संहिता, दोनों में ब्रह्मा जी को ही प्रथम उपदेष्टा माना गया है। इसी तरह भगवान शिव आदियोगी तो हैं हीं, ऋग्वेद में उनका वर्णन एक चिकित्सक के रूप में भी मिलता है। अश्विनी कुमार तो देवताओं के चिकित्सक ही थे। इसी तरह सूर्य, सोम, वरूण आदि देवताओं का भी उल्लेख है।   

यह सुखद है कि भारतीय चिकित्सा की इन पारंपरिक प्रणालियों का विज्ञानसम्मत तरीके से संवर्द्धन करके उन्हें जनोपयोगी बनाने के लिए कोशिशें की जा रही हैं। सरकार पूर्व की मन:स्थिति से बाहर निकल कर इन विद्याओं के विकास के लिए गंभीर पहल कर रही है। पर इसके साथ ही एक सवाल भी है कि क्या उनका वास्तविक संवर्द्धन केवल सरकार के भरोसे संभव है? इतिहास साक्षी है कि प्राचीन काल से ही इन विद्याओं के संवर्द्धन औऱ प्रसार में योगियों और चिकित्सा विज्ञानियों की भूमिका राजसत्ता से गुरूत्तर रही है। चिकित्सा की ये प्रणालियां आधुनिक युग की विशिष्ट मांग है। इसलिए जरूरी है कि गैर सरकारी स्तर पर भी वैज्ञानिक तरीके से इन विद्याओं का संवर्द्धन और प्रसार किया जाए।

इस बात को विस्तार देने से पहले स्वामी विवेकानंद से जुड़ा एक बहुप्रचारित प्रसंग। कन्याकुमारी स्थित समुद्र के तट पर पत्थर का एक टीला है। आजकल उसे विवेकानंद रॉक मेमोरियल कहा जाता है। शिव पुराण की कथा है कि माता पार्वती का पुण्याक्षी कन्याकुमारी के रूप मे जन्म हुआ था। बड़ी हुईं तो शिव जी से विवाह के लिए उसी रॉक पर बैठकर तपस्या की थी। स्वामी विवेकानंद अमेरिका में आयोजित विश्व धर्मसभा में भाग लेने जाने से पहले कन्याकुमारी गए तो समुद्र में तैरकर उसी रॉक पर जा पहुंचे थे। तीन दिनों तक लगातार तपस्या की। वहीं उन्हें प्रेरणा मिली थी कि भविष्य में जीनव का लक्ष्य क्या होना चाहिए और उसे हासिल करने के लिए क्या करना है।     

हम जानते हैं कि किसी भी साधना में या व्यापक बदलाव के लिए क्रांति-बीज बोने हेतु शब्द का और स्थान का बड़ा महत्व होता है। योगियों ने समान रूप से महसूस किया कि दीर्घकालीन मानवी गतिविधियां स्थानीय तरंगों की प्रकृति को अपने स्वभाव के अनुरूप ढाल देती है। दरअसल, जिस धरती पर पुण्य-कार्य होता है, वहां व्यापक रूप से सकारात्मक ऊर्जा तरंगों की प्रधानता होती है। आज भी कन्याकुमारी में उच्च चेतना के धरातल पर सकारात्मक ऊर्जा का सतत् प्रवाह स्पष्ट महसूस किया जाता है। यह सुखद है कि उसी धरती से चिकित्सा की पारंपरिक भारतीय प्रणालियों के संवर्द्धन और प्रसार के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर शंखनाद होने जा रहा है। तीन दिनों का अंतर्राष्ट्रीय आयुष शिखर सम्मेलन 27 – 29 जनवरी को होना है, जिसे योगियों, चिकित्सा विज्ञानियों और अनुंसधानकर्त्ताओं का महाकुंभ कहना ज्यादा उपयुक्त होगा। ऐसे में जाहिर है कि सकारात्मक ऊर्जा से परिपूर्ण स्थान से गुणीजन संदेश देंगे, भविष्य के लिए कुछ बेहतर करने की ठान लेंगे तो उसका असर दूर तक होगा।

अंतर्राष्ट्रीय आयुष शिखर सम्मेलन का उद्देश्य आयुष चिकित्सा प्रणालियों  यथा आयुर्वेद, योग व प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी, सिद्ध और होम्योपैथी के विविध आयामों पर गुणवत्तापूर्ण अनुसंधान और अर्थपूर्ण शैक्षणिक संवाद को बढ़ावा देना है। ताकि आयुष सेवाएं असरदार, विज्ञान की कसौटी पर खरी, किफायती और जनसुलभ बन सके। बात योग की करें तो इस शिखर सम्मेलन की गंभीरता का अंदाज इससे लगता है कि इसमें आसन, प्राणायाम से आगे की बात होनी है। मंथन इस बात को लेकर होनी है कि देश में बढ़ती मनोदैहिक बीमारियों के लिए योग की विधियों का समायोजन किस प्रकार किया जाए कि वे वैज्ञानिक रूप से स्वीकार्य हों। योग और प्राकृतिक चिकित्सा के बीच के अंतर्संबधों को वैज्ञानिक रूप से परिभाषित करके उसे जनसुलभ किस प्रकार बनाया जाए। आदि आदि।    

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर योग के विभिन्न पक्षों पर जितना शोध मौजूदा समय में हो रहा है, उतना पहले कभी नहीं हुआ। उस लिहाज से कहा जा सकता है कि यह योग विज्ञान के लिए स्वर्णिम काल है। पश्चिमी देशों में शोध का फलक भारत की तुलना में कई गुणा बड़ा है। दो कारणो से। पहला तो यह कि उनके पास बुनियादी ढ़ांचा हमसे कहीं ज्यादा है। दूसरा यह कि वे जान गए हैं कि दुनिया में ऐसा कोई विज्ञान नहीं है, जो शरीर, मन और चेतना के विकास के लिए एक साथ काम कर सके। बावजूद, मानव जीवन के कई ऐसे क्षेत्र हैं, जहां उनकी पहुंच नहीं बन पाई है। वे जीवन की कई घटनाओं के कारण और परिणाम के बीच संबंध जोड़ पाने में असमर्थ हैं।

पश्चिम के वैज्ञानिको के लिए आज भी यह रहस्य पूरी तरह सुलझा नहीं है कि संस्कृत सहित अनेक भाषाओं के विद्वान रहे आचार्य देवसेन को जिस पुस्तक को पढ़ने में सात दिन लग गए थे, उसी पुस्तक को स्वामी विवेकानंद ने महज आधा घंटा में किस तरह कंठस्थ कर लिया था। आचार्य देवसेन ने अपने संस्मरण में लिखा है – “मैंने स्वामी विवेकानंद से पूछा कि आपने आधा घंटा में पूरा किताब कैसे याद कर लिया? तो उन्होंने उत्तर दिया,  ‘जब तुम शरीर द्वारा अध्ययन करते हो तो एकाग्रता संभव नहीं है। जब तुम शरीर में बंधे नहीं होते, तो तुम किताब से सीधे—सीधे जुड़ते हो तुम्हारी चेतना सीधे—सीधे स्पर्श करती है। तब आधा घंटा भी पर्याप्त होता है।“

हम जानते हैं कि योग की एक प्राचीन संस्कृति रही है। पर कालांतर में यह संन्यासियों और योगियों तक ही सिमट कर रह गई।  स्वामी रामतीर्थ के एक प्रसंग से इस बात को समझा जा सकता है। स्वामी जी ने जापान के राजमहल में छोटे-से चिनार का पेड़ गमले में देखा तो हैरान रह गए। उन्हें यह जानकर और भी हैरानी कि वह पेड़ ढ़ाई सौ साल पुराना था। उन्होंने पूछा, “पेड़ जिंदा है क्या?” उन्हें बताया गया कि पेड़ जिंदा तो है, पर बढ़ नहीं सकता। इसलिए कि इसके नीचे की तीन जड़ें काटी जा चुकी हैं। यह सुनकर स्वामी रामतीर्थ ने कहा – लगता है कि मानव जाति का भी यही हाल है। उसकी भी तीन जड़े काटी जा चुकी हैं। इसलिए वह जिंदा तो है। पर आध्यात्मिक उन्नति नहीं कर पा रहा है।

सवाल है कि जड़ें किसने काटी? इस पर फिर कभी। बहरहाल, हमें भारतीय संतों का शुक्रगुजार होना चाहिए कि उनकी बदौलत समृद्ध योग की परंपरा बची रह गई। पर योग के मनीषियों के लिए यह चिंता का सबब बना हुआ कि दुनिया भर में फैले योग के अनेक कारोबारी अज्ञानता के कारण या व्यवसाय को आकर्षक बनाने के लिए योग विद्या के स्वरूप को विकृत कर दे रहे हैं। स्पष्टत: समय की मांग है कि हमें अपनी समृद्ध परंपरा को संरक्षित रखते हुए उसे उसी रूप में जनता तक पहुंचाने के लिए केवल सरकार के भरोसे नहीं रहकर गैर सरकारी स्तर पर ईमानदार कोशिशें करनी होगी। इस लिहाज से भी कन्याकुमारी में आयोजति अंतर्राष्ट्रीय आयुष शिखर सम्मेलन की महत्ता बढ़ जाती है। 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग…

भूल जाने की बीमारी हमारे जीवन की आम परिघटना है। पर लंबे समय में विविध लक्षणों के साथ यह लाइलाज अल्जाइमर और अनियंत्रित होकर डिमेंसिया में भी बदल जाती हो तो निश्चित रूप से हमें दो मिनट रूककर विचार करना चाहिए कि हम जिसे सामान्य परिघटना मान रहे हैं, कहीं उसमें भविष्य के लिए संकेत तो नहीं छिपा है। इसलिए विश्व अल्जाइमर दिवस (21 सितंबर) जागरूकता के लिहाज से हमारे लिए भी बड़े महत्व का है। आंकड़े बताते हैं कि भारत में इस रोग से ग्रसित लोगों की संख्या पांच मिलियन है और अगले आठ-नौ वर्षों में मरीजों की संख्या में डेढ़ गुणा वृद्धि हो जानी है। विश्वसनीय इलाज न होना चिंता का कारण है। पर हमारे पास योग की शक्ति है, जिसकी बदौलत हम चाहें तो इस लाइलाज बीमारी की चपेट में आने से बहुत हद तक बच सकते हैं।

किशोर कुमार

अल्जाइमर, डिमेंसिया और सिजोफ्रेनिया जैसी न्यूरोडीजेनरेटिव बीमारियों के मामले में आम धारणा यही है कि ये वृद्धावस्था की बीमारियां हैं। पर विभिन्न स्तरों पर किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि न्यूरोडीजेनरेटिव बीमारियां युवाओं को भी अपने आगोश में तेजी से ले रही हैं। इन बीमारियों की वजह कुछ हद तक ज्ञात है भी तो ऐसा लगता है कि चिकित्सा विज्ञान को विश्वसनीय इलाज के लिए अभी लंबी दूरी तय करनी होगी। लक्षणों के आधार पर इलाज करने की मजबूरी होने के कारण कई बार गलत दवाएं चल जाने का खतरा भी रहता है। इसे एक उदाहरण से समझिए। कोई पैतालीस साल की एक महिला में वे सारे मानसिक लक्षण उभर आए, जो आमतौर पर अल्जाइमर के शुरूआती लक्षण होते हैं। चिकित्सक ने उपलब्ध दवाओं के आधार पर अल्जाइमर का इलाज शुरू कर दिया। लंबे समय बाद चिकित्सकों को अपनी गलती का अहसास हुआ। दरअसल, अल्जाइमर जैसे लक्षण एस्ट्रोजन (स्त्री हार्मोन) के स्तर में भारी गिरावट होने के कारण उभर आए थे। मेनोपॉज से पहले अनेक मामलों में ऐसे हालात पैदा होते हैं।

इन सभी बीमारियों और कुछ खास तरह के हार्मोनल बदलावों के कई लक्षण लगभग एक जैसे होते हैं। मसलन, तनाव, अवसाद और भूल जाना। योग मनोविज्ञान के विशेषज्ञों के मुताबिक इन सारी बीमारियों की असल वजह मानसिक अशांति है। परमहंस योगानंद ने सन् 1927 में दिए अपने व्याख्यान में कहा था, मानसिक अशांति का एक ही इलाज है और वह है शांति। यदि मन शांत रहे तो स्नायविक विकार यानी नर्वस डिसार्डर्स जैसी समस्या आएगी ही नहीं। यह समस्या तो तब आती है, जब भय, क्रोध, ईर्ष्या आदि विकार हमारे जीवन में लंबे समय तक बने रह जाते हैं। मेडिकल साइंस में सिरदर्द का इलाज तो है। पर असुरक्षा, भय, ईर्ष्या और क्रोध का क्या इलाज है? हम विज्ञान के नियमों के आलोक में जानते हैं कि कोई भी शक्ति जितनी सूक्ष्म होती जाती है, वह उतनी ही शक्तिशाली होती जाती है। ऐसे में हमारे मन रूपी समुद्र में विविध कारणों से ज्वार-भाटा उठने लगे तो उसी समय सावधान हो जाने की जरूरत है। इसलिए कि लाइलाज बीमारियों की जड़ यहीं हैं।

सवाल है कि सावधान होकर करें क्या? इस बात को आगे बढ़ाने से पहले थोड़ा विषयांतर करना चाहूंगा। इसलिए कि योग विद्या के तहत मस्तिष्क के मामलों में विचार करने के लिए सहस्रार चक्र को समझ लेना जरूरी होता है। हम सब अक्सर आध्यात्मिक चर्चा के दौरान शिव-शक्ति के मिलन की बात किया करते हैं। मंदिरों के आसपास भक्ति गीत शिव – शक्ति को जिसने पूजा उसका ही उद्धार हुआ… आमतौर पर बजते ही रहता है। मैंने अनेक लोगों से पूछा कि इस गाने का अर्थ क्या है? बिना देर किए उत्तर मिलता है कि शिवजी और पार्वती जी की जो पूजा करेगा, उसे सभी कष्टों से मुक्ति मिल जाएगी। पर तंत्र विज्ञान और उस पर आधारित योगशास्त्र में शिव-शक्ति के मिलने से अभिप्राय अलग ही है। सहस्रार चक्र सिर के शिखर पर अवस्थित शरीर की बहत्तर हजार नाड़ियों का कंट्रोलर है। इनमें चंद्र व सूर्य नाड़ियां भी हैं, जिन्हें हम इड़ा तथा पिंगला के रूप में जानते हैं। इसे ही शिव-शक्ति भी कहते हैं। आधुनकि विज्ञान उसे सूक्ष्म ऊर्जा कहता है। सहस्रार चक्र में शरीर की तमाम ऊर्जा एकाकार हो जाती हैं। यही शिव-शक्ति का मिलन है। यह पूर्ण रूप से विकसित चेतना की चरमावस्था है।

योगशास्त्र के मुताबिक यदि मस्तिष्क की किसी ग्रंथि से जुड़ी नाड़ी का सहस्रार रूपी कंट्रोलर से संपर्क टूट जाता है तो वहां बीमारियों का डेरा बनता है। इसे ऐसे भी समझा जा सकता है। यदि सहस्रार मुख्य सतर्कता अधिकारी है तो नाड़ियां उसके संदेशवाहक। ऐसे में यदि संदेशवाहक किसी कारण अपना काम न करने की स्थिति में हो तो पर्याप्त सूचना के अभाव में मुख्य सतर्कता अधिकारी अपने कर्तव्य का निर्वहन कैसे कर पाएगा? अब आते हैं मुख्य सवाल पर कि भूलने आदि समस्याएं उत्पन्न होने लगी है तो समय रहते क्या करें? इसका सीधा-सा जबाव तो यह है कि वे सारे यौगिक उपाय करने चाहिए, जिनसे आंतरिक ऊर्जा का प्रबंधन होता है।

पर किस उपाय से ऐसा संभव होगा? उपाय कई हो सकते हैं। आमतौर पर ऐसी समस्या के निराकरण के लिए इंद्रियों पर नियंत्रण और चित्तवृत्तियों के निरोध की सलाह दी जाती है। सनातन समय से मान्यता रही है कि चित्तवृत्तियों का निरोध करके मन पर काबू पाया जा सकता है। इस विषय के विस्तार में जाने से पहले यह समझ लेने जैसा है कि चित्तवृत्तियां क्या हैं और उनके निरोध से अभिप्राय क्या होता है? स्वामी विवेकानंद ने इस बात को कुछ इस तरह समझाया है – हमलोग सरोवर के तल को नहीं देख सकते। क्यों? क्योंकि उसकी सतह छोटी-छोटी लहरों से व्याप्त होती है। जब लहरें शांत हो जाती हैं और पानी स्थिर हो जाता है तब तल की झलक मिल पाती है। यही बात मानव-चेतना के स्तरों पर उठने वाली लहरों के मामले में भी लागू है।  

श्रीमद्भागवत गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं – “तू पहले इंद्रियों को वश में करके ज्ञान व विज्ञान को नाश करने वाले पापी काम को निश्चयपूर्वक मार।“ मतलब यह कि योग साधना की बदौलत भ्रांत हुईं इंद्रियों को वश में करके मन का रूपांतरण कर। यानी श्रीमद्भगवत गीता से लेकर महर्षि पतंजलि के योगसूत्रों तक में मन के वैज्ञानिक प्रबंधन पर जो बातें कही गई थीं, वे सर्वकालिक हैं और आज भी प्रासंगिक। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती इन शास्त्रीय संदेशों को स्पष्ट करते हुए सलाह देते थे – “भावना के कारण मन बीमार है तो भक्तियोग, दैनिक जीवन की कठिनाइयों के कारण मन बीमार है तो कर्मयोग, चित्त विक्षेप के कारण, चित्त की चंचलता के कारण मन के अंदर निराशाएं, बीमारियां हैं तो राजयोग औऱ नासमझी या अज्ञान की वजह से मानसिक पीड़ाएं हैं, जैसे धन-हानि, निंदा आदि तो ज्ञानयोग और यदि शारीरिक पीड़ाओं के कारण मन अशांत है तो हठयोग करना श्रेयस्कर है।“

ये सारे उपाय मुख्य रूप से उन लोगों के लिए है, जो स्वस्थ्य हैं या जिनमें बीमारी के शुरूआती लक्षण दिखने लगे हैं। पर गंभीरावस्था के रोगी क्या करें? योगी कहते हैं कि ऐसे लोगों के लिए प्राण विद्या बेहद कारगर साबित हो सकती है। ऋषिकेश में डिवाइन लाइफ सोसाइटी के संस्थापक और बीसवीं सदी के महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती अनेक गंभीर रोगों के इलाज के लिए प्राण विद्या की सिफारिश करते थे। अनेक उदाहरणों से पता चलता है कि इस विद्या के तहत प्राणायाम की शक्ति का उपयोग करने से चमत्कारिक लाभ मिलते हैं। यानी समन्वित योग से ही बात बनेगी। आजकल शारीरिक व मानसिक व्याधियों से निबटने के लिए हठयोग को साधना तो मुमकिन हो पाता है। पर योगशास्त्र की बाकी विद्याओं को आधार बनाकर मन को प्रशिक्षित करना अनेक कारणों से चुनौतीपूर्ण कार्य है, जबकि मानसिक उथल-पुथल के इस दौर में केवल हठयोग से बात नहीं बनने वाली। विश्व अल्जाइमर दिवस के आलोक में योग शिक्षकों औऱ प्रशिक्षकों को निश्चित रूप से मानसिक रोगियों को समन्वित योग के व्यावहारिक पक्षों का पूर्ण लाभ दिलाने की दिशा में ठोस पहल करने हेतु मंथन करना चाहिए।

वैसे, मैं संतों की वाणी और यौगिक ग्रंथों के आधार पर दोहराना चाहूंगा कि यदि मानसिक उथल-पुथल के दौर में समर्थ योगी का सानिध्य न मिल पा रहा हो और दूसरा कोई उपाय समझ में न आ रहा हो, तो भक्तियोग का मार्ग पकड़ लिया जाना चाहिए। संकीर्तन या जप कुछ भी चलेगा। मैं अपनी बात संत कबीर के इन संदेशों के साथ खत्म करता हूं – “नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग; और रसायन छांड़ि के, नाम रसायन लाग” इस दोहा के जरिए कबीरदास जी कहते हैं कि हे प्राणी! उठ जाग, नींद मौत की निशानी है। दूसरे रसायनों को छोड़कर तू भगवान के नाम रूपी रसायनों मे मन लगा। इसके साथ ही वे कहते हैं – “मैं उन संतन का दास, जिन्होंने मन मार लिया।” यानी भक्ति मार्ग पर चलकर चित्त-वृत्तियों का निरोध हो गया।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

नेति और कुंजल : ये हैं कोरोना के विरूद्ध अग्रिम पंक्ति की यौगिक सेनाएं

प्राचीनकाल से योगमार्ग पर आगे बढ़ने के लिए ऋषियों ने षट्कर्म की जिन क्रियाओं को प्रथमत: अनिवार्य माना था, उनमें से नेति और कुंजल जैसी क्रियाएं आधुनिक चिकित्सा जगत को भी लुभा रही हैं। इसलिए कि ये क्रियाएं कोविड-19 जैसे अनजान, किन्तु मारक संक्रमण से बचाव में असरदार साबित हो हैं। वैसे तो कोरोना संक्रमण फैलने के साथ ही योग के वैज्ञानिक संत कहने लगे थे कि रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने और संक्रमण को प्रवेश बिंदु पर ही रोककर कर नष्ट कर देने के कई यौगिक उपाय हैं। पर अब चिकित्सा विज्ञानी भी विभिन्न शोधों की बदौलत इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि आज के माहौल में नेति और कुंजल बड़े काम के हैं।

भारत में कोरोना महामारी फैलने के बाद केंद्र सरकार के विज्ञान एवं प्रावैधिकी मंत्रालय को विभिन्न संस्थानों के लगभग पांच सौ ऐसे शोध-पत्र मिले हैं, जिनमें दावा किया गया है कि यौगिक उपायों से कोविड-19 के संक्रमण से बचाव और एक सीमा तक रोकथाम संभव है। पर सबसे ताजी रिपोर्ट राजस्थान वाली ही है और खास बात यह कि यह रिपोर्ट योग विज्ञानियों की नहीं, बल्कि चिकित्सा विज्ञानियों की है। इन चिकित्सा विज्ञानियों ने माना है कि कोरोना संक्रमण से बचाव में नेति और कुंजल बड़े काम के हैं। भारत सरकार के आयुष मंत्रालय की पहल पर देश के नामचीन योग संस्थानों के सहयोग से कोविड-19 के संक्रमण की रोकथाम के लिए यौगिक प्रभावों पर तीन अनुसंधान किए जा रहे हैं और उसकी रिपोर्ट आनी है। इस बीच राजस्थान से आई ताजा रिपोर्ट को बेहद अहम् माना जा रहा है।

राजस्थान के चार चिकित्सा संस्थानों एसएमएस मेडिकल कालेज के टीबी एवं चेस्ट रोग विभाग, इंटरनेशनल इंस्टीच्यूट ऑफ हेल्थ मैनेजमेंट रिसर्च (आईआईएचएमआर) के महामारी विज्ञान विभाग, आस्थमा भवन के शोध प्रभाग और राजस्थान हास्पीटल के छह चिकित्सकों डा. श्वेता सिंह, डॉ नीरज शर्मा व डॉ दयाकृष्ण मंगल, डॉ उदयवीर सिंह व डॉ तेजराज सिंह और वीरेंद्र सिंह ने कोई 28 दिनों तक अध्ययन किया। इस दौरान नेति और कुंजल क्रियाओं के बेहतर परिणाम मिले। दरअसल, जापान में कोविड-19 के कारण मृत्यु दर काफी कम होने के कारण शोधकर्त्ताओं का उधर ध्यान गया। उन्होंने पाया कि सामाजिक दूरी और मास्क का उपयोग तो बेहतर तरीके से किया ही गया था। साथ ही नमकीन कुनकुने पानी से नाक और गले को साफ रखने पर काफी जोर दिया गया था। ये क्रियाएं योगशास्त्र के जलनेति और कुंजल की तरह की थीं। राजस्थान के चिकित्सकों ने इन्हीं बातों से प्रेरित होकर जलनेति और कुंजल के प्रभावों पर अध्ययन किया।  

चिकित्सा जगत की नजर में यह अध्ययन रिपोर्ट बेहद विश्वसनीय है। तभी एक तरफ इसे इंडियन चेस्ट सोसाइटी के प्रतिष्ठित जर्नल “लंग इंडिया” में जगह मिल गई है। दूसरी तरफ देश को लगभग एक हजार चिकित्सकों का समूह भी इस अध्ययन को विश्वसनीय मान रहा है। कोविड-19 संक्रमण फैलने के बाद इस विषय से संबंधित भारतीय चिकित्सकों के सीएमई इंडिया नाम से चार वाट्सएप्प ग्रुप बन चुके हैं। इसमें दुनिया भर में कोविड-19 के आलोक में किए जा रहे अध्ययनों और चिकित्सकीय उपायों पर चर्चा होती है। इन ग्रुपों से देश के प्राय: तमाम नामचीन चिकित्सक जुड़े हुए हैं। ये सुचारू ढंग से काम काम करें और अर्थपूर्ण चर्चा के नतीजों से जनता को लाभ मिले, इसके लिए मधुमेह के ख्याति प्राप्त चिकित्सक डॉ एनके सिंह संयोजक की भूमिका में हैं। डॉ सिंह के मुताबिक प्राय: सभी चिकित्सक मरीजों को और आम लोगों को भी बताते हैं कि कोरोना महामारी से बचाव के लिए उन्हें अन्य उपायों के साथ ही नेति और कुंजल क्रियाओं के अभ्यास अनिवार्य रूप से करने चाहिए।

भारत की तर्ज पर अमेरिकी शोध संस्थानों की भी यही राय बनी है कि कोविड-19 के वैक्सीन आने तक योग ही सहारा है। योग और ध्यान के जरिए कोरोना संक्रमण से अधिकतम बचाव संभव है। भारतीय मूल के अमेरिकी योग गुरू दीपक चोपड़ा, कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी और इस अध्ययन के लिए हार्वड यूनिवर्सिटी से संबद्ध मासेचुसेट्स इस्टीच्यूट ऑफ टेक्नालॉजी ने यौगिक उपायों पर अध्ययन करके यह निष्कर्ष निकाला है। वैसे इस अध्ययन से पहले ही अमेरिका से धमाकेदार खबर आई थी। भारतीय मूल के कंप्यूटर प्रोफेशनल प्रमोद भगत ने दावा किया था कि वे कोरोना पाजिटिव थे और मुख्यत: कुंजल क्रिया की बदौलत मारक बीमारी से बच निकले थे। दरअसल, कुंजल को दमा के मरीजों के लिए प्रभावशाली माना जाता है। इसलिए कोरोना संक्रण को प्रारंभिक स्तर पर नष्ट करने में कुंजल काम आ गया तो योगियों को हैरानी नहीं हुई थी, क्योंकि दमा और कोरोना के शुरूआती लक्षणों में बड़ी समानता है। 

भारत में कोरोना महामारी का आगाज होते ही महाराष्ट्र के लोनावाला स्थित कैवल्यधाम योग इंस्टीच्यूट के वरीय योग थेरेपिस्ट संदीप वानखेड़े ने अपने संस्थान के यूट्यूब चैनल के जरिए बताया था कि कोरोना महामारी से बचाव में जलनेति की कितनी बड़ी भूमिका हो सकती है। यह कहने का उनके पास वैज्ञानिक आधार भी था। वे भारत सरकार के केंद्रीय योग व प्राकृतिक चिकित्सा अनुसंधान परिषद के सहयोग से लोनावाला में स्थापित अनुसंधान केंद्र के साथ भी जुड़े हुए हैं। यह केंद्र षट्कर्म और प्राणायाम पर शोध कर रहा है। नेति और कुंजल षट्कर्म के तहत ही आते हैं।

आयुर्वेद में एक शब्द है – त्रिदोष। यानी वात, पित्त और कफ। इसे ही बीमारियों की उत्पत्ति के मूल कारण माना गया हैं। योगशास्त्र ने षट्कर्म के रूप में त्रिदोष को जड़ से समाप्त करने का उपाय प्रस्तुत किया। यानी योगियों ने भी माना कि त्रिदोषों के बीच असंतुलन से बीमारियां उत्पन्न होती हैं। षट्कर्म मतलब, नेति, धौति, नौलि, बस्ति, कपालभाति और त्राटक। योग के आध्यात्मिक साधक तो सनातन काल से इन षट्कर्मों की महत्ता समझते रहे हैं। तभी वेद से लेकर प्राचीन योग उपनिषदों तक में इनकी महत्ता प्रतिपादित की गई हैं। पर महर्षि घेरंड की घेरंड संहिता औऱ स्वात्माराम की हठ प्रदीपिका में अनेक बीमारियों में भी इन यौगिक क्रियाओं के लाभ बतलाए गए हैं।

यद्यपि योगियों ने नेति क्रिया का इजाद आज्ञाचक्र यानी पीनियल ग्रंथि से संबंधिति यौगिक क्रियाओं को सुचारू बनाने के मकसद से किया था। बाद में आम लोग इस क्रिया को कोई नाम दिए बिना नसिका क्षेत्र की सफाई के लिए से अपनाने लगे। नेति को मौजूदा स्वरूप प्रदान करने में वैज्ञानिक योगी स्वामी कुवल्यानंद और बिहार योग विद्यालय के संस्थापक स्वामी सत्यानंद सरस्वती का बड़ा योगदान है। बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं कि नेति ईएनटी डाक्टर की क्रियाओं जैसी असर दिखाती है। योग शास्त्रों के मुताबिक पहले कुंजल फिर जलनेति का अभ्यास करना चाहिए। चूंकि इन दोनों ही क्रियाओं में नमकीन कुनकुने पानी का उपयोग किया जाता है। इसलिए इन क्रियाओं के बाद आगे झुककर कपालभाति प्राणायाम अनिवार्य रूप से कर लेना चाहिए। ताकि सारा पानी निकल जाए। साथ ही शरीर व मस्तिष्क में उत्पन्न तनाव भी दूर हो जाता है।   

कोविड-19 के इलाज के लिए विश्वसनीय दवाओं के अभाव में जहां पूरी दुनिया में त्राहिमाम है, वैसे में नेति, कुंजल और कुछ अन्य यौगिक उपाय घने अंधेरे में में उम्मीद की रोशनी की तरह हैं। रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने वाले यौगिक उपायों के साथ ये क्रियाएं अधिक शक्तिशाली हो जाती हैं। योग शास्त्रों के मुताबिक पहले कुंजल फिर जलनेति का अभ्यास करना चाहिए। अंत में आगे झुककर कपालभाति प्राणायाम अनिवार्य रूप से कर लेना चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

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