ब्रह्माकुमारी : राजयोग का राजपथ

//किशोर कुमार//

दुनिया के अनेक देशों तक विस्तार पा कर योग और अध्यात्म के जरिए लोगो के जीवन में सकारात्मक परिवर्तन लाने वाली संस्था प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्‍वरीय विश्‍वविद्यालय इन दिनों सुर्खियों में है। वजह बनी हैं महामहिम राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू, जिनका मानना है कि दोनों पुत्रों और पति की मौत के बाद जीवन में आई सुनामी से ऊबर कर कर्तव्य के पथ पर अग्रसर रह पाने में इस संस्था की बड़ी भूमिका है। वहां से मिली यौगिक व आध्यात्मिक शिक्षा से सोच बदली, जीवन जीने का तरीका बदला। उसका प्रतिफल सबके सामने है। वैसे, यौगिक और आध्यात्मिक शक्तियां जिंदगी के रेल को पटरी पर लाने में किस तरह काम करती हैं, इसके उदाहरण भरे-पड़े हैं। बिग बॉस फेम शहनाज गिल का मामला भी ताजा ही है। पति सिद्धार्थ शुक्ला की मौत के बाद अवसादग्रस्त हो गई थीं। वह भी ब्रह्माकुमारी केंद्र के संपर्क में आने के बाद ही वहां बतलाई गईं राजयोग विधियों की बदौलत अवसाद से ऊबर पाई थीं।

ब्रह्माकुमारी शिवानी के अनमोल विचार हम सब रोज ही किसी न किसी टीवी चैनल पर सुनते रहते हैं। वे तरीके बतलाती हैं कि यौगिक व आध्यात्मिक शक्तियों की बदौलत जीवन से नकारात्मक विचार कैसे हटे और किस तरह सकात्मक ऊर्जा में अभिवृद्धि की जाए कि जीवन आनंदमय बन जाए। ब्रह्माकुमारीज संस्था वाले अपने यहां दी जाने वाली योग शिक्षाओं को राजयोग कहते हैं। वे मानते हैं कि साधकों को जैसी योग शिक्षा दी जाती है उससे स्वर्ग के दैवी स्वराज्य जैसा पद दिलाने का मार्ग प्रशस्त होता है। इसलिए यह सभी योगों का राजा है, राजोयोग है। पर चलते-फिरते, कर्म करते भी ईश्वरीय स्मृति का अभ्यास किया जा सकता है, इसलिए यह कर्मयोग भी है। आत्मा, परमात्मा और सृष्ट-चक्र के आदि-मध्य-अंत के ज्ञान पर आधारित होने के कारण यह ज्ञानयोग भी है। और इस साधना में आसन, प्राणायाम और हठ-क्रिया की आवश्यकता नहीं होती, उस लिहाज से यह सहज योग भी है।    

महिलाओं की महती भूमिका वाली संस्था ब्रह्माकुमारीज वालों की मान्यता है कि परमधाम के वासी परमपिता परमात्मा परकाया प्रवेश करके अर्थात अवतरित होकर जब ज्ञान देते हैं तो उनमें एक विशेषता होती है कि वे कन्याओं और माताओं की उन्नति पर विशेष ध्यान देते हैं। तभी स्त्रियों में भक्ति-भाव, प्रभु प्रेम, धर्म प्रीति, धारणा, सहनशीलता आदि अधिक होती है। इसलिए वे परमपिता शिव के ज्ञान को पुरूषों की अपेक्षा अपने आचरण में अधिक लाती हैं। इसे इस बात से भी समझा जा सकता है कि शास्त्रों में भगवान के गायन में शिव-शक्तियों व गोपियों का भी गायन आता है। हम सबने गोपियों और शिव-शक्तियों के बारे में अनेक कथाएं पढ़-सुन रखी है। ब्रह्कुमारीज के मतानुसार, गोपियां वह हैं जो ईश्वरीय ज्ञान के गोपनीय रहस्यों को जानकर भगवान से अनन्य आत्मिक प्रेम करती हैं। साथ ही देहाभिमान व लोक-लाज से भी ऊंचे उठकर प्रभु प्रीति से अपने जीवन को धन्य करती हैं। दूसरी तरफ शिव-शक्तियां वह हैं जो सर्वशक्तिमान शिव के साथ बुद्धि के योग द्वारा ज्ञान-शक्ति, पवित्रता-शक्ति प्राप्त करती हैं और ज्ञान के अस्त्रों-शस्त्रों द्वारा नाना प्रकार के विकार रूपी असुरों को नष्ट करती हैं। इस लिहाज से 108 गोपियां और 108 शिव-शक्तियां अभिन्न हैं।    

तभी ब्रह्मकुमारीज संस्था में साधना के प्रारंभ में साधकों को संकल्प लेना होता है कि वे अपने हर विचार एवं प्रतिक्रिया के प्रति जागरूक हैं और उस पर उसका पूर्ण अधिकार है। ताकि जरूरत के मुताबिक एक ही क्षण में उस संकल्प पर अमल करना या उसे त्याग देना संभव हो सके। इसे प्रतिपक्ष भावना का सिद्धांत भी कह सकते हैं। साधकों को उन कमज़ोरियों को मन में लाना होता है, जिन्हें वे छोड़ना चाहते हैं। मसलन, आत्मविश्वास में कमी, आत्मघाती कदम उठाने की प्रवृत्ति, कुंठा, अपराध बोध, चिन्ता आदि। नतीजतन, आत्म-विश्वास और स्व-नियंत्रण के गुण विकसित हो जाते हैं। यह राजयोग साधक को स्वतंत्र बनाता है और प्रेमपूर्वक बर्ताव करने की शक्ति बढ़ती है। फिर तो कर्मों को श्रेष्ठ, विकर्मों को दग्ध और संस्कारों को शुद्ध करने का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। श्रीमती द्रौपदी मुर्मू की योग साधना और उसकी उपलब्धियों से भी इस बात को आसानी से समझा जा सकता है।

राजयोग की चर्चा आते हैं हमें सबसे पहले महर्षि पतंजलि और उनके योगसूत्रों का ख्याल आता है। पर ब्रह्माकुमारी संस्था का राजयोग महर्षि पतंजलि के राजयोग से भिन्न है, बल्कि वैदिक राजयोग के करीब है। महर्षि पतंजलि के मुताबिक, चित्तवृत्तियों का निरोध ही योग है। पर ब्रह्मकुमारी संस्था के योगियों के मुताबिक, आत्मा का परमात्मा से मिलन ही योग है। वृत्तियों को रोककर मन को परमात्मा में एकाग्र न किया गया तो उसकी कोई सार्थकता नहीं। भारत के योगी राजयोग पर प्रयोग करके विधियां विकसति करते रहे हैं और इनसे संबंधित ग्रंथों की रचना करते रहे हैं। बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद ने राजयोग पर अनेक प्रयोग किए, अनेक विधियां विकसित की। प्रत्याहार के तहत योगनिद्रा, अंतर्मौन, चिदाकाश धारणा, अजपा जप आदि सहज स्वीकार्य योग विधियां विकसित की थी।

वैदिक ग्रंथों से पता चलता है कि महर्षि पतंजलि का योगसूत्र राजयोग का प्रथम प्रमाणिक ग्रंथ नहीं है, बल्कि राजयोग की परंपरा इससे भी प्रचीन है। भगवान शिव ने सबसे पहले राजयोग की शिक्षा दानवों के गुरू शुक्राचार्य को दी थी। ताकि हिरण्यकश्यप और रावण जैसे दानवों को नियंत्रित किया जा सके। इसके बाद महर्षि याज्ञवल्क्य ने राजयोग की परंपरा को आगे बढ़ाया था। वैदिक राजयोग और महर्षि पतंजलि के राजयोग में बड़ा अंतर है। वैदिक राजयोग में कहा गया है कि इंद्रिय और प्राणों का निरोध राजयोग है। दूसरी तरफ महर्षि पतंजलि के योगसूत्र में कहा गया है कि चित्तवृत्तियों का निरोध ही योग है। वैदिक राजयोग में द्रष्टाभाव की बात नहीं है। वहां किसी भी क्रिया-प्रतिक्रिया का अनुभव करने पर जोर है। जबकि महर्षि पतंजलि के योगसूत्र में द्रष्टा भाव या साक्षी भाव पर जोर है। कहा जाता है कि हर बात का साक्षी बनों।

यम और नियम निर्विवाद रूप से योग का आधार है। बीसवीं सदी के योगी स्वामी शिवानंद सरस्वती से लेकर अणुव्रत आंदोलन के अगुआ आचार्य तुलसी तक ने इस पर काफी बल दिया। ब्रह्माकुमारीज के योगी भी साधकों को यम और नियमों की शिक्षा देते हुए राजयोग ध्यान में प्रवेश कराते हैं। यह सुखद है कि ब्रह्माकुमारीज की ओर से वर्ष 2022 को “दया और करूणा के लिए आध्यात्मिक सशक्तीकरण वर्ष” के रूप में मनाया जा रहा है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

महाशिवरात्रि के आध्यात्मिक आयाम

किशोर कुमार

पृथ्वी के किसी न किसी भू-भाग पर परमाणु संपन्न शक्तियां आमने-सामने हो जाती हैं और मानवता पर खतरा मंडराने लगता है। ऐसे में जरा सोचिए कि वह कौन-सी शक्ति है, जिसकी ऊर्जा बार-बार सृष्टि को विनाश से बचाती है? समुद्र मंथन हुआ था तो अमृत के दावेदार सभी थे। विष पीने के लिए भला कौन तैयार होता? ऐसे में आदियोगी को आगे आना पड़ा। उन्होंने विषपान किया। पर कलियुग में कौन विषपान करे? भगवान शिव आदिगुरू हैं, प्रथम गुरू हैं। उन्हीं से योग शुरू होता है और उन्हीं से गुरू-शिष्य की परंपरा शुरू होती है। जहां कहीं भी योग है, अध्यात्म है और गुरू-शिष्य की परंपरा है, उन सबके मूल में आदिगुरू शिव ही हैं। इसलिए मानना होगा कि उनकी ऊर्जा सर्वत्र है और वही विनाश-लीला से मानवता को बचाती है।

अध्यात्मिक दृष्टिकोण से विचार करें तो शिव कोई व्यक्ति नहीं है। शिव-शक्ति के बारे में जितनी भी कथाएं हैं, उन सबका संबंध मनुष्य की जीवन एवं उसकी चेतना से है। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती शिव-शक्ति के आध्यात्मिक महत्व को समझाते हुए कहते थे कि मनुष्य के शरीर के परे, उसके मन और बुद्धि के परे एक वस्तु और है, जिसे आत्मा या चेतना कहते हैं। चेतना बहुत गहरी चीज है। यह इतना शब्दातीत है कि इसे समझाने के लिए हमें किसी न किसी कहानी का सहारा लेना पड़ता है। उदाहरण के लिए मनुष्य के भीतर दो विपरीत शक्तियां और दो समानार्थी शक्तियां काम करती हैं। विपरीत शक्तियों में एक दिव्य शक्ति है और दूसरी आसुरी। इन दोनों के बीच जो संघर्ष चलता है, उसे ही समझाने के लिए देवासुर संग्राम की कहानी का आश्रय लेना पड़ता है।

तंत्रशास्त्र के मुताबिक शरीर में जो दो समानार्थी शक्तियां हैं, वे हैं शिव यानी पुरूष और प्रकृति यानी देवी या शक्ति। पुरूष का अर्थ है शुद्ध चेतना। यह समस्त वस्तुओं में उसी प्रकार छिपी हुई है, जिस तरह काष्ठ में अग्नि छिपी होती है। शक्ति शरीर के निचले भाग में अवस्थित मूलाधार में सोई हुई है। जब वह जागृत होती है तो सुषुम्ना नाड़ी के मार्ग से ऊपर उठकर सहस्रार में परमशिव से योग करती है। वहीं शिव-शक्ति का मिलन होता है। इस बात को समझाने के लिए ही शिव विवाह की कथा कही जाती है। इस कथा से पता चलता है कि शुद्ध चेतना या पुरूष का योग देवी शक्ति से किस प्रकार करना है। यही योग का मार्ग है। ध्यान साधना का यही मार्ग है। इसलिए ध्यान के समय कल्पना करनी चाहिए कि शुद्ध चेतना को धीर-धीरे हम हिमालय को ओर ले जा रहे हैं।

आध्यात्मिक उत्थान और योग के सर्वाधिक लाभों के लिहाज से शिवरात्रि का बड़ा महत्व है। “मीरा के प्रभु गहर गंभीरा, हृदय धरो जी धीरा। आधी रात प्रभु दरसन दीन्हों, प्रेम नदी के तीरा।।“ परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती मीराबाई के इस पद के जरिए महाशिवरात्रि का महत्व समझाते थे। वे कहते थे कि चेतना के लिए भी दिन, शाम और रात निर्धारित है। जागृत अवस्था में चेतना बाहर की ओर विचरण कर रही होती है तो दिन। इंद्रियों का संबंध बाहर से टूट जाए और केवल विचार रह जाए तो शाम। इंद्रियों का संबंध बाहर से टूट जाए और विचार भी न रहे तो रात। शिवरात्रि में यहीं अंतिम अवस्था रहती है। यानी इस अवस्था में जन्मों-जन्मों की वृत्त्तियों और खराब संस्कारों से मुक्ति पाने का विधान बताया गया है। शिवजी की बारात में भूत-पिशाच की उपस्थिति प्रतिकात्मक है। वे जन्मो की वृत्तियों के प्रतीक हैं। आधी रात को साधना के जरिए उनसे मुक्ति मिलनी होती है। इस लिहाज से शिवरात्रि आध्यात्मिक उत्थान और योग-शक्ति के जागरण का अनुष्ठान है।  

कथा के मुताबिक इसी रात्रि को मानव जाति के कल्याण के लिए, आत्म-रूपांतरण के लिए शिव ने अपनी प्रथम शिष्या पार्वती को एक सौ बारह विधियां बतलाई थी, जो योगशास्त्र के आधार हैं। इसके बाद ही मत्स्येंद्रनाथ का प्रादुर्भाव हुआ। शिष्य गोरखनाथ और नाथ संप्रदाय ने योग का जनमानस के बीच प्रचार किया। इस तरह पाशुपत योग के रूप में हठयोग, राजयोग, भक्तियोग, कर्मयोग आदि से आमजन परिचित हुए। कहा जा सकता है कि योग की जितनी भी शाखाएं हैं, सबका आधार शिव-पार्वती संवाद ही है। इस बात को शांभवी मुद्रा के बारे में उपलब्ध कथा से समझा जा सकता है। कथा के मुताबिक, पार्वती जी ने शिव जी को अपने मन की उलझन बताई। कहा, “स्वामी मन बड़ा चंचल है। एक जगह टिकता नहीं।“ फिर उपाय पूछा, “क्या करूं? किसी विधि समस्या से निजात मिलेगी?”

शिव जी एक सरल उपाय बता दिया – “दृष्टि को दोनों भौंहों के मध्य स्थिर कर चिदाकाश में ध्यान करें। मन शांत होगा, त्रिनेत्र जागृत हो जाएगा। इसके बाद बाकी सिद्धि के लिए कुछ शेष नहीं रह जाएगा।“ आदियोगी ने इस क्रिया को नाम दिया – शांभवी मुद्रा। पार्वती जी का एक नाम शांभवी भी है। ऐसा संभव है कि उन्होंने इस क्रिया का नामकरण अपनी पत्नी के नाम को ध्यान में रखकर और उन्हें खुश करने के लिए किया होगा। कहते हैं कि पार्वती जी ने भ्रूमध्य में आसानी से ध्यान लगाने के लिए बिंदी लगाई थी। तभी से महिलाओं में बिंदी लगाने का चलन शुरू हुआ।

जाहिर है कि शांभवी मुद्रा बेहद प्रभावशाली योग मुद्रा है। “योगी कथामृत” के लेखक और पश्चिमी दुनिया में क्रिया योग का प्रचार करने वाले परमहंस योगानंद से किसी ने पूछ लिया – “क्रियायोग के अतिरिक्त और कोई वैज्ञानिक विधि है, जो साधक को ईश्वर की ओर ले जा सके?” पहमहंस जी बोले, “अवश्य। परमात्मा को पाने का एक पक्का और द्रुतगामी रास्ता है अपने भ्रूमध्य स्थित कूटस्थ चैतन्य पर ध्यान करना।“  पुराणों से लेकर विज्ञान तक की बातों और नए-पुराने योगियों के मंतव्यों से शांभवी महामुद्रा की अहमियत का सहज अंदाज लगाया जा सकता है। साथ ही योग के लिहाज से महाशिवरात्रि की अहमियत को भी समझा जा सकता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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