शशांकासन का चमत्कार तो देखिए

किशोर कुमार

इस बार बात प्रमुख आसनों में एक शशांकासन की। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 27 सितंबर 2014 को संयुक्त राष्ट्र महासभा में इसी शशांकासन की महत्ता बतलाते हुए अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मानाने का प्रस्ताव मजबूती से रखा था और जिसे स्वीकार किया गया था। आपके मन में सवाल हो सकता है कि इतने दिनों बाद इस आसन की चर्चा की प्रासंगिकता क्या है? यह लेख पढ़ेंगे तो समझेंगे कि शशांकासन की चर्चा बिन शादी की शहनाई जैसी नहीं है।

इस आसन का सीधा संबंध जुड़ा हुआ है आज की ज्वलंत समस्या से। वह समस्या है क्रोध, तनाव और उसकी वजह से होने वाली नाना प्रकार की बीमारियां, मुख्यत: मायोकार्डियल इस्कीमिया। एक प्रकार का हृदयरोग। खास बात यह है कि यह रोग पुरूषों की तुलना में महिलाओं को कुछ ज्यादा ही हो रहा है। अमेरिकन हार्ट एसोसिएशन के जर्नल में इस संबंध में किए गए शोध को विस्तार से प्रकाशित किया गया है। कोविड-19 संक्रमण के शिकार लोगों को तो फेफड़ों के बाद सर्वाधिक हृदय का आघात पहुंचा। पर देश-विदेश में हुए अध्ययनों से पता चलता है कि तनाव और गुस्सा अन्य बीमारियों के साथ ही मायोकार्डियल इस्कीमिया का बड़ा कारण बन गया है। हद तो यह है कि कम उम्र के लड़के और लड़कियां भी इस बीमारी के शिकार हो रहे हैं। इसकी वजहें कई हो सकती हैं।

आईए, इस समस्या को योग और अध्यात्म के दृष्टिकोण से समझने की कोशिश करते हैं। गौतम बुद्ध कहते थे कि वैसे लोग अद्भुत होते हैं, जो दूसरों की भूल पर क्रोध करते हैं। जब भक्तों ने सवाल किया कि ऐसे क्रोधी अद्भुत किस तरह हुए तो गौतम बुद्ध ने कहा, अदभुत इसलिए कि भूल दूसरा करता है, दंड वह अपने को देता है। ओशो इस बात को विस्तार देते हुए कहते हैं कि क्रोध का मनोविज्ञान है कि क्रोधी व्यक्ति की पूरी उर्जा कुछ पाने जा रही थी और किसी ने उर्जा को रोक दिया। वह जो चाहता था, नहीं पा सका। जीवन में एक बात याद रखना चाहिए कि किसी भी वस्तु की चाहत इतनी तीव्र न होने पाए कि यह जीवन-मरण का प्रश्न बन जाए। थोड़े हल्के-फुल्के, खेलपूर्ण बनना जरूरी है। मैं नहीं कहता कि कोई इच्छा न करे – क्योंकि यह भीतर एक दमन बनेगा। मैं कह रहा हूं, इच्छा खेलपूर्ण हो। यदि इच्छा पूरी हो गई, तो अच्छा है। यदि पूरी नहीं हुई कि विचार उठना चाहिए कि शायद यह सही समय नहीं था; हम इसे अगली बार देखेंगे।

श्रीमद्भगवतगीता में क्रोध, लोभ, मोह आदि पर व्यापक चर्चा है। तीसरे अध्याय में कहा गया है कि जैसे अग्नि धुएं से, दर्पण धूल से और गर्भ झिल्ली से ढका होता है। वैसे ही ज्ञान कामना से ढका होता है। चिन्मय मिशन के संस्थापक स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती ने इस बात की व्याख्या करते हुए कहते थे कि कामना बुद्धि को आच्छादित करती है। जब कामना लोभ, स्वार्थपरता, सुखोपभोग आदि की लालसा भयंकर रूपों में प्रकट होती है तो यह तामसिक कामना ज्ञान को ढ़ंक लेती है। पर जब कामना किसी महान या शुभ वासना से उत्पन्न होती है तो यह सात्विक इच्छा बनती है। यद्यपि यह भी ज्ञान को आच्छादित करती है। पर यह अग्नि को ढंकने वाले धुएं के सदृश्य होती है। ऐसे में वायु का एक झोंका भी धुएं को हटाने और अग्नि को अपनी देदीप्यमान महिमा में प्रकट कर देने के लिए पर्याप्त होता है।

योगशास्त्र कहता है कि इंद्रियों को वश में करो, समस्याओं से मुक्ति मिल जाएगी। इसके लिए श्रीमद्भगवतगीता से लेकर पतंजलि योगसूत्र तक में अनेक विधियां बतलाई गई हैं। जैसा कि पहले कहा गया है कि कामना विवेक को आच्छादित करती है और उसके परिणामस्वरूप उत्पन्न अंधकार से इंद्रियां, मन और बुद्धि भ्रमित होकर आत्म-घातक कार्य करने लगते हैं। इसलिए श्रीकृष्ण की सलाह है कि इंद्रियों को प्रारंभ में ही वश में करके इस पापी और ज्ञान व विज्ञान के नाशक काम (कामना) को मार डाल। कैसे? इस कैसे का जबाव भी श्रीकृष्ण देते हैं। वे कहते हैं – योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है, वह शास्त्र-ज्ञानियों से बढ़कर है और योगी कर्मियों से भी श्रेष्ठ है। इसलिए हे अर्जुन, ध्यान योगी बनो। स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती कहते थे कि दुर्बलताओं को शक्ति में, मूर्खता को बुद्धिमत्ता में और असफलताओं को सफलता में बदलने का यही सूत्र है।

पर अतिव्यस्त और समस्याओं में उलझे आज के आदमी के लिए ध्यान को प्राप्त होना कठिन हो जाता है। फिर जिसने ककहरा न जानता हो, वह सीधे स्नातकोत्तर की शिक्षा कैसे ग्रहण कर पाएगा? अष्टांग योग में ध्यान तो सातवें स्थान पर है। उसके पहले योग की अनेक विधियां है। आमतौर पर उनसे गुजरते हुए ही सही मायने में ध्यान को प्राप्त हुआ जा सकता है। ऐसे में आदमी क्या करे? बिहार योग के जनक परहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती का सुझाव है कि शशांकासन करना चाहिए। यह आसन इस मामले में इतना असरदार है कि महर्षि दुर्वासा की तरह क्रोधी व्यक्ति का क्रोध भी तीन-चार महीनों के अभ्यास से शांत हो जाएगा, रूपांतरण हो जाएगा। हां, लेकिन जिन्हें अति उच्च रक्तचाप, स्लिप डिस्क या चक्कर आते हों, उनके लिए यह आसन वर्जित है।

दरअसल, शरीर पर ग्रंथियों का बहुत असर होता है। यह आसन एड्रीनल ग्रंथि के कार्य को नियमित कर देता है। दरअसल, इस ग्रंथि की अनियमितता ही उत्तेजना, क्रोध और भय का कारण बनी होती है। जैसे चंद्रमा शांत और शीतल होती है, यह आसन भी मानव शरीर को शांत बना देता है। शशांक का अर्थ भी चद्रमा ही होता है। शांति की तलाश में पूरी दुनिया के लोग न जाने क्या-क्या जतन करते रहते हैं। वैसे में शशांकासन का इतना प्रभावी होना ही वह कारण रहा होगा कि संयुक्त राष्ट्र महासभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसकी चर्चा करते हुए एक बार फिर योग की महत्ता से दुनिया को परिचित कराया था।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)     

मुद्रा योग का असर ऐसा कि छा गए थे आयंगार

किशोर कुमार

यौगिक और आध्यात्मिक विषयों को लेकर अलग कुछ जानने की उत्सुकता बड़े-बुजुर्गों में तो होती ही है। पर ऐसे ही सवाल किशोर वय के लड़के-लड़कियां करने लगें तो इसे बड़े बदलाव का संकेत माना जाना चाहिए। मेरे मैसेज बाक्स में ऐसे लड़के-लड़कियों के सवालो की संख्या बढ़ती जा रही है। कोरोना महामारी का शिकार होने के बाद कई अन्य शारीरिक-मानसिक समस्यों से घिरी एक अठारह साल की लड़की का सवाल है कि क्या योग मुद्राओं में इतनी शक्ति है कि वह इन समस्याओं से मुक्ति दिलाने या उसे कम करने में मदद कर सके? उपलब्ध दस्तावेजों और योगियों से विमर्श के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि बता सकूं कि मुद्राओं का विज्ञान बड़ा ही शक्तिशाली है। तभी मुद्रा चिकित्सा की लोकप्रियता दुनिया भर में बढ़ती जा रही है।

इंग्लैंड के मशहूर वायलिन वादक येहुदी मेनुहिन का नाम योग की दुनिया में भी बड़ा ही जाना-पहचाना है। वे अनिद्रा की तात्कालिक समस्या को लेकर योग साधना के विश्वविख्यात उपासक और योगाचार्य बीकेएस आयंगार के पास गए थे। आयंगार ने मुद्रा योग की शक्ति का कमाल दिखाया और मेनुहिन को अनिद्रा से मुक्ति मिल गई थी। आज यह प्रसंग ऐसे समय में आया है, जब भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के जन्मदिन को बाल दिवस के रूप में मनाया जा रहा है। योग व अध्यात्म को लेकर बच्चों मन में उठते सवाल और नेहरू जी-येहुदी मेनुहिन प्रसंग के कारण इस दिवस प्रासंगिक बन पड़ा है।

नेहरूजी-मेनुहिन का प्रसंग बड़ा रोचक है। बीकेएस आयंगार के यौगिक उपचार से मेनुहिन अनिद्रा के साथ ही अन्य शारीरिक व्याधियों से भी मुक्त हो गए तो बात नेहरू जी के कानों तक पहुंची। वे खुद ही अनेक कठिन योग साधनाएं किया करते थे। पर मेनुहिन जैसी बीमारियों से ग्रसित थे, उसमें योग का ऐसा चमत्कारिक असर हुआ होगा, यह मानना शायद कठिन जान पड़ा होगा। उन्होंने मेनुहिन को अपने निवास स्थान तीनमूर्ति भवन में बुलाया और शीर्षासन करने की चुनौती दी। मेनुहिन ने सहजता से ऐसा कर दिखाया। नेहरू जी इतने प्रभावित और उत्साहित हुए थे कि खुद भी शीर्षासन कर बैठे थे। यह खबर जंगल में लगी आग की तरह फैल गई। देश-विदेश के अखबारों की सुर्खियां बनी और योग गुरू बीकेएस आयंगार रातों-रात दुनिया भर में मशहूर हो गए थे।    

सवाल है कि येहुदी मेनुहिन को आखिर कौन-सी यौगिक क्रियाएं करवाई गई थी? दरअसल, मेनुहिन कोहनी के हाइपरेक्स्टेंशन से पीड़ित थे। ब्रेंकियल आर्टरी गंभीर रूप से प्रभावित हो गई थी। न्यूरो कार्डियोलॉजी से संबंधित मामला होने के कारण असहनीय दर्द के साथ ही अन्य संभावित खतरे भी परेशान करने वाले थे। कई-कई दिनों तक सो नहीं पाते थे। मेनुहिन भारत के दौरे आए तो आयंगार ने उन्हें शवासन की स्थिति में षण्मुखी मुद्रा करवाई। आमतौर पर इस मुद्रा का अभ्यास पद्मासन या सिद्धासन में कराया जाता है। पर आयंगार ने मेनुहिन के मामले में बिल्कुल अलग विधि अपनाई। नतीजा हुआ कि पांच मिनट भी नहीं बीते और मेनुहिन एक घंटे तक बेसुध सोए रहे। जो काम नींद की दवाएं नहीं पा रही थी और कई-कई रातें जगकर बितानी होती थी, वह काम पांच मिनटों के अभ्यास में हो गया था। मेनुहिन की नींद खुली तो उन्हें खुशी का ठिकाना न रहा। वे पहले सुनते थे, अब खुद ही भारतीय योग-शक्ति के गवाह बन चुके थे।

हठयोग में आसन और प्राणायाम के बाद मुद्रा योग प्रमुख है। यह प्राणिक ऊर्जा नियंत्रण का यह विज्ञान शास्त्र-सम्मत और  विज्ञान-सम्मत है। तभी रोगोपचार के तौर पर मुद्रा योग भारत ही नहीं, दुनिया के ज्यादातर देशों में लोकप्रिय है। साठ के दशक के प्रारंभ में गोल्डी लिप्सन ने अपनी पुस्तक “रिजुवेनेशन थ्रू योगा” में योग मुद्राओं के बारे में लिखा था कि यह उंगलियों का व्यायाम भर है। पर परहसंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने 1969 में आसन, प्राणायाम, मुद्रा, बंध नामक पुस्तक लिखी तो पश्चिमी देशों में भी मुद्रा योग को स्वतंत्र विद्या के तौर पर मानने का आधार बना था। अब तो मुद्रा चिकित्सा पर पुस्तकों की भरमार है।

सवाल है कि मुद्रा विज्ञान शरीर पर किस तरह काम करता है? आयुर्वेद में कहा गया है कि मनुष्य में पंच महाभूत यानी पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश तत्वों के असंतुलन के कारण बीमारियां होती हैं। योगशास्त्र के मुताबिक मनुष्य की उंगलियों में इन तत्वों के गुण हैं। इसलिए जब मुद्राओं का अभ्यास किया जाता है तो निश्चित बिंदुओं पर दबाव पड़ते ही शरीर के सुप्त ऊर्जा केंद्र मुख्यत: मेरूदंड के चक्र सक्रिय हो जाते हैं। हम जानते हैं कि प्राणिक शरीर को चक्रों से ऊर्जा मिलती है। पर इस ऊर्जा का ह्रास हो जाने के विविध शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक समस्याएं खड़ी हो जाती हैं। चूंकि मुद्रा की स्थिति में उंगलियों के रास्ते इन प्राणिक ऊर्जा का प्रवाह बाहर की तरफ नहीं हो पाता है। इसलिए वह ऊर्जा शरीर के पांच कोशों में अन्नमय कोश, प्राणमय कोश और मनोमय कोश को स्पंदित करती है। इससे स्वस्थ होने की क्षमता विकसित होती है। हठयोग प्रदीपिका में भी इसके महत्व का प्रतिपादन है। कहा गया है कि ब्रह्म-द्वार के मुख पर सोती हुई देवी (कुंडलिनी) को जगाने के लिए पूर्ण प्रयास के साथ मुद्राओं का अभ्यास करना चाहिए।  

अब जानते हैं कि मेनुहिन पर शवासन में षण्मुखी मुद्रा क्यों इतना असरदार साबित हुई होगी। षण्मुखी मतलब सप्त द्वार। यानी दो आखें, दो कान, दो नासिकाएं और एक मुंह। इस मुद्रा में ये सभी द्वार बंद हो जाते हैं। प्राण विद्या की यह तकनीक हाथों और उंगलियों से उत्सर्जित ऊर्जा चेहरे की स्नायुओं और पेशियों को उत्प्रेरित और शिथिल करती है। नतीजतन इससे एक साथ कुछ हद तक शांभवी मुद्रा, योनि मुद्रा और प्रत्याहार का फल मिलने लगता है। पेशियों व तंत्रिकाओं पर दबाव कम होते और आंतरिक सजगता बढ़ती है। न्यूरो कार्डियोलॉजी के मरीजों के मामले में शवासन की अवस्था में पेरिकार्डियन का विस्तार होता है। इससे हृदय के दाहिनी एट्रियम का फैलाव बढ़ जाता है। इससे रक्तचाप कम जाता है। इससे गजब की विश्रांति मिलती है। ऐसे में मेनुहिन का चैन से सो जाना लाजिमी ही था। इस एक उदाहरण से मुद्रा योग की अहमियत का सहज अंदाज लगाया जा सकता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

हरे कृष्ण हरे राम मंत्र की शक्ति, विवादों से कहां दबती

एसी भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद के श्रीकृष्ण भावनामृत अभियान और  इंटरनेशनल सोसाइटी फॉर कृष्णा कॉन्शियसनेस (इस्कॉन) का विवादों से नाता पुराना है। पश्चिमी देशों में बीते चार सालों से एक बार फिर मीडिया ने इस आंदोलन के विरूद्ध अभियान ही चला रखा है। पर शायद पहली बार है कि भारत में किसी शंकराचार्य ने इस्कॉन को घेरा है। शंकराचार्य स्वरूपानंद के मुताबिक इस्कॉन के मंदिरों की कमाई अमेरिका भेजी जा रही है, क्योंकि इस्कॉन भारत में नहीं बल्कि अमेरिका में पंजीकृत संस्था है। यह विवाद ऐसे समय में छिड़ा हुआ है जब एसी भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद की 124वीं जयंती पर इस्कॉन परिवार जश्न के मूड में है।  

अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद के परलोक सिधाने के चार दशक बाद भी हरे कृष्ण, हरे राम के रूप में पूरी दुनिया में ख्यात श्रीकृष्ण भावनामृत अभियान की चमक बरकरार है। इंटरनेशनल सोसाइटी फॉर कृष्णा कॉन्शियसनेस (इस्कॉन) शनै-शनै ही सही, विस्तार पा रहा है। यह आलम तब है, जब इस अभियान को नेतृत्व देने के लिए श्रील स्वामी प्रभुपाद जैसा अलौकित शक्ति वाला ऊर्जावान आध्यात्मिक नेता नहीं है। दूसरी तरफ पश्चिमी जगत का मीडिया लगातार हमलावर बना रहता है। दुनिया भर के साठ से ज्यादा देशों में इस्कॉन की मजबूत उपस्थिति और अनुयायियों की संख्या में इजाफा देखकर ऐसा लगता है मानों कोई अदृश्य शक्ति सब कुछ संचालित कर रही है।

Shril Prabhupada

श्रीकृष्णभावनामृत ही मौलिक चेतना है। अवांछनीय उपाधियों से आवृत्त चेतना को स्वच्छ करना होगा। ऐसा होते ही चेतना श्रीकृष्णभावनामृत में परिणत हो जाएगा। यह भक्ति मार्ग है। कलियुग में यही श्रेष्ठ है।

चार साल पहले सन् 2016 में जब इस्कॉन की स्वर्ण जयंती दुनिया भर में भव्यता के साथ मनाई जा रही थी तो पश्चिम का मीडिया यह बताने में जुटा हुआ था कि इस्कॉन किस तरह अपना असर खो रहा है और श्रीकृष्ण भावनामृत अभियान बेहद कमजोर हो चुका है। इसके साथ ही लिंगभेद की अनेक कहानियां उछाली गई थीं। वह सिलसिला अब भी जारी है। पर इन सब से अप्रभावित श्रीकृष्ण भावनामृत अभियान अपने मूलभूत सिद्धांतों की वैज्ञानिकता मनवाने में सफल होता दिख रहा है। इस लेख में इन तमाम बातों विस्तार दिया जाएगा। पर पहले श्रीकृष्ण भावनामृत अभियान के प्रणेता और इस्कॉन के संस्थापक अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद की बात। उन्होंने यदि अपना भौतिक शरीर न छोड़ा होता तो 1896 में कलकत्ता में जन्में श्रील प्रभुपाद 1 सितंबर को 124 वर्ष के हो गए होतें। 

भक्त के अद्भुत भाव: श्रीचैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ मंदिर में गरूड़स्तंभ के पास खड़े होकर बड़ी तन्मयता से आरती गा रहे थे। एक स्थनीय महिला भी भगवान के दर्शन करना चाहती थी। पर भीड़ इतनी कि जगह नहीं मिल पा रही थी। उसने तरकीब निकाली। गरूड़स्तंभ पर चढ़ गई और एक पांव चैतन्य महाप्रभु के कंधे पर रखकर आरती देखने लगी। बाकी भक्तों की आपत्ति पर उस महिला को अपनी गलती का अहसास हुआ तो वह तुरंत नीचे उतर गई और महाप्रभु के चरण पकड़ लिए। चैतन्य महाप्रभु ने कहा – अरे, तुम यह क्या कर रही हो? मुझे तो तुम्हारे चरणों की वंदना करनी चाहिए ताकि तुम जैसा भक्तिभाव मैं भी प्राप्त कर सकूं।

कोई व्यक्ति 69 साल की उम्र में समुद्री मार्ग से अमेरिका जाए और एक मलिन बस्ती में अनजान लोगों और क्राइस्ट को मामने वाले लोगों के बीच अपनी जगह बनाकर अपने श्रीकृष्ण भावनामृत अभियान को जनांदोलन जैसा बना दे, यह फिल्मों में तो संभव है। पर व्यवहार रूप में भी ऐसा ही होना कम हैरान करने वाली बात नहीं है। श्रील प्रभुपाद ने अपने अदम्य साहस और अलौकिक प्रतिभा की बदौलत असंभव को संभव कर दिखाया था। वे 1965 में अमेरिका गए थे। साल पूरा होते-होते अंतर्राष्ट्रीय श्रीकृष्ण भावनामृत संघ की स्थापना की। इसी बैनर तले भक्तियोग आंदोलन शुरू किया। गोरे युवक-युवतियों का इस आंदोलन के प्रति बढता आकर्षण चर्च के धार्मिक नेताओं को परेशान करने लगा था। मीडिया हमलावर हो गया था। ऐसे में श्रील प्रभुपाद कदम-कदम पर हरे कृष्ण हरे राम…मंत्र-शक्ति व संकीर्तन की वैज्ञानिकता साबित करते हुए और तर्कों व तथ्यों के आधार पर यह बताते हुए कि कृष्ण और क्राइस्ट एक ही परमात्मा के अलग-अलग नाम हैं, आगे बढ़ते चले गए थे।

नदिया में राजा कृष्णानंद दत्त के 7वें पुत्र केदारनाथ दत्त अपनी अलौकिक शक्ति के कारण श्रील भक्तिविनोद ठाकुर के रूप में ख्यात हुए। उन्होंने संकीर्तन आंदोलन के अद्वितीय महत्व को समझा और गौड़ीय वैष्णव परंपरा को पुनर्जीवित किया।

श्रील प्रभुपाद को अभियान के शुरूआती दिनों में एक तरफ श्रीकृष्ण और हिंदू धर्म के बीच के संबंधों पर सफाई देनी होती थी तो दूसरी तरफ आत्मा-परमात्मा पर शास्त्रार्थ करना होता था। बाद के दिनों में उनके आंदोलन को बड़े स्तर पर ऐसी स्वीकार्यता मिली कि वह अमेरिका और यूरोप सहित साठ से ज्यादा देशों में छा गया था। श्रील प्रभुपाद श्री चैतन्य महाप्रभु की शिष्य परंपरा में महान वैष्णव आचार्य श्रील भक्तिविनोद ठाकुर के पुत्र श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर के शिष्य थे। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर को आधुनिक युग में श्रीचैतन्य महाप्रभु के भक्ति आंदोलन को पुनर्जीवित करने का श्रेय जाता है। वे सरकारी सेवक थे। पर श्रीकृष्ण और उनके उपासक श्रीचैतन्य महाप्रभु से बेहद प्रभावित थे। वे उनके भक्ति आंदोलन को बढ़ाने के लिए इस तरह ब्याकुल रहते थे, मानों उनका जन्म इसी काम के लिए हुआ हो। 

दैवीय शक्ति वाले भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर श्रील भक्तिविनोद ठाकुर के पुत्र और श्रील भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद के गुरू थे। कथा है कि जब वे शैशवावस्था में थे तो रथ यात्रा के दौरान भगवान जगन्नाथ का रथ उनके घर के सामने तब तक रूका रहा जब तक कि उन्हें दर्शन नहीं करा दिया गया था।

उनकी पदस्थापना डिप्टी मजिस्ट्रेट के रूप में जगन्नपुरी में हुई तो मंदिर की सेवा में जुट गए थे। वे श्रीचैतन्य महाप्रभु के भक्ति आंदोलन को गति देना चाहते थे। पर अकेले इस काम को कर पाने में असमर्थ पा रहे थे। एक दिन उन्हें कुछ आभास हुआ और वे जगन्नाथ मंदिर में अवस्थित विमला देवी की प्रतिमा के समक्ष प्रस्तुत होकर अलौकिक शक्ति वाले पुत्र की इच्छा व्यक्त कर दी। बात आई गई हो गई। कुछ समय बाद यानी 6 फरवरी 1874 को उन्हें पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई तो उसका नाम विमला देवी के नाम पर विमला प्रसाद रख दिया। कुछ समय बाद एक चमत्कार हुआ। जगन्नाथ जी की रथयात्रा निकाली तो रथ अपने आप श्रील भक्तिविनोद ठाकुर (तब उन्हें केदारनाथ दत्त के नाम से जाना जाता था) के घर के सामने रूक गया। तीन दिनों तक रूका रहा। कितने तकनीशियनों का दिमाग लग गया कि रथ आगे बढ़ क्यों नहीं रहा है। पर बात नहीं बनी थी। फिर श्रील भक्तिविनोद ठाकुर को कुछ आभास हुआ। उन्होंने अपने नवजात शिशु को जगन्नाथजी के विग्रह से जैसे स्पर्श कराया, शिशु पर एक माला गिरा और रथ चल पड़ा था। वही शिशु आगे चलकर चौसठ गौड़ीय मठों के संस्थापक श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर के रूप में मशहूर हुए थे। उन्हीं की प्रेरणा से अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद पश्चिमी दुनिया को कृष्णभक्ति का पाठ पढ़ाने के लिए वृद्धावस्था में अमेरिका कूच कर गए थे।

श्रील प्रभुपाद के बेहतरीन ग्रंथों की वजह से श्रीकृष्णभावनामृत अभियान को काफी बल मिला था। सच कहिए तो उन ग्रंथों ने उत्प्रेरक का काम किया था। मूल रूप से अंग्रेजी में लिखे गए ग्रंथों के अनेक भाषाओं में अनुवाद किए गए।

अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद जब अमेरिका पहुंचे थे तो उनके पक्ष में कुछ बातें थीं, जिनसे प्रकारांतर से उन्हें मदद मिली होगी। पहला तो यह कि स्वामी विवेकानंद के कारण अमेरिका की धरती भक्ति आंदोलन के लिए बंजर नहीं रह गई थी। श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती का कृष्ण भक्ति साहित्य अमेरिका के पुस्तकालयों तक पहुंच चुका था। श्रील प्रभुपाद से उम्र में कोई तीन वर्ष बड़े पहमहंस योगानंद क्रियायोग का प्रचार करने 1920 में ही अमेरिका चले गए थे। यानी श्रील प्रभुपाद से 45 साल पहले। वे योग और अध्यात्म के दृष्टिकोण से उस जमीन को उर्वर बनाने के लिए बड़े पैमाने पर काम कर रहे थे। साथ ही धार्मिक अवरोधों को दूर करने के लिए लोगों के मन में बात बैठाते जा रहे थे कि श्रीमद्भगतवत गीता और बाइबिल की बातें और उनके संदेश प्रकारांतर से एक ही हैं। श्रीकृष्ण के भौतिक शरीर धारण करने के बाद की परिस्थितियां और ईशा मसीह का जीवन लगभग एक जैसा है। दूसरी तरफ साठ के दशक के प्रारंभ में ही महर्षि महेश योगी के भावातीत ध्यान का जादू अमेरिकियों पर काम करने लगा था। स्वामी सत्यानंद सरस्वती के वैज्ञानिक योग की बातें तथा नाम संकीर्तन व मंत्रयोग की महत्ता भी अमेरिका और यूरोप के लोग लोग समझने लगे थे।

Biggest iskon temple of Delhi - Reviews, Photos - ISKCON Temple Delhi -  Tripadvisor

इस्कॉन मंदिर, नई दि्ल्ली, जहां प्रतिदिन एक-दो-तीन हजार नहीं, पूरे डेढ़ लाख लोगों का खाना बन रहा है। वह भी तेल नहीं, गाय के शुद्ध घी से। दिल्ली के द्वारका स्थित इस्कॉन मंदिर में प्रतिदिन सात विधानसभा क्षेत्रों के निवासी डेढ़ लाख लोगों का पेट भर रहा है

आजतक, न्यूज चैनल

परमहंस योगानंद अमेरिकी नागरिकों को बताते थे कि जीसस ने शैतान पर विजय पाई थी तो कृष्ण ने कालिया राक्षस पर विजय पाई। जीसस ने एक जहाज में बैठे अपने भक्तों को बचाने के लिए समुद्र के तूफान को रोक दिया था तो कृष्ण ने अपने भक्तों और उनके पशुओं को प्रलयंकारी वर्षा में डूबने से बचाने के लिए गोवर्धन पर्वत को एक छाते की तरह उनके ऊपर उठा लिया था। जीसस की मैरी, मार्था और मैरी मैगडेलन जैसी महिला शिष्याएं थीं तो कृष्ण की महिला शिष्य़ाओं राधा और गोपियों (ग्वालनों) ने भी उसी प्रकार की दिव्य भूमिकाएं निभाईं। जीसस को कीलें ठोक कर सलीब पर चढ़ा दिया गया था। दूसरी तरफ कृष्ण एक शिकारी के तीर से प्राणघातक रूप से घायल हो गए थे। एक ने समाज के भगवद्गीता दिया तो एक ने बाइबिल। आदि आदि।

जीसस ने शैतान पर विजय पाई थी तो कृष्ण ने कालिया राक्षस पर विजय पाई। जीसस ने एक जहाज में बैठे अपने भक्तों को बचाने के लिए समुद्र के तूफान को रोक दिया था तो कृष्ण ने अपने भक्तों और उनके पशुओं को प्रलयंकारी वर्षा में डूबने से बचाने के लिए गोवर्धन पर्वत को एक छाते की तरह उनके ऊपर उठा लिया था। जीसस की मैरी, मार्था और मैरी मैगडेलन जैसी महिला शिष्याएं थीं तो कृष्ण की महिला शिष्य़ाओं राधा और गोपियों (ग्वालनों) ने भी उसी प्रकार की दिव्य भूमिकाएं निभाईं। जीसस को कीलें ठोक कर सलीब पर चढ़ा दिया गया था। दूसरी तरफ कृष्ण एक शिकारी के तीर से प्राणघातक रूप से घायल हो गए थे। एक ने समाज को भगवद्गीता दिया तो एक ने बाइबिल।

परमहंस योगानंद

अध्यात्म के दृष्टिकोण से इतनी जमीन तैयार होने के बावजदू श्रील स्वामी प्रभुपाद को विशेष राहत न थी। उन्हें धर्म परिवर्तन कराने आए संत के तौर पर देखा जाता था। सैंडी निक्सन अमेरिका के बड़े पत्रकार थे। उन्होंने स्वामी प्रभुपाद से पूछा था कि श्रीकृष्णभावनामृत और क्राइस्टभावनामृत में क्या अंतर है? कृष्ण भक्त बनकर हम समाज की बेहतर सेवा किस तरह कर सकते हैं? क्या यह अभियान जाति व्यवस्था को जागृत करने का जरिया नहीं है? महिलाओं के आध्यात्मिक जीवन के लिए इस आंदोलन में कोई जगह है या नहीं? आदि आदि। इसी तरह के सवाल अनेक पत्र-पत्रिकाओं के पत्रकार अक्सर किया करते थे। श्रील प्रभुपाद सभी प्रश्नों के तर्कसम्मत उत्तर देते थे। वे कहते थे कि विभिन्न रूपो में कृष्ण प्रेम का तत्व सबके जीवन में पहले से मौजूद है। महामंत्र हरे कृष्ण हरे कृष्ण, हरे राम हरे राम…… श्रीकृष्णभावनामृत को जागृत कर देता है। तभी जो लोग भगवान कृष्ण से अनजान हैं, वे लोग भी हरे कृष्ण हरे कृष्ण, हरे राम हरे राम अभियान को लेकर दीवाने हुए जा रहे हैं। उन्हें समझ में आ गया कि संकीर्तन विज्ञान है औऱ इससे उत्पन्न स्पंदन स्नायुओं को आराम पहुंचाता है। इससे मन का नियंत्रण और प्रबंधन होता है। रही बात क्राइस्टभावनामृत की वह भी कृष्णभावनामृत ही है। जो लोग जीसस के आदेशों का पालन नहीं करते वे कृष्णभावनामृत तक नहीं पहुंच पातें।

यौगिक परंपरा में कहा गया है कि हठयोग और राजयोग में आधारभूत प्रशिक्षण प्राप्त किए बिना मंत्र योग के प्रयोग से चक्रों औऱ कुंडलिनी को जागृत करना संभव है।

श्रील प्रभुपाद अमेरिका के लोगों को समझातें कि यह भ्रांति दूर होनी चाहिए कि गीता में जाति की बात भी है। श्रीमद्भगवत गीता में समाज के चार वर्णों की परिभाषा दी गई है। वे हैं – ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य और शूद्र। मनुष्य की योग्यताओं के मुताबिक उनके वर्ण बतलाए गए हैं। जाति की बात कहीं नहीं है। श्रीकृष्णभावनामृत अभियान स्त्रियों और पुरूषों के बीच समानता की वकालत करता है। लिंगभेद की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। उन्हें लोगों की आशंकाओं को दूर करने के लिए यहां तक कहना पड़ता था – “मैं यह शरीर नहीं हूं, मै भारतीय नहीं हूं….आपलोग अमेरिकन नहीं हैं…हम सब आत्मा हैं।“ पर जब उन्होंने 1968 में मैसाच्युसेट्स इंस्टीच्यूट ऑफ टेक्नालॉजी के छात्रों को संबोधित किया तो उनकी वैज्ञानिक बातों के आगे सभी नतमस्तक थे। उन्होंने अपने संबोधन में सवाल किया था – यद्यपि आपके पास ज्ञान के अनेकानेक विभाग हैं। पर एक मृत एवं जीवित शरीर में अंतर की खोज करने के उद्देश्य पर आधारित विभाग कहां है? फिर जबाव का प्रतीक्षा किए बिना बोलते गए थे – आधुनिक विज्ञान यद्यपि देह की यांत्रिक कार्य-प्रणाली को समझने में विकसित हो चुका है। पर वह देह को सजीव रखने वाले चिन्मय स्फुलिग (आत्मा) के विषय में अध्ययन करने के लिए बहुत कम ध्यान देता है। जबकि आध्यात्मिक शक्तियों का विकास करके आत्मा का अनुभव किया जा सकता है। इसके साथ ही उन्होंने इसके पक्ष में कई वैज्ञानिक तथ्य प्रस्तुत किए थे।

जगन्नाथ जी की रथयात्रा निकाली तो एक घर के सामने रथ रूक गया। तीन दिनों तक रूका रहा। कितने तकनीशियनों का दिमाग लग गया। पर बात नहीं बनी थी। एक नवजात शिशु को जगन्नाथजी के विग्रह से जैसे स्पर्श कराया, शिशु पर एक माला गिरा और रथ चल पड़ा था। वही शिशु आगे चलकर चौसठ गौड़ीय मठों के संस्थापक श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर के रूप में मशहूर हुए थे।

अमेरिका और यूरोप के युवाओं को उनके वैज्ञानिक तर्क सही मालूम पड़े और वे श्रीकृष्णभावनामृत अभियान से जुड़ते चले गए थे। पांच दशक बाद पश्चिम का कुछ मीडिया घराना इस अभियान के विरोध में मुखर हुआ है और साबित करने की कोशिश की जाती है कि श्रील प्रभुपाद महिलाओं को इस्कॉन में महती भूमिकाएं देने के पक्ष में नहीं थे। लिंगभेद के इसी सिद्धांत के कारण महिलाएं अपने को आंदोलन में उपेक्षित महसूस करती हैं, जबकि हकीकत ऐसा नहीं है। इस्कॉन के विशाखापत्तनम शाखा में निताई सेविनी माता जी गुरूत्तर भूमिका निभा रही हैं। और भी जगहों पर महिलाएं गुरूत्तर भूमिका में हैं। इसलिए मीडिया की बातें असरहीन साबित हो रही हैं और इस्कॉन की दुनिया भर में जादू बरकरार है। स्वामी प्रभुपाद की कोशिशों के कारण मात्र दस वर्ष के अल्प समय में ही समूचे विश्व में 108 मंदिरों का निर्माण हो चुका था। इस समय पूरे विश्व में करीब  400 इस्कॉन मंदिर हैं। श्रील प्रभुपाद और गौड़ीय वैष्णव परंपरा को मुकाम दिलाने वाले अन्य सिद्ध संतों के प्रति इससे बड़ी श्रद्धांजलि और क्या होगी? 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।) 

मानसिक शांति व चेतना के विकास के लिए बड़े काम का है अजपा जप

“जो लोग तनावों और समस्याओं से भरे होते हैं, उनके लिए अजपा जप बड़ा लाभकारी अभ्यास है। अध्ययन और मानसिक कार्य करने वाले भी इस विधि से काफी लाभान्वित होते हैं। जब श्वास में मंत्र जागृत होता है तो उससे पूरा शरीर आवेशित हो जाता है। नाड़ियों में संचित विषाक्त तत्व बाहर निकलते हैं तथा अनेक अवरोध, जो मानसिक बीमारियों के मूल कारण होते हैं, दूर होते हैं। दरअसल, अजपा जप में प्रयुक्त मंत्र की शक्ति से सुषुम्ना नाड़ी जागृत होती है। इससे जब इड़ा नाड़ी तरंगित होती है तो मन सक्रिय होता है और पिंगला नाड़ी तरंगित होती है तो प्राण-शक्ति सक्रिय होती है। नतीजतन, पूरे शरीर में ऊर्जा प्रवाहित होने लगती है। सच तो यह है कि अजपा जप क्रियायोग का आधार है। इसमें कुशलता प्राप्ति से प्रत्याहार, धारणा तथा एकाग्रता की प्राप्ति होती है। यहीं से ध्यान योग प्रारंभ होता है।“

कोरोनाकाल में मानसिक अशांति बड़ी समस्या बनकर उभरी है। इसकी वजह से कई अन्य बीमारियां जन्म ले रही हैं। हम जानते हैं कि योग बहुआयामी विज्ञान है और इसका संबंध तन, मन, भावना के साथ ही आत्मा के विकास से भी है। योग की अनेक विधियां हैं, जो मानसिक शांति के लिए बड़े काम की हैं। पर ध्यान साधना की एक विधि के तौर पर अजपा जप योग एक ऐसी विधि है, जो सरल तो है। पर तन-मन पर उसका प्रभाव बहुआयामी है। पौराणिक ग्रंथों के अनेक प्रसंगों में इसकी महत्ता तो बतलाई ही गई है, आधुनिक विज्ञान भी इस बात की पुष्टि करता है।

बाल्मीकि रामायण के मुताबिक, लंका जलाने के बाद हनुमानजी का मन अशांत था। वे इस आशंका से घिर गए थे कि हो सकता है कि सीता माता को भी क्षति हुई होगी। उन्हें आत्मग्लानि हुई। तभी जंगल में उनकी नजर व्यक्ति पर गई, जो गहरी नींद में था। पर उसके मुख से राम राम की ध्वनि निकल रही थी। इसे कहते हैं स्वत: स्फूर्त चेतना। यही अजपा जप है। जब नामोच्चारण मुख से होता है तो वह जप होता हैं और जब हृदय से होता है तो वह अजपा होता है। अजपा का महत्व हनुमान जी तो जानते ही थे। उनके मुख से अचानक ही निकला – “हे प्रभु। इस व्यक्ति जैसा मेरा दिन कब आएगा?”  

गीता में कहा गया है कि नासिका प्रदेश में प्राण व अपान में समानता रखते हुए अंदर जाने वाली औऱ बाहर आने वाली श्वास को नासिका छिद्रों में समय एवं लंबाई की दृष्टि से संतुलित रखें। समय व लंबाई में समानता होनी चाहिए। बिहार योग के जनक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की अगुआई में योग रिसर्च फाउंडेशन ने अजपा पर देश-विदेश में काफी शोध किए। उसके आधार पर शोध-पत्र प्रकाशित किए गए थे। उसमें कहा गया है कि अजपा शरारीरिक व मानसिक तनाव तो दूर करने की कारगर यौगिक विधि तो ही है, यह रोगोपचार, चेतना के विस्तार और संस्कारों के प्रकटीकरण का सशक्त माध्यम भी हो सकता है। संतों का वर्षों-वर्षों का अनुभव है कि ध्यान जितना गहरा होता है, उसके लिहाज से भूत और भविष्य के रिकार्ड खुलते जाते हैं। इससे पूर्व जन्म की घटनाओं की स्मृतियां प्रकट होती हैं तो भविष्य की घटनाओं की झलक भी मिलती है। योगशास्त्र की इसी आधार पर मान्यता है कि मनुष्य भविष्य के संस्कारों का बीजारोपण भी स्वयं करता है।

विभिन्न रोगों में अजपा जप के प्रयोग के नतीजे बेहद शक्तिशाली साबित होते रहे हैं। यदि इसका अभ्यास योगनिद्रा और प्राणायाम के साथ हो तो कैंसर जैसी बीमारी में फायदा होता है। इस बात के कुछ प्रमाण भी हैं। केंद्रीय मंत्री श्रीपद यसो नायक का बंगलुरू स्थित स्वामी विवेकानंद योग अनुसंधान संस्थान इंस्टीच्यूट के दौरे के दौरान ऐसे मरीजों से साक्षात्कार हुआ, जिन्हें नियमित योगाभ्यास के जरिए कैंसर जैसी घातक बीमारी से निजात मिल गई थी। उन्होंने अपने भाषण में इस बात का उल्लेख किया था, जो अखबारों की सुर्खियां बनी। एक उदाहरण आस्ट्रेलिया का है। वहां के कैंसर शोध संस्थान के चिकित्सकों ने कैंसर के छह मरीजों को जबाव दे दिया था। उनका बचना संभव न था। कहते हैं न कि मरता क्या न करता। सो, उन लोगों ने योग का सहारा लिया। सत्यानंद योग पद्धति से उन्हें योगनिद्रा, प्राणायाम और अजपा जप का अभ्यास कराया गया। लगभग तीन महीनों में बेहतर स्वस्थ्य के लक्षण मिलने लगे थे और कुछ महीनों बाद बिल्कुल ही ठीक हो गए थे। इसके बाद चौदह वर्षों तक जीवित रहने के प्रमाण हैं।   

अजपा जप योग को लेकर विश्व के अनेक शोध संस्थानों में हुए शोधों के निष्कर्ष चौंकाने वाले हैं। उनके मुताबिक यह योग साधना अनिद्रा के शिकार मरीजों के लिए ट्रेंक्विलाइजर है तो हृदय रोगियों के लिए कोरेमिन। यदि सामान्य कारणों से सिर में दर्द है तो यह दर्द निवारक दवा का भी काम करता है। हिस्टीरिया और उच्च रक्तचाप के मरीजों पर इसका सकारात्मक प्रभाव है। पर सबसे चमकारिक असर है मोटापे की वजह से उत्पन्न बीमारियों के मामलों में है। अनुसंधानों से साबित हुआ कि अजपा जप योग मनुष्य के शरीर की चर्बी जला देता है। मनुष्य के शरीर की चर्बी जलने से जिन प्रमुख गंभीर बीमारियों से मुक्ति मिलती है, वे हृदय, किडनी, डायबिटीज, और ब्लड प्रेशर से संबंधित हैं।

अनुसंधानकर्त्ता इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि अजपा जप से अधिक मात्रा में प्राण-शक्ति आक्सीजन के जरिए शरीर में प्रवेश करती है। फिर वह सभी अंगों में प्रवाहित होती है। रक्त नाड़ियों में अधिक समय तक उसका ठहराव होता है। प्राण-शक्ति शरीर में ज्यादा होने से मनुष्य स्वस्थ्य और दीर्घायु होता है। वैसे तो प्राण-शक्ति हर आदमी के शरीर में प्रवाहित होती रहती है। पर जिसके शरीर में अधिक मात्रा में प्रवाहित होती है, वह स्वस्थ्य, प्रसन्न, शांत, सौम्य होते हैं। यदि कोई रोग लगा भी तो उसे ठीक होते देर नहीं लगती है।

कुछ बीमारियां ऐसी भी हैं, जिनका चिकित्सा शास्त्र में उपाय नहीं है। जैसे, मानसिक विकार यानी वैमनस्य, ईर्ष्या आदि। योग-निद्रा की तरह ही अजपा की क्रिया मनोकायिक है। अजपा जप मन को नियंत्रित करता है। विज्ञान की कसौटी पर साबित हो चुका है कि बीमारियों का कारण प्राय: मानसिक होता है। इसलिए योग विज्ञान दवाओं से पहले मन के उपचार पर बल देता है। अजपा जप शक्ति केंद्रों का भंडारगृह यानी सुषुम्ना नाड़ी में गर्मी पैदा करता है। इसके साथ ही बीमारियों पर वार शुरू हो जाता है।

इस तरह समझा जा सकता है कि बीमारियों के लिहाज से योग-निद्रा योग के बाद अजपा जप कितनी महत्वपूर्ण योग साधना है। स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे – “अजपा का अभ्यास ठीक ढंग से और पूरी तत्परता से किया जाए तो यह हो नहीं सकता कि रोग ठीक न हो। मात्र अजपा के अभ्यास से मनुष्य काल और मृत्यु को जीत सकता है। तात्पर्य यह कि कोई कोई काल से प्रभावित हुए बिना रह सकता है और चाहे तो इच्छा मृत्यु को प्राप्त कर सकता है।“   

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

पश्चिम में योग व अध्यात्म के पितामह परमहंस योगानंद के 100 साल

परमहंस योगानंद के पश्चिम में आगमन की 100 वीं वर्षगांठ पर उन्हें अमेरिका ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में याद किया जा रहा है। वे भारत के एक ऐसे संत थे, जिन्होंने अमेरिका की धरती से पूरी दुनिया में मानव जाति के आध्यात्मिक उत्थान के लिए उल्लेखनीय कार्य किए। यही वजह है कि उनकी यश की गाथाएं सबकी जुबान पर हैं। अमेरिका में उनके द्वारा स्थापित सेल्फ रियलाइजेशन फेलोशिप के मौजूदा अध्यक्ष स्वामी चिदानंद अपने गुरू को याद करते हुए कहते हैं कि उन्होंने पश्चिम को क्रियायोग के रूप में भारत की ऐसी अमूल्य निधि दी, जो स्वयं को जानने का प्राचीन विज्ञान है। यह मानव जाति के लिए शायद सबसे महत्वपूर्ण उपहारों में से एक है।

परमहंस योगानंद अमेरिका के बोस्टन पहुंंचे थे तो गर्मजोशी से हुआ था स्वागत।

अपने अलौकिक आध्यात्मिक प्रकाश से पश्चिमी जगत ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया को आलोकित करने वाले जगद्गुरू परमहंस योगानंद के अमेरिका की धरती पर कदम रखने के 100 साल पूरे हो गए। वे पहली बार सन् 1920 में 19 सितंबर को एक धर्म सभा में भाग लेने बोस्टन गए थे। वहां उनकी अलौकिक ऊर्जा इस तरह प्रवाहित हुई कि क्रियायोग के रथ पर सवार आध्यात्मिक आंदोलन कम समय में ही जनांदोलन बन गया था। आध्यात्मिक चेतना के विकास के लिए किए गए इस ऐतिहासिक कार्य की वजह से वे अमर हो गए। उनकी प्रासंगिकता युगों-युगों तक बनी रहेगी।

परमहंस योगानंद वैज्ञानिक सिद्धांतों के आधार पर धर्म और योग की शास्त्रसम्मत बातें करते थे। इसलिए ध्यान के योग विज्ञान, संतुलित जीवन की कला, सभी महान धर्मों में अंतर्निहित एकता जैसी उनकी बातें अकाट्य होती थीं। तभी श्रीमद्भगवतगीता में श्रीकृष्ण द्वारा बतलाए गए क्रियायोग की विराट शक्ति से अमेरिकी नागरिकों को परिचित कराने के मार्ग के अवरोध दूर होते चले गए थे। क्राइस्ट को मानने वाले कृष्ण को भी मान बैठे और परमहंस योगानंद योग व अध्यात्म के पितामह के तौर पर स्वीकार कर लिए गए।

 “ऑटोबायोग्राफी ऑफ अ योगी” 20वीं शताब्दी का एक ऐसा आध्यात्मिक आत्मकथा है, जो संतों, योगियों, विज्ञान व चमत्कार और मृत्यु व पुनरूत्थान के जगत् की एक अविस्मरणीय यात्रा पर ले जाता है। यह पुस्तक जब प्रकाशित हुई थी तो अमेरिका सहित दुनिया भर के अखबारों की सुर्खियां बनी थी।  न्यूयार्क टाइम्स की खबर का शीर्षक था – एक अद्वितीय वृतांत। इंडिया जर्नल ने लिखा – “ऑटोबायोग्राफी ऑफ अ योगी” एक ऐसी पुस्तक है, जो मन और आत्मा के द्वार खोल देती है। शेफील्ड टेलीग्राफ ने लिखा – एक स्मारकीय कार्य। न्यूजवीक ने लिखा – एक दिलचस्प एवं स्पष्ट व्याख्यापूर्ण अध्ययन।

परमहंस योगानंद अपने गुरू युक्तेश्वर गिरि, परमगुरू लाहिड़ी महाशय और परमगुरू के गुरू महावतारी बाबाजी की प्रेरणा से अमेरिका गए थे। उन्हें क्रियायोग का प्रचार करने को इसलिए कहा गया था, क्योंकि यह अशांत मन को शांति प्रदान करके उसे आध्यात्मिक मार्ग पर अग्रसर करने में सक्षम है। इस योग को अति प्राचीन पाशुपत महायोग का अंश माना जाता है। ऋषि-मुनि पाशुपत महायोग को गुप्त रखते थे और अपनी अंतर्यात्रा के लिए उपयोग करते थे। बाद में तंत्र के आधार पर विकसित पाशुपत योग को कुंडलिनी योग और राजयोग के आधार पर विकसित योग को क्रियायोग कहा गया। श्रीमद्भगवतगीता में श्रीकृष्ण ने उसी क्रियायोग की दो बार चर्चा की है।

योगदा सत्संग सोसाइटी के 100 साल पूरे होने पर सन् 2017 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने परमहंस योगानंद की याद में डाक टिकट जारी किया था।

क्रियायोग के बारे में अपनी पुस्तक “योगी कथामृत” में पहमहंस योगानंद ने कहा है कि इस लुप्तप्राय: प्रचीन विज्ञान को महावतारी बाबाजी ने प्रकट किया और अपने शिष्य लाहिड़ी महाशय को उपलब्ध कराया था। तब बाबाजी ने लाहिड़ी महाशय से कहा था – “19वीं शताब्दी में जो क्रियायोग तुम्हारे माध्यम से विश्व को दे रहा हूं, उसे श्रीकृष्ण ने सहस्राब्दियों पहले अर्जुन को दिया था। बाद में महर्षि पतंजलि, ईसामसीह, सेंट जॉन, सेंट पॉल और ईसामसीह के अन्य शिष्यों को प्राप्त हुआ।“ युक्तेश्वर गिरि कहा करते थे कि क्रियायोग एक ऐसी साधना है, जिसके द्वारा मानवी क्रमविकास की गति बढ़ाई जा सकती है। बिहार योग के जनक स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि शरीर ऊर्जा का क्षेत्र है. यह क्रियायोग का मूल दर्शन है। चिंता और परेशानियों के इस युग में मनुष्य की आध्यत्मिक प्रतिभा को जागृत करने की सबसे शक्तिशाली विधि है।

गोरखपुर का यह वही मकान है, जिसमें मुकुंद घोष का जन्म हुआ था, जो बाद में पूरी दुनिया में परमहंस योगानंद के नाम से मशहूर हुए थे। उनका जन्म 5 जनवरी 1893 को हुआ था। तब उनके पिता भगवती चरण घोष रेलवे के पदाधिकारी के रूप में गोरखपुर में पदस्थापित थे और मुफ्तीपुर थाना क्षेत्र में शेख मोहम्मद अब्दुल हाजी के मकान में किराएदार थे। मौजूदा समय में वह मकान कानूनी दांव-पेंच में फंसा हुआ है।

परमहंस योगानंद को पता था कि धार्मिक भिन्नता के कारण अमेरिका में क्रियायोग का प्रचार करना औऱ अपनी बातें लोगों को मनवाना आसान न होगा। ऐसे में उन्होंने दो सूत्र पकड़े। पहला तो लोगों को समझाया कि ज्यादातर मामलों में गीता के संदेश औऱ बाइबल के संदेश प्रकारांतर से एक ही हैं। फिर युवाओं को समझाया कि वे एक ऐसा यौगिक उपाय जानते हैं, जो मानसिक अशांति से उबारने में कारगर है। वह एक ऐसा दौर था जब अमेरिकी युवा मानसिक अशांति से बचने के लिए टैंक्वेलाइजर जैसी दवाओं के दास बनते जा रहे थे। परमहंस योगानंद कहते थे कि आध्यात्मिकता की सच्ची परिभाषा है शांति और अशांति की दवा भी यही है। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इसी यौगिक उपाय के जरिए अशांति से उबारा था। क्राईस्ट ने भी शांति को ही अशांति का एकमात्र उपाय माना था। इसलिए हर व्यक्ति शांति का राजकुमार बनकर आत्म-संतुलन के सिंहासन पर बैठ सकता है और अपने कर्म-साम्राज्य का निर्देशन कर सकता है। यह शांति कुछ और नहीं, बल्कि क्रियायोग है, जिसकी शिक्षा श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दी थी। विज्ञान की कसौटी पर कही गई ये बातें मानसिक समस्याओं से जूझते पश्चिम के लोगों को समझ में आई और क्रियायोग लोकप्रिय हो गया था।

परमहंस योगानंद की 125वीं जयंती पर बीते साल भारत सरकार ने 125 रुपये का सिक्का जारी किया था। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने ने इस मौके पर कहा कि परमहंस योगानंद भारत के महान सपूत थे, जिन्होंने दुनिया भर में अपनी पहचान कायम की। लोगों को मानवता के प्रति वैश्विक रूप से जागरूक करने का काम तब किया, जब संचार के साधन भी सीमित थे। भारत को अपने इस महान सपूत पर गर्व है, जिन्होंने दुनिया भर के लोगों के दिलों में एकता का संदेश भरा।’

परमहंस योगानंद का अमेरिका में सबसे पहला व्याख्यान “धर्म का विज्ञान” विषय पर हुआ था। उन्होंने एक तरफ जहां धर्म को परिभाषित किया तो दूसरी तरफ योग की व्यापकता की भी व्याख्या की। इसके साथ ही कहा कि धर्म का आधार वैज्ञानिक है और योगबल के जरिए धर्म मार्ग पर यात्रा करके ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है। आत्मा और परमात्मा बाहर नहीं अपने भीतर है। वहां तक पहुंचने के यौगिक मार्ग हैं, उपाय हैं। मेडिटेशन का लाभ तभी मिलेगा जब ईश्वर को प्राप्त करने के लिए पहले से बनाए गए आध्यात्मिक राजमार्ग पर चला जाएगा। इस काम में रश्म अदायगी से भी बात नहीं बनने वाली। वे कहते थे – यदि आप एक या दो डुबकियों में मोती प्राप्त नहीं कर पातें तो सागर को दोष न दें। अपनी डुबकी को दोष दें। पर ख्याल रखें कि ध्यान करना धर्म का सच्चा अभ्यास है।

परमहंस योगानंद ने 2017 में अविभाजित बिहार के झारखंड क्षेत्र के रांची शहर में योगदा सत्संग सोसाइटी की स्थापाना करके अपने आध्यात्मिक आंदोलन का श्रीगणेश किया था।

कैलिफोर्निया में आध्यात्मिक सभा हुई तो उन्होंने कृष्ण और क्राईस्ट के उपदेशों को आधार बनाकर अपना व्याख्यान दिया था – “बाइबल में कहा गया है कि मैं द्वार हूं। मेरे द्वारा यदि कोई मानव प्रवेश करता है तो वह उद्धार पाएगा। अंदर व बाहर आया-जाया करेगा। आहार प्राप्त करेगा। दूसरी तरफ भारतीय संत पहले से कहते रहे हैं कि सर्वप्रथम ईश्वर को जानो, फिर जो कुछ भी आप जानने की इच्छा करेंगे, वे आपके समक्ष प्रकट कर देंगे। यह सब उनका साम्राज्य है, यह उनकी ही ज्ञान है। योगशास्त्र कहता है कि भ्रूमध्य कूटस्थ केंद्र है, जो कि आध्यात्मिक नेत्र का स्थान है। केवल दिव्य चेतना में हम इस द्वार के पीछे विशुद्ध आनंद को प्राप्त कर सकते हैं।“ इन सभी बातों का सार एक ही है।

विज्ञान की भाषा में भ्रू-मध्य को पीनियल ग्रंथि का स्थान कहा जाता है। इस ग्रंथि से मेलाटोनिन हार्मोन का स्राव होता है, जो पिट्यूटरी ग्रंथि और मस्तिष्क पर सीधा प्रभाव डालता है। पीनियल ग्रंथि आध्यात्मिक यात्रा के लिहाज से बड़े काम की है। पीनियल ग्रंथि पर ध्यान की अवस्था में होने वाले प्रभावों का अध्ययन किया गया तो पता चला कि इस दौरान पीनियल ग्रंथि की क्रियाशीलता बढ़ जाती है। इससे मेलाटोनिन हार्मोन का स्राव होने लगता है तो मानसिक उथल-पुथल कम जाता है। योग विज्ञान में इस स्थान को आज्ञा चक्र और तीसरा नेत्र का स्थान कहते हैं। इसे जागृत करने की कई यौगिक उपाय हैं। उनमें एक है शांभवी मुद्रा। शिव संहिता के मुताबिक शंकर भगवान ने पार्वती को त्रिनेत्र जागृत करने के लिए यह विधि बताई थी। इसलिए इसे महामुद्रा कहते हैं। क्रियायोग से संपूर्ण चक्र क्रियाशील होते हैं तो इसके अद्भुत नतीजे मिलते हैं। ऐसी तर्कसंगत और विज्ञानसम्मत बातें पश्मिम के लोगों को समझते देर न लगी थी।

परमहंस योगाानंद और उनके गुरू युक्तेश्वर गिरि, परमगुरू लाहिड़ी महाशय और परम गुरू के गुरू महावतार बाबा जी।

पश्चिम के वैज्ञानिकों, मनोवैज्ञानिको, दर्शन शास्त्रियों और अन्य आध्यात्मिक लेखकों की पुस्तकें भी इस बात की गवाह हैं कि परमहंस योगानंद अपने मिशन में पूरी तरह कामयाब हुए थे। तभी उनकी मान्यताओं को आधार बनाकर शोध किए जा रहे हैं। उन शोधों के परिणामों के आधार पर पुस्तकें लिखी जा रही हैं। ऐसी असरदार है उनकी आध्यात्मिक ऊर्जा। सर जॉन मार्क्स टेंप्लेटन और रॉबर्ट एल हर्मन की पुस्तक है – “ईज गॉड द ओनली रियलिटी – साइंस प्वाइंट्स डीपर मीनिंग ऑफ यूनिवर्स?” उसमें कहा गया है कि यद्यपि विज्ञान और धर्म में विरोधाभास दिखता है। पर दोनों एक दूसरे से घनिष्ट रूप से जुड़े हुए हैं। यदि ईश्वराभिमुख कार्य होगा, जो कि होगा, तो चौंकाने वाले रहस्यों पर से पर्दा उठ सकता है।

यह सुखद है कि पश्चिमी दुनिया में आध्यात्मिक आंदोलन के प्रणेता जगद्गुरू परमहंस योगानंद और उनकी शिक्षाओं पर बीते तीन सालों से लगातार अंतर्राष्ट्रीय फलक पर चर्चा हो रही है। इसके कारण उनके कालजयी आध्यात्मिक संदेश नई पीढ़ी तक पहुंच रहे हैं। पर आध्यात्मिक राजमार्ग पर चलने के लिए इतने से बात बनने वाली नहीं। परमहंस जी सेल्फ रियलाइजेशन फेलोशिप के विस्तार की योजनाओं के बारे में शिष्यों को बताते हुए कहा था – “याद रखो, मंदिर मधु का छाता है, लेकिन ईश्वर ही मधु है। लोगों को आध्यात्मिक सत्य के विषय में बता कर ही संतुष्ट न रहो। उन्हें दिखलाओ कि वे स्वयं किस प्रकार ईश्वरीय अनुभूति पा सकते हैं।”

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

कोरोना के पहले और बाद में सहारा प्राणायाम है

चुनौती कोविड-19 संक्रमण तक ही सीमित नहीं है। कोविड-19 के प्रकोप से बच निकले अनेक लोग लाइलाज पल्मोनरी फाइब्रोसिस के शिकार हो रहे है। माना जा रहा है कि वेगस तंत्रिका तंत्र को उत्तेजित करके उपचार किया जा सकता है। प्रारंभिक अध्ययनों से पता चलता है कि प्राणायाम वेगस तंत्रिका तंत्र को उत्तेजित करने में सक्षम है। स्वामी विवेकानंद योग अनुसंधान संस्थान इटली सरकार के सहयोग से इस मामले में अनुसंधान कर रहा है।

आधुनिक चिकित्सा विज्ञान भी प्रकारांत से योग विज्ञानियों के इस दावे को पुष्ट करता दिख रहा है कि प्राणायाम की असीमित शक्तियां कोविड-19 संक्रमण के दुष्परिणामों से निबटने में भी बेहद लाभकारी साबित हो सकती हैं। इस धारणा का आधार श्वसन तंत्र के मामले में पूर्व में हुए यौगिक अनुसंधानों के परिणाम औऱ कोविड-19 से संक्रमित अनेक मरीजों के फीडबैक है। तभी दुनिया के अनेक देशों में एक तरफ स्वस्थ्य लोगों से लेकर संक्रमित लोगों तक को प्राणायाम करने की सलाह दी जा रही है। वहीं दूसरी ओर कोरोना संक्रमण के बाद उत्पन्न समस्याओं से निबटने में प्राणायाम की भूमिकाओं को लेकर वैज्ञानिक परीक्षण किए जा रहे हैं।

बिहार योग विद्यालय ने कोरोनाकाल में प्राणायाम की महत्त्ता को बताने के लिए अपने अनुसंधानों की विस्तृत व्याख्या करते हुए एप्प आधारित ऑडियो-वीडियो जारी किया था। देखते-देखते एक सौ देशों में बडी संख्या में लोगों ने उस वीडियों को देखा। उस वीडियो में प्राणायाम की उन आठ विधियों का जिक्र है, जो कोरोनाकाल के लिहाज से जरूरी हैं।

फोटो : स्वामी निरंजनानंद सरस्वती

कोविड-19 के दुष्प्रभाव जिन-जिन रूपों में सामने आ रहे हैं, उससे साफ है कि चुनौती कोविड-19 संक्रमण तक ही सीमित नहीं है। बड़ी चुनौती यह भी है कि कोविड-19 के संक्रमण से बच निकल लोगों के शरीर में उथल-पुथल हो चुके महत्वपूर्ण तंत्रिका-तंत्र और ग्रंथियों को किस तरह दुरूस्त किया जाए। इस उथल-पुथल की मुख्य परिणति पल्मोनरी फाइब्रोसिस के रूप में देखने को मिल रही है। फेफड़ों के उत्तक क्षतिग्रस्त होकर मोटे और कड़े हो जाने के कारण यह बीमारी हो रही हैं। माना जा रहा है कि वेगस तंत्रिका तंत्र को उत्तेजित करके पल्मोनरी फाइब्रोसिस के साथ ही कई बीमारियों का उपचार किया जा सकता है। इसलिए कि यह तंत्रिका मानव शरीर के कई महत्वपूर्ण पहलुओं को विनियमित करने में मदद करता है, जिनमें हृदय गति, रक्तचाप, पसीना, पाचन और यहां तक कि बोलना भी शामिल है।

आर्ट ऑफ लिविंग की सुदर्शन क्रिया को श्वसन तंत्र को दुरूस्त रखने के लिए प्रभावी माना जाता है, जिसका सीधा सकारात्मक असर मस्तिष्क, हृदय और फेफड़ों पर होता है। इस संबंध में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स), दिल्ली और निमहांस, बंगलुरू में अध्ययन किए गए थे।

श्रीश्री रविशंकर

कोविड-19 के संक्रमण से बचाव के मामले में जिस तरह आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के हाथ बंधे हुए हैं और बेसब्री से विश्वसनीय वैक्सीन की प्रतीक्षा की जा रही है। लगभग वैसी ही स्थिति कोविड-19 के कुप्रभावों को लेकर भी है। इसलिए जिस तरह रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए या संक्रमण के शुरूआती दौर में योगाभ्यासों विशेष तौर से नेति, कुंजल और कपालभाति जैसी शुद्धि क्रियाएं और प्राणायाम की अनेक विधियों के महत्व को दुनिया भर में स्वीकार किया गया है। लगभग वैसी ही स्थिति कोविड-19 संक्रमण के कुपरिणामों के मामले में भी है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान पल्मोनरी फाइब्रोसिस के विश्वसनीय इलाज के लिए वर्षों से प्रयासरत है। पर फिलहाल वैकल्पिक दवाओं का ही सहारा है।

बीते 30-40 सालों में हमने दुनियाभर के विभिन्न जर्नल्स में इस विषय में पांच से अधिक रिसर्च पेपर्स प्रकाशित किए हैंहम योग के माध्यम से एविडेंस बेस्ड डिलिवरी सिस्टम बनाने की कोशिश कर रहे हैं। हमने इस दौरान कई रिसर्च डिजाइन किए हैं, जिन्हें वैश्विक मान्यता मिल रही है

डॉ एचआर नगेंद्र, संस्थापक, स्वामी विवेकानंद योग अनसुंधान संस्थान, बेंगलूरु

पल्मोनरी फाइब्रोसिस जैसे लक्षणों वाली बीमारियों में प्राणायाम के लाभ लंबे समय से देखे जाते रहे हैं। दुनिया भर के अनेक चिकित्सा और यौगिक संस्थानों में ऐसे मामलों में अध्ययन किए गए तो सकारात्मक नतीजे मिले थे। इसी आधार पर माना जा रहा है कि कोविड-19 के बाद के दुष्परिणामों से निबटने में भी प्राणायाम की भूमिका हो सकती है। माना जा रहा है कि प्राणायाम के अभ्यास से वेगस तंत्रिका तंत्र उत्तेजित होगा तो कई समस्याएं स्वत: दूर होंगी। इसी अनुमान के वैज्ञानिक परीक्षण के लिए बंगलुरू स्थित स्वामी विवेकानंद योग अनुसंधान संस्थान ने इटली और बेल्जियम के संस्थानों से हाथ मिलाया है। बीते 15 अगस्त से कोई एक हजार लोगों पर अध्ययन किया जा रहा है।

जर्मनी में अनुसंधान के लिए मशहूर हीडलबर्ग यूनिवर्सिटी में भी पल्मोनरी फाइब्रोसिस के उपचार में प्राणायाम के प्रभावों का अध्ययन किया जा रहा है। इस साल मार्च में ही यह अध्ययन पूरा हो जाना था। पर अब संभवत: कोविड-19 से संक्रमित मरीजों के पल्मोनरी फाइब्रोसिस संबंधी मामलों में भी प्राणायाम का प्रभाव देखा जा रहा है। दूसरी तरफ अमेरिका के लंग हेल्थ इंस्टीच्यूट से लेकर अनेक चिकित्सा संस्थानों में अनुभव किया जा चुका है कि इस बीमारी में प्राणायाम की महती भूमिका होती है। इसलिए उन संस्थानों की ओर से खुलकर प्राणायाम की सिफारिश की जा रही है।

पल्मोनरी फायब्रोसिस फेफड़ों से संबंधित गंभीर रोग है. यह तब होता है जब फेफड़ों के उत्तक क्षतिग्रस्त होकर मोटे और कड़े हो जाते हैं. ये कड़े और मोटे उत्तक फेफड़ों के लिए कार्य करना मुश्किल बना देते हैं. जैसे-जैसे समस्या गंभीर होती जाती है, रोगी की सांसे उखड़ने लगती हैं और सांस लेना दूभर हो जाता है

आधुनिक युग के वैज्ञानिक संत तो कोविड-19 के दस्तक देने के समय से ही कहते रहे हैं कि फेफड़े को स्वस्थ्य रखकर ही कोरोना महामारी से लड़ा जा सकेगा और बाद के दुष्परिणामों से भी मुकाबला किया जा सकेगा। वे ऐसा अपने लंबे अनुभवों और योग शास्त्रों में उल्लिखित बातों को ध्यान में रखकर कहते रहे हैं। भारत के शीर्ष के दस योग संस्थानों ने प्राणायाम के प्रभावों को लेकर प्रकारांत से एक जैसी बातें की। बिहार योग विद्यालय, मुंगेर, कैवल्यधाम, लोनावाला, शिवानंद आश्रम, ऋषिकेश, द योगा इस्स्टीच्यूट, मुंबई, कृष्णमाचार्या योग मंदिरम, चेन्नई, पतंजलि योगपीठ आदि योग संस्थानों ने अपने पूर्व के वैज्ञानिक अनुसंधानों के आधार पर कोरोनाकाल के लिए भी प्राणायाम के महत्व पर बल दिया। इस मामले में भारत सरकार का आयुष मंत्रालय भी पीछे न रहा।

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वैज्ञानिक तथ्यों के आलोक में यह जानना जरूरी है कि प्राणायाम का इतना महत्व क्यों है? योग रिसर्च फाउंडेशन के मुताबिक, सामान्य श्वास में ली गई पांच सौ मिली लीटर हवा में ऑक्सीजन का अनुपात 20.95 फीसदी, नाइट्रोजन का 79.01 फीसदी और कार्बन डायऑक्साइड का 4 फीसदी रहता है। पांच सौ मिली लीटर में डेड़ सौ मिली लीटर हवा श्वास नलिकाओं में रहती है। बाकी हवा वायु कोशों में पहुंचती है। उससे ऑक्सीजन रक्त में जाता है और रक्त से कार्बन डायऑक्साइड हवा में आता है। पर व्यवहार रूप श्वास के जरिए इतनी हवा अंदर जाती नहीं। महाराष्ट्र के लोनावाला स्थित कैवल्यधाम योग संस्थान में 204 स्वस्थ्य लोगों की श्वसन क्रिया का अध्ययन किया गया था। पाया गया कि उनमें से 174 लोगों की नासिकाओं में श्वास का असामान्य प्रवाह था। स्पष्ट है कि यौगिक श्वसन के अभाव में फेफड़े के काम करने की क्षमता बेहद कम होती है। यदि किसी बीमारी की वजह से फेफड़ा क्षतिग्रस्त हो गया तो मुश्किलें बढ़ जाती हैं। समस्याएं यहीं से शुरू हो जाती हैं।

वेगस तंत्रिका, तंत्रिका तंतुओं का एक गुच्छा है, जो मस्तिष्क से उदर तक निकलती है। यह मस्तिष्क, पेट, हृदय, यकृत, अग्न्याशय, गुर्दा, प्लीहा, फेफड़े और सभी अनैच्छिक शारीरिक प्रक्रियाओं के संचलन को नियंत्रित करती है। जब वेगस तंत्रिका अपनी क्षमता का सबसे उत्तम प्रदर्शन करने में सक्षम नहीं होती है, तो शरीर और दिमाग कई तरह के रोगों के लिए अतिसंवेदनशील हो जाते हैं

बीते चार दशकों में प्राणायाम के प्रभावों पर दुनिया भर में काफी अध्ययन किए गए। टेक्सास य़ूनिवर्सिटी न्यूरो वैज्ञानिक डॉ स्टीफन एलिएट ने अपने शोध से निष्कर्ष निकाला कि श्वास की गति का हृदय गति से सीधा संबंध है। उन्होंने इलेक्ट्रोमायोग्राफी की सहायता से प्रमाणित किया कि यौगिक श्वसन से हृदय को स्वस्थ रखा जा सकता है। योग रिसर्च फाउंडेशन के अध्ययनों के मुताबिक नाड़ी शोधन प्राणायाम से तनाव कम होता है। रक्तचाप सामान्य रहता है और फेफड़ों की शकित व क्षमता बढ़ती है। अमेरिका के बैचलर यूनिवर्सिटी के अनुसंधान के नतीजे भी कुछ ऐसे ही थे।

महाराष्ट्र के लोनावाला स्थित कैवल्यधाम योग संस्थान में 204 स्वस्थ्य लोगों की श्वसन क्रिया का अध्ययन किया गया था। पाया गया कि उनमें से 174 लोगों की नासिकाओं में श्वास का असामान्य प्रवाह था। स्पष्ट है कि यौगिक श्वसन के अभाव में फेफड़े के काम करने की क्षमता बेहद कम होती है। यदि किसी बीमारी की वजह से फेफड़ा क्षतिग्रस्त हो गया तो मुश्किलें बढ़ जाती हैं।

फाइल फोटो

श्वेताश्वर उपनिषद् कहा गया है कि ज शरीर योग की प्रक्रियाओं से गुजरता है, वह वृद्धावस्था, रोग और मृत्यु से मुक्त हो जाता है। इस तरह हम देखते हैं कि प्राणायाम स्वास्थ्य जीवन के लिए बहुमूल्य निधि है और यौगिक विधियों द्वारा ऐसी अवस्था पाई जा सकती है। इसलिए योग को अपने जीवन का अनिवार्य अंग और नियमित आदत बनाना समय की मांग है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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