होली : परमानंद का सतरंगी उत्सव

किशोर कुमार //

रंग है, गुलाल है। मस्ती है, आनंद है। सतरंगी उत्सव है, उल्लास का महोत्सव है। तभी ब्रज की मस्ती भरी होली हो, महाराष्ट्र की मटकी होली हो या कोई अन्य होली, सभी का अंतर्निहित भाव एक है। वह है – बुराई पर अच्छाई की जीत का उत्सव। शास्त्रों में उल्लेख है और संत-महात्मा अपने अनुभवों के आधार पर कहते रहे हैं कि सात्विक गुणों में अभिवृद्धि होती है तो अंतर्मन में प्रेम और श्रद्धा का दीपक जलता है। ऐसे मन में ही आनंद का आविर्भाव होता है और जीवन उत्सव बन जाता है।

होली से जुड़ी जितनी भी कथाएं हैं, आध्यात्मिक दृष्टिकोण से मायने एक ही है। इसलिए होलिकादहन का गूढ़ार्थ समझे बिना यह महान उत्सव वैसा ही जान पड़ता है, जैसे आत्माविहीन शरीर। पुराण कथा तो सबको पता ही है। दैत्यराजा हिरण्यकश्यप भगवान शिव से अमरता का मिले वरदान से इतना अहंकारी हो गया था कि देवताओं में भी त्राहिमाम मच गया था। कोई ईश्वर की प्रार्थना करे, यह उसे गंवारा न था। पुत्र प्रह्लाद भी अपवाद न था। इसलिए उसने प्रह्लाद की जान लेने के लिए न जाने कितने ही यत्न किए। अपनी बहन होलिका की गोद में बैठाकर अग्नि में भस्म कर देते तक की कोशिश की।

आचार्य रजनीश ने इस प्रसंग को बड़े ही तर्कपूर्ण ढ़ंग से प्रस्तुत किया था। वे बड़े दार्शनिक थे, मनोवैज्ञानिक थे। उनकी कल्पनाशीलता कमाल की थी। बोलते थे तो ऐसे मानों आंखों देखा हाल बयां कर रहे हों। तो होली का मौका था और अपने शिष्यों को बता रहे थे – हिरण्यकश्यप प्रहलाद के सामने कमजोर मालूम होने लगा होगा। आनंद के सामने दु:ख सदा कमजोर हो जाता है। दु:ख नकार है। आनंद विधायक ऊर्जा का आविर्भाव है। दु:ख में कभी कोई फूल खिले हैं? कांटे ही लगते हैं। प्रहलाद के फूल के सामने हिरण्यकश्यप का कांटा लज्जा से भर गया होगा, ईर्ष्या से जल गया होगा। प्रहलाद के भगवान के नाम पर गाए गए गीत उसे बहुत बेचैन करने लगे होंगे। उसकी सांसें घुटने लगीं। फिर तो उसे एकबारगी वही सूझा जो सूझता है नकार को, नास्तिक को, निर्बल-दुर्बल को – मिटा दो इसे। यानी विध्वंस।

पर भक्त प्रह्लाद का बाल-बांका क्यों न हुआ? ओशो बताते हैं – प्रहलाद ने अपनी श्रद्धा-भक्ति में अवरोध न आने दिया। उसे पहाड़ से फेंका, पानी में डुबाया, आग में जलाया। पर परमात्मा पर विश्वास डोला नहीं और न ही पिता के प्रति दुर्भावना पैदा न हुई। यदि दुर्भावना भी आ गई होती तो तत्क्षण आस्तिक की मौत हो गई होती और वह जलकर भस्म हो गया होता। जीसस ने भी तो ऐसा ही किया था। सूली लगी थी और परमात्मा से प्रार्थना कर रहे थे – इन सभी को माफ कर देना, क्योंकि ये जानते नहीं क्या कर रहे हैं। ये नासमझ हैं। इसलिए कहता हूं कि संशय रहित भक्ति में बड़ी शक्ति है। ऐसे भक्त को सूली पर लटका कर या आग में जलाकर मारना असंभव है।  

आज के संदर्भ में देखें तो लगेगा कि हमारे भीतर भी तो हर पल, हर क्षण देव-दानवों के बीच संघर्ष चलते रहता है। और अंतर्मन में जो घटित होता है, वही भौतिक जगत में अनाचार, अत्याचार की घटनाओं कारण बनता है। मनुष्य त्रिगुणातीत है। उसकी स्थिति एक जैसी कभी नहीं रहती। सत्व, रजस और तमस गुणों की मात्रा में कमी-बेशी होती रहती है। परिणाम भी गुण के अनुरूप ही मिलने लगते हैं। ऐसे में अखंड श्रद्धा और विश्वास कैसे पनपे? फिर तो मन संदेह से भरा रहेगा। ऐसे मन से अभीष्ट की सिद्धि असंभव ही है। इन गुणों का विकास तो सात्विक गुणों की छांव में होता है। श्रीरामचरितमानस के सती पार्वती प्रसंग में कथा है। रजस गुणी दक्ष की बेटी थीं सती। देखा कि शिव जी भगवान श्रीराम को सच्चिदानंद कहते हुए अभिवादन कर रहे हैं तो मन संदेह से भर गया। सोचने लगीं कि विरह में तपता हुआ मनुष्य भला सच्चिदानंद कैसे हो सकता है? पर अगला जन्म पार्वती के रूप में हुआ तो मन में संशय के लिए कोई जगह न रह गई थी। प्रक्रियाओं से गुजरकर रूपांतरित हो चुकी थीं।

श्रीमद्भगवतगीता में श्रीकृष्ण कहते हैं – हे अर्जुन, तुम नित्य सत्व में स्थित रहो। अब परमज्ञानी अर्जुन भी नित्य सत्व में स्थित न रह सके थे तो आम आदमी की क्या बिसात? मेरे गुरूदेव परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं कि तुम्हारे लिए इसका मतलब यह हुआ कि काम कुछ भी करते रहे। पर भावना शुद्ध रखने की कोशिश करनी है। तभी मन से संशय दूर रहेगा और संकल्पों में दृढ़ता आएगी। चेतना का विकास करके भावनाओं को परिशुद्ध करने के लिए ही योगविद्या है। यहां योगविद्या से तात्पर्य केवल आसन-प्राणायाम नहीं है। राक्षसों की सबसे बड़ी कमजोरी क्रूरता है तो मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी कृपणता है। इसलिए, सेवा और परमार्थ की जरूरत है। इनमें ऐसी शक्ति है कि जीवन पूरी तरह रूपांतरित हो जाए। कृपणता के रहते सत्वगुणों का विकास संभव नहीं है। फिर श्रद्धा व भक्ति दूर की कौड़ी हो जाएगी और असुरों का साम्राज्य कायम रह जाएगा।          

होली का संबंध श्री कृष्ण और राधा रानी की प्रेम कहानी से भी जुड़ा है। पुराण कथा है कि श्री कृष्ण खुद तो काले-नीले थे और राधा रानी के गोरे रंग को देखकर माता से बार-बार सवाल करते कि मैं क्यों काला? यशोदा माता ने कहा कि जो रंग पसंद हो राधा को लगा दो। फिर क्या था। श्रीकृष्ण ने राधा रानी को अपने ही रंग में रंग दिया था। कालांतर में यही दिवस होली का दिन हो गया। इस प्रसंग को आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखें तो बात बड़ी अर्थपूर्ण लगेगी। राधा रानी पर भगवान की कृपा इसलिए बरसी कि वह इसके पात्र थीं।

संत-महात्मा कहते रहे हैं, हमें याद रखना होगा कि श्रद्धा और विश्वास ही धन है। आध्यात्मिक उपलब्धियों के लिए इसी धन की जरूरत होती है। आध्यात्मिक उपलब्धियां ही जीवन को अर्थपूर्ण बनाती है। इसलिए होली हमें आत्म-निरीक्षण का अवसर देती है। यह त्योहार हमें प्रेरित करता है कि सत्वगुणों का विकास करके प्रेम की गंगा ऐसे बहाओ कि मानवता को कलंकित करती आसुरी प्रवृत्तियों के लिए जीवन में कोई स्थान न रह जाए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

कम हियर, माई डीयर कृष्ण कन्हाई….

किशोर कुमार

“नंद के आनंद भयो, जय कन्हैया लाल की….. गोकुल के भगवान की, जय कन्हैया लाल की…… “ जन्माष्टमी के मौके पर ब्रज में ही नहीं, बल्कि देश-दुनिया के भक्त इस बोल के साथ दिव्य आनंद में डूब जाएंगे। सर्वत्र उत्सव, उल्लास और उमंग का माहौल होगा। भजन-संकीर्तन से पूरा वातावरण गूंजायमान होगा। ऐसा हो भी क्यों नहीं। श्रीकृष्ण विश्व इतिहास और वैश्विक-संस्कृति के एक अनूठे व्यक्ति जो थे। विश्व के इतिहास में वैसा विलक्षण पुरुष फिर पैदा नहीं हुआ। वे लीलाधर थे, महान् दार्शनिक थे, महान् वक्ता थे, महायोगी थे, योद्धा थे, संत थे….और भी बहुत कुछ। तभी पांच हजार साल बाद भी सबके हृदय में विराजते हैं।

उनकी महिमा से जुडा एक ऐतिहासिक प्रसंग मौजूदा समय के लिए बड़ा संदेश है। कलियुग में भक्ति का महत्व और उसकी श्रेष्ठता का पता चलता है। कृष्ण-भक्त चैतन्य महाप्रभु को तो श्रीकृष्ण का ही अवतार माना जाता है। वे जगन्नाथ पुरी से झारखंड होते हुए काशी जा पहुंचे। उन दिनों काशी के संन्यासियों में स्वामी प्रकाशानंद की बड़ी प्रतिष्ठा थी। वेदांत के प्रकांड विद्वान थे और उनके तप, तेज और पांडित्य के आगे सभी अपना मस्तक झुकाते थे। पर चैतन्य महाप्रभु तो ठहरे भक्तिभाव वाले। उन्हें पंडिताऊ बातों से कहां सरोकार था। वे तो सीधे-सीधे कहते थे कि श्रीकृष्ण मंत्र के के निरन्तर जप और यहां तक कि श्रवण मात्र से मनुष्य अपने जीवन के इच्छित उद्देश्य को प्राप्त कर सकता है। पर स्वामी प्रकाशानंद को चैतन्य महाप्रभु का तरीका बिल्कुल नहीं भाया। उन्होंने अपने शिष्यों से कह दिया कि कि वे संन्यास-धर्म के विपरीत काम करते हैं और जादू-टोने की बदौलत अपनी महिमा फैलाते हैं। उनक फेर में नहीं पड़ना।

चैतन्य महाप्रभु को तो वैसे भी वृंदावन ही जाना था। सो वे काशी वासियों के रूखे व्यवहार से दुखी होकर वृंदावन के लिए कूच कर गए। कृष्ण-भक्ति के लिहाज से वृंदावन की भूमि बेहद ऊर्वर थी। चैतन्य महाप्रभु का भक्ति आंदोलन जल्दी ही चरम पर जा पहुंचा। राधा-कृष्ण की समस्त लीलाएं मानों जीवंत हो उठीं। चैतन्य महाप्रभु कुछ समय बाद फिर काशी लौटे तो एक भोज में उनका सीधा सामना स्वामी प्रकाशानंद से हो गया। स्वामी प्रकाशानंद ने तो महाप्रभु का नाम भर सुना था। देख रहे थे पहली बार। वे महित हो गए। बगल में बिठाया और मन की बात कह दी – आप तो साक्षात नारायण के समान दर्शनीय हैं। पर संन्यासियों के लिए दूषित नृत्य-गीत आदि में निमग्न क्यों रहते हैं? चैतन्य महाप्रभु ने अपने गुरू केशव भारती का हवाला देते हुए कहा, “कलिकाल में नापजप से ही कर्मबंध का क्षय होगा। मैं गुरू की आज्ञा शिरोधार्य करके कृष्णनाम का जप करता हूं। आप देख सकते हैं कि मेरी प्रकृति बदल चुकी है। मैं जान चुका हूं कि कोरा ज्ञान आस्था नहीं दे पाता।“ उन्होंने अपने तर्कों से सिद्ध किया कि वेद वैष्णव धर्म का पोषण करते हैं। स्वामी प्रकाशानंद इन तर्कों से इतने प्रभावित हुए और महाप्रभु के चरणों में साष्टांग लेट गए थे। इसके बाद तो पूरी काशी चैतन्य महाप्रभु के चरणों में मानो लेट गई थी।   

कृष्णभक्ति आंदोलन के तमाम संत कहते रहे हैं कि श्रीकृष्ण को मायावादी दृष्टिकोण से नहीं देखा जाना चाहिए। उनके नाम, उनके रूप, उनके गुणों और उनकी लीलाओं में अंतर नहीं है। वह परब्रह्म हैं। पर हम सब श्रीकृष्ण की बहिरंग शक्ति से मोहित हैं, जो माया के सिवा कुछ भी नहीं है। शुद्ध प्रेम की आंखें नहीं होने के कारण तथाकथित बुद्धिमत्ता अवरोध उत्पन्न कर देती है। आखिर मीरा जब श्रीकृष्ण के प्रेम में पड़ीं थीं तो उस समय के समाज को उनका प्रेम अंधा मालूम पड़ा ही था न। लेकिन आज हम सब जान गए हैं कि उनके हृदय के प्रेम की अंतिम परिणति क्या थी। श्रीकृष्ण की लीलाओं और उनके संदेशों को आध्यात्मिक नजरिए देखा जाना चाहिए। इस बात को एक कथा के जरिए समझिए, जिसे बीसवीं सदी के महान संत और बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती अक्सर सुनाया करते थे – श्रीकृष्ण को अपनी बांसुरी से बेहद प्रेम था। सोते-जगते, उठते-बैठते हर समय उनके पास ही होती थी। उनकी दिव्य ऊर्जा के प्रभाव के कारण बांसुरी की ध्वनि इतनी शक्तिशाली हो गई थी कि संपूर्ण सृष्टि का निर्माण हो गया। श्रीकृष्ण के प्रेमरस के लिए व्याकुल रहने वाली गोपियों को बड़ा अजीब लगता था। सूखे और खोखले बांस से बनी बांसुरी श्रीकृष्ण को इतनी प्यारी क्यों है? रहा न गया तो गोपिकाओं ने सीधे-सीधे बांसुरी से ही पूछ लिया – बांसुरी, हमें सच-सच बताओ कि तुममें ऐसा क्या है कि भगवान के इतने प्यारे हो?

बांसुरी तो अपने प्रियतम के प्रेमरस में सराबोर थी। उसे क्या पता जादू क्या होता है। लिहाजा उसने जबाव दिया – मुझे न तो जादू करना आता है और न सम्मोहन कला आती है। मैं तो जंगलों में पलती-बढ़ती हूं। अंदर से सदा खोखली ही रहती हूं। मेरे इष्टदेव को मेरी कमियों की जानकारी है। फिर भी वे प्रसन्न रहते हैं। वे एक ही बात कहते हैं – “अपने आप को खाली रखो, मैं तुम्हें भर दूंगा।“ मैं जिसे अपनी कमजोरी समझती रही हूं, भगवान की नजर में वही मेरी शक्ति है।“ इस कथा का संदेश यह कि निरहंकारिता का मंदिर जिसे मिल गया, उसके अपने भीतर के मंदिर के द्वार खुल जाते हैं। सवाल है कि अहंकार से मुक्ति कैसे मिले? श्रीकृष्ण ने इसके लिए अनेक विधियां बतलाईं। उनमें भक्ति को सबसे श्रेष्ठ बतलाया।

श्रीभागवतम् में कथा है कि द्वापर युग के अंत में नारद जी ब्रह्मा जी के पास गए और उनसे पूछा भगवन्, मैं इस संसार में रमते हुए कलियुग को कैसे पार कर सकूंगा ?” ब्रह्मा जी ने कहा- “तुम उस कप की सुनो, जो श्रुतियों में सन्निहित है और जिससे मनुष्य कलियुग में संसार को पार कर सकता है। केवल नारायण का नाम लेने से मनुष्य इस कराम कलियुग के बुरे प्रभाव को दूर कर सकता है।” फिर नारद ने ब्रह्माजी से पूछा- “मुझे वह नाम बताइए।” तब ब्रह्माजी ने कहा-

“हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे । हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ॥”

ये सोलह नाम हमारे सन्देह, भ्रम तथा कलियुग के बुरे प्रभाव को दूर कर देते हैं। ये प्रज्ञान का निवारण कर देते हैं। ये मन के अंधकार को दूर कर देते हैं। फिर जैसे कि ठीक दोपहर के समय सूर्य अपने पूर्ण तेज सहित भासमान होता है, वैसे ही परब्रह्म अपने पूर्ण प्रकाश के साथ हमारे हृदयाकाश में प्रकाशित हो जाते हैं और हम समस्त संसार में केवल उनसे हो अनुभूति करते हैं।

इस्कॉन के संस्थापक श्रील प्रभुपाद अक्सर कहा करते थे, जैसे चिकित्सक संक्रमण को रोकने के लिए पूर्वोपाय के रूप में टीके लगता है। वैसे ही सभी तरह के पापों को फलित होने से रोकने के लिए पूर्णतया कृष्णभावना भक्ति का परायण हो जाना आवश्यक है। वे इस संदर्भ में, श्रीमद्भागवत (६.२.१७) का उदाहरण देते थे, जिसमें शुकदेव गोस्वामी ने अजामिल की एक कथा बतलाई है। अजामिल ने अपना जीवन एक कुशल और कर्तव्य-परायण ब्राह्मण के रूप में प्रारम्भ किया था; परन्तु यौवन में वेश्या-संग से बिल्कुल भ्रष्ट हो गया। फिर भी, अपने पापमय जीवन के अंत में नारायण नाम पुकारने के फलस्वरूप उसका सब पापों से उद्धार हो गया। शुकदेव गोस्वामी ने कहा है कि तप, दान, व्रत आदि से पापों का नाश तो हो जाता है; परन्तु हृदय से पाप-बीज का नाश नहीं होता, जैसा यौवन में अजामिल के साथ हुआ। इस पाप-बीज का नाश एकमात्र कृष्णभावनाभावित होने पर ही हो सकता है । श्रीचैतन्य महाप्रभु का सन्देश है कि कृष्णभावना की प्राप्ति हरेकृष्ण महामन्त्र का जप कीर्तन करने से बड़ी सुगमतापूर्वक हो जाती है।

संतों ने नामजप और संकीर्तन को आधुनिक युग के लिहाज से सबसे उपयुक्त माना। उनकी वाणी है कि इसी शताब्दी में लोग नामजप और संकीर्तन को आधार बनाकर भक्ति का आश्रय लेंगे। भक्ति यानी श्रद्धा, प्रेम, केवल विशुद्ध प्रेम। किसी मान्यता नहीं, बल्कि विज्ञान के आधार पर इसके महत्व को समझा जाएगा। हम सब देख रहे हैं कि संकीर्तन और मंत्रों की शक्ति पर दुनिया भर में अध्ययन किया जा रहा है। पता चल चुका है कि मंत्रों की ध्वनि मानसिक और भावनात्मक स्तर पर आश्चर्यजनक ढंग से सकारात्मक प्रभाव डालती है। इसलिए कि इस ध्वनि से मानव के वेगस तंत्रिका तंत्र झंकृत होता है। शोध का दायर जैसे-जैसे व्यापक हो रहा है, अवसादग्रस्त लोग या चेतना के उत्थान के लिए सजग लोग भक्तियोग का अनुसरण करने लगे हैं। श्रीकृष्ण के संदेशों की प्रासंगिकता बढ़ती जा रही है। तभी भारतीयों की कौन कहे, बड़ी संख्या में विदेशी भी मंत्र साधना तो करते ही हैं, “कम हियर, माई डीयर कृष्ण कन्हाई….” के धुन पर थिरकते दिखते हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

भावातीत स्वरूप वाली महान संत आनंदमयी मां

किशोर कुमार //

बीसवीं सदी की महान योगिनी श्री आनंदमयी मां विंध्याचल स्थित अपने आश्रम में थीं। मिर्जापुर के जिलाधिकारी उनके दर्शन के लिए आश्रम पहुंचे तो मां ने उन्हें आश्रम के अहाते की एक जगह दिखाते हुए कहा, इस भूमि के गर्भ में अनेक देवी-देवताओं की मूर्तियां सदियों से गड़ी हैं। अब उनका दम घुटने लगा है। आप उस स्थल की खुदाई करवा कर उन्हें निकालने का प्रबंध कर दें। यह बात सन् 1955 की है। जिलाधिकारी नृसिंह चटर्जी ने मां के इस आग्रह को किसी दैवी आदेश की तरह लिया और हैरानी की बात यह रही कि लंबे समय तक चली खुदाई के बाद लगभग दो सौ मूर्तियां मिल गई थीं। यह घटना किसी चमत्कार से कम न थी।

कोई दो दशकों तक मां की साधना का मुख्य केंद्र काशी रहा। शुरूआती दिनों में आश्रम के लिए जगह की तलाश की जा रही थी। पर बात बन नहीं पा रही थी। सन् 1942 में मां अपनी शिष्या श्री गुरुप्रिया आनंद गिरि, जिन्हें सभी दीदी थे, के साथ बनारस रेलवे स्टेशन के प्रतिक्षालय में बैठी थीं। तभी उनकी नजर बनारस के मानचित्र पर गई। वह एक स्थान पर उंगली रखकर कहा, देखो दीदी, यह रहा तुम्हारा आश्रम। वह स्थान अस्सी और भदैनी के बीच था। मां के शिष्य उस स्थल पर गए तो ऐसा लगा मानो जमीन का मालिक इंतजार में ही था कि वहां कितनी जल्दी मां का आश्रम बन जाए। 

मां एक बार कानपुर से लखनऊ कार से जा रहीं थीं। उन्नाव के पास एक गांव से गाड़ी गुजर रही थी तो मां सहसा बोल पड़ीं – “कितना सुन्दर गांव है, कितना सुन्दर पेड़ हैं।” मां की शिष्या श्री गुरुप्रिया आनंद गिरि ने यह सुनते ही गाड़ी रूकवा दी। फिर वहां पहुंची जहां सुंदर पेड़ थे। दरअसल, तालाब के किनारे दो छोटे-छोटे नीम व बट के पेड़ थे। मां ने गाड़ी से उतर कर पेड़ों का खूब आदर किया। बोली, “अच्छा तुम लोग इस शरीर को ले आए।” गाड़ी से फलों की टोकरी व माला मंगवाई। मालाएं वृक्षों पर अपने हाथों से सजा दीं और फल बांट दिए। स्थानीय लोगों से कहा, इन वृक्षों की पूजा करना। भला होग

मां ने बचपन से लेकर समाधि तक ऐसी लीलाएं इतनी की कि उनकी गिनती ही न रह गई। वह ऐसी लीलाएं क्यों करती थीं? महान संत तो चमत्कारों के पीछे भागते ही नहीं। फिर मां आजीवन ऐसा क्यों करती रहीं? उत्तर मिलता है कि भगवान का चरित्र उजागर करने, भगवान का संदेश फैलाने का उनका यही तरीका था। आधुनिक विज्ञान नए-नए अनुसंधान करके अवचेतन मन की शक्तियों पर प्रकाश डालते रहता है। पर मां की हर लीला में मानव चेतना के विकास के लिए, मानव के कल्याण के लिए कोई न कोई संदेश होता था। वह कहती थीं कि व्यक्ति अपने गुण-कर्म के आधार पर उन शक्तियों को यथा संभव जागृत करके जीवन को धन्य बना सकता है। मां के आचरण में साधुता, प्रज्ञा में ज्ञान की चमक और भाव के स्तर पर भक्ति थी। वे बतलाती थी कि पुनर्जन्म होता है। यदि कोई व्यक्ति ऊंचे सिंहासन पर बैठा है तो उसमें पूर्व जन्म के पुण्यों का भी योगदान होता है।  इसलिए जीवन में सत्व गुण की प्रधानता रहे, यह बहुत जरूरी है।

मां की शक्तियां भी उनके पूर्व जन्मों के सत्कर्मों का ही प्रतिफल था। इसलिए कि इस जन्म में तो उनके न कोई गुरू थे और न ही उन्होंने कहीं योग और अध्यात्म की शिक्षा ली थी। औपचारिक शिक्षा भी न थी। पर, बचपन से ही भक्तियोग के रस टपकने लगे थे। ढाई साल की उम्र में ननिहाल में थीं और वहां मां के साथ कीर्तन में गईं तो वहां शरीर शिथिल होकर लुढक गया था। पर किसी के लिए भी समझना मुश्किल था कि यह कीर्तन का प्रभाव है। समय बीतता गया और दैवीय शक्तियां स्फुटित होती गईं। मां को बचपन से नाम संकीर्तन खूब भाता था। आध्यात्मिक अनुभवों से इसकी वैज्ञानिकता भी समझ में आ गई। लिहाजा चैतन्य महाप्रभु कि तरह उन्होंने संकीर्तन को ही भवगत् संदेश बांटने का जरिया बनाया था।

रामचरितमानस में कागभुशुंडिजी की कथा है। वह पक्षीराज गरूड़जी से कहते हैं कि कौए का शरीर ही मुझे बहुत प्यारा है। क्यों? क्योंकि इस शरीर में प्रभु की भक्ति अंकुरित हुई और इसी शरीर से भजन हो पाता है। वे फिर कलियुग गुण-धर्म का वर्णन करते हुए कहते हैं, सतयुग में ध्यान करने से, त्रेता युग में यज्ञ करने से और द्वापर में पूजा करने से जो फल मिलता है, वैसा ही फल कलियुग में नाम संकीर्त्तन, जप से मिलता है। मां कहती थीं कि यदि किसी में सत्व गुण की प्रधानता है और पूर्व जन्म का प्रारब्ध भी सहयोग में है तो ऐसा व्यक्ति कलियुग में भी सतयुग या अन्य युगों जैसा बेहतर फल प्राप्त कर सकता है। पर आम लोगों के लिए तो “कलियुग केवल नाम अधारा, सुमिर-सुमिर नर उतरहि पारा…।“ इसलिए कीर्तन करो, नाम के जप और कीर्तन से ही सब कुछ होता है।

मां कहतीं, ‘स्मरण रक्खो, स्मरण रक्खो, भगवान् का नाम सर्वदा स्मरण करते-करते इस संसार रूपी कारागार के दिन कट जाएंगे। स्वयं तो अच्छे होने की चेष्टा करना ही, जो जहाँ हो, उसे भी बुला लेना, जिसके कर्म के साथ धर्म का संबंध नहीं है; उसको ईश्वर का नाम (भजन) करने के लिए निरंतर विनती करो। जो उसको (भगवान् को) जिस किसी विशुद्ध-भाव से पाने को चेष्टा कर रहा है, उसको उसी भाव से आलिंगन करो, और जिसने उसकी महिमा को जान लिया है उसके सत्संग से अपने जीवन को कृतार्थ करो।”

श्रीमद्भागवत गीता में उल्लेख है, कागभुसुंडि जी की कथा है और आधुनिक युग के संत भी वैज्ञानिक आधार पर कहते रहे हैं कि हम अपनी यात्रा इस जन्म में जहां खत्म करते हैं, अगले जन्म में वहीं से शुरू करते हैं। इसलिए आध्यात्मिक यात्रा शुरू करने का कोई समय नहीं होता। जब जागे, तभी सबेरा। क्षय शरीर का होता है, आत्मा अमर है। मां यह बात सबसे कहती थीं। लगभग पांच दशकों तक देश के कोने-कोने में हरि-स्मरण, हरि-संकीर्तन का अलख जगाकर भक्ति की गंगा प्रवाहित करने वाली मां के पास उनके समकालीन साधु-संतों से लेकर राजनीति और दूसरे क्षेत्र के दिग्गजों का आना-जाना लगा रहता था। मां भी नन्हीं बच्ची की तरह सभी आत्मज्ञानी संतों के दर्शन के लिए जाया करती थीं।

परमहंस योगानंद ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “योगी कथामृत” में वर्णन किया हुआ है – मैं पहली बार आनन्दमयी माँ से मिला था तो मसझते देर न लगी कि भीड़ में होते हुए भी वे समाधि की एक उच्च अवस्था में थीं। अपने बाह्य नारी रूप का उन्हें कोई भान नहीं था। उन्हें केवल अपने परिवर्तनातीत आत्म-स्वरूप का भान था। उस अवस्था में वे ईश्वर के एक अन्य भक्त से आनन्द के साथ मिल रही थीं। उनकी यात्रा में देरी होते देख मैं जल्दी ही निकल लेना चाहता था। पर वह बोल पड़ीं, “बाबा! मैं कई युगों बाद इस जन्म* में आपसे पहली बार मिल रही हूँ! इतनी जल्दी तो मत जाइए!” योगानंद जी दरअसल अपनी भतीजा अमिया बोस के आग्रह पर मां से मिलने गए थे। अमिया ने उनसे कहा था – “निर्मला देवी यानी मां के दर्शन किए बिना कृपया भारत से मत जाइए। उनमें अत्यंत तीव्र भक्तिभाव है; सब तरफ वे आनन्दमयी माँ के नाम से विख्यात हैं। मैं उनसे मिली हूँ। अभी हाल ही में वे मेरे छोटे- से नगर जमशेदपुर पधारी थीं। एक शिष्य के अनुरोध पर आनन्दमयी माँ एक मरणासन्न मनुष्य के घर गईं। वे उसकी शय्या के पास खड़ी हो गयींउनके हाथ ने जैसे ही उसके माथे का स्पर्श किया, उसकी घर्र-घर्र बन्द हो गई। उसकी बीमारी तत्क्षण गायब हो गई। वह भी देखकर आनन्दित और विस्मित हो गया कि वह पूर्ण रूप से स्वस्थ हो चुका था।”

विश्व प्रसिद्ध बिहार योग विद्यालय के संस्थापक स्वामी सत्यानंद सरस्वती अक्सर मां के दैवीय स्वरूप में चर्चा करते थे। उन्हें परमहंस की उपाधि मां ने ही दी थी। डा० अलेक्जेंडर लिपस्की परमहंस स्वामी योगानन्द की पुस्तक ‘योगी कथामृत’ पढकर मां की ओर आकर्षित हुए थे। वाराणसी में १९६५ में मां से मिले तो उनके ही होकर रह गए। उन्होंने लिखा कि उनका अनुभव था कि मस्तिष्क की अन्तरतम परतों में भी मां का सहज प्रवेश है। मां की तुलना उन्होंने वृहत आध्यात्मिक चुम्बक से की है, जिसके सामने से अपने को अलग कर पाना कठिन प्रतीत होता है। अपने को एकदम अनपढ़ कहने वाली मा आनन्दमयी के मुख से बड़े बड़े विद्वानों द्वारा पूछे गये गूढ़ प्रश्नों के उत्तर इतनी सहजता, सरलता एवं दृढ़ता से सुनने को मिले कि आश्चर्य हुआ। मां के श्रीमुख से ‘हे भगवान्. और सत्यं ज्ञान अनन्तम् ब्रह्म का कीर्तन उन्हें ईश्वर के प्रेम और आनन्द का उच्छवास प्रतीत हुआ और यह कहने को लिपस्की विवश हो गये कि ‘पृथ्वी में अगर कहीं स्वर्ग है तो यही है, यहीं है, यहीं है।

आम लोगों की कौन कहे, बड़े-बड़े संतों को भी मां परमात्मा की अवतार जैसी लगती थीं। महर्षि दयानंद सरस्वती से रहा न गया। उन्होंने मां से पूछ लिया था, मां तुम कौन हो? कोई कहता है तुम अवतार हो, कोई कहता है तुम आवेश हो, कोई कहता है साधक या बद्ध जीव हो, मुझे यथार्थतः जानने की इच्छा है तुम कौन हो? मां ने कहा, “बाबा, तुम मुझे क्या समझते हो? तुम जो समझते हो मैं वही हूं।” इस उत्तर को ऐसे समझिए। श्रीमद्भागवत गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे पृथानन्दन! जो भक्त जिस प्रकार मेरी शरण लेते हैं, मैं उन्हें उसी प्रकार आश्रय देता हूँ; क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकार से मेरे मार्ग का अनुकरण करते हैं। इस तरह महर्षि दयानंद जी को मां के उत्तर में ही मां के स्वरूप का वास्तविक परिचय मिल गया था। जीवन पर्यंत प्रेम, परोपकार और भक्ति का संदेश देकर लोगों का जीवन धन्य बनाने वाली महान योगिनी को महासमाधि दिवस (27 अगस्त) पर सादर नमन।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

अनिद्रा से मुक्ति दिलाएंगी ये योग विधियां

किशोर कुमार

कोरोना महामारी के बाद अनिद्रा की समस्या से पीड़ित और अवसादग्रस्त लोगों की बढ़ती तादाद स्वास्थ्य से जुड़ी बड़ी समस्या बनकर उभरी है। जब बच्चे अनिद्रा की शिकायत करने लगें और तनावग्रस्त हो जाएं तो मान लेना चाहिए कि पानी सिर से ऊपर बह रहा है। आर्थिक महाशक्ति बनने का सपना देखने वाले भारत के लिए यह चिंता का विषय है। इसलिए कि इस समस्या का सीधा संबंध हमारी अर्थ-व्यवस्था से भी है। मेलाटोनिन हार्मोन का न बनना अनिद्रा की सबसे बड़ी वजह है। पर अनिद्रा की समस्या दूर हो जाए तो स्वास्थ्य संबंधी बहुत सारी समस्याओं से मुक्ति मिल जाएगी। भारत के योगी सदियों से बतलाते रहे हैं कि प्राकृतिक तौर पर मेलाटोनिन के उत्पादन में किसी कारण से बाधा आती है तो उसका यौगिक समाधान है। पर मेलोटोनिन स्राव के लिए दवा तैयार करने वाली कंपनियों का धंधा जिस तरह चमका है, वह चिंताजनक है। इसलिए कि इसके परिणाम अधिक घातक होने वाले हैं।

महाभारत की एक कथा इस संदर्भ में प्रासंगिक है। श्रीकृष्ण महाभारत युद्ध से पूर्व कौरवों के पास संधि प्रस्ताव लेकर गए थे। कहा था, क्यों आपस में झगड़ने पर आमादा हो? पांच राज्य नहीं, तो पांच गांव ही दे दो। दुर्योधन तैयार न हुआ तो श्रीकृष्ण ने उसे राजधर्म की याद दिलाई। इसके प्रत्युत्तर में दुर्योधन ने जो कहा, वह गौर करने लायक है। वह कहता है – “राजधर्म क्या है, मैं जानता हूं। पर उस ओर मेरी प्रवृत्ति नहीं है। अधर्म क्या है, मैं उसको भी जानता हूं। पर अधर्मों से अपने को दूर नहीं रख पाता। पता नहीं, वह कौन-सी शक्ति है, जो मेरे भीतर बैठकर पापकर्म कराती है।“ श्रीमद्भगवतगीता में अर्जुन इस बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि तमोगुणी व्यक्ति बड़ा ही अहंकारी होता है, अज्ञानी होता है। उसमें “मैं” की भावना प्रबल होती है। इस वजह से सज्जनों की बातों से राजी होने को तैयार नहीं होता, बल्कि इसके उलट काम करता है। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि मानसिक शांति से ही मैपन छूटेगा, अहंकार टूटेगा, तमोगुण मिटेगा और जीवन सुखमय होगा। इसके लिए उपाय एक ही है और वह है – अभ्यास योगेन तत: मामिच्छाप्तुं धनंजय। यानी योगाभ्यास।

आज के संदर्भ में हम सबकी स्थिति भी कुछ दुर्योधन जैसी ही हो गई है। तभी यौगिक उपायों का ज्ञान होते हुए भी हम सब दवाओं के पीछे भागे चले जा रहे हैं। इसके कुपरिणाम तक झेलने को तैयार हैं। यह बात किसी से छिपी नहीं रही कि अनिद्रा दूर करने वाला कृत्रिम मेलाटोनिन कुछ समय बाद अनिद्रा का ही कारण बन जाता है। अठारहवीं सदी के लखनवी शायर लाला मौजी राम मौजी ने लिखा था – “दिल के आइने में हैं तस्वीरें यार, जब जरा गर्दन झुकाई देख ली।“ हम सब भी नजरिया बदल लें तो बात बन जाएगी। योगाभ्यास से प्राकृतिक तौर पर मेलाटोनिन का उत्पादन होने लगेगा। इसके विस्तार में जाने से पहले जानना जरूरी है कि आखिर मेलाटोनिन हार्मोन होता क्या है? अनुसंधानों से पता चल चुका है कि भ्रू-मध्य के ठीक पीछे मस्तिष्क में अवस्थित पीयूष या पीनियल ग्रंथि के भीतर की पीनियलोसाइट्स कोशिकाओं से मेलाटोनिन हॉर्मोन बनना बंद हो जाता है तो अनुकंपी (पिंगला) और परानुकंपी (इड़ा) नाड़ी संस्थान के बीच का संतुलन बिगड़ जाता है।

इसके उलट यदि मेलाटोनिन हार्मोन का स्राव होते रहता है तो अनिद्रा की समस्या आती ही नहीं। अब तो यह भी पता चल चुका है कि इंफ्लूएंजा जैसी संक्रामक बीमारी के विरूद्ध प्रतिरोधक क्षमता तैयार करने में भी इसकी बड़ी भूमिका होती है। टी-सेल्स श्वेत रक्त-कोशिकाएं होती हैं, जो कि हमारी इम्युनिटी में बेहद अहम भूमिका निभाती हैं। ये ऐंटीबॉडी रिलीज करती हैं, जिससे वायरस मरता है। जब हम रात्रि में कमरे की लाइटें बंद करके विश्राम करते हैं तो मेलाटोनिन का स्राव होने लगता है। यदि कमरे में रोशनी रही तो इस कार्य में बाधा आती है। मेलाटोनिन का स्राव जितना गहरा होता है, नींद भी उतनी ही गहरी होती है। चार घंटों की नींद भी आठ घंटों की नींद जैसी जान पड़ती है। इससे शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य दुरूस्त रहता है। रोग प्रतिरोधक क्षमता का विकास होता है।

शास्त्रों में भी नींद की महत्ता बतलाई गई है। भविष्य पुराण, पदंम पुराण और मनुस्मृति में बतलाया गया है कि रात्रि में विश्राम की तैयारी किस तरह हो कि गहरी नींद आए। पर यदि नींद में बाधा है तो योग के साथ ही मंत्रों की अहमियत भी बतलाई गई है। कहा गया है कि “या देवी सर्वभूतेषु निद्रा-रूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः“ मंत्र का नींद से संबंध है। इस मंत्र का जप श्रद्धापूर्वक करने से निद्रा में व्यवधान खत्म होता है। पर मंत्रयोग हो या योग की कोई अन्य विधि, लाभ तो तभी होगा, जब हम अनुशासित जीवन-शैली के लिए तैयार रहेंगे। कैफीन का सेवन करने वालों को भला कौन-सी युक्ति काम आएगी?   

खैर, जहां तक नींद के लिए यौगिक उपायों का सवाल है तो यह विज्ञानसम्मत है कि यदि योगनिद्रा, अजपा जप, भ्रामरी प्राणायाम, सोऽहं मंत्र के साथ नाडी शोधन प्राणायाम आदि योग विधियों में से किसी एक का भी निरंतर अभ्यास किया जाए, तो अनिद्रा की समस्या जाती रहेगी। अवसाद से भी छुटकारा मिलेगा। चिकित्सकीय परीक्षणों से साबित हुआ कि योगनिद्रा के अभ्यास के दौरान बीटा और थीटा तरंगे परस्पर बदलती रहती हैं। यानी चेतना अंतर्मुखता और बहिर्मुखता के बीच ऊपर-नीचे होती रहती है। चेतना के अंतर्मुख होते ही मन तमाम तनावों, उत्तेजनाओं से मुक्त हो जाता है। यह गहरी निद्रा से भी आगे सूक्ष्म निद्रा की अवस्था होती है। बीटा और थीटा की यही अदला-बदली योगनिद्रा का रहस्य है। तभी कई गंभीर बीमारियों से जूझते मरीजों पर यह कमाल का असर दिखाता है।

सत्यानंद योग पद्धति में कहा गया है कि अजपा योग की ऐसी विधि है, जो नींद नहीं आती तो ट्रेंक्विलाइजर है, दिल की बीमारी है तो कोरामिन है और सिर में दर्द है तो एनासिन है। इसी तरह भ्रामरी प्राणायाम है। बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं कि रात में नींद खुल जाए तो तीन बार विधि पूर्वक भ्रामरी प्राणायाम कीजिए, नींद आ जाएगी। इसलिए कि इससे भी मेलाटोनिन का स्राव होने लगता है। पर योगनिद्रा तुरंत-तुरंत के लाभ के लिए बेहद उपयोगी है। वैसे, इन योग विधियों का नींद के लिए उपयोग वैसा ही जैसे सुई का काम तलवार से लिया जाए। पर संकट गहरा है तो तलवार से ही काम लेने में ही बुद्धिमानी है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

उठो पार्थ! कायर मत बनो

किशोर कुमार //

दुनिया भर में फैले सनातन धर्म के अनुयायी इस बार ज्यादा ही उत्साह से गीता जयंती की तैयारियों में जुटे हुए हैं। वैसे तो गीता जयंती 3 दिसंबर को है। पर हरियाणा के कुरूक्षेत्र, जहां युद्ध के मैदान में कृष्ण द्वारा स्वयं अर्जुन को ‘भगवदगीता’ प्रकट की गई थी, 19 नवंबर से ही अंतर्राष्ट्रीय गीता महोत्सव मनाया जा रहा है। महान विद्वानों द्वारा गीता का सार सुनने-समझने के लिए देश-विदेश के लोग पहुंच रहे हैं। दुनिया भर के इस्कॉन मंदिरों में गीता जयंती की व्यापक तैयारियां हैं। इनके आलावा भी देश-विदेश में गीता जयंती की जोरदार तैयारियां हैं। श्रीमद्भगवद्गीता के श्लोकों पर दुनिया भर में किए गए विज्ञान जगत खासा उत्साहित है।  तभी कुशल प्रबंधकों की फौज खड़ी करने में भी गीता-ज्ञान ही सर्वाधिक उपयुक्त माना जा रहा है। आखिर श्रीमद्भगवतगीता इतना महत्वपूर्ण क्यों है? क्यों इसकी स्वीकार्यता दिनोंदिन क्यों बढ़ती जा रही है?

इन मूल प्रश्नों पर विचार करने से पहले श्रीमद्भगवद्गीता से जुड़े एक प्रसंग की चर्चा यहां समीचीन है। मुख्य शास्त्र कौन है? इस सवाल पर धर्माचार्यों के बीच विवाद छिड़ गया था। काफी मशक्त के बाद भी हल न निकला। विद्वतजन समझ गए कि प्रभु की कृपा के बिना सही उत्तर शायद ही मिल पाए। इसलिए जगन्नाथपुरी में धर्मसभा हुई तो सभी विद्वतजन अपने समक्ष कोरा कागज और कलम रखकर ध्यनामग्न हो गए। वे समस्या के समाधान के लिए आर्तभाव से प्रार्थना करने लगे। ध्यान टूटा तो सभी विद्वतजन यह देखकर हैरान थे कि सभी कोरे कागजों पर एक ही श्लोक लिखा था – एकं शास्त्रं देवकी पुत्र गीतं, एको देव देवकी पुत्र एव। एको मंत्रस्तस्य नामानी यानि कर्माप्येकं तस्य देवस्य सेवा।। मतलब यह कि देवकी पुत्र श्रीकृष्ण द्वारा कही गई श्रीमद्भगवद्गीता मुख्य शास्त्र है, देवकी नन्दन श्रीकृष्ण ही मुख्य देव हैं, भगवान श्रीकृष्ण का नाम ही मुख्य मंत्र है तथा परमेश्वर श्रीकृष्ण की सेवा ही सर्वश्रेष्ठ कर्म है। इसके बाद श्रीमद्भगवतगीता श्रेष्ठ शास्त्र के तौर पर सर्वमान्य हो गई।

अब आते हैं मूल प्रश्नों पर। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में दुनिया के सबसे अधिक अवसादग्रस्त व्यक्ति हैं। हर तीन में से एक व्यक्ति अवसादग्रस्त है। छोटे-छोटे बच्चे भी अपवाद नहीं हैं। इस मामले में विकासशील से लेकर विकसित देशों तक के हालात एक जैसे हैं। कारण अनेक हैं। पर परिणाम एक ही। जाहिर है कि इसका कुप्रभाव जीवन के हर क्षेत्र में देखने को मिल रहा है। ऐसे में गीता-ज्ञान अचूक समाधान दिलाने में कारगर सिद्ध हो रहा है। विभिन्न स्तरों पर हुए वैज्ञानिक अध्ययनों से भी इस बात की पुष्टि होती है। यह धारणा तेजी से बलवती होती जा रही है कि अवसादग्रस्त युवाओं को अवसाद से मुक्ति दिलाकर कर्म के लिए प्रेरित करने का दूसरा कोई सशक्त उपाय नहीं है।

स्वामी विवेकानंद समय रहते भांप गए थे कि आधुनिक युग की जीवन-शैली युवाओं को अवसादग्रस्त करेगी और इसका कुप्रभाव राष्ट्रों की समृद्धि पर होगा। इसलिए उन्होंने सन् 1897 में कलकत्ता प्रवास के दौरान अपने अनुयायियों के बीच  गीता की प्रासंगिकता पर जोरदार भाषण दिया था। उन्होंने कहा था – ऐ मेरे बच्चों, यदि तुमलोग दुनिया को यह संदेश पहुंचा सको कि ‘’क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते। क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप।।‘’ तो सारे रोग, शोक, पाप और विषाद तीन दिन में धरती से निर्मूल हो जाएं। दुर्बलता के ये सब भाव कहीं नहीं रह जाएंगे। भय के स्पंदन का प्रवाह उलट दो और देखो, रूपांतरण का जादू।… इस श्लोक को व्यवहार में लाते ही जीवन में क्रांतिकारी बदलाव होगा। संपूर्ण गीता-पाठ का लाभ मिलेगा, क्योंकि इसी एक श्लोक में पूरी गीता का संदेश निहित है।

पर इस अवस्था को प्राप्त कैसे किया जाए? उत्तर मिलता है कि इसके लिए योग और कर्मयोग का मार्ग ही श्रेष्ठ है। “गीता-दर्शन” गीता भाष्य का एक बेहतरीन पुस्तक है। इसे बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती के पट्शिष्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने लिखा है। उसमें वे कहते हैं – गीता मनोविज्ञान का अद्वितीय ग्रंथ है। आज के संसार में अगर लोग पीड़ित हैं तो मन से ही पीड़ित हैं। पीड़ा का एक ही कारण है कि अपने आप से समझौता नहीं कर पा रहे हैं। परिस्थिति और वातावरण से जब समझौता नहीं होता तब दुख की उत्पत्ति होती है। और विषाद की अवस्था में क्या होता है? मन काम नहीं करता, विवेक काम नहीं करता, मनुष्य किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है। इसलिए श्रीकृष्ण को विषादग्रस्त अर्जुन को सबसे पहले सांख्य योग के बारे में समझाना पड़ा। उसका भाव यह हैं कि मन यानी अंत:करण की इन अवस्थाओं के परे जाकर मन के वास्तविक स्वरूप को समझो कि वह है क्या। तभी तुम मन का स्वामी बन पाओगे। और तब जो कर्म होगा, उससे तीन चीजों की प्राप्ति होगी – विजय, विभूति और श्री।

जाहिर है कि यह योग की बात हो गई। श्रीमद्भगवद्गीता का प्रतिपाद्य विषय भी योगशास्त्र ही है। पर महर्षि पतंजलि के योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः यानी चित्तवृत्तियों का निरोध योग है से इत्तर। इसमें भगवान ने योग: कर्मसु कौशलम् कहते हुए योग की निश्चित और स्वतंत्र व्याख्या कर दी है। अभिप्राय यह कि कर्म करने की एक प्रकार की विशेष युक्ति योग हैं। भगवान श्रीकृष्ण का उपदेश हैं कि बुद्धि को अव्यग्र, स्थिर या शांत रखकर आसक्ति को छोड़ दें। पर कर्मों को छोड़ देने के आग्रह में न पड़े। योगस्थ होकर कर्मों का आचरण करें। महाभारत की कथा के मुताबिक युद्ध में द्रोणाचार्य को अजेय देखकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि द्रोणाचार्य को जीतने का एक ही योग यानी साधना या युक्ति है और यह भी कहते हैं कि हमने पूर्वकाल में धर्म की रक्षा के लिए जरासंघ आदि राजाओं को योग से ही मारा था।

योगी तो सदैव श्रीमद्भगवतगीता को जीवन का विज्ञान मानते रहे हैं। अब भौतिक विज्ञानी भी गीता की शक्ति पहचानने लगे हैं। तभी मौजूदा समय में भी सबको स्वामी विवेकानंद की अपील की प्रासंगिकता समझ में आ रही है। जब देश विविध समस्याओं से जूझ रहा है, राष्ट्रों के बीच हमेशा टकराव की स्थिति बनी रहती है। ऐसे में युवा भारत अवसादग्रस्त रहे, यह भला किसे स्वीकार्य होगा? उसे जगाना होगा। ताकि योग बल से हृदय की तुच्छ दुर्बलता का परित्याग कराया जा सके। गीता जयंती की शुभकामनाएं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

संत कबीर : मैं कहता आंखन देखी

किशोर कुमार

मंडे ब्लूज : योग है इस मर्ज की दवा

किशोर कुमार

“मंडे ब्लूज” यानी कार्यदिवस के पहले दिन ही काम के प्रति अरूचि। पाश्चात्य देशों में आम हो चुका यह रोग अब भारतीय युवाओं को भी तेजी से अपने आगोश में ले रहा है। भारत भूमि तो जगत्गुरू शंकाराचार्य, स्वामी विवेकानंद और महात्मा गांधी जैसे आध्यात्मिक नेताओं और कर्मयोगियों की भूमि रही है। फिर मंडे ब्लूज के रूप में पाश्चात्य देशों की अपसंस्कृति अपने देश कैसे पसर गई? स्वामी विवेकानंद की युवाओं से अपील कि “उठो, जागो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य ना प्राप्त हो जाए” तथा “काल करे सो आज कर, आज करे सो अब…” जैसी कबीर वाणी को आत्मसात करने वाले देश की युवा-शक्ति ही राष्ट्रीय चरित्र को बनाए रखने के लिए आध्यात्मिक और राजनैतिक क्रांति का बिगुल बजाती रही हैं। फिर चूक कहां हो रही है कि कर्म बोझ बनता जा रहा है?

इस मर्ज को लेकर कई स्तरों पर अध्ययन किया गया है। मैं उसके विस्तार में नहीं जाऊंगा। पर सभी अध्ययनों का सार यह है कि गलत जीवन शैली और नकारात्मक विचार व व्यवहार मंडे ब्लूज जैसी परिस्थितियों के लिए ज्यादा जिम्मेवार होते हैं। वैदिक ग्रंथों में मानसिक पीड़ाओं को तीन वर्गों में विभाजित किया गया है – आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक। बिहार योग विद्यालय के निवृत परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती समझाने के लिए इसे क्रमश: देवताकृत, परिस्थितिकृत और स्वकृत कहते हैं। जाहिर है कि तीसरे प्रकार के दु:ख के लिए हम स्वयं जिम्मेवार होते हैं और मौजूदा समस्या की जड़ में वही है। हम हर वक्त काम, क्रोध, लोभ, मोह व अहंकार से घिरे होते हैं। कोरोना महामारी कोढ़ में खाज की तरह है। ऐसे में मानसिक पीड़ा और अवसाद होना लाजिमी ही है।

यह समस्या लंबे अंतराल में साइकोसिस और न्यूरोसिस जैसे हालात बनती है। साइकोसिस यानी कोई समस्या न होने पर भी मानसिक भ्रांतियों के कारण हमें लगता है समस्या विकराल है। दूसरी तरफ न्यूरोसिस की स्थिति में समस्या कहीं होती है और हम उसे ढूंढ़ कही और रहे होते हैं। योगशास्त्र में साइकोसिस को माया और न्यूरोसिस को अविद्या कहते हैं। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि प्रेम व घृणा, आकर्षण व विकर्षण, दु:ख व सुख ये सभी मन के इन्हीं दो दृटिकोणों के कारण उत्पन्न होता है। उपनिषदों में भी कहा गया है कि यदि किसी को पत्नी प्यारी लगती है तो इस प्रेम का कारण पत्नी में नहीं, व्यक्ति के स्वंय में है।

परमहंस योगानंद के गुरू युक्तेश्व गिरि मन की शक्ति की व्याख्या करते कहते थे – लक्ष्यहीन दौड़ में शामिल लोग निराश और नाना प्रकार की मनासिक पीड़ाओं के शिकार होते हैं। जबकि मन की शक्ति इतनी प्रबल है कि दृढ़ इच्छा-शक्ति हो और चाहत उस चीज को पाने की हो, तो ब्रह्मांड में नहीं होने पर भी उसे उत्पन्न कर दिया जाएगा। बस, इच्छा ईश्वरीय होनी चाहिए। सवाल है कि क्या इस शक्तिशाली मन का प्रबंधन संभव है और है तो किस तरह? योगशास्त्र में अनेक उपाय बतलाए गए हैं, जिनके अभ्यास से मानव न सिर्फ अवसाद से उबरेगा, बल्कि कर्मयोगी बनकर राष्ट्र के नवनिर्माण में महती भूमिका निभाएगा।  

इसे ऐसे समझिए कि यदि मानव लोहा है तो योग पारस है। इन दोंनों का मेल होते ही कुंदन बनते देर न लगेगी। मानव में वह शक्ति है। बस, योगियों से मार्ग-दर्शन पा कर मन पर नियंत्रण करके अपनी ऊर्जा को सही दिशा देने के प्रति श्रद्धा और इच्छा-शक्ति होनी चाहिए। अष्टांग योग से लेकर कर्मयोग और भक्तियोग तक में अनेक उपाय बतलाए गए हैं, जो अलग-अलग व्यक्तियों के लिए उनकी सुविधा के लिहाज से अनुकूल होंगे। तंत्र-शास्त्र का अद्भुत ग्रंथ है रूद्रयामल तंत्र। उसमें महायोगी शिव कहते हैं कि योग एक ऐसा माध्यम है, जिससे मनुष्य अपने दु:खों से छुटकारा पा सकता है। इस बात को विस्तार मिलता है माता पार्वती के सवाल से। वह शंकर भगवान से पूछती हैं कि चंचल मन को किस विधि काबू में किया जाए? प्रत्युत्तर में महायोगी 112 उपाय बतलाते है और कहते हैं कि इनमें से कोई भी उपाय कारगर है। ये उपाय ही आधुनिक योग में धारणा और ध्यान की प्रचलित विधियां बने हुए हैं।

श्रीमद्भागवतगीता तो अपने आप में पूर्ण मनोविज्ञान और योगशास्त्र ही है। उसके मुताबिक, अर्जुन श्रीकृष्ण से पूछते हैं – हे कृष्ण, मन चंचल है, प्रमथन करने वाला है, बली और दृढ़ है। इसका निग्रह वायु के समान दुष्कर है। जबाव में श्रीकृष्ण ने कर्मयोग और भक्तियोग के जो उपाय बतलाए उसके लाभों को आधुनिक विज्ञान भी संदेह से परे मानता है। महर्षि पतंजलि के अष्टांगयोग के चमत्कारिक प्रभावों से भी हम सब वाकिफ हैं। असल सवाल ऐसी परिस्थिति में व्यक्ति के अनुकूल योगाभ्यास के चुनाव का है। श्रीमद्भागवत महापुराण में कथा है कि नारद पृथ्वीलोक पर विचरण करते हुए यमुनाजी के तट पर पहुंचे तो उनका सामना भक्ति से हो गया, जो अपने दोनों पुत्रों ज्ञान और वैराग्य की पीड़ाओं से बेहाल थी।

कर्नाटक में पली-बढ़ी और गुजरात में वृद्धावस्था प्राप्त करके जीर्ण-शीर्ण हुई भक्ति के पांव वृंदावन की धरती पर पड़ते ही पुन: सुरूपवती नवयुवती बन गई थी। पर उसके पुत्र अधेर और रोगग्रस्त ही रह गए थे। यही उसके विषाद का कारण था। भक्ति नारद जी से इसकी वजह और इस स्थिति से उबरने के उपाय जानना चाहती थी। नारद जी ने ध्यान लगाया और उन्हें उत्तर मिल गया। उन्होंने भक्ति को बतलाया कि कलियुग के प्रभाव के कारण ज्ञान और वैराग्य निस्तेज पड़े हैं। कलियुग में मानव भक्ति तो करता है, पर उसके जीवन में न तो ज्ञान यानी आत्म-दर्शन का स्थान है और न ही वैराग्य का। इसलिए श्रीमद्भागवत कथा ज्ञान महायज्ञ से ही बात बनेगी। दैवयोग से ऐसा ही हुआ।    

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती से किसी साधक ने पूछ लिया कि मन अशांत रहता है और काम में जी नहीं लगता, क्या करें?  परमहंस जी ने जबाव दिया – आसन-प्राणायाम से बीमारी दूर होती है, प्रत्याहार-ध्यान से आत्म-सम्मोहन होता है। इसलिए ये स्थायी उपाय नहीं हैं। यदि स्थायी उपाय चाहिए तो भक्तियोग और कर्मयोग का सहारा लेना होगा। कलियुग में ये ही उपाय हैं। भक्तियोग के तहत संकीर्तन, जप, अजपाजप आदि। इतना ही काफी है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

भक्ति-भावना से होगा चित्त वृत्तियों का निरोध

अवसाद से ग्रसित या विभिन्न प्रकार के उलछनों में फंसे जो लोग अष्टांग योग की साधनाओं यथा प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा आदि के जरिए चित्त को एकाग्र करने की स्थिति में नहीं होतें, वे प्रार्थना, संकीर्त्तन आदि के जरिए भक्तियोग के मार्ग पर सहजता से बढ़कर चित्त को एकाग्र कर सकते हैं। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि हठयोग, राजयोग, क्रियायोग या अन्य योगों का अभ्यास लोग इसलिए करते हैं कि उनमें भक्ति नहीं है। ये सारी क्रियाएं भक्तिभाव जागृत करने के लिए ही जाती हैं। ध्यान रहे कि इस योग-कर्म का कर्म-कांड से कोई संबंध नहीं है।

कोरोनाकाल में शारीरिक और मानसिक रूप से अपने को स्वस्थ्य रखने और अवसाद से बचने के लिए सारे उपाय किए। बात न बनी। मर्ज बढ़ता गया ज्यों ज्यों दवा की। इसलिए कि जीवन इतनी जटिलताएं हैं कि अशांत मन को किसी बात से सांत्वना नहीं मिल पाती। चाहे आसन हो या प्राणायाम या फिर ध्यान, कोई भी योगाभ्यास फलित नहीं होता। कई बार स्थिति इतनी विकराल होती है कि उसकी परिणति आत्म-हत्या के रूप में सामने आती है।  

विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक कोरोना महामारी के कारण उत्पन्न समस्याओं की वजह से दक्षिण-पूर्व एशिया में प्रति 100,000 लोगों में 16.5 आत्महत्याएं हो रही हैं। इनमें भारत का योगदान सर्वाधिक है। अवसादग्रस्त मरीजों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। भारत के योगियों ने ऐसे लोगों को संकट से निकलने के लिए अनेक उपाय बतलाए। ध्यान साधना पर खूब जोर दिया गया। सजगता के विकास और मन की एकाग्रता के लिए सरल उपाय बतलाए गए। पर अनेक लोगों को इससे बात बनती नहीं दिख रही। आम शिकायत है कि जीवन में समस्याओं का इतना समावेश हो चुका है कि मन स्थिर होता ही नहीं।  

पुराणों पर गौर करें तो पता चलता है कि मृत्युलोक में मानव जाति को विकट समस्याओं से बार-बार गुजरना पड़ता रहा है। पर संतों की युक्तियों से मानव जाति का उद्धार होता रहा है। रूद्रयामल तंत्र की रचना ही पार्वती जी की मानसिक बेचैनी की वजह से हो गई। आदियोगी शिव ने मन पर काबू करके अभीष्ट की सिद्धि के लिए इतने उपाय सुझाए कि प्रत्याहार, धारणा और ध्यान से लेकर मोक्ष तक की बात हो गई। संत कबीर कहा करते थे – मैं उस संतन का दास जिसने मन को मार लिया। पर आधुनिक युग में मन को मार लेना आम आदमी के लिए चुनौती भरा कार्य बना हुआ है। अंधकार में डूबा मन अपनी जिद पर अड़ा है। पल भर में दुनिया की सैर करता है।

दिनो-दिन ऐसी परिस्थितियों का निर्माण हो रहा है कि हम मल्टी साइकिक होते जा रहे हैं। सुबह कुछ तय करो, शाम होते-होते विचार बदल जाता है। योग की महत्ता समझने वाले मानते हैं कि ध्यान को उपलब्ध होने से ही बात बनेगी। पर उनकी एकांतवास की चाहत पूरी नहीं हो पाती। हिमालय में भी नहीं। कही पढ़ा था कि प्रसिद्ध अमरीकी लेखक और प्रेरक सेम्युअल लेन्गहोर्न क्लेमेन्स, जो मार्क ट्वेन के नाम से ख्यात हुए थे, से किसी मित्र ने पूछ लिया – आपका आज का व्याख्यान कैसा रहा? ट्वेन ने पलट कर सवाल कर दिया – कौन-सा व्याख्यान? मित्र ने कहा – आज आपने एक ही व्याख्यान तो दिया है, उसी की बात कर रहा हूं। मार्क ट्वेन ने इसका जो उत्तर दिया, उससे आदमी के अनियंत्रित मन को आसानी से समझा जा सकता है। उसने कहा – “मैंने आज तीन व्याख्यान दिए। एक तो मैंने व्याख्यान देने से पहले अपने मन में व्याख्यान दिया। एक व्याख्यान लोगों के बीच दिया और तीसरा व्याख्यान अभी दे रहा हूं।“ यानी मन के भीतर इतना शोर-गुल वाला बाजार सजा हुआ है तो चित्त की एकाग्रता की बात बेमानी होगी ही।

फिर हमें बैठने भी तो नहीं आता। बैठने आ जाए तो भी कुछ बात बने। कुछ रास्ता निकले। हम बैठते हैं इस तरह कि शारीरिक ऊर्जा का प्रवाह गलत दिशा में होता है। यह स्थिति मन को अशांत बनाने में उत्प्रेरक की भूमिका निभाती है। मैंने पिछले लेख में सिद्धासन की चर्चा की थी। बताया था कि सिद्धासन प्राण-शक्ति को, शारीरिक ऊर्जा के प्रवाह को मूलाधार से सहस्रार की ओर ले जाने में किस तरह बेहतर जरिया बनता है। योग के वैज्ञानिक संत कहते रहे हैं कि सिद्धासन न लगे तो आदमी रीढ़ सीधी करके सुखासन में ही बैठ जाएं और अपने श्वासों के प्रवाह पर ध्यान देने की कोशिश कर ले तो चीजें बदल जा सकती हैं। इसलिए कि इस स्थिति में शरीर की ऊर्जा कम से कम बर्बाद होगी तो उस ऊर्जा का दिशांतरण करना आसान होगा। योग का सारा खेल ऊर्जा की दिशा बदलने को लेकर है।      

पर ऐसा करना भी संभव न हो तो सवाल उठना लाजिमी है कि आदमी दूसरा कौन-सा मार्ग अपनाए कि अंधकार से प्रकाश की ओर यात्रा हो सके?  संतों की मानें तो आधुनिक युग में चित्त की एकाग्रता के लिए भक्तियोग का संकीर्त्तन आसान भी है और असरदार भी। अवसाद से ग्रसित या विभिन्न प्रकार के उलछनों में फंसे जो लोग अष्टांग योग की साधनाओं यथा प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा आदि के जरिए चित्त को एकाग्र करने की स्थिति में नहीं होतें, वे प्रार्थना, संकीर्त्तन आदि के जरिए भक्तियोग के मार्ग पर सहजता से बढ़कर चित्त को एकाग्र कर सकते हैं।

भक्ति योग के सन्दर्भ में आदर्श योगी किसे कहेगे? अर्जुन के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए श्री कृष्ण श्रीमद्भगवद गीता में कहते हैं –

मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः ॥१२- २॥

“जो व्यक्ति अपना मन सिर्फ मुझमें लगाता है और मैं ही उनके विचारों में रहता हूँ, जो मुझे प्रेम और समर्पण के साथ भजते हैं, और मुझ पर पूर्ण विश्वास रखते हैं, वो उत्तम श्रेणी के होते हैं। ”

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि हठयोग, राजयोग, क्रियायोग या अन्य योगों का अभ्यास लोग इसलिए करते हैं कि उनमें भक्ति नहीं है। ये सारी क्रियाएं भक्तिभाव जागृत करने के लिए ही जाती हैं। पर आदमी के भीतर भक्ति का सही दृष्टिकोण है तो कुछ भी करने की जरूरत नहीं। भक्त के जीवन में प्रेम की अभिव्यक्ति होती है। चाहे वह प्रेम परमात्मा के लिए हो या फिर अपने चारों तरफ के लोगों के लिए।

महान योगी और योगी कथामृत के लेखक परमहंस योगानंद की बातों से इस बात की पुष्टि होती है। वे कहा करते थे, “अनेक लोग जीवन की समस्याओं से घबरा जाते हैं। अवसादग्रस्त हो जाते हैं। मेरे जीवन में जब भी ऐसी परिस्थितियों का निर्माण हुआ, मैंने सदा यह प्रार्थना की है कि हे प्रभु, आपकी शक्ति की मुझमें वृद्धि हो। मुझे सदा सकारात्मक चेतना में रखना। ताकि मैं आपकी सहायता से अपनी कठिनाइयों पर सदा विजय प्राप्त कर सकूं। यकीनन प्रार्थना फलित होती गई। प्रार्थना में बड़ी शक्ति है। श्रद्धा की तीब्रता जितनी अधिक होती है, प्रार्थना उतनी ही तीब्रता से फलित होती है।“ चालीस के दशक में कही गई यह बात कोरोनाकाल में बेहद प्रासंगिक है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

हरे कृष्ण हरे राम मंत्र की शक्ति, विवादों से कहां दबती

एसी भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद के श्रीकृष्ण भावनामृत अभियान और  इंटरनेशनल सोसाइटी फॉर कृष्णा कॉन्शियसनेस (इस्कॉन) का विवादों से नाता पुराना है। पश्चिमी देशों में बीते चार सालों से एक बार फिर मीडिया ने इस आंदोलन के विरूद्ध अभियान ही चला रखा है। पर शायद पहली बार है कि भारत में किसी शंकराचार्य ने इस्कॉन को घेरा है। शंकराचार्य स्वरूपानंद के मुताबिक इस्कॉन के मंदिरों की कमाई अमेरिका भेजी जा रही है, क्योंकि इस्कॉन भारत में नहीं बल्कि अमेरिका में पंजीकृत संस्था है। यह विवाद ऐसे समय में छिड़ा हुआ है जब एसी भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद की 124वीं जयंती पर इस्कॉन परिवार जश्न के मूड में है।  

अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद के परलोक सिधाने के चार दशक बाद भी हरे कृष्ण, हरे राम के रूप में पूरी दुनिया में ख्यात श्रीकृष्ण भावनामृत अभियान की चमक बरकरार है। इंटरनेशनल सोसाइटी फॉर कृष्णा कॉन्शियसनेस (इस्कॉन) शनै-शनै ही सही, विस्तार पा रहा है। यह आलम तब है, जब इस अभियान को नेतृत्व देने के लिए श्रील स्वामी प्रभुपाद जैसा अलौकित शक्ति वाला ऊर्जावान आध्यात्मिक नेता नहीं है। दूसरी तरफ पश्चिमी जगत का मीडिया लगातार हमलावर बना रहता है। दुनिया भर के साठ से ज्यादा देशों में इस्कॉन की मजबूत उपस्थिति और अनुयायियों की संख्या में इजाफा देखकर ऐसा लगता है मानों कोई अदृश्य शक्ति सब कुछ संचालित कर रही है।

Shril Prabhupada

श्रीकृष्णभावनामृत ही मौलिक चेतना है। अवांछनीय उपाधियों से आवृत्त चेतना को स्वच्छ करना होगा। ऐसा होते ही चेतना श्रीकृष्णभावनामृत में परिणत हो जाएगा। यह भक्ति मार्ग है। कलियुग में यही श्रेष्ठ है।

चार साल पहले सन् 2016 में जब इस्कॉन की स्वर्ण जयंती दुनिया भर में भव्यता के साथ मनाई जा रही थी तो पश्चिम का मीडिया यह बताने में जुटा हुआ था कि इस्कॉन किस तरह अपना असर खो रहा है और श्रीकृष्ण भावनामृत अभियान बेहद कमजोर हो चुका है। इसके साथ ही लिंगभेद की अनेक कहानियां उछाली गई थीं। वह सिलसिला अब भी जारी है। पर इन सब से अप्रभावित श्रीकृष्ण भावनामृत अभियान अपने मूलभूत सिद्धांतों की वैज्ञानिकता मनवाने में सफल होता दिख रहा है। इस लेख में इन तमाम बातों विस्तार दिया जाएगा। पर पहले श्रीकृष्ण भावनामृत अभियान के प्रणेता और इस्कॉन के संस्थापक अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद की बात। उन्होंने यदि अपना भौतिक शरीर न छोड़ा होता तो 1896 में कलकत्ता में जन्में श्रील प्रभुपाद 1 सितंबर को 124 वर्ष के हो गए होतें। 

भक्त के अद्भुत भाव: श्रीचैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ मंदिर में गरूड़स्तंभ के पास खड़े होकर बड़ी तन्मयता से आरती गा रहे थे। एक स्थनीय महिला भी भगवान के दर्शन करना चाहती थी। पर भीड़ इतनी कि जगह नहीं मिल पा रही थी। उसने तरकीब निकाली। गरूड़स्तंभ पर चढ़ गई और एक पांव चैतन्य महाप्रभु के कंधे पर रखकर आरती देखने लगी। बाकी भक्तों की आपत्ति पर उस महिला को अपनी गलती का अहसास हुआ तो वह तुरंत नीचे उतर गई और महाप्रभु के चरण पकड़ लिए। चैतन्य महाप्रभु ने कहा – अरे, तुम यह क्या कर रही हो? मुझे तो तुम्हारे चरणों की वंदना करनी चाहिए ताकि तुम जैसा भक्तिभाव मैं भी प्राप्त कर सकूं।

कोई व्यक्ति 69 साल की उम्र में समुद्री मार्ग से अमेरिका जाए और एक मलिन बस्ती में अनजान लोगों और क्राइस्ट को मामने वाले लोगों के बीच अपनी जगह बनाकर अपने श्रीकृष्ण भावनामृत अभियान को जनांदोलन जैसा बना दे, यह फिल्मों में तो संभव है। पर व्यवहार रूप में भी ऐसा ही होना कम हैरान करने वाली बात नहीं है। श्रील प्रभुपाद ने अपने अदम्य साहस और अलौकिक प्रतिभा की बदौलत असंभव को संभव कर दिखाया था। वे 1965 में अमेरिका गए थे। साल पूरा होते-होते अंतर्राष्ट्रीय श्रीकृष्ण भावनामृत संघ की स्थापना की। इसी बैनर तले भक्तियोग आंदोलन शुरू किया। गोरे युवक-युवतियों का इस आंदोलन के प्रति बढता आकर्षण चर्च के धार्मिक नेताओं को परेशान करने लगा था। मीडिया हमलावर हो गया था। ऐसे में श्रील प्रभुपाद कदम-कदम पर हरे कृष्ण हरे राम…मंत्र-शक्ति व संकीर्तन की वैज्ञानिकता साबित करते हुए और तर्कों व तथ्यों के आधार पर यह बताते हुए कि कृष्ण और क्राइस्ट एक ही परमात्मा के अलग-अलग नाम हैं, आगे बढ़ते चले गए थे।

नदिया में राजा कृष्णानंद दत्त के 7वें पुत्र केदारनाथ दत्त अपनी अलौकिक शक्ति के कारण श्रील भक्तिविनोद ठाकुर के रूप में ख्यात हुए। उन्होंने संकीर्तन आंदोलन के अद्वितीय महत्व को समझा और गौड़ीय वैष्णव परंपरा को पुनर्जीवित किया।

श्रील प्रभुपाद को अभियान के शुरूआती दिनों में एक तरफ श्रीकृष्ण और हिंदू धर्म के बीच के संबंधों पर सफाई देनी होती थी तो दूसरी तरफ आत्मा-परमात्मा पर शास्त्रार्थ करना होता था। बाद के दिनों में उनके आंदोलन को बड़े स्तर पर ऐसी स्वीकार्यता मिली कि वह अमेरिका और यूरोप सहित साठ से ज्यादा देशों में छा गया था। श्रील प्रभुपाद श्री चैतन्य महाप्रभु की शिष्य परंपरा में महान वैष्णव आचार्य श्रील भक्तिविनोद ठाकुर के पुत्र श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर के शिष्य थे। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर को आधुनिक युग में श्रीचैतन्य महाप्रभु के भक्ति आंदोलन को पुनर्जीवित करने का श्रेय जाता है। वे सरकारी सेवक थे। पर श्रीकृष्ण और उनके उपासक श्रीचैतन्य महाप्रभु से बेहद प्रभावित थे। वे उनके भक्ति आंदोलन को बढ़ाने के लिए इस तरह ब्याकुल रहते थे, मानों उनका जन्म इसी काम के लिए हुआ हो। 

दैवीय शक्ति वाले भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर श्रील भक्तिविनोद ठाकुर के पुत्र और श्रील भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद के गुरू थे। कथा है कि जब वे शैशवावस्था में थे तो रथ यात्रा के दौरान भगवान जगन्नाथ का रथ उनके घर के सामने तब तक रूका रहा जब तक कि उन्हें दर्शन नहीं करा दिया गया था।

उनकी पदस्थापना डिप्टी मजिस्ट्रेट के रूप में जगन्नपुरी में हुई तो मंदिर की सेवा में जुट गए थे। वे श्रीचैतन्य महाप्रभु के भक्ति आंदोलन को गति देना चाहते थे। पर अकेले इस काम को कर पाने में असमर्थ पा रहे थे। एक दिन उन्हें कुछ आभास हुआ और वे जगन्नाथ मंदिर में अवस्थित विमला देवी की प्रतिमा के समक्ष प्रस्तुत होकर अलौकिक शक्ति वाले पुत्र की इच्छा व्यक्त कर दी। बात आई गई हो गई। कुछ समय बाद यानी 6 फरवरी 1874 को उन्हें पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई तो उसका नाम विमला देवी के नाम पर विमला प्रसाद रख दिया। कुछ समय बाद एक चमत्कार हुआ। जगन्नाथ जी की रथयात्रा निकाली तो रथ अपने आप श्रील भक्तिविनोद ठाकुर (तब उन्हें केदारनाथ दत्त के नाम से जाना जाता था) के घर के सामने रूक गया। तीन दिनों तक रूका रहा। कितने तकनीशियनों का दिमाग लग गया कि रथ आगे बढ़ क्यों नहीं रहा है। पर बात नहीं बनी थी। फिर श्रील भक्तिविनोद ठाकुर को कुछ आभास हुआ। उन्होंने अपने नवजात शिशु को जगन्नाथजी के विग्रह से जैसे स्पर्श कराया, शिशु पर एक माला गिरा और रथ चल पड़ा था। वही शिशु आगे चलकर चौसठ गौड़ीय मठों के संस्थापक श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर के रूप में मशहूर हुए थे। उन्हीं की प्रेरणा से अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद पश्चिमी दुनिया को कृष्णभक्ति का पाठ पढ़ाने के लिए वृद्धावस्था में अमेरिका कूच कर गए थे।

श्रील प्रभुपाद के बेहतरीन ग्रंथों की वजह से श्रीकृष्णभावनामृत अभियान को काफी बल मिला था। सच कहिए तो उन ग्रंथों ने उत्प्रेरक का काम किया था। मूल रूप से अंग्रेजी में लिखे गए ग्रंथों के अनेक भाषाओं में अनुवाद किए गए।

अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद जब अमेरिका पहुंचे थे तो उनके पक्ष में कुछ बातें थीं, जिनसे प्रकारांतर से उन्हें मदद मिली होगी। पहला तो यह कि स्वामी विवेकानंद के कारण अमेरिका की धरती भक्ति आंदोलन के लिए बंजर नहीं रह गई थी। श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती का कृष्ण भक्ति साहित्य अमेरिका के पुस्तकालयों तक पहुंच चुका था। श्रील प्रभुपाद से उम्र में कोई तीन वर्ष बड़े पहमहंस योगानंद क्रियायोग का प्रचार करने 1920 में ही अमेरिका चले गए थे। यानी श्रील प्रभुपाद से 45 साल पहले। वे योग और अध्यात्म के दृष्टिकोण से उस जमीन को उर्वर बनाने के लिए बड़े पैमाने पर काम कर रहे थे। साथ ही धार्मिक अवरोधों को दूर करने के लिए लोगों के मन में बात बैठाते जा रहे थे कि श्रीमद्भगतवत गीता और बाइबिल की बातें और उनके संदेश प्रकारांतर से एक ही हैं। श्रीकृष्ण के भौतिक शरीर धारण करने के बाद की परिस्थितियां और ईशा मसीह का जीवन लगभग एक जैसा है। दूसरी तरफ साठ के दशक के प्रारंभ में ही महर्षि महेश योगी के भावातीत ध्यान का जादू अमेरिकियों पर काम करने लगा था। स्वामी सत्यानंद सरस्वती के वैज्ञानिक योग की बातें तथा नाम संकीर्तन व मंत्रयोग की महत्ता भी अमेरिका और यूरोप के लोग लोग समझने लगे थे।

Biggest iskon temple of Delhi - Reviews, Photos - ISKCON Temple Delhi -  Tripadvisor

इस्कॉन मंदिर, नई दि्ल्ली, जहां प्रतिदिन एक-दो-तीन हजार नहीं, पूरे डेढ़ लाख लोगों का खाना बन रहा है। वह भी तेल नहीं, गाय के शुद्ध घी से। दिल्ली के द्वारका स्थित इस्कॉन मंदिर में प्रतिदिन सात विधानसभा क्षेत्रों के निवासी डेढ़ लाख लोगों का पेट भर रहा है

आजतक, न्यूज चैनल

परमहंस योगानंद अमेरिकी नागरिकों को बताते थे कि जीसस ने शैतान पर विजय पाई थी तो कृष्ण ने कालिया राक्षस पर विजय पाई। जीसस ने एक जहाज में बैठे अपने भक्तों को बचाने के लिए समुद्र के तूफान को रोक दिया था तो कृष्ण ने अपने भक्तों और उनके पशुओं को प्रलयंकारी वर्षा में डूबने से बचाने के लिए गोवर्धन पर्वत को एक छाते की तरह उनके ऊपर उठा लिया था। जीसस की मैरी, मार्था और मैरी मैगडेलन जैसी महिला शिष्याएं थीं तो कृष्ण की महिला शिष्य़ाओं राधा और गोपियों (ग्वालनों) ने भी उसी प्रकार की दिव्य भूमिकाएं निभाईं। जीसस को कीलें ठोक कर सलीब पर चढ़ा दिया गया था। दूसरी तरफ कृष्ण एक शिकारी के तीर से प्राणघातक रूप से घायल हो गए थे। एक ने समाज के भगवद्गीता दिया तो एक ने बाइबिल। आदि आदि।

जीसस ने शैतान पर विजय पाई थी तो कृष्ण ने कालिया राक्षस पर विजय पाई। जीसस ने एक जहाज में बैठे अपने भक्तों को बचाने के लिए समुद्र के तूफान को रोक दिया था तो कृष्ण ने अपने भक्तों और उनके पशुओं को प्रलयंकारी वर्षा में डूबने से बचाने के लिए गोवर्धन पर्वत को एक छाते की तरह उनके ऊपर उठा लिया था। जीसस की मैरी, मार्था और मैरी मैगडेलन जैसी महिला शिष्याएं थीं तो कृष्ण की महिला शिष्य़ाओं राधा और गोपियों (ग्वालनों) ने भी उसी प्रकार की दिव्य भूमिकाएं निभाईं। जीसस को कीलें ठोक कर सलीब पर चढ़ा दिया गया था। दूसरी तरफ कृष्ण एक शिकारी के तीर से प्राणघातक रूप से घायल हो गए थे। एक ने समाज को भगवद्गीता दिया तो एक ने बाइबिल।

परमहंस योगानंद

अध्यात्म के दृष्टिकोण से इतनी जमीन तैयार होने के बावजदू श्रील स्वामी प्रभुपाद को विशेष राहत न थी। उन्हें धर्म परिवर्तन कराने आए संत के तौर पर देखा जाता था। सैंडी निक्सन अमेरिका के बड़े पत्रकार थे। उन्होंने स्वामी प्रभुपाद से पूछा था कि श्रीकृष्णभावनामृत और क्राइस्टभावनामृत में क्या अंतर है? कृष्ण भक्त बनकर हम समाज की बेहतर सेवा किस तरह कर सकते हैं? क्या यह अभियान जाति व्यवस्था को जागृत करने का जरिया नहीं है? महिलाओं के आध्यात्मिक जीवन के लिए इस आंदोलन में कोई जगह है या नहीं? आदि आदि। इसी तरह के सवाल अनेक पत्र-पत्रिकाओं के पत्रकार अक्सर किया करते थे। श्रील प्रभुपाद सभी प्रश्नों के तर्कसम्मत उत्तर देते थे। वे कहते थे कि विभिन्न रूपो में कृष्ण प्रेम का तत्व सबके जीवन में पहले से मौजूद है। महामंत्र हरे कृष्ण हरे कृष्ण, हरे राम हरे राम…… श्रीकृष्णभावनामृत को जागृत कर देता है। तभी जो लोग भगवान कृष्ण से अनजान हैं, वे लोग भी हरे कृष्ण हरे कृष्ण, हरे राम हरे राम अभियान को लेकर दीवाने हुए जा रहे हैं। उन्हें समझ में आ गया कि संकीर्तन विज्ञान है औऱ इससे उत्पन्न स्पंदन स्नायुओं को आराम पहुंचाता है। इससे मन का नियंत्रण और प्रबंधन होता है। रही बात क्राइस्टभावनामृत की वह भी कृष्णभावनामृत ही है। जो लोग जीसस के आदेशों का पालन नहीं करते वे कृष्णभावनामृत तक नहीं पहुंच पातें।

यौगिक परंपरा में कहा गया है कि हठयोग और राजयोग में आधारभूत प्रशिक्षण प्राप्त किए बिना मंत्र योग के प्रयोग से चक्रों औऱ कुंडलिनी को जागृत करना संभव है।

श्रील प्रभुपाद अमेरिका के लोगों को समझातें कि यह भ्रांति दूर होनी चाहिए कि गीता में जाति की बात भी है। श्रीमद्भगवत गीता में समाज के चार वर्णों की परिभाषा दी गई है। वे हैं – ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य और शूद्र। मनुष्य की योग्यताओं के मुताबिक उनके वर्ण बतलाए गए हैं। जाति की बात कहीं नहीं है। श्रीकृष्णभावनामृत अभियान स्त्रियों और पुरूषों के बीच समानता की वकालत करता है। लिंगभेद की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। उन्हें लोगों की आशंकाओं को दूर करने के लिए यहां तक कहना पड़ता था – “मैं यह शरीर नहीं हूं, मै भारतीय नहीं हूं….आपलोग अमेरिकन नहीं हैं…हम सब आत्मा हैं।“ पर जब उन्होंने 1968 में मैसाच्युसेट्स इंस्टीच्यूट ऑफ टेक्नालॉजी के छात्रों को संबोधित किया तो उनकी वैज्ञानिक बातों के आगे सभी नतमस्तक थे। उन्होंने अपने संबोधन में सवाल किया था – यद्यपि आपके पास ज्ञान के अनेकानेक विभाग हैं। पर एक मृत एवं जीवित शरीर में अंतर की खोज करने के उद्देश्य पर आधारित विभाग कहां है? फिर जबाव का प्रतीक्षा किए बिना बोलते गए थे – आधुनिक विज्ञान यद्यपि देह की यांत्रिक कार्य-प्रणाली को समझने में विकसित हो चुका है। पर वह देह को सजीव रखने वाले चिन्मय स्फुलिग (आत्मा) के विषय में अध्ययन करने के लिए बहुत कम ध्यान देता है। जबकि आध्यात्मिक शक्तियों का विकास करके आत्मा का अनुभव किया जा सकता है। इसके साथ ही उन्होंने इसके पक्ष में कई वैज्ञानिक तथ्य प्रस्तुत किए थे।

जगन्नाथ जी की रथयात्रा निकाली तो एक घर के सामने रथ रूक गया। तीन दिनों तक रूका रहा। कितने तकनीशियनों का दिमाग लग गया। पर बात नहीं बनी थी। एक नवजात शिशु को जगन्नाथजी के विग्रह से जैसे स्पर्श कराया, शिशु पर एक माला गिरा और रथ चल पड़ा था। वही शिशु आगे चलकर चौसठ गौड़ीय मठों के संस्थापक श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर के रूप में मशहूर हुए थे।

अमेरिका और यूरोप के युवाओं को उनके वैज्ञानिक तर्क सही मालूम पड़े और वे श्रीकृष्णभावनामृत अभियान से जुड़ते चले गए थे। पांच दशक बाद पश्चिम का कुछ मीडिया घराना इस अभियान के विरोध में मुखर हुआ है और साबित करने की कोशिश की जाती है कि श्रील प्रभुपाद महिलाओं को इस्कॉन में महती भूमिकाएं देने के पक्ष में नहीं थे। लिंगभेद के इसी सिद्धांत के कारण महिलाएं अपने को आंदोलन में उपेक्षित महसूस करती हैं, जबकि हकीकत ऐसा नहीं है। इस्कॉन के विशाखापत्तनम शाखा में निताई सेविनी माता जी गुरूत्तर भूमिका निभा रही हैं। और भी जगहों पर महिलाएं गुरूत्तर भूमिका में हैं। इसलिए मीडिया की बातें असरहीन साबित हो रही हैं और इस्कॉन की दुनिया भर में जादू बरकरार है। स्वामी प्रभुपाद की कोशिशों के कारण मात्र दस वर्ष के अल्प समय में ही समूचे विश्व में 108 मंदिरों का निर्माण हो चुका था। इस समय पूरे विश्व में करीब  400 इस्कॉन मंदिर हैं। श्रील प्रभुपाद और गौड़ीय वैष्णव परंपरा को मुकाम दिलाने वाले अन्य सिद्ध संतों के प्रति इससे बड़ी श्रद्धांजलि और क्या होगी? 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।) 

पश्चिम में योग व अध्यात्म के पितामह परमहंस योगानंद के 100 साल

परमहंस योगानंद के पश्चिम में आगमन की 100 वीं वर्षगांठ पर उन्हें अमेरिका ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में याद किया जा रहा है। वे भारत के एक ऐसे संत थे, जिन्होंने अमेरिका की धरती से पूरी दुनिया में मानव जाति के आध्यात्मिक उत्थान के लिए उल्लेखनीय कार्य किए। यही वजह है कि उनकी यश की गाथाएं सबकी जुबान पर हैं। अमेरिका में उनके द्वारा स्थापित सेल्फ रियलाइजेशन फेलोशिप के मौजूदा अध्यक्ष स्वामी चिदानंद अपने गुरू को याद करते हुए कहते हैं कि उन्होंने पश्चिम को क्रियायोग के रूप में भारत की ऐसी अमूल्य निधि दी, जो स्वयं को जानने का प्राचीन विज्ञान है। यह मानव जाति के लिए शायद सबसे महत्वपूर्ण उपहारों में से एक है।

परमहंस योगानंद अमेरिका के बोस्टन पहुंंचे थे तो गर्मजोशी से हुआ था स्वागत।

अपने अलौकिक आध्यात्मिक प्रकाश से पश्चिमी जगत ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया को आलोकित करने वाले जगद्गुरू परमहंस योगानंद के अमेरिका की धरती पर कदम रखने के 100 साल पूरे हो गए। वे पहली बार सन् 1920 में 19 सितंबर को एक धर्म सभा में भाग लेने बोस्टन गए थे। वहां उनकी अलौकिक ऊर्जा इस तरह प्रवाहित हुई कि क्रियायोग के रथ पर सवार आध्यात्मिक आंदोलन कम समय में ही जनांदोलन बन गया था। आध्यात्मिक चेतना के विकास के लिए किए गए इस ऐतिहासिक कार्य की वजह से वे अमर हो गए। उनकी प्रासंगिकता युगों-युगों तक बनी रहेगी।

परमहंस योगानंद वैज्ञानिक सिद्धांतों के आधार पर धर्म और योग की शास्त्रसम्मत बातें करते थे। इसलिए ध्यान के योग विज्ञान, संतुलित जीवन की कला, सभी महान धर्मों में अंतर्निहित एकता जैसी उनकी बातें अकाट्य होती थीं। तभी श्रीमद्भगवतगीता में श्रीकृष्ण द्वारा बतलाए गए क्रियायोग की विराट शक्ति से अमेरिकी नागरिकों को परिचित कराने के मार्ग के अवरोध दूर होते चले गए थे। क्राइस्ट को मानने वाले कृष्ण को भी मान बैठे और परमहंस योगानंद योग व अध्यात्म के पितामह के तौर पर स्वीकार कर लिए गए।

 “ऑटोबायोग्राफी ऑफ अ योगी” 20वीं शताब्दी का एक ऐसा आध्यात्मिक आत्मकथा है, जो संतों, योगियों, विज्ञान व चमत्कार और मृत्यु व पुनरूत्थान के जगत् की एक अविस्मरणीय यात्रा पर ले जाता है। यह पुस्तक जब प्रकाशित हुई थी तो अमेरिका सहित दुनिया भर के अखबारों की सुर्खियां बनी थी।  न्यूयार्क टाइम्स की खबर का शीर्षक था – एक अद्वितीय वृतांत। इंडिया जर्नल ने लिखा – “ऑटोबायोग्राफी ऑफ अ योगी” एक ऐसी पुस्तक है, जो मन और आत्मा के द्वार खोल देती है। शेफील्ड टेलीग्राफ ने लिखा – एक स्मारकीय कार्य। न्यूजवीक ने लिखा – एक दिलचस्प एवं स्पष्ट व्याख्यापूर्ण अध्ययन।

परमहंस योगानंद अपने गुरू युक्तेश्वर गिरि, परमगुरू लाहिड़ी महाशय और परमगुरू के गुरू महावतारी बाबाजी की प्रेरणा से अमेरिका गए थे। उन्हें क्रियायोग का प्रचार करने को इसलिए कहा गया था, क्योंकि यह अशांत मन को शांति प्रदान करके उसे आध्यात्मिक मार्ग पर अग्रसर करने में सक्षम है। इस योग को अति प्राचीन पाशुपत महायोग का अंश माना जाता है। ऋषि-मुनि पाशुपत महायोग को गुप्त रखते थे और अपनी अंतर्यात्रा के लिए उपयोग करते थे। बाद में तंत्र के आधार पर विकसित पाशुपत योग को कुंडलिनी योग और राजयोग के आधार पर विकसित योग को क्रियायोग कहा गया। श्रीमद्भगवतगीता में श्रीकृष्ण ने उसी क्रियायोग की दो बार चर्चा की है।

योगदा सत्संग सोसाइटी के 100 साल पूरे होने पर सन् 2017 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने परमहंस योगानंद की याद में डाक टिकट जारी किया था।

क्रियायोग के बारे में अपनी पुस्तक “योगी कथामृत” में पहमहंस योगानंद ने कहा है कि इस लुप्तप्राय: प्रचीन विज्ञान को महावतारी बाबाजी ने प्रकट किया और अपने शिष्य लाहिड़ी महाशय को उपलब्ध कराया था। तब बाबाजी ने लाहिड़ी महाशय से कहा था – “19वीं शताब्दी में जो क्रियायोग तुम्हारे माध्यम से विश्व को दे रहा हूं, उसे श्रीकृष्ण ने सहस्राब्दियों पहले अर्जुन को दिया था। बाद में महर्षि पतंजलि, ईसामसीह, सेंट जॉन, सेंट पॉल और ईसामसीह के अन्य शिष्यों को प्राप्त हुआ।“ युक्तेश्वर गिरि कहा करते थे कि क्रियायोग एक ऐसी साधना है, जिसके द्वारा मानवी क्रमविकास की गति बढ़ाई जा सकती है। बिहार योग के जनक स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि शरीर ऊर्जा का क्षेत्र है. यह क्रियायोग का मूल दर्शन है। चिंता और परेशानियों के इस युग में मनुष्य की आध्यत्मिक प्रतिभा को जागृत करने की सबसे शक्तिशाली विधि है।

गोरखपुर का यह वही मकान है, जिसमें मुकुंद घोष का जन्म हुआ था, जो बाद में पूरी दुनिया में परमहंस योगानंद के नाम से मशहूर हुए थे। उनका जन्म 5 जनवरी 1893 को हुआ था। तब उनके पिता भगवती चरण घोष रेलवे के पदाधिकारी के रूप में गोरखपुर में पदस्थापित थे और मुफ्तीपुर थाना क्षेत्र में शेख मोहम्मद अब्दुल हाजी के मकान में किराएदार थे। मौजूदा समय में वह मकान कानूनी दांव-पेंच में फंसा हुआ है।

परमहंस योगानंद को पता था कि धार्मिक भिन्नता के कारण अमेरिका में क्रियायोग का प्रचार करना औऱ अपनी बातें लोगों को मनवाना आसान न होगा। ऐसे में उन्होंने दो सूत्र पकड़े। पहला तो लोगों को समझाया कि ज्यादातर मामलों में गीता के संदेश औऱ बाइबल के संदेश प्रकारांतर से एक ही हैं। फिर युवाओं को समझाया कि वे एक ऐसा यौगिक उपाय जानते हैं, जो मानसिक अशांति से उबारने में कारगर है। वह एक ऐसा दौर था जब अमेरिकी युवा मानसिक अशांति से बचने के लिए टैंक्वेलाइजर जैसी दवाओं के दास बनते जा रहे थे। परमहंस योगानंद कहते थे कि आध्यात्मिकता की सच्ची परिभाषा है शांति और अशांति की दवा भी यही है। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इसी यौगिक उपाय के जरिए अशांति से उबारा था। क्राईस्ट ने भी शांति को ही अशांति का एकमात्र उपाय माना था। इसलिए हर व्यक्ति शांति का राजकुमार बनकर आत्म-संतुलन के सिंहासन पर बैठ सकता है और अपने कर्म-साम्राज्य का निर्देशन कर सकता है। यह शांति कुछ और नहीं, बल्कि क्रियायोग है, जिसकी शिक्षा श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दी थी। विज्ञान की कसौटी पर कही गई ये बातें मानसिक समस्याओं से जूझते पश्चिम के लोगों को समझ में आई और क्रियायोग लोकप्रिय हो गया था।

परमहंस योगानंद की 125वीं जयंती पर बीते साल भारत सरकार ने 125 रुपये का सिक्का जारी किया था। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने ने इस मौके पर कहा कि परमहंस योगानंद भारत के महान सपूत थे, जिन्होंने दुनिया भर में अपनी पहचान कायम की। लोगों को मानवता के प्रति वैश्विक रूप से जागरूक करने का काम तब किया, जब संचार के साधन भी सीमित थे। भारत को अपने इस महान सपूत पर गर्व है, जिन्होंने दुनिया भर के लोगों के दिलों में एकता का संदेश भरा।’

परमहंस योगानंद का अमेरिका में सबसे पहला व्याख्यान “धर्म का विज्ञान” विषय पर हुआ था। उन्होंने एक तरफ जहां धर्म को परिभाषित किया तो दूसरी तरफ योग की व्यापकता की भी व्याख्या की। इसके साथ ही कहा कि धर्म का आधार वैज्ञानिक है और योगबल के जरिए धर्म मार्ग पर यात्रा करके ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है। आत्मा और परमात्मा बाहर नहीं अपने भीतर है। वहां तक पहुंचने के यौगिक मार्ग हैं, उपाय हैं। मेडिटेशन का लाभ तभी मिलेगा जब ईश्वर को प्राप्त करने के लिए पहले से बनाए गए आध्यात्मिक राजमार्ग पर चला जाएगा। इस काम में रश्म अदायगी से भी बात नहीं बनने वाली। वे कहते थे – यदि आप एक या दो डुबकियों में मोती प्राप्त नहीं कर पातें तो सागर को दोष न दें। अपनी डुबकी को दोष दें। पर ख्याल रखें कि ध्यान करना धर्म का सच्चा अभ्यास है।

परमहंस योगानंद ने 2017 में अविभाजित बिहार के झारखंड क्षेत्र के रांची शहर में योगदा सत्संग सोसाइटी की स्थापाना करके अपने आध्यात्मिक आंदोलन का श्रीगणेश किया था।

कैलिफोर्निया में आध्यात्मिक सभा हुई तो उन्होंने कृष्ण और क्राईस्ट के उपदेशों को आधार बनाकर अपना व्याख्यान दिया था – “बाइबल में कहा गया है कि मैं द्वार हूं। मेरे द्वारा यदि कोई मानव प्रवेश करता है तो वह उद्धार पाएगा। अंदर व बाहर आया-जाया करेगा। आहार प्राप्त करेगा। दूसरी तरफ भारतीय संत पहले से कहते रहे हैं कि सर्वप्रथम ईश्वर को जानो, फिर जो कुछ भी आप जानने की इच्छा करेंगे, वे आपके समक्ष प्रकट कर देंगे। यह सब उनका साम्राज्य है, यह उनकी ही ज्ञान है। योगशास्त्र कहता है कि भ्रूमध्य कूटस्थ केंद्र है, जो कि आध्यात्मिक नेत्र का स्थान है। केवल दिव्य चेतना में हम इस द्वार के पीछे विशुद्ध आनंद को प्राप्त कर सकते हैं।“ इन सभी बातों का सार एक ही है।

विज्ञान की भाषा में भ्रू-मध्य को पीनियल ग्रंथि का स्थान कहा जाता है। इस ग्रंथि से मेलाटोनिन हार्मोन का स्राव होता है, जो पिट्यूटरी ग्रंथि और मस्तिष्क पर सीधा प्रभाव डालता है। पीनियल ग्रंथि आध्यात्मिक यात्रा के लिहाज से बड़े काम की है। पीनियल ग्रंथि पर ध्यान की अवस्था में होने वाले प्रभावों का अध्ययन किया गया तो पता चला कि इस दौरान पीनियल ग्रंथि की क्रियाशीलता बढ़ जाती है। इससे मेलाटोनिन हार्मोन का स्राव होने लगता है तो मानसिक उथल-पुथल कम जाता है। योग विज्ञान में इस स्थान को आज्ञा चक्र और तीसरा नेत्र का स्थान कहते हैं। इसे जागृत करने की कई यौगिक उपाय हैं। उनमें एक है शांभवी मुद्रा। शिव संहिता के मुताबिक शंकर भगवान ने पार्वती को त्रिनेत्र जागृत करने के लिए यह विधि बताई थी। इसलिए इसे महामुद्रा कहते हैं। क्रियायोग से संपूर्ण चक्र क्रियाशील होते हैं तो इसके अद्भुत नतीजे मिलते हैं। ऐसी तर्कसंगत और विज्ञानसम्मत बातें पश्मिम के लोगों को समझते देर न लगी थी।

परमहंस योगाानंद और उनके गुरू युक्तेश्वर गिरि, परमगुरू लाहिड़ी महाशय और परम गुरू के गुरू महावतार बाबा जी।

पश्चिम के वैज्ञानिकों, मनोवैज्ञानिको, दर्शन शास्त्रियों और अन्य आध्यात्मिक लेखकों की पुस्तकें भी इस बात की गवाह हैं कि परमहंस योगानंद अपने मिशन में पूरी तरह कामयाब हुए थे। तभी उनकी मान्यताओं को आधार बनाकर शोध किए जा रहे हैं। उन शोधों के परिणामों के आधार पर पुस्तकें लिखी जा रही हैं। ऐसी असरदार है उनकी आध्यात्मिक ऊर्जा। सर जॉन मार्क्स टेंप्लेटन और रॉबर्ट एल हर्मन की पुस्तक है – “ईज गॉड द ओनली रियलिटी – साइंस प्वाइंट्स डीपर मीनिंग ऑफ यूनिवर्स?” उसमें कहा गया है कि यद्यपि विज्ञान और धर्म में विरोधाभास दिखता है। पर दोनों एक दूसरे से घनिष्ट रूप से जुड़े हुए हैं। यदि ईश्वराभिमुख कार्य होगा, जो कि होगा, तो चौंकाने वाले रहस्यों पर से पर्दा उठ सकता है।

यह सुखद है कि पश्चिमी दुनिया में आध्यात्मिक आंदोलन के प्रणेता जगद्गुरू परमहंस योगानंद और उनकी शिक्षाओं पर बीते तीन सालों से लगातार अंतर्राष्ट्रीय फलक पर चर्चा हो रही है। इसके कारण उनके कालजयी आध्यात्मिक संदेश नई पीढ़ी तक पहुंच रहे हैं। पर आध्यात्मिक राजमार्ग पर चलने के लिए इतने से बात बनने वाली नहीं। परमहंस जी सेल्फ रियलाइजेशन फेलोशिप के विस्तार की योजनाओं के बारे में शिष्यों को बताते हुए कहा था – “याद रखो, मंदिर मधु का छाता है, लेकिन ईश्वर ही मधु है। लोगों को आध्यात्मिक सत्य के विषय में बता कर ही संतुष्ट न रहो। उन्हें दिखलाओ कि वे स्वयं किस प्रकार ईश्वरीय अनुभूति पा सकते हैं।”

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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