महान संतों की चमत्कारिक शक्तियां

किशोर कुमार

भारत के महान संतों और योगियों ने कभी योग विद्या की बदौलत चमत्कार दिखाए जाने का समर्थन नहीं किया। पर यह भी सही है कि योग और अध्यात्म की विश्वसनीयता बताने या अपने संकटग्रस्त शिष्यों के कल्याण के लिए चमत्कारिक प्रभाव उत्पन्न करने वाली योग-शक्ति का प्रयोग किया जाता रहा है। आदिगुरू शंकराचार्य से लेकर तैलंग स्वामी और स्वामी शिवानंद सरस्वती तक ने अनेक मौकों पर अपनी योग-शक्ति से वैसे कार्यों को संभव कर दिया, जो सामान्य जनों की नजर में किसी चमत्कार से कम न थे।

यह बहस का विषय हो सकता है कि बागेश्वर धाम सरकार और हनुमान भक्त धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री के “चमत्कारों” की तुलना हाथ की सफाई दिखाने वाले सामान्य जादूगरों से की जानी चाहिए या नहीं। सच तो यह है चमत्कार जादूगर भी दिखाते हैं और योगी भी। पर दोनों चमत्कारों के कारण में बुनियादी फर्क है। मुझे नहीं मालूम कि धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री किस श्रेणी में आते हैं। पर वे भरी सभाओं में अपने अनुयायियों के कष्ट निवारण के लिए जो तरीके अपनाते हैं, जिन्हें चमत्कार कहा जा रहा है, वे तरीके कोई अनूठे और नए नहीं हैं। स्वामी विवेकानंद ने तो आज से कोई 122 साल पहले अमेरिका के लॉस एंजिल्स में भरी सभा में कहा था कि हम योगियों की जिन क्रियाओं को चमत्कार कहते हैं, वह कुछ और नहीं, बल्कि राजयोग का परिणाम होता है।

स्वामी विवेकानंद ने उसी सभा में अपने साथ घटित एक वाकया सुनाया था। उन्हें एक ऐसे व्यक्ति के बारे में पता चला, जो किसी के भी मन के गुप्त प्रश्नों को जान लेता था औऱ उसे कागज पर लिखकर समाधान भी बता देता था। उन्होंने उस व्यक्ति की परीक्षा लेने की ठानी। वे दो अन्य सहयोगियों के साथ उस व्यक्ति के पास गए। स्वामी जी का सवाल संस्कृत भाषा में और उनके सहयोगियों के सवाल क्रमश: ऊर्दू और जर्मन भाषा में थे। आसन पर बैठा व्यक्ति स्वामी जी को देखते ही कागज पर कुछ लिखा और उन्हें थमाकर पूछा, यही सवाल है न मन में? स्वामी जी का कहना था कि उन्होंने संस्कृत की जो पंक्तियां मन में बनाई थी, वही हू-ब-हू उस व्यक्ति द्वारा लिखित कागज पर थी। ऐसा ही बाकी दो सहयोगियों के साथ भी हुआ। कमाल यह कि वह व्यक्ति न संस्कृत जानता था, न ऊर्दू और न ही जर्मन। विवेकानंद समग्र में इस प्रसंग उल्लेख है।

धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री की तरह ही श्री पंडोखर महाराज भी हनुमान भक्त हैं। उनका धाम मध्य प्रदेश के दतिया जिले के पंडोखर गांव में है। विभिन्न दिशाओं से झांसी जाने वाली ट्रेनें पंडोखर महाराज के भक्तों से भरी होती हैं। वे भी अपने धाम में आए भक्तों के मन में चल रहे सवाल बिना बताए ही जान लेते हैं और उसे पर्चियों पर लिख भी देते हैं। फिर परेशानियां दूर करने के उपाय बतलाते हैं। मैं एक व्यक्ति को जानता हूं, जो अपनी समस्या के निवारण के लिए पंडोखर धाम गए थे। दरबार में बैठे थे तो पंडोखर महाराज की नजर उन पर गई और पास बुला लिया। वह सज्जन यह देखकर हैरान थे कि उनके मन में जो सवाल चल रहा था, उसे पंडोखर महाराज ने पहले से एक पर्ची पर लिख रखा था।

महान संत और हनुमान भक्त नीम करोली बाबा तो विश्वविख्यात हैं। उनके कैंचीधाम आश्रम में देश-विदेश की बड़ी-बड़ी हस्तियां भी जाती रहती हैं। बाबा के चमत्कार की किस्से भरे पड़े हैं। एक वाकया बहुप्रचारित है। बाबा ट्रेन से सफर कर रहे थे। पर उनके पास टिकट नहीं थी। नीम करोली गांव के पास ट्रेन किसी करण से जैसे ही रूकी, टिकट परीक्षक ने उन्हें ट्रेन से उतार दिया। पर बेवजह ट्रेन वहीं ठहर गई। ड्राइवर और तकनीशियनों की सारी कोशिशें बेकार गईं। तब किसी के मन में ख्याल आया कि शायद ट्रेन से उतार दिए गए बाबा की शक्ति से ट्रेन का पहिया थम गया हो। जब उन्हें ट्रेन पर चढ़ाया गया तो ट्रेन चलने लगी थी। बाद में उस जगह पर स्टेशन बना और उसका नाम बाबा के नाम पर रखा गया।  

आदिगुरू शंकराचार्य की कहानी तो हम सब जानते ही हैं। उन्होंने मशहूर विद्वान कुमारिल भट्‌ट के शिष्य और मिथिला के पंडित मंडन मिश्र को शास्त्रार्थ में हरा दिया था। पर मंडन मिश्र की पत्नी उभया भारती ने अपने पति की ओर से कमान संभाली और कामशास्त्र सें संबंधित सवाल किया तो वे फंस गए। उन्होंने उत्तर देने के लिए उभया भारती से कुछ वक्त मांगा। इसका उत्तर राजा सुधन्वा की पत्नी के पास था। पर समस्या थी कि उनकी पत्नी तक पहुंच कैसे बने? तभी पता चला कि राजा सुधन्वा के प्राण पखेरू उड़ चुके हैं। तब जगत्गुरू शंकराचार्य योग की गूढ़ परकाय प्रवेश विद्या की बदौलत राजा सुधन्वा के म़ृत शरीर में प्रवेश कर गए थे। भौतिक शरीर तो राजा सुधन्वा का था। पर उसमें प्राण आदिगुरू शंकराचार्य का था। इस तरह भौतिक रूप से राजा सुधन्वा बनकर उनकी पत्नी से कामशास्त्र का ज्ञान प्राप्त किया था। इसके बाद पुन: अपना भौतिक शरीर धारण करके उभया भारती से शास्त्रार्थ करने गए थे।

संत ज्ञानेश्वर को पंडितों से यह साबित करने की चुनौती मिली कि भौसे में और उनमें एक ही आत्मा भासित है तो उन्होंने भैसे की पीठ पर हाथ रखा और भैसां वेदपाठ करने लगा था। उस जमाने के ख्याति प्राप्त संत चांगदेव को देखने की इच्छा हुई तो संत ज्ञानेश्वर अपने भाई-बहन के साथ मिट्टी से बने जिस दीवार पर बैठे, वह मोटर गाड़ियों की तरह चलने लगा था। चांगदेव ने यह देखा तो वह संत ज्ञानेश्वर के चरणों में जा बैठा और उनका शिष्य बन गया था। बनारस के महान संत तैलंग स्वामी के चमत्कारों के किस्सों का उल्लेख तो बनारस गजेटियर में हैं। शहर में निर्वस्त्र विचरण करने के कारण अंग्रेज अधिकारी उन्हें जेल में बंद कर देते थे। पर वे अपनी योग-शक्ति से अपने विशालकाय भौतिक शरीर को सूक्ष्म बनाकर जेल से बाहर निकल जाते थे और खुलेआम सड़कों पर विचरण करते दिखते थे।

लाहिड़ी महाशय और स्वामी शिवानंद सरस्वती के अनुयायियों ने अनेक मौकों पर अनुभव किया कि उनके और गुरू के बीच की दूरी मिट गई, देशों के बीच की सीमाएं मिट गईं। गुरूजी एक ही समय में दो से अधिक स्थानों पर अपने प्रिय भक्त के पास मौजूद थे। मां आनंदमयी, योगीराज देवराहा बाबा, स्वामी विशुद्धानंद, स्वामी शिवानंद, रमण महर्षि और परमहंस योगानंद से लेकर परमहंस स्वामी सत्यानंद तक ने साधकों में योग-अध्यात्मक को लेकर भरोसा जगाने या उनकी मदद करने के लिए समय-समय पर चमत्कार दिखाते रहे। बीसवीं सदी के प्रसिद्ध आध्यात्मिक जिज्ञासु पॉल ब्रंटन उच्च आध्यात्मिक उपलब्धि प्राप्त लोगों की तलाश में भारत आए थे। उन्हें फर्जी साधु-फकीर मिले तो रमण महर्षि जैसे आत्मज्ञानी संत भी मिले। अंत में उन्हें कहना पड़ा था कि परमात्मा है और योगियों ने अद्भुत शक्तियां होती हैं, इन बातों पर अविश्वास करने की कोई वजह नहीं।

सदियों से मान्यता रही है कि मानव अस्तित्व के पीछे कोई रहस्यमय शक्ति छिपी है। प्राचीन काल के ऋषियों और योगियों से लेकर आधुनिक युग के वैज्ञानिक संत तक अपनी साधनाओं, अपने अनुसंधानों से इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि मानव के विचारों की उत्पत्ति व चेतना के विकास में सहायक रहस्यमय शक्ति का विवेचन सैद्धांतिक रूप से नहीं किया जा सकता है। यह अनुभवगम्य है। योग विज्ञान, मुख्यत: इसकी तांत्रिक क्रियाएँ उस अनुभव तक पहुंचाने का साधन हैं। जादू-टोना तो तंत्र का विकृत रूप है।

प्राचीन काल से योगी महसूस करके रहे हैं कि मन अविच्छिन्न है, विश्वव्यापी है और मानव विश्वव्यापी अविच्छिन्न मन का अंग है। इसी अविच्छिन्नता के कारण दूसरे के विचारों को जानना या अपने विचार को संप्रेषित करना संभव हो पाता है। पर सूक्ष्म रूप में घटित घटना का परिणाम बाह्य आकार मिले बिना दिखता नहीं। स्वामी विवेकानंद कहते थे कि इन सूक्ष्म शक्तियों पर काबू करके या काबू करने की प्रक्रिया में भी चमत्कारिक प्रभाव पैदा किए जाते हैं। बीमारियों से निजात दिलाने में मदद भी मिलती है।  

तुलसीदास कृत रामचरित मानस पर भी वाद-विवाद चलते रहता है। पर मानस के सुंदरकांड के प्रारंभ में ही हनुमान जी का पंचदशाक्षक मंत्र लिखा है। अनेक संतों और योगियों का अनुभव है कि उनकी सिद्धियों में पंचदशाक्षक मंत्र ने उत्प्रेरक का काम किया। खुद तुलसीदास कहते हैं कि उन्हें पंचदशाक्षक मंत्र के साथ हनुमान जी के पूजन से सिद्धियां मिली थीं। तंत्र और मंत्र के अलावा योग की अन्य विद्याएं जैसे, स्वरयोग विद्या, प्राण विद्या आदि की शक्तियां भी आमजन की नजर में चमत्कार ही पैदा करती है। योगी इन यौगिक विद्याओं के जरिए अपनी चेतना का विस्तार करके जनकल्याण करते रहे हैं।

प्राण चिकित्सा में उपचारक अपने हाथों के माध्यम से ब्रह्मांडीय प्राण ऊर्जा को ग्रहण कर हाथों द्वारा रोगी में ऊर्जा प्रक्षेपित करता है। स्वरयोग तो मस्तिष्क श्वसन का तांत्रिका विज्ञान है। पर सामान्य मामलों में इसका प्रभाव भी गजब है। यदि योगी का श्वास दायी नाक से चल रहा हो और प्रश्नकर्ता दाहिनी ओर से सवाल करे कि क्या अमुक काम हो जाएगा, तो उसका उत्तर “हां” में होगा। शिव स्वरोदय के मुताबिक इस योग से वाक् सिद्धि होने पर मुंख से निकली बात घटित हो जाती  है।

शक्तिपात योग बेहद शक्तिशाली है। अनेक योगी और महात्मा आज भी हमारे बीच मौजूद हैं, जिन्हें उनके गुरूओं ने शक्तिपात के जरिए योग और आध्यात्मिक मार्ग पर अग्रसर किया। ऋषिकेश के स्वामी शिवानंद सरस्वती ने अपने शिष्य परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती को शक्तिपात के जरिए ही योग का ज्ञान कराया था। इसलिए योगियों के आंतरिक जागरण की गहराई कोई ज्ञानी ही समझ सकता है। योगियों का गूढ़ ज्ञान सामान्य दृष्टि वालों की समझ से परे है।    

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

                                                                                                                                                                                                              

नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग…

भूल जाने की बीमारी हमारे जीवन की आम परिघटना है। पर लंबे समय में विविध लक्षणों के साथ यह लाइलाज अल्जाइमर और अनियंत्रित होकर डिमेंसिया में भी बदल जाती हो तो निश्चित रूप से हमें दो मिनट रूककर विचार करना चाहिए कि हम जिसे सामान्य परिघटना मान रहे हैं, कहीं उसमें भविष्य के लिए संकेत तो नहीं छिपा है। इसलिए विश्व अल्जाइमर दिवस (21 सितंबर) जागरूकता के लिहाज से हमारे लिए भी बड़े महत्व का है। आंकड़े बताते हैं कि भारत में इस रोग से ग्रसित लोगों की संख्या पांच मिलियन है और अगले आठ-नौ वर्षों में मरीजों की संख्या में डेढ़ गुणा वृद्धि हो जानी है। विश्वसनीय इलाज न होना चिंता का कारण है। पर हमारे पास योग की शक्ति है, जिसकी बदौलत हम चाहें तो इस लाइलाज बीमारी की चपेट में आने से बहुत हद तक बच सकते हैं।

किशोर कुमार

अल्जाइमर, डिमेंसिया और सिजोफ्रेनिया जैसी न्यूरोडीजेनरेटिव बीमारियों के मामले में आम धारणा यही है कि ये वृद्धावस्था की बीमारियां हैं। पर विभिन्न स्तरों पर किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि न्यूरोडीजेनरेटिव बीमारियां युवाओं को भी अपने आगोश में तेजी से ले रही हैं। इन बीमारियों की वजह कुछ हद तक ज्ञात है भी तो ऐसा लगता है कि चिकित्सा विज्ञान को विश्वसनीय इलाज के लिए अभी लंबी दूरी तय करनी होगी। लक्षणों के आधार पर इलाज करने की मजबूरी होने के कारण कई बार गलत दवाएं चल जाने का खतरा भी रहता है। इसे एक उदाहरण से समझिए। कोई पैतालीस साल की एक महिला में वे सारे मानसिक लक्षण उभर आए, जो आमतौर पर अल्जाइमर के शुरूआती लक्षण होते हैं। चिकित्सक ने उपलब्ध दवाओं के आधार पर अल्जाइमर का इलाज शुरू कर दिया। लंबे समय बाद चिकित्सकों को अपनी गलती का अहसास हुआ। दरअसल, अल्जाइमर जैसे लक्षण एस्ट्रोजन (स्त्री हार्मोन) के स्तर में भारी गिरावट होने के कारण उभर आए थे। मेनोपॉज से पहले अनेक मामलों में ऐसे हालात पैदा होते हैं।

इन सभी बीमारियों और कुछ खास तरह के हार्मोनल बदलावों के कई लक्षण लगभग एक जैसे होते हैं। मसलन, तनाव, अवसाद और भूल जाना। योग मनोविज्ञान के विशेषज्ञों के मुताबिक इन सारी बीमारियों की असल वजह मानसिक अशांति है। परमहंस योगानंद ने सन् 1927 में दिए अपने व्याख्यान में कहा था, मानसिक अशांति का एक ही इलाज है और वह है शांति। यदि मन शांत रहे तो स्नायविक विकार यानी नर्वस डिसार्डर्स जैसी समस्या आएगी ही नहीं। यह समस्या तो तब आती है, जब भय, क्रोध, ईर्ष्या आदि विकार हमारे जीवन में लंबे समय तक बने रह जाते हैं। मेडिकल साइंस में सिरदर्द का इलाज तो है। पर असुरक्षा, भय, ईर्ष्या और क्रोध का क्या इलाज है? हम विज्ञान के नियमों के आलोक में जानते हैं कि कोई भी शक्ति जितनी सूक्ष्म होती जाती है, वह उतनी ही शक्तिशाली होती जाती है। ऐसे में हमारे मन रूपी समुद्र में विविध कारणों से ज्वार-भाटा उठने लगे तो उसी समय सावधान हो जाने की जरूरत है। इसलिए कि लाइलाज बीमारियों की जड़ यहीं हैं।

सवाल है कि सावधान होकर करें क्या? इस बात को आगे बढ़ाने से पहले थोड़ा विषयांतर करना चाहूंगा। इसलिए कि योग विद्या के तहत मस्तिष्क के मामलों में विचार करने के लिए सहस्रार चक्र को समझ लेना जरूरी होता है। हम सब अक्सर आध्यात्मिक चर्चा के दौरान शिव-शक्ति के मिलन की बात किया करते हैं। मंदिरों के आसपास भक्ति गीत शिव – शक्ति को जिसने पूजा उसका ही उद्धार हुआ… आमतौर पर बजते ही रहता है। मैंने अनेक लोगों से पूछा कि इस गाने का अर्थ क्या है? बिना देर किए उत्तर मिलता है कि शिवजी और पार्वती जी की जो पूजा करेगा, उसे सभी कष्टों से मुक्ति मिल जाएगी। पर तंत्र विज्ञान और उस पर आधारित योगशास्त्र में शिव-शक्ति के मिलने से अभिप्राय अलग ही है। सहस्रार चक्र सिर के शिखर पर अवस्थित शरीर की बहत्तर हजार नाड़ियों का कंट्रोलर है। इनमें चंद्र व सूर्य नाड़ियां भी हैं, जिन्हें हम इड़ा तथा पिंगला के रूप में जानते हैं। इसे ही शिव-शक्ति भी कहते हैं। आधुनकि विज्ञान उसे सूक्ष्म ऊर्जा कहता है। सहस्रार चक्र में शरीर की तमाम ऊर्जा एकाकार हो जाती हैं। यही शिव-शक्ति का मिलन है। यह पूर्ण रूप से विकसित चेतना की चरमावस्था है।

योगशास्त्र के मुताबिक यदि मस्तिष्क की किसी ग्रंथि से जुड़ी नाड़ी का सहस्रार रूपी कंट्रोलर से संपर्क टूट जाता है तो वहां बीमारियों का डेरा बनता है। इसे ऐसे भी समझा जा सकता है। यदि सहस्रार मुख्य सतर्कता अधिकारी है तो नाड़ियां उसके संदेशवाहक। ऐसे में यदि संदेशवाहक किसी कारण अपना काम न करने की स्थिति में हो तो पर्याप्त सूचना के अभाव में मुख्य सतर्कता अधिकारी अपने कर्तव्य का निर्वहन कैसे कर पाएगा? अब आते हैं मुख्य सवाल पर कि भूलने आदि समस्याएं उत्पन्न होने लगी है तो समय रहते क्या करें? इसका सीधा-सा जबाव तो यह है कि वे सारे यौगिक उपाय करने चाहिए, जिनसे आंतरिक ऊर्जा का प्रबंधन होता है।

पर किस उपाय से ऐसा संभव होगा? उपाय कई हो सकते हैं। आमतौर पर ऐसी समस्या के निराकरण के लिए इंद्रियों पर नियंत्रण और चित्तवृत्तियों के निरोध की सलाह दी जाती है। सनातन समय से मान्यता रही है कि चित्तवृत्तियों का निरोध करके मन पर काबू पाया जा सकता है। इस विषय के विस्तार में जाने से पहले यह समझ लेने जैसा है कि चित्तवृत्तियां क्या हैं और उनके निरोध से अभिप्राय क्या होता है? स्वामी विवेकानंद ने इस बात को कुछ इस तरह समझाया है – हमलोग सरोवर के तल को नहीं देख सकते। क्यों? क्योंकि उसकी सतह छोटी-छोटी लहरों से व्याप्त होती है। जब लहरें शांत हो जाती हैं और पानी स्थिर हो जाता है तब तल की झलक मिल पाती है। यही बात मानव-चेतना के स्तरों पर उठने वाली लहरों के मामले में भी लागू है।  

श्रीमद्भागवत गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं – “तू पहले इंद्रियों को वश में करके ज्ञान व विज्ञान को नाश करने वाले पापी काम को निश्चयपूर्वक मार।“ मतलब यह कि योग साधना की बदौलत भ्रांत हुईं इंद्रियों को वश में करके मन का रूपांतरण कर। यानी श्रीमद्भगवत गीता से लेकर महर्षि पतंजलि के योगसूत्रों तक में मन के वैज्ञानिक प्रबंधन पर जो बातें कही गई थीं, वे सर्वकालिक हैं और आज भी प्रासंगिक। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती इन शास्त्रीय संदेशों को स्पष्ट करते हुए सलाह देते थे – “भावना के कारण मन बीमार है तो भक्तियोग, दैनिक जीवन की कठिनाइयों के कारण मन बीमार है तो कर्मयोग, चित्त विक्षेप के कारण, चित्त की चंचलता के कारण मन के अंदर निराशाएं, बीमारियां हैं तो राजयोग औऱ नासमझी या अज्ञान की वजह से मानसिक पीड़ाएं हैं, जैसे धन-हानि, निंदा आदि तो ज्ञानयोग और यदि शारीरिक पीड़ाओं के कारण मन अशांत है तो हठयोग करना श्रेयस्कर है।“

ये सारे उपाय मुख्य रूप से उन लोगों के लिए है, जो स्वस्थ्य हैं या जिनमें बीमारी के शुरूआती लक्षण दिखने लगे हैं। पर गंभीरावस्था के रोगी क्या करें? योगी कहते हैं कि ऐसे लोगों के लिए प्राण विद्या बेहद कारगर साबित हो सकती है। ऋषिकेश में डिवाइन लाइफ सोसाइटी के संस्थापक और बीसवीं सदी के महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती अनेक गंभीर रोगों के इलाज के लिए प्राण विद्या की सिफारिश करते थे। अनेक उदाहरणों से पता चलता है कि इस विद्या के तहत प्राणायाम की शक्ति का उपयोग करने से चमत्कारिक लाभ मिलते हैं। यानी समन्वित योग से ही बात बनेगी। आजकल शारीरिक व मानसिक व्याधियों से निबटने के लिए हठयोग को साधना तो मुमकिन हो पाता है। पर योगशास्त्र की बाकी विद्याओं को आधार बनाकर मन को प्रशिक्षित करना अनेक कारणों से चुनौतीपूर्ण कार्य है, जबकि मानसिक उथल-पुथल के इस दौर में केवल हठयोग से बात नहीं बनने वाली। विश्व अल्जाइमर दिवस के आलोक में योग शिक्षकों औऱ प्रशिक्षकों को निश्चित रूप से मानसिक रोगियों को समन्वित योग के व्यावहारिक पक्षों का पूर्ण लाभ दिलाने की दिशा में ठोस पहल करने हेतु मंथन करना चाहिए।

वैसे, मैं संतों की वाणी और यौगिक ग्रंथों के आधार पर दोहराना चाहूंगा कि यदि मानसिक उथल-पुथल के दौर में समर्थ योगी का सानिध्य न मिल पा रहा हो और दूसरा कोई उपाय समझ में न आ रहा हो, तो भक्तियोग का मार्ग पकड़ लिया जाना चाहिए। संकीर्तन या जप कुछ भी चलेगा। मैं अपनी बात संत कबीर के इन संदेशों के साथ खत्म करता हूं – “नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग; और रसायन छांड़ि के, नाम रसायन लाग” इस दोहा के जरिए कबीरदास जी कहते हैं कि हे प्राणी! उठ जाग, नींद मौत की निशानी है। दूसरे रसायनों को छोड़कर तू भगवान के नाम रूपी रसायनों मे मन लगा। इसके साथ ही वे कहते हैं – “मैं उन संतन का दास, जिन्होंने मन मार लिया।” यानी भक्ति मार्ग पर चलकर चित्त-वृत्तियों का निरोध हो गया।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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