महाशिवरात्रि के आध्यात्मिक आयाम

किशोर कुमार

पृथ्वी के किसी न किसी भू-भाग पर परमाणु संपन्न शक्तियां आमने-सामने हो जाती हैं और मानवता पर खतरा मंडराने लगता है। ऐसे में जरा सोचिए कि वह कौन-सी शक्ति है, जिसकी ऊर्जा बार-बार सृष्टि को विनाश से बचाती है? समुद्र मंथन हुआ था तो अमृत के दावेदार सभी थे। विष पीने के लिए भला कौन तैयार होता? ऐसे में आदियोगी को आगे आना पड़ा। उन्होंने विषपान किया। पर कलियुग में कौन विषपान करे? भगवान शिव आदिगुरू हैं, प्रथम गुरू हैं। उन्हीं से योग शुरू होता है और उन्हीं से गुरू-शिष्य की परंपरा शुरू होती है। जहां कहीं भी योग है, अध्यात्म है और गुरू-शिष्य की परंपरा है, उन सबके मूल में आदिगुरू शिव ही हैं। इसलिए मानना होगा कि उनकी ऊर्जा सर्वत्र है और वही विनाश-लीला से मानवता को बचाती है।

अध्यात्मिक दृष्टिकोण से विचार करें तो शिव कोई व्यक्ति नहीं है। शिव-शक्ति के बारे में जितनी भी कथाएं हैं, उन सबका संबंध मनुष्य की जीवन एवं उसकी चेतना से है। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती शिव-शक्ति के आध्यात्मिक महत्व को समझाते हुए कहते थे कि मनुष्य के शरीर के परे, उसके मन और बुद्धि के परे एक वस्तु और है, जिसे आत्मा या चेतना कहते हैं। चेतना बहुत गहरी चीज है। यह इतना शब्दातीत है कि इसे समझाने के लिए हमें किसी न किसी कहानी का सहारा लेना पड़ता है। उदाहरण के लिए मनुष्य के भीतर दो विपरीत शक्तियां और दो समानार्थी शक्तियां काम करती हैं। विपरीत शक्तियों में एक दिव्य शक्ति है और दूसरी आसुरी। इन दोनों के बीच जो संघर्ष चलता है, उसे ही समझाने के लिए देवासुर संग्राम की कहानी का आश्रय लेना पड़ता है।

तंत्रशास्त्र के मुताबिक शरीर में जो दो समानार्थी शक्तियां हैं, वे हैं शिव यानी पुरूष और प्रकृति यानी देवी या शक्ति। पुरूष का अर्थ है शुद्ध चेतना। यह समस्त वस्तुओं में उसी प्रकार छिपी हुई है, जिस तरह काष्ठ में अग्नि छिपी होती है। शक्ति शरीर के निचले भाग में अवस्थित मूलाधार में सोई हुई है। जब वह जागृत होती है तो सुषुम्ना नाड़ी के मार्ग से ऊपर उठकर सहस्रार में परमशिव से योग करती है। वहीं शिव-शक्ति का मिलन होता है। इस बात को समझाने के लिए ही शिव विवाह की कथा कही जाती है। इस कथा से पता चलता है कि शुद्ध चेतना या पुरूष का योग देवी शक्ति से किस प्रकार करना है। यही योग का मार्ग है। ध्यान साधना का यही मार्ग है। इसलिए ध्यान के समय कल्पना करनी चाहिए कि शुद्ध चेतना को धीर-धीरे हम हिमालय को ओर ले जा रहे हैं।

आध्यात्मिक उत्थान और योग के सर्वाधिक लाभों के लिहाज से शिवरात्रि का बड़ा महत्व है। “मीरा के प्रभु गहर गंभीरा, हृदय धरो जी धीरा। आधी रात प्रभु दरसन दीन्हों, प्रेम नदी के तीरा।।“ परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती मीराबाई के इस पद के जरिए महाशिवरात्रि का महत्व समझाते थे। वे कहते थे कि चेतना के लिए भी दिन, शाम और रात निर्धारित है। जागृत अवस्था में चेतना बाहर की ओर विचरण कर रही होती है तो दिन। इंद्रियों का संबंध बाहर से टूट जाए और केवल विचार रह जाए तो शाम। इंद्रियों का संबंध बाहर से टूट जाए और विचार भी न रहे तो रात। शिवरात्रि में यहीं अंतिम अवस्था रहती है। यानी इस अवस्था में जन्मों-जन्मों की वृत्त्तियों और खराब संस्कारों से मुक्ति पाने का विधान बताया गया है। शिवजी की बारात में भूत-पिशाच की उपस्थिति प्रतिकात्मक है। वे जन्मो की वृत्तियों के प्रतीक हैं। आधी रात को साधना के जरिए उनसे मुक्ति मिलनी होती है। इस लिहाज से शिवरात्रि आध्यात्मिक उत्थान और योग-शक्ति के जागरण का अनुष्ठान है।  

कथा के मुताबिक इसी रात्रि को मानव जाति के कल्याण के लिए, आत्म-रूपांतरण के लिए शिव ने अपनी प्रथम शिष्या पार्वती को एक सौ बारह विधियां बतलाई थी, जो योगशास्त्र के आधार हैं। इसके बाद ही मत्स्येंद्रनाथ का प्रादुर्भाव हुआ। शिष्य गोरखनाथ और नाथ संप्रदाय ने योग का जनमानस के बीच प्रचार किया। इस तरह पाशुपत योग के रूप में हठयोग, राजयोग, भक्तियोग, कर्मयोग आदि से आमजन परिचित हुए। कहा जा सकता है कि योग की जितनी भी शाखाएं हैं, सबका आधार शिव-पार्वती संवाद ही है। इस बात को शांभवी मुद्रा के बारे में उपलब्ध कथा से समझा जा सकता है। कथा के मुताबिक, पार्वती जी ने शिव जी को अपने मन की उलझन बताई। कहा, “स्वामी मन बड़ा चंचल है। एक जगह टिकता नहीं।“ फिर उपाय पूछा, “क्या करूं? किसी विधि समस्या से निजात मिलेगी?”

शिव जी एक सरल उपाय बता दिया – “दृष्टि को दोनों भौंहों के मध्य स्थिर कर चिदाकाश में ध्यान करें। मन शांत होगा, त्रिनेत्र जागृत हो जाएगा। इसके बाद बाकी सिद्धि के लिए कुछ शेष नहीं रह जाएगा।“ आदियोगी ने इस क्रिया को नाम दिया – शांभवी मुद्रा। पार्वती जी का एक नाम शांभवी भी है। ऐसा संभव है कि उन्होंने इस क्रिया का नामकरण अपनी पत्नी के नाम को ध्यान में रखकर और उन्हें खुश करने के लिए किया होगा। कहते हैं कि पार्वती जी ने भ्रूमध्य में आसानी से ध्यान लगाने के लिए बिंदी लगाई थी। तभी से महिलाओं में बिंदी लगाने का चलन शुरू हुआ।

जाहिर है कि शांभवी मुद्रा बेहद प्रभावशाली योग मुद्रा है। “योगी कथामृत” के लेखक और पश्चिमी दुनिया में क्रिया योग का प्रचार करने वाले परमहंस योगानंद से किसी ने पूछ लिया – “क्रियायोग के अतिरिक्त और कोई वैज्ञानिक विधि है, जो साधक को ईश्वर की ओर ले जा सके?” पहमहंस जी बोले, “अवश्य। परमात्मा को पाने का एक पक्का और द्रुतगामी रास्ता है अपने भ्रूमध्य स्थित कूटस्थ चैतन्य पर ध्यान करना।“  पुराणों से लेकर विज्ञान तक की बातों और नए-पुराने योगियों के मंतव्यों से शांभवी महामुद्रा की अहमियत का सहज अंदाज लगाया जा सकता है। साथ ही योग के लिहाज से महाशिवरात्रि की अहमियत को भी समझा जा सकता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

शाम्भवी क्रिया करने वालों में तनाव को कम करने वाला हार्मोन नियंत्रण में रहता है : सद्गुरू जग्गी वासुदेव

शांभवी मुद्रा बेहद प्रभावशाली योग मुद्रा है। “योगी कथामृत” के लेखक और पश्चिमी दुनिया में क्रिया योग का प्रचार करने वाले परमहंस योगानंद से किसी ने पूछ लिया – “क्रियायोग के अतिरिक्त और कोई वैज्ञानिक विधि है, जो साधक को ईश्वर की ओर ले जा सके?” पहमहंस जी बोले, “अवश्य। परमात्मा को पाने का एक पक्का और द्रुतगामी रास्ता है अपने भ्रूमध्य स्थित कूटस्थ चैतन्य पर ध्यान करना।“  पुराणों से लेकर विज्ञान तक की बातों और नए-पुराने योगियों के मंतव्यों से शांभवी महामुद्रा की अहमियत का सहज अंदाज लगाया जा सकता है।  

महानिर्वाण तंत्र में एक कथा है। आदियोगी शिव जी ने पार्वती जी को चित्त की एकाग्रता, मन की शांति के लिए शांभवी मुद्रा का अभ्यास बताया था। अवसाद की विश्वव्यापी समस्या के आलोक में अमेरिका के कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में इस योग मुद्रा की शास्त्रसम्मत व्याख्या, उसके प्रभाव और उन प्रभावों की वैज्ञानिकता का अध्ययन किया गया तो खुद वैज्ञानिक चौंक उठे। इसलिए कि पुराण की बातें विज्ञान की कसौटी पर सच साबित होती दिखीं। शोध के दौरान भावनात्मक संतुलन, आंतरिक शांति और मानसिक स्पष्टता के अलावा मानव शरीर पर इसके कई अन्य सकारात्मक प्रभाव भी दिखे। अब तो पश्चिम का अशांत मन इसके पीछे दौड़ पड़ा है।

ईशा फाउंडेशन के संस्थापक और आध्यात्मिक गुरू सद्गुरू जग्गी वासुदेव के लिए वैज्ञानिक शोध के नतीजों से चौंकने जैसी कोई बात नहीं थी। वे तो योग शास्त्र और उसकी वैज्ञानिकता को पढ़ते, समझते व अनुभव करते ही इस मुकाम तक पहुंचे हैं। बात केवल महामुद्रा की जन स्वीकार्यता की थी। अनुभव बताता है कि विज्ञान जिस बात को हां कह दे, हम उसे आंख मूंदकर स्वीकार कर लेते हैं। लिहाजा, उन्होंने शांभवी मुद्रा और प्राणायाम की विधियों को अपने अनुभवों के आधार पर शोध कर योग की एक तकनीक विकसित कर दी। नाम दिया – इनर इंजीनियरिंग। इस लेख में इन्हीं बातों का विश्लेषण है।

पहले शांभवी मुद्रा की ऐतिहासिकता और उसके परिणामों की बात। कथा के मुताबिक, पार्वती जी ने शिव जी को अपने मन की उलझन बताई। कहा, “स्वामी मन बड़ा चंचल है। एक जगह टिकता नहीं।“ फिर उपाय पूछा, “क्या करूं? किसी विधि समस्या से निजात मिलेगी?” शिव जी एक सरल उपाय बता दिया – “दृष्टि को दोनों भौंहों के मध्य स्थिर कर चिदाकाश में ध्यान करें। मन शांत होगा, त्रिनेत्र जागृत हो जाएगा। इसके बाद बाकी सिद्धि के लिए कुछ शेष नहीं रह जाएगा।“ उन्होंने इस क्रिया को नाम दिया – शांभवी मुद्रा। पार्वती जी का एक नाम शांभवी भी है। ऐसा संभव है कि उन्होंने इस क्रिया का नामकरण अपनी पत्नी के नाम को ध्यान में रखकर और उन्हें खुश करने के लिए किया होगा। कहते हैं कि पार्वती जी ने भ्रूमध्य में आसानी से ध्यान लगाने के लिए बिंदी लगाई थी। तभी से महिलाओं में बिंदी लगाने का चलन शुरू हुआ।

खैर, हठयोग की इस गुप्त महामुद्रा से लोग अनजान थे। सत्रहवीं शताब्दी के वैष्णव संत महर्षि घेरंड ने शांभवी मुद्रा की विस्तृत व्याख्या की। स्वात्माराम ने अपनी हठयोग प्रदीपिका में इसकी चर्चा की। इस तरह लोगों को इसके बारे में पता चला। आधुनिक युग के अनेक संतों ने इन दोनों ऋषियों के योग साहित्य का भाष्य लिखा। स्वामी निरंजनानंद सरस्वती का भाष्य सरल व  गाह्रय है। उनके मुताबिक, शांभवी मुद्रा महामुद्रा इसलिए है कि जैसा कि महर्षि घेरंड ने कहा है, उसका स्थान वेद, शास्त्र और पुराण से भी ऊपर है। जब इसे जन-कल्याण के लिए उपलब्ध कराया गया तो बताया गया कि इसका अभ्यास करते समय आंखों की गति को नियंत्रित करके उसे श्वास के साथ जोड़ लिया जाना चाहिए। सावधानी इतनी कि जिनकी आंखों की शल्य-क्रिया हुई हो या ग्लूकोमा हो तो कुशल मार्ग-दर्शन में ही इसका अभ्यास करना है।

योग रिसर्च फाउंडेशन ने कई दशक पहले शांभवी महामुद्रा पर अध्ययन कर लिया था। इसलिए बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती और उनके आध्यात्मिक उत्तराधिकारी परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती लगातर कहते रहे कि शांभवी मुद्रा की क्रिया आज्ञा चक्र को जागृत करने की शक्तिशाली क्रिया है। दरअसल, इस क्रिया से अल्फा तरंगों में वृद्धि हो जाती है। तंत्रिका तंत्र और अंत:स्रावी ग्रंथियां संतुलित ढंग से काम करती हैं। पीयूष ग्रंथि के ह्रास की रफ्तार धीमी हो जाती है। शरीर के ऊर्जा केंद्र, जिन्हें चक्र कहा जाता है, जागृत होते हैं और उनसे निकले वाली ऊर्जा, जिसे योग में प्राण-शक्ति कहा जाता है, पुन: शरीर में स्थापित हो जाती है। फलस्वरूप चेतन मन शांत होता है। रचनात्मकता व एकाग्रता बढ़ती है। अवसाद व अनिद्रा की समस्या नहीं रह जाती।

योग शास्त्र के मुताबिक शरीर में मौजूद प्रमुख सात चक्र वास्तव में ऊर्जा केंद्र हैं और भावनाओं को नियंत्रित करने के लिए जाने जाते हैं। वे रीढ़ की हड्डी के बहुत अंत से शुरू होकर सिर के शिखर तक हैं। आत्मा, शरीर और स्वास्थ्य के बीच संतुलन बनाने में इन चक्रों की बड़ी भूमिका होती है। शांभवी मुद्रा की साधना उच्च स्तर की हो तो आज्ञा चक्र के पीछे और आगे के चक्रों यथा विशुद्धि चक्र और बिंदु के बीच संपर्क बन जाता है। मन और प्राण संयत होता है। एकाग्रता और मानसिक स्थिरता आती है। तनाव, क्रोध और चिंता का निवारण हो जाता है। आंखों की पेशियां मजबूत हो जाती हैं। आज्ञा चक्र पर शांभवी मुद्रा के विशेष प्रभावों के कारण ही इसे बच्चों और छात्रों के लिए सर्वाधिक उपयुक्त माना गया है।

कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के अध्ययन के परिणाम भी प्रकारांतर से योग रिसर्च फाउंडेशन के नतीजों जैसे ही हैं। फर्क केवल भाषा का है। एक योग की भाषा है तो दूसरा विज्ञान की। कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के मुताबिक शाम्भवी मुद्रा का अभ्यास करने वालों के मस्तिष्क में न्यूरल रिसाइकिलिंग सामान्य की तुलना में 241 फीसदी ज्यादा होती है। दूसरी तरफ पीनियल ग्रंथि के कमजोर होने की प्रक्रिया धीमी हो जाती है। तंत्रिका तंत्र और अंत:स्रावी ग्रंथियों के बीच बेहतर समन्वय बनता है। कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में 536 लोगों पर शांभवी मुद्रा के प्रभावों के अध्ययन किया गया था। एकाग्रता में 77 फीसदी, मानसिक स्पष्टता में 98 फीसदी, भावनात्मक संतुलन में 92 फीसदी, ऊर्जा के स्तर में 84 फीसदी, आंतरिक शांति में 94 फीसदी और आत्मबल में 82 फीसदी की वृद्धि हो गई थी।

सद्गुरू ने शांभवी महामुद्रा की वैज्ञानिकता और समय की नजाकत को ध्यान में रखकर ऑनलाइन प्रशिक्षण की तकनीक विकसित कर दी है। पर उन्होंने इसका नाम ऐसा रखा है कि सबको सहज स्वीकार्य हो जाए। वरना कई बार धार्मिक मान्यताएं आड़े आ जाती हैं। पहले नाम का फिर उसके प्रभाव का असर है कि भारत ही नहीं, दुनिया के अनेक देशों में शांभवी मुद्रा पर आधारित इनर इंजीनियरिंग एक खास वर्ग के बीच धूम मचा रही है। आईआईटी और सर गंगाराम अस्पताल ने मिलकर ईईजी के जरिए ईशा योग का प्रभाव देखा है। सद्गुरू जग्गी वासुदेव वैज्ञानिक शोध के आधार पर कहते हैं कि शाम्भवी क्रिया करने वालों में कार्टिसोल (तनाव को कम करने वाला हार्मोन) नियंत्रण में रहता है।

जाहिर है कि शांभवी मुद्रा बेहद प्रभावशाली योग मुद्रा है। “योगी कथामृत” के लेखक और पश्चिमी दुनिया में क्रिया योग का प्रचार करने वाले परमहंस योगानंद से किसी ने पूछ लिया – “क्रियायोग के अतिरिक्त और कोई वैज्ञानिक विधि है, जो साधक को ईश्वर की ओर ले जा सके?” पहमहंस जी बोले, “अवश्य। परमात्मा को पाने का एक पक्का और द्रुतगामी रास्ता है अपने भ्रूमध्य स्थित कूटस्थ चैतन्य पर ध्यान करना।“  पुराणों से लेकर विज्ञान तक की बातों और नए-पुराने योगियों के मंतव्यों से शांभवी महामुद्रा की अहमियत का सहज अंदाज लगाया जा सकता है।  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

: News & Archives