योग विद्या के आलोक में श्रीराम

किशोर कुमार //

भक्तमाल की एक कथा है। ‘रामचरितमानस’ के रचयिता तुलसीदास पास से एक शवयात्रा गुजर रही थी। उसमें दूसरे लोगों के अलावा मृतक की पत्नी भी थी, जिसे धर्म के तहत मान्य सती-प्रथा के अनुसार पति के शव के साथ आत्मदाह करना था। उस स्त्री ने तुलसीदास को दूर से ही प्रणाम किया और उन्होंने उसे सुहागवती रहने का आशीर्वाद दे दिया। इस वजह से वह स्त्री धर्म से विरत हो गई थी। सौभाग्य से यह कथा इस अप्रिय मोड़ पर नहीं खत्म होती। तुलसी ने मामले को अपने हाथ में ले लिया। उन्होंने पूरी जमात को इकट्ठा किया और राम में सच्ची आस्था रखने की प्रेरणा दी। मानो वे शव-यात्रा के दौरान ‘राम नाम सत्य है’ के मर्सिया के सत्य को बताना चाहते थे। जब उन्होंने देखा कि उनकी आस्था सच्ची है, तो वे ब्राह्मण को जीवित करने के उपक्रम में लग गए और उसकी स्त्री को जो आशीर्वाद दिया था, उसे सच कर दिया। उस स्त्री का धर्म बच गया, क्योंकि उसे वास्तव में पति की सेवा का सौभाग्य मिला। इस घटना से लोग चमत्कृत रह गए। तब तुलसीदास ने कहा कि वे कोई चमत्कार नहीं जानते, केवल राम नाम जानते हैं। इस कथा का संदेश यह है कि धर्म की पारंपरिक माँगें भक्ति की नीति से पूरी हो सकती हैं। भक्ति की शक्ति भगवान को प्रकट कर देती है।

पूरा देश राममय है। हममे श्रीराम के मूल्यों का बीज तो पहले से विद्यमान है। सही पोषण भर से वह अंकुरित हो चुका है। कामना यही है कि यह अंकुरण निर्दोष रहे और फले-फूले। तभी कथा के राम से बाहर जाकर घट-घट में बैठे राम से साक्षात्कार कर अपना जीवन धन्य बना पाएंगे।

श्रीराम की कथा तो हम सब जानते ही हैं। कल राजतिलक होना है और आज उन्हें वनगमन का फैसला लेना पड़ा और वनवास के लिए ऐसे निकल पड़े, मानों राजतिलक के लिए जा रहे हों। अयोध्या से चलकर चित्रकूट पहुंचे तो रास्ते में कांटे ही कांटे होने के कारण पैर लहूलुहान हो गए। पर चिंता इस बात को लेकर थी कहीं वही कांटे उनके भाइयों को न चुभ जाएं। इसलिए चित्रकूट के वनवासियों से आग्रह किया कि रास्ते के कांटों को हटा दें। उनका दिल कहता है कि उनसे मिलने उनके भाई भरत और शत्रुध्न जरूर आएंगे। जरा सोचिए, जिसकी मां के कारण वनवास हुआ, उसके बेटे के लिए ऐसा सद्विचार! हमारे लिए कितनी बड़ी सीख है। और हमारी स्थिति क्या होती है? हमारी वृत्तियां इतनी दोषपूर्ण है कि जीवन में छोटी-मोटी घटनाएं भी विचलित कर देती हैं।

संत-महात्मा कहते रहे हैं कि रामायण की कथा जान गए, अच्छी बात है। सद्गुणों के विकास की पहली सीढ़ी है। पर यह भी जानने की कोशिश होनी चाहिए कि रामायण का रहस्य क्या है? क्या राम केवल राजपुत्र थे अथवा परब्रह्म परमेश्वर थे? उनका वास्तविक स्वरूप क्या था? संत कबीर ने कहा है – “एक राम दशरथ का बेटा, दूजा राम घट-घट में बैठा, तीजा राम जगत पसारा, चौथा राम जगत से न्यारा।“ जाहिर है कि हमें कथा के राम तक सीमित नहीं रहना होगा, एक पायदान आगे बढ़ना होगा। योगबल के जरिए घट-घट में बैठे राम का अन्वेषण करना होगा। ऐसा किए बिना कलियुग में रामराज की कल्पना भी नहीं की जा सकती।

हमारे गुरू परमहंस जी सत्संग में आए लोगों से पूछते थे कि आज हमारे समाज की स्थिति इतनी दयनीय क्यों है? हम इतने महान् होते हुए भी क्यों गिर रहे हैं? विश्व का इतिहास देख लीजिए। जितने ज्ञानी, महात्मा, परमहंस, ऋषि, मुनि तया तत्ववेत्ता इस धरती पर पैदा हुए हैं, उतने और कहीं भी नहीं हुए। हिमालय और कन्याकुमारी के बीच स्थित इस देश में महान् विभूतियों ने जन्म लिया है। इतनी ज्यादा शक्ति होने के बावजूद भी आज इस देश की ऐसी स्थिति क्यों है? फिर वे उत्तर भी देते थे। कहते थे कि इसका मूल कारण ढूंढने से पता चलता है कि आज इस देश का मानव घट-घट व्यापी उस राम को जानने के लिए न तो उत्सुक है और न कोई उपाय ढूँढता है।

हम सब बचपन से पढ़ते आए हैं कि व्यक्ति से समाज और समाज से राष्ट्र का निर्माण होता है। यौगिक व आध्यात्मिक विरासत होने के बावजूद समस्याए हर स्तर पर बनी रहती है। व्यक्तिगत समस्या के मूल में हमारी अति की भावना की प्रबलता है। जैसे, अति कामना, अति भोग आदि। यह जानते हुए भी अति का अंत बुरा ही होता है। रावण भी तो अति में ही मारा गया। सोने की लंका थी, अपने जमाने की विश्व सुंदरी मंदोदरी पत्नी थी। पर अति की भावना ने सीता जी का अपहरण करने को बाध्य किया। नतीजतन, सोने की लंका जल गई। इसलिए जरूरी है कि समाजा ऐसा होना चाहिए, जिस पर राम की कथाओं से सींचे हुए लोगों का प्रभाव हो। पर चित्तवृत्तियों का निरोध न हुआ तो बात कैसे बनेगी?

हम सबकी जैसी मनोदशा होती है, उसमें सीधे-सीधे आसन, प्राणायाम और ध्यान की साधनाओं से बात बनने वाली नहीं। तभी अयोध्या में रामलला की प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा के लिए होने वाले महायज्ञ से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यम-नियम की साधना की। यम और नियम महर्षि पतंजलि के अष्टांग योग के पहले दो पायदान हैं। योगी इसे योग का आधार मानते हैं। इसके बिना सामान्य जनों का योग सधना मुश्किल है। हम सब देख रहे हैं कि प्रधानमंत्री द्वारा यम-नियम का पालन करने के बाद योग जगत में इसकी सर्वाधिक चर्चा होने लगी है, जो समन्वित औऱ समृद्ध योग विद्या के लिए जरूरी है। इन योग साधनाओं के बाद ही उच्चतर योग साधनाओं से मन का प्रबंधन होगा और घट-घट के राम का जानना संभव हो सकेगा।

पर संत तुलसीदास जी कह गए – “कलयुग केवल नाम अधारा, सुमिर सुमिर नर उतरहिं पारा।“ यानी कलियुग में नाम जप ही प्रभावी योग साधना है। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि नाम जप और संकीर्त्तन को छोड़कर प्राचीन काल में जितनी साधनाएँ हम लोगों को बतलाई गई, इस कलयुग में उन सबकी प्रासंगिकता समाप्त हो चुकी है। राम नाम से जुड़े एक प्रसंग की चर्चा यहां समीचीन है। देश में आर्यसमाज के बड़े आध्यात्मिक नेता थे स्वामी सत्यानंदजी महाराज। पर मन श्रीराम में रम गया। बात 1925 की है। उन्हें दयानंद जन्मशताब्दी समारोह में एकांतवास करने की आंतरिक प्रेरणा हुई। चले गए डलहौजी। साधना के दौरान ब्यास पूर्णिमा की रात उन्हें “राम” शब्द बहुत ही सुंदर और आकर्षक स्वर में सुनाई दिया। फिर आदेशात्मक शब्द आया – राम भज…राम भज…राम भज।

स्वामी सत्यानंदजी महाराज समझ गए कि श्रीराम की अनुकंपा हो चुकी है। इस तरह वे आर्यसमाज से नाता तोड़कर पूरी तरह राम का गुणगाण करने में जुट गए। राम शरणम् नाम से संस्था बनाई, जिसका प्रभाव आज भी खासतौर से उत्तर भारत में दिखता है। एक बार महात्मा गांधी शिमला में स्वामी सत्यानंदजी महाराज से मिले। उनकी चिंता थी कि देश को आजाद कराने में तमाम तरह की बाधाएं आ रही हैं। स्वामी जी ने अपने हाथ का माला देते हुए कहा – राम नाम का सुमिरन करिए। सोने से पहले प्रतिदिन पांच माला जप कीजिए। सफलता अवश्य मिलेगी। हम सब जानते हैं कि प्राण छूटते समय भी गांधी के मुंख में राम नाम ही था।  

नाम जप, संकीर्त्तन और मंत्रों की शक्ति को आधुनिक विज्ञान भी स्वीकारता है। महर्षि वशिष्ठ ने श्रीराम को यम-नियम से लेकर योग की उच्चतर स्तर तक की व्यावहारिक शिक्षा दी थी। नाम की महत्ता बतलाई थी। नतीजा हुआ कि दशरथ के राम में साक्षात् विष्णु प्रकट हो गए, जो हमारे घट-घट में समाए हुए हैं। आईए, संतों द्वारा बताई गई योग सधना का क्रमिक अभ्यास करके श्रीराम के गुणों को अपने जीवन में प्रकट करने का प्रयास करें।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

इस शताब्दी का विज्ञान है भक्ति मार्ग

यह भक्ति की शताब्दी है। भक्ति भावना और भक्ति योग पर जोर होगा। वैज्ञानिक अनुसंधानों के परिणाम इसके आधार होंगे। वैज्ञानिक उत्प्रेरक की भूमिका में होंगे। उन्होंने अब तक पदार्थ पर शोध किए, उनकी तकनीकें विकसित की। अब वे भावनाओं, विचारों, संवेदनाओं और समर्पण के क्षेत्र में काम करेंगे। आधुनिक यौगिक व तांत्रिक पुनर्जागरण के प्रेरणास्रोत और 20वीं सदी के महानतम संत परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती को ब्रह्मलीन होने से पहले ऐसी झलक मिली थी। उन्होंने दावे के साथ कहा था कि ऐसा हो कर रहेगा और यह विध्वंस की ओर बढ़ रही दुनिया के लिए शुभ है। उनके संन्यास दिवस (12 सितंबर) पर प्रस्तुत है यह आलेख।

“अचानक मुझे नई शताब्दी की घटनाओं की झलक मिली है। इस शताब्दी में योग नेपथ्य में चला जाएगा, भक्ति की भूमिका प्रधान होगी। भक्ति यानी श्रद्धा, प्रेम, केवल विशुद्ध प्रेम। यह अवश्य घटित होगा, एक मान्यता के रूप में नहीं, बल्कि विज्ञान के रूप में।“ योग की प्राचीन पद्धति को आधुनिक विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने वाले 20वीं सदी को महानतम संत और बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस सत्यानंद सरस्वती कोई तीन दशक पहले सत्संग करते हुए प्रसंग बदलकर इस बात को इस तरह कहने लगे थे, मानों उन्हें उसी क्षण 21वीं शताब्दी में भक्ति युग के आगमन की झलक मिली हो। मौजूदा समय में उनका भौतिक शरीर नहीं है। पर उनकी बात विविध रूपों में हकीकत में तब्दील होती दिख रही है।

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती के संन्यास के 73 साल पूरे हो गए। उन्हें 12 सितंबर 1947 ऋषिकेश में स्वामी शिवानंद सरस्वती ने संन्यास दीक्षा दी थी। इससे जुड़ी एक रोचक कहानी है, जो देश के विभाजन से पहले की है। वे अपने गुरू की पुस्तकों के प्रकाशन के सिलसिले में लाहौर में थे। तभी सांप्रदायिक दंगा भड़क गया। दंगाइयों की ज्यादती से इतने दु:खी हुए कि संन्यास-मार्ग से अलग रास्ता बनाने की इच्छा बलवती हो गई। अपनी इच्छा गुरू को बताई और कहा कि वे कल आश्रम छोड़ देंगे। स्वामी शिवानंद ने बड़े प्यार से समझाया – “तुम जीनियस हो। विशेष प्रयोजन के लिए पैदा हुए हो। वैसे, मैं किसी को रोकता नही। पर तुम अपना जीवन बर्बाद न करो। कल तुम संन्यास ग्रहण करने वाले हो।“ वे  गुरू के शक्तिशाली शब्दों से निरूत्तर हो गए और अगले दिन यानी 12 सिंतबर को उनका पुनर्जन्म हो गया। धर्मेंद्र सिहं तयाल से स्वामी सत्यानंद सरस्वती बन गए थे।    

इस महान संत को सत्तर के दशक में योग को लेकर भी ऐसी ही झलक मिली थी। तब उन्होंने कहा था – “आने वाला समय योग का है। योग भारत ही नहीं, बल्कि विश्व की संस्कृति बनेगा। प्राचीन काल में योग को जैसी वैश्विक मान्यता थी, वैसी ही मान्यता फिर मिलेगी। फर्क इतना होगा कि इस बार आधुनिक विज्ञान लोगों को आश्वस्त करेगा। वह बताएगा कि योग का वैज्ञानिक आधार है और उससे मानव का कल्याण संभव है।“ हम सब देख रहे हैं कि 21वीं सदी प्रारंभ होते-होते दुनिया भर में योग छा चुका है। वैज्ञानिक अनुसंधान का बड़ा विषय़ बना हुआ है। दुनिया का कोई भी प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय या वैज्ञानिक अनुसंधान संस्थान नहीं बचा है, जहां योग की वैज्ञानिकता पर तरह-तरह के परिणाम हासिल करने की कवायदें नहीं की जा रही हैं। अब भक्ति योग के रूप में भक्ति काल मुहाने पर खड़ा दिख रहा है। वैज्ञानिक श्रीमद्भगवतगीता के मनोविज्ञान पर अध्ययन कर रहे हैं तो मंत्रों और संकीर्तन की वैज्ञानिकता पर भी अनुसंधान कर रहे हैं। शुरूआती नतीजे उत्साहजनक होने के कारण अनुसंधान का फलक व्यापक होता जा रहा है।

दीक्षा लेने से पहले स्वामी सत्यानंद  कॉन्वेंट स्कूल  के विद्यार्थी थे। एक दिन स्कूल जाते हुए निर्जन स्थान पर सड़क किनारे दिगंबर वेश में बैठी एक महिला ने उन्हें आवाज दी, ऐ लड़के इधर आ। फिर ग्लास देते हुए कहा, इसमें दूध ला दे। उसकी वाणी में इतनी ताकत थी कि स्वामी सत्यानंद कॉलेज जाने के बदले दूध लेकर आ गए। उस महिला को थोड़ी बात से समझ में आ गई कि लड़का आध्यात्मिक है। उसने कहा – देखो, किताबें पढ़ने से कुछ नहीं मिलने वाला, कुछ करेगा? स्वामी सत्यानंद ने कहा – मैं पिता जी से पूछकर बताऊंगा। ठीक है, जा। पर जब वापस आना तो आधी रात को आना और अकेले एवं निहत्था – उस महिला ने यह हुए उन्हें मुक्त कर दिया। स्वामी सत्यानंद ने अपने पिता से सारी बातें बताईं तो उन्होंने हामी भर दी। स्वामी सत्यानंद कहते थे कि साधना के दौरान ऐसी उच्च अनुभूतियां हुईं, जैसी कृष्ण से योशोदा को और आर्जुन को हुई होंगी। वह योगिनी कोई और नहीं, बल्कि जूना अखाड़े की सिद्ध तांत्रिक सुखमन गिरि थीं।

स्वामी सत्यानंद ने श्रीअरविंद का हवाला देते हुए कहा था कि तर्क एक सहारा था, अब तर्क एक अवरोध है। अगली शताब्दी में वैज्ञानिक इस अवरोध को दूर करेंगे। वे विभिन्न अनुसंधानों के आधार पर भक्ति विज्ञान का गूढार्थ समझाएंगे। वे बताएंगे कि भक्ति मात्र एक दर्शन नहीं है, कोई धर्म नहीं है। भक्ति एक विज्ञान है, ऐसा विज्ञान जो व्यक्ति को आमूल परिवर्तित कर देता है। भक्ति व्यक्ति की विचारधारा को तथा वृत्तियों को रूपांतरित कर देती है। वे संगीत की पुनर्व्याख्या करेंगे और नाद योग की महत्ता प्रतिपादित करेंगे। वे प्रार्थना और संकीर्तन की वैज्ञानिकता समझाएंगे। तब मानव को अपनी ऊर्जा के दिशांतरण का ख्याल आएगा। इसके साथ ही आशांत मन को शांति मिलेगी। दुनिया भर में विध्वंसक गतिविधियों पर लगाम लगेगी।   

स्वामी सत्यानंद को एक दिन अचानक गुरू शिवानंद सरस्वती ने पास बुलाया। हाथ में 108 रूपए दिए, शक्तिपात विधि से क्षण भर में योगशिक्षा दी और कहा, “जाओ सत्यानंद, दुनिया को योग सिखाओ।“ आदेश मिलते ही स्वामी सत्यानंद अपने इष्ट देव के पास त्र्यंबकेश्वर चले गए। वहां ध्यान लगाकर पूछा कि शुरू कहां से करूं? उत्तर में मुंगेर की उत्तरवाहिनी गंगा और उसके किनारे का स्थान दिखा। वे बिना देर किए मुंगेर पहुंचे। फिर परिस्थियां इतनी अनुकूल होती गईं कि जिस स्थान पर बैठकर दानवीर कर्ण सोना दान किया करते थे, उसी स्थान पर बैठकर वे योग विद्या का दान करने लगे थे। यह काम बीस साल तक करते रहे। उसके बाद अपने आध्यात्मिक उत्तराधिकारी स्वामी निरंजनानंद को कमान सौंप कर चल दिए। फिर मुंगेर की ओर मुड़कर देखा तक नहीं। उनके द्वारा स्थापित बिहार योग विद्यालय की पहचान अब दुनिया भर में है।   

प्राचीन काल में भक्ति का आधार आत्मज्ञान था और आम लोग उसे आस्था व विश्वास के रूप में स्वीकारते थे। इस शताब्दी में वैज्ञानिक और वैज्ञानिक संत बताएंगे कि भक्ति का विज्ञान क्या है, यह मानव पर किस तरह काम करता है और उसकी जरूरत क्यों है। इसका मतलब हुआ कि वह समय भी आएगा, जब वैज्ञानिक अनुसंधान करके पता लगाएंगे कि मीराबाई जहर का प्याला पी गईं और उन पर उसका असर क्यों नहीं हुआ था? ईसा मसीह तीन दिनों तक सूली पर लटके होने के बावजूद जीवित कैसे रह गए थे? तैलंग स्वामी, जिन्हें बनारस का चलता-फिरता महादेव कहा जाता था, कड़े पहरे में जेल में होने के बावजूद किस तरह सड़कों पर घूमते-फिरते दिख जाते थे? पदार्थ, वैद्युतिकी, नाभिकीय भौतिकी आदि पर अनुसंधान करने वाले वैज्ञानिक भक्ति पर अनुसंधान करके बताएंगे कि आस्था, विश्वास और भक्ति का मानव पर किस तरह प्रभाव डालता है? भक्ति मानव मस्तिष्क के विद्युत चुंबकीय तरंगों को किस तरह प्रभावित करती है?  एंजाइमों को किस तरह प्रभावित करती है? उससे हृदयवाहिका तंत्र में किस तरह का बदलाव होता है?  शारीरिक और मानसिक अवस्थाओं में जो परिवर्तन होता है, उसे वैज्ञानिक भाषा में किस तरह परिभाषित किया जाए और उसे कौन-सा नाम दिया जाए? वैज्ञानिक अपने अनुसंधान का दायरा अब पदार्थ, वैद्युतिकी, नाभिकीय भौतिकी आदि तक ही सीमिति नहीं रखेंगे।

स्वामी सत्यानंद ने योग शास्त्रों की कई योग पद्धतियों का आधुनिक युग के लिहाज से सरलीकरण करके प्रस्तुत किया। उनके मानव पर होने वाले प्रभावों का वैज्ञानिक अध्ययन किया। इसके लिए विश्व के नामचीन चिकित्सा अनुसंधान संस्थानों का सहयोग लिया। फिर अपने ही संस्थान में योग अनुसंधान केंद्र स्थापित किया। वे चाहते थे योग विद्या इतनी उन्नत हो कि विद्यार्थियों को योग के शास्त्रीय ज्ञान से लेकर उसके ऐतिहासिक पृष्ठभूमि तक पता रहे। उन्हें पता रहे कि योग का सिंधु घाटी की समभ्यता से क्या संबंध है, योग का कश्मीर के शैव दर्शन से क्या संबंध है, योग में हठयोग कैसे आया, वेद व उपनिषदों में योग कहां-कहां है आदि आदि। इसलिए वैज्ञानिक आधार पर उच्च कोटि का साहित्य सृजन किया तो समन्वित योग की शिक्षा देने की व्यवस्था की। इसका असर हुआ कि दुनिया के अनेक देशों में यह शिक्षा-पद्धति लोकप्रिय हो गई।    

वैदिक काल के वैज्ञानिकों यानी हमारे ऋषि-मुनियों ने कहा था कि सृष्टि में छोटे अणु से लेकर विशाल आकाशगंगा तक सभी कुछ एक परमात्मा में व्याप्त है। उन्होंने इसे संस्कृत में ऐसे कहा – “अणोरणियाम् महतो महीयान्।“ वेद व्यास से लेकर महर्षि वाल्मिकी तक और उनके बाद के संत भी देश-काल को ध्यान में रखकर वेद और उपनिषदों की इस बात को समझाते रहे। वे बताते थे कि मानव के अस्तित्व के अलावा भी ब्रह्मांड में अन्य कोई अस्तित्व है, जिसका स्वरूप दिव्य है। आत्म-ज्ञानी संतों ने अपने अनुभवों के आधार पर कहा था कि मनुष्य ही ब्रह्मांड की प्रतिमूर्ति है। जो बाहर है, वह भीतर भी है। आधुनिक काल में भी हम इसे अद्वैत वेदांत कहते हैं। तभी निष्कर्ष निकाला गया कि चेतना का विस्तार करके पारलौकिक चीजों से साक्षात्कार संभव है। पर तर्क की दुनिया में जीने वाले बुद्धिजीवियों को यह बात तब समझ में आई, जब अल्बर्ट आइंस्टाइन ने इसे युनिफाइड फील्ड थीयरी के रूप में परिभाषित कर दिया। इस थीयरी की मान्यता है कि ब्रह्मांड में सृष्टि का हर पदार्थ अदृश्य माध्यम के द्वारा एक-दूसरे से जुड़ा है।

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती का अंतिम सत्संग

आइंस्टाइन ने कहा था – “आंखों से दिखने वाली यह पृथकता केवल भ्रम है। असलियत में इस ब्रह्मांड में स्थित हम सभी एक ही हैं। बस, हमें अपनी अनुकंपा की सीमाओं को इतना बढ़ाना होगा कि हम सारे विश्व को अपने दायरे में समां लें।“ स्वामी सत्यानंद कहते थे कि यह अजीब बात है कि जब आइस्टाइन कहते हैं E = mc2 तो उसे परखने की जरूरत महसूस नहीं होती। यदि शास्त्रसम्मत बातें हों तो कई सवाल खड़े किए जाते हैं। पर समय बदल रहा है। इसके स्पष्ट संकेत मिल रहे हैं। अब वह दिन दूर नहीं जब वैज्ञानिक भी खुले तौर पर कहेंगे कि इस विश्व और आकाश गंगा में हर जीव-जंतु जिस अदृश्य शक्ति से आपस में जुड़े हैं, वही तो परमात्मा है।   

स्वामी सत्यानंद कहते थे – “मैं विश्वास दिलाता हूं कि योग की आध्यात्मिकता को बरकरार रखूंगा। मुझे मालूम है कि किसी भी संस्था को चलाने के लिए धन की जरूरत होती है। पर यदि योग की संस्थाएं व्यापार करना शुरू करेंगी तो आध्यात्मिक ऊर्जा का पलायन हो जाएगा।“ उन्होंने जैसा कहा था, वैसा ही हुआ। उनकी संस्था बिहार योग विद्यालय के बीते लगभग साठ वर्षों के इतिहास पर गौर करें तो कहना होगा कि इसने न केवल आध्यात्मिक योग की परंपरा को कायम रखा, बल्कि भारतीय ऋषि परंपरा, वैदिक जीवन शैली और योग की सनातन संस्कृति को भी कायम रखा।

नई शताब्दी में बच्चे सवाल करेंगे कि आत्मा क्या है और उसका स्थान कहां है? वे ऐसा सवाल करके संन्यास की बात नहीं, बल्कि विज्ञान की बात कर रहे होंगे। उन्हें थोड़ा सरल तरीके से और थोड़ा विस्तार से बताना होगा कि भगवान बुद्ध और ईसामसीह से लेकर सुकरात, अरस्तू व प्लेटो तक की मान्यता थी कि प्रत्येक वस्तु चाहे वह दृश्य हो या अदृश्य, शक्ति या ऊर्जा की अभिव्यक्ति है। आधुनिक युग में वैज्ञानिक अणु, परमाणु, इलेक्टॉन, प्रोटॉन आदि की चर्चा करते हैं। बात एक ही है। यह इस बात का प्रमाण है कि प्रत्येक वस्तु, प्रत्येक सजीव या निर्जीव पदार्थ, चल या अचल, दृश्य या अदृश्य ऊर्जा कणों का समिश्रण हैं। सभी वस्तुओं व जीवों का मूल स्रोत एक ही है। शास्त्रों में भी कहा गया है कि आत्मा सर्वव्यापक है। किसी ने स्वामी सत्यानंद से पूछा था – आत्मा कहां होती है? इसके जबाव में वे कई सवाल करते गए और खुद ही जबाव भी देते गए थे। मसलन, दूध में मक्खन कहां है? सब जगह। काठ में आग कहा है? सब जगह। बीज में वृक्ष कहां है? सब जगह। उसी तरह सृष्टि में आत्मा कहा है? सब जगह।

भक्तियोग में सेवा, प्रेम और दान आंतरिक शुद्धता के लिए अनिवार्य हैं। स्वामी सत्यानंद के जीवन में यह क्रम प्रत्यक्ष रूप से दिखता रहा। वे योग के कार्यों को पूरा करने के बाद देवघर जिले के निहायत ही पिछड़े गांव में साधना कर रहे थे तो उन्हें अंतर्रात्मा की आवाज सुनाई पड़ी थी – “सत्यानंद, मैंने जो सुविधा तुम्हें प्रदान की है, वही सुविधा तुम अपने पड़ोसियों को प्रदान करो।“  स्वामी जी मुंगेर से तो खाली हाथ निकल गए थे। पर उन्हें जैसा आदेश मिला और उन्होंने जैसा चाहा, वैसा होता गया। नतीजतन, आज देवघर जिले में रिखिया पंचायत और आसपास के इलाकों के लोगों का जीवन बदल चुका है। आश्रम की ओर से लगभग 80 हजार लोगों को जीने के सारे साधन उपलब्ध कराए जाते हैं।

इसी तरह बच्चे परमात्मा को लेकर भी सवाल करेंगे। उन्हें बताना होगा कि प्रत्येक घटना ब्रह्मांडीय चेतना की अभिव्यक्ति है, जिसे लीला भी कहा जाता है। पर चेतना का बोध मनुष्य को ही हो पाता है। तभी उसके मन में सवाल आता रहा कि मैं कैसे जान जाता हूं कि यह अमुक वस्तु है? रात में मृतावस्था में होने के बावजूद जब नींद खुलती है तो कैसे पता चलता है कि मैं वही आदमी हूं? अनुसंधान करके पता लगाया गया कि इसकी वजह चेतन मन की सजगता है। फिर सवाल उठा कि यह सजगता क्या है और यह कैसे हासिल होती है? पता चला कि चेतना के पार भी कुछ है, जो हर व्यक्ति में विराजमान है। उसी की आंशिक अभिव्यक्ति है सजगता। योगियो और आत्मज्ञानियों ने योगबल व भक्ति की बदौलत चेतना के पार तक पहुंच बनाई। उन्होंने उसे परमचेतना मानते हुए व्यवस्था दी कि वही परमात्मा है। अब आधुनिक युग के वैज्ञानिक परमचेतना की गुत्थियां सुलझाने के लिए तत्पर दिख रहे हैं। भक्ति युग में इसी परमात्मा से साक्षात्कार की बात है, जो सुख-शांति देने में सहायक है।   

योग ने मनुष्य को भौतिकता से उठाकर आध्यात्मिकता में ला दिया है। आसन, प्राणायाम, मुद्रा, बंध ये सभी भौतिकतावादी मानव को वापस भक्ति के मार्ग में लाने के साधन थे। यदि योग आंदोलन बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में प्रारंभ न हुआ होता तो मनुष्य आध्यात्मिकता की तरफ न बढ़ा होता। योग निमित्त बना है। कह सकते हैं कि योग छोटा भाई है और भक्ति बड़ी बहन है। भक्ति हमारा नैसर्गिक गुण है। केवल उसकी सजगता को विकसित करना है। भक्ति से उत्पन्न शक्ति का दिशांतरण कर दो। उसे परमात्मा में लगा दो। मन पर नियंत्रण हो जाएगा। इसके साथ ही नाना प्रकार की समस्याओं से छुटकारा मिलेगा। जीवन सुगम होगा।

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती  

भारतीय संतों को तो शुरू से ही इस बात का भान था कि विभिन्न राजनैतिक कारणों से विलुप्त होती संस्कृति हमें कहीं का नहीं छोड़ेगी। शायद यही वजह है कि स्वामी रामतीर्थ, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद व स्वामी शिवानंद सरस्वती जैसे न जाने कितने ही संतो ने अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करके अध्यात्म को जिंदा रखा। कुछ अन्य वजहों से भी आध्यात्मिक उत्थान के अभियान को बल मिला। जैसे, पॉल ब्रंटन “गुप्त भारत की खोज” करते हुए भारतीय संतों से इस तरह प्रभावित हुए कि आए थे पत्रकार के रूप में और अपने देश अमेरिका लौटे रमण महर्षि के शिष्य के रूप में। देश की आजादी से पहले कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायधीश रहे सर जॉन वुडरफ भारतीय तंत्र विद्या से इतने प्रभावित हुए थे कि नौकरी छोड़कर तंत्र साधना करने लगे थे। बाद में योग व तंत्र-शास्त्र पर कई किताबें लिख दी। उनमें “द सर्पेंट पावर” बेहद चर्चित है। इन पुस्तकों से पश्चिमी जगत के लोगों को योग और अध्यात्म को लेकर बड़ी आश्वस्ति मिली थी।

आधुनिक युग में तेजी से लोप होती गुरू-शिष्य परंपरा के बीच स्वामी शिवानंद सरस्वती से शुरू होकर स्वामी सत्यानंद सरस्वती और उनके उत्तराधिकारी स्वामी निरंजनानंद सरस्वती से आगे बढ़ती गुरू-शिष्य परंपरा अविस्मरणीय है। इस वजह से योग और अध्यात्म का ज्ञान बांटने की अटूट श्रृंखला आज कायम है। अब न स्वामी शिवानंद हैं और न ही स्वामी सत्यानंद। पर उनकी ऊर्जा से योग का प्रकाश पूरी दुनिया में फैल रहा है। परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती बिहार योग – सत्यानंद योग की परंपरा को और भी विस्तार देकर जनमानस को जीवन की नई दिशा देने में तल्लीन हैं।

स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि उनके पास दुनिया के अनेक देशों के वैज्ञानिक आते हैं और कहते हैं कि अब बहुत हो गया। हम जितना प्रयोग कर रहे हैं, दुनिया उसका उपयोग अपने विनाश के लिए कर रही है। मानव उनको विकृत कर रहे हैं, उनका दुरूपयोग कर रहे हैं। यह भोग की अतिशयता है। विकसित देशों के लोगों को भी थोड़ा-थोड़ा समझ में आने लगा है कि भोगवाद में सिवाय अशांति के कुछ हाथ नहीं लगा। पदार्थ पर वैज्ञानिक अनुसंधानों से अनेक उपलब्धियां हासिल हुईं। पर उसी अनुपात में मन अशांत होता गया और शरीर नाना प्रकार की बीमारियों का घर बनता गया। इन सबका मिलाजुला परिणाम यह है कि आज भारत के आश्रमों में भारतीयों से ज्यादा विदेशियों की भरमार होती है। वे संकीर्तन करते हैं, मंत्रोच्चारण करते हैं और भक्ति मार्ग पर बढ़ते रहने के लिए ईमानदार कोशिशें करते दिखते हैं। यह भक्ति युग के आगमन की आहट ही तो है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

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