योग : अभी लंबी दूरी तय करनी है

किशोर कुमार

अब यह तथ्य विज्ञानसम्मत है और सर्वमान्य भी कि हृदयरोग से बचाव में योग की बड़ी भूमिका है। हमें ज्ञात हो चुका है कि तनाव, अवसाद और हृदयाघात ये तीन क्रमबद्ध स्टेशनों की तरह हैं। तनाव रूपी स्टेशन से एक बार निर्बाध यात्रा शुरू हुई तो हृदयाघात तक पहुंचना लगभग तय हो जाता है। इसलिए विकसित देशों में योग की लोकप्रियता चरम पर है। पश्चिम के उन देशों में भी योग की स्वीकार्यता बढ़ी है, जहां योगाभ्यास वर्जित था। पर भारत में योग की कितनी स्वीकार्यता बढ़ी? अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस करीब है और सर्वत्र योगोत्सवों की धूम है। पर क्या हम स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से योगाभ्यास के मामले में अमेरिका जैसे विकसित देश की बराबरी कर पा रहे हैं? शायद नहीं।

इस तथ्य को पुख्ता ढंग से प्रस्तुत करने के लिए हमे अमेरिका सहित कई पश्चिमी देशों के आधिकारिक आंकड़े तो सर्वत्र मिल जाते हैं। पर भारत में ऐसे आंकड़ों का टोटा है। इसलिए कि इस मामले में व्यापक स्तर पर काम शैशवावस्था में है। अलबत्ता आयुष मंत्रालय ने अपने अभियान “नियंत्रित मधुमेह भारत” के तहत जो अध्ययन करवाया था, उससे भारत में योगाभ्यासियों की संख्या का मोटा अनुमान लगाना संभव हो सका है। कोई 1,62,330 लोगों पर किए गए सर्वेक्षण से पता चला कि 11.8 फीसदी लोग ही नियमित रूप से योगाभ्यास करते हैं। इनमें उत्तर भारत में योगाभ्यास करने वालों की संख्या सर्वाधिक है। दूसरी तरफ अमेरिकी योग अलायंस की रिपोर्ट के मुताबिक 34 फीसदी लोग नियमित योगाभ्यास करते हैं। इसलिए योग प्रशिक्षकों की संख्या और योग का कारोबार भी अमेरिका में तेजी से बढ़ा है। वैसे, भारत के योगियों ने कभी नहीं चाहा कि योग कारोबार बने। बिहार योग विद्यालय से लेकर रमण महर्षि के आश्रम तक की शिक्षा ऐसी ही रही है।

इसमें दो मत नहीं कि हृदय रोग गैर-संचारी रोगों की श्रेणी में मृत्यु दर का प्रमुख कारण बन गया हैं। इस स्थिति से बचाव के लिए योग की प्रभावशाली विधियां मौजूद होने के बावजूद बीमारी का बेलगाम होते जाना चिंताजनक है। सेंट्रल काउंसिल फॉर रिसर्च इन योगा एंड नेचुरोपैथी  की पहल पर दिल्ली के वर्द्धमान महावीर मेडिकल कालेज एवं सफदरजंग अस्पताल के मनोविज्ञान विभाग में कॉर्डियोवास्कुलर ऑटोनोमिक फंक्शन पर योग के प्रभाव पर अनुसंधान हुआ है। इस अनुसंधान का उद्देश्य यह पता लगाना था कि किस योगाभ्यास से हृदय को ऐसी स्थिति में लाया जाए ताकि धमनियों में रक्त संचार सुगमता से होता रहे। उम्मीद है कि इस अनुसंधान से संबंधित रिपोर्ट जल्दी ही जारी होगी।

पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया (पीएचएफआई) ने देशभर के 24 स्थानों पर किए गए अध्ययन के आधार पर दावा किया है कि योग हृदय रोगियों को दोबारा सामान्य जीवन जीने में मदद करता है। लंबे समय तक किए गए क्लीनिकल ट्रायल के बाद शोधकर्ता इस नतीजे पर पहुंचे हैं। इस ट्रायल के दौरान हृदय रोगों से ग्रस्त मरीजों में योग आधारित पुनर्वास (योगा-केयर) की तुलना देखभाल की उन्नत मानक प्रक्रियाओं से की गई है। लगातार 48 महीनों तक चले इस अध्ययन में अस्पताल में दाखिल अथवा डिस्चार्ज हो चुके चार हजार हृदय रोगियों को शामिल किया गया था। ट्रायल के दौरान तीन महीने तक अस्पतालों और मरीजों के घर पर योग प्रशिक्षण सत्र आयोजित किए गए थे। दस या उससे अधिक प्रशिक्षण सत्रों में उपस्थित रहने वाले मरीजों के स्वास्थ्य में अन्य मरीजों की अपेक्षा अधिक सुधार देखा गया।

पीएचएफआई की इस परियोजना को इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) और मेडिकल रिसर्च काउंसिल – यूके ने प्रायोजित किया था। अध्ययन रिपोर्ट अमेरिकन हार्ट एसोसिएशन के शिकागो में हुई बैठक में जारी की गई थी। अध्ययन के लिए “योगा केयर” नाम से मरीजों के अनुकूल एक पाठ्यक्रम तैयार किया गया था। उसमें ध्यान, श्वास अभ्यास, हृदय अनुकूल चुनिंदा योगासन और जीवन शैली से संबंधित सलाह शामिल किया गया। पुणे स्थित बीजे मेडिकल कॉलेज के मनोविज्ञान विभाग में भी कॉर्डियोवास्कुलर ऑटोनोमिक फंक्शन पर प्राणायाम के प्रभावों का अध्ययन किया गया। नतीजा आशाजनक रहा। पाया गया कि दो महीनों तक नियमित रूप से प्राणायाम की विधियों को अपनाने वाले मरीजों में सुधार सामान्य मरीजों की तुलना में कई गुणा ज्यादा था।

यौन क्रियाओं का हृदय से सीधा संबंध स्थापित सत्य है। इसके लाभ-हानि पर चर्चा होती रहती है। पर हानि से बचाव का कोई यौगिक उपचार है? इस सवाल पर चर्चा कम ही हुई। जबकि विभिन्न स्तरों पर हुए शोधों से साबित हो चुका है कि हृदय को खास परिस्थियों की वजह से होने वाली हानि से बचाव में योग कारगर है। उस योग का नाम है – सिद्धासन। गोरखनाथ के शिष्य स्वामी स्वात्माराम द्वारा शोधित “सिद्धासन” को विज्ञान की कसौटी पर बार-बार कसा गया और हर बार खरा साबित हुआ। नतीजतन, सिद्धासन हृदय रोग से बचाव के लिए अनुशंसित योगाभ्यासों में सबसे महत्वपूर्ण बन गया है। अनुसंधानकर्त्ताओं ने पाया है कि कुछ सावधानियों के साथ यह योगाभ्यास पुरूषों और महिलाओं को समान रूप से लाभ पहुंचाता है।

आम धारणा रही है कि हृदयाघात पुरूषों की अपेक्षा महिलाओं में बेहद कम होता है। वैज्ञानिक शोधों से पता चला कि रजोनिवृत्ति के बाद महिलाओं को भी पुरूषों के बराबर हृदयाघात का खतरा रहता है। डॉ कर्मानंद ने योग के चिकित्सकीय प्रभावों पर अपने अनुसंधानों के बाद अपनी एक चर्चित पुस्तक “यौगिक मैनेजमेंट ऑफ कॉमन डिजीज” में लिखा कि रजोनिवृत्ति से पहले महिलाओं के हृदय की प्रकोष्ठ भित्तियों एवं बडी धमनियों की भित्तियों में विशेष तरह के एण्ड्रोजन रिसेप्टर्स की उपस्थिति होती है, जो एण्ड्रोजन के दुष्प्रभावों से हृदय की रक्षा करता है। मगर यह अंत:स्रावी प्रक्रिया जब रजोनिवृत्ति के बाद बदलती है तो एस्ट्रोजन कम होता है। इससे हृदयाघात की संभावना लगभग पुरूषों के बराबर हो जाती है।

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि तनाव और अवसाद के लक्षण दिखते ही श्वास की सजगता का अभ्यास शुरू कर दिया जाए तो समस्या काफी हद तक सुलझ जाएगी। पर समस्या योग के असर को लेकर नहीं है, बल्कि इसके अभ्यास को लेकर है। योग व्यापक स्तर पर जीवन का हिस्सा बनेगा तभी बनेगी बात।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

प्राणायाम, योगनिद्रा की शक्ति भूले नहीं

किशोर कुमार

अलविदा 2021 – कोरोना महामारी से निबटने में दुनिया भर में योग की महती भूमिका रही। योगाचार्य हो या योग प्रशिक्षक, सबने कोरोना वारियर्स की तरह लोगों को योग से निरोग रखने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी। व्यावसायिक योग प्रतिष्ठानों और योग प्रशिक्षकों के काम-धंधे बंद हो गए थे। पर आर्थिक संकटों के बावजूद वे अपने धर्म के निर्वहन के लिए अटल रहे। योग के सभी उपांगों की अपनी-अपनी विशिष्ट भूमिकाएं होती हैं। पर प्राणायाम और योगनिद्रा की शक्ति क्या होती है, इसे कोरोना महामारी से जूझते लोगों ने शिद्दत से महसूस किया। नया वर्ष सबके लिए शुभ रहे। इसके लिए जरूरी है कि हम इन यौगिक क्रियाओं की शक्ति को हम भूले नहीं। इसलिए कि दुनिया के अनेक देशों में तहलका मचाने के बाद कोविड-19 का नया अवतार ओमीक्रोन अपने देश में भी दस्तक दे चुका है।

कोविड-19 के जीवाणु जहां न केवल फेफड़े को, बल्कि हृदय को भी बुरी तरह प्रभावित कर रहे हैं। कोविड-19 से उबरे अनेक लोगों की मौत हृदयाघात से हो चुकी है। इसलिए एक बार फिर कुछ तथ्यों के आधार पर प्राणायाम और योगनिद्रा की शक्ति को समझने की जरूरत आ पड़ी है। योग रिसर्च फाउंडेशन के अनुसंधान के दौरान देखा गया कि उच्च रक्तचाप के नियंत्रण में योग निद्रा उज्जायी प्राणायाम से भी ज्यादा असरदार है। जिन मरीजों का उज्जायी प्राणायाम के बाद सिस्टोलिक ब्लड प्रेशर 138 था, वह घटकर 128 रह गया था। डायास्टोलिक ब्लड प्रेशर 89 से घटकर 82 हो गया था। पर सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात हर्ट रेट को लेकर थी। प्राणायाम से ब्लड प्रेशर तो कम होता था। पर हर्ट रेट कम होने के बजाए थोड़ा बढ़ ही जाता था। चिकित्सा विज्ञान के मुताबिक ऐसा घटे हुए ब्डल प्रेशर को कंपेन्सेट करने के लिए होता है।

आदर्श स्थिति यह है कि प्रेशर कम हो तो हर्ट रेट भी उसी अनुपात में रहे। ताकि हृदय को अधिक विश्राम मिल सके। योग निद्रा के दौरान देखा गया कि ब्लड प्रशेर कम हुआ तो हर्ट रेट भी कम हो गया था। जाहिर है कि योग निद्रा ज्यादा प्रभावी साबित हुआ। दूसरी तरफ कंट्रोल ग्रुप के मरीजों का ब्लड प्रेशर नियमित दवाओं के बावजूद एक साल के भीतर 141 से बढ़कर 142 हो गया था। डायास्टोलिक प्रेशर 90 ही रह गया था। अब यह जानना दिलचस्प होगा कि एक साल के अनुसंधान के बाद मरीजों की अंग्रेजी दवाओं पर कितनी निर्भरता रह गई थी। योग ग्रुप के 34 मरीजों में से सिर्फ दो मरीजों को ज्यादा दवाएं लेनी पड़ी थी। तेरह लोगों की दवाएँ बेहद कम हो गईं और चार लोगों की दवाएं बंद हो गईं। कंट्रोल ग्रुप के चार लोगों को नियमित दवाओं के अलावा चार दवाएं लेनी पड़ी। बाकी दस लोग साल भर पहले की तरह दवाओं के डोज लेते रहने को मजबूर थे।

जापान की ओसाका प्रेफेक्चर यूनिवर्सिटी के नैदानिक पुनर्वास विभाग ने मध्य आयुवर्ग के लोगों की श्वास-प्रश्वास संबंधी बीमारी पर प्राणायाम के प्रभावों पर अध्ययन किया है। पचास से पचपन साल उम्र वाले 28 ऐसे लोगों पर प्राणायाम का प्रभाव देखा गया जो शारीरिक रूप से निष्क्रिय जीवन व्यतीत कर रहे थे। इन्हें दो ग्रुपों में बांटकर एक ग्रुप को आठ सप्ताह तक प्राणायाम की विभिन्न विधियों खासतौर से अनुलोम विलोम, कपालभाति और भस्त्रिका का अभ्यास कराया गया। नतीजा हुआ कि योग ग्रुप के लोगों की श्वसन क्रिया दूसरे ग्रुप के लोगों की तुलना में काफी सुधर गई। साथ ही अन्य शारीरिक व्याधियों से भी मुक्ति मिल गई। शरीर के लचीलेपन में सुधार हुआ।

कुछ अन्य वैज्ञानिक अध्ययन रिपोर्ट भी गौर करने लायक हैं। नेशनल सेंटर फॉर बायोटेक्नोलॉजी इन्फॉर्मेशन के एक अध्ययन में बताया गया कि प्राणायाम के जरिए इम्यून सिस्टम को मजबूत किया जा सकता है। हॉवर्ड विश्वविद्यालय में कार्डियो फैकल्टी में शोध निर्देशक डॉ. हर्बर्ट वेनसन के मुताबिक नियमपूर्वक बीस मिनट प्रतिदिन प्राणायाम किया जाए, तो शरीर में ऐसे बदलाव आने लगते हैं कि वह रोग और तनाव के आक्रमणों का मुकाबला करने लगता है। इसके लिए अलग से चिकित्सकीय सावधानी नहीं बरतनी पड़ती है।

अमेरिकन हृदय रोग विशेषज्ञ डॉ आरोन फ्राइडेल ने 1948 में हृदय रोगियों पर अनुलोम विलोम का प्रयोग किया था। वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि प्राणायाम की यह विधि हृदय रोगियों में एंजिना के दर्द को नियंत्रित करने और उसे दूर करने का सबसे प्रभावशाली औषधि मुक्त माध्यम है। अजपा की महिमा अपरंपार है। यह सिर्फ प्राणायाम नहीं है। यदि नींद नहीं आती तो ट्रेंक्विलाइजर है और दिल की बीमारी है तो कोरेमिन है। हर रोग की अचूक दवा है। अजपा ठीक से किया जाए तो हो नहीं सकता कि रोग अच्छा न हो।“ सचमुच यह अनोखा योग है, जिसमें ध्यान लगते ही शिथलीकरण की क्रिया भी हो जाती है।

बीकेएस आयंगार की पुस्तक हठयोग प्रदीपिका के मुताबिक,  भस्त्रिका और कपालभाति प्राणायामों से यकृत, प्लीहा, पाचन ग्रंथि और उदर की मांसपेशियों की क्रिया और शक्ति बढ़ जाती है। इन दोनों से ही स्नायुओं का उत्सारण हो जाता है और नाक बहना बंद हो जाता है। पर सावधानियां भी जरूर बरतनी चाहिए। यदि फुफ्सुस कमजोर हो व शरीर दुर्बल हो और दमा, ब्रोंकाइटिस व यक्ष्मा के रोगियों को इन दोनों ही प्राणायाम से दूर रहना चाहिए। वरना रक्त कोशिकाओं और मस्तिष्क को हानि हो सकती है। उच्च रक्तचाप, हृदय रोग, हार्निया गैस्ट्रिक, दौरा, मिर्गी या चक्कर आने की बीमारी वालों को भस्त्रिका प्राणायाम नहीं करना चाहिए। ऐसी परिस्थिति में योग्य योग शिक्षक का परामर्श जरूर लेना चाहिए। 

ईशा योग के प्रणेता सद्गुरू जग्गी वायुदेव के रोज के रूटीन में न आसन का स्थान है और न ही कसरत का। पर प्राणायाम जरूर करते हैं। वे कहते भी हैं कि प्राण का संबंध मन से है और संकल्प-शक्ति के माध्यम से मन का जीवात्मा से संबंध रहता है। यदि प्राणवायु की तरंगों पर नियंत्रण कर लिया जाए तो मानव जीवन के लिए बड़ी बात होगी। तभी भारतीय सनातम परंपरा में प्राणायाम का महत्वपूर्ण स्थान है। इसका अभ्यास करने वाले अपने प्राण-संचार से रोगों को दूर कर सकते हैं।  

उपर्युक्त उदाहरणों से कोरोनाकाल के दौरान प्राणायाम और योगनिद्रा की महत्ता को आसानी से समझा जा सकता है। इन दो योगांगों की शक्ति हमें आसन्न संकटों से बचाए रखे, इन्ही शुभकामनाओं के साथ नए वर्ष के लिए मंगलकामना।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

नई शिक्षा नीति : कसरती स्टाइल के योग से नहीं, समग्र योग से बनेगी बात

धीरेंद्र ब्रह्मचारी केंद्रीय विद्यालयों में योग शिक्षकों की बहाली के लिए खुद ही इंटरव्यू ले रहे थे। तभी एक घटना घटित हुई। गेरू वस्त्र में पहुंचे एक अभ्यर्थी से जब सर्टिफिकेट की मांग की गई तो उसने बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती के साथ की अपनी तस्वीर प्रस्तुत कर दी। वहां उपस्थित अधिकारियों को लगा कि धीरेंद्र ब्रह्चारी अभ्यर्थी के इस व्यवहार से नाराज हो जाएंगे। पर हुआ इसके उलट। धीरेंद्र ब्रह्मचारी ने बिल्कुल सहज भाव से कहा, “इतने बड़े संत का जिसे सानिध्य मिल चुका है, उसके चयन के लिए कागज के टुकड़े का क्या मोल। आपका चयन किया जाता है। चूंकि सरकारी मामला है। इसलिए बाद में सर्टिफिकेट लाकर दे दीजिएगा।“

यह वाकया नईपीढ़ी के लिए चौंकाने वाली बात हो सकती है। पर इतिहास गवाह है कि एक समय पूरे भारत वर्ष की शिक्षा का पूरी दुनिया में ऐसा ही महत्व था। दुनिया भर के लोग ज्ञान हासिल करने के लिए भारत आते थे। तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला और वल्ल्भी जैसे विश्व स्तरीय शिक्षण संस्थानों के आचार्य प्रमाणित कर देते थे कि अमुक शिक्षार्थी निष्णात हो गया तो हर जगह उसका सम्मान होता था। उसकी बातों को चीन से लेकर कोरिया तक के लोग आंख मूंदकर मान लेते थे। पर परिस्थितियां ऐसी बनती गईं कि अब विश्वास खंडित हो चुका है। आधुनिक भारत में बिहार योग विद्यालय जैसे परंपरागत और शास्त्रसम्मत शिक्षाओं को आत्मसात करके और उसे विज्ञान की कसौटी पर कसकर नईपीढ़ी के बीच ले जाने वाली कितनी संस्थाएं है कि कोई धीरेंद्र ब्रह्मचारी कहेंगे कि फलां संत के शिष्य हो, तो योग्यता प्रमाणित करने के लिए कागज के टुकड़े का कोई मोल नहीं?

भ्रामरी प्राणायम : बच्चों की प्रतिभा के विकास में सहायक

स्वामी सत्यानंद सरस्वती तो पांच-छह दशकों से कहते रहे हैं कि योगविद्या भारत वर्ष की सबसे प्राचीन संस्कृति और जीवन-पद्धति रही है और इसके ह्रास के बाद से ही भारतवासी गरीब, दु:खी और अस्वस्थ्य रहने लगे हैं। यह संतोष की बात है कि 21वीं सदी में भारत की बहुमूल्य आध्यात्मिक शक्तियों की पुर्नस्थापना की बात हो रही है। नई शिक्षा नीति इसका प्रमाण है। इसमें विशेष तौर से योग और आध्यात्मिक उत्थान के मामले में वैसी ही बातें है, जैसा स्वामी सत्यानंद सरस्वती बार-बार कहते रहे हैं। योग को स्कूली स्तर पर वैकल्पिक विषय के तौर पर प्रस्तुत गया तो यह विवाद न रहेगा कि इसे स्कूलों में अनिवार्य बनाया जाए या नहीं। प्रथम दृष्टया यही लग रहा है कि कोई योग शिक्षा हासिल करना चाहता है तो चुनाव करने का उसके पास अधिकार होगा। जब इसके लाभ मिलने लगेंगे तो बाकी लोग भी प्रेरित होंगे। पर यदि योग फिजिकल एजुकेशन का हिस्सा रह गया तो शिक्षा नीति की लोकलुभावन बातें, जड़ों की ओर लौटने की बातें कागजों तक सिमट कर रह जाएंगी।  

नई शिक्षा नीति के आलोक में योग शिक्षा के कई मामलों स्पष्टता आनी बाकी है। पर शिक्षा नीति के दस्तावेज में जैसा संकल्प दिखाया गया है, वह तभी फलीभूत होगा जब कुछ बुनियादी बातों का ख्याल रखा जाएगा। मसलन, अलग-अलग आयु वर्ग के छात्रों को योग शिक्षा देने के लिए ऐसा पाठ्यक्रम तैयार किया जाएगा कि बात शारीरिक स्वास्थ्य और शिक्षा तक ही सीमित न रह जाए। बल्कि पाठ्यक्रम ऐसा होना चाहिए कि छात्रों की रचनात्मक क्षमताओं में वृद्धि हो। इसके साथ ही इस बात पर भी विचार होना चाहिए कि योग शिक्षकों का प्रशिक्षण किस तरह से हो कि भारत की परंपरा और सांस्कृतिक मूल्यों के आधार को बरकरार रखते हुए बच्चों में निहित रचनात्मक क्षमताओं का विकास सही ढंग से हो सके। ऐसा लगता है कि नई शिक्षा नीति में इन बातों को ध्यान में रखा गया है। तभी घोषणा है कि प्राचीन और सनातन भारतीय ज्ञान और विचार की समृद्ध परंपरा के आलोक में नई शिक्षा नीति बनाई गई है। यह सच है कि ज्ञान, प्रज्ञा और सत्य की खोज को भारतीय परंपरा और दर्शन में सदा सर्वोच्च लक्ष्य माना जाता था। भारत की शिक्षा का लक्ष्य सांसारिक जीवन अथवा स्कूल के बाद के जीवन की तैयारी के रूप में ज्ञान अर्जन नहीं, बल्कि पूर्ण आत्मज्ञान और मुक्ति के रूप में हो, यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए।

हम सभी जानते हैं कि योग जीवन जीने की कला और विज्ञान है। इसका संबंध मन और शरीर के विकास से है। सच कहिए तो योग पूर्ण शिक्षा की एक ऐसी विधि है, जिसका उपयोग सभी बच्चों पर किया जाना चाहिए। ताकि शारीरिक ऊर्जस्विता, भावनात्मक स्थिरता और बौद्धिक व सृजनात्मक प्रतिभाओं का विकास हो सके। इस विषय पर इसी कॉलम में कई बार विस्तार से लिखा जा चुका है। फिर भी संक्षेप में इतना ही बताना काफी होगा कि आठ साल की उम्र से हो योग शिक्षा देने की परंपरा क्यों रही है और विज्ञान की कसौटी पर इसके क्या मायने हैं।

भारत के परंपरागत योग का लक्ष्य भी केवल बीमारियों से मुक्ति नहीं रहा। जीवन में पूर्णत्व योग का लक्ष्य रहा है। तभी बच्चों की उम्र सात-आठ साल होते ही योगमय जीवन की शुरूआत करा दी जाती थी। उपनयन संस्कार उसी का हिस्सा होता था। बच्चों को अनिवार्य रूप से सूर्य नमस्कार, नाड़ी शोधन प्राणायाम, भ्रामरी प्राणायाम और गायत्री मंत्र के जप की शिक्षा दी जाती थी। वक्त के थपेड़े ने हमें उस मुकाम पर पहुंचा दिया है कि योगमय जीवन की शुरूआत आठ साल की उम्र से करानी ही होगी। इससे पीनियल ग्रंथि के क्षय होने की प्रक्रिया रूक जाएगी या धीमी पड़ जाएगी। इससे जुड़ी पिट्यूटरी ग्रंथि सुरक्षित लंबे समय तक सुरक्षित रहेगी। इसका लाभ होगा कि बच्चों के मस्तिष्क के कार्य, व्यवहार और ग्रहणशीलता नियंत्रित रहेंगे। इससे बौद्धिक विकास होगा और जीवन में स्पष्टता रहेगी। यौन ग्रंथियां समय से पहले सक्रिय नहीं होंगी।

हमें इस बात पर गौर करना ही होगा कि छोटे-छोटे बच्चे यौन हिंसा और पशुवत व्यवहार क्यों करने लगते हैं? अनुसंधानों से पता चल चुका है कि बच्चे जब लगभग आठ साल के हो जाते हैं तो भौहों के बीच यानी भ्रू-मध्य के ठीक पीछे मस्तिष्क में अवस्थित पीनियल ग्रंथि कमजोर होने लगती है। बुद्धि और अंतर्दृष्टि के मूल स्थान वाली यह ग्रंथि किशोरावस्था में अक्सर विघटित हो जाती है। परिणामस्वरूप उस ग्रंथि के भीतर की पीनियलोसाइट्स कोशिकाओं से मेलाटोनिन हॉरमोन बनना बंद हो जाता है।

इस हॉरमोन का सीधा संबंध यौन परिपक्वता से है। इस पर बड़े-बड़े शोध हुए हैं। देखा गया है कि अनुकंपी (पिंगला) और परानुकंपी (इड़ा) नाड़ी संस्थान के बीच का संतुलन बिगड़ जाता है। नतीजतन, पिट्यूटरी ग्रंथि से हॉरमोन का रिसाव शुरू होकर शरीर के रक्तप्रवाह में मिलने लगता है। इससे बाल मन में उथल-पुथल मच जाता है। समय से पहले अंगों का विकास होने लगता है और यौन हॉरमोन क्रियाशील हो जाता है। कामवासन जागृत हो जाती है। यह काम ऐसे समय में होता है, जब बच्चे मानसिक रूप से इसके लिए तैयार नहीं होते हैं। लिहाजा वे अपने को संभाल नहीं पातें। उसके कुपरिणाम कई रूपो में सामने आने लगते हैं। अनुसंधानों से पता चला है कि प्राचीन काल में बच्चों के लिए जो योगाभ्यास तय किए गए थे। मौजूदा समय के लिहाज से शांभवी मुद्रा को भी उस सूची में जोड़ लेने की जरूरत है। यानी सूर्य नमस्कार, भ्रामरी प्राणायाम, नाड़ी शोधन प्राणायाम, शांभवी मुद्रा और गायत्री मंत्र।

सूर्य नमस्कार : माँस पेशियां मजबूत बनाता है

योग की भाषा में पीनियल ग्रंथि वाले स्थान को ही आज्ञा चक्र या तीसरा नेत्र कहा जाता हैं। इसकी सजगता के और भी लाभ हैं। संतों को हजारों साल पहले पता चल गया था कि शरीर में ऊर्जा के सात केंद्र होते हैं – मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपुर चक्र, अनाहत चक्र, विशुद्धि चक्र, आज्ञा चक्र और सहस्रार चक्र और सभी चक्र शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक विकास के लिहाज से बड़े काम के होते हैं। अब वैज्ञानिक भी इस बात को मान रहे हैं। जापान के वैज्ञानिक डॉ एच मोटायामा ने साबित किया कि खास-खास तरह के योगाभ्यासों से अलग-अलग चक्रों का जागरण होता है, जिनका मानव पर विशेष तरह का प्रभाव होता हैं। वैज्ञानिक संतों की मानें तो योग का असल उद्देश्य इन चक्रों का जागरण ही हैं। इसी से जीवन में पूर्णता आती है।

योग शिक्षा की महत्ता को देखते हुए गुणवत्तापूर्ण योग शिक्षा सुनिश्चित करना बड़ी चुनौती है। नई शिक्षा नीति में शिक्षकों की गुणवत्ता पर जरूर चिंता है और तदनुरूप काम करने का संकल्प भी है। पर विशेष तौर से योग शिक्षा के मामले में कई बातें इस बात पर निर्भर होंगी कि पाठ्यक्रम कैसा होगा और पढ़ाने के लिए किस पृष्ठभूमि के योगाचार्य होंगे। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहा करते थे – “योग जीव विज्ञान, वनस्पति शास्त्र अथवा रसायन विज्ञान की तरह नहीं सीखा जा सकता। इसकी शिक्षा इस तरह होनी चाहिए कि शरीर, मन और भावनाओं पर सकारात्मक प्रभाव हो सके। पर यह तो तभी संभव है, जब योग शिक्षक के पास अपने छात्रों या योगाभ्यासियों को देने के लिए ज्ञान के साथ ही व्यक्तिगत अनुभव भी हो। साथ ही व्यक्तित्व सुलझा हुआ और संतुलित हो। यदि योग शिक्षक का बेचैन है, मन चंचल है औऱ भावनात्मक उथल-पुथल से त्रस्त है तो आत्माविहीन शिक्षा ही दे सकता है। जिसने योग शिक्षा से खुद शांति का अनुभव नहीं किया, वह गुरू कदापि नहीं हो सकता।“

विश्व विद्यालय स्तर पर योग शिक्षा ग्रहण करने वालों को यदि आदर्श योगी का संस्कार मिल पाया तो योग के मामले में नई शिक्षा नीति की सार्थकता होगी। समय की मांग है कि कसरती स्टाइल के हठयोग से आगे बढा जाए। 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

त्राटक योग का चमत्कार तो देखिए

नेत्र रोग ही नहीं, हृदय रोग से लेकर अनिद्रा जैसी बीमारियों में भी त्राटक योग बेहतर परिणाम देता है। कुछ विकसित देशों में तो त्राटक पर काफी अध्ययन किया जा चुका है। पर अब भारत में भी इस क्रिया की महत्ता को समझते हुए सीमित संसाधनों के बावजूद कई अध्ययन किए जा चुके हैं। यह सिलसिला जारी है। ज्यादातर अध्ययन आंखों से संबंधित बीमारियों को लेकर किए गए हैं। अब मनोकायिक और हृदय संबंधी बीमारियों में त्राटक के प्रभावों पर अध्ययन पर जोर ज्यादा है। महर्षि पतंजलि द्वारा प्रतिपादित अष्टांग योग के षटकर्मों में प्रमुख त्राटक क्रिया के बारे में ज्यादातर लोग   यही जानते रहे हैं कि त्राटक बहिर्मुखी मन को अंदर की ले जाने की एक महत्वपूर्ण योग साधना है। इसके चिकित्सकीय पक्षों पर कम ही चर्चा हुई है।

ग्लूकोमा के रोगियों के लिए आंखों का प्रेशर काफी मायने रखता है। दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) और डॉ. राजेन्द्र प्रसाद नेत्र विज्ञान केंद्र के साझा प्रयास से यौगिक क्रियाओं के जरिए प्रेशर नियंत्रित करने के लिए अध्ययन किया गया। एम्स के फिज़ीआलजी विभाग के डॉ. संकल्प व डॉ आरके यादव और डॉ राजेंद्र प्रसाद नेत्र विज्ञान केंद्र के डॉ तनुज दादा व मुनीब अहमद फैक ने संयुक्त रूप से अध्ययन किया। अध्ययन के दौरान देखा गया है कि त्राटक प्रेशर कम करने में मददगार है। इसके साथ ही महसूस किया गया कि साक्ष्य-आधारित चिकित्सा के लिए वैज्ञानिक परीक्षण होना चाहिए।

हृदय की अनियमित धड़कन बड़ी समस्या बनकर उभरी है। योग शिक्षक ऐसे मामलों में पनव मुक्तासन के साथ ही योगनिद्रा या अजपाजप करने की सलाह देते रहे हैं। हाल ही बेंगलुरू स्थित स्वामी विवेकानंद योग अनुसंधान संस्थान में इस समस्या को लेकर अध्ययन हुआ तो पता चला कि अनियमित धड़कन की समस्या को नियंत्रित करने में प्रत्याहार की क्रियाओं की तरह ही त्राटक भी अहम् भूमिका निभाता है। इस अध्ययन के लिए 20 से 33 वर्ष के कुल 30 व्यक्तियों का चयन किया गया था। वे सभी दक्षिणी भारत के एक योग विश्वविद्यालय के छात्र थे।

रक्तचाप को नियंत्रित करने में त्राटक के प्रभाव पर परीक्षण किया गया। यह काम पश्चिम बंगाल के शांति निकेतन स्थित विश्व भारती विश्वविद्यालय में हुआ। विश्व विद्यालय के विनय भवन की पांच छात्राओं, जिनकी उम्र 18 से 22 साल के बीच थी, पर अध्ययन किया गया। देखा गया कि त्राटक के बाद सिस्टोलिक रक्तचाप में काफी कमी आई। पर डायस्टोलिक रक्तचाप में खास बदलाव नहीं आया। वैसे अनेक योग शिक्षकों का दावा है कि प्राणायाम के साथ इस क्रिया के चमत्कारिक नतीजे मिलते हैं। पर पुणे स्थित भारती विद्यापीठ डिम्ड यूनिवर्सिटी में डॉ गौरव पंत के निर्देशन में शोध छात्र कृपेश कर्मकार ने बुजुर्गों की आंखों की रोशनी में ज्यादा स्पष्टता लाने में त्राटक के प्रभाव पर अध्ययन किया तो वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि बुजुर्गों की दृष्टि अनुभूति बढ़ाने के लिए त्राटक का इस्तेमाल एक तकनीक के रूप में किया जा सकता है।

अध्ययनों से पता चला है कि आंखों की कम होती रोशनी के साथ ही स्नायविक गड़बड़ियों, अनिद्रा, चिंता, परेशानियों और अन्य मानसिक समस्याओं से ग्रस्त लोगों के लिए भी त्राटक का अभ्यास बेहद लाभप्रद होता है। निकट तथा दूर के दृष्टि दोषों से परेशान व्यक्तियों के त्राटक के नियमित अभ्यास से लाभन्वित होने के उदाहरण भरे पड़े हैं। कुछ नए अध्ययनों से पता चला है कि त्राटक से स्मरण-शक्ति और एकाग्रता का विकास होता है। आसानी से ध्यान लग जाता है। जिन्हें रात्रि में देर तक नींद न आने की शिकायत होती है, वे सोने से पहले बीस मिनट तक त्राटक का अभ्यास करें तो नींद न आने की समस्या जाती रहेगी। अध्ययनों के दौरान त्राटक के अभ्यास से अतीन्द्रिय ज्ञान की क्षमता विकसित करके मानसिक शक्तियों को बढ़ाने के सूत्र भी मिले हैं। अध्ययनों से पता चला कि त्राटक के दौरान चेतना का भटकाव रूक जाने से कई प्रकार के चमत्कारिक प्रभाव दिखने लगते हैं। इस क्रिया के प्रारंभ में तो मन के भटकाव को रोकने के लिए कड़ा संघर्ष करना होता है। पर हार माने बिना अभ्यास जारी रखने से धीरे-धीरे मन संघर्ष करना छोड़ देता है।

त्राटक करने की कई विधियां प्रचलित हैं। मोमबत्ती, स्फटिक, चांद-तारे, दीपक या किसी अन्य बिंदु पर ध्यान लगाकर त्राटक किया जाता है। त्राटक कभी भी किया जा सकता है। पर अहले सुबह अथवा रात्रि का समय सबसे उपयुक्त होता है। शुरू में पंद्रह-बीस मिनट से ज्यादा त्राटक करने की सलाह जाती है। साथ ही चेतावनियां भी हैं। जैसे, त्राटक के समय चश्मा नहीं पहनना चाहिए। आंखों पर जो पड़ रहा हो तो त्राटक का अभ्यास रूक कर करना चाहिए। कई बार आंखों से आंसू आने लगते हैं। वैसे में तुरंत आंखों को बंद कर लेना चाहिए। यदि किसी चमकदार वस्तु जैसे मोमबत्ती की तेज लौ या जल में सूर्य के प्रतिबिंब पर दो माह से ज्यादा त्राटक नहीं करना चाहिए।

अब आइए जानते हैं कि त्राटक हमारे मन पर किस तरह प्रभाव डालता है। जब हम चार्ज होते हैं तो हमारा शरीर इलेक्ट्रो मैग्नेटिक फील्ड बनाता है, जो मन को नियंत्रित करने में काम आता है। योग पर वैज्ञानिक अनुसंधान के लिए परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती द्वारा स्थापित योग रिसर्च फाउंडेशन के अनुसंधानकर्त्त्ताओं ने अपने अध्ययनों के दौरान देखा कि मोमबत्ती या किसी अन्य वस्तु को एकटक देखते हुए त्राटक करने पर आंखों की रेटिना पर उसका प्रतिबिंब बनता है। वही प्रतिबिंब दृष्टि नाड़ियों (आप्टिक नर्व) के जरिए मस्तिष्क तक पहुंचता है। सामान्य स्थिति में रेटिना पर बनने वाला प्रतिबिंब निरंतर परिवर्तित होकर मस्तिष्क को स्नायु आवेग की सूचना देता है। इससे मस्तिष्क उत्तेजित हो जाता है। तब संवेदी क्षेत्र आवेगों को प्रेरक क्षेत्र की ओऱ भेजता है। इससे भौतिक शरीर चंचल हो जाता है। दर्द या खुजलाहट महसूस होने लगती है। पर त्राटक का अभ्यास सधते ही मस्तिष्क के सारे क्रिया कलाप बंद हो जाते हैं। शरीर को भेजे जा रहे आवेगों पर नियंत्रण हो जाता है। इस तरह योग की उच्चतर अवस्था में पहुंचने के लिए ऊर्जा संचित हो जाती है।

त्राटक के समय मस्तिष्क को विश्राम का समय मिल जाता है। इसलिए कि मस्तिष्क हर पल स्नायु आवेगों को ग्रहण, उनका विश्लेषण और वर्गीकरण करते रहता है। इस तरह मस्तिष्क बहुत क्रियाशील हो जाता है। यहां तक की नींद में भी मस्तिष्क को जानकारी रहित विभिन्न ऐंद्रिक अनुभूतियां मिलती रहती हैं। त्राटक के समय पूर्ण रूप से या आंशिक रूप से मस्तिष्क के कामों को बंद कर दिया जाता है। इससे मस्तिष्क को काफी आराम मिलता है। त्राटक मस्तिष्क के विश्राम का प्रभावशाली तरीका है। त्राटक प्राणवाही नाड़ियों यथा इड़ा तथा पिंगला को संतुलित करता है। सुषुम्ना नाड़ी जागृत होती है। इससे उच्च चेतना में जाने का द्वार खुलता है। इस तरह त्राटक साधना का षटकर्मों में अलग महत्व है। हठयोग में इसे दिव्य साधना कहते हैं।

ईसा मसीह ने कहा था – “यदि तेरी आंख केवल एक है तो तेरा समूचा शरीर आलोक से भर उठेगा।“ अब पश्चिम के वैज्ञानिक यीशू के इस बात को आधार बनाकर अनुसंधान कर रहे हैं। कुछ शोधार्थियों का मत है कि यीशू जब एक आंख की बात कर रहे थे तो उनका मकसद निश्चित रूप से त्राटक योग से रहा होगा। शायद इसलिए ईसाई मत में त्राटक जैसी ध्यान क्रिया की बड़ी भूमिका हो गई। प्राचीन काल में ऐसी मान्यता थी और अब अध्ययनों से साबित हो चुका है कि प्रतिदिन एक घंटा ज्योति की लौ को अपलक देखते रहने से लंबे समय में तीसरी आंख पूरी तरह सक्रिय हो जाती है। इससे साधक अधिक प्रकाशपूर्ण, अधिक सजग अनुभव करता है।

पुनश्चः – ब्रिटिश जर्नल ऑफ ओप्थोमोलॉजी के दिसंबर अंक में छपे एक अध्ययन में खुलासा हुआ है कि जंक फ़ूड, रेड मीट और अधिक वसायुक्त भोजन बुजुर्गों की रौशनी छीन रहा है। इसलिए हानिकारक आहार का सेवन करते हुए योगाभ्यासों से समस्या का समाधान की कामना करना भारी भूल होगी। हमें यह सदैव याद रखना होगा कि योगमय जीवन में आहार की बड़ी भूमिका होती है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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