स्वामी विवेकानंद और महर्षि महेश योगी : दो महान योगियों के यौगिक मंत्र

किशोर कुमार //

योग और अध्यात्म की दृष्टि से जनवरी महीने की बड़ी अहमियत है। अपने वेदांत दर्शन के कारण दुनिया में भारत का मान बढ़ाने वाले संत स्वामी विवेकानंद और योगबल की बदौलत दुनिया को चमत्कृत करने वाले आधुनिक युग के वैज्ञानिक योगी महर्षि महेश योगी की जयंती इस महीने में एक ही दिन यानी 12 जनवरी को मनाई जाती है। स्वामी विवेकानंद की जयंती को युवा दिवस के रूप में तो महर्षि महेश योगी की जयंती को ज्ञान युग दिवस के रूप में मनाया जाता है। इन दोनों योगियों ने सजगता के विकास के अहमियत पर काफी बल दिया है। इस लेख में उसी संदर्भ में इन दो महान संतों के विचारों का विश्लेषण किया गया है।

योगशास्त्र में ध्यान साधना की बड़ी अहमियत बतलाई गई है। संत-महात्मा भी ध्यान साधना पर बल देते रहे हैं। पर आधुनिक युग में रिसार्ट्स और पांचतारा होटलों में जिस तरह ध्यान सिखलाया जाता है, वह योगशास्त्र और हमारे महान योगियों के विचारों से मेल नहीं खाता। इसलिए ध्यान सिखाने वाले कॉरपोरेट गुरू भले मालामाल हो जाते हैं और अभ्यासियों के लिए यह स्टेटस सिंबल बनकर रह जाता है। पर भला कुछ भी नहीं होता। स्वामी विवेकानंद से लेकर महर्षि महेश योगी तक ने सीधे ध्यान में उतरने की बात कभी नहीं की। उन्होंने ध्यान में उतरने से पहले सदैव प्रत्याहार साधना पर जोर दिया। वे अपने अनुभवों के आधार पर इस निष्कर्ष पर थे कि इस साधना के सध जाने पर ही ध्यान साधना के लिए एक्सप्रेस वे तैयार होता है। अष्टांग योग का क्रम भी कुछ इसी तरह है।     

तभी, महर्षि महेश योगी ने प्रत्याहार को अपने बहुचर्चित भावातीत ध्यान का आधार बनाया तो स्वामी विवेकानंद ने भी प्रत्याहार साधना को काफी महत्व दिया। चाहे युवा-शक्ति के अभ्युत्थान की बात हो या फिर बंगाल में 1899 में आए प्लेग से उत्पन्न पीड़ाएं, स्वामी विवेकानंद अपना अनुभव साझा करते हुए कहते थे – “सजगता की शक्ति ऐसी है कि वह ज्ञान की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त तो करती ही है, मानसिक पीड़ाओं से भी मुक्ति दिलाती है। हम देखते हैं कि सभी लोग नईपीढ़ी से कहते हैं कि अच्छा बनो, विवेकशील बनो। पर बताते नहीं कि ऐसा किस तरह संभव होगा। यदि मन अपने वश में न होगा तो कोई कैसे अच्छा या विवेकशील बनेगा है? मन की सजगता की बुनियाद पर एकाग्रता का महल खड़ा होता है जो ध्यान के लिए आधार तैयार करता है। सजगता प्रत्याहार है और एकाग्रता धारणा। इन साधनाओं के लिए कई योग विधियां हैं।“

महर्षि महेश योगी ने साठ के दशक में पश्चिमी देशों में जिस “भावातीत ध्यान” का डंका बजाया था, उसका आधार मुख्यत: प्रत्याहार ही था। उसके साथ मंत्र योग का समन्वय करके उसे शक्तिशाली बनाया गया था। असर यह हुआ कि अवसाद में डूबे पश्चिमी दुनिया के युवाओं के लिए भावातीत ध्यान यौगिक दवा बन गया था। ऐसा कैसे हुआ? चिकित्सा विज्ञानियों ने इसकी पड़ताल की तो वे चौंक गए थे। नतीजा हुआ कि दुनिया भर में भावातीत ध्यान का विभिन्न रोगों पर होने वाले प्रभावों पर शोध किए गए। अब तक सात सौ से ज्यादा शोध-कार्य किए जा चुके हैं। तभी कोरोना महामारी फैलने के बाद अवसादग्रस्त लोगों को योगनिद्रा की तरह ही भावातीत ध्यान भी खूब भाया। योगनिद्रा भी प्रत्याहार की ही एक सशक्त क्रिया है। इसे बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने आज की जरूरतों के लिहाज से विकसित करके प्रस्तुत किया था।

योगशास्त्र में कहा गया है कि इंद्रियों को अंतर्मुखी करने की कला प्रत्याहार है। चूंकि आमतौर पर सबकी चेतना बहुर्मुखी होती है और मन इंद्रियों का दास बनकर उसके इशारे पर नाच रहा होता है। इसलिए तरह-तरह की मानसिक समस्याएं खड़ी होती रहती हैं। ऐसे में हमारे लिए अपने भीतर की परमसत्ता यानी आत्मा या चेतना के अनंत पक्षों को जान पाना कठिन होता है। स्वामी विवेकानंद कहते थे – “कुछ क्षण बैठें और मन को इधर-उधर दौड़ने दें। मन सदैव बुलबुलाता रहता है। वह उस कूदते हुए बंदर के समान है। बंदर को जितना कूदना है, कूदने दें; आप केवल रुककर देखते रहिए। जब तक आप यह नहीं जानते कि आपका मन क्या कर रहा है, आप उसको नियंत्रित नहीं कर सकते। उसे लगाम दीजिए; आपके भीतर कई घृणित विचार आ सकते हैं। आपको यह जानकार आश्चर्य होगा कि आपके लिए ऐसा सोचना कैसे संभव था? परंतु आप देखेंगे कि प्रत्येक दिन मन की सनक धीरे-धीरे कम हिंसात्मक हो रही है, प्रत्येक दिन वह शांत हो रहा है।“

तंत्रशास्त्र में भी कहा गया है कि प्रत्याहार की अवस्था में जप योग से आध्यात्मिक चेतना का समुचित विकास होता है। वैसे तो त्राटक, नादयोग,संगीत, कीर्तन आदि भी इंद्रियों को अंतर्मुखी बनाने के लिए बेहद प्रभावशाली हैं। पर सदियों से योगी अनुभव करते रहे हैं कि चेतना की विशिष्ट अवस्था में मंत्र की ध्वनि से शरीर के प्रमुख छह चक्र बेहद प्रभावित होते हैं। इनमें मूलाधार चक्र यानी कोक्सीजेल सेंटर से लेकर आज्ञा चक्र यानी मेडुला सेंटर तक शामिल हैं। इसलिए मंत्र को चेतना की ध्वनि कहा जाता है। आधुनिक विज्ञान भी इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि चक्र प्रणाली का प्रत्येक स्तर शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और अतीन्द्रिय तत्वों का सम्मिश्रण है। इसलिए सभी चक्रों का संबंध किसी न किसी स्नायु तंत्र और अंत:स्रावी ग्रंथि से होता ही है। ऐसे में चक्रों के किसी भी प्रकार से स्पंदित होने पर उसका असर व्यापक होता है।

महर्षि महेश योगी वैसे तो भावातीत ध्यान की खूबियां लोगों के मन-मिजाज को ध्यान में रखकर अलग-अलग तरह से गिनाते थे। पर एक बात सभी से कहते थे – “स्वर्ग का साम्राज्य तुम्हारे अंदर है। भावातीत ध्यान के जरिए उसे हासिल करो। फिर सब कुछ प्राप्त हो जाएगा। यह कुछ और नहीं, बल्कि चेतना का विज्ञान है। चेतना विज्ञान की शिक्षा सार्वभौम सत्ता या चेतना के प्रत्यक्ष अनुभव से आरंभ होनी चाहिए। स्वामी विवेकानंद कहते थे कि इस भ्रम को मिटा दो कि तुम दुर्बल हो। तुम एक अमर आत्मा हो, स्वच्छंद जीव हो, धन्य हो, सनातन हो। इसका अहसास हो जाएगा। बस, इंद्रियों को वश में करने का अभ्यास करो। सजगता का अभ्यास करो। बीसवीं सदी के इन दोनों ही महान योगियों को उनकी जयंती पर सादर नमन।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।) 

अनिद्रा से मुक्ति दिलाएंगी ये योग विधियां

किशोर कुमार

कोरोना महामारी के बाद अनिद्रा की समस्या से पीड़ित और अवसादग्रस्त लोगों की बढ़ती तादाद स्वास्थ्य से जुड़ी बड़ी समस्या बनकर उभरी है। जब बच्चे अनिद्रा की शिकायत करने लगें और तनावग्रस्त हो जाएं तो मान लेना चाहिए कि पानी सिर से ऊपर बह रहा है। आर्थिक महाशक्ति बनने का सपना देखने वाले भारत के लिए यह चिंता का विषय है। इसलिए कि इस समस्या का सीधा संबंध हमारी अर्थ-व्यवस्था से भी है। मेलाटोनिन हार्मोन का न बनना अनिद्रा की सबसे बड़ी वजह है। पर अनिद्रा की समस्या दूर हो जाए तो स्वास्थ्य संबंधी बहुत सारी समस्याओं से मुक्ति मिल जाएगी। भारत के योगी सदियों से बतलाते रहे हैं कि प्राकृतिक तौर पर मेलाटोनिन के उत्पादन में किसी कारण से बाधा आती है तो उसका यौगिक समाधान है। पर मेलोटोनिन स्राव के लिए दवा तैयार करने वाली कंपनियों का धंधा जिस तरह चमका है, वह चिंताजनक है। इसलिए कि इसके परिणाम अधिक घातक होने वाले हैं।

महाभारत की एक कथा इस संदर्भ में प्रासंगिक है। श्रीकृष्ण महाभारत युद्ध से पूर्व कौरवों के पास संधि प्रस्ताव लेकर गए थे। कहा था, क्यों आपस में झगड़ने पर आमादा हो? पांच राज्य नहीं, तो पांच गांव ही दे दो। दुर्योधन तैयार न हुआ तो श्रीकृष्ण ने उसे राजधर्म की याद दिलाई। इसके प्रत्युत्तर में दुर्योधन ने जो कहा, वह गौर करने लायक है। वह कहता है – “राजधर्म क्या है, मैं जानता हूं। पर उस ओर मेरी प्रवृत्ति नहीं है। अधर्म क्या है, मैं उसको भी जानता हूं। पर अधर्मों से अपने को दूर नहीं रख पाता। पता नहीं, वह कौन-सी शक्ति है, जो मेरे भीतर बैठकर पापकर्म कराती है।“ श्रीमद्भगवतगीता में अर्जुन इस बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि तमोगुणी व्यक्ति बड़ा ही अहंकारी होता है, अज्ञानी होता है। उसमें “मैं” की भावना प्रबल होती है। इस वजह से सज्जनों की बातों से राजी होने को तैयार नहीं होता, बल्कि इसके उलट काम करता है। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि मानसिक शांति से ही मैपन छूटेगा, अहंकार टूटेगा, तमोगुण मिटेगा और जीवन सुखमय होगा। इसके लिए उपाय एक ही है और वह है – अभ्यास योगेन तत: मामिच्छाप्तुं धनंजय। यानी योगाभ्यास।

आज के संदर्भ में हम सबकी स्थिति भी कुछ दुर्योधन जैसी ही हो गई है। तभी यौगिक उपायों का ज्ञान होते हुए भी हम सब दवाओं के पीछे भागे चले जा रहे हैं। इसके कुपरिणाम तक झेलने को तैयार हैं। यह बात किसी से छिपी नहीं रही कि अनिद्रा दूर करने वाला कृत्रिम मेलाटोनिन कुछ समय बाद अनिद्रा का ही कारण बन जाता है। अठारहवीं सदी के लखनवी शायर लाला मौजी राम मौजी ने लिखा था – “दिल के आइने में हैं तस्वीरें यार, जब जरा गर्दन झुकाई देख ली।“ हम सब भी नजरिया बदल लें तो बात बन जाएगी। योगाभ्यास से प्राकृतिक तौर पर मेलाटोनिन का उत्पादन होने लगेगा। इसके विस्तार में जाने से पहले जानना जरूरी है कि आखिर मेलाटोनिन हार्मोन होता क्या है? अनुसंधानों से पता चल चुका है कि भ्रू-मध्य के ठीक पीछे मस्तिष्क में अवस्थित पीयूष या पीनियल ग्रंथि के भीतर की पीनियलोसाइट्स कोशिकाओं से मेलाटोनिन हॉर्मोन बनना बंद हो जाता है तो अनुकंपी (पिंगला) और परानुकंपी (इड़ा) नाड़ी संस्थान के बीच का संतुलन बिगड़ जाता है।

इसके उलट यदि मेलाटोनिन हार्मोन का स्राव होते रहता है तो अनिद्रा की समस्या आती ही नहीं। अब तो यह भी पता चल चुका है कि इंफ्लूएंजा जैसी संक्रामक बीमारी के विरूद्ध प्रतिरोधक क्षमता तैयार करने में भी इसकी बड़ी भूमिका होती है। टी-सेल्स श्वेत रक्त-कोशिकाएं होती हैं, जो कि हमारी इम्युनिटी में बेहद अहम भूमिका निभाती हैं। ये ऐंटीबॉडी रिलीज करती हैं, जिससे वायरस मरता है। जब हम रात्रि में कमरे की लाइटें बंद करके विश्राम करते हैं तो मेलाटोनिन का स्राव होने लगता है। यदि कमरे में रोशनी रही तो इस कार्य में बाधा आती है। मेलाटोनिन का स्राव जितना गहरा होता है, नींद भी उतनी ही गहरी होती है। चार घंटों की नींद भी आठ घंटों की नींद जैसी जान पड़ती है। इससे शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य दुरूस्त रहता है। रोग प्रतिरोधक क्षमता का विकास होता है।

शास्त्रों में भी नींद की महत्ता बतलाई गई है। भविष्य पुराण, पदंम पुराण और मनुस्मृति में बतलाया गया है कि रात्रि में विश्राम की तैयारी किस तरह हो कि गहरी नींद आए। पर यदि नींद में बाधा है तो योग के साथ ही मंत्रों की अहमियत भी बतलाई गई है। कहा गया है कि “या देवी सर्वभूतेषु निद्रा-रूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः“ मंत्र का नींद से संबंध है। इस मंत्र का जप श्रद्धापूर्वक करने से निद्रा में व्यवधान खत्म होता है। पर मंत्रयोग हो या योग की कोई अन्य विधि, लाभ तो तभी होगा, जब हम अनुशासित जीवन-शैली के लिए तैयार रहेंगे। कैफीन का सेवन करने वालों को भला कौन-सी युक्ति काम आएगी?   

खैर, जहां तक नींद के लिए यौगिक उपायों का सवाल है तो यह विज्ञानसम्मत है कि यदि योगनिद्रा, अजपा जप, भ्रामरी प्राणायाम, सोऽहं मंत्र के साथ नाडी शोधन प्राणायाम आदि योग विधियों में से किसी एक का भी निरंतर अभ्यास किया जाए, तो अनिद्रा की समस्या जाती रहेगी। अवसाद से भी छुटकारा मिलेगा। चिकित्सकीय परीक्षणों से साबित हुआ कि योगनिद्रा के अभ्यास के दौरान बीटा और थीटा तरंगे परस्पर बदलती रहती हैं। यानी चेतना अंतर्मुखता और बहिर्मुखता के बीच ऊपर-नीचे होती रहती है। चेतना के अंतर्मुख होते ही मन तमाम तनावों, उत्तेजनाओं से मुक्त हो जाता है। यह गहरी निद्रा से भी आगे सूक्ष्म निद्रा की अवस्था होती है। बीटा और थीटा की यही अदला-बदली योगनिद्रा का रहस्य है। तभी कई गंभीर बीमारियों से जूझते मरीजों पर यह कमाल का असर दिखाता है।

सत्यानंद योग पद्धति में कहा गया है कि अजपा योग की ऐसी विधि है, जो नींद नहीं आती तो ट्रेंक्विलाइजर है, दिल की बीमारी है तो कोरामिन है और सिर में दर्द है तो एनासिन है। इसी तरह भ्रामरी प्राणायाम है। बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं कि रात में नींद खुल जाए तो तीन बार विधि पूर्वक भ्रामरी प्राणायाम कीजिए, नींद आ जाएगी। इसलिए कि इससे भी मेलाटोनिन का स्राव होने लगता है। पर योगनिद्रा तुरंत-तुरंत के लाभ के लिए बेहद उपयोगी है। वैसे, इन योग विधियों का नींद के लिए उपयोग वैसा ही जैसे सुई का काम तलवार से लिया जाए। पर संकट गहरा है तो तलवार से ही काम लेने में ही बुद्धिमानी है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

नवरात्रि और मंत्रयोग

किशोर कुमार

चैत्र नवरात्रि का पावन पर्व इस महीने 22 मार्च से शुरू हो रहा है और 30 मार्च को रामनवमी के साथ ही समापन होगा। यह संभवत: पहला मौका है जब चैत्र नवरात्रि को लेकर राजनीति शुरू हो गई है। दरअसल, उत्तर प्रदेश सरकार ने ऐलान कर दिया है कि नवरात्रों के दौरान राज्य में जिला स्तर से लेकर प्रखंड स्तर तक एक-एक मंदिर में दुर्गासप्तशती का पाठ कराया जाएगा और रामनवमी के दिन रामायण पाठ होगा। इस कार्य के लिए प्रत्येक जिला के लिए एक-एक लाख रूपए का आवंटन किया गया है। राज्य सरकार का कहना है कि यह सांस्कृतिक आयोजन है और इस पर किसी को क्यों आपत्ति होनी चाहिए। दूसरे धर्मों के आयोजनों पर भी तो सरकार के पैसे खर्च होते हैं। खैर, यह विवाद अपनी जगह। इस लेख में तो केवल मंत्रों की वैज्ञानिकता और उसके लाभों की चर्चा होनी है।       

हम सब जानते हैं कि दुर्गासप्तशती मार्कण्डेय पुराण की सबसे बड़ी देन है। इसमें कुल सात सौ श्लोकों में भगवती दुर्गा के चरित का वर्णन किया गया है। वैसे तो सामान्य जनों के लिए दुर्गासप्तशती पूजा-पाठ का एक ग्रंथ है। पर मंत्र विज्ञान के आलोक में व्याख्या हो तो पता चलता है कि यह शक्ति की आराधना का अद्भुत ग्रंथ है। शास्त्रों में शक्ति की महिमा जगह-जगह मिलती है। श्रुति और स्मृति आधारित ग्रंथों में भिन्नता दिखती है। पर अर्थ नहीं बदलता। ऋग्वेद के अनेक मंत्रों में इस शक्ति से संबंधित स्तवन मिलते हैं। उनमें इस शक्ति को समग्र सृष्टि की मूल परिचालिका बतलाकर विश्व जननी के रूप में स्तुति की गई है। इस शक्ति के द्वारा अनेक मौकों पर देवताओं को त्राण मिला और तभी से देवी सर्वविद्या के रूप में पूजित होती आ रही हैं।

इसी तरह शास्त्रों में राम नाम की शक्ति का उल्लेख भी जगह-जगह है। कुछ प्रचलित कथाएं भी हैं। जैसे, कबीरदास ने अपने पुत्र कमाल को तुलसीदास के पास भेजा। तुलसीदास ने कमाल के सामने ही तुलसी के एक पत्ते पर राम नाम लिखा और उस पत्ती का रस पांच सौ कुष्ठ रोगियों पर छिड़क दिया। कमाल के आश्चर्य का ठिकाना न रहा कि सारे कुष्ठ रोगी ठीक हो गए थे। फिर कबीरदास ने कमाल को सूरदास के पास भेजा। सूरदास ने कमाल को नदी में बहती एक लाश को उठा लाने को कहा। कमाल आज्ञा का पलन किया और लाश ले आया। सूरदास ने उस लाश के एक कान में राम कहा और लाश में प्राणों का समावेश हो गया था। पांडवों का लाक्षागृह जलकर राख हो गया। पर पांडव जले नहीं। इसलिए कि उन्हें रामनाम में अटूट श्रद्धा थी। राक्षसों ने हनुमान की पूंछ में आग लगा दी थी। किन्तु वे जले नहीं। इसलिए का राम में अदभुत विश्वास था।

सच है कि मंत्रयोग का अपना स्वतंत्र विज्ञान है। शब्द तत्व की ऋषियों ने ब्रह्म की संज्ञा दी है। शब्द से सूक्ष्म जगत में जो हलचल मचती है, उसी का उपयोग मंत्र विज्ञान में किया गया है। ऋषियों ने इसी विद्या पर सबसे अधिक खोजें की थीं। तभी यह विद्या इतनी लोकप्रिय हो पाई थी कि जीवन के हर क्षेत्र में इसका उपयोग किया जाता था। जल की वर्षा करने वाले वरूणशास्त्र, भयंकर अग्नि उगलने वाले आग्नेयास्त्र, संज्ञा शून्य बनाने वाले सम्मोहनशास्त्र, लकवे की तरह जकड़ने वाले नागपाश, इंजन, भाप, पेट्रोल कि बिना आकाश, भूमि और जल में चलने वाले रथ, सुरसा की तरह शरीर का बड़ा आकार करना, हनुमान की तरह मच्छर के समान अति लघु रूप धारण करना, समुद्र लांघना, पर्वत उठाना, नल की तरह पानी पर तैरने वाले पत्थरों का पुल बनाना आदि अनेकों अद्भुत कार्य इसी मंत्र शक्ति की साधना से किए जाते थे।

वेदों के मुताबिक नाद सृष्टि का पहला व्यक्त रूप है। अ, ऊ और म इन तीन ध्वनियों के योग से ऊं शब्द की उत्पत्ति हुई। ऋषियों और योगियों का अनुभव है कि इस मंत्र के जप से बहिर्मुखी चेतना को अंतर्मुखी बनाकर चेतना के मूल स्रोत तक पहुंचा जा सकता है। आधुनिक विज्ञान भी इस बात को स्वीकार रहा है। आजकल दुनिया भर में आशांत मन को सांत्वना प्रदान करने के लिए ध्यान योग पर बहुत जोर है। पर चित्त-वृत्तियों का निरोध किए बिना ध्यान कैसे घटित हो? अष्टांग योग में इस स्तर पर पहुंचने के लिए क्रमिक योग साधनाओं का सुझाव दिया जाता है। पर मंत्रयोग से राह थोड़ी छोटी हो सकती है। कहा गया है – मननात् त्रायते इति मंत्र: यानी मंत्र वह है, जो मन को मुक्त कर देता है। स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं कि जिस प्रकार प्रत्येक विचार से एक रूप जुड़ा होता है, उसी प्रकार प्रत्येक रूप से एक नाद, स्पंदन या ध्वनि जुड़ी होती है। उसे ही मंत्र कहते हैं। हम जिस संसार को जानते हैं, उसका सभी स्तरों पर निर्माण मंत्रों या ध्वनि-स्पंदनों द्वारा हुआ है।

आधुनिक युग में कोई भी व्यक्ति अपनी प्राचीन मान्यताओं को केवल विश्वास के आधार पर मानने को तैयार नहीं है। इसलिए मंत्रों पर वैज्ञानिक अनुसंधान समय की मांग है। दुनिया भर में इस दिशा में कार्य किए जा रहे हैं और सबके परिणाम शास्त्रों के अनुरूप ही हैं। स्पेन की राजधानी मैड्रिड में कुछ साल पहले मंत्र के प्रभावों को लेकर बड़ा शोध हुआ था। एक हॉल में एक हजार लोगों को बैठाया और महामृत्युंजय मंत्र का जप करने का निर्देश दिया। दूसरी ओर दूसरी तरफ वैज्ञानिकों को निर्देश दिया कि वे पांच सौ क्वांटम मशीनों से मंत्रों की फ्रिक्वेंसी को मानिटर करें। मंत्रोच्चारण के प्रभाव से मशीनों में कंपन शुरू हो गया। वैज्ञानिकों की आंखें खुली रह गईं जब उन्होंने देखा कि मंत्र की शक्ति से फ्रिक्वेंसी का विशाल फील्ड तैयार हो चुका है।

अपने देश में अगले तीस सालों में अल्जाइमर्स के रोगियों की संख्या में तीन गुणा इजाफा होने की आशंका है। तमाम वैज्ञानिक खोजों के बावजूद कारगर इलाज संभव नहीं हो सका है। मंत्रयोग की शक्ति नई राह दिखा रही है। ऐसे में वैज्ञानिक तथ्यों को धर्म की चाशनी में लपेट कर राजनीति करना उचित नहीं। इसका खामियाजा हम पहले ही भुगत चुके हैं। सदियों पुराने ज्ञान को मिट्टी में मिला चुके हैं। सरकार यदि मंत्रयोग की शक्ति से जनता को अवगत कराने के मामले में वाकई गंभीर है तो उसे इस काम के लिए योग संस्थानों की मदद करनी चाहिए, जो मंत्रयोग की शक्ति को सही तरह से परिभाषित करने में सक्षम हैं। ऐसी संस्थाएं यदि मंत्रयोग की शक्ति से जनता को अवगत कराएंगी तो उसकी सार्थकता होगी। किसी को कोई संदेह भी न रहेगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

मंत्रयोग की शक्ति, अवसाद से मुक्ति

कलियुग के लिए मंत्र और संकीर्त्तन लाभकारी

किशोर कुमार

बात मंत्र योग की। कोरोनाकाल के दौरान आधुनिक योग के वैज्ञानिक संत परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने योग साधकों को सलाह दी कि वे सुबह-सुबह नींद खुलने के बाद सबसे पहले ग्यारह बार महामृत्युंजय मंत्र, ग्यारह बार गायत्री मंत्र और तीन बार दुर्गाजी के बत्तीस नामों का जप अनिवार्य रूप से करें। इसके फायदे तो असीमित हैं। पर फिलहाल, विविध कारणों से मन में उठने वाला तूफान शांत होगा। चेतना शुद्ध होगी और एकाग्रता का मार्ग प्रशस्त होगा। सच है कि मेरी जानकारी में ही मानसिक रूप से बीमार हो चुके अनेक साधकों पर इन मंत्रों का ऐसा चमत्कारिक प्रभाव हुआ कि उनकी रिकवरी से चिकित्सक भी हैरान हैं।

मंत्र यानी चेतना की ध्वनि। इस पर विस्तार से चर्चा होगी। पर पहले बीसवीं सदी के महान संत स्वामी रामतीर्थ से जुड़ा एक प्रसंग। वे अपने जापान प्रवास के दौरान राजमहल में ठहरे हुए थे। उनकी नजर चिनार के पेड़ पर गई, जो गमले में किसी इनडोर प्लांट की तरह दिख रहा था। आमतौर पर चिनार का पेड़ पचास-साठ फीट से भी ज्यादा लंबा होता है। पर गमले वाला चिनार का पेड़ बमुश्कि बारह इंच लंबा रहा होगा। वहां राजमहल का एक कर्मचारी खड़ा था। स्वामी जी ने पूछा, यह चिनार का पेड़ है या कुछ और? कर्मचारी ने उत्तर दिया, स्वामी जी, यह चिनार का पेड़ ही है। कोई दो सौ साल पुराना है। दरअसल, इस पेड़ की तीन जड़े काटी जा चुकी हैं। इसलिए यह बढ़ता नहीं है। यह सुनते ही स्वामी रामतीर्थ सहसा बोल पड़े, लगता है कि मानव जाति का भी यही हाल है। मानव जाति की तीन जड़ें हैं – विचार, आचरण व व्यक्तित्व। ये तीन ज़ड़े काटी जा चुकी हैं। तभी वह जिंदा तो है, पर उन्नति नहीं कर पा रहा।

वेदों के मुताबिक नाद सृष्टि का पहला व्यक्त रूप है। अ, ऊ और म इन तीन ध्वनियों के योग से ऊं शब्द की उत्पत्ति हुई। ऋषियों और योगियों का अनुभव है कि इस मंत्र के जप से बहिर्मुखी चेतना को अंतर्मुखी बनाकर चेतना के मूल स्रोत तक पहुंचा जा सकता है। आधुनिक विज्ञान भी इस बात को स्वीकार रहा है। आजकल दुनिया भर में आशांत मन को सांत्वना प्रदान करने के लिए ध्यान योग पर बहुत जोर है। पर चित्त-वृत्तियों का निरोध किए बिना ध्यान कैसे घटित हो? अष्टांग योग में इस स्तर पर पहुंचने के लिए क्रमिक योग साधनाओं का सुझाव दिया जाता है। पर मंत्रयोग से राह थोड़ी छोटी हो सकती है। कहा गया है – मननात् त्रायते इति मंत्र: यानी मंत्र वह है, जो मन को मुक्त कर देता है। स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं कि जिस प्रकार प्रत्येक विचार से एक रूप जुड़ा होता है, उसी प्रकार प्रत्येक रूप से एक नाद, स्पंदन या ध्वनि जुड़ी होती है। उसे ही मंत्र कहते हैं। हम जिस संसार को जानते हैं, उसका सभी स्तरों पर निर्माण मंत्रों या ध्वनि-स्पंदनों द्वारा हुआ है।

जरा सोचिए कि यदि मानव जाति की तीन जड़े, जिसकी बात स्वामी रामतीर्थ ने की थी, न काट दी गई होतीं तो शक्तिशाली सर्वव्यापी मंत्रयोग के रहते उसके लाभों से वंचित रहने का कोई औचित्य था? शास्त्रों में शरीर के तीन प्रकार बतलाए गए हैं – स्थूल, सूक्ष्म और कारण। स्थूल शरीर का संबंध जागृत अवस्था से है। सूक्ष्म शरीर का संबंध स्वप्न से और कारण शरीर का संबंध सुषुप्ति से है। अंतर्मन में इतना कोलाहल है कि स्थूल शरीर को ही वश में करना संभव नहीं हो पाता। फिर सूक्ष्म शरीर कैसे नियंत्रित हो? तभी योग साधनाओं में आशातीत सफलता नहीं मिलती। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि रोज पांच मिनट तक एक ही मंत्र जो जपते जाओ। देखना, इससे एकाग्रता प्राप्त होगी और अपने अंदर जाने और स्वयं को जानने का मार्ग प्रशस्त हो जाएगा।

बीते सप्ताह इसी कॉलम में स्वास्थ्य के लिए योग की चर्चा के दौरान कुछ लोगों की राय थी कि योग का उद्देश्य शिव-शक्ति का मिलन है और उसका उपयोग उसी के लिए होना चाहिए। पर आधुनिक युग से संत इस बात की वकालत करते हुए भी योग के सामाजिक उपयोग पर जोर देते रहे हैं। महर्षि पतंजलि ने भी कहा है – हेयं दु:खमनागतम्। यानी योग-शक्ति से भावी दु:ख का परिहार किया जा सकता है। रोग प्रतिरोधक दवा की तरह भविष्य में आने वाले दु:खों का निवारण किया जा सकता है। पर यह काम कैसे हो? इसका जबाव तो पहले ही दिया जा चुका है। पर श्रीमद्भागवतम् की एक प्रसंग की चर्चा यहां बेहद प्रासंगिक है। महाराज परीक्षित शुकदेव गोस्वामी से प्रश्न करते हैं – हे महर्षि, कलियुग में मनुष्य स्वयं को इस युग की गंदगी से कैसे दूर रख सकते हैं? प्रत्युत्तर में शुकदेव गोस्वामी सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग और अंत में कलियुग के विशेष गुण बताते हुए कहते हैं कि उस युग में मंत्र साधना और भगवान की लीलाओं का श्रवण–कीर्तन ही फलदायी होगा।      

यह सुखद है कि कोरोनाकाल में मंत्रों की शक्ति से बड़ी संख्या में लोग लाभान्वित हो रहे हैं। इससे भी बड़ी बात यह कि अनेक मामलों में धार्मिक व सामाजिक मान्यताएं मंत्रयोग साधना में बाधक नहीं बन रहीं। स्पेन के बार्सिलोना शहर की यह खबर चर्चा का विषय़ बनी कि वहां के अस्पताल में आपरेशन के लिए भर्ती हुए मरीज ओम् मंत्र के साथ नाडी शोधन प्राणायाम करते हैं। रोमन कैथोलिक धर्मावलंबियों के देश में ओम् मंत्रोच्चारण के साथ प्राणायाम या ध्यान करने की बात भारतीय सोच के लिहाज से अटपटी लग सकती है। पर वे इसे विज्ञानसम्मत कार्य मानते हैं।

बार्सिलोना के अलावा भी भारत सहित दुनिया के अनेक हिस्सों में श्वास-प्रश्वास के साथ मंत्रों के मन पर प्रभाव का वैज्ञानिक अध्ययन हो चुका है। उनसे साबित हुआ कि इस योगाभ्यास से सेरोटोनिन न्यूरोट्रांसमीटर सक्रिय होता है और हमारे मस्तिष्क में “अमिगडला” के रूप में डर का जो केंद्र होता है, उसकी सक्रियता सामान्य स्तर पर आ जाती है। अपने देश में कॉसमॉस इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड बिहैवियरल साइंसेस भी कुछ ऐसे ही निष्कर्ष पर पहुंचा है। इन परिणामों से स्पष्ट है कि विज्ञानसम्मत मंत्रयोग की शक्ति अवसाद से मुक्ति दिलाने में सक्षम है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

स्वामी विवेकानंद और महर्षि महेश योगी के यौगिक मंत्र

तंत्रशास्त्र में भी कहा गया है कि प्रत्याहार की अवस्था में जप योग की आध्यात्मिक चेतना के विकास में बड़ी भूमिका होती है। सदियों से योगी अनुभव करते रहे हैं कि चेतना की विशिष्ट अवस्था में मंत्र की ध्वनि से शरीर के प्रमुख छह चक्र प्रभावित होते हैं। इनमें मूलाधार चक्र यानी कोक्सीजेल सेंटर से लेकर आज्ञा चक्र यानी मेडुला सेंटर तक शामिल हैं। इसलिए मंत्र को चेतना की ध्वनि कहा जाता है। आधुनिक विज्ञान भी इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि चक्र प्रणाली का प्रत्येक स्तर शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और अतीन्द्रिय तत्वों का सम्मिश्रण है। इसलिए सभी चक्रों का संबंध किसी न किसी स्नायु तंत्र और अंत:स्रावी ग्रंथि से होता ही है। ऐसे में चक्रों के किसी भी प्रकार से स्पंदित होने पर उसका असर व्यापक होता है। भावातीत ध्यान इसलिए बड़े काम का है।

योग और अध्यात्म की दृष्टि से जनवरी महीने की बड़ी अहमियत है। अपने वेदांत दर्शन के कारण दुनिया में भारत का मान बढ़ाने वाले सर्वकालिक संत स्वामी विवेकानंद और योगबल की बदौलत दुनिया को चमत्कृत करने वाले आधुनिक युग के वैज्ञानिक योगी महर्षि महेश योगी की जयंती इस महीने में एक ही दिन यानी 12 जनवरी को मनाई जाती है। उनकी शिक्षा की प्रासंगिकता बनी ही रहती है। पर कोरोना महामारी के आलोक में मानसिक सजगता को लेकर उनके विचार, योग की विधि बड़े काम के हैं।

चाहे युवा-शक्ति के अभ्युत्थान की बात हो या फिर बंगाल में 1899 में आए प्लेग से उत्पन्न पीड़ाएं, स्वामी विवेकानंद अपना अनुभव साझा करते हुए कहते थे – “सजगता की शक्ति ऐसी है कि वह ज्ञान की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त तो करती ही है, मानसिक पीड़ाओं से भी मुक्ति दिलाती है। हम देखते हैं कि सभी लोग नईपीढ़ी से कहते हैं कि अच्छे बनो, विवेकशील बनो। पर बताते नहीं कि ऐसा किस तरह संभव होगा। यदि मन अपने वश में न होगा तो कोई कब तक अच्छा या विवेकशील बना रह सकता है? मन की सजगता औऱ उसकी बुनियाद पर एकाग्रता का महल तभी खड़ा होगा, जब सजगता (प्रत्याहार) और एकाग्रता (धारणा) की किसी एक विधि को भी अपनी जीवन-शैली का हिस्सा बनाया जाएगा। “

महर्षि महेश योगी ने साठ के दशक में पश्चिमी देशों में जिस “भावातीत ध्यान” का डंका बजाया था, उसका आधार मुख्यत: प्रत्याहार ही था। उसके साथ मंत्र योग का समन्वय करके उसे शक्तिशाली बनाया गया था। विभिन्न कारणों से अवसाद में डूबे पश्चिमी दुनिया के युवाओं को भावातीत ध्यान से इतने फायदे मिले कि वह अवसाद से उबारने की यौगिक दवा बन गई थी। इससे चिकित्सा विज्ञानी भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके थे। नतीजा हुआ कि दुनिया भर में भावातीत ध्यान के विभिन्न रोगों में प्रभावों पर शोध किए जाने लगे थे। अब तक सात सौ से ज्यादा शोध-कार्य किए जा चुके हैं। उनके सकारात्मक नतीजों का ही असर है कि कोरोना महामारी के कारण अवसादग्रस्त लोगों को योगनिद्रा की तरह ही भावातीत ध्यान भी खूब भा रहा है। योगनिद्रा भी प्रत्याहार की ही एक क्रिया है। इसे बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने आज की जरूरतों के लिहाज से विकसित करके प्रस्तुत किया था।

योगशास्त्र में कहा गया है कि इंद्रियों को अंतर्मुखी करने की कला यानी Withdrawal of Senses ही प्रत्याहार है। चूंकि आमतौर पर सबकी चेतना बहुर्मुखी होती है और मन इंद्रियों का दास बनकर उसके इशारे पर नाच रहा होता है। इसलिए तरह-तरह की मानसिक समस्याएं खड़ी होती रहती हैं। जीवात्मा के लिए अपने भीतर की परमसत्ता यानी आत्मा या चेतना के अनंत पक्षों को जान पाना कठिन होता है। स्वामी विवेकानंद कहते थे – “कुछ क्षण बैठें और मन को इधर-उधर दौड़ने दें। मन सदैव बुलबुलाता रहता है। वह उस कूदते हुए बंदर के समान है। बंदर को जितना कूदना है, कूदने दो; आप केवल रुककर देखते रहिए। एक लोकोक्ति के अनुसार, ज्ञान ही शक्ति है, और यह बिल्कुल सत्य है। जब तक आप यह नहीं जानते कि आपका मन क्या कर रहा है, आप उसको नियंत्रित नहीं कर सकते। उसे लगाम दीजिए; आपके भीतर कई घृणित विचार आ सकते हैं। आपको यह जानकार आश्चर्य होगा कि आपके लिए ऐसा सोचना कैसे संभव था? परंतु आप देखेंगे कि प्रत्येक दिन मन की सनक धीरे-धीरे कम हिंसात्मक हो रही है, प्रत्येक दिन वह शांत हो रहा है।“ 

आमतौर पर माना जाता है कि चेतना की तीन अवस्थाएं हैं। पहली जागृति की चेतना। इस दौरान मन और शरीर दोनों ही क्रियाशील रहते हैं। दूसरी, स्वप्न की चेतना। इसमें मन और शरीर आंशिक रूप से क्रियाशील रहते हैं। तीसरी है, सुषुप्ति की चेतना। इसमें मन और शरीर विश्राम की अवस्था में होते हैं। महर्षि महेश योगी कहते थे कि चेतना की चौथी अवस्था भी होती है और वह है भावातीत चेतना। इसे विश्रामपूर्ण जागृति भी कहा जा सकता है। इसलिए कि इस अवस्था में हम मानसिक रूप से पूर्ण सजग और शारीरिक रूप से गहन विश्राम की अवस्था में रहते हैं। ऐसी अवस्था में गुरूमंत्र या किसी भी मंत्र का जप चलते रहने का चमत्कारिक प्रभाव होता है। मानव चेतना के सवाल ऋषियों और संतों की स्थापनाओं पर आधुनिक युग के वैज्ञानिकों ने काफी शोध किया है। इस संदर्भ में वैज्ञानिक आध्यात्मवाद के प्रसिद्ध अमेरिकी लेखक माइकेल टालबोट की शोधपरक पुस्तक “मिस्टिसिज्म एंड द न्यू फिजिक्स” उल्लेखनीय है। इसमें कई शोधों के आधार पर भारतीय तंत्रशास्त्र और योगविद्या की वैज्ञानिकता पर विस्तार से चर्चा की गई है।    

तंत्रशास्त्र में भी कहा गया है कि प्रत्याहार की अवस्था में जप योग की आध्यात्मिक चेतना के विकास में बड़ी भूमिका होती है। वैसे तो त्राटक, नादयोग,संगीत, कीर्तन आदि भी इंद्रियों को अंतर्मुखी बनाने के लिए बेहद प्रभावशाली हैं। पर सदियों से योगी अनुभव करते रहे हैं कि चेतना की विशिष्ट अवस्था में मंत्र की ध्वनि से शरीर के प्रमुख छह चक्र बेहद प्रभावित होते हैं। इनमें मूलाधार चक्र यानी कोक्सीजेल सेंटर से लेकर आज्ञा चक्र यानी मेडुला सेंटर तक शामिल हैं। इसलिए मंत्र को चेतना की ध्वनि कहा जाता है। आधुनिक विज्ञान भी इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि चक्र प्रणाली का प्रत्येक स्तर शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और अतीन्द्रिय तत्वों का सम्मिश्रण है। इसलिए सभी चक्रों का संबंध किसी न किसी स्नायु तंत्र और अंत:स्रावी ग्रंथि से होता ही है। ऐसे में चक्रों के किसी भी प्रकार से स्पंदित होने पर उसका असर व्यापक होता है।

महर्षि महेश योगी वैसे तो भावातीत ध्यान की खूबियां लोगों के मन-मिजाज को ध्यान में रखकर अलग-अलग तरह से गिनाते थे। पर एक बात सभी से कहते थे – “स्वर्ग का साम्राज्य तुम्हारे अंदर है। भावातीत ध्यान के जरिए उसे हासिल करो। फिर सब कुछ प्राप्त हो जाएगा। यह कुछ और नहीं, बल्कि चेतना का विज्ञान है। चेतना विज्ञान की शिक्षा सार्वभौम सत्ता या चेतना के प्रत्यक्ष अनुभव से आरंभ होनी चाहिए। जब सृष्टि के हर पक्ष को धारण करने वाली विशुद्ध चेतना व्यावहारिक स्तर पर आएगी, तब ही जीवन में पूर्णता आएगी, हर रहस्य से पर्दा उठेगा।“ उनकी इन बातों की पुष्टि आधुनिक विज्ञान भी करने लगा तो विभिन्न कारणों से तनावपूर्ण जीवन जी रहे पश्चिमी दुनिया के युवा भावातीत ध्यान की ओर आकर्षित हुए बिना नहीं रह सके। फिर तो इंग्लैंड के प्रसिद्ध रॉक बैंड ’द बीटल्स’ के कलाकार भी इसके दीवाने हो गए थे और साठ के दशक में ध्यान सीखने ऋषिकेश जा पहुंचे थे। आज भी भारत सहित दुनिया के 126 देशों में इस ध्यान साधना की मजबूत उपस्थिति बनी हुई है। अब तो वैज्ञानिक इसे क्वांटम मैकेनिक्स औऱ थर्मोडाइनोमिक्स से जोड़कर देखने लगे हैं।

स्वामी विवेकानंद सर्वकालिक प्रासंगिक रहे हैं। पर कोरोनाकाल में महर्षि महेश योगी का भावातीत ध्यान विशेष तौर से पश्चिमी जगत के युवाओं के लिए कोरामिन की तरह साबित हुआ।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)  

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