किशोर कुमार
मौका शारदीय नवरात्रि का है तो बात उसी आलोक में होनी है। इसलिए इस लेख में बात मुख्यत: दुर्गा सप्तशती और मंत्रयोग की करेंगे। साथ ही जानेंगे कि आध्यात्मिक उत्थान के साथ ही शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य के लिए दुर्गा शप्तशती के मंत्रों की अहमियत क्या है। वैदिक ग्रंथों से लेकर ऋषि-मुनियों तक की मान्यता रही है कि कलियुग में अधर्म बढेगा। मानव जीवन के समक्ष नाना प्रकार की समस्याएं खड़ी होंगी। लोग बाह्य जगत के साथ ही अपने अंत:करण में समस्याएं झेलने को मजबूर होंगे। ऐसे में जीवन में शांति और संतुलन किस तरह बनाए रखा जाए? योग विद्या में इसके लिए अनेक उपाय बतलाए गए हैं। अनेक अबूझ बीमारियों के आध्यात्मिक इलाज भी बतलाए गए हैं, जहां तक आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की पहुंच नहीं है।
हम जानते हैं कि चार वेद अनादि ग्रंथ हैं, जो दुनिया के सभी ग्रंथों के बीज माने जाते हैं। उन्हीं से तंत्र निकला और तंत्र से योग का अभ्युदय हुआ। हठयोग, राजयोग, कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, क्रियायोग, मंत्रयोग आदि योगांग हैं या यूं कहें कि योग की शाखाएं हैं। दुर्गा सप्तशती में भी वेदों में वर्णित सभी तांत्रिक प्रक्रियाएं कूटभाषा में वर्णित हैं। यह एक ऐसा ग्रंथ है, जिसमें भगवती की कृपा के सुंदर इतिहास के साथ ही बड़े-बड़े गूढ़ साधन-रहस्य भरे पड़े हैं। राजा सुरथ की कहानी तो हम सब जानते ही हैं। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार समस्त भूमंडल के मालिक राजा सुरथ शत्रुओं के साथ संग्राम में परास्त हो गए तो राजमहल छोड़ वन में चले गए थे। वहां उन्होंने मेधा ऋषि का आश्रम देखा जहां हिंसक जीव भी शांति से रह रहे थे। राजा ने मुनि से अपना कष्ट बताया तो मुनि ने उन्हें देवी की शरण में जाने को कहा। वर्षों की मंत्र साधना के बाद जगदंबा राजा पर प्रसन्न हुईं और उन्हें उनका राज्य वापस मिल गया था।
वृंदावन में आधुनिक युग के महान संत हुए उड़िया बाबा। भक्ति और ज्ञान की जागृति में उनकी बड़ी भूमिका थी। प्रारंभिक दिनों में आध्यात्मिक साधना के लिए घर से निकल तो गए। पर कहां जाएं और कौन-सी साधना करें, यह यक्ष प्रश्न बनकर खड़ा हो गया। तभी उन्हें जगन्माता का स्मरण हो आया। इसके साथ ही वे शतचंडी के अनुष्ठान में जुट गए थे। दुर्गा सप्तशती के इस अनुष्ठान ने उनके व्यक्तित्व को आध्यात्मिक ऐश्वर्य से भर दिया। इस साधना से मिली अनुभूतियों से लाखों लोग लाभान्वित होते रहे। बाबा किसी भी शारीरिक व मानसिक संकट में फंसे अपने भक्तों को बतलाते कि गायत्री मंत्र के साथ दुर्गा शप्तशती का पाठ करो। उनकी यह आध्यात्मिक चिकित्सा अचूक साबित होती थी। उड़िया बाबा के पहले के और बाद के भी गुरूजन कहते रहे हैं कि पृथ्वी पर ही नहीं, समस्त सृष्टि में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे दुर्गा शप्तशती के समर्थ प्रयोगों से हासिल न किया जा सके।
आध्यात्मिक जगत में माना जाता है कि पूर्व जन्मों के संचित कर्म, नैतिक नीतियों से विचलन, आस्तिकता का अभाव आदि मानव के समक्ष ऐसी-ऐसी समस्याएं खड़ी करते हैं कि उनका समाधान आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के पास भी नहीं होता। विक्रमादित्य के अग्रज और महान नीतिकार भार्तृहरि ने अपने लोकप्रिय ग्रंथ वैराग्य शतक में साफ-साफ कहा था – भोगे रोग भयं। यानी भोग में रोग का भय है। नैतिक वर्जनाओं की अवलेहना हुई नहीं कि रोग प्रकट हो जाएंगे। पर आधुनिक युग के वैज्ञानिकों को इन बातों पर भरोसा न था। उन्हें बात अटपटी लगती थी कि नैतिक नीतियों से विचलन या आस्तिकता में कभी भला बीमारियों की वजह किस तरह बन सकते हैं। पर चीजें तेजी से बदली और सिद्ध संतों की अनुभूतियों को चिकित्सा विज्ञानी भी प्रकारांतर से स्वीकारने लगे। एरिक फ्रॉम जर्मनी के बड़े मनोवैज्ञानिक थे। उनकी पुस्तक “मैन फॉर हिमसेल्फ” बेहद लोकप्रिय हुई। उसमें उन्होंने स्वीकारा कि अनैतिकता मनोरोगों का बीज है। विचारों व भावनाओं में इसके अंकुरित होते ही मानसिक संकटों की फसल उगे बिना नहीं रहती। अब तो इन विषयों पर बड़े-बड़े शोध हुए और निदान के लिए आध्यात्मिक चिकित्सा की महत्ता को स्वीकार किया जाने लगा।
इस संदर्भ में एक मजेदार प्रसंग है। सुविख्यात आयुर्विज्ञानी और तटशिला के स्नातक रहे महाभिषक आर्य जीवक की चिकित्सा अचूक मानी जाती थी। सम्राट बिंबसार तक उनके बड़े प्रशंसक थे। पर एक बार समस्या खड़ी हो गई। उनके पास एक ऐसा मरीज आया, जिसकी जन्म से एक आंख खुलती नहीं थी। इलाज के सारे उपाय निष्फल हो चुके थे। महाभिषक आर्य जीवक जल्दी ही समझ गए कि भगवत्त कृपा के बिना बात बनने वाली नहीं। वे अपने गुरू महास्थविर रेवत को पूरी बात बताई, जो भगवान तथागत के समर्थ शिष्य थे। गुरू रेवत ने अपनी आंखें बंद की। पर कुछ सेंकेंड बाद ही हंसी छूट गई। दरअसल उन्हें ज्ञात हो गया था कि बीमारी की वजह क्या है। उन्होंने महाभिषक आर्य जीवक से कहा कि उस रोगी की समस्या शारीरिक नहीं, मानसिक है। उसने अपने पूर्व जन्म में नैतिक नीति की अवहेलना की थी। इससे वह मानसिक ग्रंथि का शिकार हो गया। भगवान बुद्ध के पास जाओ। उनकी प्रेम की उष्मा से रोगी को मनोग्रंथि से मुक्ति मिलेगी। ऐसा ही हुआ। इसके बाद इस बात की प्रतिष्ठापना हुई कि नैतिकता की नीति स्वस्थ्य के लिए श्रेष्ठ है। उस पर चलने वाला निरोगी काया का मालिक होगा।
अनादि काल से कहा जाता रहा है कि हम जैसा सोचते हैं, वैसा हो जाते हैं। बींसवी सदी के महान योगी स्वामी शिवानंद सरस्वती अपने बीमार शिष्यों से कहते थे कि सोचो कि तुम स्वस्थ हो। तुम्हे कोई रोग नहीं है। यह उपचार बेहद कारगर साबित होता था। दरअसल, विश्वास फलदायी साबित होता था। किसी भी साधना में, किसी भी उपचार विधि के मामले में यही बात लागू है। यदि आस्था व विश्वास न होगा तो बात नहीं बनेगी। गुरूजनों का अनुभव है कि दुर्गा सप्तशती का पाठ करने से कई परेशानियों का अंत हो जाता है। इसके सात सौ श्लोकों को तीन भागों में बांटा गया है। इसमें महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती की महिमा का वर्णन है। अलग-अलग पाठ अलग-अलग बाधाओं के निवारण के लिए किए जाते हैं। जैसे, दुर्गा सप्तशती का प्रथम अध्याय का पाठ करने से सभी प्रकार की चिंताएं दूर होती हैं। ऐसा है मंत्रों का प्रभाव। श्रीमद् देवी भागवत महापुराण में भी इसका जिक्र है। मंत्रों की वैज्ञानिकता पर हम बात करते रहे हैं। इस लेख में इतना ही। नवरात्रि की शुभकामनाएं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)