योग को लाभकारी बनाने में रोल मॉडल बने सरकार

किशोर कुमार

यह सच है कि भौतिक युग में जो विद्या लाभकारी नहीं होती, उसके बचे रहने की संभावना धूमिल होती जाती है। इसलिए योग लाभकारी पेशा बना रहे और सरकार इस काम में महती भूमिका निभाए, यह समय की मांग है। राष्ट्रीय आयुष मिशन भारत सरकार की एक महत्वाकांक्षी योजना है और योग उसका एक घटक विषय है। इस लिहाज से योग के बेहतर भविष्य को लेकर उम्मीद बंधती है। पर राज्य सरकारों की जैसी दिशा-दशा है, वह न केवल हैरान करने वाली है, बल्कि वैश्विक स्तर पर प्रतिष्ठापित योग के शानदार करियर के चमकते विकल्प पर सवालिया निशान भी है।

हाल ही मेरी नजर एक विज्ञापन पर गई थी, जिसका प्रकाशन उत्त्तर प्रदेश के बरेली के क्षेत्रीय आयुर्वेदिक व यूनानी अधिकारी ने कराया था। वह विज्ञापन राष्ट्रीय आयुष मिशन के तहत हेल्थ एवं वेलनेस सेंटरों के लिए योग प्रशिक्षकों की अस्थाई तौर पर नियुक्ति के लिए है। कोरोनाकाल में, जहां नौकरियों का टोटा है, वहां अस्थाई नियुक्तियों के विज्ञापन भी राहत देने वाले होने चाहिए थे। पर विज्ञापन पढ़ने के बाद ऐसा लगा कि राज्य में राष्ट्रीय आयुष मिशन को जमीन पर उतारने के लिए जिन लोगों ने योजना बनाई होगी, उनमें योग को लेकर निश्चित रूप से व्यापक दृष्टिकोण का सर्वथा अभाव होगा। चिंताजनक बात यह है कि देश के कुछ अन्य राज्यों में भी योग प्रशिक्षकों की बहाली के लिए लगभग समान नीति अपनाई जानी है।

विज्ञापन के मुताबिक, प्रत्येक हेल्थ एवं वेलनेस सेंटर पर दो योग प्रशिक्षक तैनात होंगे, एक महिला व एक पुरूष। उनकी योग्यता योग व नेचुरोपैथी विषय से स्नातक तक की हो तो सबसे अच्छा। पर भारत सरकार के योग सर्टिफिकेशन बोर्ड के प्रमाण-पत्रधारक भी इस पद के योग्य होंगे। रोज एक घंटे की कक्षा लेनी होगी। जहां तक मानदेय की बात है तो पुरूष प्रशिक्षक को आठ हजार रूपए और महिला प्रशिक्षक को पांच हजार रूपए दिया जाएगा। अब यहां दो बातें उभर कर सामने आती हैं, जिन्हें गंभीरता से लिया जाना चाहिए। पहला तो यह कि महिला और पुरूष के मानदेय में भेदभाव क्यों? यदि ऐसा भेदभाव सरकार ही करेगी तो निजी क्षेत्र में इस ट्रेंड को कैसे रोका जा सकेगा? फिर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि छोटी-सी दिखने वाली इस बात का असर बहुआयामी होगा।

हम माताओं से अपेक्षा करते हैं कि उनका आचरण राधा के अनुकूल हो। हृदय में भक्ति का दीप जले। मीरा जैसी पवित्रता और सरलता हो। वह आदर्श माता और पत्नी बने। हम योग की सैद्धांतिक शिक्षा देते समय हम बड़े गर्व से वैदिककालीन ऋषिकाओं गार्गी से लेकर मैत्रेयी तक के गौरवशाली अतीत को याद भी करते हैं। छात्रों को बतलाते हैं कि कृष्ण-अर्जुन संवाद से जिस तरह श्रीमद्भगवतगीता का जन्म हुआ था। उसी तरह याज्ञवल्क्य-गार्गी संवाद के कारण ‘बृहदारण्यक उपनिषद’ की ऋचाओं का निर्माण हुआ। यानी वैदिक ग्रंथों को प्रमाण मानते हुए आधुनिक युग में तदनुरूप महिला-पुरूषों में समानता की बात करते हैं। पर व्यवहार रूप में महिलाओं के हितों की बात आते ही मानक बदल जाए तो इसे न न्यायसंगत कहा जाएगा और न ही योगसम्मत। योग हमें मन, कर्म और वचन में एकरूपता की शिक्षा देता है।   

वैसे, जितना मानदेय तय किया गया है, वह पुरूष योग प्रशिक्षकों को भी उत्साहित करने वाला नहीं है। योग को लेकर लोगों में जागरूकता आने के बाद समर्थ योग प्रशिक्षकों के पास काम की कमी नहीं रही। ऑनलाइन कारोबार ऐसा बढ़ा है कि प्रतिदिन एक घंटा क्लास लेकर भी ज्यादा धन अर्जित करने के रास्ते बन गए हैं। ऐसे में समर्थ योग शिक्षक वेलनेस सेंटरों से जुड़ेंगे, यह बड़ा सवाल है? यदि समर्थ प्रशिक्षक न जुड़े तो बेहतर स्वास्थ्य के लिए समग्र योग का सपना कैसे साकार होगा? योग की महत्ता क्या है, अब यह शायद बताने की जरूरत नही रही। अब तो विमर्श इस बात को लेकर होता है या होना चाहिए कि योग लोगों की जीवन-शैली का हिस्सा किस तरह बने और योग प्रशिक्षकों की भूमिकाएं क्या हों? इसलिए कि खासतौर से कोरोना महामारी फैलने के बाद सिद्ध हो चुका है कि लोगों को स्वस्थ्य बनाए रखने या दवाओं पर निर्भरता कम करने में योग की बड़ी भूमिका है। जाहिर है कि समर्थ योग शिक्षकों और प्रशिक्षकों की भूमिकाएं अहम् हो गई हैं।

लखनऊ स्थित प्रयाग आरोग्यम् केंद्र के संस्थापक प्रशांत शुक्ल की इस बात में दम है कि यदि सरकार योग को सचमुच बढावा देना चाहती है तो उसे योग्यता के आधार पर मानदेय तय करना चाहिए। स्नातक योग प्रशिक्षकों का मानदेय कम से कम बीस हजार रूपए प्रति माह निर्धारित किया जाना चाहिए। यह अजीब है कि डेढ़ दो लाख रूपए खर्च करके स्नातक या स्नातकोत्तर की योग शिक्षा ग्रहण करने वालों औऱ सर्टिफिकेट कोर्स करने वालों को सरकार एक ही तराजू पर तौल रही है। राज्य सरकारों को इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि केंद्रीय विद्यालयों में अनुबंध के आधार पर बहाल किए गए योग प्रशिक्षकों को बतौर मानदेय साढ़े बाइस हजार रूपए दिए जाते हैं। दूसरी बात कि योग प्रशिक्षक जब विद्यालयों या समुदायों के बीच प्रशिक्षण देने जाएंगे, तो घंटा भर समय देने की बात बेमानी होगी। व्यवहार रूप में आधा दिन कब बीतेगा, पता ही न चलेगा।

बीसवीं सदी के महान संत परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती नब्बे के दशक में ही कहा करते थे – “अगली शताब्दी में लोगों की समस्याओं की जड़ में परेशानी या तनाव होंगे। जैसी समस्याओं से अमेरिका और जापान जूझ रहा है, वैसी ही समस्याओं से भारत के लोगों खासतौर से महानगरों में रहने वाले लोगों को जूझना होगा। ऐसे में योग लाभकारी पेशा बन जाएगा। पर याद रखना कि जो विद्या लाभकारी या अर्थकारी नहीं होगी, वह जीवित नहीं रह सकेगी।“  परमहंस जी जैसा कहते थे, वह समय आ चुका है। अब योग का पेशा अन्य पेशों की तरह लाभकारी बने, यह सरकार को सुनिश्चित करना होगा।   

मर्यादा पुरूषोत्त्तम श्रीराम और महान योगी श्रीकृष्ण तो हर युग में असंख्य युवाओं के रॉल मॉडल बनते हैं। पर भारत की भूमि पर सम्राट अशोक और चंद्रगुप्त मौर्य जैसे प्रतापी राजा भी हुए, जो इतिहास में अमर हो गए। उनकी यश की गाथा सबकी जुबान पर होती है और उनके आदर्शों से प्रेरणा लेने की सिफारिश भी की जाती है। लोकतंत्र में राजा सरकार ही होती है। इसलिए उसे योग के मामले में भी ऐसा मानक स्थापित करना चाहिए, जिससे अन्य नियोक्ता प्रेरित हो सकें।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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