आदिशक्ति की लीलाकथा और दुर्गासप्तशती

किशोर कुमार //

नवसंवत्सर की शुरूआत ही देवी की आराधना से होगी। सृष्टि की रचना देवी से हुई थी। ब्रह्मांडीय ऊर्जा का प्रतीकात्मक रूप भी वे ही हैं। उपनिषद में कहा गया है कि पराशक्ति ईश्वर की परम शक्ति है। यही विविध रूपों में प्रकट है। आत्मज्ञानी संत प्राचीनकाल से कहते रहे हैं कि देवी या शक्ति सभी कामनाओं, ज्ञान और क्रियाओं का मूलाधार है। अब वैज्ञानिक भी कह रहे हैं कि प्रत्येक वस्तु शुद्ध अविनाशी ऊर्जा है। यह कुछ और नहीं, बल्कि उस दैवी शक्ति का एक रूप मात्र है, जो अस्तित्व के प्रत्येक रूप में मौजूद है। नवरात्रि के दौरान हम उसी देवी की आराधना करेंगे कि वे हमें तामसिक गुणों से मुक्ति दिलाकर सात्विक गुणों के विकास की दिशा में अग्रसर करें।  

शक्ति की आराधना सृष्टि के आरंभ से ही होती आई है। तभी सृष्टि के प्रारंभ में समाज स्त्री प्रधान था। वैदिक ग्रंथों में भी इस बात का उल्लेख मिलता है। पर, सभ्यता के विकास के साथ नाना प्रकार के विकारों के कारण समाज का स्वरूप बदला और पुरूष की प्रधानता हो गई। पर, संतजन कहते हैं कि जैसे-जैसे आंतरिक जागरण होगा, हमें शक्ति की महत्ता समझ में आने लगेगी और यह अवश्यंभावी है। खैर, नवरात्रों के दौरान दुर्गा सप्तशती के मंत्रों से वातारण गूंजायमान होगा। मंत्रों की शक्ति आंतरिक उत्थान का संवाहक बनेगी। देवी महात्म्य से हमें योगमय जीवन जीने की प्रेरणा मिलेगी।

हम सब जानते हैं कि दुर्गासप्तशती मार्कण्डेय पुराण की सबसे बड़ी देन है। इसमें कुल सात सौ श्लोकों में भगवती दुर्गा के चरित का वर्णन किया गया है। वैसे तो सामान्य जनों के लिए दुर्गासप्तशती पूजा-पाठ का एक ग्रंथ है। पर मंत्र विज्ञान के आलोक में व्याख्या हो तो पता चलता है कि यह हमारे आंतरिक जागरण का अद्भुत ग्रंथ है। शास्त्रों में शक्ति की महिमा जगह-जगह मिलती है। श्रुति और स्मृति आधारित ग्रंथों में भिन्नता दिखती है। पर अर्थ नहीं बदलता। ऋग्वेद के अनेक मंत्रों में इस शक्ति से संबंधित स्तवन मिलते हैं। उनमें इस शक्ति को समग्र सृष्टि की मूल परिचालिका बतलाकर विश्व जननी के रूप में स्तुति की गई है। इस शक्ति के द्वारा अनेक मौकों पर देवताओं को त्राण मिला और तभी से देवी सर्वविद्या के रूप में पूजित होती आ रही हैं।

देवी के नौ स्वरूपों में प्रथम शैलपुत्री है, जो प्रकृति की प्रतीक हैं। यानी प्रकृति की आराधना से नवरात्रों की शुरूआत होती है। देवी भागवत और अथर्ववेद में देवी स्वयं कहती हैं – मैं ही सृष्टि, मैं ही समष्टि, मैं ही ब्रह्म, मैं ही परब्रहा, मैं ही जड़, मैं ही चेतन, मैं ही स्थल, मैं ही विशाल, मैं ही निद्रा, मैं ही चेतना हूं। मेरे से ही सारा जगत उत्पन्न हुआ है और मैं ही इसके काल का कारण बनूंगी। मेरे से पृथक कोई नहीं। मैं सबसे पृथक हूं। कितना सुखद है कि संसार को आलोकित करने वाली, गुणों को अभिव्यक्ति देने वाली, काल को वश में करने वाली, मानवमात्र का हित करने वाली शक्ति स्वरूपा मां की लीलाओं में छिपे संदेशों को समझते हुए योगबल द्वारा आंतरिक जागरण करने का बेहतरीन अवसर मिलने वाला है।

नवरात्रों के दौरान प्रथम तीन दिनों तक देवी मां की आराधना भयंकर दुर्गा शक्ति के रूप में की जाती है। यह अपनी समस्त अशुद्धियों, दोषों, दुर्गुणों से मुक्ति पाने के लिए शक्ति प्राप्त करने का अवसर होता है। इसके लिए दुर्गा सप्तशती परायण के साथ ही अष्टांग योग के यम-नियम की साधना श्रेष्ठ है। जब दुर्गुणों को नष्ट करने के बाद देवी मां की आराधना महालक्ष्मी के रूप में करके सद्गुणों का विकास करने की बारी होती है।  इससे दैवी संपदा का अक्षय भंडार प्राप्त होता है। अंतिम तीन दिन देवी मां की आराधना महासरस्वती के रूप में की जाती है, जो दैवी ज्ञान और ब्रहाज्ञान की अधिष्ठात्री हैं। उनकी वीणा श्रेष्ठ महावाक्यों और प्रणव के स्वरों को हृदय में जगाती हैं। वह परम नाद का ज्ञान देती हैं और आत्मज्ञान प्रदान करती हैं।

वेदों के मुताबिक नाद सृष्टि का पहला व्यक्त रूप है। अ, ऊ और म इन तीन ध्वनियों के योग से ऊं शब्द की उत्पत्ति हुई। ऋषियों और योगियों का अनुभव है कि इस मंत्र के जप से बहिर्मुखी चेतना को अंतर्मुखी बनाकर चेतना के मूल स्रोत तक पहुंचा जा सकता है। आधुनिक विज्ञान भी इस बात को स्वीकार रहा है। आजकल दुनिया भर में आशांत मन को सांत्वना प्रदान करने के लिए ध्यान योग पर बहुत जोर है। पर चित्त-वृत्तियों का निरोध किए बिना ध्यान कैसे घटित हो? अष्टांग योग में इस स्तर पर पहुंचने के लिए क्रमिक योग साधनाओं का सुझाव दिया जाता है। पर मंत्रयोग से राह थोड़ी छोटी हो सकती है। स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं कि हम जिस संसार को जानते हैं, उसका सभी स्तरों पर निर्माण मंत्रों या ध्वनि-स्पंदनों द्वारा हुआ है।

सच है कि मंत्रयोग का अपना स्वतंत्र विज्ञान है। शब्द तत्व की ऋषियों ने ब्रह्म की संज्ञा दी है। शब्द से सूक्ष्म जगत में जो हलचल मचती है, उसी का उपयोग मंत्र विज्ञान में किया गया है। ऋषियों ने इसी विद्या पर सबसे अधिक खोजें की थीं। तभी यह विद्या इतनी लोकप्रिय हो पाई थी कि जीवन के हर क्षेत्र में इसका उपयोग किया जाता था। जल की वर्षा करने वाले वरूणशास्त्र, भयंकर अग्नि उगलने वाले आग्नेयास्त्र, संज्ञा शून्य बनाने वाले सम्मोहनशास्त्र, समुद्र लांघना, पर्वत उठाना, नल की तरह पानी पर तैरने वाले पत्थरों का पुल बनाना आदि अनेकों अद्भुत कार्य इसी मंत्र शक्ति से किए जाते थे।

कालांतर में कर्मकांडों की वजह से शक्ति की उपासना के साथ कई विसंगतियां जुड़ती गईं। बलि प्रथा इसका जीवंत उदाहरण है। बलि देनी है अपने अंतर्मन में छिपे अवगुणों की। हथियार है यम-नियम। पर हम भटक गए और बलि देने लगे पशुओं की। संतों की वाणी है कि कलियुग में शस्त्र नहीं, शास्त्र से द्वारा जीत हासिल की जा सकती है। इसलिए कि तलवार से तलवार शांत नहीं होती। दुर्गा सप्तशती की साधना का अंतिम लक्ष्य है – जीवन में श्रेय और प्रेय का आविर्भाव। हमारी साधना का संकल्प भी यही होना चाहिए।  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

शक्ति की उपासना औऱ निरोगी काया

किशोर कुमार

मौका शारदीय नवरात्रि का है तो बात उसी आलोक में होनी है। इसलिए इस लेख में बात मुख्यत: दुर्गा सप्तशती और मंत्रयोग की करेंगे। साथ ही जानेंगे कि आध्यात्मिक उत्थान के साथ ही शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य के लिए दुर्गा शप्तशती के मंत्रों की अहमियत क्या है। वैदिक ग्रंथों से लेकर ऋषि-मुनियों तक की मान्यता रही है कि कलियुग में अधर्म बढेगा। मानव जीवन के समक्ष नाना प्रकार की समस्याएं खड़ी होंगी। लोग बाह्य जगत के साथ ही अपने अंत:करण में समस्याएं झेलने को मजबूर होंगे। ऐसे में जीवन में शांति और संतुलन किस तरह बनाए रखा जाए? योग विद्या में इसके लिए अनेक उपाय बतलाए गए हैं। अनेक अबूझ बीमारियों के आध्यात्मिक इलाज भी बतलाए गए हैं, जहां तक आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की पहुंच नहीं है।

हम जानते हैं कि चार वेद अनादि ग्रंथ हैं, जो दुनिया के सभी ग्रंथों के बीज माने जाते हैं। उन्हीं से तंत्र निकला और तंत्र से योग का अभ्युदय हुआ। हठयोग, राजयोग, कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, क्रियायोग, मंत्रयोग आदि योगांग हैं या यूं कहें कि योग की शाखाएं हैं। दुर्गा सप्तशती में भी वेदों में वर्णित सभी तांत्रिक प्रक्रियाएं कूटभाषा में वर्णित हैं। यह एक ऐसा ग्रंथ है, जिसमें भगवती की कृपा के सुंदर इतिहास के साथ ही बड़े-बड़े गूढ़ साधन-रहस्य भरे पड़े हैं। राजा सुरथ की कहानी तो हम सब जानते ही हैं। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार समस्त भूमंडल के मालिक राजा सुरथ शत्रुओं के साथ संग्राम में परास्त हो गए तो राजमहल छोड़ वन में चले गए थे। वहां उन्होंने मेधा ऋषि का आश्रम देखा जहां हिंसक जीव भी शांति से रह रहे थे। राजा ने मुनि से अपना कष्ट बताया तो मुनि ने उन्हें देवी की शरण में जाने को कहा। वर्षों की मंत्र साधना के बाद जगदंबा राजा पर प्रसन्न हुईं और उन्हें उनका राज्य वापस मिल गया था।  

वृंदावन में आधुनिक युग के महान संत हुए उड़िया बाबा। भक्ति और ज्ञान की जागृति में उनकी बड़ी भूमिका थी। प्रारंभिक दिनों में आध्यात्मिक साधना के लिए घर से निकल तो गए। पर कहां जाएं और कौन-सी साधना करें, यह यक्ष प्रश्न बनकर खड़ा हो गया। तभी उन्हें जगन्माता का स्मरण हो आया। इसके साथ ही वे शतचंडी के अनुष्ठान में जुट गए थे। दुर्गा सप्तशती के इस अनुष्ठान ने उनके व्यक्तित्व को आध्यात्मिक ऐश्वर्य से भर दिया। इस साधना से मिली अनुभूतियों से लाखों लोग लाभान्वित होते रहे। बाबा किसी भी शारीरिक व मानसिक संकट में फंसे अपने भक्तों को बतलाते कि गायत्री मंत्र के साथ दुर्गा शप्तशती का पाठ करो। उनकी यह आध्यात्मिक चिकित्सा अचूक साबित होती थी। उड़िया बाबा के पहले के और बाद के भी गुरूजन कहते रहे हैं कि पृथ्वी पर ही नहीं, समस्त सृष्टि में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे दुर्गा शप्तशती के समर्थ प्रयोगों से हासिल न किया जा सके।

आध्यात्मिक जगत में माना जाता है कि पूर्व जन्मों के संचित कर्म, नैतिक नीतियों से विचलन, आस्तिकता का अभाव आदि मानव के समक्ष ऐसी-ऐसी समस्याएं खड़ी करते हैं कि उनका समाधान आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के पास भी नहीं होता। विक्रमादित्य के अग्रज और महान नीतिकार भार्तृहरि ने अपने लोकप्रिय ग्रंथ वैराग्य शतक में साफ-साफ कहा था – भोगे रोग भयं। यानी भोग में रोग का भय है। नैतिक वर्जनाओं की अवलेहना हुई नहीं कि रोग प्रकट हो जाएंगे। पर आधुनिक युग के वैज्ञानिकों को इन बातों पर भरोसा न था। उन्हें बात अटपटी लगती थी कि नैतिक नीतियों से विचलन या आस्तिकता में कभी भला बीमारियों की वजह किस तरह बन सकते हैं। पर चीजें तेजी से बदली और सिद्ध संतों की अनुभूतियों को चिकित्सा विज्ञानी भी प्रकारांतर से स्वीकारने लगे। एरिक फ्रॉम जर्मनी के बड़े मनोवैज्ञानिक थे। उनकी पुस्तक “मैन फॉर हिमसेल्फ” बेहद लोकप्रिय हुई। उसमें उन्होंने स्वीकारा कि अनैतिकता मनोरोगों का बीज है। विचारों व भावनाओं में इसके अंकुरित होते ही मानसिक संकटों की फसल उगे बिना नहीं रहती। अब तो इन विषयों पर बड़े-बड़े शोध हुए और निदान के लिए आध्यात्मिक चिकित्सा की महत्ता को स्वीकार किया जाने लगा।

इस संदर्भ में एक मजेदार प्रसंग है। सुविख्यात आयुर्विज्ञानी और तटशिला के स्नातक रहे महाभिषक आर्य जीवक की चिकित्सा अचूक मानी जाती थी। सम्राट बिंबसार तक उनके बड़े प्रशंसक थे। पर एक बार समस्या खड़ी हो गई। उनके पास एक ऐसा मरीज आया, जिसकी जन्म से एक आंख खुलती नहीं थी। इलाज के सारे उपाय निष्फल हो चुके थे। महाभिषक आर्य जीवक जल्दी ही समझ गए कि भगवत्त कृपा के बिना बात बनने वाली नहीं। वे अपने गुरू महास्थविर रेवत को पूरी बात बताई, जो भगवान तथागत के समर्थ शिष्य थे। गुरू रेवत ने अपनी आंखें बंद की। पर कुछ सेंकेंड बाद ही हंसी छूट गई। दरअसल उन्हें ज्ञात हो गया था कि बीमारी की वजह क्या है। उन्होंने महाभिषक आर्य जीवक से कहा कि उस रोगी की समस्या शारीरिक नहीं, मानसिक है। उसने अपने पूर्व जन्म में नैतिक नीति की अवहेलना की थी। इससे वह मानसिक ग्रंथि का शिकार हो गया। भगवान बुद्ध के पास जाओ। उनकी प्रेम की उष्मा से रोगी को मनोग्रंथि से मुक्ति मिलेगी। ऐसा ही हुआ। इसके बाद इस बात की प्रतिष्ठापना हुई कि नैतिकता की नीति स्वस्थ्य के लिए श्रेष्ठ है। उस पर चलने वाला निरोगी काया का मालिक होगा।

अनादि काल से कहा जाता रहा है कि हम जैसा सोचते हैं, वैसा हो जाते हैं। बींसवी सदी के महान योगी स्वामी शिवानंद सरस्वती अपने बीमार शिष्यों से कहते थे कि सोचो कि तुम स्वस्थ हो। तुम्हे कोई रोग नहीं है। यह उपचार बेहद कारगर साबित होता था। दरअसल, विश्वास फलदायी साबित होता था। किसी भी साधना में, किसी भी उपचार विधि के मामले में यही बात लागू है। यदि आस्था व विश्वास न होगा तो बात नहीं बनेगी। गुरूजनों का अनुभव है कि दुर्गा सप्तशती का पाठ करने से कई परेशानियों का अंत हो जाता है। इसके सात सौ श्लोकों को तीन भागों में बांटा गया है। इसमें महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती की महिमा का वर्णन है। अलग-अलग पाठ अलग-अलग बाधाओं के निवारण के लिए किए जाते हैं। जैसे, दुर्गा सप्तशती का प्रथम अध्याय का पाठ करने से सभी प्रकार की चिंताएं दूर होती हैं। ऐसा है मंत्रों का प्रभाव। श्रीमद् देवी भागवत महापुराण में भी इसका जिक्र है। मंत्रों की वैज्ञानिकता पर हम बात करते रहे हैं। इस लेख में इतना ही। नवरात्रि की शुभकामनाएं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

नवरात्रि

शक्ति की आराधना और मंत्रयोग

किशोर कुमार

नवरात्रि और दुर्गापूजा का समय है। इसलिए इस बार आदि शक्ति माता की आकृति, प्रकृति और गुणों के आलोक में मंत्र-योग की बात। हम सब जानते हैं कि दुर्गा स्तुति में सृष्टि की रचना, उसकी स्थिति और उसकी चरमावस्था की चर्चा की गई है। ऋषियों ने इन्हें तम, रज औऱ सत्व कहा है। ऋग्वेद, उपनिषदों और पुराणों के मुताबिक ये गुण अनादिकाल से मानव जीवन को नाना प्रकार से प्रभावित करते रहे हैं। वर्तमान युग में भी मानव इन गुणों से प्रभावित रहता है और मधु-कैटभ, महिषासुर औऱ शुंभ-निशुंभ जैसी दावनी प्रवृत्तियां अपना असर दिखाती रहती हैं। इसलिए, सुखप्रद शक्तियों को जागृत करने के लिए महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती के रूप में शक्ति की यौगिक साधना का बड़ा महत्व है।

योगशास्त्र में कहा गया है कि जीव सुषुप्ति, स्वप्न और जागृति को लेकर बना है। सुषुप्ति यानी मूर्छा या मधुकैटभ। यह चेतना की निष्क्रिय अवस्था है। योगी कहते हैं कि मधुकैटभ रूपी आसुरी प्रवृत्तियां ही जीव की चेतना को मोह के अंधकार में डालकर सुषुप्त बनाती है। तब शक्ति जीव को सुषुप्ति की अवस्था से बाहर निकालने के लिए महाकाली के रूप में शक्ति मधु-कैटभ रूपी आसुरी प्रवृत्तियों का संहार करती है। इस तरह जीवन जग जाता है। अब दूसरा अध्याय शुरू होता है। मोह से निकला जीव जब कर्म में जुटता है तो फिर उसे आसुरी शक्ति घेर लेती है। महिषासुर कर्मशील जीव को पथभ्रष्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़ता। उसे सफलता भी मिल जाती है, जब जीव अहंकार से भर जाता है। ऐसे में माता दुर्गा के रूप में शक्ति महिषासुर का संहार करती है। तब जीव अहंकार से मुक्त हो कर संसार का सम्यक् भोग करने लगता है।

पर शुंभ-निशुंभ के रूप में आसुरी शक्तियां फिर जीवन में दस्तक देती हैं। वे जीव को दूषित आकर्षणों में उलझाती हैं। ऐसे में एक बार फिर रूप बदलकर कात्यायनी, सरस्वती और नंद के रूपों में शक्ति इन आसुरी शक्तियों के संहार का कारण बनती हैं और जीव को मायावी भोगों से छुटकारा दिलाती है। इसके बाद ही जीव आध्यात्मिक उपलब्धियां हासिल कर पाता है। उसे अज्ञानता से मुक्ति मिलती है और आत्मा पूरी तरह स्वतंत्र होकर परम सुख पाने लगती है।

आज के संदर्भ में सहज सवाल उठता है कि शक्ति का आवाह्न किस तरह करें हमारे जीवन से मधु-कैटभ, महिषासुर औऱ शुंभ-निशुंभ जैसी आसुरी प्रवृत्तियों का संहार हो सके? इस सवाल का विश्लेषण से पहले कुछ वेदसम्मत बातें। क्षीरसागर में सहस्त्र फणों वाले शेषनाग के शरीर रुपी शय्या पर शयन करते भगवान विष्णु को सुषुप्ति की अवस्था से बाहर आते ही अकेलापन खलने लगा। मन में भाव आया – “एकोहं बहुस्याम।” यानी एक से अनेक हो जाऊं। तब भगवान विष्णु ने शक्ति का आह्वान किया। तभी उनके नाभि कमल से ब्रह्मा पैदा हो सके थे। यानी सृष्टि का आरंभ आदि शक्ति से हुआ। पुराणों में कथा है कि देव दानवों से पराजित होते गए तो प्रजापति से रक्षा की गुहार लगाई। प्रजापति ने सभी तैंतीस कोटि देवताओं की सभा करके उनसे अपनी शक्ति व तेज का एक अंश देने को कहा। ये शक्तियां महाशक्ति बन गईं और तेज सूर्य से भी ज्यादा बलवान। इससे ही शक्तिस्वरूपा दुर्गा की उत्पत्ति हुई। उन्होंने आसुरी शक्तियों का संहार किया।

मार्कडेय पुराण की देवी सप्तशती में श्लोक है – “या देवी सर्व भूतेषु, शक्ति रूपेण संस्थिता। नमस्‍तस्‍यै नमस्‍तस्‍यै नमस्‍तस्‍यै नमो नम:।” यानी देवी दुर्गा, जो सभी जीवों में ऊर्जा के रूप में मौजूद हैं और सभी जीवों का कल्याण करने वाली हैं, उन्हें बारंबार नमस्कार है। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि शक्ति, जिसे देवी, भगवती या और कुछ भी कहा जाए, के तीन स्वरूप होते हैं – हितकारी, विनाशकारी औऱ सृजनकारी। अब हमारी आराधना के तरीकों पर निर्भर है कि उनसे शक्ति या देवी के कौन-से स्वरूप जागृत हो जाएंगे। इसी संदर्भ में एक कथा है। देवी पार्वती ने भगवान शिव से पूछ लिया कि विभिन्न देवताओं के लिए कौन-सी साधना अभीष्ट है? जबाव में शिवजी ने अनेक मार्ग बतलाए और कहा – “किसी भी मार्ग से लक्ष्य तक पहुंच सकती हो।“ पर वर्तमान युग में आम आदमी के लिए मार्ग का चयन करना क्या आसान है? स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि देवी को शाक्य तंत्र के अंतर्गत माना जाता है और तंत्र के अंतर्गत सभी पूजाओं का वर्गीकरण किया हुआ है। मंत्र, क्रिया औऱ उपचार के पहलुओं को विशुद्ध होना चाहिए। इसलिए कि ये प्रक्रियाएं मस्तिष्क, भावना औऱ चित्त को प्रभावित करती हैं। फास्ट फूड की तरह फल मिलने लगता है। पर थोड़ी भी लापरवाही से चित्त पर नकारात्मक प्रभाव होता है।

नवरात्रि के समय में दुर्गा सप्तशती का पाठ किया जाता है। दुर्गा सप्तशती में हर उद्देश्य की पूर्ति के लिए विशेष और प्रभावी मंत्र दिए गए हैं। “देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम्। रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि” जैसा मंत्र आरोग्य एवं सौभाग्य की प्राप्ति के लिए है तो कल्याण, रक्षा, रोश नाशक और रक्षा के लिए भी मंत्र है। मंत्र चेतना की गहराइयों से प्रस्फुटित होते हैं। उसमें इतनी शक्ति है कि उसका सूत्र पकड़ कर चेतना के मूल स्रोत तक पहुंचा जा सकता है। जिस तरह प्रत्येक विचार से एक रूप जुड़ा होता है, उसी प्रकार प्रत्येक रूप से एक नाद या ध्वनि जुड़ी होती है। शास्त्रों में कहा गया है कि नाद सृष्टि का प्रथम व्यक्त रूप है और ऊं शाश्वत आद्य मंत्र है। मंत्र निर्विवाद रूप से ध्वनि विज्ञान है।

कोरोना महामारी का असर फिलहाल कम जरूर है। पर उसकी मार उनलोगों पर भी है, जो संक्रमित नहीं हुए थे। नतीजतन, मानसिक बीमारियों का असर हर तरफ दिखता है। ऐसे में नवरात्रि के दौरान आदि शक्ति की मंत्रो से आराधना का मानसिक स्तर पर व्यापक असर होना है। स्पेन के वैज्ञानिको ने बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य परमहंस निरंजनानंद सरस्वती के मार्ग-दर्शन में मंत्रों के प्रभाव पर अध्ययन किया था। उसके प्रभाव चौंकाने वाले थे। अनेक उत्तेजित लोगों की उत्तेजना शांत हो गई थी, सजगता का विकास हुआ और चेतना का विस्तार हुआ। यह तो एक उदाहरण है। देश-विदेश में कम से कम दो सौ से ज्यादा वैज्ञानिक अध्ययनों से मंत्रों के प्रभावों का पता लगाया जा चुका है। आइए, हम सब भी मंत्र-शक्ति के सहारे नवदुर्गा का आशीष लें और नकारात्मक शक्तियों से मुक्ति पाएँ।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

: News & Archives