कोविड से उत्पन्न संकट और योग


कुमार कृष्णन
कोविड-19 महामारी से उत्पन्न संकट बहुत बड़ा है और इसके वर्तमान प्रकोप से जनता में तनाव और चिंता बढ़ गई है। कोविड-19 न केवल लोगों के शारीरिक स्वास्थ्य को प्रभावित कर रहा है बल्कि रोगियों और उनके परिवार के सदस्यों के मनोवैज्ञानिक या मानसिक स्वास्थ्य को भी प्रभावित कर रहा है। आॅन लाइन क्लासेस का अलग असर बच्चों के बीच देखने को मिल रहे हैं।
रिपोर्टों के अनुसार, कोविड-19 रोगियों के मनोवैज्ञानिक संकट को अक्सर नजरअंदाज किया जाता है और इसका समाधान नहीं किया जाता है। कोविड देखभाल अस्पतालों में चिंता और तीव्र अवसाद के बाद आत्महत्या की भी रिपोर्ट प्राप्त हुई हैं। विभिन्न देशों से प्राप्त समाचारों के अनुसार, कई रोगियों को पृथकवास की चिंता और लक्षणों के बिगड़ने के डर से बड़े संकट का सामना करना पड़ा है। श्वसन संकट, हाइपोक्सिया, थकान और अनिद्रा और अन्य लक्षणों जैसी जटिलताओं को भी देखा गया है।
योग के परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती का मानना है आनेवाले पांच वर्षों के दौरान मानसिक रोगियों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी होगी। यह काफी चुनौतिपूर्ण होगा। करोना से ठीक होने के बाद लोगों में मस्तिष्क विकृतियां उत्पन्न हो रही है। इसमें मनोवृत्ति व याददाश्त कमजोर होने की संभावना बनी रहती है। कोरोना के बाद इंसेफ लाइटिस की समस्या भी काफी देखी गई है। कोरोना से ठीक हुए मरीजों के दिमाग में सूजन आ जाती है। साथ ही खून के थक्के जमने की शिकायत भी देखने को मिल रही है। वर्तमान में कोरोना मरीजों के 30 से 35 प्रतिशत में नर्वस सिस्टम संबंधी लक्षण देखने को मिल रहे हैं।
करोना के बाद दिमाग में ब्लड क्लोटिंग होने और इससे स्ट्रोक भी समस्या कई कोरोना के मरीजों में देखने को मिल रही है।शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली नसों पर हमला करती है, इससे कमजोरी, सुन्नपन, झनझनाहट और पैरालाइसिस का खतरा बढ़ जाता है। कोरोना से ठीक हुए मरीजों में कई तरह के साइड इफेक्ट देखे जा रहे हैं। जिन पर शोध भी किया जा रहा है। कोरोना संक्रमण को मात दे चुके 40 प्रतिशत लोग अब अनिंद्रा की समस्या से जूझ रहे हैं। अनिद्रा की समस्या उम्रदराज लोगों के साथ ही युवाओं में भी नजर आ रही है। कुछ लोगों को समय पर नींद नहीं आ रही है तो कुछ लोगों की नींद सोने के थोड़ी देर बाद ही बाद ही खुल जाती है, वहीं कुछ लोगों की नींद सुबह जल्दी खुल जाती है। अनिद्रा की समस्या से जूझ रहे लोग अब मनोरोग विशेषज्ञों की मदद ले रहे हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि यदि समय रहते अनिद्रा की समस्या का निदान नहीं किया जाए तो न केवल सिरदर्द, चिड़चिड़ापन, कब्ज जैसी ही समस्याएं हो जाती हैं। कई लोगों में हाइपरटेंशन, कार्डियक डिसआर्डर, चयापचय तंत्र और रोग प्रतिरोधक क्षमता बिगड़ने संबंधी समस्याएं भी हो सकती हैं।
योग के हस्तक्षेप ने कोविड-19 रोगियों को ठीक करने में सहायता प्रदान की है। श्वांस लेने के सरल प्राणायाम को महामारी के लक्षण वाले रोगियों और श्वसन संकट वाले लोगों में एसपीओ 2 के स्तर को बढ़ाने के लिए सहायक के रूप में देखा गया है।
परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती के अनुसार योग में जिस भुजंगासन का अभ्यास कराया जाता है।करोनाकाल में चिकित्सकों ने श्वसनतंत्र को ठीक करने के लिए चिकित्सकीय परामर्श दिए।उसका काफी लाभ मिला। दरअसल में भुजंगासन से करने से छाती वाला हिस्सा खुलता है और फेफड़ों की कार्यक्षमता बढ़ती है।आप देखें तो पूरे करोनाकाल में योग ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।अब चिकित्सा के क्षेत्र में योग के एक एक आसनों पर पर शोध हो रहे हैं। बिहार योग पद्धति यानी सत्यानंद योग पद्धति का स्वरूप बहुत विस्तृत है और इसकी पहुंच बहुत गहरी है।योगनिद्रा और प्राणायाम,सत्यानंद योग पद्धति के अभिन्न अंग हैं। आज पूरे विश्व में करोड़ों लोग डिप्रेशन की बीमारी से जूझ रहे हैं। डिप्रेशन के चलते युवाओं खुदकुशी की प्रवृति बढ़ी है। योग उन बीमारियों का सीधा उपचार करता है जिसका मूल कारण तो मनोवैज्ञानिक होता है, लेकिन शरीर सीधा कुप्रभाव पड़ता है। सत्यानंद योग में उदर श्वसन प्रक्रिया है। सोने से पहले और नींद से उठने के तुरंत बाद उदर श्वसन दस मिनट किया जा सकता है। श्वांस की गति तेज हो तो इसे अपनाया जा सकता है। भ्रामरी प्राणायाम, जिसमें कंठ से भौरे जैसा गुंजन पैदा किया जाता है। भ्रामरी प्राणायाम के अभ्यास से मस्तिष्क में एक प्रकार की तरंग उत्पन्न होती है जिससे मस्तिष्क, स्नायविक तंत्र और अंत:स्रावी तंत्र के विक्षेप दूर होते हैं और व्यक्ति शांति व संतोष का अनुभव करता है। अनिद्रा की शिकायत दूर होती है।यह डिप्रेशन को दूर करने में कारगर है।परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती बताते हैं कि इस प्राणायाम के अभ्यास से नाइट्रिक ऑक्साइड उत्पन्न होता है, जो अनिद्रा को दूर करने में सहायक होता है।वैज्ञानिकों ने तो अब इसका स्प्रे भी तैयार कर लिया है। हमारे ऋषि और मनीषियों ने काफी पहले से अपनाया।नाइट्रिक ऑक्साइड संक्रमण के दौरान फेफड़ों के उच्च दबाव को नियंत्रित करने में बहुत उपयोगी है। नाइट्रिक ऑक्साइड शरीर में वायरस के प्रसार को 82% तक कम कर देता है।
पारंपरिक यौगिक प्राणायाम, भ्रामरी,उज्जयी और नाड़ीशोधन प्राणायाम का स्नायु तंत्र पर सीधा प्रभाव पड़ता है। आज वैज्ञानिक भी जान गए हैं कि दाएं और बांए नासिका छिद्र से श्वांस लेने -छोड़ने से दिमाग के दोनो गोलार्द्धों में सामंजस्य स्थापित कर सकते हैं। मानसिक रूप से विक्षिप्त लोगों को बहुत लाभ पहुंचता है।कोविड काल में आॅनलाईन क्लास के चलन से नुकसान हो रहा है।
ऑनलाइन क्लास के कारण घंटो मोबाइल या लैपटॉप का उपयोग करते है जिसकी बजह से उनकी आँखों और स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है। ज्यादा उपयोग से कम उम्र में ही उनको चश्मे लगवाने पड़ते है और बच्चो में कम उम्र में ही दर्द की समस्या देखने को मिलती है।
योग बच्चो के तनाव,शारीरिक अंगों को सुचारू बनाने में प्रभावी भूमिका अदा करता है।योगनिद्रा काफी अभ्यास है।अनिद्रा तथा तनाव की स्थिति में काफी कारगर है।
हाल में वैज्ञानिकों ने कहा धर्म आस्था है तो आध्यात्म साकारात्मकता की खोज करना। योग जीवन में सकारात्मकता लाने का सशक्त माध्यम है।योग एक समग्र पद्धति है,जो शरीर,प्राण और मन में सामंजस्य की स्थिति पैदा करता है।
(योग के परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती से बातचीत पर आधारित)

महर्षि पतंजलि और योग की पराकाष्ठा

पातंजल योग सहित राजयोग मन का विज्ञान माना जाता है। यह मनुष्य के व्यक्तित्व के भीतरी पक्षों की खोजबीन कर अंतर्निहित ज्ञान और ऊर्जा का उद्घाटन करता है। यह मानसिक अनुशासन का विज्ञान है, जिसमें मन को एकाग्र करने की अनेक विधियां हैं। महर्षि पतंजलि स्वयं अपनी योग पद्धति को मन की वृत्तियों के निरोध का विज्ञान कहते हैं। पर स्वामी सत्यानंद सरस्वती के मुताबिक, उनकी पद्धति सांख्य दर्शन और बौद्ध दर्शन से भिन्न दिखती है। वे भक्तियोग के मार्ग पर चलने वालों के लिए ईश्वर की अवधारणा को साधना के एक शक्तिशाली माध्यम के रूप में प्रस्तुत करते हैं।

संत कबीर ने ठीक ही कहा था, चिंता से चतुराई घटे, दुःख से घटे शरीर। पर कोरोनाकाल में संकट इतना गहरा है कि मनुष्य में चिंता के कारण रोग, प्रमाद, मंदता, संशय जैसे विकारों की श्रृंखला लंबी होती जा रही है। ऐसे में अशांति और अवसाद को आश्रय मिलना लाजिमी ही है। योगशास्त्र में मानसिक अशांति के लक्षण और उससे निजात पाने के उपायों पर व्यापक चर्चा है। आधुनिक विज्ञान भी मानता है कि ऐसे विकारों का मुक्तिदाता योग ही है।

श्रीमद्भगवतगीता का महल तो अर्जुन के विषाद की बुनियाद पर ही खड़ा है। पर कोरोनाकाल में आम लोगों का विषाद और उसके परिणाम अलग हैं। इस विषाद, इसके परिणाम और इससे मुक्ति के उपायों पर महर्षि पतंजलि का काम अद्वितीय है। उन्होंने अपने योगसूत्रों के जरिए गागर में सागर भर दिया है। वे कहते है कि रोग, निर्जीवता, संशय (संदेह), प्रमाद, आलस्य, विषयासक्ति, भांति, दुर्बलता और अस्थिरता वे हैं, जो मन में विक्षेप लाती हैं। आधुनिक विज्ञान भी मानता है कि विक्षेप से हमारी आंतरिक ऊर्जा का लयात्मक ढंग बदल जाता है और बेचैनी शुरू हो जाती है। बेचैनी लगातार बनी रहे तो नाना प्रकार के शारीरिक व मानसिक रोग प्रकट होते हैं।  

महर्षि पतंजलि इस स्थिति से उबरने के लिए जो तीन सूत्र देते हैं, वे मन के प्रबंधन के लिए यौगिक उपायों की बुनियाद बनते हैं। इनमें पहला सूत्र है – अथ योगानुसाशनम्। यानी योग एक व्यवस्था है, अनुशासन है और इसका आधार है – यम और नियम। यम से उनका अभिप्राय स्वयं के जीवन को सम्यक दिशा देने से है। इसे आत्म—संयम भी कह सकते हैं। सच है कि यदि हमने अपने जीवन की शुरूआत इस तरह कर दी, जो विपरीत दिशाओं में गति करती हो, तो बात बिगड़ेगी ही। इसी तरह जीवन में सुनिश्चित नियमन न रहे तो भी बात बिगड़ेगी। इसलिए नियमन जरूरी है। जैसे, सत्य का धारण करते हुए सत्कर्मों से जो भी फल मिले उसी से संतोष रहना। ताकि जीवन खुशनुमा हो जाए। यह पांच नियमों में से दो नियम के सार हैं। तभी योगी कहते हैं कि बच्चों को यम-नियम के साथ ही योग शिक्षा दी जानी चाहिए। इससे बच्चों के जीवन में नया विहान होगा और जग सुधरेगा।

महर्षि पतंजलि ने एक सूत्र के जरिए इस बात को ज्यादा स्पष्ट किया है। मसलन, योगानुशासन का परिणाम क्या होना है। इसके प्रत्युत्तर में  वे कहते हैं – योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:। यानी चित्तवृत्तियों का निरोध होगा। जब हम सिनेमा घर में फिल्म देख रहे होते हैं तो पर्दे पर प्रेक्षेपित चलचित्र मन मोह लेता है। जहां स्क्रीन के सिवा कुछ भी नहीं है, वहां सब कुछ घटित होता दिखता है। हालात ऐसे बनते हैं कि हम अपने आप को कुछ घंटों के लिए भूल जाते हैं। अलग ही दुनिया में जीने लगते हैं। ओशो कहते हैं कि जो कुछ सिनेमा घर में घटित हो रहा होता है, मनुष्य के भीतर भी यही होता है। एक प्रक्षेप-यंत्र मनुष्य के मन की पा‌र्श्व-भूमि में है, जिसे अचेतन कहते हैं। इस अचेतन में संग्रहीत वृत्तियां, वासनाएं, संस्कार चित्त के परदे पर प्रक्षेपित होते रहते हैं। यह चित्त-वृत्तियों का प्रवाह प्रतिक्षण बिना विराम चलता रहता है। चेतना दर्शक है, साक्षी है। वह इस वृत्ति-चित्रों के प्रवाह में अपने को भूल जाती है। यह विस्मरण अज्ञान है। इस अज्ञान से जागना चित्त-वृत्तियों के निरोध है।

सवाल फिर भी रह जाता है कि चित्तवृत्तियों का निरोध होने से क्या होगा? तब महर्षि पतंजलि सूत्र देते हैं – तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्। यानी चित्तवृत्तियों का निरोध होते ही सिनेमा हॉल में फिल्म खत्म होने के बाद जो भ्रम टूटा था और स्वयं के होने का अहसास हुआ था, वैसे ही जीवन से भ्रांतियां दूर होंगी। योग सध जाएगा। आत्म-साक्षात्कार होगा। स्वंय को जान पाएंगे। महर्षि पतंजलि ने इस स्थिति को ही योग कहा है। हालांकि इसमें दो मत नहीं कि मौजूदा समय में संकटग्रस्त लोगों का लक्ष्य योग-साधना का उच्चतर परिणाम पाना शायद ही होगा। पर शरीरिक व मानसिक स्वास्थ्य के लिए चित्तवृत्तियों के निरोध की दिशा में थोड़े यौगिक उपाय भी बड़े काम के साबित हो सकते हैं। चिंता या तनाव से मुक्ति पाने की राह आसान हो जाएगी। फिर तो नकारात्मक चिंता सकारात्मक चिंता में बदल जाएगी। तब हम चिंता नहीं, चिंतन भी नहीं, बल्कि मनन करने लगेंगे। ऐसे में जाहिर है कि हमारे ईर्द-गिर्द ही उपलब्ध उपाय घुप्प अंधेरे में दीपक बनकर मार्ग प्रशस्त कर देंगे।

योग में तनावों से मुक्ति की व्यापक संभावनाएं विद्यमान हैं। योगशास्त्र की मान्यता है कि सभी बीमारियों की जड़ें शरीर और मन में होती हैं। इसलिए किसी बीमारी का यौगिक उपचार करना हो तो योगी हठयोग और राजयोग की विधियां बतलाते हैं। महर्षि पतंजलि ने आसन और प्राणायाम उतना ही बतलाया, जिससे सजगता का विकास करके मन को एकाग्र करने में मदद मिले। उनका कहना है कि आसन ऐसा हो कि शरीर को सुख मिले, आराम मिले। तभी उन्होने कहा – स्‍थिरसुखमासनम्। यानी स्‍थिर और सुखपूर्वक बैठना आसन है। और प्राणायाम? वे कहते हैं – प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य। यानी रेचक और कुंभक के द्वारा मन को नियंत्रित किया जा सकता है। इसे ही हम नाड़ी शोधन प्राणायाम के रूप में जानते हैं। शरीर को ऊर्जावान बनाने और उसे संतुलित रखने में इस योग विधि की बड़ी भूमिका है। शारीरिक व्याधियों को दूर करने से लेकर आध्यात्मिक चेतना के विकास तक में यह बड़े महत्व का होता है।

योगवशिष्ठ में उल्लेख है कि वशिष्ठ मुनि श्रीराम को पूरक, कुंभक और रेचक को विस्तार से बताते हुए कहते हैं कि यह जो प्राणायाम है, ओंकार के उच्चारण के साथ परम कल्याणकारी है। आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर भी नाड़ी शोधन प्राणायाम की महत्ता बार-बार सिद्ध की जाती रही है। हमारे शरीर में मुख्यत: तीन नाड़ियां होती हैं – इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना। सुषुम्ना तो सुषुप्त नाड़ी है। इसे योगी योगबल से जागृत करते हैं। पर बाकी दो नाड़ियों में प्राण ऊर्जा के प्रवाह में बाधा आती है तो शारीरिक बीमारियां प्रकट होती हैं। मनोऊर्जा के प्रवाह में बाधा आती है तो मानसिक व्याधियां उत्पन्न होती हैं। इसलिए कि इन बाधाओं का असर शरीर की अन्य नाड़ियों पर भी होता है। जाहिर है कि शारीरिक व मानसिक व्याधियों के लिहाज से नाड़ी शोधन प्राणायाम बड़े महत्व का है। कोरोनाकाल में सुखासन और नाड़ी शोधन प्राणायाम जैसे चंद यौगिक क्रियाओं के अभ्यास से भी हमारी शारीरिक व मानसिक स्थिति ऐसी बनी रह सकती है कि हम किसी भी समस्या का मुकाबल धैर्य और विवेक के साथ कर सकें।  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

ब्रह्म-विद्या और योग शास्त्र-सिद्धांत दोनों ही है श्रीमद्भगवत गीता

तमिलनाडु के त्रिचि में मशहूर रामकृष्ण तपोवनम् आश्रम और विभिन्न शैक्षणिक संस्थाओं के संस्थापक रहे स्वामी चिद्भवानंद जी ने जीवन पर्यंत स्वामी विवेकानंद से प्रेरित होकर जितने श्रेष्ठ कार्य किए, उनसे दुनिया के कोने-कोने में लोगों को प्रेरणा मिली। वे तमिलनाडु के कोयम्बटूर जिले में सन् 1898 में जन्मे थे और सन् 1985 में अपना भौतिक शरीर त्याग दिया था। उन्होंने अपने जीवन-काल में वैसे तो 186 आध्यात्मिक पुस्तकें लिखीं। पर श्रीमद्भगवत गीता पर उनके कार्य उल्लेखनीय हैं।

युवाओं और विद्यार्थियों के लिए श्रीमद्भगवद् गीता की महत्ता के बारे में तो हमारे वैज्ञानिक संत सदियों से बतलाते रहे हैं। आधुनिक युग में विज्ञान भी विभिन्न प्रयोगों के जरिए इस निष्कर्ष पर है कि तेजी से अवसाद के शिकंजे में फंसती युवापीढ़ी को श्रीमद्भगवद् गीता का ज्ञान ही उस भंवर से निकालने में सक्षम है। ऐसे में दक्षिण के महान आध्यात्मिक नेता स्वामी चिद्भवानंद जी का युवाओं को ध्यान में रखकर लिखा गया श्रीमद्भगवद् गीता का भाष्य समयानुकूल है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इस भाष्य के किंडल संस्करण का लोकापर्ण करते हुए ठीक ही कहा कि महाभारतकालीन स्थितियां और परिस्थितियां भले भिन्न थीं। पर परिणाम एक जैसे हैं। मानवता संघर्षों और चुनौतियों का सामना कर रही है। ऐसे समय में श्रीमद्भगवद् गीता में दिखाया गया मार्ग प्रासंगिक हो जाता है।

तमिलनाडु के त्रिचि जिले में मशहूर रामकृष्ण तपोवनम् आश्रम और विभिन्न शैक्षणिक संस्थाओं के संस्थापक रहे स्वामी चिद्भवानंद जी ने जीवन पर्यंत स्वामी विवेकानंद से प्रेरित होकर जितने श्रेष्ठ कार्य किए, उनसे दुनिया के कोने-कोने में लोगों को प्रेरणा मिली। वे तमिलनाडु के कोयम्बटूर जिले में सन् 1898 में जन्मे थे और सन् 1985 में अपना भौतिक शरीर त्याग दिया था। कर्मयोगी थे। अपने गुरू स्वामी शिवानंद की प्रेरणा से तमिलों को वैदिक ज्ञान से अवगत कराने और राज्य के गरीब बच्चों की शिक्षा के लिए अतुलनीय कार्य किया था। तमिलनाडु में आज भी उनके 18 आश्रमों के जरिए 80 शिक्षण संस्थानों का संचालन किया जाता है। उन्होंने अपने जीवन-काल में वैसे तो 186 आध्यात्मिक पुस्तकें लिखीं। पर श्रीमद्भगवत गीता पर उनके कार्य उल्लेखनीय हैं। उन्होंने अलग-अलग परिस्थितियों और अलग-अलग उम्र के लोगों को ध्यान में रखकर श्रीमद्भगवत गीता का बेहद शक्तिशाली भाष्य लिखा।

किंडल फार्मेट में जारी किए गए श्रीमद्भगवत गीता में बड़े ही सुंदर तरीके से समझाया है कि जब जीवन का पथ काले घने बादलों से अदृश्य-सा प्रतीत हो रहा होता है तब भी जीवन में नई ऊर्जा के संचार के तत्व मौजूद होते हैं और उन्हें आत्मसात करके भवसागर को पार किया जा सकता है। श्रीमद्भगवत गीता के आलोक में उनकी यह बात संदेह से परे है। कल्पना कीजिए यदि अर्जुन को रणभूमि में विषाद न हुआ होता तो शक्तिशाली गीता का ज्ञान मिला होता, जो उसे ही नहीं, बल्कि सदियों से मानव जाति की प्रेरणा का स्रोत बना हुआ है। सच कहिए तो श्रीमद्भगवत गीता ब्रह्म-विद्या और योग शास्त्र-सिद्धांत दोनों ही है। यह महज ग्रंथ नहीं, बल्कि मनुष्य के नित्य जीवन को व्यवस्थित करने वाला पथ-प्रदर्शिका है। इसका मार्ग सरल है। हर उम्र, हर वर्ग के लोगों के लिए सहज ग्राह्य है। इसलिए इससे प्रेरणा लेकर कर्मयोग के जरिए चित्त-शुद्धि का द्वार खोला जाना चाहिए। जीवन के सारे बंद दरवाजे स्वत: खुलने लगेंगे।

पश्चिमी दुनिया में योग के पितामह माने जाने वाले परमहंस योगानंद ने कोई एक सौ साल पहले आज जैसी परिस्थितियों के शिकार युवाओं को संबोधित करते हुए साफ-साफ कहा था कि विकल्प नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति को कुरूक्षेत्र की अपनी लड़ाई स्वयं लड़नी है। यह युद्ध मात्र जीतने के योग्य ही नहीं, अपितु विश्व के दिव्य नियम और आत्मा व परमात्मा के शाश्वत संबंध में है। यह एक ऐसा युद्ध है, जिसे कभी तो जीतना ही होगा। श्रीमदभगवत् गीता में इस जीत की शीघ्रतम प्राप्ति उस भक्त के लिए सुनिश्चित की गई है जो बिना हतोत्साहित हुए ध्यान-योग के दिव्य विज्ञान के अभ्यास द्वारा परमात्मा के भीतरी ज्ञान-गीत को अर्जुन की भांति सुनना सीखता है।

पर मन में उपद्रव है तो स्थितप्रज्ञ कैसे हुआ जा सकता है? और यदि ऐसी स्थिति पाना संभव न हो तो धारणा और ध्यान का अभ्यास कैसे फलित होगा? इस संदर्भ में प्रश्नोपनिषद् का एक प्रसंग ध्यान देने योग्य है। कात्यायन ऋषि के प्रपौत्र कबंधी महर्षि पिप्पलाद के समक्ष इस विश्वास के साथ गए थे कि वे उनके मार्ग की तमाम बाधाएं दूर कर देंगे। पर उन्होंने महर्षि पतंजलि की भाषा में कहें तो पहले यम और नियम का पालन करने का आदेश देते हुए कहा कि इसके बिना उनके सवाल का जबाव नहीं मिल पाएगा। परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने इस बात को बड़े ही सुंदर तरीके से समझाया है। वे कहते हैं कि यम – नियम योग का आधार है और कर्मयोग गीता का महान संदेश। विक्षिप्त और बिखरावपूर्ण मानसिकता को कर्मयोग के अभ्यास के जरिए ही अवक्रमित किया जा सकता है। पर इसके पहले हमें अपनी ऊर्जा को संतुलित करना होगा। अपनी इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं को व्यवस्थित करना होगा। साथ ही अपने ऊपर थोड़ा संयम का अंकुश रखना होगा। ऐसी स्थितियों को प्राप्त करना यम-नियम का पालन करके ही संभव है। कर्मयोग भी तभी फलित होगा।

यह निर्विवाद है कि कर्मयोग जीवन पद्धति बन जाने पर आदमी बहुत हद तक सुख-दु:ख में समभाव बना रहता है। इससे चेतना का बेहतर विकास होता है। यदि संस्कारों का क्षय हुआ तो चमत्कार भी हो जाता है। इसे इस तरह समझिए। चैतन्य महाप्रभु दक्षिण में तीर्थ-यात्रा पर थे तो देखा कि एक आदमी गीता पढ़ रहा है और पास ही बैठा एक आदमी रोए जा रहा है। उन्होंने रोते हुए व्यक्ति से पूछा,” रो क्यों रहे हो?” उस व्यक्ति ने जो उत्तर दिया, वह असामान्य था, आंखें खोलने वाला था। उसने कहा, “यह दु:ख के नहीं, सुख के आंसू हैं। मैं देख रहा हूं कि अर्जुन का रथ है। उसके सामने भगवान और अर्जुन खड़े हुए बात कर रहे हैं। भगवान का साक्षात दर्शन हो रहा है।“ शायद इसलिए आध्यात्मिक गुरू कहते रहे हैं कि गीता केवल किताब से नहीं पढ़ी जाती। आसक्ति दूर होने और श्रद्धा की प्रबलता होने पर मन के पार किए गए इशारे, उसके वास्तविक आशय समझ में आने लगते हैं।

स्वामी चिद्भवानंद जी के भाष्य में भी संकटकाल में जीवन में नई ऊर्जा के संचार के लिए कोई न कोई तत्व भी मौजूद रहने की बात का आशय भी योग की इन विधियों को अपना कर भवसागर को पार करने से ही है। उनके भाष्य में अनियंत्रित मन के कुप्रभावों और मन का स्वामी बनने के सरल उपाय सुझाए गए हैं। उस पुस्तक पर मनन और तदनुरूप कर्म अवसादग्रस्त युवाओं खासतौर से विद्यार्थियों का जीवन बदल देने में सक्षम है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

गुरू का स्पर्श मिलते ही चिकित्सक बन गया कर्मयोगी

आस्ट्रेलिया के न्यू साउथ वेल्स विश्व विद्यालय से चिकित्सा विज्ञान में डाक्टरेट की उपाधि हासिल करने वाले डॉ स्वामी शंकरदेव सरस्वती कम उम्र में ही दमा के रोगी हो गए थे। बाद में मधुमेह ने भी आ घेरा। खुद के इलाज से बात न बनी तो दुनिया के बड़े-बड़े चिकित्सकों से संपर्क साधा। मगर फिर भी बात न बनी। इसी क्रम में आस्ट्रेलिया में ही भारत के योगी स्वामी सत्यानंद सरस्वती से मुलाकात हो गई। फिर तो उन्हें ऐसे यौगिक मंत्र मिले कि ध्यान की अवस्था में दिख गया कि बीमारी की वजह क्या है? उसका यौगिक समाधान करते ही बीमारियां जड़ से समाप्त हो गईं थीं।

कोरोनाकाल में मधुमेह, उच्च रक्तचाप और दमा जैसी बीमारियां घातक साबित हुई हैं। भारत में कोविड-19 से बचाव के लिए टीकाकरण अभियान का श्रीगणेश हो चुका है। बावजूद सबको पता है कि जानलेवा संक्रमण से पूरी तरह मुक्ति मिलने में समय लगेगा। इसलिए दमा-मधुमेह के मरीज नाना प्रकार की आशंकाओं से घिरे रहते हैं और यह स्वाभाविक भी है। पर आस्ट्रेलिया के चिकित्सक से योगी बने डा.शंकरदेव सरस्वती की कहानी से निश्चित ही बेहतर राह मिलेगी और नई आशा का संचार होगा। 

आस्ट्रेलिया के न्यू साउथ वेल्स विश्व विद्यालय से चिकित्सा विज्ञान में डाक्टरेट की उपाधि हासिल करने वाले डॉ स्वामी शंकरदेव सरस्वती कम उम्र में ही दमा के रोगी हो गए थे। बाद में मधुमेह ने भी आ घेरा। खुद के इलाज से बात न बनी तो दुनिया के बड़े-बड़े चिकित्सकों से संपर्क साधा। मगर फिर भी बात न बनी। इसी क्रम में आस्ट्रेलिया में ही भारत के योगी स्वामी सत्यानंद सरस्वती से मुलाकात हो गई। फिर तो उन्हें ऐसे यौगिक मंत्र मिले कि ध्यान की अवस्था में दिख गया कि बीमारी की वजह क्या है? उसका यौगिक समाधान करते ही बीमारियां जड़ से समाप्त हो गईं थीं।

इस घटना से उनके जीवन में ऐसा मोड़ आया और योग के प्रति ऐसा अनुराग हुआ स्वामी सत्यानंद सरस्वती के शिष्य बन बैठे। इसके बाद अपने गुरू के निर्देशन में मानव शरीर पर योग के प्रभावों पर शोध-कार्यों में इतने तल्लीन हुए कि मुंगेर में ही दस साल कैसे बीत गए, पता ही नहीं चला था। भारत की योग-शक्ति का ही कमाल है कि डा. स्वामी शंकरदेव जैसे अनेक उदाहरण मिलते हैं। अमेरिकी लेखक औऱ पत्रकार पॉल ब्रंटन की कहानी भी कुछ ऐसी ही हैं। वे तो “जादू-टोने के देश” के मामले में पश्चिमी दुनिया के नजरिए को पुष्ट करना चाहते थे। पर रमण महर्षि से आंखें मिलीं तो उनके ही होकर रह गए थे।

खैर, डॉ स्वामी शंकरदेव सरस्वती को दमा के कारण फेफड़ों औऱ कंठ में काफी तकलीफ रहती थी। श्वसन-क्रिया अवरूद्ध होने जैसी स्थिति उत्पन्न होने लगी तो चिकित्सकों ने टॉंसिल और एडिनॉइड ग्रंथियां तक निकाल दी। पर बात न बनी थी। दुनिया के कुछ बड़े चिकित्सक इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि एलर्जी उनके दमा की मुख्य वजह है। इसका इलाज भी बेकार गया। इस बीच डॉ शंकरदेव की शारीरिक दुर्बलत बढ़ती गई और विषादग्रस्त हो गए। योगोपचार के लिए बिहार योग विद्याय पहुंचे तो स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने उन्हें सबसे पहले ध्यान साधान में लगा दिया। आधुनिक युग के वैज्ञानिक योगी के निर्देशन में ध्यान लगा तो अंतर्रात्मा से एक ऐसी सच्ची दास्तां निकल कर बाहर आई, जो उनके बचपन में वास्तव में घटी थी। उन्होंने गुरूजी से सारी बातें साझा की तो पता चला कि दमा और बाद में मधुमेह की वजह बचपन की वही घटना थी।

डॉ स्वामी शंकरदेव ने खुद ही अपनी अनेक पुस्तकों में जिक्र किया है – “उनका परिवार आर्थिक रूप से मजबूत नहीं था। माता-पिता को नौकरी करनी होती थी और उनका पालन-पोषण एक मेड करती थी। उन्हें जो भोजन पसंद नहीं होता था, वह उसे जबर्दस्ती खिलाती थी। इस क्रम में मारती-पीटती भी थी।“  स्वामी सत्यानंद सरस्वती अपने अनुभवों से इस निष्कर्ष पर पहुंचे हुए थे कि मानसिक आघात अचेतन भावों को जन्म देते हैं और भविष्य में व्यवहार को प्रेरित करते हैं। नकारात्मक विचार मानसिक तनाव बढ़ाते हैं। ये स्थितियां भी लंबे समय में दमा, मधुमेह और उच्च रक्तचाप जैसी बीमारियों को जन्म देती हैं। इसी अनुभव के आधार पर डॉ शंकरदेव को दमा और मधुमेह को ध्यान में रखते हुए यौगिक क्रियाएं बतलाई गईं और वे बीते चालीस सालों से स्वस्थ्य जीवन जी रहे हैं और दूसरों के लिए भी स्वस्थ्य जीवन जीने का आधार प्रदान करते रहते हैं।  

डॉ स्वामी शंकरदेव के बचपन की घटना यह समझने के लिहाज से भी महत्वपूर्ण है कि बाल्यावस्था में माता-पिता की कितनी अमहमियत होती है। कनाडा मूल के अमेरिकी मनोवैज्ञानिक डॉ एरिक बर्न की मानव संबधों के मनोविज्ञान पर एक चर्चित पुस्तक है – गेम्स पीपुल प्ले। उसमें भी डॉ स्वामी शंकरदेव जैसी ही कहानी है। एक माता-पिता ने अपनी बेटी पर उसकी इच्छा विरूदध पढ़ाई पढ़ने का दबाव बनाया। फिर सफलता की उम्मीद पालकर बड़े-बड़े सपने संयोए। उधर कुंठित लड़की दमा की मरीज बन गई। माता-पिता को जब तक समझ में बात आई, तब तक लड़की का जीवन तबाह हो चुका था। डॉ एरिक बर्न मनोवैज्ञानिक विश्लेषणों से इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि माता-पिता के इस तरह के व्यवहार से बाल-मस्तिष्क में तनाव उत्पन्न होता है।

पर यदि बच्चे पर किसी प्रकार का दबाव नहीं हो तो उसका प्रतिफल क्या होता है, इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। बिहार योग विद्यालय के निवृत परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती जब छह-सात साल के थे तो मुंगेर आश्रम में रहने के लिए गुरू परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती का बुलावा आ गया था। मुंगेर पहुंचे तो कुछ समय गुजारने के बाद गुरूजी से पूछ लिया, किस तरह की योग साधना करनी है? परमहंस जी ने कहा, विचार करो, करना क्या है? स्वामी निरंजनानंद आश्रम के बुजुर्ग संन्यासियों को आंखें बाद करके जप में तल्लीन देखते थे। पर उनकी रूचि इसमें बिल्कुल नहीं थी। लिहाजा उन्होंने तय किया कि योग के द्वारा अपने जीवन को प्रतिभा से युक्त करेंगे, सही तरीके से, रचनात्मक तरीके से। उन्होंने जैसा चाहा था, कालांतर में वैसा ही परिणाम मिला। गुरूजी ने उन्हें कभी नहीं कहा कि योग के माध्यम से भगवान की तलाश करो, बल्कि उनका व्यवहार इस मामले में उस शिक्षक की तरह रहा, जो निर्धारित पाठ्यक्रम को अपने छात्रों को पढ़ाता भर है। वह तय नहीं करता कि अमुक पुस्तक पढ़नी है और अमुक नहीं।

खैर, डॉ शंकरदेव अपने अनुभव से इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि योगाभ्यास से विकसित सजगता के माध्यम से रोग के लक्षण ही नहीं, रोग को ही सदा के लिए समाप्त किया जा सकता है। उन्होंने योग रिसर्च फाउंडेशन के लिए दमा और मधुमेह पर किए गए वैज्ञानिक अध्ययनों को प्रस्तुत करते हुए मन की अवस्थाओं की बड़ी सुंदर व्याख्या की है। उनके मुताबिक – हमारा शरीर थल जैसा, मन समुद्र जैसा और भावनाएं समुद्री किनारा जैसा है। जब मन रूपी समुद्र अशांत होता है तो किनारे पर चोट करता है और उसे काटकर सागर तल में ले जाता है। दूसरी तरफ, शांत समुद्र के किनारे सुरक्षित रहते हैं। यही बात हमारे मन , हमारी चित्त पर लागू है। शांत चित्त में रोगोपचार की शक्ति रहती है। इसलिए मन को शांत किए बिना कोई भी योगोपचार कारगर नहीं हो पाता। प्रत्याहार की क्रियाओं का महत्व सबसे अधिक इसलिए होता है। प्रत्याहार में योगनिद्रा ऐसी यौगिक क्रिया है कि किसी को सम्मोहित भी किया जा सकता है।

ओशो भी अपने शिष्यों को सजगता के अभ्यास का जादू बताते हुए कहते थे कि इससे किसी को सम्‍मोहित कर दिया जाए और तब पूछा जाए कि एक जनवरी उन्‍नीस सौ पचास में अपने क्‍या किया? तो वह सुबह से सांझ तक का ब्‍यौरा इस तरह बता देगा, जैसे अभी वह एक जनवरी सामने से गुजर रही है। वह यह भी बता देगा कि एक जनवरी को सुबह जो चाय पी थी, उसमे थोड़ी शक्‍कर कम थी। यह भी बता देगा की जिस आदमी ने उसे चाय दी थी, उस आदमी के शरीर से पसीने की बदबू आ रही थी। इतनी छोटी बातें बता देगा कि जो जूता उसने पहना हुआ था, वह उसके पैर काट रहा था। मतलब यह कि सम्मोहन की अवस्‍था में किसी के भी भीतर की स्‍मृति को बाहर लाया जा सकता है।

अब जानते हैं कि डॉ स्वामी शंकरदेव मन की खास अवस्था में पहुंच कर बीमारियों की वजह जान गए थे, बचपन की घटनाओं का दृश्य दिख गया था, तो उनकी दमा और अन्य बीमारियां किन योग विधियों से दूर हो गई थीं। उन्होंने गुरू के निर्देशानुसार शुद्धिकरण की तीन क्रियाएं कुंजल-क्रिया, नेति-क्रिया व शंखप्रक्षालन, आसनों में श्वास की सजगता के साथ शवासन, सूर्य नमस्कार व भुजंगासन, प्राणायामों में नाड़ी शोधन, कुंभक के साथ भस्त्रिका व भ्रामरी और अंत में उज्जायी के साथ जपाजप व योगनिद्रा का अभ्यास किया। ये योग क्रियाएं ही कई मर्ज की दवा बन गईं। दमा और मधुमेह से लेकर उच्च रक्तचाप तक पर विजय प्राप्त हो गया था। डॉ. स्वामी शंकरदेव सरस्वती की दास्तां कोरोनाकाल में भी दमा, मधुमेह और उच्च रक्तचाप के मरीजों के लिए प्रेरक है। 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

योग प्रशिक्षकों के लिए कोरामिन की तरह है यह खबर

देश के योग साधकों का मूड बदल रहा है। उन्हें ऑनलाइन योग प्रशिक्षण ही भा रहा है। इसकी सबसे बड़ी वजह है कोविड-19 संक्रमण का भय। खासतौर से दक्षिण भारत का ट्रेंड तो कुछ ऐसा ही दिख रहा है। सरकार ने हाल ही जिम खोलने का आदेश जारी किया था और बीती रात इसके लिए दिशा-निर्देश भी जारी कर दिया था। पर लोगों का मिजाज कुछ अलग ही दिख रहा है। यह कई महीनों से आर्थिक संकट झेल रहे योग प्रशिक्षकों को सुकून देने वाली बात है।

मदुरै के योग प्रशिक्षकों की माने तो ऑनलाइन योग के प्रति आम लोगों के झुकाव को देखते हुए बड़ी संख्या में योग प्रशिक्षण ऑनलाइन सेवाएं देने के लिए प्रेरित हुए हैं।

नेति और कुंजल : ये हैं कोरोना के विरूद्ध अग्रिम पंक्ति की यौगिक सेनाएं

प्राचीनकाल से योगमार्ग पर आगे बढ़ने के लिए ऋषियों ने षट्कर्म की जिन क्रियाओं को प्रथमत: अनिवार्य माना था, उनमें से नेति और कुंजल जैसी क्रियाएं आधुनिक चिकित्सा जगत को भी लुभा रही हैं। इसलिए कि ये क्रियाएं कोविड-19 जैसे अनजान, किन्तु मारक संक्रमण से बचाव में असरदार साबित हो हैं। वैसे तो कोरोना संक्रमण फैलने के साथ ही योग के वैज्ञानिक संत कहने लगे थे कि रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने और संक्रमण को प्रवेश बिंदु पर ही रोककर कर नष्ट कर देने के कई यौगिक उपाय हैं। पर अब चिकित्सा विज्ञानी भी विभिन्न शोधों की बदौलत इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि आज के माहौल में नेति और कुंजल बड़े काम के हैं।

भारत में कोरोना महामारी फैलने के बाद केंद्र सरकार के विज्ञान एवं प्रावैधिकी मंत्रालय को विभिन्न संस्थानों के लगभग पांच सौ ऐसे शोध-पत्र मिले हैं, जिनमें दावा किया गया है कि यौगिक उपायों से कोविड-19 के संक्रमण से बचाव और एक सीमा तक रोकथाम संभव है। पर सबसे ताजी रिपोर्ट राजस्थान वाली ही है और खास बात यह कि यह रिपोर्ट योग विज्ञानियों की नहीं, बल्कि चिकित्सा विज्ञानियों की है। इन चिकित्सा विज्ञानियों ने माना है कि कोरोना संक्रमण से बचाव में नेति और कुंजल बड़े काम के हैं। भारत सरकार के आयुष मंत्रालय की पहल पर देश के नामचीन योग संस्थानों के सहयोग से कोविड-19 के संक्रमण की रोकथाम के लिए यौगिक प्रभावों पर तीन अनुसंधान किए जा रहे हैं और उसकी रिपोर्ट आनी है। इस बीच राजस्थान से आई ताजा रिपोर्ट को बेहद अहम् माना जा रहा है।

राजस्थान के चार चिकित्सा संस्थानों एसएमएस मेडिकल कालेज के टीबी एवं चेस्ट रोग विभाग, इंटरनेशनल इंस्टीच्यूट ऑफ हेल्थ मैनेजमेंट रिसर्च (आईआईएचएमआर) के महामारी विज्ञान विभाग, आस्थमा भवन के शोध प्रभाग और राजस्थान हास्पीटल के छह चिकित्सकों डा. श्वेता सिंह, डॉ नीरज शर्मा व डॉ दयाकृष्ण मंगल, डॉ उदयवीर सिंह व डॉ तेजराज सिंह और वीरेंद्र सिंह ने कोई 28 दिनों तक अध्ययन किया। इस दौरान नेति और कुंजल क्रियाओं के बेहतर परिणाम मिले। दरअसल, जापान में कोविड-19 के कारण मृत्यु दर काफी कम होने के कारण शोधकर्त्ताओं का उधर ध्यान गया। उन्होंने पाया कि सामाजिक दूरी और मास्क का उपयोग तो बेहतर तरीके से किया ही गया था। साथ ही नमकीन कुनकुने पानी से नाक और गले को साफ रखने पर काफी जोर दिया गया था। ये क्रियाएं योगशास्त्र के जलनेति और कुंजल की तरह की थीं। राजस्थान के चिकित्सकों ने इन्हीं बातों से प्रेरित होकर जलनेति और कुंजल के प्रभावों पर अध्ययन किया।  

चिकित्सा जगत की नजर में यह अध्ययन रिपोर्ट बेहद विश्वसनीय है। तभी एक तरफ इसे इंडियन चेस्ट सोसाइटी के प्रतिष्ठित जर्नल “लंग इंडिया” में जगह मिल गई है। दूसरी तरफ देश को लगभग एक हजार चिकित्सकों का समूह भी इस अध्ययन को विश्वसनीय मान रहा है। कोविड-19 संक्रमण फैलने के बाद इस विषय से संबंधित भारतीय चिकित्सकों के सीएमई इंडिया नाम से चार वाट्सएप्प ग्रुप बन चुके हैं। इसमें दुनिया भर में कोविड-19 के आलोक में किए जा रहे अध्ययनों और चिकित्सकीय उपायों पर चर्चा होती है। इन ग्रुपों से देश के प्राय: तमाम नामचीन चिकित्सक जुड़े हुए हैं। ये सुचारू ढंग से काम काम करें और अर्थपूर्ण चर्चा के नतीजों से जनता को लाभ मिले, इसके लिए मधुमेह के ख्याति प्राप्त चिकित्सक डॉ एनके सिंह संयोजक की भूमिका में हैं। डॉ सिंह के मुताबिक प्राय: सभी चिकित्सक मरीजों को और आम लोगों को भी बताते हैं कि कोरोना महामारी से बचाव के लिए उन्हें अन्य उपायों के साथ ही नेति और कुंजल क्रियाओं के अभ्यास अनिवार्य रूप से करने चाहिए।

भारत की तर्ज पर अमेरिकी शोध संस्थानों की भी यही राय बनी है कि कोविड-19 के वैक्सीन आने तक योग ही सहारा है। योग और ध्यान के जरिए कोरोना संक्रमण से अधिकतम बचाव संभव है। भारतीय मूल के अमेरिकी योग गुरू दीपक चोपड़ा, कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी और इस अध्ययन के लिए हार्वड यूनिवर्सिटी से संबद्ध मासेचुसेट्स इस्टीच्यूट ऑफ टेक्नालॉजी ने यौगिक उपायों पर अध्ययन करके यह निष्कर्ष निकाला है। वैसे इस अध्ययन से पहले ही अमेरिका से धमाकेदार खबर आई थी। भारतीय मूल के कंप्यूटर प्रोफेशनल प्रमोद भगत ने दावा किया था कि वे कोरोना पाजिटिव थे और मुख्यत: कुंजल क्रिया की बदौलत मारक बीमारी से बच निकले थे। दरअसल, कुंजल को दमा के मरीजों के लिए प्रभावशाली माना जाता है। इसलिए कोरोना संक्रण को प्रारंभिक स्तर पर नष्ट करने में कुंजल काम आ गया तो योगियों को हैरानी नहीं हुई थी, क्योंकि दमा और कोरोना के शुरूआती लक्षणों में बड़ी समानता है। 

भारत में कोरोना महामारी का आगाज होते ही महाराष्ट्र के लोनावाला स्थित कैवल्यधाम योग इंस्टीच्यूट के वरीय योग थेरेपिस्ट संदीप वानखेड़े ने अपने संस्थान के यूट्यूब चैनल के जरिए बताया था कि कोरोना महामारी से बचाव में जलनेति की कितनी बड़ी भूमिका हो सकती है। यह कहने का उनके पास वैज्ञानिक आधार भी था। वे भारत सरकार के केंद्रीय योग व प्राकृतिक चिकित्सा अनुसंधान परिषद के सहयोग से लोनावाला में स्थापित अनुसंधान केंद्र के साथ भी जुड़े हुए हैं। यह केंद्र षट्कर्म और प्राणायाम पर शोध कर रहा है। नेति और कुंजल षट्कर्म के तहत ही आते हैं।

आयुर्वेद में एक शब्द है – त्रिदोष। यानी वात, पित्त और कफ। इसे ही बीमारियों की उत्पत्ति के मूल कारण माना गया हैं। योगशास्त्र ने षट्कर्म के रूप में त्रिदोष को जड़ से समाप्त करने का उपाय प्रस्तुत किया। यानी योगियों ने भी माना कि त्रिदोषों के बीच असंतुलन से बीमारियां उत्पन्न होती हैं। षट्कर्म मतलब, नेति, धौति, नौलि, बस्ति, कपालभाति और त्राटक। योग के आध्यात्मिक साधक तो सनातन काल से इन षट्कर्मों की महत्ता समझते रहे हैं। तभी वेद से लेकर प्राचीन योग उपनिषदों तक में इनकी महत्ता प्रतिपादित की गई हैं। पर महर्षि घेरंड की घेरंड संहिता औऱ स्वात्माराम की हठ प्रदीपिका में अनेक बीमारियों में भी इन यौगिक क्रियाओं के लाभ बतलाए गए हैं।

यद्यपि योगियों ने नेति क्रिया का इजाद आज्ञाचक्र यानी पीनियल ग्रंथि से संबंधिति यौगिक क्रियाओं को सुचारू बनाने के मकसद से किया था। बाद में आम लोग इस क्रिया को कोई नाम दिए बिना नसिका क्षेत्र की सफाई के लिए से अपनाने लगे। नेति को मौजूदा स्वरूप प्रदान करने में वैज्ञानिक योगी स्वामी कुवल्यानंद और बिहार योग विद्यालय के संस्थापक स्वामी सत्यानंद सरस्वती का बड़ा योगदान है। बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं कि नेति ईएनटी डाक्टर की क्रियाओं जैसी असर दिखाती है। योग शास्त्रों के मुताबिक पहले कुंजल फिर जलनेति का अभ्यास करना चाहिए। चूंकि इन दोनों ही क्रियाओं में नमकीन कुनकुने पानी का उपयोग किया जाता है। इसलिए इन क्रियाओं के बाद आगे झुककर कपालभाति प्राणायाम अनिवार्य रूप से कर लेना चाहिए। ताकि सारा पानी निकल जाए। साथ ही शरीर व मस्तिष्क में उत्पन्न तनाव भी दूर हो जाता है।   

कोविड-19 के इलाज के लिए विश्वसनीय दवाओं के अभाव में जहां पूरी दुनिया में त्राहिमाम है, वैसे में नेति, कुंजल और कुछ अन्य यौगिक उपाय घने अंधेरे में में उम्मीद की रोशनी की तरह हैं। रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने वाले यौगिक उपायों के साथ ये क्रियाएं अधिक शक्तिशाली हो जाती हैं। योग शास्त्रों के मुताबिक पहले कुंजल फिर जलनेति का अभ्यास करना चाहिए। अंत में आगे झुककर कपालभाति प्राणायाम अनिवार्य रूप से कर लेना चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

अब अमेरिका ने भी कहा – फिलहाल योग ही सहारा

अब अमेरिकी शोध संस्थानों ने भी कहा – कोविड-19 के वैक्सीन आने तक योग ही सहारा है। योग और ध्यान के जरिए ही कोरोना संक्रमण से अधिकतम बचाव संभव है। भारतीय मूल के अमेरिकी योग गुरू दीपक चोपड़ा, कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी और इस अध्ययन के लिए हार्वड यूनिवर्सिटी से संबद्ध मासेचुसेट्स इस्टीच्यूट ऑफ टेक्नालॉजी ने यौगिक उपायों पर अध्ययन करके यह निषकर्ष निकाला है।

https://timesofindia.indiatimes.com/home/science/considering-meditation-and-yoga-as-adjunctive-treatment-for-covid-19-study/articleshow/77038071.cms

कोरोना, डेंगू, चिकनगुनिया और स्वामी रामदेव

कोरोना महामारी कहर बरपा ही रही है। बरसात शुरू होते ही अब डेंगू और चिकनगुनिया ने भी दस्तक दे दी है। पतंजलि योगपीठ के संस्थापक स्वामी रामदेव ने इंडिया टीवी पर बताया है कि यौगिक विधियों खासतौर से प्राणायाम और घरेलू दवाओं से किस तरह इन बीमारियों से मुकाबला किया जा सकता है।

https://www.indiatvnews.com/health/treat-dengue-chikungunya-with-yoga-pranayam-and-home-remedies-by-swami-ramdev-635344

सरकार ने भी माना, फिलहाल योग ही सहारा

भारत सरकार ने प्रकारांतर से स्वीकार कर लिया है कि वैक्सीन आने तक कोविड-19 से मुकाबला करने के लिए योग ही सर्वोत्तम उपाय है। विभिन्न अध्ययन रिपोर्टों के आधार पर सरकार इस निष्कर्ष पर पहुंची है।  

https://www.livemint.com/news/india/govt-plans-yoga-lessons-for-covid-19-patients-11594989168013.html

शवासन में योग कारोबार, शीर्षासन करते योग प्रशिक्षक

ऑनलाइन योग कारोबार भले चमकता हुआ दिख रहा है। पर इस चमक के पीछे छिपा है योग प्रशिक्षकों का बेबस दर्द। लगभग दो तिहाई योग प्रशिक्षकों के पास या तो कोई काम नहीं है या मामूली काम है। कई योग प्रशिक्षक तो रोजमर्रे की जरूरतें पूरी करने के लिए हर्बल दवाइयां बेच रहे हैं।

कोरोनाकाल योग के लिए स्वर्णिम काल और बहुत सारे योग संस्थानों और योग प्रशिक्षकों के लिए संकट काल है। सुनने में यह विरोधाभासी बातें लग सकती हैं। पर यही हकीकत है। ऑनलाइन योग के कारोबार की जैसी चमक दिख रही है, उसकी असलियत कुछ और है। उसके पीछे ढ़ेर सारे योग कारोबारियों और प्रशिक्षकों का बेबस दर्द है। आलम यह है कि छोटे-बड़े पांच सौ से ज्यादा योग संस्थान बंद हो गए हैं। लॉकडाउन समाप्त होने के बाद भी इन संस्थानों के कारोबार सजने की संभावना बेहद कम है। बेरोजगारी की दंश झेल रहे कई योग प्रशिक्षक हर्बल दवाइयां तक बेच रहे हैं। केवल बाजार में बने रहने के लिए रोज अपने वीडियो जारी करते रहते हैं। जो योग प्रशिक्षक संकटकाल में भी बाजार में टिक गए हैं, उनकी आमदनी बुरी तरह प्रभावित है।

कुछ योग प्रशिक्षक जरूर इसके अपवाद हैं। ऐसे प्रशिक्षक मुख्यत: महानगरों के हैं। जो योग प्रशिक्षक साधन-संपन्न और टेक सेवी हैं और पहले से ही ऑनलाइन क्लासेज ले रहे थे, उनकी आमदनी बढ़ गई है। जो गंभीर रूप से बीमार लोगों को सेवाएं दे रहे थे, उनकी आमदनी पूर्व की तरह बनी रह गई। कुछ योग प्रशिक्षकों को स्थानीय क्लाइंट्स के मार्फत विदेशों के क्लाइंट्स भी मिल गए हैं। पर ऐसे योग प्रशिक्षकों की संख्या गिनती के हैं। लगभग दो तिहाई योग प्रशिक्षक ऑनलाइन योग के प्रति योगाभ्यासियों की बेरूखी से बुरी तरह प्रभावित हैं। इस बेरूखी की मुख्यत: तीन वजहें हैं। पहला तो यह कि लोगों की आम राय है कि जब ऑनलाइन क्लास ही करना है तो देश के नामचीन योगाचार्यों की मुफ्त सेवा का लाभ क्यों न उठाया जाए। दूसरा, लोगों का विश्वास है कि योग ऑनलाइन नहीं सीखा जा सकता। दूरस्थ प्रशिक्षण से खतरा हो सकता है। तीसरा, नेटवर्क समस्या और योग प्रशिक्षकों के पास उपयुक्त डिवाइस न होने के कारण ऑनलाइन क्लास से फायदा नहीं है।

दूसरी तरफ, कोरोना महामारी के बाद अपनी सेहत को लेकर महानगरों के मध्य वर्ग की जैसी सोच बनी है, वह भी योग कारोबार के लिए चिंता का सबब बना हुआ है। “हेल्दीफाईमी” के मुताबिक अपने स्वास्थ्य को लेकर बेहद सतर्क मध्य वर्ग घर को ही जिम में तब्दील करने में जुटा हुआ है। फ्लिप कार्ट और अमेजन से जुटाए गए आंकडों के मुताबिक लॉकडाउन के बाद मैट से लेकर फिटनेस उपकरणों तक की बिक्री में 65 फीसदी का इजाफा हुआ है। बिहार योग विद्यालय जैसे परंपरागत योग के कुछ संस्थानों को छोड़ दें तो देश के अनेक प्रमुख योग संस्थानों की ओर से योगाभ्यासियों की जरूरतों को ध्यान में रखकर रोज वीडियो जारी किए जाते हैं। योग सीखने का यह तरीका कितना कारगर है, इस पर बहस हो सकती है। पर फिलहाल बड़े संस्थानों के वीडियोंज लोगों को खूब भा रहे हैं। 

बड़े योग संस्थानों के पास अपने को बचाए रखने के दस उपाय हैं। जैसे, केंद्र और राज्यों की सरकारें योग से संबंधित अपनी बहुत सारी योजनाएँ बड़े योग संस्थानों के जरिए ही कार्यान्वित कराती है। आजकल बेबिनार का चलन है। हाल ही अंग्रेजी की एक प्रतिष्ठित पत्रिका ने वित्तीय कंपनी और योग संस्थान के सहयोग से बेबिनार का आयोजन किया था। सबको पता है कि बेबिनार ऑनलाइन जमाने का प्रकारांतर से विज्ञापन ही है। संकट में वे हैं जो अपने बलबूते उद्यमी बनकर, एंटरप्रेन्योर बनकर कोई मुकाम हालिल करने का सपना संजोए हुए थे। परेशानी उनकी बढ़ी हुई हैं, जिन्होंने सरकारी या निजी क्षेत्र की कंपनियों में रोजगार पाने के मकसद से योग में डिप्लोमा व डिग्री ही नहीं, बल्कि पीजी यानी स्नातकोत्तर तक की शिक्षा हासिल की थी। पर संविदा शिक्षक या प्रशिक्षक बनकर रह गए थे। रोजमर्रे की जिंदगी तबाह उनकी है, जो कुकुरमुत्ते की तरह उग गए योग शिक्षण केंद्रों के भ्रमजाल में फंसकर सौ दो सौ घंटों में योग प्रशिक्षक बनकर किसी तरह अपने परिवार का भरण-पोषण कर रहे थे। संकट झेल रहे तबकों में यह तबका सबसे बड़ा है।

ऋषिकेश को योग की वैश्विक राजधानी के रूप में जाना जाता है। वह परंपरागत योग के संतों की तपोभूमि है तो गुरू-शिष्य परंपरा वाली योग शिक्षा का केंद्र भी है। आध्यात्मिक और धार्मिक कारणों से दुनिया भर में मशहूर पर्यटन स्थल होने के कारण पर्यटकों और अन्य योग शिक्षानुरागियों को ध्यान में रखकर खोले गए योग प्रशिक्षण केंद्र और योगा स्टूडियोज भी हैं। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद योग को पंख लगा तो गुणवत्ता की परवाह किए बिना योग के कारोबार में तेजी से इजाफा हो रहा था। योग को पेशे के तौर पर देखने की युवाओं की मंशा भांपकर योग के कई कारोबारियों ने युवाओं को भ्रमजाल में फंसाया। उन्हें सौ-दो सौ घंटों का प्रशिक्षण देकर योग प्रशिक्षक बना दिया। ऐसे योग प्रशिक्षक अब ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। ऑनलाइन योग के जमाने में उन्हें इस बात का भान हो चुका है कि उनका ज्ञान योग पेशे में लंबी दूरी तय करने के लिए नाकाफी है। कमोबेश ऐसी ही स्थिति दूसरे शहरों में भी है।

देश के बमुश्किल दो दर्जन योगाश्रमों और प्रतिष्ठित योग संस्थानों को छोड़ दें तो बाकी योग कारोबारियों की हालत खास्ता है। केवल ऋषिकेश में ही कोई तीन सौ योग शिक्षण-प्रशिक्षण केंद्र पूरी तरह बंद हो चुके हैं। इनमें ऐसे केंद्र भी हैं, जो महीने का सात-आठ लाख रूपए व्यावसायिक जगहों के लिए भाड़ा दे रहे थे। इनमें से नब्बे फीसदी केंद्रों के कारोबार विदेशी पर्यटकों पर आधारित थे। नेशलल लॉक़डाउन के बाद वे सभी केंद्र बालू की भीत की तरह बिखर चुके हैं। इनके प्रमोटरों को सूझ नहीं रहा कि नई राह किस तरह बनेगी। लखनऊ में प्रयाग आरोग्यम् केंद्र कई लोगों के रोजगार का जरिया बन गया था। पर कोरोना महामारी के कारण उसे बंद कर देना पड़ा है। इसके प्रमोटर प्रशांत शुक्ल अपने गांव जा चुके हैं और वहीं से ऑनलाइन क्लासेज लेते हैं। उनका कहना है कि कुछ नामचीन योगियों ने ऐसे हालात पैदा कर दिए हैं कि लोगों का लगता है कि योग शिक्षा मुफ्त लेने की चीज है। तभी अनेक योग प्रशिक्षकों को हर्बल दवाएं बेचने को मजबूर होना पड़ है।

देश भर में संविदा यानी कांट्रैक्ट पर काम करने वाले योग प्रशिक्षकों की स्थिति भी कमोबेश बाकी योग प्रशिक्षकों जैसी ही है। शैक्षणिक संस्थानों और अन्य संस्थानों के बंद होने के कारण उनकी सेवाएं अर्थहीन हो गई हैं। काम नहीं है तो पारिश्रमिक भी नहीं मिल रहा है। संविदा प्रशिक्षकों की पीड़ा इतनी ही नहीं है। स्नातकोत्तर स्तर की योग शिक्षा और वर्षों योग प्रशिक्षण देने का अनुभव रखने वाले प्रशांत शुक्ला को बीते साल अगस्त में लखनऊ स्थित केंद्रीय विद्यालाय में संविदा के आधार पर बहाल किया गया था। जब भारत में भी कोरोना संकट का आगाज हुआ तो फरवरी में प्राचार्य ने बता दिया कि उनकी नौकरी जा चुकी है।

आर्थिक संकट से जूझते योग प्रशिक्षक सरकार से आर्थिक मदद चाहते हैं। दिल्ली में “योग करो” संस्थान के प्रमुख मंगेश त्रिवेदी और कुछ अन्य योग प्रशिक्षक अपने पेशे के लोगों को सोशल मीडिया और अन्य माध्यमों से लामबंद कर रहे हैं। उनका मानना है कि योग प्रशिक्षक संगठित होकर अपनी बात उचित स्थानों तक पहुंचाएंगे तो सरकार की कई योजनाओं का लाभ उन्हें मिल सकता है। शवासन में पहुंच चुके योग कारोबार के कारण शीर्षासन करते योग प्रशिक्षक इस अभियान से कितने लाभान्वित हो पाएंगे, यह तो वक्त ही बताएगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं)  

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