गीता महोत्सवों की व्यापकता के मायने

किशोर कुमार

श्रीमद्भगवतीता यानी भगवान् श्रीकृष्णके मुखारविन्दसे निकली हुर्इ दिव्य वाणी। आगामी 22 दिसंबर को इस संजीवनी विद्या के प्रकटीकरण के 5161 साल पूरे हो जाएंगे। उसी दिन भारत सहित विश्व के अनेक देशों में गीता जयंती मनाई जाएगी। सनातन धर्म के अनुयायी पूरे उत्साह से गीता जयंती की तैयारियों में जुटे हुए हैं। इंग्लैंड से लेकर मारीशस तक और अमेरिका से लेकर कनाडा तक में गीता महोत्सव मनाया जाना है। दुनिया भर के इस्कॉन मंदिरों में गीता जयंती की व्यापक तैयारियां हैं। पर हरियाणा के कुरूक्षेत्र, जहां युद्ध के मैदान में कृष्ण द्वारा स्वयं अर्जुन को ‘भगवदगीता’ प्रकट की गई थी, 7 दिसंबर से ही अंतर्राष्ट्रीय गीता महोत्सव मनाया जा रहा है। समापण 24 दिसंबर को होना है। यह महोत्सव अध्यात्म, संस्कृति और कला का दिव्य संगम है, जहां श्रीमद्भगवतगीता के संदेशों को आज के संदर्भ में प्रकटीकरण के लिए विविध कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं। अमृतपान के लिए वहां देश-विदेश के लोग पहुंच रहे हैं।

इसकी खास वजह है। दुनिया भर के बड़े-बड़े विद्वानों और मनोविज्ञानियों से लेकर चिकित्सा विज्ञानियों तक की मान्यता है कि श्रीमद्भगवतगीता कलियुग के लिए किसी संजीवनी विद्या से कम नहीं मानते। यानी इसकी महत्ता तब जैसी थी, आज भी वैसी ही बनी हुई है। इसे कुछ उदाहरणों से समझा जा सकता है। महाभारत की लड़ाई समाप्त होने पर एक दिन श्रीकृष्ण और अर्जुन प्रेमपूर्वक बातचीच कर रहे थे। उस समय अर्जुन के मन में इच्छा हुई कि श्रीकृष्ण से एक बार फिर गीता सुने।  अर्जुन ने विनती की, “महाराज! आपने जो उपदेश मुझे युद्ध के आरम्भ में दिया था, उसे मैं भूल गया हूँ। कृपा करके फिर एक बार उसे बताइए।” तब श्रीकृष्ण भगवान् ने उत्तर दिया, “उस समय मैंने अत्यन्त योगयुक्त अन्तःकरण से उपदेश किया था। अब सम्भव नहीं कि मैं वैसे ही उपदेश फिर कर सकूँ।”

इस प्रसंग का उल्लेख महाभारत के अश्वमेघ अध्याय में है। सवाल है कि क्या सचमुच श्रीकृष्ण के लिए फिर से गीता का उपदेश देना मुश्किल था? अनेक आत्मज्ञानी संतो का मानना है कि श्रीकृष्ण के लिए कुछ भी असंभव नहीं था। पर उन्होंने ऐसा क्यों कहा? इसका उत्तर लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने दिया है। उनके मुताबिक, भगवान् के उक्त कथन से पता चलता है कि गीता का महत्त्व कितना अधिक है। तभी यह ग्रन्थ वैदिक-धर्म के भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों में वेद के समान आज करीब पांच हजार वर्षों से सर्वमान्य तथा प्रमाणस्वरूप हो गया है। गीता-ध्यान में श्रीमद्भगवतगीता का वर्णन कुछ इस प्रकार किया गया है –  जितने उपनिषद् हैं, वे मानो गौएँ हैं, श्रीकृष्ण स्वयं दूध दुहने वाले (ग्वाला) हैं, बुद्धिमान् अर्जुन (उन गौओं का पन्हानेवाला) भोक्ता बछड़ा (वत्स) है और जो दूध दुहा गया, वही मधुर गीतामृत है। तभी इस गीतामृत का भारतीय भाषाओं में ही नहीं, बल्कि विदेशी भाषाओं में भी इस ग्रंथ का अनुवाद और उसका विवेचन किया जा चुका है।

श्रीमद्भगवतगीता का महत्व बताने वाला एक और दृष्टांत है। मुख्य शास्त्र कौन है? इस सवाल पर धर्माचार्यों के बीच विवाद छिड़ गया था। काफी मशक्त के बाद भी हल न निकला। विद्वतजन समझ गए कि प्रभु की कृपा के बिना सही उत्तर शायद ही मिल पाए। इसलिए जगन्नाथपुरी में धर्मसभा हुई तो सभी विद्वतजन अपने समक्ष कोरा कागज और कलम रखकर ध्यनामग्न हो गए। वे समस्या के समाधान के लिए आर्तभाव से प्रार्थना करने लगे। ध्यान टूटा तो सभी विद्वतजन यह देखकर हैरान थे कि सभी कोरे कागजों पर एक ही श्लोक लिखा था – एकं शास्त्रं देवकी पुत्र गीतं, एको देव देवकी पुत्र एव। एको मंत्रस्तस्य नामानी यानि कर्माप्येकं तस्य देवस्य सेवा।। मतलब यह कि देवकी पुत्र श्रीकृष्ण द्वारा कही गई श्रीमद्भगवद्गीता मुख्य शास्त्र है, देवकी नन्दन श्रीकृष्ण ही मुख्य देव हैं, भगवान श्रीकृष्ण का नाम ही मुख्य मंत्र है तथा परमेश्वर श्रीकृष्ण की सेवा ही सर्वश्रेष्ठ कर्म है। इसके बाद श्रीमद्भगवतगीता श्रेष्ठ शास्त्र के तौर पर सर्वमान्य हो गई।

आध्यात्मिक संतों की मानें तो इस युग के लिए भी श्रीमद्भगवतगीता की प्रासंगिकता जरा भी कम नहीं है। बल्कि इसमें हर मर्ज की दवा है। आजकल विषाद बड़ी समस्या बनी हुई है। अर्जुन विषाद से ज्यादा उलझा हुआ मामला जान पड़ता है। अर्जुन जैसा महाज्ञानी विषाद का शिकार हुआ स्वयं भगवान को उसे इस स्थिति से उबारने के लिए कितनी कुश्ती करनी पड़ी थी। आज की पीढ़ी को विषाद से कौन बचाए? तमाम युक्तियां आजमाने के बाद गीता ज्ञान से ही बात बन पाती है।

पर आधुनिक युग के लिहाज से क्या कुछ किया जाए कि श्रीमद्भगवतगीता के संदेशों का अधिकतम लाभ मिल सके? उत्तर मिलता है कि इसके लिए योग या कर्मयोग का मार्ग ही श्रेष्ठ है। महर्षि पतंजलि के योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः यानी चित्तवृत्तियों का निरोध योग से इत्तर। इसमें भगवान ने योग: कर्मसु कौशलम् कहते हुए योग की निश्चित और स्वतंत्र व्याख्या कर दी है। अभिप्राय यह कि कर्म करने की एक प्रकार की विशेष युक्ति योग हैं। वह युक्ति क्या हो सकती है? पूरी गीता ही युक्तियों से भरी पड़ी है। वैसे, तुलसीदास जी के मुताबिक, कलियुग की प्रारंभिक साधना है कीर्तन। चैतन्य महाप्रभु के जीवन से भी यही प्रेरणा मिलती है।

वैसे, स्वामी विवेकानंद ने सन् 1897 में कलकत्ता प्रवास के दौरान अपने अनुयायियों के बीच  गीता की प्रासंगिकता पर दिए गए आपने भाषण में कहा था – ऐ मेरे बच्चों, यदि तुमलोग दुनिया को यह संदेश पहुंचा सको कि ‘’क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते। क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप।।‘’ तो सारे रोग, शोक, पाप और विषाद तीन दिन में धरती से निर्मूल हो जाएं। दुर्बलता के ये सब भाव कहीं नहीं रह जाएंगे। भय के स्पंदन का प्रवाह उलट दो और देखो, रूपांतरण का जादू।… इस श्लोक को व्यवहार में लाते ही जीवन में क्रांतिकारी बदलाव होगा। संपूर्ण गीता-पाठ का लाभ मिलेगा, क्योंकि इसी एक श्लोक में पूरी गीता का संदेश निहित है।

साधनाएं चाहे जैसी भी हों, महत्व श्रीमद्भगवतगीता रूपी मानव निर्माण कला को आत्मसात करने का है। यह सृकून देने वाली बात है कि आज की पीढ़ी में भी श्रीमद्भगवतगीता की स्वीकार्यता तेजी से ब़ढ़ रही है। गीता जयंती की शुभकामनाएं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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