मन का दीप जले तो बने बात

किशोर कुमार

अयोध्या के भव्य दीपोत्सव पर सबकी नजर है। इस बार राम की पैड़ी पर इक्कीस लाख दीप जलाने का कीर्तिमान जो स्थापित होना है। हम सब जानते हैं कि दीपावाली की शुरूआत कैसे हुई थी और उसी दिन लक्ष्मी पूजन का विधान कैसे चल निकला। कार्तिक अमावस्या को भगवान श्रीराम अपना चौदह वर्ष का वनवास पूरा करके लौटे थे तो अयोध्यावासियों ने दीप प्रज्जवलित करके खुशी का इजहार किया था। उसके बाद से ही दीपावली मनाई जाने लगी थी। और, इंद्र को धन-संपदा के मद में चूर मानते हुए दुर्वासा ऋषि ने श्रॉप दे दिया था कि लक्ष्मी जी की कृपा खत्म हो जाए तो लक्ष्मी पूजन की पृष्ठभूमि तैयार हो गई थी। इसलिए श्रॉप मिलते ही लक्ष्‍मी पाताल लोक चली गईं तो सर्वत्र हाहाकार मच गया था। तब लक्ष्मी जी को वापस बुलाने के लिए समुद्र मंथन करवाया गया। कार्तिक मास की कृष्‍ण पक्ष की त्रयोदशी के दिन भगवान धनवंतरि निकले। इसलिए इस दिन धनतेरस मनाई जाती है और अमावस्‍या के दिन लक्ष्‍मी बाहर आईं। इसलिए हर साल कार्तिक मास की अमावस्‍या पर माता लक्ष्‍मी की पूजा होती है।    

इस पूरे घटनाक्रम को आध्यात्मिक नजरिए से देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि दीपावली का उद्देश्य केवल दीयों और मोमबत्तियों से घर-आंगण को प्रकाशित करना भर नहीं है। यह उत्सव संदेश देता है कि हम सब खुद में व्याप्त अंतः ज्योति के दर्शन करें। यह अंतः ज्योति और कुछ नहीं, उस निराकार प्रभु का प्रकाश-स्वरूप ही है। दीप संस्कृत शब्द है, जिसका अर्थ है दीप्यते दीपयति वा स्वं परं चेति। अर्थात् जो खुद प्रकाशित है और दूसरों को भी प्रकाशित करने में सक्षम है। वेद-वेदांग में इसे आत्मा का स्वरूप कहा गया है। श्रीराम भी ऐसे ही प्रकाश-पुंज थे। इसलिए उनके चरण रज जहां भी पड़े, वहां की धरती धन्य होती गई, लोग धन्य होते गए। यही है सत्वगुण का प्रभाव। पर आम मानव के रूप में हम सब कैसे हैं? श्रीमद्भगवतगीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं – हे भारत! कभी रज और तम को अभिभूत (दबा) करके सत्त्वगुण की वृद्धि होती है, कभी रज और सत्त्व को दबाकर तमोगुण की वृद्धि होती है, तो कभी तम और सत्त्व को अभिभूत कर रजोगुण की वृद्धि होती है।।

आखिर श्रीराम को वनवास तो केकैयी के लोभ – मोह की वजह से ही हुआ था। अर्जुन को भी तो विषाद ही हो गया था। देखा न कि श्रीकृष्ण को उन्हें विषादमुक्त करने के लिए कितनी कुश्ती करनी पड़ी थी। अपने आस-पास भी देखें तो ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएंगे। वैज्ञानिक प्रगति के बावजूद मानव पीड़ित है, अवसादग्रस्त है, तो इसकी वजह स्पष्ट है कि भौतिक प्रगति भी हमारे अशांत मन को सांत्वना प्रदान करने में सक्षम नहीं है। जैसे नमक या चीनी को पानी में मिलाते ही उसका स्वरूप बदल जाता है, उसी तरह अलग-अलग प्रभावों में आते ही सामान्य मानव का गुण-धर्म भी बदलते रहता है। ऐसी प्रक्रियाओं को आधुनिक विज्ञान के आलोक में जर्मनी के महान वैज्ञानिक रुडोल्फ जूलियस इमानुएल क्लॉसियस ने एंट्रॉपी कहा। पर हमारे संत-महात्मा वैदिककाल से गुणों और रसों के आधार पर इस परिवर्तन की विशद व्याख्या करते रहे हैं। सार एक ही कि विश्व में हर चीज़ विकृति की तरफ जाती है। पर संत-महात्मा इस स्थिति से उबरने के उपाय भी बतलाते रहे हैं, जिन्हें योग की भाषा में तरह-तरह से व्याख्या की गई है।

पर पहले एक प्रचलित कथा। यह कथा रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद के संदर्भ में कही जाती रही है तो ओशो ने इसे  शेख फरीद के संदर्भ में कहा। कथा चाहे किसी से संबंधित हो, पर इसका भाव आंखें खोलने वाला है। एक संत सुबह-सुबह स्नान करने नदी की तरफ जा रहे थे। तभी उनके एक शिष्य ने सवाल कर दिया – ईश्वर कहां है और कैसा है? संत ने शिष्य से कहा कि नदी साथ चलो, सब कुछ पता चल जाएगा। वे नदी में स्नान कर रहे थे, तभी संत ने मजबूती से शिष्य का गला पकड़ लिया। शिष्य के प्राण अटक गए। थोड़ी देर बाद संत ने उसे मुक्त किया तो उसने राहत की सांस ली। पर बेहद नाराज हुआ। संत ने कहा, नाराजगी बाद में निकाल लेना। पहले यह बताओ को श्वांस अटका था तो मन में क्या ख्याल आ रहा था? शिष्य ने उत्तर दिया,

ख्याल? शिष्य ने कहा,  न कोई ख्याल था, न कोई सवाल था। एक ही ख्याल था, कैसे एक श्वास ले लूं। फिर तो वह ख्याल भी मिट गया। फिर तो सारे प्राण एक पुकार से भर गए कि कैसे श्वास मिले। फिर मुझे पता भी नहीं कि श्वास चाहिए थी, फिर मैं ऊपर उठ रहा था। सारी ताकत लगा रहा था बाहर निकलने के लिए। लेकिन यह भी चेतन नहीं था। यह जो हो रहा था, यह भी मैं नहीं कर रहा था। तब संत ने कहा – जिस दिन परमात्मा को ऐसे ही पुकारोगे, उस दिन पूछने की जरूरत नहीं रहेगी कि परमात्मा कहां है। पर हमारी सारी प्रार्थनाएं झूठी हो जाती हैं। इसलिए कि हरदम बहिर्यात्रा चलती रहती है। और बहिर्मन और अंतर्मन में सामंजस्य बैठे बिना मन का दीप कैसे जले? जीवन से अंधेरा  कैसे छंटे? इसलिए हम वृहदारण्यकोनिषद् की प्रार्थना “असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय……” तो दोहराते रहते हैं और जीवन का अंधकार छंटने का नाम ही नहीं लेता।

सवाल है कि यह प्रार्थना फलित हो कैसे कि जीवन सुख-समृद्धि से भर जाए? योग में उपाय अनेक बतलाए गए हैं। पर महर्षि पतंजलि के एक सूत्र को भी जीवन में उतार लिया जाए तो बता बन जाए। महर्षि पतंजलि का सूत्र है – विशोका वा ज्योतिष्यती। यानी शोकातीत आलोक की अवस्था मन को नियंत्रित कर सकती है। बीसवीं सदी के महान संत स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने इसकी व्याख्या कुछ इस तरह की हैं – “नाद या भ्रूमध्य पर ध्यान केन्द्रित कर शांत अंतर्ज्योति की कल्पना करते हुए मन को स्थिर और नियंत्रित किया जा सकता है। अन्तर्ज्योति अत्यन्त शान्त, अविक्षुब्ध, निश्चल और प्रशांत होती है, इसमें तीखा प्रकाश नहीं होता है। गहन ध्यान में इसका अनुभव किया जा सकता है। ऐसी अनेक विधियाँ हैं, जिनके द्वारा ज्योति का अनुभव किया जा सकता है। उनमें से एक है भ्रूमध्य पर ध्यान केन्द्रित करना, दूसरी है नाद (ध्वनि) पर ध्यान केन्द्रित करना।“ तो आईए, दीपावली के मौके पर यौगिक शक्तियों के सहारे मन का दीप जलाकर खुद को समृद्ध बनाएं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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