आयुष शिखर सम्मेलन : योगियों और चिकित्सा विज्ञानियों का महाकुंभ

किशोर कुमार //

वेदों में आचार, व्यवहार, आध्यात्मिक जीवन, ज्योतिष आदि जीवन के विविध आयाम हैं तो स्वास्थ्य – चिकित्सा भी एक महत्वपूर्ण आयाम है। सच कहिए तो चिकित्सा की पारंपरिक प्रणालियों की जड़ें वेदों में निहित है। चिकित्सा की जितनी भी पारंपरिक प्रणालियों से हम सब वाकिफ हैं, उन सबका संबंध किसी न किसी देवता से माना गया है। वेद ग्रंथों में इसका उल्लेख जगह-जगह मिलता है। जैसे, चरक संहिता हो या सुश्रुत संहिता, दोनों में ब्रह्मा जी को ही प्रथम उपदेष्टा माना गया है। इसी तरह भगवान शिव आदियोगी तो हैं हीं, ऋग्वेद में उनका वर्णन एक चिकित्सक के रूप में भी मिलता है। अश्विनी कुमार तो देवताओं के चिकित्सक ही थे। इसी तरह सूर्य, सोम, वरूण आदि देवताओं का भी उल्लेख है।   

यह सुखद है कि भारतीय चिकित्सा की इन पारंपरिक प्रणालियों का विज्ञानसम्मत तरीके से संवर्द्धन करके उन्हें जनोपयोगी बनाने के लिए कोशिशें की जा रही हैं। सरकार पूर्व की मन:स्थिति से बाहर निकल कर इन विद्याओं के विकास के लिए गंभीर पहल कर रही है। पर इसके साथ ही एक सवाल भी है कि क्या उनका वास्तविक संवर्द्धन केवल सरकार के भरोसे संभव है? इतिहास साक्षी है कि प्राचीन काल से ही इन विद्याओं के संवर्द्धन औऱ प्रसार में योगियों और चिकित्सा विज्ञानियों की भूमिका राजसत्ता से गुरूत्तर रही है। चिकित्सा की ये प्रणालियां आधुनिक युग की विशिष्ट मांग है। इसलिए जरूरी है कि गैर सरकारी स्तर पर भी वैज्ञानिक तरीके से इन विद्याओं का संवर्द्धन और प्रसार किया जाए।

इस बात को विस्तार देने से पहले स्वामी विवेकानंद से जुड़ा एक बहुप्रचारित प्रसंग। कन्याकुमारी स्थित समुद्र के तट पर पत्थर का एक टीला है। आजकल उसे विवेकानंद रॉक मेमोरियल कहा जाता है। शिव पुराण की कथा है कि माता पार्वती का पुण्याक्षी कन्याकुमारी के रूप मे जन्म हुआ था। बड़ी हुईं तो शिव जी से विवाह के लिए उसी रॉक पर बैठकर तपस्या की थी। स्वामी विवेकानंद अमेरिका में आयोजित विश्व धर्मसभा में भाग लेने जाने से पहले कन्याकुमारी गए तो समुद्र में तैरकर उसी रॉक पर जा पहुंचे थे। तीन दिनों तक लगातार तपस्या की। वहीं उन्हें प्रेरणा मिली थी कि भविष्य में जीनव का लक्ष्य क्या होना चाहिए और उसे हासिल करने के लिए क्या करना है।     

हम जानते हैं कि किसी भी साधना में या व्यापक बदलाव के लिए क्रांति-बीज बोने हेतु शब्द का और स्थान का बड़ा महत्व होता है। योगियों ने समान रूप से महसूस किया कि दीर्घकालीन मानवी गतिविधियां स्थानीय तरंगों की प्रकृति को अपने स्वभाव के अनुरूप ढाल देती है। दरअसल, जिस धरती पर पुण्य-कार्य होता है, वहां व्यापक रूप से सकारात्मक ऊर्जा तरंगों की प्रधानता होती है। आज भी कन्याकुमारी में उच्च चेतना के धरातल पर सकारात्मक ऊर्जा का सतत् प्रवाह स्पष्ट महसूस किया जाता है। यह सुखद है कि उसी धरती से चिकित्सा की पारंपरिक भारतीय प्रणालियों के संवर्द्धन और प्रसार के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर शंखनाद होने जा रहा है। तीन दिनों का अंतर्राष्ट्रीय आयुष शिखर सम्मेलन 27 – 29 जनवरी को होना है, जिसे योगियों, चिकित्सा विज्ञानियों और अनुंसधानकर्त्ताओं का महाकुंभ कहना ज्यादा उपयुक्त होगा। ऐसे में जाहिर है कि सकारात्मक ऊर्जा से परिपूर्ण स्थान से गुणीजन संदेश देंगे, भविष्य के लिए कुछ बेहतर करने की ठान लेंगे तो उसका असर दूर तक होगा।

अंतर्राष्ट्रीय आयुष शिखर सम्मेलन का उद्देश्य आयुष चिकित्सा प्रणालियों  यथा आयुर्वेद, योग व प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी, सिद्ध और होम्योपैथी के विविध आयामों पर गुणवत्तापूर्ण अनुसंधान और अर्थपूर्ण शैक्षणिक संवाद को बढ़ावा देना है। ताकि आयुष सेवाएं असरदार, विज्ञान की कसौटी पर खरी, किफायती और जनसुलभ बन सके। बात योग की करें तो इस शिखर सम्मेलन की गंभीरता का अंदाज इससे लगता है कि इसमें आसन, प्राणायाम से आगे की बात होनी है। मंथन इस बात को लेकर होनी है कि देश में बढ़ती मनोदैहिक बीमारियों के लिए योग की विधियों का समायोजन किस प्रकार किया जाए कि वे वैज्ञानिक रूप से स्वीकार्य हों। योग और प्राकृतिक चिकित्सा के बीच के अंतर्संबधों को वैज्ञानिक रूप से परिभाषित करके उसे जनसुलभ किस प्रकार बनाया जाए। आदि आदि।    

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर योग के विभिन्न पक्षों पर जितना शोध मौजूदा समय में हो रहा है, उतना पहले कभी नहीं हुआ। उस लिहाज से कहा जा सकता है कि यह योग विज्ञान के लिए स्वर्णिम काल है। पश्चिमी देशों में शोध का फलक भारत की तुलना में कई गुणा बड़ा है। दो कारणो से। पहला तो यह कि उनके पास बुनियादी ढ़ांचा हमसे कहीं ज्यादा है। दूसरा यह कि वे जान गए हैं कि दुनिया में ऐसा कोई विज्ञान नहीं है, जो शरीर, मन और चेतना के विकास के लिए एक साथ काम कर सके। बावजूद, मानव जीवन के कई ऐसे क्षेत्र हैं, जहां उनकी पहुंच नहीं बन पाई है। वे जीवन की कई घटनाओं के कारण और परिणाम के बीच संबंध जोड़ पाने में असमर्थ हैं।

पश्चिम के वैज्ञानिको के लिए आज भी यह रहस्य पूरी तरह सुलझा नहीं है कि संस्कृत सहित अनेक भाषाओं के विद्वान रहे आचार्य देवसेन को जिस पुस्तक को पढ़ने में सात दिन लग गए थे, उसी पुस्तक को स्वामी विवेकानंद ने महज आधा घंटा में किस तरह कंठस्थ कर लिया था। आचार्य देवसेन ने अपने संस्मरण में लिखा है – “मैंने स्वामी विवेकानंद से पूछा कि आपने आधा घंटा में पूरा किताब कैसे याद कर लिया? तो उन्होंने उत्तर दिया,  ‘जब तुम शरीर द्वारा अध्ययन करते हो तो एकाग्रता संभव नहीं है। जब तुम शरीर में बंधे नहीं होते, तो तुम किताब से सीधे—सीधे जुड़ते हो तुम्हारी चेतना सीधे—सीधे स्पर्श करती है। तब आधा घंटा भी पर्याप्त होता है।“

हम जानते हैं कि योग की एक प्राचीन संस्कृति रही है। पर कालांतर में यह संन्यासियों और योगियों तक ही सिमट कर रह गई।  स्वामी रामतीर्थ के एक प्रसंग से इस बात को समझा जा सकता है। स्वामी जी ने जापान के राजमहल में छोटे-से चिनार का पेड़ गमले में देखा तो हैरान रह गए। उन्हें यह जानकर और भी हैरानी कि वह पेड़ ढ़ाई सौ साल पुराना था। उन्होंने पूछा, “पेड़ जिंदा है क्या?” उन्हें बताया गया कि पेड़ जिंदा तो है, पर बढ़ नहीं सकता। इसलिए कि इसके नीचे की तीन जड़ें काटी जा चुकी हैं। यह सुनकर स्वामी रामतीर्थ ने कहा – लगता है कि मानव जाति का भी यही हाल है। उसकी भी तीन जड़े काटी जा चुकी हैं। इसलिए वह जिंदा तो है। पर आध्यात्मिक उन्नति नहीं कर पा रहा है।

सवाल है कि जड़ें किसने काटी? इस पर फिर कभी। बहरहाल, हमें भारतीय संतों का शुक्रगुजार होना चाहिए कि उनकी बदौलत समृद्ध योग की परंपरा बची रह गई। पर योग के मनीषियों के लिए यह चिंता का सबब बना हुआ कि दुनिया भर में फैले योग के अनेक कारोबारी अज्ञानता के कारण या व्यवसाय को आकर्षक बनाने के लिए योग विद्या के स्वरूप को विकृत कर दे रहे हैं। स्पष्टत: समय की मांग है कि हमें अपनी समृद्ध परंपरा को संरक्षित रखते हुए उसे उसी रूप में जनता तक पहुंचाने के लिए केवल सरकार के भरोसे नहीं रहकर गैर सरकारी स्तर पर ईमानदार कोशिशें करनी होगी। इस लिहाज से भी कन्याकुमारी में आयोजति अंतर्राष्ट्रीय आयुष शिखर सम्मेलन की महत्ता बढ़ जाती है। 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

वेद, पुराण, विज्ञान और टाइम मशीन

विज्ञान के इस युग में क्या ऐसा समय आएगा कि हमारे पास ऐसी टाइम मशीन होगी कि हम अपनी उम्र घटाने-बढ़ाने में सक्षम होंगे। पौराणिक कथाओं के पात्रों की तरह तीनों लोकों की यात्रा कर सकेंगे और अतीत और भविष्य को देख पाने में सक्षम हो पाएंगे? ये सवाल बेतुके जान पड़ते हैं। पर अध्ययन और महापुरूषों के साथ सत्संग से मेरी धारणा बदलती जा रही है। लगता है कि ब्रह्मांड में जो चीजें घटित हो रही हैं, वे हमारे जीवन में आज न कल साकार जरूर होंगी। आखिर प्राचीन ऋषि-मुनियों की तरह हम भी तरंगों के जरिए बातचीत कर पाएंगे, मोबाइल फोन या वायरलेस के वजूद में आने से पहले ऐसा किसने सोचा था?

हर्बर्ट जॉर्ज वेल्स का बहुचर्चित उपन्यास “द टाइम मशीन” जब पढ़ा था तो यही समझ पाया था कि टाइम मशीन, उससे अंतरिक्ष की रोमांचक यात्रा, एक ही व्यक्ति के कई-कई युगों तक जिंदा रहने की बात आदि लेखक की कल्पना मात्र है। ऐसे में लेखक को उसकी अद्भुत कल्पना-शक्ति के लिए दाद ही दी जा सकती थी।

तभी एक दिन विज्ञान के शिक्षक ने भौतिकशास्त्र पढाते हुए समझाया कि कुछ ब्रह्मांडीय किरणें प्रकाश की गति से चलती हैं। उन्हें एक आकाशगंगा पार करने में कुछ क्षण लगते हैं। लेकिन पृथ्वी के समय के हिसाब से ये दसियों हजार वर्ष हुए। मन में मंथन फिर शुरू हो गया। मुझे लगा था कि भौतिकशास्त्र की दृष्टि से यह भले सत्य है। पर गुरू जी भी कहते हैं कि उनकी जानकारी में दुनिया में अभी तक ऐसी कोई टाइम मशीन नहीं बनी, जिससे हम अतीत या भविष्य में पहुंच सकें। लिहाजा “द टाइम मशीन” के मामले में पुरानी धारणा बन रह गई।

विश्व प्रसिद्ध बिहार योग विद्यालय के संस्थापक पूज्य परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती जी के संपर्क में आया तो वे कई बार वेद-पुराण और अन्य प्राचीन शास्त्रों के प्रसंगों की चर्चा करते और तथ्यों से साबित कर देतें कि ये बातें किस तरह विज्ञानसम्मत हैं। पौराणिक कथाओं के मुताबिक सनतकुमार, नारद, अश्विन कुमार आदि कई हिन्दू देवता टाइम ट्रैवल करते थे। भारतीय धर्मग्रंथों में टाइम मशीन की कल्पना की गई है।

मिसाल के तौर पर रेवत नामक राजा ब्रह्मा के पास मिलने ब्रह्मलोक गए और जब वह धरती पर पुन: लौटे तो यहां एक चार युग बीत चुके थे। कुछ ऋषि और मुनि सतयुग में भी थे, त्रेता में भी थे और द्वापर में भी। इसका यह मतलब कि क्या वे टाइम ट्रैवल करके पुन: धरती पर समय समय पर लौट आते थे। पौराणिक कथाओं से यह भी पता चलता है कि पृथ्वी पर ऐसे कई साधु-संत हुए हैं, जो आंख बंद कर अतीत और भविष्य में झांक लेते थे।

अल्बर्ट आइंस्टीन के पहले यह माना जाता था कि समय निरपेक्ष और सार्वभौम है। अर्थात सभी के लिए समान है। यानी यदि धरती पर दस बज रहे हैं तो मंगल ग्रह पर भी दस ही बज रहे होंगे। पर आइंस्टीन के सापेक्षता सिद्धांत के अनुसार ऐसा नहीं है। समय की धारणा अलग-अलग है। कुछ समय बाद ट्रेन में यात्रा करते हुए एक सहयात्री की पुस्तक पढने का मौका मिला था, जो आइंस्टीन पर था। उसमें आइंस्टीन ने कहा है कि दो घटनाओं के बीच का मापा गया समय इस बात पर निर्भर करता है कि उन्हें देखने वाला किस गति से जा रहा है।

मान लीजिए की दो जुड़वां भाई हैं- राम और श्याम। राम अत्यंत तीव्र गति के अंतरिक्ष यान से किसी ग्रह पर जाता है और कुछ समय बाद पृथ्वी पर लौट आता है जबकि श्याम घर पर ही रहता है। राम के लिए यह सफर हो सकता है एक वर्ष का रहा हो, लेकिन जब वह पृथ्वी पर लौटता है तो दस साल बीत चुके होते हैं। उसका भाई श्याम अब नौ वर्ष बड़ा हो चुका है, जबकि दोनों का जन्म एक ही दिन हुआ था। यानी राम दस साल भविष्य में पहुंच गया है। अब वहां पहुंचकर वह वहीं से धरती पर चल रही घटना को देखता है तो वह अतीत को देख रहा होता है।

इन तमाम प्रसंगों के बाद मुझे लगता है कि यदि आधुनिक युग में ऐसी टाइम मशीन का आविष्कार हो गया तो क्रांति हो जाएगी। मानव जहां खुद की उम्र बढ़ाने में सक्षम होगा वहीं वह भविष्य को बदलना भी सीख जाएगा। जाहिर है कि इतिहास फिर से लिखा जाएगा। इस दिशा में काम तेजी से किया जा रहा है। कुछ समय पहले ही  रूस के वैज्ञानिकों ने क्वॉन्टम कंप्यूटर के जरिए टाइम रिवर्सल का डेमोंस्ट्रेशन दिया है।

महामृत्युंजय मंत्र : हंगामा है क्यों बरपा?

 किशोर कुमार //

दिल्ली के राममनोहर लोहिया अस्पताल के एक चिकित्सक ने महामृत्युंजय मंत्र की शक्ति से न्यूरो चिकित्सा करने का दावा क्या किया, भारतीय चिकित्सा जगत में इस मंत्र के चमत्कारिक प्रभावों के पक्ष-विपक्ष में बवंडर उठा हुआ है। बड़े-बड़े प्रगतिशील विद्वानों ने हाय-तौबा मचा रखी है। उन्हें लगता है कि यह हिन्दुत्ववादियों के भीतर की कुंठा और छद्म विज्ञान को बढ़ावा देने वाली बात हैं, जबकि कई विकसित देशों में हुए शोधों से साबित हो चुका है कि मंत्रों से जीवन की दशा बदल जाती है। बीमारियां ठीक होती हैं। मन का बेहतर प्रबंधन होता है।

मंत्रों की शक्ति जानने के लिए आज भी दुनिया भर में प्रयोग किए जा रहे हैं। अनेक प्रयोगों में नतीजे आशा के अनुरूप हैं। यानी साबित हुआ है कि मंत्रों के जरिए ऐसी ऊर्जा उत्पन्न होती है, जो मनुष्य के जीवन के विकारों और विकृतियों को दूरृ करने में सक्षम है। इसलिए कि मनुष्य के सूक्ष्म व्यक्तित्व पर मंत्रों का असर होता है। विज्ञान की कसौटी पर साबित हो चुकी इस बात की विस्तार से चर्चा से पहले राममनोहर लोहिया अस्पताल की बात।  

हाल ही राम मनोहर लोहिया अस्पताल में गंभीर ब्रेन इंजरी के मरीजों का वैदिक मंत्रों खासतौर से महामृत्युंजन मंत्र से इलाज किया गया। यह काम केंद्र सरकार की ओर से प्रायोजित एक शोध के तहत किया गया है। न्यूरो सर्जरी विभाग के वरिठ शोध फेलो डॉ अशोक कुमार ने मंत्र शक्ति से चिकित्सा का अध्ययन को करने के लिए भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) से सहयोग मांगा था। परिषद ने उनके प्रस्ताव को मान लिया और मामूली धन की व्यवस्था भी कर दी। डॉ. कुमार का दावा है कि अब तक हुए शोधों के नतीजे उम्मीदों से बढ़कर हैं।

डॉ. कुमार कहते हैं कि यह ऐतिहासिक तथ्य है कि लंका पहुंचने के लिए सेतु बनाने से पहले भगवान राम ने महामृत्युंजय मंत्र का जाप किया था। प्राचीन काल में सैनिक जब घायल हो जाते थे जो उन्हें ठीक करने के लिए इस मंत्र का जाप किया जाता था। दरअसल प्रार्थना से आध्यात्मिक स्पंदन पैदा होती है, जिससे मानसिक तनाव कम होता है। साथ ही साइटोकिन्स कम होता है, जिससे गंभीर दिमागी चोट वाले रोगियों को अच्छा परिणाम प्राप्त हो सकता है।

डॉ. कुमार बताते हैं कि अक्टूबर 2016 से अप्रैल 2019 के बीच 40 मरीजों की दो श्रेणियां बनाकर इलाज किया गया। एक समूह के लिए इन्टर्सेसरी प्रार्थना की गई, जबकि दूसरे को प्राप्त उपचार जारी रखा गया। फिर इन दोनों समूहों के नतीजों का अध्ययन किया गया। देखा गया कि जिन मरीजों के लिए इन्टर्सेसरी प्रार्थना वाला उपचार किया गया था, उनके परिणाम बेहतर निकले।

स्पेन की राजधानी मैड्रिड में कुछ साल पहले महामृत्युंजय मंत्र के प्रभावों को लेकर बड़ा शोध हुआ था। इसका संचालन टेलीकांफ्रेंसिंग के जरिए परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने किया था। वह नासा के पांच सौ वैज्ञानिकों में से एक हैं, योग-शक्ति से फ्रिक्वेंसी भेजकर दूरस्थ मानव के उपचार पर काम कर रहे हैं। उन्होंने एक हॉल में एक हजार लोगों को बैठाया और महामृत्युंजय मंत्र का जप करने का निर्देश दिया। दूसरी ओर दूसरी तरफ वैज्ञानिकों को निर्देश दिया कि वे पांच सौ क्वांटम मशीनों से मंत्रों की फ्रिक्वेंसी को मानिटर करें। मंत्रोच्चारण के प्रभाव से मशीनों में कंपन शुरू हो गया। वैज्ञानिकों की आंखें खुली रह गईं जब उन्होंने देखा कि मंत्र की शक्ति से फ्रिक्वेंसी का विशाल फील्ड तैयार हो चुका है। वैज्ञानिकों का कहना था – “महामृत्युंजय मंत्र का प्रभाव ऐसा है मानों पूरे मैड्रिड शहर के ऊपर एक बड़ा-सा छाता खोल दिया गया हो।“

स्पेन में हुए शोध से साबित हुआ था कि मन की तरंगें सही रूप में उपयोग में लाई जाएं तो हमारा जीवन सुरक्षित हो सकता है। इस प्रयोग से कोई साठ साल पहले यौगिक शोधों के लिए मशहूर महाराष्ट्र के योगी स्वामी कुवल्यानंद और बिहार के योगी स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने कहा था – “महामृत्युंजय मंत्र की साधना से असाध्य रोगों से मुक्ति पाई जा सकती है।“  दुनिया का पहला योग विश्व विद्यालय के परमाचार्य रहे पद्मविभूषण स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं – “मैं अनेक साधकों को जानता हूं, जो मंत्रों की शक्ति से आरामदायक जीवन व्यतीत कर रहे हैं।“   

अपने देश में अगले तीस सालों में अल्जाइमर्स के रोगियों की संख्या में तीन गुणा इजाफा होने की आशंका है। तमाम वैज्ञानिक खोजों के बावजूद कारगर इलाज संभव नहीं हो सका है। योग और मंत्रों की शक्ति नई राह दिखा रही है। ऐसे में वैज्ञानिक तथ्यों को धर्म की चाशनी में लपेट कर राजनीति करना उचित नहीं। इसका खामियाजा हम पहले ही भुगत चुके हैं। सदियों पुराने ज्ञान को मिट्टी में मिला चुके हैं। अब वही ज्ञान पश्चिमी देशों में विज्ञान की कसौटी पर सही साबित हो रहा है। फिर भी भारत की भूमि पर उसे मान्यता न मिले, तो इसे दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा।

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