मन का दीप जले तो बने बात

किशोर कुमार

अयोध्या के भव्य दीपोत्सव पर सबकी नजर है। इस बार राम की पैड़ी पर इक्कीस लाख दीप जलाने का कीर्तिमान जो स्थापित होना है। हम सब जानते हैं कि दीपावाली की शुरूआत कैसे हुई थी और उसी दिन लक्ष्मी पूजन का विधान कैसे चल निकला। कार्तिक अमावस्या को भगवान श्रीराम अपना चौदह वर्ष का वनवास पूरा करके लौटे थे तो अयोध्यावासियों ने दीप प्रज्जवलित करके खुशी का इजहार किया था। उसके बाद से ही दीपावली मनाई जाने लगी थी। और, इंद्र को धन-संपदा के मद में चूर मानते हुए दुर्वासा ऋषि ने श्रॉप दे दिया था कि लक्ष्मी जी की कृपा खत्म हो जाए तो लक्ष्मी पूजन की पृष्ठभूमि तैयार हो गई थी। इसलिए श्रॉप मिलते ही लक्ष्‍मी पाताल लोक चली गईं तो सर्वत्र हाहाकार मच गया था। तब लक्ष्मी जी को वापस बुलाने के लिए समुद्र मंथन करवाया गया। कार्तिक मास की कृष्‍ण पक्ष की त्रयोदशी के दिन भगवान धनवंतरि निकले। इसलिए इस दिन धनतेरस मनाई जाती है और अमावस्‍या के दिन लक्ष्‍मी बाहर आईं। इसलिए हर साल कार्तिक मास की अमावस्‍या पर माता लक्ष्‍मी की पूजा होती है।    

इस पूरे घटनाक्रम को आध्यात्मिक नजरिए से देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि दीपावली का उद्देश्य केवल दीयों और मोमबत्तियों से घर-आंगण को प्रकाशित करना भर नहीं है। यह उत्सव संदेश देता है कि हम सब खुद में व्याप्त अंतः ज्योति के दर्शन करें। यह अंतः ज्योति और कुछ नहीं, उस निराकार प्रभु का प्रकाश-स्वरूप ही है। दीप संस्कृत शब्द है, जिसका अर्थ है दीप्यते दीपयति वा स्वं परं चेति। अर्थात् जो खुद प्रकाशित है और दूसरों को भी प्रकाशित करने में सक्षम है। वेद-वेदांग में इसे आत्मा का स्वरूप कहा गया है। श्रीराम भी ऐसे ही प्रकाश-पुंज थे। इसलिए उनके चरण रज जहां भी पड़े, वहां की धरती धन्य होती गई, लोग धन्य होते गए। यही है सत्वगुण का प्रभाव। पर आम मानव के रूप में हम सब कैसे हैं? श्रीमद्भगवतगीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं – हे भारत! कभी रज और तम को अभिभूत (दबा) करके सत्त्वगुण की वृद्धि होती है, कभी रज और सत्त्व को दबाकर तमोगुण की वृद्धि होती है, तो कभी तम और सत्त्व को अभिभूत कर रजोगुण की वृद्धि होती है।।

आखिर श्रीराम को वनवास तो केकैयी के लोभ – मोह की वजह से ही हुआ था। अर्जुन को भी तो विषाद ही हो गया था। देखा न कि श्रीकृष्ण को उन्हें विषादमुक्त करने के लिए कितनी कुश्ती करनी पड़ी थी। अपने आस-पास भी देखें तो ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएंगे। वैज्ञानिक प्रगति के बावजूद मानव पीड़ित है, अवसादग्रस्त है, तो इसकी वजह स्पष्ट है कि भौतिक प्रगति भी हमारे अशांत मन को सांत्वना प्रदान करने में सक्षम नहीं है। जैसे नमक या चीनी को पानी में मिलाते ही उसका स्वरूप बदल जाता है, उसी तरह अलग-अलग प्रभावों में आते ही सामान्य मानव का गुण-धर्म भी बदलते रहता है। ऐसी प्रक्रियाओं को आधुनिक विज्ञान के आलोक में जर्मनी के महान वैज्ञानिक रुडोल्फ जूलियस इमानुएल क्लॉसियस ने एंट्रॉपी कहा। पर हमारे संत-महात्मा वैदिककाल से गुणों और रसों के आधार पर इस परिवर्तन की विशद व्याख्या करते रहे हैं। सार एक ही कि विश्व में हर चीज़ विकृति की तरफ जाती है। पर संत-महात्मा इस स्थिति से उबरने के उपाय भी बतलाते रहे हैं, जिन्हें योग की भाषा में तरह-तरह से व्याख्या की गई है।

पर पहले एक प्रचलित कथा। यह कथा रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद के संदर्भ में कही जाती रही है तो ओशो ने इसे  शेख फरीद के संदर्भ में कहा। कथा चाहे किसी से संबंधित हो, पर इसका भाव आंखें खोलने वाला है। एक संत सुबह-सुबह स्नान करने नदी की तरफ जा रहे थे। तभी उनके एक शिष्य ने सवाल कर दिया – ईश्वर कहां है और कैसा है? संत ने शिष्य से कहा कि नदी साथ चलो, सब कुछ पता चल जाएगा। वे नदी में स्नान कर रहे थे, तभी संत ने मजबूती से शिष्य का गला पकड़ लिया। शिष्य के प्राण अटक गए। थोड़ी देर बाद संत ने उसे मुक्त किया तो उसने राहत की सांस ली। पर बेहद नाराज हुआ। संत ने कहा, नाराजगी बाद में निकाल लेना। पहले यह बताओ को श्वांस अटका था तो मन में क्या ख्याल आ रहा था? शिष्य ने उत्तर दिया,

ख्याल? शिष्य ने कहा,  न कोई ख्याल था, न कोई सवाल था। एक ही ख्याल था, कैसे एक श्वास ले लूं। फिर तो वह ख्याल भी मिट गया। फिर तो सारे प्राण एक पुकार से भर गए कि कैसे श्वास मिले। फिर मुझे पता भी नहीं कि श्वास चाहिए थी, फिर मैं ऊपर उठ रहा था। सारी ताकत लगा रहा था बाहर निकलने के लिए। लेकिन यह भी चेतन नहीं था। यह जो हो रहा था, यह भी मैं नहीं कर रहा था। तब संत ने कहा – जिस दिन परमात्मा को ऐसे ही पुकारोगे, उस दिन पूछने की जरूरत नहीं रहेगी कि परमात्मा कहां है। पर हमारी सारी प्रार्थनाएं झूठी हो जाती हैं। इसलिए कि हरदम बहिर्यात्रा चलती रहती है। और बहिर्मन और अंतर्मन में सामंजस्य बैठे बिना मन का दीप कैसे जले? जीवन से अंधेरा  कैसे छंटे? इसलिए हम वृहदारण्यकोनिषद् की प्रार्थना “असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय……” तो दोहराते रहते हैं और जीवन का अंधकार छंटने का नाम ही नहीं लेता।

सवाल है कि यह प्रार्थना फलित हो कैसे कि जीवन सुख-समृद्धि से भर जाए? योग में उपाय अनेक बतलाए गए हैं। पर महर्षि पतंजलि के एक सूत्र को भी जीवन में उतार लिया जाए तो बता बन जाए। महर्षि पतंजलि का सूत्र है – विशोका वा ज्योतिष्यती। यानी शोकातीत आलोक की अवस्था मन को नियंत्रित कर सकती है। बीसवीं सदी के महान संत स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने इसकी व्याख्या कुछ इस तरह की हैं – “नाद या भ्रूमध्य पर ध्यान केन्द्रित कर शांत अंतर्ज्योति की कल्पना करते हुए मन को स्थिर और नियंत्रित किया जा सकता है। अन्तर्ज्योति अत्यन्त शान्त, अविक्षुब्ध, निश्चल और प्रशांत होती है, इसमें तीखा प्रकाश नहीं होता है। गहन ध्यान में इसका अनुभव किया जा सकता है। ऐसी अनेक विधियाँ हैं, जिनके द्वारा ज्योति का अनुभव किया जा सकता है। उनमें से एक है भ्रूमध्य पर ध्यान केन्द्रित करना, दूसरी है नाद (ध्वनि) पर ध्यान केन्द्रित करना।“ तो आईए, दीपावली के मौके पर यौगिक शक्तियों के सहारे मन का दीप जलाकर खुद को समृद्ध बनाएं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

सनातन धर्म से निकला यौगिक अमृत है सूर्य नमस्कार

किशोर कुमार //

आदित्य एल1 मिसाइल के प्रक्षेपण के बाद सूर्यनमस्कार एक बार फिर चर्चा में है। आदित्य एल1 की खबर मीडिया में कुछ इस तरह थी – भारत चला सूर्यनमस्कार करने। अनेक योग व शिक्षण संस्थानो में सूर्यनमस्कार के लिए बड़े-बड़े आयोजन किए जा रहे हैं। सूर्य की महिमा का बखान करते हुए युवाओं से सूर्यनमस्कार अभ्यास को जीवन का अनिवार्य हिस्सा बनाने की अपील की जा रही है। इसलिए इस बार के कॉलम का विषय सूर्यनमस्कार ही चुना। पर जब लिखने बैठा तो जी20 शिखर सम्मेलन के 55 पृष्ठों वाले दस्तावेज पर नजर गई, जिसे किसी मित्र ने भेजा था। भारत के सांस्कृतिक व आध्यात्मिक चिंतन को दर्शाने वाले इस दस्तावेज ने बेहद प्रभावित किया। इसलिए उस दस्तावेज के सार-तत्व के आलोक में दो शब्द।   

जी20 शिखर सम्मेलन से हमने क्या खोया, क्या पाया, इसका राजनीतिक और आर्थिक विश्लेषण होता रहेगा। पर यह अच्छा हुआ कि इस शिखर सम्मेलन के बहाने हमने ने दुनिया को दिखाया कि भारत को विश्व गुरू क्यों कहा जाता था? यह भी कि हममें वे कौन से तत्व बीज रूप में मौजूद हैं कि हम फिर से विश्व-गुरू की पदवी पर अधिरूढ़ हो सकते हैं। आर्ष ग्रंथ इस बात के गवाह हैं कि हमारी चेतना इतनी विकसित और परिष्कृत थी कि हम खुद प्रकाशित तो थे ही, अपने प्रकाश से दुनिया को राह दिखाते रहे। भौतिक समृद्धि भी कुछ कम न थी। तभी तुर्कियों, यूनानियों और मुगलों के आक्रमणों और हजार वर्षों की लूट के बावजूद हमारा अस्तित्व बना रह गया।

आज सनातन धर्म को लेकर देश में बहस छिड़ी हुई है और पक्ष व विपक्ष में बहुत-सी बातें कही जा चुकी हैं। मैं उसके विस्तार में नहीं जाऊंगा। पर वैदिककालीन वैज्ञानिक ऋषि-मुनियों से लेकर आधुनिक युग के संत तक धर्म को परिभाषित करके मानते रहे हैं कि जीवन में धर्म की बड़ी अहमियत है। जैसे योग को जीने की कला माना जाता है, वैसे ही धर्म को भी जीने की कला और विज्ञान माना गया। संत जब धर्म की बात कहते हैं तो प्रकारांतर से अध्यात्म की भी बात कर रहे होते हैं। इसलिए कि कहीं न कहीं, सभी धर्मों की शुरुआत आध्यात्मिक प्रक्रिया के रूप में हुई है।

ओशो की एक बड़ी अच्छी पुस्तक है – मेरा स्वर्णिम भारत। इसकी बहुत-सी बातों से मत-मतांतर हो सकता है। पर नईपीढ़ी को प्रेरित करने वाली अनेक बाते हैं। उन्होंने लिखा है कि भारत एक सनातन यात्रा है, एक अमृत पथ है, जो अनंत से अनंत तक फैला हुआ है। भारत अपनी आंतरिक गरिमा और गौरव को,अपनी हिमाच्छादित ऊँचाईयों को पुनः पा लेगा, क्योंकि भारत के भाग्य के साथ पूरी मनुष्यता का भाग्य जुड़ा हुआ है। अब देखिए न। भारत जी20 शिखर सम्मेलन का अगुआ बना तो उसने फिर से “वसुधैव कुटुंबम्” के रूप में सनातन धर्म के मूल संस्कार व विचारधारा को मजबूती से दुनिया के समक्ष प्रस्तुत किया। कमाल यह कि इस पर पूरी दुनिया ने तालियां बजाईं।

भारत ने कोई नौ साल पहले जब योग को विश्व पटल पर प्रस्तुत किया तो उसका मकसद केवल अपना कल्याण नहीं था। मंशा तो यही थी कि पूरे विश्व का कल्याण हो। सभी खुशहाल रहें। इसलिए कि स्वस्थ तन-मन ही खुशहाली की कुंजी है। बीसवीं सदी के महान संत स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि सुखी, समृद्ध और स्वस्थ्य जीवन की चाहत है तो योगविद्या को जीवन का हिस्सा बनाना ही होगा। यह आजमाया हुआ है। प्राचीनकाल में भारत के लोग इसी विद्या के बल पर सुखी जीवन व्यतीत करते थे। उन्होंने सदैव समग्र योग पर बल दिया। पर भारत सरकार स्कूलों में सूर्यनमस्कार को ज्यादा ही अहमियत देती रही है तो इसकी खास वजह है।

दरअसल, सूर्यनमस्कार ही एक ऐसी योगविधि है, जिसके अभ्यास में समय कम और लाभ कई मिल जाते हैं। इसके अभ्यास से न केवल मानसिक बल प्राप्त होता है, बल्कि शारीरिक स्वास्थ्य प्राप्त होता है, शक्ति भी मिलती है। अब यह बात कोई सैद्धांतिक नहीं रह गई है, बल्कि लाखों लोगों का अनुभव है। योगियों का तो अनुभव है कि शारीरिक स्वास्थ्य के साथ ही चित्त को एकाग्र करने में भी बड़ी मदद मिलती है। आसन की बारह मुद्राओं वाले इस योगाभ्यास से शरीर की मांसपेशियां सबल होती हैं। रक्त-संचालन दुरूस्त रहता है। स्नायु-बल प्राप्त होता है और ग्रंथियां पुष्ट होती हैं। सूर्य की किरणों से कीटाणुओं का नाश होता है।

एक सूर्य नमस्कार से इतने साऱे लाभ मिलने के कारण ही शैक्षणिक संस्थानों का भी सूर्य नमस्कार पर ज्यादा जोर रहता है। छात्रों को भी यह खूब भाता है। बीते सप्ताह देहरादून में प्रयाग आरोग्य केंद्र के सहयोग से योगा स्पोर्ट्स फेडरेशन ने दो दिवसीय सूर्य नमस्कार कार्यक्रम का आयोजन किया था। इसे आशातीत सफलता मिली। इस मेगा इवेंंट में सात देशों और अठारह राज्यों के प्रतिनिधियों ने शिरकत की थी। विद्युत अभियंता से योगाचार्य बने प्रयाग आरोग्य केंद्र के संस्थापक प्रशांत शुक्ल योग को खेल बनाने के पक्ष में कभी नहीं रहे। पर खेल-खेल में योग के हिमायती रहे हैं। इसलिए मेगा इवेंट होने के बावजूद सूर्य नमस्कार अभ्यास व्यायाम भर नहीं रह गया था, बल्कि प्राणायाम, मुद्रा और मंत्रों के समिश्रण के कारण इसका पारंपरिक स्वरूप बना रहा। जाहिर है कि ऐसे अभ्यास के बड़े लाभ होते हैं। इस आयोजन की एक और विशिष्टता थी। इसमें भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों को ध्यान में रखते हुए “मिस योग इंडिया” प्रतियोगिता भी आयोजित की गई थी, जो योग की गौरवशाली संस्कृति की झांकी थी।

खैर, सूर्यनमस्कार के सैद्धांतिक और व्यवहारिक पक्षों मे स्पष्टता रहे, इसके लिए पुस्तकों का अध्ययन कर लेना ठीक ही रहता है। बाजार में अनेक बेहतरीन पुस्तकें उपलब्ध हैं। सूर्य नमस्कार पर स्वामी सत्यानंद सरस्वती की पुस्तक का कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। उसमें उन्होंने सूर्य नमस्कार के शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक पक्षों के बारे में विस्तार से बतलाया हुआ है। उनके मुताबिक, सूर्य नमस्कार के नियमित अभ्यास से होने वाले लाभ सामान्य शारीरिक व्यायामों की तुलना में बहुत अधिक हैं। साथ-ही-साथ इससे खेल से मिलने वाले आनन्द तथा शारीरिक मनोरंजन की मात्रा में भी वृद्धि होती है। इसका कारण है कि इससे शरीर की ऊर्जा पर सीधा शक्तिप्रदायक प्रभाव पड़ता है। यह सौर ऊर्जा मणिपुर चक्र में केन्द्रित रहती है तथा पिंगला नाड़ी से प्रवाहित होती है। जब यौगिक साधना के साथ सम्मिलित करते हुए अथवा प्राणायाम के साथ सूर्य नमस्कार का अभ्यास किया जाता है, तब शारीरिक तथा मानसिक दोनों स्तरों पर ऊर्जा संतुलित होती है।

योग-शास्त्रों में सूर्योपासना के प्रसंग तो जगह-जगह है। पर सूर्य नमस्कार किसके दिमाग की उपज है, यह पहेली है। आम धारणा रही है कि आधुनिक युग में सूर्य नमस्कार औंध (महाराष्ट्र) के राजा भवानराव श्रीनिवासराव पंत प्रतिनिधि की देन है। पर उपलब्ध साक्ष्य इस बात के खंडन करते हैं। जिस काल-खंड में भवानराव श्रीनिवासराव सूर्य नमस्कार का प्रचार कर रहे थे, उससे पहले मैसूर के प्रसिद्ध योगी टी कृष्णामाचार्य लोगों को सूर्य नमस्कार सिखाया करते थे। हां, यह सच है कि देश-विदेश में इसे प्रचार भवानराव श्रीनिवासराव के कारण ही मिला था। पर नामकरण उन्होंने नहीं किया था। कहा जाता है कि सन् 1608 में जन्मे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध सन्त , सूर्योपासक और छत्रपति शिवाजी महाराज के गुरु समर्थ रामदास योगासनों की एक श्रृखंला तैयार करके उसका अभ्यास किया करते थे। उनकी कालजयी पुस्तक  “दासबोध” में भी सूर्य की महिमा का उल्लेख मिलता है। ऐसा लगता है कि उन्होंने ही आसनों के समूह के लिए सूर्य नमस्कार शब्द दिया।   

उद्गम का स्रोत चाहे जो भी हो, पर सूर्य नमस्कार यौगिक अमृत है। तभी इसकी महत्ता आधुनिक युग के सभी योगियों से लेकर वैज्ञानिक तक स्वीकार रहे हैं। सनातन धर्म की खासियत है कि वह बिना किसी भेदभाव के मानव जाति को ऐसी जीवनोपयोगी विधियां उपलब्ध कराता है कि उस पर अमल किया जाए तो जीवन खुशहाल हो जाएगा। सूर्य नमस्कार इसका बेहतरीन उदाहरण है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

ओशो : हमने कांटों को भी नरमी से छुआ अक्सर

किशोर कुमार //

ओशो कालजयी हैं, शाश्वत, सदैव प्रासंगिक। बीसवीं सदी में संभवत: वे पहले विचारक, पहले आध्यात्मिक गुरू हुए, जिन्होंने अपने अनुभवों, अपने तर्कों से साबित किया कि आंतरिक आध्यात्मिकता का वाह्य समृद्धि या बाह्य दरिद्रता से कुछ लेना-देना नहीं है। उन्होंने प्रेम, श्रद्धा, भक्ति, संभोग और समाधि से लेकर स्वस्थ्य राजनीति तक पर अपने स्वतंत्र विचार प्रस्तुत किए। उनकी बातें दुनिया भर के लाखों लोगों के लिए एक मार्ग-दर्शक प्रकाश बन गईं। पर आलोचना भी कम न हुई। बिस्मिल सईदी का शेर है – “हमने काँटों को भी नरमी से छुआ है अक्सर, लोग बेदर्द हैं फूलों को मसल देते हैं।“ ओशो के साथ भी कुछ ऐसा ही होता रहा।     

यह सच है कि नए विचारों और उसके आलोक में धर्म की व्याख्या का सदैव विरोध होता रहा है। बुद्ध हों या जीसस, जीते जी उनकी बातों पर कहां विश्वास किया गया। जीसस को तो सूली पर ही चढ़ा दिया गया था। ऐसे में ओशो अपवाद नहीं रहे तो चौंकाने जैसी बात नहीं थी। इसलिए उन्हें जेल में डाला गया तो तनिक भी विचलित नहीं हुए थे, बल्कि जेल में ही क्रांति के बीज बो दिए थे। प्रख्यात कवि और प्रेरक वक्ता कुमार विश्वास शायद इकलौते हैं, जिन्होंने भरी सभा में खुले तौर पर स्वीकार किया कि उन्होंने ओशो की चर्चित व विवादास्पद पुस्तक “संभोग से समाधि तक” को छात्र जीवन से लेकर अब तक चार बार पढ़ा। वे इस निष्कर्ष पर हैं कि संभोग शब्द केवल टाइटल भर है। पुस्तक में बातें समाधि की है, ऊर्जा की है, उसके रूपांतरण की है। हालांकि समय के अनुसार चीजें बदली हैं। ओशो के महाप्रयाण के बाद उनके विचारों की स्वीकार्यता बढ़ती जा रही है। जिस तरह बुद्ध की अनुपस्थिति में बुद्ध धर्म पनपा, जीसस की अनुपस्थिति में ईसाई धर्म पनपा और उसे विस्तार मिला, उसी तरह ओशो के शब्द भी साक्षी बन रहे हैं।

धर्म ग्रंथों का अध्ययन करें तो कई बार ऋषियों-मुनियों की बातों में विरोधाभास दिखता है। रास्ते अलग-अलग दिखते हैं। पर लक्ष्य एक ही होता है। ऋग्वेद में कहा गया है कि सत्य बुहाआयामी है। ऋषिगण इस सत्य को विभिन्न पद्धतियों से उद्घोषित करते हैं। रामकृष्ण परमहंस कहते थे कि जिस प्रकार कोई व्यक्ति घर की छत पर सीढी, बांस, रस्सी अथवा किसी अन्य उपाय से चढ़ता है, उसी प्रकार ईश्वर तक पहुंचने के मार्ग भी अनेक हैं। संसार का प्रत्येक धर्म इनमें से किसी एक मार्ग का निर्देश करता है। इसलिए यहां यह चर्चा का विषय नहीं है कि ओशो ने जो कहा वह सत्य है या दूसरों ने जो कहा, वह सत्य है। इतना जरूर है कि ओशो ने जीवन पद्धति की जैसी व्याख्या की, वह ज्यादातर मामलों में वैदिक साहित्य के अनुरूप ही है। इसे कैवल्य उपनिषद की व्याख्या के जरिए भी समझा जा सकता है।

सर्वविदित है कि ओशो ने ध्यान योग को सर्वोपरि माना था। कैवल्योपनिषद् में भी ध्यानाभ्यास का विशद वर्णन मिलता है। मैंने इसलिए श्रद्धा, भक्ति, ध्यान और योग के मामले में ओशो के विचारों को कुछ शब्दों में व्यक्त करने के लिए कैवल्योपनिषद् पर उनके भाष्य को चुना है। इससे उनके मौलिक और स्वतंत्र चिंतन का भी पता चल जाता है। कैवल्योपनिषद् में शिष्य आश्वलायन परम स्वतंत्रता की आकांक्षा लिए सनत्कुमारों को ज्ञान का उपदेश देने वाले ब्रह्मा जी के पास जाते हैं और विनयपूर्वक ब्रह्म विद्या के लिए जिज्ञासा व्यक्त करते हैं। प्रत्युत्तर में ब्रह्मा जी कहते हैं, उस परमतत्व को पाने के लिए श्रद्धा, भक्ति, ध्यान और योग का आश्रय लेना पड़ता है। ओशो इस संवाद की सुंदर व्याख्या करते हैं। पर वे इसी बात को स्वतंत्र रूप से, उपनिषद का नाम लिए बिना कहते हैं तो उल्टा मालूम पड़ता है। पर ओशो ऐसी बातों की परवाह कहां रही। वे खुलकर कहते रहे कि आध्यात्मिक जीवन की शुरूआत श्रद्धा से होनी चाहिए। फिर भक्ति, ध्यान और योग।

ओशो कहते हैं कि श्रद्धा कास्मिक है, ब्रह्मभाव है। भक्ति आत्मिक है, व्यक्तिभाव है। ध्यान मानसिक है और योग शारीरिक है। ज्यादातर लोग क्या करते हैं, शरीर से शुरू करते हैं, फिर मन पर जाते हैं, फिर आत्मा पर और फिर ब्रह्म पर। यानी कैवल्योपनिषद में बतलाए गए क्रम से उलट। इसलिए हर चरण सहज न होकर कठिन होता चला जाता है। इसलिए आमतौर पर ऐसा होता है कि योग से शुरू करने वाले योग पर अटक जाते हैं और आसन वगैर करके निपट जाते हैं। ध्यान तक पहुंच ही नहीं पाते। ध्यान से शुरू करने वालों के लिए भक्ति कठिन हो जाती है और भक्ति से शुरू करने वाले श्रद्धा तक नहीं पहुंच पाते। इसलिए शुरूआत श्रद्धा से होनी चाहिए।

श्रीमद्भगवतगीता में श्रीकृष्ण ने कहा है – “जो-जो भक्त जिस-जिस देवताका श्रद्धापूर्वक पूजन करना चाहता है, उस-उस देवताके प्रति मैं उसकी श्रद्धाको दृढ़ कर देता हूँ।“ पर श्रद्धावान बनें कैसें? परमहंस योगानंद ने अपने गीताभाष्य में कहा है कि कोई भक्त अपने ईष्ट देवता पर अत्यधिक गहनता से एकाग्र होता है तो वही अभिव्यक्ति एक जीवित रूप धारण करके भक्त के हृदय की सच्ची पुकार को संतुष्ट करती है। ओशो के मुताबिक, मीरा या कबीर जब कहते हैं कि ऐ री मैंने राम-रतन धन पायो, तो वह श्रद्धा ही तो है। उनकी श्रद्धा मजबूत हुई तो सब भ्रम टूट गया। फिर मिला क्या? राम-रतन धन। यानी कोहिनूर हीरा। अब जिसे कोहिनूर हीरा मिल गया, तो वह कंकड़—पत्थर क्यों चुनेगा!

ओशो कहते हैं कि श्रद्धा के बाद है भक्ति। श्रद्धा जैसी अंतर्घटना की अभिव्यक्ति। एक बार श्रद्धा का जन्म हो जाए तो भक्ति अनिवार्य छाया की तरह उसके पीछे चली आती है। अब किसी पदार्थ में भी प्रेमी या परमात्मा के दर्शन हो सकते हैं। इन दो परिघटनाओं के बाद ध्यान सुगंध की तरह पीछा करता है। मीरा बाई और चैतन्य महाप्रभु इसके उदाहरण हैं। सबसे आखिर में योग को रखा गया है। जिसे ध्यान सध जाता, उसके पीछे योग चला आता है। हम हैं कि इसके उलट कठिन रास्ता चुन लेते हैं। ओशो की प्राय: ऐसी ही बातें उनके समकालीन प्रबुध्दजनों को उल्टी मालूम पड़ती थी। प्रसिध्द गीतकार गुलजार सदैव ओशो के विचारों से खासे प्रभावित रहे हैं। वे कहते हैं कि ओशो कुछ और नहीं, बल्कि अस्तित्व की अभिव्यक्ति हैं। अस्तित्व का माधुर्य हैं। उनकी करूणा का सहारा पाकर मानवता धन्य हुई। ओशो को उनकी 91वीं जयंती पर सादर नमन।  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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