बालयोग और स्वामी निरंजनानंद सरस्वती के संदेश

किशोर कुमार

आधुनिक योग के वैज्ञानिक संत परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती के जन्मदिवस और बालयोग दिवस की शुभकामनाएं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रस्ताव और संयुक्त राष्ट्र संघ की सहमति के बाद भले सन् 2015 से प्रति वर्ष 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाया जाने लगा है। पर इसका बीजारोपण दो दशक पहले यानी 1995 में हो चुका था। उसी वर्ष बीसवीं सदी के महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती के पट्शिष्य और बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती के जन्मदिवस को बालयोग दिवस के रूप में मनाने का फैसला किया गया था। तब से वह सिलसिल अनवरत जारी है। कोरोनाकाल में जब बड़ी संख्या में बच्चे मानसिक पीड़ाओं से दो चार हो रहे हैं और उनकी बौद्धिक क्षमता में ह्रास होने की प्रबल संभावना बनी हुई है, ऐसे में स्वामी निरंजनानंद सरस्वती के प्रसंग और बालयोग दिवस की महत्ता और भी बढ़ गई है।  

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती के पीछे बाल्यावस्था में स्वामी निरंजनानंद सरस्वती अपने पिताजी की गोद में। बगल में हैं अम्मा जी।

आद्य गुरू शंकराचार्य की दशनामी संन्यास परंपरा के संन्यासी परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती आधुनिक युग के एक ऐसे सिद्ध संत हैं, जिनका जीवन योग की प्राचीन परंपरा, योग दर्शन, योग मनोविज्ञान, योग विज्ञान और आदर्श योगी-संन्यासी के बारे में सब कुछ समझने के लिए खुली किताब की तरह है। उनकी दिव्य-शक्ति का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने मात्र 11 साल की उम्र में लंदन के चिकित्सकों के सम्मेलन में बायोफीडबैक सिस्टम पर ऐसा भाषण दिया था कि चिकित्सा वैज्ञानिक हैरान रह गए थे। बाद में शोध से स्वामी जी की एक-एक बात साबित हो गई थी।

आज वही निरंजनानंद सरस्वती नासा के उन पांच सौ वैज्ञानिकों के दल में शामिल हैं, जो इस अध्ययन में जुटे हुए हैं कि दूसरे ग्रहों पर मानव गया तो वह शारीरिक व मानसिक चुनौतियों से किस तरह मुकाबला कर पाएगा। स्वामी निरंजन अपने हिस्से का काम नास की प्रयोगशाला में बैठकर नहीं, बल्कि मुंगेर में ही करते हैं। वहां क्वांटम मशीन और अन्य उपकरण रखे गए हैं। वे आधुनिक युग के संभवत: इकलौते सन्यासी हैं, जिन्हें संस्कृत के अलावा विश्व की लगभग दो दर्जन भाषाओं के साथ ही वेद, पुराण, योग दर्शन से लेकर विभिन्न प्रकार की वैदिक शिक्षा यौगिक निद्रा में जरिए मिली थी। उसी निद्रा को हम योगनिद्रा योग के रूप में जानते हैं, जो परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की ओर से दुनिया को दिया गया अनुपम उपहार है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद बिहार योग परंपरा से बेहद प्रभावित हैं। कुछ साल पहले तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति की बेटी इवांका ट्रंप ने उनसे पूछा था कि आप इतनी मेहनत के बावजूद हर वक्त इतने चुस्त-दुरूस्त किस तरह रह पाते हैं तो इसके जबाव में प्रधानमंत्री ने परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती की आवाज में रिकार्ड किए गए योगनिद्रा योग को ट्वीट करते हुए कहा था, इसी योग का असर है। जबाब में इवांका ट्रंप ने कहा था कि वह भी योगनिद्रा योग का अभ्यास करेंगी। खैर, सन् 1960 में मध्यप्रदेश (अब छत्तीसगढ़) के राजनांदगांव में जन्में स्वामी निरंजनानंद सरस्वती बाल्यावस्था में ही अपने गुरू स्वामी सत्यानंद सरस्वती की शरण में चले गए थे। प्रारंभ में उन्हें गायत्री मंत्र, सूर्य नमस्कार और नाड़ी शोधन प्राणायाम की शिक्षा मिली और इसके साथ योगमय जीवन की आधारशिला पड़ गई थी।

स्वामी निरंजनानंद सरस्वती के सबल कंधों पर जब बिहार योग परंपरा की जिम्मेवारी आई तो उन्होंने समन्वित योग के प्रचार-प्रसार के गुरूत्तर कार्य के साथ ही बच्चों के योगमय जीवन पर बहुत जोर दिया। इसे व्यापकता प्रदान करने के लिए सात बच्चों को लेकर बालयोग मित्र मंडल का गठन किया। इसी बालयोग मित्र मंडल के तत्वावधान में स्वामी निरंजनानंद सरस्वती का जन्मदिवस बालयोग दिवस के रूप में मनाया जाने लगा। इस संगठन का उद्देश्य संस्कार की प्राप्ति, स्वावलंबन और राष्ट्र-संस्कृति प्रेम को बढ़ावा देना है। वैसे, भारत की प्रचीन परंपरा रही है कि बच्चे जब आठ साल के होते थे तो उनका उपनयन संस्कार कराया जाता था। इसके तहत चार वर्षों यानी बारह साल की उम्र तक के लिए मुख्य रूप से सूर्य नमस्कार, नाडी शोधन प्राणायाम और गायत्री मंत्र का अभ्यास प्रारंभ करवाया जाता था। यह संस्कार लड़के और लड़कियों दोनों को दिया जाता था। ऋषि-मुनि योग की वैज्ञानिकता के बारे में जानते थे। उन्हें पता था कि योगाभ्यास न केवल बच्चों के शरीर को लचीला बनाता है, बल्कि उनमें अनुशासन और मानसिक सक्रियता भी लाता है। इससे साथ ही एकाग्रता बढ़ती है और सृजनात्मक प्रेरणा प्राप्त होती है।

यह जानना बड़े महत्व का है कि उपनयन संस्कार के साथ ही योगमय जीवन शुरू करने के लिए आठ साल की उम्र को ही क्यों उपयुक्त माना जाता था। आधुनिक विज्ञान के लिहाज से मस्तिष्क के केंद्र में स्थित पीनियल ग्रंथि बच्चों की चेतना के विस्तार के लिए बेहद जरूरी है। अनुसंधानों के मुताबिक आठ साल तक के बच्चों में पीनियल ग्रंथि बिल्कुल स्वस्थ रहती है। उसके बाद कमजोर होने लगती है। किशोरावस्था आते-आते में अक्सर विघटित हो जाती है। पीनियल ग्रंथि का क्षय प्रारंभ होते ही पिट्यूटरी ग्रंथि या पीयूष ग्रंथि और संपूर्ण अंत:स्रावी प्रणालियां अनियंत्रित होती जाती हैं। नतीजतन, असमय यौवनारंभ हो जाता है, जबकि बच्चों की मानसिक अवस्था इसके लिए उपयुक्त नहीं होती है। अन्य कई व्याधियां भी प्रकट होने लगती हैं।

हम जानते है कि सूर्य नमस्कार स्वयं में पूर्ण योग साधना है। इसमें आसनों के साथ ही प्राणायाम, मंत्र और ध्यान की विधियों का समावेश है। शरीर के सभी आंतरिक अंगों की मालिश करने का एक प्रभावी तरीका है। आसन का प्रभाव शरीर के विशेष अंगों, ग्रंथियों और हॉरमोन पर होता है। अलग से मंत्र का समावेश करके प्राणायाम करने से पीनियल ग्रंथि का क्षय रूकता है। इस वजह से पिट्यूटरी ग्रंथि से निकलने वाला हार्मोन नियंत्रित रहता है। सजगता और एकाग्रता में वृद्धि होती है। मानसिक पीड़ा से राहत मिलती है। ये बातें वैज्ञानिक अध्ययनों से भी साबित हो चुकी हैं। दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि आधुनिक विज्ञान की बदौलत योग की महिमा को जानते हुए भी हम उसे बच्चों के जीवन का हिस्सा बनवाने में मदद नहीं करते। इस लिहाज से स्वामी निरंजनानंद सरस्वती का जीवन और बालयोग दिवस के संदेश बड़े महत्व के हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

गुणवत्ता पूर्ण योग शिक्षा बड़ी चुनौती

हम जानते हैं कि आध्यात्मिक जीवन की शुरूआत सेवा से होती है और दया, करूणा और प्रेम के योग से वह परिपक्व होता है। यही योगमय जीवन का आधार भी है। पर व्यावसायीकरण की अंधी दौड़ में योग का असल स्वरूप बिगड़ रहा है। यह आत्मघाती काम ऐसे समय में किया जा रहा है, जब छह वर्षों में गूगल सर्च इंजन पर योग की पड़ताल करने वालों की संख्या दोगुनी हो चुकी है। एलाइड मार्केट रिसर्च की रिपोर्ट के मुताबिक केवल भारत में ही योग का कारोबार 4 अरब रूपए से ज्यादा का है। सन् 2027 तक योग का वैश्विक बाजार 66.4 बिलियन अमेरिकी डालर हो जाने की संभावना है। योग शिक्षण-प्रशिक्षण की गुणवत्ता को बेहतर बनाकर बढ़ते बाजार का लाभ लिया जा सकता है। दुनिया के ज्यादातर देशों में भारतीय योगाचार्यों की बड़ी मांग है। पर योग शिक्षण-प्रशिक्षण में गुणवत्ता का सवाल चिंता का सबब बना हुआ है।

बात तो योग की ही होनी है। पर पहले पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी से जुड़ा एक प्रसंग। मोरारजी देसाई राष्ट्रीय योग संस्थान की आधारशिला रखने के लिए दिल्ली के विज्ञान भवन में कार्यक्रम था। चर्चित योग गुरू धीरेंद्र ब्रह्मचारी द्वारा स्थापित केंद्रीय योग अनुसंधान संस्थान व विश्वायतन योगाश्रम के एकीकरण के बाद वृहत्तर उद्देश्यों से नई शुरूआत होनी थी। पर तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री डॉ सीपी ठाकुर के मुंह से निकले एक वाक्य से समन्वित योग और समग्र स्वास्थ्य की अवधारणा की बात चर्चा के केंद्र में आ गई थी।

हुआ यूं कि स्वागत भाषण में श्री ठाकुर ने कह दिया कि योग कीजिए, सफेद बाल काले हो जाएंगे। उस जमाने में योग का विषय केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के अधीन होता था। इसलिए संभवत: मजाकिया लहजे में कही गई यह बात भी श्री वाजपेयी को गंवारा न था। उन्होंने अपने भाषण में योग का असल मकसद बताते हुए कहा कि यदि बाल ही काला करना है तो योग की क्या जरूत? बाजार में बहुत सारे हेयर कलर मिलते हैं।

यह वही दौर था, जब लोग नाखून से नाखून को रगड़ कर बाल काले करने में जुटे हुए थे। खैर, एक दशक बीतते-बीतते योग का हश्र वैसा ही हुआ, जिसकी आशंका श्री वाजपेयी को हुई रही होगी। हालात ऐसे बने कि योग और व्यायाम में फर्क करना मुश्किल हो गया। राजयोग को हठयोग और हठयोग को राजयोग बताने वाले बाजार में छा गए। परंपरागत योग के संस्थानों की योग की अवधारणा विलुप्त होती प्रतीत होने लगी। ऐसे में गुरू-शिष्य परंपरा वाले योगाश्रमों के संन्यासियों का विचलित होना स्वाभाविक था। बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती को दिल्ली में आयोजित योगोत्सव में सार्वजनिक रूप से कहना पड़ा था कि योग कोई टोटका नहीं है सिर नीचे, पैर ऊपर करने से बीमारी ठीक हो जाएगी। एकांकी योग से भी मानव जाति का कुछ भला नहीं होना है। योग वह है, जिससे बुद्धि, भावना व कर्म में सामंजस्य होता है।

यह सुखद है कि 7वें अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के आलोक में योग शिक्षण और प्रशिक्षण संस्थानों की ओर से आयोजित वेबिनारों के जरिए योग शिक्षण-प्रशिक्षण में आई विकृतियों पर चिंता व्यक्त की जा रही है। साथ ही इस स्थिति से उबरने के लिए नाना प्रकार के उपाय भी सुझाए जा रहे हैं। इनमें मोरारजी देसाई राष्ट्रीय योग संस्थान के प्राध्यापक डॉ विनय कुमार भारती का व्याख्यान प्रतिनिध वक्तव्य की तरह है। उन्होंने अल्मोड़ा स्थित सोबन सिहं जीना विश्व विद्यालय के योग विज्ञान विभाग के वेबिनार में अटलबिहारी वाजपेयी वाले प्रसंग को उद्धृत करते हुए कहा कि योग की परंपरा, गुरू परंपरा की योग साधनाओं को आत्मसात किए बिना योग के संवर्द्धन और उससे अधिकतम लाभ लेने की कल्पना नहीं की जा सकती। इसके लिए जरूरी है कि जीवन में समग्र स्वास्थ्य के लिए समन्वित योग को स्थान दिया जाए।

योग के प्रयोगात्मक पक्ष से जुड़े होने के कारण श्री भारती ने योग की विभिन्न विधियों के आनुपातिक अभ्यास की रूपरेखा बनाकर साबित किया कि शरीरिक, मानसिक, सामाजिक व आध्यात्मिक पक्षों का समावेश करके योगाभ्यास हो तो जीवन में किस तरह सुगंधित फूल खिलते हैं। मोरारजी देसाई राष्ट्रीय योग संस्थान में उनकी पहल पर नए योग साधकों के लिए शुरू किया गया फाउंडेशन कोर्स इन योगा साइंस फॉर वेलनेस पाठ्यक्रम इसका प्रमाण है। उसमें समन्वित योग की एक झलक मिलती है। ऋषिकेश स्थित शिवानंद आश्रम और बिहार योग विद्यालय जैसे गुरू-शिष्य परंपरा वाले योग संस्थानों में तो समन्वित योग से इत्तर योग शिक्षा की कल्पना भी नहीं की जा सकती। पर लकीर का फकीर बने सरकारी संस्थान भी इस दिशा में आगे बढ़ते हैं तो निश्चित रूप से जनता के बीच बेहतर संदेश जाता है।

अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस पर इन मुद्दों पर चर्चा जरूरी इसलिए भी है कि दुनिया के अनेक देश योग की महाशक्ति होने के कारण हमारी तरफ आशा भरी नजरों से देख रहे हैं। हमें योग की अपनी गौरवशाली विरासत को दरकिनार कर फास्ट फूड की तरह फटाफट योगाभ्यास और योग शिक्षा की प्रवृत्ति का त्याग करना होगा। मोदी सरकार के योग के प्रति विशेष अनुराग से निश्चित रूप से नई योग-क्रांति का सूत्रपात हुआ है। पर खोई प्रतिष्ठा हासिल करने के लिए हमें अभी लंबी दूरी तय करनी है। गुरू-शिष्य परंपरा वाले योग संस्थान बेहतर काम कर रहे हैं। पर सरकार को भी अल्पकालिक और दीर्घकालिक योजनाएं बनाकर कई सुधारवादी कदम उठाने होंगे।  

मसलन, देश भर में प्लस टू की शिक्षा के बाद डिप्लोमा स्तर की योग शिक्षा देने के लिए गुरू-शिष्य परंपरा वाले योगाश्रमों के सहयोग से पाठ्यक्रम में एकरूपता लानी होगी। मूल्यांकन के लिए सीबीएसई की तरह ही एक स्वतंत्र निकाय जरूरी होगा। पाठ्यक्रम तैयार करते समय ध्यान रखा जाना चाहिए कि योग शिक्षा में अध्यात्म का समावेश अनिवार्य रूप से हो। इसके बिना योग ठीक वैसे ही है, जैसे फुलौरी बिना चटनी। वैसा योग किसी काम का नही, जिससे मनुष्य के जीवन, उसकी प्रतिभा का उत्थान न होता हो। आखिर विश्व स्वास्थ्य संगठन को भी योग के संदर्भ अध्यात्म की भूमिका स्वीकारनी ही पड़ी न।

दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि यौगिक अनुसंधानों को गति देनी होगी। बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में लोनावाला स्थित कैवल्यधाम के संस्थापक स्वामी कुवल्यानंद और उसके बाद परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती इस काम में अग्रणी भूमिका निभाते रहे। वे सीमित साधनों के बावजूद वैज्ञानिक शोधों के परिणामों का आकलन करके योग विधियां साधकों के समक्ष प्रस्तुत किया करते थे। सरकारी स्तर पर इस काम को कभी अहमियत नहीं दी गई। कुछ शोध संस्थान अस्तित्व में आए भी तो लालफीताशाही के कारण अपने मकसद में कामयाब नहीं हो पाए।

स्कूल स्तर पर योग शिक्षा देने का फैसला स्वागत योग्य है। पर पाठ्यक्रम और शिक्षकों की गुणवत्ता ऐसी होनी चाहिए कि बच्चों के जीवन में संयम व अनुशासन कायम हो सकें। वरना योग महज खेल बनकर रह जाएगा। आठ साल से कम उम्र के बच्चों के लिए तो खेल-खेल में योग सही है। पर बड़े बच्चों के लिए योग खेल बना तो पिट्यूटरी ग्रंथि को नियंत्रित करना मुश्किल होगा। ऐसे में प्रतिभा का अपेक्षित विकास नहीं हो पाएगा। इसका कुप्रभाव राष्ट्र के नवनिर्माण पर पड़ेगा। इसलिए कि आज के बच्चे ही तो कल के भविष्य हैं। यह याद रखा जाना चाहिए कि योग का प्रमुख लक्ष्य स्वास्थ्य नहीं, बल्कि मन की एकाग्रता है, मन का प्रबंधन है। स्वास्थ्य तो इसका पार्श्व प्रभाव है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।

गुणवत्तापूर्ण योग शिक्षा बड़ी चुनौती

योगविद्या को लेकर लोगों का दृष्टिकोण बदला है। जो योग शिक्षक-प्रशिक्षक समय की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए बेहतर देने की स्थिति में होगा, वही प्रतिस्पर्द्धा में टिका रह पाएगा। कुछ भी नहीं चलेगा। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि बीते एक दशक में फटाफट योग की संस्कृति विकसित की गई। फास्ट फूड की तरह। इससे योगाभ्यासियों और योगविद्या में अपना कैरियर देखने वालों का बड़ा अहित हुआ। पर यह सत्य है कि समस्या चाहे जैसी भी हो, उससे उबरने का सूत्र भी उसी में निहित होता हैं। भारत में ऐसे योगियों की कमी नहीं , जिन्होंने विपरीत परिस्थियों में राह बनाई थी और अपनी बौध्दिक व आध्यात्मिक क्षमता का विकास करके योगविद्या को समृद्ध किया।

कोरोना महामारी के बाद भारत में योग का कारोबार ऊंची उड़ान भर रहा है। उद्योग परिसंघों की रिपोर्टों का विश्लेषण करने से पता चलता है कि कोरोबार सौ बिलियन का हो चुका है, जो वेलनेस सेक्टर के कुल कारोबार का चालीस फीसदी है। योग के मुख्यत: दो पक्ष हैं। एक लौकिक और दूसरा आध्यात्मिक। कारोबार की बात हो रही है तो जाहिर है कि लौकिक पक्ष खासतौर से उपचारात्मक पक्ष की बात है। आम जन के बीच योग के चिकित्सीय पक्ष को लेकर समझ बढ़ने और कोविड-19 की दवा की अनुपलब्धता की वजह से योग कारोबार को पंख लगा। दूसरी तरफ अगले शैक्षणिक सत्र से स्कूलों में भी योग शारीरिक शिक्षा का एक अंग बनने वाला है। दूसरे देशों में भारतीय योगाचार्यों की मांग पहले से है। जाहिर है कि योग के क्षेत्र में रोजगार के बड़े अवसर हैं। चुनौती बस योग शिक्षा की गुणवत्ता को लेकर है।  

गुणवत्तापूर्ण योग शिक्षा न होने का ही नतीजा है कि कोरोनाकाल से पहले योग व्यवसाय से जीवन-यापन करने वाले लगभग 70 फीसदी योग प्रशिक्षक या तो बेरोजगार हैं या कोई अन्य व्यवसाय में लगे हुए हैं। कोई समोसा बेच रहा है तो कोई स्वास्थ्य सबंधी उत्पादों का वितरक बना हुआ है। इनमें ऐसे योग प्रशिक्षक भी शामिल हैं, जो हठयोग सीखाने में तो सक्षम हैं। पर संप्रेषण या तकनीकी दक्षता के अभाव में स्वर्णिम अवसर गंवाने को मजबूर हैं। यह इस बात का द्योतक है कि योग शिक्षा देने के तरीकों में खोट है। वरना योग की बढ़ती स्वीकार्यता के बीच प्रशिक्षित योगाचार्यों का बेरोजगार रह जाना भला कैसे संभव था? योग के नाम पर कुछ भी और किसी भी तरह परोसने की प्रवृत्ति के कारण ऐसी स्थिति बनी है, जबकि गुणवत्तापूर्ण योग शिक्षा समय की मांग है।

योग परंपरा के संन्यासी दृढ़ता के साथ कहते रहे हैं कि बच्चे जब सात-आठ साल हो जाएं तो कुछ यौगिक क्रियाएं शुरू करानी चाहिए। क्यों? क्या शरीर स्वस्थ्य रहे, इसलिए? नहीं। हमारी परंपरा में योग का लक्ष्य केवल बीमारियों से मुक्ति नहीं रही। योगाभ्यास इसलिए कराया जाता था कि कम उम्र में पीनियल ग्रंथि के क्षय होने की गति धीमी की जा सके। ऐसा होने से पिट्यूटरी ग्रंथि सुरक्षित रहेगी। बच्चों के मस्तिष्क के कार्य, व्यवहार और ग्रहणशीलता नियंत्रित रहेंगे। इससे बौद्धिक विकास होगा और जीवन में स्पष्टता रहेगी। यौन ग्रंथियां समय से पहले सक्रिय नहीं होंगी। स्कूलों के योग शिक्षकों को ऐसे परिणाम हासिल करने के लिए उपयुक्त योगाभ्यासों पर ध्यान केंद्रित करना होगा। पर वे सक्षम न हुए तो शिक्षित-प्रशिक्षित बेरोजागरो की फौज ही खड़ी होगी।  

शीर्षासन के बड़े-बड़े फायदे हैं। मस्तिष्क में रक्त की आपूर्ति बढ़ती है तो नाड़ी-तंतुओं का बेहतर पोषण होता है। शरीर से विषाक्त द्रव्य निष्कासित होता हैं। इससे मानसिक शक्ति और एकाग्रता में वृद्धि होती है। पर साथ ही चेतावनी भी दी जाती है कि उच्च रक्तचाप और स्लिप डिस्क वाले मरीज इस आसन से दूर रहें। पर सिद्ध संतों की बात निराली होती है। बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती के पास एक व्यक्ति आया। वह उच्च रक्तचाप की समस्या से परेशान था। स्वामी जी ने कहा, शीर्षासन करो। उसने वैसा ही किया और समस्या दूर हो गई। यह ठीक है कि सामान्य योग प्रशिक्षकों से ऐसे परिणाम की उम्मीद नहीं की जा सकती है। वे तो मजबूत इच्छा-शक्ति और शास्त्रसम्मत शिक्षा से ही योग के वास्तविक परिणाम हासिल कर ही सकते हैं।

सवाल है कि योग शिक्षा कैसी हो कि योग शिक्षक-प्रशिक्षक गुणवान बन सकें? इस संदर्भ में स्वामी सत्यानंद सरस्वती से ही जुड़ा एक अन्य प्रसंग गौरतलब है। वे ऋषिकेश के अपने गुरू स्वामी शिवानंद सरस्वती के योग प्रचार संबंधी मिशन पर निकलने से पहले तक योग के बारे में कुछ भी नहीं जानते थे। उनका मार्ग तो संन्यास का था। पर गुरू ने कह दिया कि जाओ, योग का प्रचार करों। ऐसा करने के लिए शक्तिपात के जरिए शक्ति दी। स्वामी सत्यानंद ने विचार किया कि घर-घर योग सीखाने से बेहतर है कि योग शिक्षक तैयार करो और ऐसा शिक्षक, जो हठयोग और राजयोग तक ही सीमित न रहे। उसे समग्र योग यानी कर्मयोग, ज्ञानयोग, मंत्रयोग, लययोग आदि का भी ज्ञान हो। उन्होंने योगविद्या को अष्टांग योग तक सीमित नहीं रखा। उनका मानना था कि अष्टांग योग राजयोग का अंग नहीं है। यह तो समस्त योगमार्गों का अंग है। जैसे, प्रत्याहार का अभ्यास राजयोग, क्रियायोग, कुंडलिनी योग, मंत्रयोग, लययोग, नादयोग या किसी भी योग में किया जाता है। आज यदि योग शिक्षा के मामले में ऐसा दृष्टिकोण हो तो भारत के योगाचार्यों की पूरी दुनिया में तूती बोलेगी।

रही बात इच्छा-शक्ति की तो इस संदर्भ में आयंगार योग के जनक और हठयोग के विश्व प्रसिद्ध योगाचार्य बीकेएस आयंगार से सीख लेनी चाहिए। वे मामूली पढ़-लिख पाए थे। किशोरावस्था तक अंग्रेजी का ज्ञान बिल्कुल नहीं था। पर आधुनिक योग के पितामह के रूप में मशहूर टी कृष्णामाचार्य की दृष्टि पड़ी तो उनकी ऊर्जा का दिशांतरण हुआ। किशोरावस्था में ही पुणे के डेक्कन जिमखाना क्लब में बतौर योग प्रशिक्षक नौकरी मिल गई। जब जीवन पटरी पर आने लगा तो नौकरी छूट गई। सवारी के नाम पर साइकिल थी। वे अपने जीविकोपार्जन के लिए दूर-दूर जाकर लोगों को योग सीखाते और खुद की उन्नति के लिए साधनाएं करते थे। उन्हें समझ में आ गया कि लोगों की तात्कालिक जरूरतें क्या हैं और दूरगामी परिणामों के लिए क्या करना होगा। इन बातों को ध्यान में रखकर अपने को उनके अनुरूप ढाला और हठयोग के पितामह बन गए।

इन तमाम बातों के मद्देनजर सरकार को भी गुणवत्तापूर्ण योग शिक्षा के लिए असरदार कार्य-नीति तैयार करनी होगी। संसद का बजट सत्र चल रहा है। आगामी शैक्षणिक सत्र को ध्यान में रखकर असरदार नीति बनाई जा सकती है। ताकि योग शिक्षको-प्रशिक्षकों के साथ ही छात्रों आम अन्य योग साधकों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिल सके। यदि स्कूलों में योग शिक्षा को फिजिकल एडुकेशन का हिस्सा न बनाकर स्वतंत्र विषय बना दिया जाए तो बड़ी बात होगी। योग शिक्षकों का एक बड़ा समूह इसकी मांग कर भी रहा है।  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

अदालत का फैसला सही, योग के मामले में सरकार अपना काम करे

इसमें दो मत नहीं कि केंद्र की मोदी सरकार योग के मामले में उल्लेखनीय काम कर रही है। अब तक की किसी सरकार ने योग को इतनी गंभीरता से नहीं लिया था। ऐसे में योग के मामले में केंद्र सरकार के काम में उच्चतम न्यायालय ने दखल देने से मना करके ठीक ही किया। स्वस्थ्य लोकतंत्र के लिए यह ठीक नहीं कि अदालत सरकार के हर काम में दखल दे। पर यह भी सही है कि जिस याचिका के आधार पर उच्चतम न्यायालय ने सरकार के काम में दखल देने से मना किया है, उस याचिका के कई तथ्यों में दम है।

वैसे, यह अजीब बात है कि जो भारत योग के मामले में विश्व गुरू रहा है, उसे योग को उचित स्थान पाने के लिए वर्षों मशक्कत करनी पड़ी। दूसरी तरफ फ्रांस जैसे देश में, जहां की शिक्षा नीति ऐसी है कि किसी धार्मिक सिद्धांत या आध्यात्मिक दर्शक का समावेश नहीं हो सकता, वहां सन् 2012 से किंडरगार्डेन से लेकर कॉलेज स्तर तक योग शिक्षा दी जा रही है। चौंकाने वाली बात यह कि भारत के परंपरागत योग का वैश्विक संस्थान बिहार योग विद्यालय पूरे फ्रांस में योग का अलख जगा रहा है। वहां की सरकार पूरी तरह इस संस्था पर निर्भर है। काम में कोई सरकारी दखल नहीं।

योग को लेकर उच्चतम न्यायालय के आज के फैसले से संबंधित खबर नीचे के लिंक के जरिए विस्तार से पढ़ा जा सकता है।

https://hindi.livelaw.in/category/news-updates/sc-dismisses-plea-seeking-development-broadcast-of-covid-yoga-protocols-160366

: News & Archives