बगुला ध्यान से कैसे हो मन का प्रबंधन

सर्वत्र ध्यान की बात चल रही है। इसलिए कि मानसिक उथल-पुथल ज्यादा है। पर आमतौर पर ध्यान के नाम पर जो भी अभ्यास किया या कराया जाता है, वह वास्तव में ध्यान नहीं होता, ध्यान जैसा होता है। पश्चिमी देशों में अब तक तनावों पर ध्यान के प्रभावों को लेकर जितने भी अध्ययन किए गए, उन सबमें प्रत्याहार की विधियां उपयोग में लाई गईं। पर कहा गया है ध्यान। दरअसल, प्रत्याहार राजयोग की सबसे महत्वपूर्ण क्रिया और ध्यान की अवस्था तक पहुंचने की पहली सीढ़ी है। उसके सधे बिना जो ध्यान है, उसे बगुला ध्यान कहना चाहिए। ….और बगुला ध्यान से भला मानसिक उथल-पुथल रूकना कैसे संभव है? विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस (10 अक्तूबर) पर प्रस्तुत है यह आलेख।

अशांत मन का प्रबंधन किसी भी काल में चुनौती भरा कार्य रहा है। आज भी है। योग ने तब भी राह निकाली। आज भी योग से ही राह निकलेगी। तब वैज्ञानिक संत योगसूत्र दिया करते थे। आधुनिक युग में संन्यासी उन योगसूत्रों को सरलीकृत करके जन सुलभ करा चुके हैं और एक समय इसे संशय की दृष्टि से देखने वाला विज्ञान चीख-चीखकर कह रहा है – “योग का वैज्ञानिक आधार है। इसे अपनाओ, जिंदगी का हिस्सा बनाओ।“ पर अब लोगों के सामने यह सवाल नहीं है कि योग अपनाएं या नहीं। सवाल है कि अपेक्षित परिणाम किस तरह मिले?

योग शास्त्र के मुताबिक, तनाव तीन प्रकार के होते हैं – स्नायविक, मानसिक या मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक। पर इन तीनों ही तनावों का असर एक दूसरे पर होता ही है। स्नायु तंत्र मस्तिष्क, हृदय और शरीर के अन्य अंगों को प्राण-शक्ति पहुंचाता है। यह पांच ज्ञानेन्द्रियों यथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध में शक्ति वितरित करता है। उत्तेजना स्नायविक संतुलन को अस्त-व्यस्त कर देती है, जिसके कारण कुछ अंगों में अध्यधिक ऊर्जा भेज दी जाती है और कुछ अंग आवश्यक ऊर्जा से वंचित रह जाते हैं। तंत्रिका-शक्ति में उचित वितरण की कमी ही मानसिक अशांति का मूल कारण बनती है।

आधुनिक युग में भी जब-जब जीवन संकट में पड़ा और अवसाद के क्षण आए, योग की महती भूमिका को सबने स्वीकारा। परमहंस योगानंद 100 साल पहले क्रियायोग का प्रचार करने जब अमेरिका गए थे, उस समय स्पैनिश फ्लू के कारण आज जैसी ही भयावह स्थिति थी। उस बीमारी से इतने लोग मरे थे कि लंबे समय तक हिसाब ही लगाया जाता रहा कि कितने मरे। पर सही उत्तर फिर भी नहीं मिला था। अंत में तय हुआ कि लगभग पांच करोड़ लोग मरे होंगे। पूरी दुनिया में हालात ऐसे थे कि विभिन्न कारणों से मानसिक रोगियों की संख्या में रिकार्ड बढ़ोत्तरी हो गई थी। इस स्थिति से उबरने के लिए पश्चिमी जगत के एक वर्ग के लिए जान-पहचाना योग ही सहारा बना था। जिन लोगों ने क्रियायोग को अपने जीवन का हिस्सा बनाया था, उन्हें अवसाद से मुक्ति मिली थी। मन का बेहतर प्रबंधन होने के कारण जीवन को पटरी पर लाना आसान हो गया था।

प्राणायाम ऐसी यौगिक क्रिया है कि किसी वजह से आंशिक रूप से नष्ट हुईं तंत्रिकाओं में प्राण-शक्ति भेजकर मानसिक अशांति के कारण नष्ट हुए उत्तकों (टिश्यूज) को पुनर्जीवित किया जा सकता है। कोरोना काल में फेफड़े को दुरूस्त रखने में प्राणायाम की भूमिकाओं से तो अब ज्यादातर लोग वाकिफ हो चुके हैं। उसका संबंध भी मन से है। स्वात्माराम की हठप्रदीपिका के मुताबिक राजयोग साधने कि लिए हठयोग अनिवार्य है।

महानिर्वाण तंत्र, रूद्रयामल तंत्र और दूसरे अन्य ग्रंथों के मुताबिक शिव ही योग के आदिगुरू हैं। उनकी प्रथम शिष्या पार्वती ने उनसे सवाल किया था – “स्वामी, मन चंचल है। एक जगह टिकता नहीं। कोई उपाय बताएं जिससे मन काबू में आ सके।“ शिवजी ने इस सवाल के जबाव में मन की सजगता और एकाग्रता की इनती विधियां बतलाई थी कि पूरा योगशास्त्र तैयार हो गया। कमाल यह कि इनमें से एक सूत्र पकड़कर भी लक्ष्य हासिल किया जा सकता था। खैर, पार्वती जी की समस्या अलग थी। उन्हें मन के पार जाना था। उस अंतर्यात्रा के लिए चित्ति की शांति जरूरी थी। महाभारत के दौरान वीर अर्जुन विषाद से घिर गए थे। मन अशांत हो गया था। विषादग्रस्त अर्जुन को रास्ते पर लाने के लिए सर्व शक्तिशाली श्रीकृष्ण को इतने उपाय करने पड़े थे कि सात सौ श्लोकों वाली श्रीमद्भगवतगीता की रचना हो गई थी। आधुनिक युग में भी वही श्रीमद्भगवतगीता मनोविज्ञान से लेकर योगशास्त्र तक का श्रेष्ठ ग्रंथ है।  

ध्यान अपने ही भीतर किसी निर्जन द्वीप जैसे स्थल की खोज का मार्ग है। दुनिया के सारे धर्मों के बीच बहुत विवाद है। सिर्फ एक बात के संबंध में विवाद नहीं है। वह है ध्यान। इस बात पर सबकी एक राय है कि जीवन के आनंद का मार्ग ध्यान से होकर जाता है। परमात्मा तक अगर कोई भी कभी भी पहुंचा है तो ध्यान की सीढ़ी के अतिरिक्त और किसी सीढ़ी से नहीं। वह चाहे जीसस, और चाहे बुद्ध, और चाहे मुहम्मद, और चाहे महावीर – कोई भी, जिसने जीवन की परम धन्यता का अनुभव किया, उसने अपने ही भीतर डूब के उस निर्जन द्वीप की खोज कर ली।  —-ओशो

दरअसल, अर्जुन के मन में इतना उपद्रव था कि किसी निष्कर्ष पर पहुंचना ही मुश्किल हो गया था। उसने यह बात श्रीकृष्ण को बतला दी थी। कहा – “मन बड़ा उपद्रवी, शक्तिशाली और हठी है। मन को वश में करना उतना ही कठिन है, जितना वायु को।” श्रीमद्भगवतगीता के छठे अध्याय में इसका उल्लेख है। जबाव में श्रीकृष्ण ने जो कहा था, वह समग्र योग की बात है। उन्होंने यह नहीं बताया कि केवल आंखें मूंदकर बैठ जाने से ध्यान लग जाएगा और मन वश में हो जाएगा। उनके उपायों में यम-नियम की बात है तो प्राणायाम की भी बात है। परमहंस योगानंद ने लिखा है कि भारत के ऋषियों ने अपनी साधना की बदौलत यह ज्ञान हासिल कर लिया था कि श्वास पर नियंत्रण करके मन पर भी नियंत्रण किया जा सकता है। वैज्ञानिक विधि से की गई यह साधना से रक्त को पर्याप्त आक्सीजन उपलब्ध होता है और कार्बन डाइऑक्साइड हट जाता है। लेकिन फेफड़ों में बलपूर्वक श्वास रोक लेने से इसके उलट परिणाम मिलने लगते हैं। तब मन चंचल रहेगा और प्रत्याहार संभव नहीं।   

कैवल्यधाम, लोनावाला के संस्थापक ब्रह्मलीन स्वामी कुवल्यानंद कहते थे कि क्लेश न तो केवल मानसिक है, न शारीरिक। वह मनोकायिक प्रक्रिया है। उससे मुक्ति पाने का सबसे उत्तम उपाय है कि उन पर दोनों ओर से प्रहार किया जाए। एक तरफ से यम व नियमों के द्वारा और दूसरी तरफ से आसन व प्राणायाम के द्वारा। इन क्रियाओं से मन के क्लेश पर नियंत्रण हो जाएगा तो ध्यान का मनोवैज्ञानिक प्रभाव क्लेशों का विनाश कर देगा।    

मौजूदा समय में भी मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाने के लिए मन के प्रबंधन की जरूरत आ पड़ी है। विश्वव्यापी कोरोना महामारी ने हमारे जीवन का चक्का इस तरह जाम किया है कि शारीरिक श्रम की कमी के कारण स्नायविक तनाव चरम पर है। दूसरी तरफ मानसिक पीड़ाएं अलग-अलग रूपों में अपना असर दिखा रही हैं। वजहें सर्वविदित हैं। किसी का अपना काल के गाल में समां जा रहा है तो किसी के लिए आर्थिक मार को सहन कर पाना मुश्किल है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि सत्तर फीसदी बीमारी मन से उत्पन्न होती है। मन बीमार तो तन बीमार। इसके उलट तन बीमार तो मन भी बीमार होता है। मन की समस्या पहले से ही विकट है। आलम यह है कि हमें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर 10 अक्तूबर को मानसिक स्वास्थ्य दिवस मनाना पड़ता है और समस्या के समाधान के लिए कारगर उपायों पर मंथन करना होता है। विश्वव्यापी कोरोना महामारी के कारण इस साल इस आयोजन की महत्ता पहले से कहीं अधिक बढ़ी हुई है। पर दूर-दूर तक नजर दौराएं तो कारगर हथियार के तौर पर योग ही दिखता है। दवाओं से लक्षणों का इलाज हो जाता है। तन-मन में मची उथल-पुथल को व्यवस्थित करने के लिए योग से बड़ी लकीर नहीं खिंची जा सकी है।

बिहार योग विद्यालय के संन्यासी स्वामी शिवध्यानम सरस्वती कहते हैं – प्रति  + आहार = प्रत्याहार। माया के पीछे बाह्य जगत में भटकती इंद्रियों और मन को खींचकर अपने भीतर विद्यमान चेतना, ज्ञान व आनंद के स्रोत से जोड़ देना प्रत्याहार है। राजयोग का यही मुख्य प्रयोजन है। इसलिए राजयोग के आठ अंगों में प्रत्याहार सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। प्रत्याहार सिद्ध होता है तो शारीरिक, मानसिक औऱ भावनात्मक हर स्तर पर शांति मिलती है। मन संतुलित होता है।   

पर व्यवहार रूप में देखा जाता है कि मेडिटेशन के अनेक विशेषज्ञ संकटग्रस्त लोगों से सीधे ध्यान का अभ्यास कराते हैं। ओशो कहते थे कि राजयोग में इंद्रियों को वश में करने से अभिप्राय इंद्रियों को मारकर विषाक्त बनाना नहीं है, बल्कि उसका रूपांतरण करना है। वे इस संदर्भ में मनोविज्ञानी थियोडोर रैक का संस्मरण सुनाते थे – “यूरोप में एक छोटा-सा द्वीप है। कैथोलिक मोनेस्ट्री वाला वह द्वीप महिलाओं के लिए वर्जित है। वहां आध्यात्मिक साधना के लिए पुरूष जाते हैं। जब उनकी मन:स्थिति का अध्ययन किया गया तो पता चला कि उनके मानस पटल पर स्त्रियां ही छाई रहती हैं। वे जितना ध्यान हटाने की कोशिश करते हैं, वासना घनीभूत होती जाती है।“  देखिए, विचारों का दमन किस तरह मन को विषाक्त बनाता है।

दिल्ली के त्यागराज स्टेडियम में योगनिद्रा का अभ्यास कराते स्वामी निरंजनानंद सरस्वती

सवाल है मन का रूपांतर कैसे हो? प्रत्याहार का योगनिद्रा तो शक्तिशाली है ही और भी अनेक विधियां हैं। अजपा है, अंतर्मौन है। “ऊं” मंत्र की शक्ति भी देश-विदेश में अनेक शोधों से प्रमाणित हो चुकी है। इन यौगिक विधियों को साधे बिना बगुला ध्यान तो लग सकता है। पर वह ध्यान नहीं लगेगा, जिससे मानसिक पीड़ाएं दूर होती हैं और मन का प्रबंधन हो जाता है। कोरोना काल में योग पर जितनी चर्चा हुई है, उतनी शायद ही पहले कभी हुई रही होगी। देश के तमाम सिद्ध संत और योगी जीवन को व्यवस्थित करने के यौगिक उपाय बता चुके हैं। सतर्क लोग षट्कर्म जैसे, नेति, कुंजल और आसन व प्राणायाम का अभ्यास कर भी रहे हैं। पर मनोविकार का मामल उलझा हुआ है। आंकड़े गवाह हैं कि मन का प्रबंधन चुनौतीपूर्ण बना हुआ है। इतिहास पर गौर करने औऱ संतों के अनुभवों से साफ है कि इस चुनौती का सामना योग के व्यस्थित मार्ग पर चलकर ही किया जा सकता है।

जिस तरह कॉलेजी शिक्षा के लिए उच्च विद्यालय स्तर की शिक्षा जरूरी है, उसी तरह षट्कर्म, आसन और प्राणायाम साधे बिना राजयोग का प्रत्याहार नहीं सधेगा। प्रत्याहार मन की सजगता के लिए जरूरी है। मन सजग नहीं है तो एकाग्र नहीं होगा। फिर तो ध्यान फलित होने की उम्मीद ही करना फिजुल है। 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

फिर छा गया महर्षि महेश योगी का भावातीत ध्यान

किशोर कुमार //

महर्षि महेश योगी ज्योतिर्मठ के शंकाराचार्य रहे ब्रह्मलीन ब्रह्मानंद सरस्वती के शिष्य थे। हिमालय की गोद में कठिन साधना और अपने गुरू की ऊर्जा का असर ऐसा हुआ कि महेश प्रसाद वर्मा महर्षि महेश योगी बन गए थे। ब्रह्मानंद सरस्वती ने जब तय किया कि वे शंकराचार्य नहीं रहेंगे तो उनके सामने विकल्प था कि वे महर्षि योगी को शंकराचार्य बना सकते थे। पर उन्होंने ऐसा न करके उन्हें आशीर्वाद दिया दिया था – “तुम्हारी ख्याति दुनिया भर में होगी।“ कालांतर में ऐसा ही हुआ भी। शंकराचार्य के पद पर रहते हुए शायद यह संभव न था। शंकराचार्यों के लिए एक अलिखित नियम है कि वे समुद्र पार नहीं करते।
भावातीत ध्यान का एक विहंगम दृश्य।

विश्वव्यापी आध्यात्मिक पुनरूत्थान आंदोलन की बदौलत मानसिक शांति और आनंदमय जीवन का दीप जलाने वाले महर्षि महेश योगी का बहुचर्चित भावातीत ध्यान या ट्रांसेंडेंटल मेडिटेशन एक बार फिर सुर्खियों में है। कोरोना महामारी के कारण मानसिक अशांति औऱ अवसाद से ग्रसित लोगों के लिए ध्यान की यह अनोखी और आजमायी हुई विधि संजीवनी का काम कर रही है। पश्चिमी देशों में पचास और साठ के दशक में ही बेहद लोकप्रियता प्राप्त कर चुकी यह विधि भारत के लोग भी अपना रहे हैं। महर्षि योगी के ब्रह्मलीन हुए एक युग बीत चुका है। पर भावातीत ध्यान की लोकप्रियता बढ़ती ही जा रही है। इस बात का अंदाज इससे लगाया जा सकता है कि 126 देशों में बड़ी संख्या में प्रशिक्षण केंद्र चल रहे हैं। इन देशों में 44 यूरोपीय देश, 29 अमेरिकी देश, 34 मध्य पूर्व के देश और 19 एशियाई देश शामिल हैं।

मानव के शारीरिक और मानसिक अवस्थाओ को ध्यान में रखकर भावातीत ध्यान के प्रभावों पर अब तक कोई तीन दर्जन से ज्यादा देशों की ढ़ाई सौ प्रयोगशालाओं में सात सौ से ज्यादा अनुसंधान किए जा चुके हैं। कमाल यह कि सभी अनुसंधानों के परिणाम इस ध्यान विधि के पक्ष में रहे और अनेक रहस्यों का खुलासा हुआ था। इसलिए कोरोना महामारी की वजह से संकटग्रस्त लोगों को बार-बार परीक्षित इस ध्यान विधि को अपनाने में कोई हिचक नहीं हुई। हृदय रोगियों पर भावातीत ध्यान के प्रभावों पर बीते साल ही अमेरिका की तीन प्रयोगशालाओं में परीक्षण किया गया था। उसका परिणाम साइंस डायरेक्ट ने अपने अक्तूबर वाले अंक में विस्तार से प्रकाशित किया था। उस परीक्षण के प्रभाव को एक लाइन में कहना हो तो यही कहा जाएगा कि हृदय रोगियों के लिए रामबाण है भावातीत ध्यान।

किसी ने पूछ लिया, उन्हें संत क्यों कहा जाता है? उनका जवाब था, “मैं लोगों को ट्रांसेंडेंटल मेडिटेशन सिखाता हूँ जो लोगों को जीवन के भीतर झांकने का अवसर देता है. इससे लोग शांति और ख़ुशी के हर क्षण का आनंद लेने लगते हैं. चूंकि पहले सभी संतों का यही संदेश रहा है इसलिए लोग मुझे भी संत कहते हैं.”

अमेरिकन हार्ट एसोसिएशन ने सन् 2013 में 55 वर्ष से ज्यादा उम्र वाले उच्च रक्तचाप के मरीजों पर भावातीत ध्यान के प्रभावों का अध्ययन कराया था। अध्ययन का विषय था – “रक्तचाप को नियंत्रित रखने के लिए दवाओं और आहार से परे वैकल्पिक दृष्टिकोण।” इससे पता चला कि उच्च रक्तचाप से होने की मौतों में 30 फीसदी की कमी आ गई थी। इसके पहले अमेरिका स्थित क्लीवलौंड क्लिनिक में सन् 2009 में कॉलेज के छात्रों पर शोध किया गया तो पता चला कि इस ध्यान पद्धति से तनाव, रक्तचाप और क्रोध कम गया था। पर्यावरण असंतुलन और अन्य कारणों से छोटे बच्चे भी तनावग्रस्त रहने लगे हैं। वैदिक परंपरा के मुताबिक दस साल से कम उम्र के बच्चों को ध्यान न करने की सलाह दी जाती है। इसलिए 13-14 साल के तनावग्रस्त बच्चों पर भावातीत ध्यान का प्रभाव देखा गया। कक्षाओं में छात्रों की ग्रहणशीलता में आश्चर्यजनक ढंग से वृद्धि हो गई थी।   

फोर्ब्स पत्रिका में भी इस ध्यान पद्धति को कवरेज मिला है। उसके मुताबिक, “इस ध्यान पद्धति को सीखना और दक्ष होना बेहद आसान है। परिणाम तुरंत ही मिलने लगते हैं। सप्ताह या महीनों इंतजार करने की जरूरत नहीं। कुछ दिनों या घंटों में फर्क महसूस होने लगता है। यह साधना अधितम बीस मिनटों की होती है और इसे दिन में दो बार करने की सलाह दी जाती है।“ इसे मंत्र योग और जप योग का मिलजुला रूप कहा जा सकता है। पर ओम या कोई खास मंत्र जपने की बाध्यता नहीं होती है। भावातीत ध्यान मंत्रयोग और कर्मयोग के मिश्रण से तैयार ऐसी ध्यान विधि है, जो साधकों को कर्म से नाता रखते हुए भी मन के पार ले जाने में सक्षम है। ट्रान्सेंडैंटल मेडिटेशन में ध्यान की अन्य विधियों की तरह  श्वास या जप पर ध्यान केंद्रित नहीं करना होता है, बल्कि किसी भी विचार से परे मन को आरामदायक स्थिति में ले जाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।

नीदरलैंड स्थित महर्षि महेश योगी का आश्रम

आमतौर पर माना जाता है कि चेतना की तीन अवस्थाएं हैं। पहला जागृति की चेतना। इस दौरान मन और शरीर दोनों ही क्रियाशील रहते हैं। दूसरा, स्वप्न की चेतना। इसमें मन और शरीर आंशिक रूप से क्रियाशील रहते हैं। तीसरा है, सुषुप्ति की चेतना। इसमें मन और शरीर विश्राम की अवस्था में होते हैं। महर्षि महेश योगी कहते थे कि चेतना की चौथी अवस्था भी होती है और वह है भावातीत चेतना। इसे विश्रामपूर्ण जागृति भी कहा जा सकता है। इसलिए कि इस अवस्था में हम मानसिक रूप से पूर्ण सजग और शारीरिक रूप से गहन विश्राम की अवस्था में रहते हैं। बस, इसे अनुभव करने की जरूरत है और इसी के लिए ही है भावातीत ध्यान विधि।

महर्षि महेश योगी ने ‘राम’ नाम की एक मुद्रा भी चलाई थी जिसे नीदरलैंड्स ने साल 2003 में क़ानूनी मान्यता दी थी। इस मुद्रा को महर्षि की संस्था ‘ग्लोबल कंट्री ऑफ़ वर्ल्ड पीस’ ने साल 2002 के अक्टूबर में जारी किया गया था.

मैंने इस लेख के लिए अनेक शोध पत्रों का अध्ययन किया। मंत्रों का मानव शरीर पर होने वाले प्रभावों का अध्ययन किया। मंत्रयोग और कर्मयोग का अध्ययन तो अनवरत करता ही हूं। इन सबके आधार पर कहने की स्थिति बनी कि यह साधना वाकई कमाल का असर दिखाती होगी। मैं इन बातों को विस्तार दूंगा। उसके पहले कुछ रोचक तथ्य। महर्षि महेश योगी ज्योतिर्मठ के शंकाराचार्य रहे ब्रह्मलीन ब्रह्मानंद सरस्वती के शिष्य थे। हिमालय की गोद में कठिन साधना और अपने गुरू की ऊर्जा का असर ऐसा हुआ कि महेश प्रसाद वर्मा महर्षि महेश योगी बन गए थे। ब्रह्मानंद सरस्वती ने जब तय किया कि वे शंकराचार्य नहीं रहेंगे तो उनके सामने विकल्प था कि वे महर्षि योगी को शंकराचार्य बना सकते थे। पर उन्होंने ऐसा न करके उन्हें आशीर्वाद दिया दिया था – “तुम्हारी ख्याति सारे जहॉं में होगी।“ कालांतर में ऐसा ही हुआ भी। शंकराचार्य के पद पर रहते हुए शायद यह संभव न था। शंकराचार्यों के लिए एक अलिखित नियम है कि वे समुद्र पार नहीं करते। यही वजह है कि स्वामी जयेंद्र सरस्वती के कारण यह नियम भंग हुआ था तो इसका काफी विरोध हुआ था।

मशहूर ब्रितानी रॉक बैंड बीटल्स के कलाकार 1968 में महर्षि के ऋषिकेश आश्रम में आध्यात्मिक एकांतवास के लिए लंबे समय तक ठहरे। कई गीतों की रचना भी की।

महर्षि योगी अपने गुरू से भावनात्मक रूप से इस तरह जुड़े थे कि जब ब्रहमलीन स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती को बनारस के दशाश्वमेघ घाट पर जल समाधि दी जा रही थी तो वे इसे सहन न कर पाए थे और गंगा में छलांग लगा दी थी। उन्हें किसी तरह बचाया गया था। महर्षि के जीवन में अपने गुरू का मानों ऐसा शक्तिपात हुआ था कि ध्यान की उनकी प्रभावशाली विधि और अन्य यौगिक क्रियाओं को लेकर पूरी दुनिया में अकल्पनीय दीवानगी छा गई थी। इसकी एक तात्कालिक वजह भी थी। बिहार योग विद्यालय के संस्थापक ब्रह्मलीन परमहंस सत्यानंद सरस्वती अपने से आठ से बड़े उस वैज्ञानिक संत के बारे में कहा करते थे कि उन्होंने अपनी शक्तिशाली ध्यान विधि से पश्चिमी देशों को तब अवगत कराया था, जब लाखों नवयुवक मादक द्रव्यों का व्यसन छोड़कर चेतना और आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि के मार्ग की तलाश में थे।

ब्रह्मलीन ब्रह्मानंद सरस्वती, जो महेश योगी के गुरू और ज्योतिर्मठ के शंकाराचार्य थे।

महर्षि महेश योगी ने ऐसे युवकों के लिए भावातीत ध्यान प्रस्तुत किया तो युवा सरल साधाना विधि के कारण आकर्षित हो गए थे। पर कुछ लोगों के दिमाग में क्यों और कैसे वाले तर्क-वितर्क चलने लगे थे। उन्हें भरोसा न हुआ कि मंत्रों की इतनी शक्ति होगी कि वह आदमी की चेतना के विभिन्न स्तरों पर प्रभावशाली तरीके से काम करेगा। तब महर्षि ने विज्ञान से अपनी बातों की पुष्टि कराने की ठानी थी। जब वैज्ञानिक नतीजे पक्ष में आने लगे तो भावातीत ध्यान के लिए पश्चिमी जगत की दीवानगी अखबारों की सुर्खियां बनने लगी थी। लोगों को समझ में आ गया था कि भावातीत ध्यान से न केवल तात्कालिक समस्या का समाधान होगा, बल्कि उच्च चेतना के विकास में भी इसकी अह्म भूमिका होगी। नतीजे भी इसी इसी के अनुरूप मिलते गए थे। इस दृष्टांत से समझा जा सकता है कि कोरोनाकाल में भावातीत ध्यान को फिर से पंख क्यो लग गए हैं।

मंत्रो पर अब तक जितने भी वैज्ञानिक शोध हुए हैं, उनसे यही पता चला है कि हर शब्द, हर ध्वनि का एक रूप होता है, एक तरंग होती है। इसलिए जब मंत्रों का उच्चारण करते हैं और उसे दोहराते हैं तो उससे जो स्पंदन उत्पन्न होता है। इससे विचार, बुद्धि, भावना और उत्तेजना पर प्रभाव पड़ता है। ध्यान के समय मन अंतर्मुखी होता है तो संचित विचार बाहर निकलता है और चेतना में शुद्धता आती है। फिर ध्यान के जरिए मन को एकाग्र करना आसान हो जाता है। यदि यह सिलसिला जारी रहा तो शरीर के मुख्य चक्र भी जागृत होते हैं। महर्षि महेश योगी का कहते थे कि ध्यान लोगों  को अकर्मण्य, नहीं बल्कि बेहतर दृष्टिकोण के साथ क्रियाशील बनाता है। इसलिए उन्होंने भावातीत ध्यान साधकों के लिए कर्म को साधना का अनिवार्य हिस्सा बनाया था।  

भारत के प्रत्येक जिले में और फिर विकास खण्डों में महर्षि वेद पीठ की स्थापना की जायेगी। इन पीठों में वैदिक वांगमय के सभी विषयों का सैद्धाँतिक और प्रायोगिक ज्ञान हर नागरिक को अत्यन्त सरलता से एवं शुद्धता से उपलब्ध कराया जायेगा। वैदिक वांगमय में सुखी जीवन के लिये विभिन्न क्षेत्रों के सिद्धाँत व प्रयोग दिये गये हैं, इसका उपयोग मनुष्य को हर दृष्टि से सुखी बना सकता है।

ब्रह्मचारी गिरीश, महर्षि योगी संस्थानों के चेयरमैन

महर्षि महेश योगी के आध्यात्मिक उतराधिकारी ब्रह्मचारी गिरीश के मुताबिक, ‘‘भावातीत ध्यान के नियमित अभ्यास से जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पूर्णता आती है। बुद्धि तीक्ष्ण व समझदारी गहरी होती है, भावनात्मक संतुलन होता है और तंत्रिका-तंत्र को गहन विश्राम मिलने के कारण तनाव दूर होता है, स्नायु मण्डल की शुद्धि होती है।“ शोधों और ध्यान साधकों के व्यक्तिगत अनुभवों से भी इस बात की बार-बार पुष्टि हुई है। कोरोना महामारी के कारण शारीरिक और मानसिक समस्याएं झेलते लोग यूं ही इस ध्यान विधि के लिए दीवाने नहीं हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

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