ओशो : हमने कांटों को भी नरमी से छुआ अक्सर

किशोर कुमार //

ओशो कालजयी हैं, शाश्वत, सदैव प्रासंगिक। बीसवीं सदी में संभवत: वे पहले विचारक, पहले आध्यात्मिक गुरू हुए, जिन्होंने अपने अनुभवों, अपने तर्कों से साबित किया कि आंतरिक आध्यात्मिकता का वाह्य समृद्धि या बाह्य दरिद्रता से कुछ लेना-देना नहीं है। उन्होंने प्रेम, श्रद्धा, भक्ति, संभोग और समाधि से लेकर स्वस्थ्य राजनीति तक पर अपने स्वतंत्र विचार प्रस्तुत किए। उनकी बातें दुनिया भर के लाखों लोगों के लिए एक मार्ग-दर्शक प्रकाश बन गईं। पर आलोचना भी कम न हुई। बिस्मिल सईदी का शेर है – “हमने काँटों को भी नरमी से छुआ है अक्सर, लोग बेदर्द हैं फूलों को मसल देते हैं।“ ओशो के साथ भी कुछ ऐसा ही होता रहा।     

यह सच है कि नए विचारों और उसके आलोक में धर्म की व्याख्या का सदैव विरोध होता रहा है। बुद्ध हों या जीसस, जीते जी उनकी बातों पर कहां विश्वास किया गया। जीसस को तो सूली पर ही चढ़ा दिया गया था। ऐसे में ओशो अपवाद नहीं रहे तो चौंकाने जैसी बात नहीं थी। इसलिए उन्हें जेल में डाला गया तो तनिक भी विचलित नहीं हुए थे, बल्कि जेल में ही क्रांति के बीज बो दिए थे। प्रख्यात कवि और प्रेरक वक्ता कुमार विश्वास शायद इकलौते हैं, जिन्होंने भरी सभा में खुले तौर पर स्वीकार किया कि उन्होंने ओशो की चर्चित व विवादास्पद पुस्तक “संभोग से समाधि तक” को छात्र जीवन से लेकर अब तक चार बार पढ़ा। वे इस निष्कर्ष पर हैं कि संभोग शब्द केवल टाइटल भर है। पुस्तक में बातें समाधि की है, ऊर्जा की है, उसके रूपांतरण की है। हालांकि समय के अनुसार चीजें बदली हैं। ओशो के महाप्रयाण के बाद उनके विचारों की स्वीकार्यता बढ़ती जा रही है। जिस तरह बुद्ध की अनुपस्थिति में बुद्ध धर्म पनपा, जीसस की अनुपस्थिति में ईसाई धर्म पनपा और उसे विस्तार मिला, उसी तरह ओशो के शब्द भी साक्षी बन रहे हैं।

धर्म ग्रंथों का अध्ययन करें तो कई बार ऋषियों-मुनियों की बातों में विरोधाभास दिखता है। रास्ते अलग-अलग दिखते हैं। पर लक्ष्य एक ही होता है। ऋग्वेद में कहा गया है कि सत्य बुहाआयामी है। ऋषिगण इस सत्य को विभिन्न पद्धतियों से उद्घोषित करते हैं। रामकृष्ण परमहंस कहते थे कि जिस प्रकार कोई व्यक्ति घर की छत पर सीढी, बांस, रस्सी अथवा किसी अन्य उपाय से चढ़ता है, उसी प्रकार ईश्वर तक पहुंचने के मार्ग भी अनेक हैं। संसार का प्रत्येक धर्म इनमें से किसी एक मार्ग का निर्देश करता है। इसलिए यहां यह चर्चा का विषय नहीं है कि ओशो ने जो कहा वह सत्य है या दूसरों ने जो कहा, वह सत्य है। इतना जरूर है कि ओशो ने जीवन पद्धति की जैसी व्याख्या की, वह ज्यादातर मामलों में वैदिक साहित्य के अनुरूप ही है। इसे कैवल्य उपनिषद की व्याख्या के जरिए भी समझा जा सकता है।

सर्वविदित है कि ओशो ने ध्यान योग को सर्वोपरि माना था। कैवल्योपनिषद् में भी ध्यानाभ्यास का विशद वर्णन मिलता है। मैंने इसलिए श्रद्धा, भक्ति, ध्यान और योग के मामले में ओशो के विचारों को कुछ शब्दों में व्यक्त करने के लिए कैवल्योपनिषद् पर उनके भाष्य को चुना है। इससे उनके मौलिक और स्वतंत्र चिंतन का भी पता चल जाता है। कैवल्योपनिषद् में शिष्य आश्वलायन परम स्वतंत्रता की आकांक्षा लिए सनत्कुमारों को ज्ञान का उपदेश देने वाले ब्रह्मा जी के पास जाते हैं और विनयपूर्वक ब्रह्म विद्या के लिए जिज्ञासा व्यक्त करते हैं। प्रत्युत्तर में ब्रह्मा जी कहते हैं, उस परमतत्व को पाने के लिए श्रद्धा, भक्ति, ध्यान और योग का आश्रय लेना पड़ता है। ओशो इस संवाद की सुंदर व्याख्या करते हैं। पर वे इसी बात को स्वतंत्र रूप से, उपनिषद का नाम लिए बिना कहते हैं तो उल्टा मालूम पड़ता है। पर ओशो ऐसी बातों की परवाह कहां रही। वे खुलकर कहते रहे कि आध्यात्मिक जीवन की शुरूआत श्रद्धा से होनी चाहिए। फिर भक्ति, ध्यान और योग।

ओशो कहते हैं कि श्रद्धा कास्मिक है, ब्रह्मभाव है। भक्ति आत्मिक है, व्यक्तिभाव है। ध्यान मानसिक है और योग शारीरिक है। ज्यादातर लोग क्या करते हैं, शरीर से शुरू करते हैं, फिर मन पर जाते हैं, फिर आत्मा पर और फिर ब्रह्म पर। यानी कैवल्योपनिषद में बतलाए गए क्रम से उलट। इसलिए हर चरण सहज न होकर कठिन होता चला जाता है। इसलिए आमतौर पर ऐसा होता है कि योग से शुरू करने वाले योग पर अटक जाते हैं और आसन वगैर करके निपट जाते हैं। ध्यान तक पहुंच ही नहीं पाते। ध्यान से शुरू करने वालों के लिए भक्ति कठिन हो जाती है और भक्ति से शुरू करने वाले श्रद्धा तक नहीं पहुंच पाते। इसलिए शुरूआत श्रद्धा से होनी चाहिए।

श्रीमद्भगवतगीता में श्रीकृष्ण ने कहा है – “जो-जो भक्त जिस-जिस देवताका श्रद्धापूर्वक पूजन करना चाहता है, उस-उस देवताके प्रति मैं उसकी श्रद्धाको दृढ़ कर देता हूँ।“ पर श्रद्धावान बनें कैसें? परमहंस योगानंद ने अपने गीताभाष्य में कहा है कि कोई भक्त अपने ईष्ट देवता पर अत्यधिक गहनता से एकाग्र होता है तो वही अभिव्यक्ति एक जीवित रूप धारण करके भक्त के हृदय की सच्ची पुकार को संतुष्ट करती है। ओशो के मुताबिक, मीरा या कबीर जब कहते हैं कि ऐ री मैंने राम-रतन धन पायो, तो वह श्रद्धा ही तो है। उनकी श्रद्धा मजबूत हुई तो सब भ्रम टूट गया। फिर मिला क्या? राम-रतन धन। यानी कोहिनूर हीरा। अब जिसे कोहिनूर हीरा मिल गया, तो वह कंकड़—पत्थर क्यों चुनेगा!

ओशो कहते हैं कि श्रद्धा के बाद है भक्ति। श्रद्धा जैसी अंतर्घटना की अभिव्यक्ति। एक बार श्रद्धा का जन्म हो जाए तो भक्ति अनिवार्य छाया की तरह उसके पीछे चली आती है। अब किसी पदार्थ में भी प्रेमी या परमात्मा के दर्शन हो सकते हैं। इन दो परिघटनाओं के बाद ध्यान सुगंध की तरह पीछा करता है। मीरा बाई और चैतन्य महाप्रभु इसके उदाहरण हैं। सबसे आखिर में योग को रखा गया है। जिसे ध्यान सध जाता, उसके पीछे योग चला आता है। हम हैं कि इसके उलट कठिन रास्ता चुन लेते हैं। ओशो की प्राय: ऐसी ही बातें उनके समकालीन प्रबुध्दजनों को उल्टी मालूम पड़ती थी। प्रसिध्द गीतकार गुलजार सदैव ओशो के विचारों से खासे प्रभावित रहे हैं। वे कहते हैं कि ओशो कुछ और नहीं, बल्कि अस्तित्व की अभिव्यक्ति हैं। अस्तित्व का माधुर्य हैं। उनकी करूणा का सहारा पाकर मानवता धन्य हुई। ओशो को उनकी 91वीं जयंती पर सादर नमन।  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

ये है भक्तियोग का जमाना !

IIकिशोर कुमारII

अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस हाल ही मनाया गया। हम सबने देखा कि कसरती स्टाइल के कथित हठयोग की नहीं, बल्कि समग्र योग की स्वीकार्यता दुनिया भर में तेजी से बढ़ती जा रही है। इनमें कर्मयोग और भक्तियोग भी शामिल हैं। जाहिर है कि बौद्धिक युग में भक्ति, भाव—साधना के मार्ग की तलाश शुरू है। ऐसे में राष्ट्रपति पद की प्रत्याशी द्रौपदी मुर्मू का हाथ में श्रीमद्भगवतगीता लिए मौजूदा राष्ट्रपति से मिलने के निहितार्थ को समझा जा सकता है। श्रीमती मुर्मू तर्कशील महिला और कॉलेज की व्याख्याता रही हैं। पर विपत्तियों के पहाड़ इस कदर टूटते रहे कि बच्चों से लेकर पति तक असमय ही कालकलवित हो गए। यदि आध्यात्मिक अभिरूचि न होती और योग का सहारा न मिला होता तो कर्मयोगी की तरह शून्य से शिखर तक की यात्रा शायद मुश्किल होती। अब जबकि उनके हाथों में श्रीमद्भगवतगीता है तो यह सबके लिए बड़ा संदेश है कि कलियुग में जीवन की नैया हंसी-खुशी किस तरह पार लग सकती है।

भारत के महान संत श्रीअरविंद ने कहा था – “तर्क एक सहारा था, अब तर्क एक अवरोध है।“ उनके इस वकतव्य के कोई सात दशक बीतते-बीतते पूर्वी देशों के वैज्ञानिक भी प्रकारांतर से इस बात को स्वीकार रहे हैं। इसलिए कि बुद्धि से जो—जो आशाएं बांधी गई थीं, वे सभी असफल हो गई हैं। जो हासिल करना था, वह बुद्धि से नहीं हासिल हुआ और जो मिला है, वह बहुत कष्टपूर्ण है। पश्चिमी देशों में तो काफी पहले ऐसी धारणा बलवती होने लगी थी। ओशो कहते थे कि आज अगर अमेरिका में विचारशील युवक है, तो वह पूछता है, हम जो पढ़ रहे हैं, उससे क्या होगा? क्या मिल जाएगा? और पिताओ व गुरुओं के पास उत्तर नहीं है। आज पश्चिम में अगर युवकों का बड़ा वर्ग विद्रोह कर रहा है शिक्षा से, संस्कृति से, समाज से, तो उसका मौलिक कारण यही है कि बुद्धि ने जो—जो आशाएं दी थीं, वे पूरी नहीं हुईं।

बर्ट्रेड रसेल बीसवीं शदी के प्रख्यात दार्शनिक, महान गणितज्ञ और शांति के अग्रदूत थे। इन्हें मानवता से प्रेम था और वे जीवनपर्यंत युद्ध, परमाणविक परीक्षण एवं वर्णभेद का विरोध में लड़ते रहे। जंगल में गए थे तो जीवन में पहली बार आदिवासियों को पूरी तन्मयता से नाचते देखा। लौटकर अपनी डायरी में लिखा – काश! वैसा नृत्य मैं भी कर पाता। मैं अपनी सारी बुद्धि को दांव पर लगाने को तैयार हूं। अगर चांदनी रात में वैसा ही उन्मुक्त गीत मैं भी गा सकने में सक्षम होता। यह किसी तरह से महंगा सौदा नहीं है। लेकिन सौदा महंगा भले न हो, करना. बहुत कठिन है। क्यों? क्योंकि बुद्धि के तनाव को छोड़कर भाव और हृदय की तरफ उतरना जटिल है।   

बीसवीं सदी के महान संत परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने आज से कोई पांच दशक पहले ही कहा था कि 21वीं शताब्दी भक्ति की शताब्दी होगी। भक्ति यानी श्रद्धा, प्रेम, केवल विशुद्ध प्रेम। यह अवश्य घटित होगा, एक मान्यता के रूप में नहीं, बल्कि विज्ञान के रूप में। उनके पास दुनिया के अनेक देशों के वैज्ञानिक आते हैं और कहते हैं कि पदार्थ पर वैज्ञानिक अनुसंधानों से अनेक उपलब्धियां हासिल हुईं। पर उसी अनुपात में मन अशांत होता गया और शरीर नाना प्रकार की बीमारियों का घर बनता गया। इन सबका मिलाजुला परिणाम यह है कि आज भारत के आश्रमों में भारतीयों से ज्यादा विदेशियों की भरमार होती है। वे संकीर्तन करते हैं, मंत्रोच्चारण करते हैं और भक्ति मार्ग पर बढ़ते रहने के लिए ईमानदार कोशिशें करते दिखते हैं।

संतों का मानना है कि आध्यात्मिक चेतना का विकास ही मनुष्य की नियति है। निम्न वासनाओं और कामनाओं के दायरे में सीमित रहना हमारी नियति नहीं है। महर्षि अरविंद का इस विषय पर सुंदर और तार्किक व्याख्यान है। वे कहते थे कि आने वाले युग में दिव्य चेतना मानव जीवन में अवश्य प्रकट होगी। कोई चाहे, न चाहे, मगर यह होकर रहेगा। यही मानवता की निर्धारित नियति है। शायद यही कारण है कि आज के युवाओं में आध्यात्मिक चेतना का विकास हो रहा है। वे बौद्धिकता व तार्किकता को पार कर आध्यात्मिक आयाम के प्रवेश-द्वार पर खड़े दिखते हैं। इस बात को ऐसे समझिए।  

जब-जब रथयात्रा का समय आता है, मीडिया में जगन्नाथ मंदिर से जुड़े रहस्यों की चर्चा होती ही है। जैसे, मंदिर का झंडा हमेशा हवा की दिशा के विपरीत उड़ता है। मंदिर पर लगा वजनी सुदर्शन चक्र को शहर के किसी भी हिस्से से देखा जाए तो सीधा ही दिखता है। मंदिर के गुंबद की बात कौन कहे, आसपास भी कोई पक्षी नहीं फटकती। सूर्य चाहे पूरब में रहे, मध्य में रहे या पश्चिम में, मंदिर के सबसे ऊंचे गुंबद की भी परछाई नहीं बनती। मंदिर के मुख्य द्वार सिम्हद्वारम् के पास तो समुद्र की गर्जना सुनाई देती है। पर मंदिर में कदम रखते ही, आवाज आनी बंद हो जाती है। आदि आदि। आज के युवाओं को इस सूचना मात्र में रूचि नहीं है। वे इसके पीछे का विज्ञान जानना चाहते हैं। सोशल मीडिया पर नजर डालिए तो अनेक युवा यह जानने को आतुर दिखते हैं कि पुरी में जगन्नाथ मंदिर के गुंबद का ध्वज हवा की विपरीत दिशा में क्यों फहराते रहता है और नरसिंह स्वामी पोटेशियम साइनाइड खा कर भी जिंदा कैसे रह गए थे? 

बीसवीं शताब्दी में नरसिंह स्वामी कोलकाता के प्रेसिडेंसी कॉलेज में विख्यात वैज्ञानिक और नोबेल पुरस्कार विजेता सर सी. वी. रमण की मौजूदगी में सल्फ़्यूरिक एसिड और कार्बोलिक एसिड से लेकर पोटेशियम साइनाइड तक पी गए थे। पर उनका बाल बांका नहीं हुआ था। तीन घंटे बाद कोलकाता के चिकित्सकों ने नरसिंह स्वामी के पेट से सारे जहरीले पदार्थ वापस निकाल लिए थे। उनके पेट में विष भी यथावत मौजूद था। तब सर सी. वी. रमण को कहना पड़ा था कि यह आधुनिक विज्ञान के लिए चुनौती है।

अब सवाल है कि हमारी बदलती सोच क्या भक्ति युग के आगमन की आहट है? सिद्ध संतों की आत्मानुभूतियों और यौगिक अनुसंधानों की दिशा-दशा इस बात की गवाही दे रही है। संकेतों के आधार पर कहना होगा कि इस शताब्दी में भक्ति भावना और भक्तियोग पर जोर होगा। वैज्ञानिक अनुसंधानों के परिणाम इसके आधार होंगे। वैज्ञानिक उत्प्रेरक की भूमिका निभाएंगे। उन्होंने अब तक पदार्थ पर शोध किए, उनकी तकनीकें विकसित की। अब वे भावनाओं, विचारों, संवेदनाओं और समर्पण के क्षेत्र में काम करेंगे।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

शशांकासन का चमत्कार तो देखिए

किशोर कुमार

इस बार बात प्रमुख आसनों में एक शशांकासन की। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 27 सितंबर 2014 को संयुक्त राष्ट्र महासभा में इसी शशांकासन की महत्ता बतलाते हुए अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मानाने का प्रस्ताव मजबूती से रखा था और जिसे स्वीकार किया गया था। आपके मन में सवाल हो सकता है कि इतने दिनों बाद इस आसन की चर्चा की प्रासंगिकता क्या है? यह लेख पढ़ेंगे तो समझेंगे कि शशांकासन की चर्चा बिन शादी की शहनाई जैसी नहीं है।

इस आसन का सीधा संबंध जुड़ा हुआ है आज की ज्वलंत समस्या से। वह समस्या है क्रोध, तनाव और उसकी वजह से होने वाली नाना प्रकार की बीमारियां, मुख्यत: मायोकार्डियल इस्कीमिया। एक प्रकार का हृदयरोग। खास बात यह है कि यह रोग पुरूषों की तुलना में महिलाओं को कुछ ज्यादा ही हो रहा है। अमेरिकन हार्ट एसोसिएशन के जर्नल में इस संबंध में किए गए शोध को विस्तार से प्रकाशित किया गया है। कोविड-19 संक्रमण के शिकार लोगों को तो फेफड़ों के बाद सर्वाधिक हृदय का आघात पहुंचा। पर देश-विदेश में हुए अध्ययनों से पता चलता है कि तनाव और गुस्सा अन्य बीमारियों के साथ ही मायोकार्डियल इस्कीमिया का बड़ा कारण बन गया है। हद तो यह है कि कम उम्र के लड़के और लड़कियां भी इस बीमारी के शिकार हो रहे हैं। इसकी वजहें कई हो सकती हैं।

आईए, इस समस्या को योग और अध्यात्म के दृष्टिकोण से समझने की कोशिश करते हैं। गौतम बुद्ध कहते थे कि वैसे लोग अद्भुत होते हैं, जो दूसरों की भूल पर क्रोध करते हैं। जब भक्तों ने सवाल किया कि ऐसे क्रोधी अद्भुत किस तरह हुए तो गौतम बुद्ध ने कहा, अदभुत इसलिए कि भूल दूसरा करता है, दंड वह अपने को देता है। ओशो इस बात को विस्तार देते हुए कहते हैं कि क्रोध का मनोविज्ञान है कि क्रोधी व्यक्ति की पूरी उर्जा कुछ पाने जा रही थी और किसी ने उर्जा को रोक दिया। वह जो चाहता था, नहीं पा सका। जीवन में एक बात याद रखना चाहिए कि किसी भी वस्तु की चाहत इतनी तीव्र न होने पाए कि यह जीवन-मरण का प्रश्न बन जाए। थोड़े हल्के-फुल्के, खेलपूर्ण बनना जरूरी है। मैं नहीं कहता कि कोई इच्छा न करे – क्योंकि यह भीतर एक दमन बनेगा। मैं कह रहा हूं, इच्छा खेलपूर्ण हो। यदि इच्छा पूरी हो गई, तो अच्छा है। यदि पूरी नहीं हुई कि विचार उठना चाहिए कि शायद यह सही समय नहीं था; हम इसे अगली बार देखेंगे।

श्रीमद्भगवतगीता में क्रोध, लोभ, मोह आदि पर व्यापक चर्चा है। तीसरे अध्याय में कहा गया है कि जैसे अग्नि धुएं से, दर्पण धूल से और गर्भ झिल्ली से ढका होता है। वैसे ही ज्ञान कामना से ढका होता है। चिन्मय मिशन के संस्थापक स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती ने इस बात की व्याख्या करते हुए कहते थे कि कामना बुद्धि को आच्छादित करती है। जब कामना लोभ, स्वार्थपरता, सुखोपभोग आदि की लालसा भयंकर रूपों में प्रकट होती है तो यह तामसिक कामना ज्ञान को ढ़ंक लेती है। पर जब कामना किसी महान या शुभ वासना से उत्पन्न होती है तो यह सात्विक इच्छा बनती है। यद्यपि यह भी ज्ञान को आच्छादित करती है। पर यह अग्नि को ढंकने वाले धुएं के सदृश्य होती है। ऐसे में वायु का एक झोंका भी धुएं को हटाने और अग्नि को अपनी देदीप्यमान महिमा में प्रकट कर देने के लिए पर्याप्त होता है।

योगशास्त्र कहता है कि इंद्रियों को वश में करो, समस्याओं से मुक्ति मिल जाएगी। इसके लिए श्रीमद्भगवतगीता से लेकर पतंजलि योगसूत्र तक में अनेक विधियां बतलाई गई हैं। जैसा कि पहले कहा गया है कि कामना विवेक को आच्छादित करती है और उसके परिणामस्वरूप उत्पन्न अंधकार से इंद्रियां, मन और बुद्धि भ्रमित होकर आत्म-घातक कार्य करने लगते हैं। इसलिए श्रीकृष्ण की सलाह है कि इंद्रियों को प्रारंभ में ही वश में करके इस पापी और ज्ञान व विज्ञान के नाशक काम (कामना) को मार डाल। कैसे? इस कैसे का जबाव भी श्रीकृष्ण देते हैं। वे कहते हैं – योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है, वह शास्त्र-ज्ञानियों से बढ़कर है और योगी कर्मियों से भी श्रेष्ठ है। इसलिए हे अर्जुन, ध्यान योगी बनो। स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती कहते थे कि दुर्बलताओं को शक्ति में, मूर्खता को बुद्धिमत्ता में और असफलताओं को सफलता में बदलने का यही सूत्र है।

पर अतिव्यस्त और समस्याओं में उलझे आज के आदमी के लिए ध्यान को प्राप्त होना कठिन हो जाता है। फिर जिसने ककहरा न जानता हो, वह सीधे स्नातकोत्तर की शिक्षा कैसे ग्रहण कर पाएगा? अष्टांग योग में ध्यान तो सातवें स्थान पर है। उसके पहले योग की अनेक विधियां है। आमतौर पर उनसे गुजरते हुए ही सही मायने में ध्यान को प्राप्त हुआ जा सकता है। ऐसे में आदमी क्या करे? बिहार योग के जनक परहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती का सुझाव है कि शशांकासन करना चाहिए। यह आसन इस मामले में इतना असरदार है कि महर्षि दुर्वासा की तरह क्रोधी व्यक्ति का क्रोध भी तीन-चार महीनों के अभ्यास से शांत हो जाएगा, रूपांतरण हो जाएगा। हां, लेकिन जिन्हें अति उच्च रक्तचाप, स्लिप डिस्क या चक्कर आते हों, उनके लिए यह आसन वर्जित है।

दरअसल, शरीर पर ग्रंथियों का बहुत असर होता है। यह आसन एड्रीनल ग्रंथि के कार्य को नियमित कर देता है। दरअसल, इस ग्रंथि की अनियमितता ही उत्तेजना, क्रोध और भय का कारण बनी होती है। जैसे चंद्रमा शांत और शीतल होती है, यह आसन भी मानव शरीर को शांत बना देता है। शशांक का अर्थ भी चद्रमा ही होता है। शांति की तलाश में पूरी दुनिया के लोग न जाने क्या-क्या जतन करते रहते हैं। वैसे में शशांकासन का इतना प्रभावी होना ही वह कारण रहा होगा कि संयुक्त राष्ट्र महासभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसकी चर्चा करते हुए एक बार फिर योग की महत्ता से दुनिया को परिचित कराया था।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)     

बगुला ध्यान से कैसे हो मन का प्रबंधन

सर्वत्र ध्यान की बात चल रही है। इसलिए कि मानसिक उथल-पुथल ज्यादा है। पर आमतौर पर ध्यान के नाम पर जो भी अभ्यास किया या कराया जाता है, वह वास्तव में ध्यान नहीं होता, ध्यान जैसा होता है। पश्चिमी देशों में अब तक तनावों पर ध्यान के प्रभावों को लेकर जितने भी अध्ययन किए गए, उन सबमें प्रत्याहार की विधियां उपयोग में लाई गईं। पर कहा गया है ध्यान। दरअसल, प्रत्याहार राजयोग की सबसे महत्वपूर्ण क्रिया और ध्यान की अवस्था तक पहुंचने की पहली सीढ़ी है। उसके सधे बिना जो ध्यान है, उसे बगुला ध्यान कहना चाहिए। ….और बगुला ध्यान से भला मानसिक उथल-पुथल रूकना कैसे संभव है? विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस (10 अक्तूबर) पर प्रस्तुत है यह आलेख।

अशांत मन का प्रबंधन किसी भी काल में चुनौती भरा कार्य रहा है। आज भी है। योग ने तब भी राह निकाली। आज भी योग से ही राह निकलेगी। तब वैज्ञानिक संत योगसूत्र दिया करते थे। आधुनिक युग में संन्यासी उन योगसूत्रों को सरलीकृत करके जन सुलभ करा चुके हैं और एक समय इसे संशय की दृष्टि से देखने वाला विज्ञान चीख-चीखकर कह रहा है – “योग का वैज्ञानिक आधार है। इसे अपनाओ, जिंदगी का हिस्सा बनाओ।“ पर अब लोगों के सामने यह सवाल नहीं है कि योग अपनाएं या नहीं। सवाल है कि अपेक्षित परिणाम किस तरह मिले?

योग शास्त्र के मुताबिक, तनाव तीन प्रकार के होते हैं – स्नायविक, मानसिक या मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक। पर इन तीनों ही तनावों का असर एक दूसरे पर होता ही है। स्नायु तंत्र मस्तिष्क, हृदय और शरीर के अन्य अंगों को प्राण-शक्ति पहुंचाता है। यह पांच ज्ञानेन्द्रियों यथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध में शक्ति वितरित करता है। उत्तेजना स्नायविक संतुलन को अस्त-व्यस्त कर देती है, जिसके कारण कुछ अंगों में अध्यधिक ऊर्जा भेज दी जाती है और कुछ अंग आवश्यक ऊर्जा से वंचित रह जाते हैं। तंत्रिका-शक्ति में उचित वितरण की कमी ही मानसिक अशांति का मूल कारण बनती है।

आधुनिक युग में भी जब-जब जीवन संकट में पड़ा और अवसाद के क्षण आए, योग की महती भूमिका को सबने स्वीकारा। परमहंस योगानंद 100 साल पहले क्रियायोग का प्रचार करने जब अमेरिका गए थे, उस समय स्पैनिश फ्लू के कारण आज जैसी ही भयावह स्थिति थी। उस बीमारी से इतने लोग मरे थे कि लंबे समय तक हिसाब ही लगाया जाता रहा कि कितने मरे। पर सही उत्तर फिर भी नहीं मिला था। अंत में तय हुआ कि लगभग पांच करोड़ लोग मरे होंगे। पूरी दुनिया में हालात ऐसे थे कि विभिन्न कारणों से मानसिक रोगियों की संख्या में रिकार्ड बढ़ोत्तरी हो गई थी। इस स्थिति से उबरने के लिए पश्चिमी जगत के एक वर्ग के लिए जान-पहचाना योग ही सहारा बना था। जिन लोगों ने क्रियायोग को अपने जीवन का हिस्सा बनाया था, उन्हें अवसाद से मुक्ति मिली थी। मन का बेहतर प्रबंधन होने के कारण जीवन को पटरी पर लाना आसान हो गया था।

प्राणायाम ऐसी यौगिक क्रिया है कि किसी वजह से आंशिक रूप से नष्ट हुईं तंत्रिकाओं में प्राण-शक्ति भेजकर मानसिक अशांति के कारण नष्ट हुए उत्तकों (टिश्यूज) को पुनर्जीवित किया जा सकता है। कोरोना काल में फेफड़े को दुरूस्त रखने में प्राणायाम की भूमिकाओं से तो अब ज्यादातर लोग वाकिफ हो चुके हैं। उसका संबंध भी मन से है। स्वात्माराम की हठप्रदीपिका के मुताबिक राजयोग साधने कि लिए हठयोग अनिवार्य है।

महानिर्वाण तंत्र, रूद्रयामल तंत्र और दूसरे अन्य ग्रंथों के मुताबिक शिव ही योग के आदिगुरू हैं। उनकी प्रथम शिष्या पार्वती ने उनसे सवाल किया था – “स्वामी, मन चंचल है। एक जगह टिकता नहीं। कोई उपाय बताएं जिससे मन काबू में आ सके।“ शिवजी ने इस सवाल के जबाव में मन की सजगता और एकाग्रता की इनती विधियां बतलाई थी कि पूरा योगशास्त्र तैयार हो गया। कमाल यह कि इनमें से एक सूत्र पकड़कर भी लक्ष्य हासिल किया जा सकता था। खैर, पार्वती जी की समस्या अलग थी। उन्हें मन के पार जाना था। उस अंतर्यात्रा के लिए चित्ति की शांति जरूरी थी। महाभारत के दौरान वीर अर्जुन विषाद से घिर गए थे। मन अशांत हो गया था। विषादग्रस्त अर्जुन को रास्ते पर लाने के लिए सर्व शक्तिशाली श्रीकृष्ण को इतने उपाय करने पड़े थे कि सात सौ श्लोकों वाली श्रीमद्भगवतगीता की रचना हो गई थी। आधुनिक युग में भी वही श्रीमद्भगवतगीता मनोविज्ञान से लेकर योगशास्त्र तक का श्रेष्ठ ग्रंथ है।  

ध्यान अपने ही भीतर किसी निर्जन द्वीप जैसे स्थल की खोज का मार्ग है। दुनिया के सारे धर्मों के बीच बहुत विवाद है। सिर्फ एक बात के संबंध में विवाद नहीं है। वह है ध्यान। इस बात पर सबकी एक राय है कि जीवन के आनंद का मार्ग ध्यान से होकर जाता है। परमात्मा तक अगर कोई भी कभी भी पहुंचा है तो ध्यान की सीढ़ी के अतिरिक्त और किसी सीढ़ी से नहीं। वह चाहे जीसस, और चाहे बुद्ध, और चाहे मुहम्मद, और चाहे महावीर – कोई भी, जिसने जीवन की परम धन्यता का अनुभव किया, उसने अपने ही भीतर डूब के उस निर्जन द्वीप की खोज कर ली।  —-ओशो

दरअसल, अर्जुन के मन में इतना उपद्रव था कि किसी निष्कर्ष पर पहुंचना ही मुश्किल हो गया था। उसने यह बात श्रीकृष्ण को बतला दी थी। कहा – “मन बड़ा उपद्रवी, शक्तिशाली और हठी है। मन को वश में करना उतना ही कठिन है, जितना वायु को।” श्रीमद्भगवतगीता के छठे अध्याय में इसका उल्लेख है। जबाव में श्रीकृष्ण ने जो कहा था, वह समग्र योग की बात है। उन्होंने यह नहीं बताया कि केवल आंखें मूंदकर बैठ जाने से ध्यान लग जाएगा और मन वश में हो जाएगा। उनके उपायों में यम-नियम की बात है तो प्राणायाम की भी बात है। परमहंस योगानंद ने लिखा है कि भारत के ऋषियों ने अपनी साधना की बदौलत यह ज्ञान हासिल कर लिया था कि श्वास पर नियंत्रण करके मन पर भी नियंत्रण किया जा सकता है। वैज्ञानिक विधि से की गई यह साधना से रक्त को पर्याप्त आक्सीजन उपलब्ध होता है और कार्बन डाइऑक्साइड हट जाता है। लेकिन फेफड़ों में बलपूर्वक श्वास रोक लेने से इसके उलट परिणाम मिलने लगते हैं। तब मन चंचल रहेगा और प्रत्याहार संभव नहीं।   

कैवल्यधाम, लोनावाला के संस्थापक ब्रह्मलीन स्वामी कुवल्यानंद कहते थे कि क्लेश न तो केवल मानसिक है, न शारीरिक। वह मनोकायिक प्रक्रिया है। उससे मुक्ति पाने का सबसे उत्तम उपाय है कि उन पर दोनों ओर से प्रहार किया जाए। एक तरफ से यम व नियमों के द्वारा और दूसरी तरफ से आसन व प्राणायाम के द्वारा। इन क्रियाओं से मन के क्लेश पर नियंत्रण हो जाएगा तो ध्यान का मनोवैज्ञानिक प्रभाव क्लेशों का विनाश कर देगा।    

मौजूदा समय में भी मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाने के लिए मन के प्रबंधन की जरूरत आ पड़ी है। विश्वव्यापी कोरोना महामारी ने हमारे जीवन का चक्का इस तरह जाम किया है कि शारीरिक श्रम की कमी के कारण स्नायविक तनाव चरम पर है। दूसरी तरफ मानसिक पीड़ाएं अलग-अलग रूपों में अपना असर दिखा रही हैं। वजहें सर्वविदित हैं। किसी का अपना काल के गाल में समां जा रहा है तो किसी के लिए आर्थिक मार को सहन कर पाना मुश्किल है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि सत्तर फीसदी बीमारी मन से उत्पन्न होती है। मन बीमार तो तन बीमार। इसके उलट तन बीमार तो मन भी बीमार होता है। मन की समस्या पहले से ही विकट है। आलम यह है कि हमें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर 10 अक्तूबर को मानसिक स्वास्थ्य दिवस मनाना पड़ता है और समस्या के समाधान के लिए कारगर उपायों पर मंथन करना होता है। विश्वव्यापी कोरोना महामारी के कारण इस साल इस आयोजन की महत्ता पहले से कहीं अधिक बढ़ी हुई है। पर दूर-दूर तक नजर दौराएं तो कारगर हथियार के तौर पर योग ही दिखता है। दवाओं से लक्षणों का इलाज हो जाता है। तन-मन में मची उथल-पुथल को व्यवस्थित करने के लिए योग से बड़ी लकीर नहीं खिंची जा सकी है।

बिहार योग विद्यालय के संन्यासी स्वामी शिवध्यानम सरस्वती कहते हैं – प्रति  + आहार = प्रत्याहार। माया के पीछे बाह्य जगत में भटकती इंद्रियों और मन को खींचकर अपने भीतर विद्यमान चेतना, ज्ञान व आनंद के स्रोत से जोड़ देना प्रत्याहार है। राजयोग का यही मुख्य प्रयोजन है। इसलिए राजयोग के आठ अंगों में प्रत्याहार सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। प्रत्याहार सिद्ध होता है तो शारीरिक, मानसिक औऱ भावनात्मक हर स्तर पर शांति मिलती है। मन संतुलित होता है।   

पर व्यवहार रूप में देखा जाता है कि मेडिटेशन के अनेक विशेषज्ञ संकटग्रस्त लोगों से सीधे ध्यान का अभ्यास कराते हैं। ओशो कहते थे कि राजयोग में इंद्रियों को वश में करने से अभिप्राय इंद्रियों को मारकर विषाक्त बनाना नहीं है, बल्कि उसका रूपांतरण करना है। वे इस संदर्भ में मनोविज्ञानी थियोडोर रैक का संस्मरण सुनाते थे – “यूरोप में एक छोटा-सा द्वीप है। कैथोलिक मोनेस्ट्री वाला वह द्वीप महिलाओं के लिए वर्जित है। वहां आध्यात्मिक साधना के लिए पुरूष जाते हैं। जब उनकी मन:स्थिति का अध्ययन किया गया तो पता चला कि उनके मानस पटल पर स्त्रियां ही छाई रहती हैं। वे जितना ध्यान हटाने की कोशिश करते हैं, वासना घनीभूत होती जाती है।“  देखिए, विचारों का दमन किस तरह मन को विषाक्त बनाता है।

दिल्ली के त्यागराज स्टेडियम में योगनिद्रा का अभ्यास कराते स्वामी निरंजनानंद सरस्वती

सवाल है मन का रूपांतर कैसे हो? प्रत्याहार का योगनिद्रा तो शक्तिशाली है ही और भी अनेक विधियां हैं। अजपा है, अंतर्मौन है। “ऊं” मंत्र की शक्ति भी देश-विदेश में अनेक शोधों से प्रमाणित हो चुकी है। इन यौगिक विधियों को साधे बिना बगुला ध्यान तो लग सकता है। पर वह ध्यान नहीं लगेगा, जिससे मानसिक पीड़ाएं दूर होती हैं और मन का प्रबंधन हो जाता है। कोरोना काल में योग पर जितनी चर्चा हुई है, उतनी शायद ही पहले कभी हुई रही होगी। देश के तमाम सिद्ध संत और योगी जीवन को व्यवस्थित करने के यौगिक उपाय बता चुके हैं। सतर्क लोग षट्कर्म जैसे, नेति, कुंजल और आसन व प्राणायाम का अभ्यास कर भी रहे हैं। पर मनोविकार का मामल उलझा हुआ है। आंकड़े गवाह हैं कि मन का प्रबंधन चुनौतीपूर्ण बना हुआ है। इतिहास पर गौर करने औऱ संतों के अनुभवों से साफ है कि इस चुनौती का सामना योग के व्यस्थित मार्ग पर चलकर ही किया जा सकता है।

जिस तरह कॉलेजी शिक्षा के लिए उच्च विद्यालय स्तर की शिक्षा जरूरी है, उसी तरह षट्कर्म, आसन और प्राणायाम साधे बिना राजयोग का प्रत्याहार नहीं सधेगा। प्रत्याहार मन की सजगता के लिए जरूरी है। मन सजग नहीं है तो एकाग्र नहीं होगा। फिर तो ध्यान फलित होने की उम्मीद ही करना फिजुल है। 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

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