प्राणायाम : कई रोगों की एक दवा

किशोर कुमार

प्राणायाम के चिकित्सकीय लाभ क्या-क्या हैं, इस सवाल को लेकर बीते तीन वर्षों में जितने शोध हुए हैं, उतने शोध तीन दशकों में भी नहीं हुए होंगे। योग शास्त्रों में आध्यात्मिक उत्थान में प्राणायाम के योगदान पर विशद चर्चा है। उसी से झलक मिलती है कि इस साधना से तन-मन भी स्वस्थ रहता है। पर आधुनिक युग के संत-महात्माओं ने जोर देकर कहा कि प्राण चिकित्सा बेहद असरदार चिकित्सा पद्धति है और कोरोना महामारी के दौरान हम सब ने इस बात को शिद्दत से महसूस किया भी। इसके बाद ही दुनिया भर के चिकित्सा विज्ञानियों ने प्राणायाम के चिकित्सकीय लाभों को विस्तार से जानने के लिए अनेक शोध किए और वे भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचे कि प्राण चिकित्सा वैज्ञानिक पद्धति है।

हाल ही समाचार पत्रों में प्रमुखता से खबर प्रकाशित हुई है कि भारत में  बीते दो वर्षों में टीबी के मामले 17 फीसदी बढ़ गए हैं। यह स्थिति तब है जब सरकार अगले वर्ष तक भारत को टीबी मुक्त बनाने की हर संभव कोशिशें कर रही है। बीसवीं सदी के महान संत और ऋषिकेश स्थित दिव्य जीवन संघ के संस्थापक स्वामी शिवानंद सरस्वती ने सात-आठ दशक पहले ही प्रयोग करके बताया था कि मुख्यत: प्राण-शक्ति की कमी के कारण फेफड़े की टीबी हो जाती है। फेफड़ों का विकास अवरूद्ध होता है तो यह क्षेत्र टीबी के कीटाणुओं के लिए अनुकूल क्षेत्र बन जाता है। लेकिन जो लोग कपालभाति, भस्त्रिका या अन्य प्राणायामों का अभ्यास करते हैं, तो टीबी के कीटाणु पनम ही नहीं पाते। अब कर्नाटक स्थित एसडीएम कॉलेज ऑफ मेडिकल साइंसेज ने स्वामी विवेकानंद योग अनुसंधान संस्थान के सहयोग से शोध किया तो इससे भी यही सिद्ध हुआ कि टीबी रोग से मुक्त बने रहने में प्राणायाम की बड़ी भूमिका है।

इसी तरह चिकित्सा विज्ञानियों ने लीवर की समस्या में भी प्राणायाम की कुछ विधियों के लाभों को समझने की कोशिशें की हैं, जबकि स्वामी शिवानंद सरस्वती कहते रहे हैं कि लीवर की समस्या शुरूआती दौर में हो तो यौगिक उपचार संभव है। वे कहते थे कि यदि यकृत ठीक से काम नहीं कर रहा हो तो पद्मासन पर बैठ जाइए। आंखें बंद कीजिए और तीन बार ऊं मंत्र का जप करते हुए धीरे-धीरे श्वास लीजिए। छह बार इसी मंत्र का जप करते हुए श्वास रोके रहिए और प्राण को यकृत भाग में ले जा कर वहीं स्थिर कीजिए। कल्पना कीजिए कि प्राण-शक्ति यकृत के सभी कोशाणुओं और उत्तकों में व्याप्त होकर बीमारी ठीक कर रही है। फिर धीरे-धीरे श्वास छोड़िए। इस क्रिया को सुबह और शाम को बारह-बारह बार कीजिए। कुछ ही दिनों में चीजें सामान्य होती दिखने लगेंगी।

लाइलाज पार्किंसंस रोग चिकित्सा विज्ञान के लिए बड़ी चुनौती है। सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (सीडीसी) के अनुसार, पार्किंसन रोग यानी पीडी दुनिया भर में मृत्यु का 14वां सबसे बड़ा कारण है। यह दिमाग की उन तंत्रिकाओं को प्रभावित करता है, जिनसे डोपामाइन का उत्पादन होता है। इससे नर्व्ज सिस्टम की संतुलन संबंधी कार्य-क्षमता बाधित होती है। हार्मोन के क्षरण वाली इस बीमारी में कृत्रिम हार्मोन एल डोपा भी ज्यादा दिनों तक काम नहीं आता। पर बिहार योग विद्यालय के नियंत्रणाधीन योग रिसर्च फाउंडेशन ने अपने अध्ययन में पाया कि योगाभ्यासों में मुख्यत: नाड़ी शोधन प्राणायाम के अभ्यास से रोगियों की आक्रमकता कम हुई और हार्मोन क्षरण की रफ्तार धीमी पड़ गई। ऐसा इसलिए हुआ कि प्राण-शक्ति से मस्तिष्क के तंतुओं का पोषण हुआ और वे फिर से सक्रिय होने लगे।

परंपरागत योगविद्या के परमहंस ब्रह्मलीन स्वामी सत्यानंद सरस्वती अपने अध्ययनों और व्यावहारिक ज्ञान के आधार पर कहते थे – “भारतीय सनातम परंपरा में प्राणायाम का महत्वपूर्ण स्थान है। इसका अभ्यास करने वाले अपने प्राण-संचार से रोगों को दूर कर सकते हैं। यदि किसी को गठिया रोग हो तो प्राणायाम में पारंगत व्यक्ति कुंभक के साथ अपने हाथों से मरीज की टांगों पर मालिश करके दु:ख का निवारण कर सकता है। दरअसल, ऐसा करने वाले व्यक्ति के शरीर से रोगी के शरीर में प्राण-शक्ति का संचार होता है। यही स्थिति चमत्कार पैदा करती है। प्राणायाम का अभ्यास करते समय इष्ट मंत्र का जप चलते रहे तो इसके बड़े फायदे होते हैं।

अब सवाल है कि बहुत सारे लोगों को वर्षों प्राणायाम का अभ्यास करने के बावजूद खास लाभ क्यों नहीं मिलता? इसे समझने के लिए कुछ बिंदुओं पर गौर करना जरूरी है। वैज्ञानिकों की मानें तो एडेनोसिन टी फॉस्फेट (एटीपी) ही वह रसायन है, जो शरीर में ऊर्जा के उत्पादन आधार बनता है। इस रसायन की जैसे-जैसे कमी होती जाती है, बीमारियों के पंजे फैलते जाते हैं। प्राण-शक्ति का संचार होता है तो एटीपी का उत्पादन जरूरत के मुताबिक होते रहता है। यह तो एक बात हुई। ऐसी और भी रासायनिक प्रतिक्रियाएं होती हैं। पर योगियों और चिकित्सा विज्ञानियों की मानें तो हम सही ढंग से श्वास ही नहीं लेते हैं। इस वजह से फेफड़े का एक अंश मात्र बमुश्किल काम करता है।

वैज्ञानिक मत है कि हम जितना श्वास लेते हैं, उसमें बीस फीसदी ही आक्सीजन होता है। इसी आक्सीजन में एक विशिष्ट तत्व होता है, जिसे योगी प्राण-शक्ति कहते हैं। उनका दावा है कि आक्सीजन के बिना तो कोई थोड़ी देर जीवित रह भी सकता है। पर प्राण-शक्ति न हो तो आदमी एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकता। संयुक्त राष्ट्र में हिमालय इंस्टीच्यूट के स्वामी राम ने स्वेच्छा से लंबे समय तक हृदय की धड़कन रोककर योगानुसंधान के क्षेत्र मे बड़ा योगदान दिया था। यौगिक शोध में दूसरा योगदान संयुक्त राष्ट्र के ही स्वामी नादब्रह्मानंद का रहा। वे स्वामी शिवानंद सरस्वती के शिष्य़ थे। उन्होंने एक वायुरोधी कक्ष में 45 मिनटों तक तबला बजाते हुए पूर्ण कुंभक किया था। इससे उपरोक्त बातों की पुष्टि होती है।

हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है कि शरीर में प्राण वायु है, तब तक जीवन है। इसलिए वायु को भीतर यथासंभव रोककर रखो और हम जानते हैं कि ऐसा प्राणायाम से ही संभव है। स्पष्ट है कि स्वस्थ्य जीवन के लिए केवल वायु नहीं, बल्कि प्राण-वायु की ज्यादा जरूरत है। जाहिर है कि इतनी महत्वपूर्ण योग विद्या का इच्छित परिणाम किताबें पढ़कर या यूट्यूब देखकर हासिल नहीं कर सकते। इसलिए कि हर व्यक्ति का गुण-धर्म अलग-अलग है और एक ही फार्मूला सभी पर लागू नहीं होता।  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

वैश्विक आध्यात्मिकता महोत्सव का संदेश

किशोर कुमार //

योग और अध्यात्म के दृष्टिकोण से मार्च का महीना भारत के लिए खास है। एक तरफ योग नगरी हरिद्वार में गंगा के तट पर सप्ताह व्यापी अंतरराष्ट्रीय योग महोत्सव 15 मार्च से प्रारंभ हो चुका है तो हैदराबाद के कान्हा शांति वनम् का ऐतिहासिक अंतर्राष्ट्रीय आध्यात्मिकता महोत्सव 17 मार्च को संपन्न हो गया। इन महोत्सवों के ठीक पहले यानी 13 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस -2024 की 100 दिनों की उलटी गिनती के उपलक्ष्य में दिल्ली के विज्ञान भवन में योग महोत्सव-2024, कार्यक्रम का आयोजन किया गया। हम जानते हैं कि अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस प्रत्येक वर्ष 21 जून को मनाया जाता है और इस वर्ष 10 वां अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाया जाएगा। इसके अलावा विभिन्न स्तरों पर योग और अध्यात्म से संबंधित दर्जन भर कार्यक्रम मार्च में ही आयोजित होने हैं।

पर इन महोत्सवों में विश्व आध्यात्मिकता महोत्सव खास है। मेरा कहने का अभिप्राय यह कदापि नहीं कि बाकी महोत्सवों मूल्य कमतर है, बल्कि वे इतने खास हैं कि हमारे वार्षिक कैलेंडर का हिस्सा बनकर बेहद सकारात्मक प्रभाव डालते हैं। विश्व आध्यात्मिकता महोत्सव बड़े महत्व का इस लिए बन पड़ा कि न केवल इसका फलक व्यापक था, बल्कि इसका संदेश भी ऐसा है, जिसकी गूंज पूरी दुनिया में लंबे समय तक सुनाई देती रहेगी। ठीक वैसे ही, जैसे विश्व धर्म महासभा के नाम से सभाएँ दुनिया भर में सभाएं तो कई हुईं। पर सन् 1893 में शिकागो की विश्व धर्म महासभा यादगार रह गई। स्वामी विवेकानंद ने धर्म संसद में कहा था, “दुनिया में सहिष्णुता का विचार पूरब के देशों खासतौर से भारत से फैला है। पर हम सिर्फ़ सार्वभौमिक सहिष्णुता पर ही विश्वास नहीं करते, बल्कि, हम सभी धर्मों को सच के रूप में स्वीकार करते हैं।“ भारत ने कोई सवा सौ साल बाद अंतर्राष्ट्रीय आध्यात्मिकता महोत्सव के जरिए आज के परिप्रेक्ष्य में सैद्धांतिक ज्ञान और उसके व्यावहारिक अनुप्रयोगों से दुनिया को न केवल विश्व गुरू होने का भान कराया, बल्कि सप्रमाण बताया कि मानव की आंतरिक शांति से विश्व शांति का मार्ग किस तरह प्रशस्त होगा।

हालांकि भारत के योगी अपनी आध्यात्मिक उपलब्धियों के आधार पर सदियों से अध्यात्म को विश्व शांति की कारगर दवा बतलाते। आधुनिक युग के संन्यासियों में स्वामी विवेकानंद से लेकर परमहंस योगानंद, अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, अरविंद घोष, रमण महर्षि, महर्षि महेश योगी, ओशो, ब्रह्माकुमारी, स्वामी शिवानंद सरस्वती योग परंपरा के परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती, श्रीराम शर्मा आचार्य आदि प्रमुख हैं, जो वेद-वेदांग और विज्ञान का आलंबन लेकर अध्यात्म की शक्ति से दुनिया को अवगत कराते रहे हैं। पर पहली बार ऐसा हुआ कि प्रत्येक वर्ष सितंबर में मनाए जाने वाले विश्व शांति दिवस से पहले ही विश्व शांति की तड़प लिए एक सौ से ज्यादा देशों के तीन सौ से ज्यादा आध्यात्मिक संस्थाओं, संगठनों के प्रतिनिधि और आध्यात्मिक व वैज्ञानिक गतिविधियों से जुड़े एक लाख से ज्यादा लोग विश्व आध्यात्मिकता महोत्सव में जुट गए। इसलिए कि उन्होंने शिद्दत से महसूस किया है कि आध्यात्मिकता विश्व शांति के लिए रामबाण दवा हो सकती है।

इस संदर्भ में एक प्रसंग उल्लेखनीय है। किसी शिष्य ने वेदान्त के महान आचार्य और सनातन धर्म के विख्यात नेता स्वामी शिवानंद सरस्वती से पूछ लिया था कि विश्व शांति का उपाय क्या है? स्वामी जी ने कहा था, अज्ञान की निवृत्ति ही एकमात्र उपाय है। इसी निवृति से प्रेम, दान और सेवा की भावना विकसित होगी। पर प्रथमत: देश के कर्णधारों में इन गुणों का विकसित होना ज्यादा जरूरी है। इसलिए कहता हूं कि दुनिया के सभी प्रधानमंत्रियों को वेदांत और योग संबंधी शिक्षा हासिल करनी चाहिए। ऐसी शिक्षा के लिए भारत ही एकमात्र उपयुक्त स्थान है। विश्व आध्यात्मिकता महोत्सव में चार दिनों तक विविध विषयों पर मंथन के लिए दो दर्जन से ज्यादा सत्र आयोजित किए गए थे। और खास बात यह रही कि सात-आठ दशक पूर्व स्वामी शिवानंद सरस्वती ने विश्व शांति के लिए जो एक प्रमुख दवा सुझाई थी, दुनिया भर के आध्यात्मिक गुरुओं और दार्शनिकों ने शिद्दत से महसूस किया कि उस दवा की जरूरत आज कहीं ज्यादा है। यही वजह है कि महोत्सव के एक सत्र का विषय रखा गया था – रोल ऑफ स्पिरिचुअलिटी फॉर ऐन इफेक्टिव लीडर। यानी प्रभावशाली नेतृत्वकर्ता के लिए अध्यात्म की भूमिका क्या हो सकती है।

अपनी तरह का पहला एक भव्य आध्यात्मिक उत्सव का आयोजन भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय ने  हार्टफुलनेस के सहयोग के किया था। हार्टफुलनेस अपनी लोकप्रिय ध्यान पद्धति के लिए दुनिया भर में मशहूर है। इसकी खोज फतेहगढ़ के योगी लाला जी उर्फ रामचंद्र जी ने की थी। महोत्सव में आंतरिक शांति से विश्व शांति पर परिचर्चा शुरू हुई तो इसी संगठन के मौजूदा अध्यक्ष दादा जी उर्फ कमलेश पटेल ने विषय प्रवेश कराया। इसके बाद तो इस्कॉन, ब्रह्मकुमारीज, रामकृष्ण मिशन, हार्टफुलनेस, इंटरनेशनल बुद्ध कंफेडरेशन, हैदराबाद के आर्कबिशप, महाबोधि इंटरनेशनल मेडिटेशन सेंटर, लद्दाख, श्रीमद् राजचंद्र मिशन, आनंदम् धाम वृंदावन, शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी, दरगाह अजमेर शरीफ जी के गद्दीनसीन हाजी सैयद सलमान चिश्ती, सिडनी विश्वविद्यालय के डॉ एलिजाबेथ डेनले सहित कोई दो तीन दर्जन से ज्यादा विश्व प्रसिद्ध वक्ताओं ने अपने अनुभवों के आधार पर विचार व्यक्त किए। पूरे महोत्सव के दौरान मनुष्य की आंतरिक शांति के लिए अनेक यौगिक समाधान प्रस्तुत किए गए। पर महर्षि महेश योगी का विज्ञानसम्मत भावातीत ध्यान और लालाजी का हार्टफुलनेस ध्यान छाया रहा। महोत्सव का उद्घाटन राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने किया था। 

यदि एक लाइन में कहा जाए कि आध्यात्मिकता महोत्सव से दुनिया को क्या संदेश मिला, तो एक बेहद लोकप्रिय तमिल कविता का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा।  …..जब भगवान ने पूछा कि इस दुनिया में दुर्लभ क्या है, तो ओवैयार संत ने कहा – “मनुष्य के रूप में जन्म लेना दुर्लभ है। भले ही किसी का जन्म मनुष्य के रूप में हुआ हो, विकृति के बिना जन्म लेना दुर्लभ है। भले ही कोई बिना किसी विकृति के पैदा हुआ हो, स्वयं और संसार का ज्ञान और कला में विशेषज्ञता प्राप्त करना दुर्लभ है। भले ही कोई इन गुणों से संपन्न हो, जरूरतमंदों को देने की आदत दुर्लभ है…..।“ यही आध्यात्मिक संदेश दुनिया को दिया गया। दानशीलता ही वह धर्मसम्मत गुण है, जिसकी बदौलत सत्व की प्राप्ति होती है, जो अध्यात्म का लक्ष्य है। योग साधनाएं इन भावनाओं के विकास में उत्प्रेरक की भूमिका निभाती हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

महर्षि पतंजलि और उनके प्रसन्नता के सूत्र

मिनी सहाय //

जीवन में खुशी मिले, आनंद मिले, यह कौन नहीं चाहता। जीवन-शैली जैसी भी हो, कर्म जैसा भी हो, पर खुशी और आनंद की इच्छा तो सबकी रहती है। पर जीवन में खुशियां कैसे मिले? यह अक्सर बड़ा प्रश्न बन जाता है। वैदिक ग्रंथों में विस्तार से वर्णन मिलता है कि हमारे जीवन में दु:ख क्यों होता है और किस विधि प्रसन्न रहा जा सकता है। ऋषि-मुनि सदियों से देश-काल के लिहाज से प्रसन्नता के सूत्र देने की कोशिश करते रहे हैं। लोभ, मोह, काम और क्रोध में फंसा मानव अमृत को त्याग कर विष पीता है। यह जानते हुए कि भौतिकतावाद दु:खों के मूल में है। वरना, आदमी भौतिक साधनों की प्रचूरता के बावजूद दु:खी क्यों रहता?

आधुनिक विज्ञान का निष्कर्ष है कि हैप्पी हार्मोन्स जैसे डोपामाइन, सेरोटोनिन, एंडोर्फिन और ऑक्सीटोसिन की प्रतिक्रियाओं की वजह से हमारी मानसिक स्थिति ऐसी हो जाती है कि हम कभी खुशी और कभी गम का अनुभव करने लगते हैं। पर इन हार्मोन्स की ऊर्जा का प्रवाह सही दिशा में हो इसके स्थायी उपाय वही हैं, जो वैदिक और यौगिक सूत्रों से हमें प्राप्त होते हैं। पर केवल बुद्धि-विलास से बात नहीं बनती। योग हमें विधियां देता है, जिन्हें अमल में लाकर जीवन को रूपांतरित कर पाना संभव होता है। इसलिए कहा गया है कि योग जीवन जीने की कला है और इसे हर किसी को अपने जीवन का हिस्सा अनिवार्य रूप से बनाना चाहिए।

यद्यपि योग की पूर्णता उसके अभ्यास पर निर्भर है। पर उसके दार्शनिक पक्ष को समझ लेने से योग के प्रति स्पष्ट दृष्टि मिल जाती है। इसलिए, पहले योग का दार्शनिक पक्ष। श्रीमद्भागवत् गीता के दूसरे अध्याय के 48वें श्लोक में कहा गया है – “समत्वं योग उच्चयते।” समत्व ही योग है। अर्थात हम सबके साथ एक समान व्यवहार करते हैं, सद्भावनापूर्ण व्यवहार करते हैं, प्रेमपूर्ण व्यवहार करते हैं और हर परिस्थिति में सम-भाव रखते हैं, चाहे सुख हो या दु:ख हो, सर्दी हो या गर्मी तो समझिए जीवन योगमय है। दूसरा सूत्र है – “योग: कर्मशु कौशलम्।”(2/50) यानी कर्म की कुशलता भी योग है। यदि हम कार्यों को व्यक्तिगत फल की आकांक्षा किए बिना कुशलतापूर्वक करते हैं, जैसे देश की रक्षा के लिए सीमा पर सेना पूरी कुशलता से अपने कार्यों को करती है, तो यह भी योग है। कर्मयोग है।

अब योग के व्यावहारिक पक्ष को समझते हैं। महर्षि पतंजलि ने 400 ई.पूर्व योगसूत्रों की रचना की थी। उन्होंने प्रथम अध्याय के प्रथम सूत्र में ही कहा है – “अथ योग अनुशासनम्।”(1/1) यानी योग-मार्ग पर आगे बढ़ना है तो हमें इस संकल्पना के साथ योगाभ्यास प्रारंभ करना होगा कि हमारा जीवन अनुशासित रहेगा। फिर अगले ही सूत्र में कहा गया है -“योगश्चितवृत्तिनिरोध:।”(1/2) चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है। यानी हमारे मानस पटल पर जो असंख्य निरर्थक विचार उभरते रहते हैं, उनसे मुक्ति पाए बिना योग-मार्ग में किसी उपलब्धि की उम्मीद नहीं की जा सकती है।

मतलब यह कि जीवन में अनुशासन लाकर यौगिक अभ्यासों की बदौलत चित्त वृत्तियों का  निरोध करके ही प्रसन्नता के सूत्रों को जीवन में उतारना संभव होगा। यदि हमारी ऐसी तैयारी है तो महर्षि पतंजलि बतलाते हैं –

मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्॥

यानी जो चित्त प्रसादनम् के रूप में है, उसे अपना कर स्वयं को प्रसन्न रख सकते हैं। पर इसके लिए किन प्रक्रियाओं से गुजरना होगा? महर्षि पतंजलि के मुताबिक, संसार में चार श्रेणियों के लोग होते हैं। पहली श्रेणी में वे हैं, जो सदैव प्रसन्न हैं। दूसरे वे लोग हैं जो दुखी रहते हैं । तीसरी तरह के लोग वे हैं जो कुछ अच्छा काम कर रहे होते हैं। चौथी तरह के लोग उतने अच्छे काम नहीं या बुरे काम कर रहे होते हैं। महर्षि पतंजलि चारों श्रेणियों के लोगों के प्रति एक निश्चित प्रकार की भावना का अभ्यास करने का परामर्श देते हैं। वे कहते हैं कि सुखी मानव के प्रति मित्रता की भावना, दु:खी मानव के प्रति करुणा की भावना, पुण्यात्मा के प्रति प्रसन्नता की भावना और पापात्मा के प्रति उपेक्षा की भावना रखनी चाहिए। ऐसा करने से चित्त के राग, द्वेष, घृणा, ईर्ष्या और क्रोध आदि मलों (विकारों) का नाश हो जाता है।

सुखी मनुष्यों को देख कर उनके प्रति मित्रता की भावना रखने से राग तथा ईर्ष्या आदि मलों की निवृत्ति होती है। दूसरे शब्दों में, हम जब मित्र की खुशी में अपनी खुशी तलाश लेते हैं तो मानसिक प्रतिक्रियाएं बदल जाती हैं और हैप्पी हार्मोन अपना काम करने लगता है। इसलिए, जब हमारा मित्र कोई ट्राफी जीतता है और उसकी खुशी को हम अपनी खुशी मानते हैं, तो स्वत: ही हमारे मन से ईर्ष्या आदि विकार दूर हो जाते हैं। हमें अपार हर्ष का अनुभव होने लगता है।

दु:खी मनुष्यों के साथ करुणा या दया की भावना रखने से घृणा रुपी मल (विकार) की निवृत्ति होती है। इसलिए कि ऐसी भावना उपजते ही अपने दिल से जानिए, पराए दिल का हाल वाली कहावत चरितार्थ होने लगती है। नतीजतन, हम सहज ही सहयोग में खड़े हो जाते हैं। इस प्रकार की करुणामयी भावना से घृणा की भावना से निवृत्ति मिल जाती है और हमारा मन प्रसन्न हो जाता है। पुण्यात्माओं के संपर्क में आते ही हमारे भीतर उनके प्रति श्रद्धा उपजता है। धर्मानुकूल व्यवहार होने लगता है। यानी सत्व गुणों की प्रधानता बढ़ जाती है। इससे असूया (दूसरों पर दोषारोपण) रुपी विकारों का नाश हो जाता है।

पापी मनुष्य की उपेक्षा करने से द्वेष तथा बदला लेने की चेष्टा आदि विकारों का नाश हो जाता है। ऐसी अवस्था तब उपन्न होती है, जब पापी व्यक्ति हमारा किसी प्रकार से अपमान करता है और हमारे मन में विचार आता है कि वह व्यक्ति अपना ही हानि कर रहा है। ऐसे में मैं उसके प्रति द्वेष या घृणा करके स्वयं को क्यों दूषित करूं। ऐसा विचार आते ही चित्त शुद्ध होता है और मन प्रसन्न हो जाता है।

मेरे विचार से वर्तमान समय में प्रथम और चतुर्थ श्रेणी के अभ्यासों आवश्यकता सबसे अधिक है, क्योंकि दुःखी व्यक्ति के प्रति करुणा और पुण्यात्मा के प्रति प्रसन्नता का भाव तो सामान्य रूप से उपजता ही है। पर दूसरों की खुशी से खुश होना और पापियों के साथ प्रतिशोध की भावना से विमुख होना प्राय: मुश्किल होता है। इसलिए, महर्षि पतंजलि की प्रसन्नता के इन दो सूत्रों को आत्मसात किए जाने की जरूरत पहले की तुलना में कहीं ज्यादा है।

(लेखिका योगाचार्य हैं)

जय अंबे गौरी….आरती की रचना किसने की? कौन हैं शिवानंद स्वामी?

श्री अम्बाजी की आरती…  ॐ जय अम्बे गौरी, मैय्या जय श्यामा गौरी…. हम सबकी जुबान पर है। पर आरती के रचयिता कौन हैं? क्या बीसवीं सदी के महान संत और ऋषिकेश स्थित डिवाइन लाइफ सोसाइटी के संस्थापक स्वामी शिवानंद सरस्वती इसके रचयिता थे? जबाव है नहीं। दरअसल, गुजरात में 16वीं शताब्दी में जन्में स्वामी शिवनांद ने इस आरती की रचना की थी। इसे पहली बार सन् 1601 में देवी अम्बाजी के मंदिर में ‘यज्ञ’ की समाप्ति के उपरांत गाया गया था। यह मंदिर अंकलेश्वर के पास मांडवा बुज़र्ग गाँव स्थित मार्कंडेय ऋषि आश्रम के परिसर में है। मार्कंडेय ऋषि रचित देवी भागवत का ही एक अंश है दुर्गा सप्तशती।

स्वामी शिवानंद के पूर्वज अंकलेश्वर से ही बडनगर होते हुए सूरत के अंबाजी रोड पर घर बनाकर बस गए थे। वहीं सन् 1541 में शिवानंद वामदेव पांड्या का जन्म हुआ, जो बाद में स्वामी शिवानंद के नाम से जाने गए। आध्यात्मिक प्रवृत्ति वाले शिवानंद की काव्य-साहित्य में गहरी अभिरूचि थी। उनका मन नर्मदा के तट पर ही रमता था। वहीं अनेक भजनों की रचना की, जिनमें ॐ जय अम्बे गौरी… आरती भी शामिल है। पर उनकी रचनाएं पुस्तक के रूप में प्रकाशित नहीं हो सकी थीं।

नर्मदा परियोजना के मुख्य अभियंता रहे जीटी पंचीगर की इन रचनाओं पर नजर गई तो उन्होंने “स्वामी शिवानंद रचित आरती” नाम से पुस्तक प्रकाशित करवाई थी। पर स्वामी शिवानंद के भजन, आरती आदि जन-जन में वर्षों-वर्षों से रचे-बसे हैं। गरबा में भी उनके कई भजन अनिवार्य रूप से गाए जाते हैं। स्वामी शिवानंद की नौवी और दशवीं पीढ़ी के लोग आज भी गुजरात में हैं। मार्कंडेय ऋषि आश्रम की देखरेख आज भी इसी परिवार के लोग करते हैं।    

भारत रत्न डॉ एपीजे अब्दुल कलाम जैसे शिष्य को नमन!

पूर्व राष्ट्रपति भारत रत्न डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम अपने छात्र जीवन में किन्हीं कारणों से अवसादग्रस्त हो गए थे। उन्होंने दशनामी संन्यास परंपरा के अगुआ स्वामी शिवानंद सरस्वती के बारे में काफी कुछ सुन रखा था। लिहाजा वे उनके पास गए और अपनी समस्याओं का बयान किया। स्वामी जी ने उन्हें जो उपदेश दिया, इससे वे बेहद प्रभावित हुए और उनका जीवन-दर्शन ही बदल गया। स्वामी जी ने तभी कहा था कि उन्हें भारत की अगुआई करनी है। तब यह बात डॉ. कलाम की कल्पना से परे थी। पर कालांतर में ऐसा ही हुआ।

पूरी दुनिया में एक प्रखर शिक्षक के रूप में प्रसिद्ध भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम बिहार के मुंगेर स्थित विश्व प्रसिद्ध बिहार योग विद्यालय के गुरूओं के लिए आजन्म शिष्य ही रहे। वे राष्ट्रपति रहते अपने गुरू स्वामी शिवानंद सरस्वती के शिष्य परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती द्वारा स्थापित बिहार योग विद्यालय में दो बार गए। पर राष्ट्रपति के रूप में नहीं, शिष्य के रूप में। यही वजह थी कि राष्ट्रपति का सारा प्रोटोकॉल बिहार योग विद्यालय परिसर के बाहर तक ही सीमित रहता था।

मजेदार वाकया हुआ। डॉ. कलाम ने राष्ट्रपति बनने के कुछ समय बाद ही बिहार योग विद्यालय में जाने की इच्छा व्यक्त की। इस बात से योग विद्यालय के व्यस्थापकों को अवगत कराया गया तो एक समस्या खड़ी हुई कि आश्रम के भीतर प्रोटोकॉल का पालन कैसे होगा। कहते हैं कि राष्ट्रपति भवन को जब इस स्थिति से अवगत कराया गया तो वहां से जबाव मिला कि राष्ट्रपति जी आश्रम के भीतर शिष्य के नाते जाना चाहेंगे। लिहाजा कैंपस में कोई प्रोटोकॉल नहीं होगा। ऐसा हुआ भी। डॉ. कलाम मुंगेर आश्रम में गए तो उन्होंने परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती के उत्तराधिकारी परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती के सत्संग में बाकी शिष्यों के साथ ही बैठना पसंद किया।

दरअसल बिहार योग विद्यालय के प्रति उनके विशेष अनुराग के पीछे एक घटना है। महासमाधिलीन परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती के गुरू स्वामी शिवानंद सरस्वती ऋषिकेश में अपने आश्रम में रहते थे। वे दशनामी संन्यास परंपरा के अग्रदूत थे। उन्होंने योग को एक ऐसी जीवनोपयोगी विज्ञान के रूप में प्रस्तुत किया था जिसे हर व्यक्ति सरलता से अपने जीवन में अपना सकता था। उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई थी। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने एक बार कहा था – स्वामी शिवानंद जी न तो कभी पाश्चात्य देशों में गए और न ही पाच्य देशों में, लेकिन आज वे सर्वत्र छाए हुए हैं।

उसी ऋषिकेश आश्रम में एक ऐसी घटना हुई कि पूर्व राष्ट्रपति और हरदिल अजीज डॉ एपीजे अब्दुल कलाम का जीवन-दर्शन ही बदल गया। हुआ यह कि डॉ.कलाम एक बार अपने छात्र जीवन में किन्हीं कारणों से अवसादग्रस्त हो गए थे। उन्होंने दशनामी संन्यास परंपरा के अगुआ स्वामी शिवानंद सरस्वती के बारे में काफी कुछ सुन रखा था। लिहाजा वे उनके पास गए और अपनी समस्याओं का बयान किया। स्वामी जी ने उन्हें जो उपदेश दिया, इससे वे बेहद प्रभावित हुए और उनका जीवन-दर्शन ही बदल गया। स्वामी जी ने तभी कहा था कि उन्हें भारत की अगुआई करनी है। तब यह बात डॉ. कलाम की कल्पना से परे थी। पर कालांतर में ऐसा ही हुआ।

डॉ. कलाम जब राष्ट्रपति बने तो उन्होंने अपना यह संस्मरण सुनाया और अपनी पुस्तक “अग्नि की उड़ान” में इसकी चर्चा भी की। उन्होंने बिहार योग विद्यालय के कारण मुंगेर को देश का योग नगरी कहा था। उनका बिहार योग विद्यालय से अंत-अंत तक जुड़ाव अपने गुरू के प्रति श्रद्धा और अनुराग का ही प्रतिफल था। ऐसे शिष्य को नमन!

आईआईटी कानपुर की गीता सुपरसाइट की धूम

गीता सुपरसाइट यानी इंटरनेट पर भारतीय दार्शनिक ग्रंथों का भंडार। इस तरह के कार्य टुकड़ों में तो संगठनों या व्यक्तियों किया है। पर किसी एक प्लेटफार्म पर इतना व्यापक कार्य कही नहीं है। आईआईटी, कानपुर की वजह से यह कार्य संभव हो सका है। वेबसाइट लिंक इस प्रकार है – https://www.gitasupersite.iitk.ac.in/, जिस पर वेद हो या उपनिषद, ब्रह्मसूत्र हो या योगसूत्र, महाभारत हो या रामायण प्राय: सभी वैदिक ग्रंथ अंग्रेजी सहित ग्यारह भारतीय भाषाओं में उपलब्ध कराए गए हैं।

सभी मूल ग्रंथ संस्कृत भाषा में हैं। वेबसाइट इस तरह तैयार किया गया है कि दो ग्रंथों का तुलनात्मक अध्ययन एक ही स्क्रीन पर संभव है। भारतीय भाषाओं के मामले में आमतौर पर फॉट्स को लेकर समस्याएं आती रही हैं। पर इस वेबसाइट पर डायनामिक फॉट्स के उपयोग किए जाने से फॉट्स डाउनलोड करने की जरूरत नहीं होती।  इस वेबसाइट ने वैदिक ज्ञान हासिल करने वालों के बीच धूम मचा रखी है। इसका ट्राफिक तेजी से बढ़ रहा है।  

यह परियोजना कोई दो दशक पुरानी है। केवल नए अवतार के रूप में अब सामने आया है। दरअसल, इंटरनेट तक आम लोगों की पहुंच होने से पहले डॉस तकनीक की सहायता से अनेक वैदिक ग्रंथों का डिजिटाइजेशन किया गया था। आईआईटी, कानपुर के डॉ टीवी प्रभाकर ने सन् 1989 में चिन्मय इंटरनेशनल फाउंडेशन के आर्थिक सहयोग से इस परियोजना का श्रीगणेश किया था। शुरू में स्वामी चिन्मयानंद की पुस्तकों और गीता को डॉस वर्जन में कंप्यूटर पर उपलब्ध कराया गया था। पर सूचना तकनीकों के अत्याधुनिक होते जाने के बाद नए सिरे से काम करने की जरूरत आ पड़ी और उस परियोजना को विस्तार देना भी संभव हो सका है। डॉ टीवी प्रभाकर आज भी इस महती कार्य की अगुआई कर रहे हैं।  

इस खबर को विस्तार से नीचे के लिंक के जरिए पढ़ा जा सकता है –

https://indianexpress.com/article/india/iit-kanpur-website-on-vedas-shastras-registers-sudden-surge-in-traffic-5016999/

योग प्रशिक्षकों के लिए कोरामिन की तरह है यह खबर

देश के योग साधकों का मूड बदल रहा है। उन्हें ऑनलाइन योग प्रशिक्षण ही भा रहा है। इसकी सबसे बड़ी वजह है कोविड-19 संक्रमण का भय। खासतौर से दक्षिण भारत का ट्रेंड तो कुछ ऐसा ही दिख रहा है। सरकार ने हाल ही जिम खोलने का आदेश जारी किया था और बीती रात इसके लिए दिशा-निर्देश भी जारी कर दिया था। पर लोगों का मिजाज कुछ अलग ही दिख रहा है। यह कई महीनों से आर्थिक संकट झेल रहे योग प्रशिक्षकों को सुकून देने वाली बात है।

मदुरै के योग प्रशिक्षकों की माने तो ऑनलाइन योग के प्रति आम लोगों के झुकाव को देखते हुए बड़ी संख्या में योग प्रशिक्षण ऑनलाइन सेवाएं देने के लिए प्रेरित हुए हैं।

मध्य प्रदेश के हर स्कूल में होगा एक योग प्रशिक्षक

मध्यप्रदेश के स्कूली पाठ्यक्रम में एक विषय के तौर पर योग भी होगा। कोविड-19 से संक्रमित मुख्यमंत्री चौहान ने वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए खुद ही यह घोषणा की है। इस संकल्प को पूरा करने के लिए प्रत्येक स्कूल में एक-एक योग प्रशिक्षक की नियुक्ति की जाएगी।

मुख्यमंत्री के मुताबिक नई शिक्षा नीति के अंतर्गत स्कूली पाठ्यक्रम में योग शिक्षा के साथ ही नैतिक शिक्षा को भी विशेष महत्व दिया जाए। इसके साथ ही संगीत, दर्शन, कला, नृत्य आदि विषय भी पाठ्यक्रम के हिस्सा होंगे। शिक्षा विभाग के प्रमुख सचिव के मुताबिक प्रदेश में इस प्रकार के 10,000 स्कूल विकसित किए जाने की योजना बनाई जा रही है।

https://www.bhopalsamachar.com/2016/05/blog-post_765.html

अदालत का फैसला सही, योग के मामले में सरकार अपना काम करे

इसमें दो मत नहीं कि केंद्र की मोदी सरकार योग के मामले में उल्लेखनीय काम कर रही है। अब तक की किसी सरकार ने योग को इतनी गंभीरता से नहीं लिया था। ऐसे में योग के मामले में केंद्र सरकार के काम में उच्चतम न्यायालय ने दखल देने से मना करके ठीक ही किया। स्वस्थ्य लोकतंत्र के लिए यह ठीक नहीं कि अदालत सरकार के हर काम में दखल दे। पर यह भी सही है कि जिस याचिका के आधार पर उच्चतम न्यायालय ने सरकार के काम में दखल देने से मना किया है, उस याचिका के कई तथ्यों में दम है।

वैसे, यह अजीब बात है कि जो भारत योग के मामले में विश्व गुरू रहा है, उसे योग को उचित स्थान पाने के लिए वर्षों मशक्कत करनी पड़ी। दूसरी तरफ फ्रांस जैसे देश में, जहां की शिक्षा नीति ऐसी है कि किसी धार्मिक सिद्धांत या आध्यात्मिक दर्शक का समावेश नहीं हो सकता, वहां सन् 2012 से किंडरगार्डेन से लेकर कॉलेज स्तर तक योग शिक्षा दी जा रही है। चौंकाने वाली बात यह कि भारत के परंपरागत योग का वैश्विक संस्थान बिहार योग विद्यालय पूरे फ्रांस में योग का अलख जगा रहा है। वहां की सरकार पूरी तरह इस संस्था पर निर्भर है। काम में कोई सरकारी दखल नहीं।

योग को लेकर उच्चतम न्यायालय के आज के फैसले से संबंधित खबर नीचे के लिंक के जरिए विस्तार से पढ़ा जा सकता है।

https://hindi.livelaw.in/category/news-updates/sc-dismisses-plea-seeking-development-broadcast-of-covid-yoga-protocols-160366

100 योगासन तीन मिनट में !

दुबई की रहने वाली  भारतीय मूल की एक लड़की ने कमाल कर दिया। उसने एक छोटे से बॉक्स में तीन मिनट के भीतर 100 योग आसन करके विश्व रिकॉर्ड बना दिया है। ग्यारह साल की इस लड़की का नाम स्मृति कालिया है। वह सातवीं कक्षा की छात्रा है। उसने इसके पहले भी कीर्तिमान स्थापित किया था। उसने बुर्ज खलिफा के डेक में तीन मिनट अठारह सेकेंड में 40 कठिन योगाभ्यास कर दिखाया था। दुबई के अखबारों ने उसके हैरतंगेज कारनामों को प्रमुखता से स्थान दिया है। अखबारों के मुताबिक, स्मृति कालिया का कहना है कि शारीरिक शक्ति की बदौलत नहीं, बल्कि संकल्प-शक्ति की बदौलत वह असंभव को संभव बना पाती है।

https://news24online.com/news/Sports/dubai-based-indian-girl-breaks-yoga-world-record-2ce90161/

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