किशोर कुमार
प्राणायाम के चिकित्सकीय लाभ क्या-क्या हैं, इस सवाल को लेकर बीते तीन वर्षों में जितने शोध हुए हैं, उतने शोध तीन दशकों में भी नहीं हुए होंगे। योग शास्त्रों में आध्यात्मिक उत्थान में प्राणायाम के योगदान पर विशद चर्चा है। उसी से झलक मिलती है कि इस साधना से तन-मन भी स्वस्थ रहता है। पर आधुनिक युग के संत-महात्माओं ने जोर देकर कहा कि प्राण चिकित्सा बेहद असरदार चिकित्सा पद्धति है और कोरोना महामारी के दौरान हम सब ने इस बात को शिद्दत से महसूस किया भी। इसके बाद ही दुनिया भर के चिकित्सा विज्ञानियों ने प्राणायाम के चिकित्सकीय लाभों को विस्तार से जानने के लिए अनेक शोध किए और वे भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचे कि प्राण चिकित्सा वैज्ञानिक पद्धति है।
हाल ही समाचार पत्रों में प्रमुखता से खबर प्रकाशित हुई है कि भारत में बीते दो वर्षों में टीबी के मामले 17 फीसदी बढ़ गए हैं। यह स्थिति तब है जब सरकार अगले वर्ष तक भारत को टीबी मुक्त बनाने की हर संभव कोशिशें कर रही है। बीसवीं सदी के महान संत और ऋषिकेश स्थित दिव्य जीवन संघ के संस्थापक स्वामी शिवानंद सरस्वती ने सात-आठ दशक पहले ही प्रयोग करके बताया था कि मुख्यत: प्राण-शक्ति की कमी के कारण फेफड़े की टीबी हो जाती है। फेफड़ों का विकास अवरूद्ध होता है तो यह क्षेत्र टीबी के कीटाणुओं के लिए अनुकूल क्षेत्र बन जाता है। लेकिन जो लोग कपालभाति, भस्त्रिका या अन्य प्राणायामों का अभ्यास करते हैं, तो टीबी के कीटाणु पनम ही नहीं पाते। अब कर्नाटक स्थित एसडीएम कॉलेज ऑफ मेडिकल साइंसेज ने स्वामी विवेकानंद योग अनुसंधान संस्थान के सहयोग से शोध किया तो इससे भी यही सिद्ध हुआ कि टीबी रोग से मुक्त बने रहने में प्राणायाम की बड़ी भूमिका है।
इसी तरह चिकित्सा विज्ञानियों ने लीवर की समस्या में भी प्राणायाम की कुछ विधियों के लाभों को समझने की कोशिशें की हैं, जबकि स्वामी शिवानंद सरस्वती कहते रहे हैं कि लीवर की समस्या शुरूआती दौर में हो तो यौगिक उपचार संभव है। वे कहते थे कि यदि यकृत ठीक से काम नहीं कर रहा हो तो पद्मासन पर बैठ जाइए। आंखें बंद कीजिए और तीन बार ऊं मंत्र का जप करते हुए धीरे-धीरे श्वास लीजिए। छह बार इसी मंत्र का जप करते हुए श्वास रोके रहिए और प्राण को यकृत भाग में ले जा कर वहीं स्थिर कीजिए। कल्पना कीजिए कि प्राण-शक्ति यकृत के सभी कोशाणुओं और उत्तकों में व्याप्त होकर बीमारी ठीक कर रही है। फिर धीरे-धीरे श्वास छोड़िए। इस क्रिया को सुबह और शाम को बारह-बारह बार कीजिए। कुछ ही दिनों में चीजें सामान्य होती दिखने लगेंगी।
लाइलाज पार्किंसंस रोग चिकित्सा विज्ञान के लिए बड़ी चुनौती है। सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (सीडीसी) के अनुसार, पार्किंसन रोग यानी पीडी दुनिया भर में मृत्यु का 14वां सबसे बड़ा कारण है। यह दिमाग की उन तंत्रिकाओं को प्रभावित करता है, जिनसे डोपामाइन का उत्पादन होता है। इससे नर्व्ज सिस्टम की संतुलन संबंधी कार्य-क्षमता बाधित होती है। हार्मोन के क्षरण वाली इस बीमारी में कृत्रिम हार्मोन एल डोपा भी ज्यादा दिनों तक काम नहीं आता। पर बिहार योग विद्यालय के नियंत्रणाधीन योग रिसर्च फाउंडेशन ने अपने अध्ययन में पाया कि योगाभ्यासों में मुख्यत: नाड़ी शोधन प्राणायाम के अभ्यास से रोगियों की आक्रमकता कम हुई और हार्मोन क्षरण की रफ्तार धीमी पड़ गई। ऐसा इसलिए हुआ कि प्राण-शक्ति से मस्तिष्क के तंतुओं का पोषण हुआ और वे फिर से सक्रिय होने लगे।
परंपरागत योगविद्या के परमहंस ब्रह्मलीन स्वामी सत्यानंद सरस्वती अपने अध्ययनों और व्यावहारिक ज्ञान के आधार पर कहते थे – “भारतीय सनातम परंपरा में प्राणायाम का महत्वपूर्ण स्थान है। इसका अभ्यास करने वाले अपने प्राण-संचार से रोगों को दूर कर सकते हैं। यदि किसी को गठिया रोग हो तो प्राणायाम में पारंगत व्यक्ति कुंभक के साथ अपने हाथों से मरीज की टांगों पर मालिश करके दु:ख का निवारण कर सकता है। दरअसल, ऐसा करने वाले व्यक्ति के शरीर से रोगी के शरीर में प्राण-शक्ति का संचार होता है। यही स्थिति चमत्कार पैदा करती है। प्राणायाम का अभ्यास करते समय इष्ट मंत्र का जप चलते रहे तो इसके बड़े फायदे होते हैं।
अब सवाल है कि बहुत सारे लोगों को वर्षों प्राणायाम का अभ्यास करने के बावजूद खास लाभ क्यों नहीं मिलता? इसे समझने के लिए कुछ बिंदुओं पर गौर करना जरूरी है। वैज्ञानिकों की मानें तो एडेनोसिन टी फॉस्फेट (एटीपी) ही वह रसायन है, जो शरीर में ऊर्जा के उत्पादन आधार बनता है। इस रसायन की जैसे-जैसे कमी होती जाती है, बीमारियों के पंजे फैलते जाते हैं। प्राण-शक्ति का संचार होता है तो एटीपी का उत्पादन जरूरत के मुताबिक होते रहता है। यह तो एक बात हुई। ऐसी और भी रासायनिक प्रतिक्रियाएं होती हैं। पर योगियों और चिकित्सा विज्ञानियों की मानें तो हम सही ढंग से श्वास ही नहीं लेते हैं। इस वजह से फेफड़े का एक अंश मात्र बमुश्किल काम करता है।
वैज्ञानिक मत है कि हम जितना श्वास लेते हैं, उसमें बीस फीसदी ही आक्सीजन होता है। इसी आक्सीजन में एक विशिष्ट तत्व होता है, जिसे योगी प्राण-शक्ति कहते हैं। उनका दावा है कि आक्सीजन के बिना तो कोई थोड़ी देर जीवित रह भी सकता है। पर प्राण-शक्ति न हो तो आदमी एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकता। संयुक्त राष्ट्र में हिमालय इंस्टीच्यूट के स्वामी राम ने स्वेच्छा से लंबे समय तक हृदय की धड़कन रोककर योगानुसंधान के क्षेत्र मे बड़ा योगदान दिया था। यौगिक शोध में दूसरा योगदान संयुक्त राष्ट्र के ही स्वामी नादब्रह्मानंद का रहा। वे स्वामी शिवानंद सरस्वती के शिष्य़ थे। उन्होंने एक वायुरोधी कक्ष में 45 मिनटों तक तबला बजाते हुए पूर्ण कुंभक किया था। इससे उपरोक्त बातों की पुष्टि होती है।
हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है कि शरीर में प्राण वायु है, तब तक जीवन है। इसलिए वायु को भीतर यथासंभव रोककर रखो और हम जानते हैं कि ऐसा प्राणायाम से ही संभव है। स्पष्ट है कि स्वस्थ्य जीवन के लिए केवल वायु नहीं, बल्कि प्राण-वायु की ज्यादा जरूरत है। जाहिर है कि इतनी महत्वपूर्ण योग विद्या का इच्छित परिणाम किताबें पढ़कर या यूट्यूब देखकर हासिल नहीं कर सकते। इसलिए कि हर व्यक्ति का गुण-धर्म अलग-अलग है और एक ही फार्मूला सभी पर लागू नहीं होता।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)