बगुला ध्यान से कैसे हो मन का प्रबंधन

सर्वत्र ध्यान की बात चल रही है। इसलिए कि मानसिक उथल-पुथल ज्यादा है। पर आमतौर पर ध्यान के नाम पर जो भी अभ्यास किया या कराया जाता है, वह वास्तव में ध्यान नहीं होता, ध्यान जैसा होता है। पश्चिमी देशों में अब तक तनावों पर ध्यान के प्रभावों को लेकर जितने भी अध्ययन किए गए, उन सबमें प्रत्याहार की विधियां उपयोग में लाई गईं। पर कहा गया है ध्यान। दरअसल, प्रत्याहार राजयोग की सबसे महत्वपूर्ण क्रिया और ध्यान की अवस्था तक पहुंचने की पहली सीढ़ी है। उसके सधे बिना जो ध्यान है, उसे बगुला ध्यान कहना चाहिए। ….और बगुला ध्यान से भला मानसिक उथल-पुथल रूकना कैसे संभव है? विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस (10 अक्तूबर) पर प्रस्तुत है यह आलेख।

अशांत मन का प्रबंधन किसी भी काल में चुनौती भरा कार्य रहा है। आज भी है। योग ने तब भी राह निकाली। आज भी योग से ही राह निकलेगी। तब वैज्ञानिक संत योगसूत्र दिया करते थे। आधुनिक युग में संन्यासी उन योगसूत्रों को सरलीकृत करके जन सुलभ करा चुके हैं और एक समय इसे संशय की दृष्टि से देखने वाला विज्ञान चीख-चीखकर कह रहा है – “योग का वैज्ञानिक आधार है। इसे अपनाओ, जिंदगी का हिस्सा बनाओ।“ पर अब लोगों के सामने यह सवाल नहीं है कि योग अपनाएं या नहीं। सवाल है कि अपेक्षित परिणाम किस तरह मिले?

योग शास्त्र के मुताबिक, तनाव तीन प्रकार के होते हैं – स्नायविक, मानसिक या मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक। पर इन तीनों ही तनावों का असर एक दूसरे पर होता ही है। स्नायु तंत्र मस्तिष्क, हृदय और शरीर के अन्य अंगों को प्राण-शक्ति पहुंचाता है। यह पांच ज्ञानेन्द्रियों यथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध में शक्ति वितरित करता है। उत्तेजना स्नायविक संतुलन को अस्त-व्यस्त कर देती है, जिसके कारण कुछ अंगों में अध्यधिक ऊर्जा भेज दी जाती है और कुछ अंग आवश्यक ऊर्जा से वंचित रह जाते हैं। तंत्रिका-शक्ति में उचित वितरण की कमी ही मानसिक अशांति का मूल कारण बनती है।

आधुनिक युग में भी जब-जब जीवन संकट में पड़ा और अवसाद के क्षण आए, योग की महती भूमिका को सबने स्वीकारा। परमहंस योगानंद 100 साल पहले क्रियायोग का प्रचार करने जब अमेरिका गए थे, उस समय स्पैनिश फ्लू के कारण आज जैसी ही भयावह स्थिति थी। उस बीमारी से इतने लोग मरे थे कि लंबे समय तक हिसाब ही लगाया जाता रहा कि कितने मरे। पर सही उत्तर फिर भी नहीं मिला था। अंत में तय हुआ कि लगभग पांच करोड़ लोग मरे होंगे। पूरी दुनिया में हालात ऐसे थे कि विभिन्न कारणों से मानसिक रोगियों की संख्या में रिकार्ड बढ़ोत्तरी हो गई थी। इस स्थिति से उबरने के लिए पश्चिमी जगत के एक वर्ग के लिए जान-पहचाना योग ही सहारा बना था। जिन लोगों ने क्रियायोग को अपने जीवन का हिस्सा बनाया था, उन्हें अवसाद से मुक्ति मिली थी। मन का बेहतर प्रबंधन होने के कारण जीवन को पटरी पर लाना आसान हो गया था।

प्राणायाम ऐसी यौगिक क्रिया है कि किसी वजह से आंशिक रूप से नष्ट हुईं तंत्रिकाओं में प्राण-शक्ति भेजकर मानसिक अशांति के कारण नष्ट हुए उत्तकों (टिश्यूज) को पुनर्जीवित किया जा सकता है। कोरोना काल में फेफड़े को दुरूस्त रखने में प्राणायाम की भूमिकाओं से तो अब ज्यादातर लोग वाकिफ हो चुके हैं। उसका संबंध भी मन से है। स्वात्माराम की हठप्रदीपिका के मुताबिक राजयोग साधने कि लिए हठयोग अनिवार्य है।

महानिर्वाण तंत्र, रूद्रयामल तंत्र और दूसरे अन्य ग्रंथों के मुताबिक शिव ही योग के आदिगुरू हैं। उनकी प्रथम शिष्या पार्वती ने उनसे सवाल किया था – “स्वामी, मन चंचल है। एक जगह टिकता नहीं। कोई उपाय बताएं जिससे मन काबू में आ सके।“ शिवजी ने इस सवाल के जबाव में मन की सजगता और एकाग्रता की इनती विधियां बतलाई थी कि पूरा योगशास्त्र तैयार हो गया। कमाल यह कि इनमें से एक सूत्र पकड़कर भी लक्ष्य हासिल किया जा सकता था। खैर, पार्वती जी की समस्या अलग थी। उन्हें मन के पार जाना था। उस अंतर्यात्रा के लिए चित्ति की शांति जरूरी थी। महाभारत के दौरान वीर अर्जुन विषाद से घिर गए थे। मन अशांत हो गया था। विषादग्रस्त अर्जुन को रास्ते पर लाने के लिए सर्व शक्तिशाली श्रीकृष्ण को इतने उपाय करने पड़े थे कि सात सौ श्लोकों वाली श्रीमद्भगवतगीता की रचना हो गई थी। आधुनिक युग में भी वही श्रीमद्भगवतगीता मनोविज्ञान से लेकर योगशास्त्र तक का श्रेष्ठ ग्रंथ है।  

ध्यान अपने ही भीतर किसी निर्जन द्वीप जैसे स्थल की खोज का मार्ग है। दुनिया के सारे धर्मों के बीच बहुत विवाद है। सिर्फ एक बात के संबंध में विवाद नहीं है। वह है ध्यान। इस बात पर सबकी एक राय है कि जीवन के आनंद का मार्ग ध्यान से होकर जाता है। परमात्मा तक अगर कोई भी कभी भी पहुंचा है तो ध्यान की सीढ़ी के अतिरिक्त और किसी सीढ़ी से नहीं। वह चाहे जीसस, और चाहे बुद्ध, और चाहे मुहम्मद, और चाहे महावीर – कोई भी, जिसने जीवन की परम धन्यता का अनुभव किया, उसने अपने ही भीतर डूब के उस निर्जन द्वीप की खोज कर ली।  —-ओशो

दरअसल, अर्जुन के मन में इतना उपद्रव था कि किसी निष्कर्ष पर पहुंचना ही मुश्किल हो गया था। उसने यह बात श्रीकृष्ण को बतला दी थी। कहा – “मन बड़ा उपद्रवी, शक्तिशाली और हठी है। मन को वश में करना उतना ही कठिन है, जितना वायु को।” श्रीमद्भगवतगीता के छठे अध्याय में इसका उल्लेख है। जबाव में श्रीकृष्ण ने जो कहा था, वह समग्र योग की बात है। उन्होंने यह नहीं बताया कि केवल आंखें मूंदकर बैठ जाने से ध्यान लग जाएगा और मन वश में हो जाएगा। उनके उपायों में यम-नियम की बात है तो प्राणायाम की भी बात है। परमहंस योगानंद ने लिखा है कि भारत के ऋषियों ने अपनी साधना की बदौलत यह ज्ञान हासिल कर लिया था कि श्वास पर नियंत्रण करके मन पर भी नियंत्रण किया जा सकता है। वैज्ञानिक विधि से की गई यह साधना से रक्त को पर्याप्त आक्सीजन उपलब्ध होता है और कार्बन डाइऑक्साइड हट जाता है। लेकिन फेफड़ों में बलपूर्वक श्वास रोक लेने से इसके उलट परिणाम मिलने लगते हैं। तब मन चंचल रहेगा और प्रत्याहार संभव नहीं।   

कैवल्यधाम, लोनावाला के संस्थापक ब्रह्मलीन स्वामी कुवल्यानंद कहते थे कि क्लेश न तो केवल मानसिक है, न शारीरिक। वह मनोकायिक प्रक्रिया है। उससे मुक्ति पाने का सबसे उत्तम उपाय है कि उन पर दोनों ओर से प्रहार किया जाए। एक तरफ से यम व नियमों के द्वारा और दूसरी तरफ से आसन व प्राणायाम के द्वारा। इन क्रियाओं से मन के क्लेश पर नियंत्रण हो जाएगा तो ध्यान का मनोवैज्ञानिक प्रभाव क्लेशों का विनाश कर देगा।    

मौजूदा समय में भी मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाने के लिए मन के प्रबंधन की जरूरत आ पड़ी है। विश्वव्यापी कोरोना महामारी ने हमारे जीवन का चक्का इस तरह जाम किया है कि शारीरिक श्रम की कमी के कारण स्नायविक तनाव चरम पर है। दूसरी तरफ मानसिक पीड़ाएं अलग-अलग रूपों में अपना असर दिखा रही हैं। वजहें सर्वविदित हैं। किसी का अपना काल के गाल में समां जा रहा है तो किसी के लिए आर्थिक मार को सहन कर पाना मुश्किल है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि सत्तर फीसदी बीमारी मन से उत्पन्न होती है। मन बीमार तो तन बीमार। इसके उलट तन बीमार तो मन भी बीमार होता है। मन की समस्या पहले से ही विकट है। आलम यह है कि हमें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर 10 अक्तूबर को मानसिक स्वास्थ्य दिवस मनाना पड़ता है और समस्या के समाधान के लिए कारगर उपायों पर मंथन करना होता है। विश्वव्यापी कोरोना महामारी के कारण इस साल इस आयोजन की महत्ता पहले से कहीं अधिक बढ़ी हुई है। पर दूर-दूर तक नजर दौराएं तो कारगर हथियार के तौर पर योग ही दिखता है। दवाओं से लक्षणों का इलाज हो जाता है। तन-मन में मची उथल-पुथल को व्यवस्थित करने के लिए योग से बड़ी लकीर नहीं खिंची जा सकी है।

बिहार योग विद्यालय के संन्यासी स्वामी शिवध्यानम सरस्वती कहते हैं – प्रति  + आहार = प्रत्याहार। माया के पीछे बाह्य जगत में भटकती इंद्रियों और मन को खींचकर अपने भीतर विद्यमान चेतना, ज्ञान व आनंद के स्रोत से जोड़ देना प्रत्याहार है। राजयोग का यही मुख्य प्रयोजन है। इसलिए राजयोग के आठ अंगों में प्रत्याहार सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। प्रत्याहार सिद्ध होता है तो शारीरिक, मानसिक औऱ भावनात्मक हर स्तर पर शांति मिलती है। मन संतुलित होता है।   

पर व्यवहार रूप में देखा जाता है कि मेडिटेशन के अनेक विशेषज्ञ संकटग्रस्त लोगों से सीधे ध्यान का अभ्यास कराते हैं। ओशो कहते थे कि राजयोग में इंद्रियों को वश में करने से अभिप्राय इंद्रियों को मारकर विषाक्त बनाना नहीं है, बल्कि उसका रूपांतरण करना है। वे इस संदर्भ में मनोविज्ञानी थियोडोर रैक का संस्मरण सुनाते थे – “यूरोप में एक छोटा-सा द्वीप है। कैथोलिक मोनेस्ट्री वाला वह द्वीप महिलाओं के लिए वर्जित है। वहां आध्यात्मिक साधना के लिए पुरूष जाते हैं। जब उनकी मन:स्थिति का अध्ययन किया गया तो पता चला कि उनके मानस पटल पर स्त्रियां ही छाई रहती हैं। वे जितना ध्यान हटाने की कोशिश करते हैं, वासना घनीभूत होती जाती है।“  देखिए, विचारों का दमन किस तरह मन को विषाक्त बनाता है।

दिल्ली के त्यागराज स्टेडियम में योगनिद्रा का अभ्यास कराते स्वामी निरंजनानंद सरस्वती

सवाल है मन का रूपांतर कैसे हो? प्रत्याहार का योगनिद्रा तो शक्तिशाली है ही और भी अनेक विधियां हैं। अजपा है, अंतर्मौन है। “ऊं” मंत्र की शक्ति भी देश-विदेश में अनेक शोधों से प्रमाणित हो चुकी है। इन यौगिक विधियों को साधे बिना बगुला ध्यान तो लग सकता है। पर वह ध्यान नहीं लगेगा, जिससे मानसिक पीड़ाएं दूर होती हैं और मन का प्रबंधन हो जाता है। कोरोना काल में योग पर जितनी चर्चा हुई है, उतनी शायद ही पहले कभी हुई रही होगी। देश के तमाम सिद्ध संत और योगी जीवन को व्यवस्थित करने के यौगिक उपाय बता चुके हैं। सतर्क लोग षट्कर्म जैसे, नेति, कुंजल और आसन व प्राणायाम का अभ्यास कर भी रहे हैं। पर मनोविकार का मामल उलझा हुआ है। आंकड़े गवाह हैं कि मन का प्रबंधन चुनौतीपूर्ण बना हुआ है। इतिहास पर गौर करने औऱ संतों के अनुभवों से साफ है कि इस चुनौती का सामना योग के व्यस्थित मार्ग पर चलकर ही किया जा सकता है।

जिस तरह कॉलेजी शिक्षा के लिए उच्च विद्यालय स्तर की शिक्षा जरूरी है, उसी तरह षट्कर्म, आसन और प्राणायाम साधे बिना राजयोग का प्रत्याहार नहीं सधेगा। प्रत्याहार मन की सजगता के लिए जरूरी है। मन सजग नहीं है तो एकाग्र नहीं होगा। फिर तो ध्यान फलित होने की उम्मीद ही करना फिजुल है। 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

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