शिवरात्रि : योग-शक्ति के जागरण का अनुष्ठान

किशोर कुमार //

अध्यात्मिक दृष्टिकोण से शिव कोई व्यक्ति नहीं है। शिव-शक्ति के बारे में जितनी भी कथाएं हैं, वे सभी मनुष्य के जीवन एवं उसकी चेतना से जुड़ी हैं। चेतना शक्ति से मिलने जाती है और यही शिवरात्रि है। शिवरात्रि की अवधारणा अस्तित्व के भौतिक स्तर पर चेतना को जागृत करना और विकास के उच्च बिंदु पर शक्ति के साथ एकजुट होना है। विज्ञान भैरव तंत्र में बताई गई कोई एक विधि भी सध जाए, तो हृदय में प्रेम से भरकर रूपांतरित हो जाएगा। शिव-पार्वती आराधना का इससे उत्तम प्रसाद कुछ और हो नहीं सकता।

महाशिवरात्रि का त्यौहार भारत के आध्यात्मिक उत्सवों की सूची में सबसे महत्वपूर्ण है। आखिर यह रात इतनी महत्वपूर्ण क्यों है और हम इसका लाभ जनसामान्य कैसे उठा सकते हैं? पर पहले समझिए शिवरात्रि का आध्यात्मिक महत्व। अध्यात्मिक दृष्टिकोण से शिव कोई व्यक्ति नहीं है। शिव-शक्ति के बारे में जितनी भी कथाएं हैं, वे सभी मनुष्य के जीवन एवं उसकी चेतना से जुड़ी हैं। चेतना शक्ति से मिलने जाती है और यही शिवरात्रि है। शिवरात्रि की अवधारणा अस्तित्व के भौतिक स्तर पर चेतना को जागृत करना और विकास के उच्च बिंदु पर शक्ति के साथ एकजुट होना है।

चेतना बहुत गहरी चीज है। यह इतना शब्दातीत है कि इसे समझाने के लिए ऋषियों को किसी न किसी कहानी का सहारा लेना पड़ा। राम-रावण युद्ध और देवासुर संग्राम को भी इसी संदर्भ में समझा जाना चाहिए। तंत्र शास्त्र के मुताबिक शरीर में जो दो समानार्थी शक्तियां हैं, वे हैं शिव यानी पुरुष और प्रकृति यानी देवी या शक्ति। पुरुष का अर्थ है शुद्ध चेतना। यह समस्त वस्तुओं में उसी प्रकार छिपी हुई है, जिस तरह काष्ठ में अग्नि छिपी होती है। शक्ति शरीर के निचले भाग में अवस्थित मूलाधार में सोई हुई है। जब वह जागृत होती है तो सुषुम्ना नाड़ी के मार्ग से ऊपर उठकर सहस्रार में परमशिव से योग करती है। वहीं शिव-शक्ति का मिलन होता है। इस बात को समझाने के लिए ही शिव विवाह की कथा कही जाती है। इस कथा से पता चलता है कि शुद्ध चेतना या पुरुष का योग देवी शक्ति से किस प्रकार करना है। यही योग का मार्ग है। ध्यान साधना का सही मार्ग है। इसलिए गुरूजन कहते हैं कि ध्यान के समय कल्पना करनी चाहिए कि शुद्ध चेतना को धीरे-धीरे हम हिमालय को ओर ले जा रहे हैं।

मीराबाई का एक पद है, “मीरा के प्रभु गहर गंभीरा, हृदय धरो जी धीरा। आधी रात प्रभु दरसन दीन्हों, प्रेम नदी के तीरा।।“ परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती इस पद के जरिए महाशिवरात्रि का महत्व समझाते हुए कहते थे कि चेतना के लिए भी दिन, शाम और रात निर्धारित है। जागृत अवस्था में चेतना बाहर की ओर विचरण कर रही होती है तो दिन। इंद्रियों का संबंध बाहर से टूट जाए और केवल विचार रह जाए तो शाम। इंद्रियों का संबंध बाहर से टूट जाए और विचार भी न रहे तो रात। शिवरात्रि में यहीं अंतिम अवस्था रहती है। यानी इस अवस्था में जन्मों-जन्मों की वृत्तियों और खराब संस्कारों से मुक्ति पाने का विधान बताया गया है। शिवजी की बारात में भूत-पिशाच की उपस्थिति जन्मो की वृत्तियों के ही प्रतीक हैं। आधी रात की साधना के जरिए उनसे मुक्ति मिलती है। इस लिहाज से शिवरात्रि आध्यात्मिक उत्थान और योग-शक्ति के जागरण का अनुष्ठान है।

सद्गुरू जग्गी वासुदेव शिवरात्रि का वैज्ञानिक विश्लेषण करते हुए बताते हैं कि इस रात, ग्रह का उत्तरी गोलार्द्ध इस प्रकार स्थित होता है कि मनुष्य भीतर ऊर्जा का प्राकृतिक रूप से ऊपर की और जाती है। यह एक ऐसा दिन है, जब प्रकृति मनुष्य को उसके आध्यात्मिक शिखर तक जाने में मदद करती है। इस समय का उपयोग करने के लिए, इस परंपरा में, हम एक उत्सव मनाते हैं, जो पूरी रात चलता है। पूरी रात मनाए जाने वाले इस उत्सव में इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है कि ऊर्जाओं के प्राकृतिक प्रवाह को उमड़ने का पूरा अवसर मिले – आप अपनी रीढ़ की हड्डी को सीधा रखते हुए – निरंतर जागते रहते हैं।

अब सवाल है कि यौगिक व आध्यात्मिक लाभ किस विधि प्राप्त करें? विज्ञान भैरव तंत्र के मुताबिक इसी रात्रि को मानव जाति के कल्याण के लिए, आत्म-रूपांतरण के लिए शिव ने अपनी प्रथम शिष्या पार्वती को एक सौ बारह विधियां बताई थी, जो योग शास्त्र के आधार हैं। इसके बाद ही मत्स्येंद्रनाथ का प्रादुर्भाव हुआ। शिष्य गोरखनाथ और नाथ संप्रदाय ने योग का जनमानस के बीच प्रचार किया। इस तरह पाशुपत योग के रूप में हठयोग, राजयोग, भक्तियोग, कर्मयोग आदि से आमजन परिचित हुए। कहा जा सकता है कि योग की जितनी भी शाखाएं हैं, सबका आधार शिव-पार्वती संवाद ही है। इसी संवाद में शांभवी मुद्रा की बात भी आती है। कथा के मुताबिक, पार्वती जी ने शिव जी को अपने मन की उलझन बताई। कहा, “स्वामी मन बड़ा चंचल है। एक जगह टिकता नहीं।“ फिर उपाय पूछा, “क्या करूं? किसी विधि समस्या से निजात मिलेगी?”

शिव जी ने एक सरल उपाय बता दिया – “दृष्टि को दोनों भौंहों के मध्य स्थिर कर चिदाकाश में ध्यान करें। मन शांत होगा, त्रिनेत्र जागृत हो जाएगा। इसके बाद बाकी सिद्धि के लिए कुछ शेष नहीं रह जाएगा।“ आदियोगी ने इस क्रिया को नाम दिया – शांभवी मुद्रा। पार्वती जी का एक नाम शांभवी भी है। योग शास्त्र में कहा गया है कि शांभवी मुद्रा बेहद प्रभावशाली योग मुद्रा है। अब आधुनिक विज्ञान भी यही बात कह रहा है। कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में इस मुद्रा पर शोध हुआ। पता चला कि शाम्भवी मुद्रा का अभ्यास करने वालों के मस्तिष्क में न्यूरोनल रीसाइक्लिंग सामान्य की तुलना में 241 फीसदी ज्यादा होती है। दूसरी तरफ पीनियल ग्रंथि के कमजोर होने की प्रक्रिया धीमी हो जाती है। तंत्रिका तंत्र और अंत:स्रावी ग्रंथियों के बीच बेहतर समन्वय बनता है। कुल 536 लोगों पर शांभवी मुद्रा के प्रभावों के अध्ययन किया गया था। एकाग्रता में 77 फीसदी, मानसिक स्पष्टता में 98 फीसदी, भावनात्मक संतुलन में 92 फीसदी, ऊर्जा के स्तर में 84 फीसदी, आंतरिक शांति में 94 फीसदी और आत्मबल में 82 फीसदी की वृद्धि हो गई थी।

न्यूरोसाइंस के दृष्टिकोण से, शिव को मानसिक शांति, स्थिरता, और मेधा शक्ति का प्रतीक, जबकि शक्ति को मानसिक गतिशीलता, उत्साह, और उत्कृष्टता का प्रतीक माना जा सकता है। इन दोनों का योग करके कोई भी व्यक्ति शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक लाभ प्राप्त कर सकता है। पार्वती जी को बताई गई अन्य विधियां भी कम शक्तिशाली नहीं। विज्ञान भैरव तंत्र की 22वीं विधि तो डायनेटिक्स और साइंटोलॉजी के रूप में अमेरिका सहित अनेक देशों में विख्यात हो चुकी है। इस बारे में विस्तार से फिर कभी। पर हमसे कोई एक विधि भी सध जाए, तो हृदय में प्रेम से भरकर रूपांतरित हो जाएगा। शिव-पार्वती आराधना का इससे उत्तम प्रसाद कुछ और हो नहीं सकता।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

योग को पुनर्जीवन देने में योगिनियों और संन्यासिनियों की बड़ी भूमिका रही

संत परंपरा में महिला संतों का बड़ा योगदान रहा है। पर उन्हें साहित्य में वह स्थान नहीं मिल पाया, जिसकी वे हकदार थीं। इसके उलट संन्यास-मार्ग पर चलने की इच्छा रखने वाली मातृ-शक्ति को सामाजिक कारणों से प्रोत्साहित नहीं किया गया। फिर भी अदिति से लेकर शतरूपा तक और गार्गी से लेकर मैत्रेयी व भामती तक की प्रेरणा और दैवयोग से अनेक महिलाएं संन्यास मार्ग के पथरीले रास्तों से आगे बढ़ गईं। इनमें मीराबाई, अक्का महादेवी, शारदा मॉ, संत अवैय्यार, भैरवी ब्राह्मणी, संत आंडाल, जूना अखाड़ा की सुखमन गिरि, भगवती माई, सुभद्रा माता, विष्णु गिरि , साध्वी ऋतंभरा, स्वामी सत्यसंगानंद सरस्वती, योगिनी शांभवी, साध्वी भगवती सरस्वती, गुरूमाई चिद्वविलासानंद, महंत दिव्या गिरि आदि उल्लेखनीय हैं। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस और महाशिवरात्रि के आलोक में महिला संतों और योगियों की भूमिकाओं की एक झांकी प्रस्तुत है।   

योग के आदिगुरू शिव हैं, यह निर्विवाद है। पर कल्पना कीजिए कि शक्ति-स्वरूपा पार्वती ने यदि मानव जाति के कल्याण के लिए, आत्म-रूपांतरण के लिए शिव से 112 समस्याओं का समाधान न पूछा होता तो क्या योग जैसी गुप्त विद्या सर्व सुलभ होने का आधार तैयार हुआ होता? मत्स्येंद्रनाथ का प्रादुर्भाव हुआ होता? गोरखनाथ और नाथ संप्रदाय के साथ ही पाशुपत योग के रूप में हठयोग, राजयोग, भक्तियोग, कर्मयोग आदि से आमजन परिचित हुए होते? कदापि नहीं। सच तो यह है कि योग की जितनी भी शाखाएं हैं, सबका आधार शिव-पार्वती संवाद ही है। अलग-अलग काल खंडों में भी योग को पुनर्जीवन देने में योगिनियों और संन्यासिनियों की भी बड़ी भूमिका रही। पर उन्हें योगियों की तुलना में समुचित स्थान नहीं मिल पाया। समाज में पुरूषों की प्रधानता इसकी बड़ी वजह रही होगी।

महिला दिवस पर मातृ-शक्ति का अभिवादन। तीन दिन बाद ही महाशिवरात्रि भी है। मुझे लगता है कि इन दोनों ही दिवसों के आलोक में शिव-शक्ति की महिमा को एक अलग दृष्टिकोण देखने का मकूल समय है। तब योग और अध्यात्म की दुनिया मे संन्यस्थ महिलाओं के योगदान की अनिवार्यता और उसके महत्व को समझना आसान होगा। तंत्रशास्त्रके मुताबिक शिव अर्थात पुरूष या शुद्ध चेतना और प्रकृति अर्थात देवी या शक्ति शरीर में होती हैं। इन दोनों ही शक्तियों का जागरण और उनका मिलन ही योग का महान लक्ष्य है। शक्ति शरीर के मूलाधार चक्र में सोई रहती है, जिसे यौगिक क्रियाओं से जागृत करके ऊपर सहस्रार चक्र तक ले जाना होता है। दूसरी तरफ शिव यानी शुद्ध चेतना की जागृति होती है तो शिव और शक्ति का मिलन होता है। इससे त्रिगुणात्मक सृष्टि की रचना होती है। पर इन दोनों को अलग कर देने से शून्य की, निर्वाण की, मोक्ष की स्थिति आती है। तंत्र आधारित योग का यही मार्ग है। इसलिए ध्यान के समय कल्पना की जाती है कि शुद्ध चेतना ऊर्ध्वगामी है। ताकि दोनों शक्तियों का मिलन हो सके।

आध्यात्मिक उत्थान और योग के सर्वाधिक लाभों के लिहाज से शिवरात्रि का बड़ा महत्व है। “मीरा के प्रभु गहर गंभीरा, हृदय धरो जी धीरा। आधी रात प्रभु दरसन दीन्हों, प्रेम नदी के तीरा।।“ परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती मीराबाई के इस पद के जरिए महाशिवरात्रि का महत्व समझाते थे। वे कहते थे कि चेतना के लिए भी दिन, शाम और रात निर्धारित है। जागृत अवस्था में चेतना बाहर की ओर विचरण कर रही होती है तो दिन। इंद्रियों का संबंध बाहर से टूट जाए और केवल विचार रह जाए तो शाम। इंद्रियों का संबंध बाहर से टूट जाए और विचार भी न रहे तो रात। शिवरात्रि में यहीं अंतिम अवस्था रहती है। यानी इस अवस्था में जन्मों-जन्मों की वृत्त्तियों और खराब संस्कारों से मुक्ति पाने का विधान बताया गया है। शिवजी की बारात में भूत-पिशाच की उपस्थिति प्रतिकात्मक है। वे जन्मो की वृत्तियों के प्रतीक हैं। आधी रात को साधना के जरिए उनसे मुक्ति मिलनी होती है। इस लिहाज से शिवरात्रि आध्यात्मिक उत्थान और योग-शक्ति के जागरण का अनुष्ठान है।   

अब बात आध्यात्मिक दुनिया में मातृ-शक्ति की उपस्थिति और उनकी भूमिकाओं की। वैदिक काल में महिलाओं की श्रेष्ठता सहज स्वीकार्य थी। कम से कम 21 विदुषी महिलाओं का स्थान ऋषियों के समतुल्य था। इनमें अदिति से लेकर शतरूपा तक और गार्गी से लेकर मैत्रेयी, चिन्न मुकुंदा व भामती तक के नाम हैं। वे पुरूषों के साथ शास्त्रार्थ तक करती थीं। योग के ज्ञात इतिहास में नाथ संप्रदाय की योगिनियों की बड़ी भूमिका रही है। उन योगिनियों का सशक्त संप्रदाय हुआ करता था। पथ विचलन न हो, इसके लिए योगियों के कानों की यौन नाड़ियों पर भी छिद्र बनाकर कुंडल और योगिनियों को बाली पहना दिया जाता था। आज भी ओड़ीशा के दो और मध्य प्रदेश के दो चौसठ योगिनी मंदिर योगिनियों की मजबूत उपस्थिति के जीवंत प्रमाण हैं। भारत में तंत्र विद्या का जैसे-जैसे लोप होता गया, योगिनी संप्रदाय सिकुड़ता गया।

कालांतर में आदिगुरू शंकराचार्य द्वारा स्थापित दशनामी संन्यास परंपरा के तहत महिलाओं को दीक्षित करने की परंपरा शुरू की गई। इन्हें संन्यासिनी कहा गया। पर फिर परिस्थितियां कुछ इस तरह निर्मित हुईं कि योग महिलाओं के लिए मानो वर्जित विषय होता गया। उनकी आध्यात्मिक उन्नति के मार्ग लगभग बंद कर दिए गए। बावजूद दैवयोग से कई महिला संतों ने अपनी विशिष्ठ जगह बनाई। बारहवीं शताब्दी में केरल की महादेवी अक्का और सोलहवीं शताब्दी में संत रविदास की शिष्या मीराबाई भक्ति-मार्ग की महत्वपूर्ण संत हुईं। संत लल्लेश्वरी, सहजोबाई, दयाबाई, मुक्ताबाई, बहिनाबाई, महारानी चुड़ाला, चिन्न मुकुंदा, शारदा मॉ, उभया भारती, संत अवैय्यार, भैरवी ब्राह्मणी, संत आंडाल, जूना अखाड़ा की सुखमन गिरि, भगवती माई, सुभद्रा माता, विष्णु गिरि आदि की भी मजबूत उपस्थिति रही। पर इन्हें अपवाद स्वरूप ही समझा जाना चाहिए। इन संतों में चिन्न मुकुंदा आदिगुरू शंकराचार्य की तांत्रिक गुरू थीं तो भैरवी ब्राह्मणी रामकृष्ण परमहंस की तांत्रिक गुरू थीं। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की तांत्रिक गुरू जूना अखाड़े की सुखमन गिरि थीं। 

बीसवीं सदी में मॉ आनंदमयी की मजबूत उपस्थिति से परिस्थितियां तेजी से बदली। सन् 1896 में पूर्वी बंगाल में जन्मी मॉ आनंदमयी सर्वाधिक प्रभावी व तेजस्वी आध्यात्मिक विभूति थीं। सन् 1982 में भौतिक शरीर त्यागने तक महिलाओं की संन्यास परंपरा को मजबूती प्रदान किया। उस दौरान बड़ी संख्या में महिलाओं को संन्यास की दीक्षा मिली। उधर पुरूष संन्यासियों में स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने महिलाओं को संन्यासिनी बनाने में अग्रणी भूमिका निभाई। वरना बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ तक गिनती की तपस्विनियों, संन्यासिनियों को छोड दें तो महिला संन्यासी व योगी ढूंढ़े नहीं मिलती थीं। ले देकर लातविया मूल की इंद्रा देवी का नाम इसलिए लिया जाने लगा था कि उन्होंने आधुनिक युग में हठयोग के पितामह माने जाने वाले टीकृष्णामाचार्य से योग-शिक्षा हासिल करके उसे पश्चिमी दुनिया में फैलाया था। 

खैर, इक्कीसवीं शताब्दी महिलाओं के दृष्टिकोण से योग और अध्यात्म की जमीन काफी उर्वर दिख रही है। वृंदावन में वात्सल्य ग्राम के सपने को साकार करने वाली साध्वी ऋतंभरा और रिखियापीठ (देवघर, झारखंड) की प्रमुख संन्यासी स्वामी सत्संगानंद सरस्वती लेकर महाराष्ट्र में भगवान नित्यानंद की सिद्ध योग परंपरा की अगुआई करने वाली गुरूमाई चिद्विलासानंद तक अनेक महिला संन्यासी और योगी लाखों लोगों के जीवन को योगमय और सुखमय बनाने में तल्लीन हैं। योगिनी शांभवी और साध्वी भगवती सरस्वती ऋषिकेश में विशेष तौर से महिलाओं के आध्यात्मिक उत्थान के लिए सक्रिय हैं। महामहोपाध्याय स्वामिनी ब्रह्मप्रकाशानंद सरस्वती वेदांत दर्शन के प्रचार में उल्लेखनीय भूमिका निभा रही हैं। ऐसे और भी कई नाम हैं। अब तो जूना अखाड़े से संबंधित माई बाड़ा भी महंत दिव्या गिरि की अगुआई में बड़ी संख्या में महिलाओं को संन्यास-मार्ग पर आगे बढ़ाने के काम में जुटा हुआ है।

मौजूदा समय में प्राण-शक्ति के निम्नतर स्तर के कारण लोग नाना प्रकार की समस्याओं से जूझ रहे हैं। वैसे में जीवन को व्यवस्थित करने के लिए माता पार्वती द्वारा शिव से पूछे गए प्रारंभिक नौ सवालों की अहमियत बढ़ गई है। वे श्वास-प्रश्वास यानी प्राण-शक्ति की अभिवृद्धि से संबंधित हैं। जाहिर है कि यह वक्त योगिनियों और संन्यासिनियों की अहमियत को स्वीकारते हुए उनके संदेशों को जन-जन तक ले जाने का भी है। 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

: News & Archives