योगियों के महायोगी स्वामी शिवानंद सरस्वती

दक्षिण भारत के प्रतिष्ठित अप्पय्य दीक्षितार कुल में जन्मे और परदेश में अपनी चिकित्सा की धाक् जमाने वाले कुप्पू स्वामी पर किसी अदृश्य शक्ति का ऐसा जादू चला कि वे तमाम भौतिक सुखों को त्याग कर कठिन साधानाओं की बदौलत स्वामी शिवानंद सरस्वती बन गए थे। उनमें अद्भुत योग-शक्तियां थीं। वे एक ही समय अलग-अलग देशों में कई शरीर धारण कर सकते थे और खेचड़ी मुद्रा का प्रयोग करके हवा में उड़ सकते थे। पर वे इसे आत्म-ज्ञानियों के लिए मामूली बात मानते थे। उन्हें इस बात का हमेशा मलाल रहा कि संन्यास मार्ग पर चलने वाले ज्यादातर साधकों की साधना मामूली सिद्धियों तक ही सीमित रह जाती है। 20वीं सदी के उस महान संत की 136वीं जयंती (8 सितंबर 1887) पर प्रस्तुत है यह आलेख।     

किशोर कुमार

स्वामी विवेकानंद सन् 1893 में जब अमेरिका की धरती से पूरी दुनिया में योग और वेदांत दर्शन का अलख जगा रहे थे। तब भविष्य में आध्यात्मिक आंदोलन को गति देने के लिए दिव्य-शक्ति वाले कई संत भारत की धरती पर भौतिक शरीर धारण करके विभिन्न परिस्थितियों में पल-बढ़ रहे थे। स्वामी शिवानंद सरस्वती उनमें प्रमुख थे।

पेशे से इस मेडिकल प्रैक्टिशनर की मलाया में काम करते हुए न जाने कौन-सी शक्ति जागृत हुई कि वे वैरागी बनकर भारत में नगर-नगर डगर-डगर भ्रमण करने लगे थे। ऋषिकेश पहुंचने पर उनकी यह यात्रा पूरी हुई थी, जब वहां स्वामी विश्वानंद सरस्वती के दर्शन हो गए और उनसे दीक्षा मिल गई। फिर तो परिस्थितियां ऐसी बनी कि वहीं जम गए। जल्दी ही उनकी आध्यात्मिक शक्ति की आभा फैल गई और देखते-देखते पूरी दुनिया में छा गए थे। उनके पट्शिष्य और बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि वे न तो कभी पाश्चात्य देश गए औऱ न ही प्राच्य देश। पर उनकी अद्भुत यौगिक शक्ति का ही कमाल है कि सर्वत्र छा गए। हालांकि स्वामी विश्वानंद सरस्वती को लेकर आज तक रहस्य बना हुआ है। इसलिए कि दीक्षा देने के बाद वे कभी नहीं दिखे। कहां से आए थे और कहां गए, कुछ भी पता नहीं चला। भक्तगण मानते हैं कि किसी आलौकिन शक्ति ने दीक्षा देने के लिए भौतिक शरीर धारण किया था।

स्वामी शिवानंद सरस्वती असीमित यौगिक शक्तियां थी। पर वे यौगिक साधनाओं की बदौलत चमत्कार दिखाने के विरूद्ध थे। केवल पीड़ित मानवता की सेवा करने और अपने शिष्यों को आध्यात्मिक मार्ग पर बनाए रखने के लिए कभी-कभी ऐसा काम कर देते थें, जिन्हें आम आदमी चमत्कार मानता था। दक्षिण अफ्रीका के डर्बन शहर के अस्पताल में भर्ती उनके एक शिष्य की हालत खराब थी। दूसरी तरफ कुआलालामपुर में ऐसी ही स्थिति में एक अन्य शिष्य था। इन दोनों शिष्यों द्वारा बतलाए गए समय और तिथि के मुताबिक स्वामी शिवानंद ने एक ही समय में दोनों को दर्शन दिए थे और दोनों ही स्वस्थ होकर घर लौट गए थे। आस्ट्रिया में अपना शरीर त्याग चुके स्वामी ओंकारानंद ने अपनी पुस्तक में इन घटनाओं का जिक्र किया है। वे इस वाकए के वक्त स्वामी शिवानंद सरस्वती की छत्रछाया में साधनारत थे।

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती के साथ भी एक चमत्कारिक घटना हुई थी। वे कुंभ स्नान के लिए हरिद्वार जाना चाहते थे। पर स्वामी शिवानंद सरस्वती ने उन्हें इसके लिए इजाजत न दी। स्वामी सत्यानंद सन्यास मार्ग पर नए-नए थे। उन्होंने कल का काम आज ही निबटा लिया और अपने गुरू को बताए बिना कुंभ के मेले में चले गए। गंगा में नहाते वक्त लंगोट पानी की धारा में बह गया। पहनने के लिए दूसरा कुछ भी नहीं था। ऐसे संकट में गुरू कृपा का ही सहारा था। गंगा किनारे निर्वस्त्र बैठकर गुरू का स्मरण कर रहे थे। तभी आश्रम का एक संन्यासी वस्त्र लिए पहुंच गया। स्वामी सत्यानंद उस वस्त्र को धारण कर वापस आश्रम पहुंचे ही थे कि स्वामी शिवानंद जी से सामना हो गया। उन्होंने हंसते हुए पूछा, कहो सत्यानंद कपड़े के बिना बहुत कष्ट हो गया? स्वामी जी को समझते देर न लगी कि यह चमत्कार गुरू की अवमानना का प्रतिफल था। उन्होंने क्षमा याचना करते हुए संकल्प लिया कि भविष्य में ऐसी गलती नहीं करेंगे।

पूर्व राष्ट्रपति डॉ एपीजे अब्दुल कलाम का स्वामी शिवानंद सरस्वती से जुड़ा वाकया अनेक लोगों को पता होगा। वह एक ऐसा प्रसंग है, जिससे डॉ कलाम का जीवन-दर्शन ही बदल गया था। डॉ कलाम ने अपनी पुस्तक “विंग्स ऑफ फायर” में खुद ही उस घटना का जिक्र किया था। हुआ यह कि डॉ.कलाम का मेडिकल के आधार पर वायुसेना के पायलट पद के लिए चयन नहीं हो सका। जब परीक्षा परिणाम आया था, उस समय वे देहरादून में ही थे। मायूस डॉ कलाम के पैर सहसा शिवानंद आश्रम की तरफ बढ़ गए। जब आश्रम पहुंचे तो स्वामी शिवानंद का प्रवचन चल रहा था। वे वहां बैठ गए। प्रवचन समाप्त होने के बाद वे स्वामी जी के पास गए और अपनी समस्याओं का बयान किया। स्वामी जी ने उनसे कहा, तुम्हें देश की अगुआई करनी है। इन छोटी बातों से हतोत्साहित होने का कोई औचित्य नहीं। डॉ. कलाम की कल्पना से परे थीं ये बातें। पर कालांतर में ऐसा ही हुआ।

ये सारी घटनाएं उनकी अद्भुत योग-शक्ति का प्रतिफलन थी। आधुनिक युग के वैज्ञानिक संत पद्मभूषण परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं कि समाधि की मुख्यत: दस अवस्थाएं होती हैं। महान संतों को उन अवस्थाओं में अद्भुत शक्तियां मिल जाती हैं। पहमहंस योगानंद अपने गुरू स्वामी युक्तेश्वर गिरि के भौतिक शरीर त्यागने के वक्त वहां मौजूद नहीं थे। काफी दूर थे। पर उनके गुरू भौतिक शरीर त्यागने से पहले सशरीर उनके सामने प्रकट हो गए थे।

स्वामी शिवानंद जी के साथ भी अद्भुत घटना हुई थी। वे जब अपना शरीर छोड़ रहे थे तो वहां ऐसा शक्तिशाली ऊर्ध्वगामी आकर्षण बना कि उनका शरीर बिस्तर सहित हवा में ऊपर उठने लगा था। लोगों ने बड़ी मुश्किल से शरीर को पकड़ कर रखा। ताकि वह जमीन पर रह सकें। आम आदमी को लग सकता है कि ये घटनाएं किसी सिद्धि के परिणाम हैं। पर ऐसा नहीं है। स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं कि यह समाधि की अवस्थाओं की अंतर्निहित क्षमता है, जो साधक को अनेक शरीरों में प्रकट होने में सक्षम बनाती है।

स्वामी शिवानंद स्वयं भी कहते थे और अपनी पुस्तकों में उल्लेख भी किया कि योग में इतनी शक्ति है कि कोई शरीर के भार को कम करके पल भर में आकाश मार्ग से कहीं भी, कितनी भी दूर जा सकता है। खेचरी मुद्रा के अभ्यास से दीर्घित जिह्वा को अंदर की ओर मोड़ कर उससे पश्च नासाद्वार को बंद कर वायु में उड़ान भरी जा सकती है। योगी चमत्कारी मलहम तैयार कर सकते हैं, जिसे पैर के तलवे में लगाकर अल्प समय में पृथ्वी पर कहीं भी जा सकते हैं। योगी संसार के किसी भी भाग की घटनाओं को अपने मन प्रक्षेपण के द्वारा अथवा कुछ क्षण मानसिक भ्रमण करके जान सकते हैं। परमहंस योगानंद के परमगुरू लाहिड़ी महाशय ने अपने एक बीमार भक्त को इन्ही विधियों की बदौलत इंग्लैंड में दर्शन दिया था। दृष्टि या स्पर्श मात्र से अथवा मंत्रों के जप मात्र से रोगी का उपचार किया जा सकता है। एक ही शर्त है कि साधना उच्च कोटि की होनी चाहिए।

इसके साथ ही वे कहते थे कि सिद्धियों से युक्त होना किसी महात्मा की महानता की पहचान नहीं है, न ही इससे प्रमाणित होता है कि उन्हें आत्मज्ञान प्राप्त है। सद्गुरू किसी चमत्कार अथवा सिद्धि का प्रदर्शन तभी करते हैं, जब उन्हें जिज्ञासुओं को प्रोत्साहित करने और उनके हृदय में अतीन्द्रिय शक्तियों में विश्वास पैदा कराने की जरूरत होती है। आत्मज्ञानी गुरूओं के लिए ये सिद्धियां प्राथमिक कक्षाओं की पढ़ाई जैसी होती हैं। दुर्भाग्यवश यह संसार नकली गुरूओं से भर गया है। वे निष्कपट व भोले लोगों का शोषण करते हैं और उन्हें अज्ञान के अंधेरे गर्त्त में डालते हैं, पथभ्रष्ट करते हैं।

स्वामी शिवानंद सरस्वती पर बनी यह डक्यूमेंटरी दूरदर्शन की प्रस्तुति है।

शायद यही वजह है कि स्वामी शिवानंद सरस्वती आध्यात्मिक प्रणेताओं द्वारा पंथ या संप्रदाय की स्थापना के विरूद्ध थे। वे कहते थे कि भारत अद्वैत दर्शन की पवित्र भूमि है। यहां दत्तात्रेय, शंकराचार्य एवं वामदेव जैसे महात्मा अवतरित हुए। चैतन्य महाप्रभु, गुरूनानक और स्वामी दयानंद जैसी उदारमना एवं उदात्त आत्माएं भी भारत भूमि की ही थीं। ये संन्यासी कभी अपना पंथ या संप्रदाय स्थापित करने के पक्ष में नहीं रहे। पर उन संतों के नाम पर मयूरपंख लगाए कौए भी पंथ या संप्रदाय बनाते दिखते हैं।

स्वामी शिवानंद सरस्वती स्वर साधना को योग विद्या और ज्योतिष विद्या का महत्वपूर्ण आधार मानते थे। वे कहते थे कि जो स्वर साधना नहीं जानता, उसकी ज्योतिष विद्या अधूरी है। योग के क्षेत्र में भी यही बात लागू है। वे कहते थे कि साधु-संन्यासी या ज्योतिष आदमी को देखकर ही ऐसी बातें कह देते हैं, जो कालांतर में सही साबित होती हैं। लोग इन्हें चमत्कार मानने लगते हैं। पर वे स्वर साधना के कमाल होते हैं। यदि ज्योतिष या संत की सूर्य नाड़ी काम कर रही हो और प्रश्नकर्ता नीचे या पीछे या दाईं ओर खड़ा हो तो दावे के साथ प्रश्न का उत्तर सकारात्मक होगा। यानी यदि प्रश्न है कि फलां काम होगा या नहीं तो इसका उत्तर है – काम होगा और तय मानिए कि यह बात सौ फीसदी सही निकलेगी। स्त्री कि मासिक शौच के अनंतर पांचवें दिन यदि पति की सूर्य नाड़ी तथा पत्नी की चंद्र नाड़ी चल रही हो तो उस समय उनका प्रसंग पुत्र उत्पन्न करेगा। जब सूर्य नाड़ी चलते समय का योगासन ज्यादा फलदायी होता है

स्वामी शिवानंद सरस्वती ने जीवन के विविध आयामों का वैज्ञानिक अध्ययन किया और उसे जनोपयोगी बनाकर जनता के समक्ष प्रस्तुत किया। वे अपने शिष्यों के रोगों का वेदांत दर्शन की एक विधि से इलाज करते थे और मरीज ठीक भी हो जाते थे। वे एक मंत्र देते थे – “मैं अन्नमय कोष से पृथक आत्मा हूं, जो रोग की परिधि से परे है। प्रभु कृपा से मैं दिन-प्रतिदिन हर प्रकार से स्वास्थ्य लाभ कर रहा हूं।“ कहते थे कि सोते-जागते हर समय यह विचार मानसिक स्तर पर चलते रहना चाहिए। यह एक अचूक दैवी उपाय साबित होगा। इस सूत्र से ऐसी बीमारियां भी ठीक हुईं, जिन्हें डाक्टर ठीक नहीं कर पा रहे थे।

योगासनों की बारीकियों का अवलोकन करते स्वामी शिवानंद सरस्वती

स्वामी शिवानंद सरस्वती में वेदांत के अध्ययन और अभ्यास के लिए समर्पित जीवन जीने की तो स्वाभाविक व जन्मजात प्रवृत्ति थी ही, गरीबों की सेवा के प्रति तीब्र रूचि ने उन्हें संन्यास की ओर प्रवृत्त किया था। उन्होंने सन् 1932 में ऋषिकेश में शिवानंद आश्रम, सन् 1936 में द डिवाइन लाइफ सोसाइटी और 1948 में योग-वेदांत फारेस्ट एकाडेमी की स्थापना की थी। इन्ही संस्थाओं के जरिए लोगों को योग और वेदांत में प्रशिक्षित किया और आध्यात्मिक ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया था। आज भी ये संस्थाएं स्वामी शिवानंद सरस्वती के ज्ञान के प्रचार-प्रसार में जुटी हुई हैं। 8 सितंबर 1887 को तमिलनाडु में जन्में बीसवीं सदी के इस महानतम संत को शत्-शत् नमन।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)  

अलौकिक सामर्थ्य के धनी थे स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती

स्वामी चिन्मयानन्द हिन्दू धर्म और संस्कृति के मूलभूत सिद्धान्त वेदान्त दर्शन के एक महान प्रवक्ता थे। उन्होंने देश भर में भ्रमण करते हुए देखा कि लोगों में किस तरह धर्म संबंधी अनेक भ्रांतियां फैली हुई हैं। उन्होंने उनका निवारण कर शुद्ध धर्म की स्थापना करने के लिए गीता ज्ञान-यज्ञ प्रारम्भ किया और 1953 ई में चिन्मय मिशन की स्थापना की।

बीसवीं सदी के महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती के शिष्य, चिन्मय मिशन आंदोलन के प्रेरणा-स्रोत और वैदिक ज्ञान को जनमानस तक पहुंचाने वाले स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती को उनके निर्वाण दिवस पर नमन। वेदांत दर्शन के इस महान प्रवक्ता ने सन् 1993 में 3 अगस्त को अमेरिका की धरती पर भौतिक शरीर त्याग दिया था। पर अपने जीवनकाल में भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया के अनेक देशों में ज्ञान की ऐसी अविरल धारा प्रवाहित की कि उनकी एक पहचान दूसरे स्वामी विवेकानंद के रूप में भी बनी। इस लेख में श्रद्धांजलि स्वरूप उनके जीवन से जुड़े कुछ अनछुए प्रसंगो की चर्चा करने की कोशिश है। पहले बात बिहार योग विद्यालय से जुड़े एक प्रसंग से।

सन् 1993 के नवंबर माह में बिहार के मुंगेर में विश्व योग सम्मेलन का आयोजन किया गया था। उसमें स्वामी चिन्मयानंद को अनिवार्य रूप से भाग लेना था। उनकी दिली इच्छा थी। इसके दो कारण थे। पहला तो यह कि मुंगेर में हर बीस वर्ष पर आयोजित होने वाला विश्व योग सम्मेलन अद्वितीय होता है। इसलिए देश-विदेश के आध्यात्मिक नेताओं को इसमें भाग लेने की सहज इच्छा रहती है। पर स्वामी चिन्मयानंद के लिए दूसरा कारण भी कम महत्व का नहीं था। विश्व योग सम्मेलन का आयोजक बिहार योग विद्यालय था और इसके संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती उनके प्रिय गुरू भाई थे।

कालचक्र ऐसा घूमा, परिस्थितियां ऐसी बनी कि वे विश्व योग सम्मेलन में भाग न ले सके थे। सम्मेलन से दो-ढ़ाई महीने पहले ही भौतिक शरीर त्याग दिया था। पर विश्व योग सम्मेलन में उनकी सूक्ष्म उपस्थिति शिद्दत से महसूस की गई थी। स्मारिका के लिए भेजे गए उनके संदेश ने सबका ध्यान आकृष्ट किया। साथ ही यह भी पता चला कि उनके मन में अपने गुरू भाई के लिए सम्मान कितना था और यूं ही नहीं था। उन्होंने लिखा था – “परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती आधुनिक युग के महर्षि पतंजलि हैं।“

स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती स्वामी सत्यानंद सरस्वती से उम्र में बड़े थे। उनका जन्म 8 मई 1916 को केरल राज्य के एरनाकुलम में हुआ था, जबकि स्वामी सत्यानंद का जन्म 24 दिसम्बर 1923 को अल्मोड़ा में हुआ था। गुरू आश्रम में दोनों ने एक तरह की शिक्षा पाई थी। पर गुरू की प्रेरणा से स्वामी सत्यानंद योग के प्रचार-प्रसार में जुट गए थे। वहीं स्वामी चिन्मयानंद वेदांत दर्शन के जरिए विकृत हो चुकी धार्मिक मान्यताओं की सुस्पष्ट व्याख्या करके ज्ञान यज्ञों और अपने गुरू के मूलमंत्र प्रेम, सेवा व दान के मानक बनकर समाज की दशा-दिशा को नए आयाम देने में जुट गए थे।

स्वामी चिन्मयानंद जी में राष्ट्रप्रेम की भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी। उन्होंने स्नातक तक की शिक्षा तो मद्रास विश्वविद्यालय हासिल की थी। पर स्नातकोत्तर की पढाई लखनऊ विश्वविद्यालय में की थी। आजादी के आंदोलन में उत्तर प्रदेश में ही सक्रिय रहे। जेल भी गए। बाद में अंग्रेजों के खिलाफ स्वर को धार देने के लिए नेशनल हेराल्ड अखबार के पत्रकार बने।

उनकी जीवनी में छात्र जीवन में उनके आध्यात्मिक रूझानों के बारे में ज्यादा कुछ उल्लेख नहीं मिलता। पर उनके मन में अक्सर ये ख्याल आता था कि संतजन कहते हैं कि परोक्ष से प्रेम करो। इसलिए कि प्रत्यक्ष बहुधा भ्रामक होता है। दूसरी तरफ आधुनिक विज्ञान संतों की बातों को मानता तो है। पर आंशिक रूप से। वह प्रत्यक्ष से आगे उतना ही सत्य मानता है, जितना पदार्थ विद्या के अविष्कृत यंत्रों से दिखता है।

स्वामी चिन्मयानंद को सत्य से साक्षात्कार का कोई मार्ग नहीं सूझ रहा था। तभी उनके मन में एक विचार आया। वे आधुनिक युग के शीर्षस्थ ज्ञानयोगी रमण महर्षि से मिलने उनके आश्रम गए। नाम तो स्मरण नहीं। पर मैंने एक विदेशी लेखक की पुस्तक में पढ़ा था कि रमण महर्षि उनसे कुछ बोले नहीं। वे उन्हें काफी देर तक एकटक देखते रहे। कहते हैं कि इसका असर शक्तिपात जैसा हुआ। बालकृष्ण मेनन यानी स्वामी चिन्मयानंद की आध्यात्मिक साधना की भूख बलवती हो गई।

इस भूख को मिटाने के लिए ऋषिकेश में स्वामी शिवानंद सरस्वती की शरण में पहुंच गए। वहां स्वामी शिवानंद जी की शिक्षा-अच्छा बनो, अच्छा करो तथा सेवा, प्रेम, आत्मशुद्धि, ध्यानानुभव तथा मुक्ति के संदेश से बेहद प्रभावित हुए। नतीजतन, महाशिवरात्रि के पवित्र दिन 25 फरवरी 1949 को संन्यास की दीक्षा ले ली। इसके साथ ही बालकृष्ण मेनन से स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती बन गए। कुछ समय बाद अपने गुरू के आदेश से वेदांत शिक्षा ग्रहण करने स्वामी तपोवन महाराज के पास उत्तरकाशी चले गए थे।

ईश्वरीय प्रेम और त्याग व संवेदना के प्रतीक स्वामी चिन्मयानंद अपनी वेदांत शिक्षा के बाद डॉ एस राधाकृष्णन की तरह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि भारत के राष्ट्रीय अस्तित्व और स्वरूप को कायम रखने के लिए उपनिषदों का अध्ययन-अध्यापन और उसके संदेशों का प्रचार-प्रसार जरूरी है। उन्हें गुरूओं के सानिध्य में रहते हुए उत्तर मिल चुका था कि इंद्रियां, मन आदि किसी अदृश्य शक्ति के नियम में बंधकर कार्य करती हैं। वह शक्ति इंद्रियगोचर है और उसे इंद्रियों से नहीं जाना जा सकता। वह मन की गति से भी परे है। साधारण लोग भ्रम में पड़कर परमात्मा के स्थान पर जहान की पूजा करते हैं। जबकि सच यह है कि इंद्रियों में देखने, सुनने, छूने, सूंघने, चखने का जो सामर्थ्य है, मन में मनन की जो शक्ति है, वह सब उस जगन्नियंता की देन है।

इस आत्मानुभूति के बाद ही उन्होंने चिन्मय मिशन की स्थापना की औऱ श्रीमद्भगवत गीता व उपनिषदों का संदेश जन-जन तक पहुंचाने के लिए गीता ज्ञान यज्ञ का श्रीणेश किया। उनका पहला यज्ञ सन् 1951 में महाराष्ट्र के पुणे में हुआ था। इसके बाद तो उन्होंने अपने जीवन काल में लगभग छह सौ ज्ञान यज्ञ किए। बड़ी संख्या में वैदिक ग्रंथों के भाष्य लिखे औऱ पुस्तकें लिखीं। उनकी प्रेरणा से देश-दुनिया में शैक्षणिक संस्थान स्थापित किए गए, जिनके जरिए लोगों तक वैदिक ज्ञान पहुंचाना आसान हुआ।

एक छोटी-सी घटना उनका संदेश समझने के लिए पर्याप्त है। एक बार ज्ञान यज्ञ के दौरान बत्ती बुझ गई थी। सबने इसे अशुभ माना। तब स्वामी चिन्मयानंद ने कहा था, “बत्ती बुझ गई तो क्या हुआ? बाहरी रौशनी ही तो बुझी है, आंतरिक प्रकाश चालू है। वैसे भी, भारतीय दर्शन और अध्यात्म का तेज बड़े-बड़े झंझावातों से भी कम न हुआ तो एक बत्ती बुझने से भला क्या होना है।” स्वामी जी अलौकिक सामर्थ्य के धनी थे। उनका वेदांतिक संदेश आज भी प्रासंगिक है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

किसी अनजान के प्रति सहज आकर्षण मित्रता बढ़ाने का दैवीय आदेश माना जाना चाहिए : परमहंस योगानंद

पुनर्जन्म होता है, इसके उदाहरण अक्सर मिलते रहते हैं। बंगलुरू स्थित नेशनल इंस्टीच्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइसेंज (नीमहांस) के वरीय मनोचिकित्सक डॉ सतवंत के पसरीचा सन् 1974 से ही पूर्व जन्म की घटनाओं का अध्ययन कर रहे हैं। उन्होंने अब तक पांच सौ से ज्यादा मामलों का अध्ययन किया है। उनका निष्कर्ष है कि पांच साल तक की उम्र के सत्तर फीसदी बच्चों को पूर्वजन्म की घटनाएं याद थी। पर आठ साल या किसी मामले में दस साल की उम्र होते-होते पूर्वजन्म की यादें धूमिल हो जाती थीं। इन घटनाओं से योगशास्त्र के संचित कर्मों वाले सिद्धांत की पुष्टि होती है।

क्या पुनर्जन्म होता है और क्या पूर्व जन्म के संचित कर्मों की हमारे मौजूदा जीवन में कोई भूमिका होती है? इन सवालों को लेकर सदियों से मंथन किया जाता रहा है। हिंदू और इसाई से लेकर अनेक धर्मों में शास्त्रसम्मत तरीके से इन सवालों के पक्ष में अनेक तर्क उपस्थित किए जाते रहे हैं। आधुनिक विज्ञान इन सवालों के पक्ष में दिए जाने वाले कई तर्कों से असहमत नहीं है। बल्कि वैज्ञानिकों ने क्वांटम सिद्धांत के जरिए मानव चेतना के रहस्यों से पर्दा उठाने में बड़ी भूमिका निभाई है। इससे इस सिद्धांत को बल मिलता है कि आत्म-चेतना का अस्तित्व मृत्यु के बाद भी बना रहता है और नए शरीर में प्रवेश करता है। ऐसे में यह सवाल लाजिमी है कि यदि पुनर्जन्म होता है और यौगिक विधियों के जरिए अवचेतन शक्तियों को जागृत करके संचित कर्मों का विकास संभव है तो अच्छे संचित कर्मों का विकास करके अपने जीवन को खुशनुमा क्यों न बनाया जाए।

भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया भर में आत्म-चेतना के संदर्भ में जीने की कला पर काफी काम हुआ है। योगियों ने अनुभव किया कि अवचेतन शक्तियों को जागृत करके अतीन्द्रिय शक्तियों का विकास करना संभव है। दूसरी तरफ आम आदमी योग की बदौलत स्मरण शक्ति बढ़ा सकता है, पूर्व जन्म के मित्रों व स्नेही जनों की पहचान करके इस जीवन को आनंदित कर सकता है और लोकप्रियता का शिखर छू सकता है। अनेक बार हम सब अपने जीवन में अनुभव करते हैं कि यात्रा के दौरान सामने की सीट पर बैठे किसी अपरिचित के प्रति सहज आकर्षण होता है। इसके उलट किसी को देखकर अच्छा भाव उत्पन्न नहीं होता। इस तरह की घटनाएं सबके जीवन में कहीं भी, कभी भी और किसी रूप में घटित होती ही है। कई बार कोई ऐसा व्यक्ति मदद के लिए खड़ा हो जाता है, जिससे अपेक्षा न थी। पर सजगता के अभाव में हम इस बात पर मनन नहीं कर पातें कि ऐसा क्यों होता है।

परमहंस योगानंद बीसवीं सदी के प्रारंभ में ही इस तरह के संकेतों को जीवन के लिए अहम् मानते थे। कहते थे कि ऐसे संकेतों से मिले सूत्रों की पहचान कर जीवन को उन्नत बनाया जाना चाहिए। इस संदर्भ में 22 जनवरी 1939 को कैलिफोर्निया स्थित सेल्फ-रियलाइजेशन फेलोशिप मंदिर का उनका व्याख्यान उल्लेखनीय है। उन्होंने कहा था कि दो अपरिचितों का एक दूसरे के प्रति सहज ही आकर्षित होना मित्रता बढ़ाने का दैवीय आदेश माना जाना चाहिए। ऐसा आकर्षण इस बात का द्योतक है कि उन दोनों के बीच पूर्व जन्म में मित्रता या कोई प्रिय संबंध रहा होगा। इसलिए पूर्व जन्म के संबंधों की नींव पर इस जन्म में महल खड़ा किया गया तो जीवन सुखमय और आनंदमय हो जाएगा। पर इसके साथ ही कहते थे कि दिव्य आकर्षण और सामान्य आकर्षण में भेद करने का विवेक होना चाहिए। इसलिए कि सामान्य आकर्षण का आधार दूषित इच्छाएं और स्वार्थी कार्य होते हैं।

इसी तरह परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती योग की शक्ति से स्मरण शक्ति बढ़ाने और पूर्व जन्म के संचित ज्ञान में अभिवृद्धि करने पर काफी बल देते थे। वे कहते थे कि ये दोनों ही बातें शास्त्रसम्मत तो हैं ही, विज्ञानसम्मत भी हैं। दरअसल, स्वामी सत्यानंद सरस्वती विभिन्न यौगिक विधियों का देश-विदेश में वैज्ञानिक विश्लेषण करने कराने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे। इसलिए वे बार-बार कहते थे कि योग की जरूरत सबसे ज्यादा बच्चों को है। आठ साल की उम्र से योगाभ्यास कराया जाना चाहिए। ताकि पीनियल ग्रंथि या योग की भाषा में आज्ञा चक्र जागृत हो जाए। नतीजतन, संचित कर्मों के आधार पर जिसमें जैसा बीज होगा, उस अनुपात में उसका बेहतर तरीके से प्रतिभा का विकास होगा। यदि संचित कर्म सही नहीं है तो उसका क्षय भी किया जा सकेगा। वे कहते थे कि विज्ञान आज न कल मानेगा, पर आत्मज्ञानी जानते हैं कि संचित कर्म जीवन में किस तरह फलित होता है। इस संदर्भ में स्वामी जी से ही जुड़े एक वाकए की चर्चा यहां प्रासंगिक है। सत्संग के दौरान उनसे किसी ने पूछ लिया कि आप संन्यासी क्यों बन गए? स्वामी जी का उत्तर था – संन्यासी कोई बनता नहीं, बनकर आता है। इस जन्म में तो योग साधानाओं के जरिए संचित कर्मों का केवल विकास करना होता है।

स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने फ्रांस रेडियो को दिए साक्षात्कार में कहा था – “मृत्यु केवल प्रस्थान है। जब भौतिक शरीर मर जाता है, सूक्ष्म और कारण शरीर, जीवात्मा या आपका अपना व्यक्तित्व एक साथ भौतिक शरीर को छोड़ देते हैं। तब आपकी कामनाओं और कर्मों की पूर्ति के लिए वे एक नया शरीर प्राप्त करते हैं।“ यानी पिछले जन्म में आप योगी रहे हैं तो इस जन्म में आपकी प्रवृत्ति स्वाभाविक रूप से उसी तरफ होगी। सिर्फ अवचेतन के तल तक पहुंच बनाकर इस प्रतिभा की पहचान और उसका विकास करना होता है। हम सब व्यवहार रूप में भी देखते हैं कि एक ही माता-पिता की चार संतानों की एक ही परिवेश में परिवरिश होने के बावजूद उनकी प्रतिभाएं, उनकी प्रवृत्तियां अलग-अलग होती हैं। योगी इसे संचित कर्मों का ही नतीजा मानते हैं।

उपरोक्त तथ्यों से साफ है कि संचित कर्मों में सफलता और विफलता के सूत्र छिपे हुए हैं और उन्हें योग की बदौलत डिकोड करने की जरूरत है। इस दृष्टिकोण से कोरोनाकाल में विपदाओं के मध्य स्वर्णिम भविष्य के लिए एक अवसर भी उपस्थित हुआ है। विश्वसनीय दवा के अभाव में लोगों को देशज चिकित्सा पद्धतियों खासतौर से योग से बड़ी आश्वस्ति मिली। अनेक लोग खुद को संकट से बाहर निकालने में सफल हुए। स्वस्थ्य लोग स्वस्थ्य बने रहें, इसलिए योग करते रहे। अब योगाभ्यास को उच्चतर स्तर पर ले जाने का वक्त आ गया है। यदि योग को स्वास्थ्य तक सीमित न रखकर उसके अगले स्तर के अभ्यासों की बदौलत आध्यात्मिक उत्थान का मार्ग प्रशस्त किया जाए या कम से कम आज्ञा चक्र को ही जागृत करने का प्रयास किया जाए तो अवचेतन के अच्छे गुणों का विकास करना आसान होगा, जो सुखद और आनंदमय जीवन की कुंजी है। योगियों के मुताबिक, इस काम के लिए प्रत्याहार, धारणा व ध्यान की क्रमिक साधना फलदायी होगी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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