यौगिक मैनेजमेंट ऑफ कैंसर

भारत में नौ फीसदी लोगों की मौत कैंसर हो जाती है। कैंसर के मरीजों की संख्या में साल दर साल इजाफा हो रहा है। इस जानलेवा बीमारी के इलाज में योग की महत्ता सिद्ध हो चुकी है। आस्ट्रेलिया में कैंसर के चार मरीजों ने लंबे इलाज के बाद जीने की उम्मीद छोड़ दी थी। चिकित्सकों ने अधिकतम छह महीने की आयु बताई थी। पर योग की शक्ति से कमाल हो गया। वे सभी मरीज बारह से पंद्रह साल तक जीवित थे।

बिहार योग विद्यालय की संन्यासी स्वामी निर्मलानंद सरस्वती पेशे से एमबीबीएस, डीए, एमडी (मुंबई) हैं। उन्होंने बिहार योग विद्यालय से संबद्ध योग अनुसंधान फाउंडेशन के साथ लंबे समय तक काम करने के बाद एक पुस्तक लिखी है – यौगिक मैनेजमेंट ऑफ कैंसर। इस पुस्तक में योग के आलोक में कैंसर प्रबंधन पर विस्तार से वैज्ञानिक विश्लेषण है। साथ ही बीमारी की रोकथाम के लिए बेहद प्रभावशाली उपाय भी बतलाए गए हैं। यदि किसी मामले में बीमारी से निजात मिलना संभव न हो तो वैसे मरीजों के मानसिक संतुलन के लिए भी कई टिप्स हैं।   

आसन प्राणायाम मुद्रा बंध

आजकल उपलब्ध सुसंगठित योग पुस्तकों में आसन प्राणायाम मुद्रा बंध को अंतर्राष्ट्रीय जगत में एक विशेष स्थान प्राप्त है। बिहार योग विद्यालय द्वारा सन् 1969 में इसके प्रकाशन के बाद से कम से सोलह बार इस पुस्तक का पुनर्मुद्रण हो चुका है। अनेक विदेशी भाषाओं में अनुवाद भी किए गए। इस बहुआयामी संदर्भ ग्रंथ में स्पष्ट सचित्र विवरण के साथ ही क्रमबद्ध दिशा-निर्देश एवं चक्र-जागरण हेतु विस्तृत मार्ग-दर्शन प्रदान किए गए हैं। योगाभ्यासियों एवं योगाचार्यों को इस ग्रंथ से हठयोग के सरलतम से उच्चतम योगाभ्यासों का परिचय प्राप्त होता है। चिकित्सकों के लिए भी यह बेहतर ग्रंथ है।

बिहार योग विद्यालय, मुंगेर के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती द्वारा लिखित इस ग्रंथ का बिहार योग या सत्यानंद योग के शिक्षकों व विद्यार्थियों के साथ-साथ अन्य कई परंपराओं द्वारा भी उपयोग मुख्य संदर्भ-ग्रंथ के रूप में किया जाता है। यह पुस्तक हिंदी और अंग्रेजी भाषाओं में बिहार योग विद्यालय के अलावा अमेजन से लेकर फ्लिपकार्ट तक पर उपलब्ध है।

शाम्भवी क्रिया करने वालों में तनाव को कम करने वाला हार्मोन नियंत्रण में रहता है : सद्गुरू जग्गी वासुदेव

शांभवी मुद्रा बेहद प्रभावशाली योग मुद्रा है। “योगी कथामृत” के लेखक और पश्चिमी दुनिया में क्रिया योग का प्रचार करने वाले परमहंस योगानंद से किसी ने पूछ लिया – “क्रियायोग के अतिरिक्त और कोई वैज्ञानिक विधि है, जो साधक को ईश्वर की ओर ले जा सके?” पहमहंस जी बोले, “अवश्य। परमात्मा को पाने का एक पक्का और द्रुतगामी रास्ता है अपने भ्रूमध्य स्थित कूटस्थ चैतन्य पर ध्यान करना।“  पुराणों से लेकर विज्ञान तक की बातों और नए-पुराने योगियों के मंतव्यों से शांभवी महामुद्रा की अहमियत का सहज अंदाज लगाया जा सकता है।  

महानिर्वाण तंत्र में एक कथा है। आदियोगी शिव जी ने पार्वती जी को चित्त की एकाग्रता, मन की शांति के लिए शांभवी मुद्रा का अभ्यास बताया था। अवसाद की विश्वव्यापी समस्या के आलोक में अमेरिका के कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में इस योग मुद्रा की शास्त्रसम्मत व्याख्या, उसके प्रभाव और उन प्रभावों की वैज्ञानिकता का अध्ययन किया गया तो खुद वैज्ञानिक चौंक उठे। इसलिए कि पुराण की बातें विज्ञान की कसौटी पर सच साबित होती दिखीं। शोध के दौरान भावनात्मक संतुलन, आंतरिक शांति और मानसिक स्पष्टता के अलावा मानव शरीर पर इसके कई अन्य सकारात्मक प्रभाव भी दिखे। अब तो पश्चिम का अशांत मन इसके पीछे दौड़ पड़ा है।

ईशा फाउंडेशन के संस्थापक और आध्यात्मिक गुरू सद्गुरू जग्गी वासुदेव के लिए वैज्ञानिक शोध के नतीजों से चौंकने जैसी कोई बात नहीं थी। वे तो योग शास्त्र और उसकी वैज्ञानिकता को पढ़ते, समझते व अनुभव करते ही इस मुकाम तक पहुंचे हैं। बात केवल महामुद्रा की जन स्वीकार्यता की थी। अनुभव बताता है कि विज्ञान जिस बात को हां कह दे, हम उसे आंख मूंदकर स्वीकार कर लेते हैं। लिहाजा, उन्होंने शांभवी मुद्रा और प्राणायाम की विधियों को अपने अनुभवों के आधार पर शोध कर योग की एक तकनीक विकसित कर दी। नाम दिया – इनर इंजीनियरिंग। इस लेख में इन्हीं बातों का विश्लेषण है।

पहले शांभवी मुद्रा की ऐतिहासिकता और उसके परिणामों की बात। कथा के मुताबिक, पार्वती जी ने शिव जी को अपने मन की उलझन बताई। कहा, “स्वामी मन बड़ा चंचल है। एक जगह टिकता नहीं।“ फिर उपाय पूछा, “क्या करूं? किसी विधि समस्या से निजात मिलेगी?” शिव जी एक सरल उपाय बता दिया – “दृष्टि को दोनों भौंहों के मध्य स्थिर कर चिदाकाश में ध्यान करें। मन शांत होगा, त्रिनेत्र जागृत हो जाएगा। इसके बाद बाकी सिद्धि के लिए कुछ शेष नहीं रह जाएगा।“ उन्होंने इस क्रिया को नाम दिया – शांभवी मुद्रा। पार्वती जी का एक नाम शांभवी भी है। ऐसा संभव है कि उन्होंने इस क्रिया का नामकरण अपनी पत्नी के नाम को ध्यान में रखकर और उन्हें खुश करने के लिए किया होगा। कहते हैं कि पार्वती जी ने भ्रूमध्य में आसानी से ध्यान लगाने के लिए बिंदी लगाई थी। तभी से महिलाओं में बिंदी लगाने का चलन शुरू हुआ।

खैर, हठयोग की इस गुप्त महामुद्रा से लोग अनजान थे। सत्रहवीं शताब्दी के वैष्णव संत महर्षि घेरंड ने शांभवी मुद्रा की विस्तृत व्याख्या की। स्वात्माराम ने अपनी हठयोग प्रदीपिका में इसकी चर्चा की। इस तरह लोगों को इसके बारे में पता चला। आधुनिक युग के अनेक संतों ने इन दोनों ऋषियों के योग साहित्य का भाष्य लिखा। स्वामी निरंजनानंद सरस्वती का भाष्य सरल व  गाह्रय है। उनके मुताबिक, शांभवी मुद्रा महामुद्रा इसलिए है कि जैसा कि महर्षि घेरंड ने कहा है, उसका स्थान वेद, शास्त्र और पुराण से भी ऊपर है। जब इसे जन-कल्याण के लिए उपलब्ध कराया गया तो बताया गया कि इसका अभ्यास करते समय आंखों की गति को नियंत्रित करके उसे श्वास के साथ जोड़ लिया जाना चाहिए। सावधानी इतनी कि जिनकी आंखों की शल्य-क्रिया हुई हो या ग्लूकोमा हो तो कुशल मार्ग-दर्शन में ही इसका अभ्यास करना है।

योग रिसर्च फाउंडेशन ने कई दशक पहले शांभवी महामुद्रा पर अध्ययन कर लिया था। इसलिए बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती और उनके आध्यात्मिक उत्तराधिकारी परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती लगातर कहते रहे कि शांभवी मुद्रा की क्रिया आज्ञा चक्र को जागृत करने की शक्तिशाली क्रिया है। दरअसल, इस क्रिया से अल्फा तरंगों में वृद्धि हो जाती है। तंत्रिका तंत्र और अंत:स्रावी ग्रंथियां संतुलित ढंग से काम करती हैं। पीयूष ग्रंथि के ह्रास की रफ्तार धीमी हो जाती है। शरीर के ऊर्जा केंद्र, जिन्हें चक्र कहा जाता है, जागृत होते हैं और उनसे निकले वाली ऊर्जा, जिसे योग में प्राण-शक्ति कहा जाता है, पुन: शरीर में स्थापित हो जाती है। फलस्वरूप चेतन मन शांत होता है। रचनात्मकता व एकाग्रता बढ़ती है। अवसाद व अनिद्रा की समस्या नहीं रह जाती।

योग शास्त्र के मुताबिक शरीर में मौजूद प्रमुख सात चक्र वास्तव में ऊर्जा केंद्र हैं और भावनाओं को नियंत्रित करने के लिए जाने जाते हैं। वे रीढ़ की हड्डी के बहुत अंत से शुरू होकर सिर के शिखर तक हैं। आत्मा, शरीर और स्वास्थ्य के बीच संतुलन बनाने में इन चक्रों की बड़ी भूमिका होती है। शांभवी मुद्रा की साधना उच्च स्तर की हो तो आज्ञा चक्र के पीछे और आगे के चक्रों यथा विशुद्धि चक्र और बिंदु के बीच संपर्क बन जाता है। मन और प्राण संयत होता है। एकाग्रता और मानसिक स्थिरता आती है। तनाव, क्रोध और चिंता का निवारण हो जाता है। आंखों की पेशियां मजबूत हो जाती हैं। आज्ञा चक्र पर शांभवी मुद्रा के विशेष प्रभावों के कारण ही इसे बच्चों और छात्रों के लिए सर्वाधिक उपयुक्त माना गया है।

कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के अध्ययन के परिणाम भी प्रकारांतर से योग रिसर्च फाउंडेशन के नतीजों जैसे ही हैं। फर्क केवल भाषा का है। एक योग की भाषा है तो दूसरा विज्ञान की। कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के मुताबिक शाम्भवी मुद्रा का अभ्यास करने वालों के मस्तिष्क में न्यूरल रिसाइकिलिंग सामान्य की तुलना में 241 फीसदी ज्यादा होती है। दूसरी तरफ पीनियल ग्रंथि के कमजोर होने की प्रक्रिया धीमी हो जाती है। तंत्रिका तंत्र और अंत:स्रावी ग्रंथियों के बीच बेहतर समन्वय बनता है। कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में 536 लोगों पर शांभवी मुद्रा के प्रभावों के अध्ययन किया गया था। एकाग्रता में 77 फीसदी, मानसिक स्पष्टता में 98 फीसदी, भावनात्मक संतुलन में 92 फीसदी, ऊर्जा के स्तर में 84 फीसदी, आंतरिक शांति में 94 फीसदी और आत्मबल में 82 फीसदी की वृद्धि हो गई थी।

सद्गुरू ने शांभवी महामुद्रा की वैज्ञानिकता और समय की नजाकत को ध्यान में रखकर ऑनलाइन प्रशिक्षण की तकनीक विकसित कर दी है। पर उन्होंने इसका नाम ऐसा रखा है कि सबको सहज स्वीकार्य हो जाए। वरना कई बार धार्मिक मान्यताएं आड़े आ जाती हैं। पहले नाम का फिर उसके प्रभाव का असर है कि भारत ही नहीं, दुनिया के अनेक देशों में शांभवी मुद्रा पर आधारित इनर इंजीनियरिंग एक खास वर्ग के बीच धूम मचा रही है। आईआईटी और सर गंगाराम अस्पताल ने मिलकर ईईजी के जरिए ईशा योग का प्रभाव देखा है। सद्गुरू जग्गी वासुदेव वैज्ञानिक शोध के आधार पर कहते हैं कि शाम्भवी क्रिया करने वालों में कार्टिसोल (तनाव को कम करने वाला हार्मोन) नियंत्रण में रहता है।

जाहिर है कि शांभवी मुद्रा बेहद प्रभावशाली योग मुद्रा है। “योगी कथामृत” के लेखक और पश्चिमी दुनिया में क्रिया योग का प्रचार करने वाले परमहंस योगानंद से किसी ने पूछ लिया – “क्रियायोग के अतिरिक्त और कोई वैज्ञानिक विधि है, जो साधक को ईश्वर की ओर ले जा सके?” पहमहंस जी बोले, “अवश्य। परमात्मा को पाने का एक पक्का और द्रुतगामी रास्ता है अपने भ्रूमध्य स्थित कूटस्थ चैतन्य पर ध्यान करना।“  पुराणों से लेकर विज्ञान तक की बातों और नए-पुराने योगियों के मंतव्यों से शांभवी महामुद्रा की अहमियत का सहज अंदाज लगाया जा सकता है।  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

नींद नहीं आती तो ट्रेन्क्विलाइज है और हृदय रोग है तो कोरेमिन है यह योग

शांति जैसे-जैसे गहरी होती है, दबे हुए संस्कार पहले विचार, फिर स्वप्न, फिर यौगिक स्वप्न के रूप में प्रकट होते हैं। साधक द्रष्टा भाव से इन्हें मानसिक रूप से देखते रहते हैं तो चेतना के एक-एक स्तर के संस्कार प्रकट होकर नष्ट होते जाते हैं। मानसिक उपद्रव शांत हो जाता है। नतीजतन, चेतना की गहराइयों में प्रवेश करने का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। इससे मानसिक बीमारियों से मुक्ति मिलती है और आध्यात्मिक उत्थान की इच्छा रखने वाले व्यक्तियों का काफी लाभ होता है।  

मन का उपद्रव किस तरह खत्म हो कि शांति मिले? दुनिया भर के लिए यह सवाल यक्ष प्रश्न की तरह है।   माता पार्वती ने आदियोगी शिव जी से कुछ ऐसा ही सवाल किया था तो शिव जी  ने एक सरल उपाय बता दिया था – “दृष्टि को दोनों भौंहों के मध्य स्थिर कर चिदाकाश में ध्यान करें। मन शांत होगा, त्रिनेत्र जागृत हो जाएगा।“ पर बात इतनी सीधी न थी। लिहाजा, सवाल दर सवाल खड़े होते गए। नतीजा हुआ कि आदियोगी शिव को कुल एक सौ बारह तरीके बतलाने पड़ गए थे।

कुरूक्षेत्र के मैदान में अर्जुन के सामने भी कुछ ऐसी ही समस्या उत्पन्न हुई थी। तब उन्होंने कृष्ण से सवाल किया था – “हे कृष्ण ! यह मन बड़ा चंचल है, प्रमथन स्वभाव वाला है और बड़ा ही दृढ़ व बलवान है। इसलिए इसे वश में करना वायु की तरह अति दुष्कर मानता हूं।“ प्रत्युत्तर में श्रीकृष्ण कहते हैं – “हे महाबाहो! नि:संदेह मन चंचल औऱ कठिनता से वश में होने वाला है। पर हे कुंती पुत्र अर्जुन, अभ्यास यानी बारंबार यत्न करने से यह वश में हो जाता है।“ हम जानते हैं कि भारत के संत-महात्माओं का इस सत्य से साक्षात्कार होता रहा है। तभी पूर्व मध्यकाल में संत कबीर ने बड़ी सरलता से कह दिया था – “मैं उस संतन का दास जिसने मन को मार लिया।“ यानी वे मन का मालिक बन गए और हो गया चित्त वृत्तियों का निरोध।

महर्षि पतंजलि के योग सूत्रों में दूसरा ही सूत्र है – योगश्चित्तवृत्ति निरोध:। यानी चित्त वृत्तियों का निरोध ही योग है। चित्त वैयक्तिक चेतना को कहा गया है, जिसके कई आयाम हैं। मांडुक्य उपनिषद में चेतना के चार आयामों का बेहतरीन वर्णन है। पर संतों और योगियों की बात अलग है। आम आदमी के मामले में ऐसी साधनाएं कैसे फलीभूत हों? मौजूदा हालात में आम आदमी जिन मानसिक यंत्रणाओं के दौर से गुजर रहा है, उसके लिए सजगता का विकास करना ही मुश्किल है। सजगता के विकास के लिए प्रत्याहार की सरल पर विज्ञानसम्मत विधि है योगनिद्रा। योग शिक्षक के रिकार्डेड निर्देश के आधार पर शवासन में मानसिक क्रियाएं करते जाना होता है। पर यह अभ्यास भी नहीं सध पाता। तुरंत ही नींद आ जाती है और यह योग विधि नींद की दवा बनकर रह जाती है। ऐसे में मन की एकाग्रता के लिए कोई भी योग विधि कैसे फलित हो? और जब मन एकाग्र ही न होगा तो ध्यान कैसे घटित होगा?  इसलिए मन का उपद्रव कहर बरपाते रहता है और उससे निबटने का सवाल आम आदमी के लिए यक्ष प्रश्न जैसा बना रहता है।

संकटकाल में ऐसी समस्या पहले भी उत्पन्न होती रही है। बीसवीं सदी के महानतम संत स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहा करते थे – “यदि साधक जीवन से थका है, चिंता-ग्रस्त है, उसके मस्तिष्क में या तो रकतप्रवाह ज्यादा है या कम है, हृदय में धड़कनें उठती हैं, पेट में वायु है और शरीर में रक्त संचार नियमित नहीं है तो उस अवस्था में उसे आलोक की प्राप्ति नहीं हो सकती है। चाहे उसे ध्यान की अच्छी से अच्छी विधि क्यों न मालूम हो। गुरू भी अच्छे हो सकते हैं और साधक भी। पर आलोक नहीं मिलेगा।“ परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं – “मानसिक उपद्रवों को दूर करने में दवाएं भी कारगर नहीं हैं। दुनिया में जितनी भी दवाएं हैं, उनमें सत्तर फीसदी दवाएं मनुष्य को तनाव-मुक्त करने के लिए होती हैं। ताकि वह अच्छी नींद सो सके। पर ज्यों-ज्यों दवा की, मर्ज बढता गया वाली कहावत चरितार्थ होती रहती है।“ हाल ही यह बात प्रमाणित भी हुई। वृहन मुंबई नगर निगम ने मानसिक स्वास्थ्य के लिए काम करने वाले संगठन एम पावर के साथ कोरोनाकाल में अवसादग्रस्त लोगों को लाभ पहुंचाने के लिए हेल्पलाइन शुरू किया था। यह संकटग्रस्त लोगों को इतना भाया कि देश भर के लोग मदद के लिए लाइन में लग गए।

फिर उपाय क्या है? एक कारगर उपाय सत्यानंद योग या बिहार योग में है। इस योग के प्रवर्तक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने एक नई योग विधि विकसित करके सजगता और एकाग्रता के मार्ग में बाधक तत्वों से निबटने की काट निकाली थी। उसे अंतर्मौन नाम दिया गया था। जिस तरह आंतों की सफाई के लिए शंखप्रक्षालन श्रेष्ठ है। उसी तरह आत्म-शुद्धि और चित्त-शुद्धि के लिए अंतर्मौन है। अंतर्मौन अजपा जप जैसी शक्तिशाली योग विधि को साधने के लिए भी कारगर है।

अजपा जप पर देश-विदेश में हुए वैज्ञानिक अध्ययनों से परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की इस अनुभूति को मान्यता मिली कि यह योग विधि यदि नींद नहीं आती तो ट्रेन्क्विलाइज है। दिल की बीमारी है तो कोरेमिन है। सिर दर्द है तो एनासिन है। अमेरिका के हृदयरोग विशेषज्ञ डॉ हर्बर्ट बेंसन मानव चेतना पर दुनिया भर में स्वीकार्य शोधों के लिए प्रसिद्ध हैं। उनकी पुस्तक “योर मैक्सिमम माइंड” मस्तिष्क की वैद्युतीय गतिविधि को लेकर भारत के वैज्ञानिक संतों की राय से मेल खाती हुई है। शोध पर आधारित इस पुस्तक में कहा गया है कि कुछ विशिष्ट प्रकार के ध्यान से मस्तिष्क के बाएं और दाएं गोलार्द्धों के बीच वैद्युतीय गतिविधि समन्वित हो जाती है। लेखक ने इस पुस्तक में भले ध्यान शब्द का प्रयोग किया है। पर जो विधि बतलाई वह अंतर्मौन या विपश्यना से मिलती-जुलती है।

यह योगसम्मत बात है कि अंतर्मन में धूल की तरह बैठे हुए संस्कार हमारे जीवन को बुरी तरह प्रभावित करते हैं। ऐसा मन में विचारों के बीच संघर्ष के कारण होता है। आजमाई हुई बात है कि जब ऐसी मन:स्थिति वाला व्यक्ति किसी आरामदायक आसन में बैठकर आंखें बंद कर लेता है और मन की एकाग्रता की परवाह किए बिना अपने शरीर के प्रति सजग हो जाता है तो साधनाक्रम में अवचेतन से नाता जुड़ता है। नतीजतन, दमित विचार स्वप्न के रूप में सतह पर आने लगते हैं। यह अंतर्मौन का शुरूआती परिणाम होता है। मानसिक रूप से मन की इन हरकतों को निरपेक्ष भाव से देखते जाने से अवचेतन के संस्कारों का क्षय होने लगता है। आशांति दूर होती है। अंत:करण शुद्ध होता। मानसिक एकाग्रता के लिए धारणा और फिर ध्यान का राजमार्ग तैयार होता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

योग को पुनर्जीवन देने में योगिनियों और संन्यासिनियों की बड़ी भूमिका रही

संत परंपरा में महिला संतों का बड़ा योगदान रहा है। पर उन्हें साहित्य में वह स्थान नहीं मिल पाया, जिसकी वे हकदार थीं। इसके उलट संन्यास-मार्ग पर चलने की इच्छा रखने वाली मातृ-शक्ति को सामाजिक कारणों से प्रोत्साहित नहीं किया गया। फिर भी अदिति से लेकर शतरूपा तक और गार्गी से लेकर मैत्रेयी व भामती तक की प्रेरणा और दैवयोग से अनेक महिलाएं संन्यास मार्ग के पथरीले रास्तों से आगे बढ़ गईं। इनमें मीराबाई, अक्का महादेवी, शारदा मॉ, संत अवैय्यार, भैरवी ब्राह्मणी, संत आंडाल, जूना अखाड़ा की सुखमन गिरि, भगवती माई, सुभद्रा माता, विष्णु गिरि , साध्वी ऋतंभरा, स्वामी सत्यसंगानंद सरस्वती, योगिनी शांभवी, साध्वी भगवती सरस्वती, गुरूमाई चिद्वविलासानंद, महंत दिव्या गिरि आदि उल्लेखनीय हैं। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस और महाशिवरात्रि के आलोक में महिला संतों और योगियों की भूमिकाओं की एक झांकी प्रस्तुत है।   

योग के आदिगुरू शिव हैं, यह निर्विवाद है। पर कल्पना कीजिए कि शक्ति-स्वरूपा पार्वती ने यदि मानव जाति के कल्याण के लिए, आत्म-रूपांतरण के लिए शिव से 112 समस्याओं का समाधान न पूछा होता तो क्या योग जैसी गुप्त विद्या सर्व सुलभ होने का आधार तैयार हुआ होता? मत्स्येंद्रनाथ का प्रादुर्भाव हुआ होता? गोरखनाथ और नाथ संप्रदाय के साथ ही पाशुपत योग के रूप में हठयोग, राजयोग, भक्तियोग, कर्मयोग आदि से आमजन परिचित हुए होते? कदापि नहीं। सच तो यह है कि योग की जितनी भी शाखाएं हैं, सबका आधार शिव-पार्वती संवाद ही है। अलग-अलग काल खंडों में भी योग को पुनर्जीवन देने में योगिनियों और संन्यासिनियों की भी बड़ी भूमिका रही। पर उन्हें योगियों की तुलना में समुचित स्थान नहीं मिल पाया। समाज में पुरूषों की प्रधानता इसकी बड़ी वजह रही होगी।

महिला दिवस पर मातृ-शक्ति का अभिवादन। तीन दिन बाद ही महाशिवरात्रि भी है। मुझे लगता है कि इन दोनों ही दिवसों के आलोक में शिव-शक्ति की महिमा को एक अलग दृष्टिकोण देखने का मकूल समय है। तब योग और अध्यात्म की दुनिया मे संन्यस्थ महिलाओं के योगदान की अनिवार्यता और उसके महत्व को समझना आसान होगा। तंत्रशास्त्रके मुताबिक शिव अर्थात पुरूष या शुद्ध चेतना और प्रकृति अर्थात देवी या शक्ति शरीर में होती हैं। इन दोनों ही शक्तियों का जागरण और उनका मिलन ही योग का महान लक्ष्य है। शक्ति शरीर के मूलाधार चक्र में सोई रहती है, जिसे यौगिक क्रियाओं से जागृत करके ऊपर सहस्रार चक्र तक ले जाना होता है। दूसरी तरफ शिव यानी शुद्ध चेतना की जागृति होती है तो शिव और शक्ति का मिलन होता है। इससे त्रिगुणात्मक सृष्टि की रचना होती है। पर इन दोनों को अलग कर देने से शून्य की, निर्वाण की, मोक्ष की स्थिति आती है। तंत्र आधारित योग का यही मार्ग है। इसलिए ध्यान के समय कल्पना की जाती है कि शुद्ध चेतना ऊर्ध्वगामी है। ताकि दोनों शक्तियों का मिलन हो सके।

आध्यात्मिक उत्थान और योग के सर्वाधिक लाभों के लिहाज से शिवरात्रि का बड़ा महत्व है। “मीरा के प्रभु गहर गंभीरा, हृदय धरो जी धीरा। आधी रात प्रभु दरसन दीन्हों, प्रेम नदी के तीरा।।“ परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती मीराबाई के इस पद के जरिए महाशिवरात्रि का महत्व समझाते थे। वे कहते थे कि चेतना के लिए भी दिन, शाम और रात निर्धारित है। जागृत अवस्था में चेतना बाहर की ओर विचरण कर रही होती है तो दिन। इंद्रियों का संबंध बाहर से टूट जाए और केवल विचार रह जाए तो शाम। इंद्रियों का संबंध बाहर से टूट जाए और विचार भी न रहे तो रात। शिवरात्रि में यहीं अंतिम अवस्था रहती है। यानी इस अवस्था में जन्मों-जन्मों की वृत्त्तियों और खराब संस्कारों से मुक्ति पाने का विधान बताया गया है। शिवजी की बारात में भूत-पिशाच की उपस्थिति प्रतिकात्मक है। वे जन्मो की वृत्तियों के प्रतीक हैं। आधी रात को साधना के जरिए उनसे मुक्ति मिलनी होती है। इस लिहाज से शिवरात्रि आध्यात्मिक उत्थान और योग-शक्ति के जागरण का अनुष्ठान है।   

अब बात आध्यात्मिक दुनिया में मातृ-शक्ति की उपस्थिति और उनकी भूमिकाओं की। वैदिक काल में महिलाओं की श्रेष्ठता सहज स्वीकार्य थी। कम से कम 21 विदुषी महिलाओं का स्थान ऋषियों के समतुल्य था। इनमें अदिति से लेकर शतरूपा तक और गार्गी से लेकर मैत्रेयी, चिन्न मुकुंदा व भामती तक के नाम हैं। वे पुरूषों के साथ शास्त्रार्थ तक करती थीं। योग के ज्ञात इतिहास में नाथ संप्रदाय की योगिनियों की बड़ी भूमिका रही है। उन योगिनियों का सशक्त संप्रदाय हुआ करता था। पथ विचलन न हो, इसके लिए योगियों के कानों की यौन नाड़ियों पर भी छिद्र बनाकर कुंडल और योगिनियों को बाली पहना दिया जाता था। आज भी ओड़ीशा के दो और मध्य प्रदेश के दो चौसठ योगिनी मंदिर योगिनियों की मजबूत उपस्थिति के जीवंत प्रमाण हैं। भारत में तंत्र विद्या का जैसे-जैसे लोप होता गया, योगिनी संप्रदाय सिकुड़ता गया।

कालांतर में आदिगुरू शंकराचार्य द्वारा स्थापित दशनामी संन्यास परंपरा के तहत महिलाओं को दीक्षित करने की परंपरा शुरू की गई। इन्हें संन्यासिनी कहा गया। पर फिर परिस्थितियां कुछ इस तरह निर्मित हुईं कि योग महिलाओं के लिए मानो वर्जित विषय होता गया। उनकी आध्यात्मिक उन्नति के मार्ग लगभग बंद कर दिए गए। बावजूद दैवयोग से कई महिला संतों ने अपनी विशिष्ठ जगह बनाई। बारहवीं शताब्दी में केरल की महादेवी अक्का और सोलहवीं शताब्दी में संत रविदास की शिष्या मीराबाई भक्ति-मार्ग की महत्वपूर्ण संत हुईं। संत लल्लेश्वरी, सहजोबाई, दयाबाई, मुक्ताबाई, बहिनाबाई, महारानी चुड़ाला, चिन्न मुकुंदा, शारदा मॉ, उभया भारती, संत अवैय्यार, भैरवी ब्राह्मणी, संत आंडाल, जूना अखाड़ा की सुखमन गिरि, भगवती माई, सुभद्रा माता, विष्णु गिरि आदि की भी मजबूत उपस्थिति रही। पर इन्हें अपवाद स्वरूप ही समझा जाना चाहिए। इन संतों में चिन्न मुकुंदा आदिगुरू शंकराचार्य की तांत्रिक गुरू थीं तो भैरवी ब्राह्मणी रामकृष्ण परमहंस की तांत्रिक गुरू थीं। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की तांत्रिक गुरू जूना अखाड़े की सुखमन गिरि थीं। 

बीसवीं सदी में मॉ आनंदमयी की मजबूत उपस्थिति से परिस्थितियां तेजी से बदली। सन् 1896 में पूर्वी बंगाल में जन्मी मॉ आनंदमयी सर्वाधिक प्रभावी व तेजस्वी आध्यात्मिक विभूति थीं। सन् 1982 में भौतिक शरीर त्यागने तक महिलाओं की संन्यास परंपरा को मजबूती प्रदान किया। उस दौरान बड़ी संख्या में महिलाओं को संन्यास की दीक्षा मिली। उधर पुरूष संन्यासियों में स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने महिलाओं को संन्यासिनी बनाने में अग्रणी भूमिका निभाई। वरना बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ तक गिनती की तपस्विनियों, संन्यासिनियों को छोड दें तो महिला संन्यासी व योगी ढूंढ़े नहीं मिलती थीं। ले देकर लातविया मूल की इंद्रा देवी का नाम इसलिए लिया जाने लगा था कि उन्होंने आधुनिक युग में हठयोग के पितामह माने जाने वाले टीकृष्णामाचार्य से योग-शिक्षा हासिल करके उसे पश्चिमी दुनिया में फैलाया था। 

खैर, इक्कीसवीं शताब्दी महिलाओं के दृष्टिकोण से योग और अध्यात्म की जमीन काफी उर्वर दिख रही है। वृंदावन में वात्सल्य ग्राम के सपने को साकार करने वाली साध्वी ऋतंभरा और रिखियापीठ (देवघर, झारखंड) की प्रमुख संन्यासी स्वामी सत्संगानंद सरस्वती लेकर महाराष्ट्र में भगवान नित्यानंद की सिद्ध योग परंपरा की अगुआई करने वाली गुरूमाई चिद्विलासानंद तक अनेक महिला संन्यासी और योगी लाखों लोगों के जीवन को योगमय और सुखमय बनाने में तल्लीन हैं। योगिनी शांभवी और साध्वी भगवती सरस्वती ऋषिकेश में विशेष तौर से महिलाओं के आध्यात्मिक उत्थान के लिए सक्रिय हैं। महामहोपाध्याय स्वामिनी ब्रह्मप्रकाशानंद सरस्वती वेदांत दर्शन के प्रचार में उल्लेखनीय भूमिका निभा रही हैं। ऐसे और भी कई नाम हैं। अब तो जूना अखाड़े से संबंधित माई बाड़ा भी महंत दिव्या गिरि की अगुआई में बड़ी संख्या में महिलाओं को संन्यास-मार्ग पर आगे बढ़ाने के काम में जुटा हुआ है।

मौजूदा समय में प्राण-शक्ति के निम्नतर स्तर के कारण लोग नाना प्रकार की समस्याओं से जूझ रहे हैं। वैसे में जीवन को व्यवस्थित करने के लिए माता पार्वती द्वारा शिव से पूछे गए प्रारंभिक नौ सवालों की अहमियत बढ़ गई है। वे श्वास-प्रश्वास यानी प्राण-शक्ति की अभिवृद्धि से संबंधित हैं। जाहिर है कि यह वक्त योगिनियों और संन्यासिनियों की अहमियत को स्वीकारते हुए उनके संदेशों को जन-जन तक ले जाने का भी है। 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

किसी अनजान के प्रति सहज आकर्षण मित्रता बढ़ाने का दैवीय आदेश माना जाना चाहिए : परमहंस योगानंद

पुनर्जन्म होता है, इसके उदाहरण अक्सर मिलते रहते हैं। बंगलुरू स्थित नेशनल इंस्टीच्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइसेंज (नीमहांस) के वरीय मनोचिकित्सक डॉ सतवंत के पसरीचा सन् 1974 से ही पूर्व जन्म की घटनाओं का अध्ययन कर रहे हैं। उन्होंने अब तक पांच सौ से ज्यादा मामलों का अध्ययन किया है। उनका निष्कर्ष है कि पांच साल तक की उम्र के सत्तर फीसदी बच्चों को पूर्वजन्म की घटनाएं याद थी। पर आठ साल या किसी मामले में दस साल की उम्र होते-होते पूर्वजन्म की यादें धूमिल हो जाती थीं। इन घटनाओं से योगशास्त्र के संचित कर्मों वाले सिद्धांत की पुष्टि होती है।

क्या पुनर्जन्म होता है और क्या पूर्व जन्म के संचित कर्मों की हमारे मौजूदा जीवन में कोई भूमिका होती है? इन सवालों को लेकर सदियों से मंथन किया जाता रहा है। हिंदू और इसाई से लेकर अनेक धर्मों में शास्त्रसम्मत तरीके से इन सवालों के पक्ष में अनेक तर्क उपस्थित किए जाते रहे हैं। आधुनिक विज्ञान इन सवालों के पक्ष में दिए जाने वाले कई तर्कों से असहमत नहीं है। बल्कि वैज्ञानिकों ने क्वांटम सिद्धांत के जरिए मानव चेतना के रहस्यों से पर्दा उठाने में बड़ी भूमिका निभाई है। इससे इस सिद्धांत को बल मिलता है कि आत्म-चेतना का अस्तित्व मृत्यु के बाद भी बना रहता है और नए शरीर में प्रवेश करता है। ऐसे में यह सवाल लाजिमी है कि यदि पुनर्जन्म होता है और यौगिक विधियों के जरिए अवचेतन शक्तियों को जागृत करके संचित कर्मों का विकास संभव है तो अच्छे संचित कर्मों का विकास करके अपने जीवन को खुशनुमा क्यों न बनाया जाए।

भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया भर में आत्म-चेतना के संदर्भ में जीने की कला पर काफी काम हुआ है। योगियों ने अनुभव किया कि अवचेतन शक्तियों को जागृत करके अतीन्द्रिय शक्तियों का विकास करना संभव है। दूसरी तरफ आम आदमी योग की बदौलत स्मरण शक्ति बढ़ा सकता है, पूर्व जन्म के मित्रों व स्नेही जनों की पहचान करके इस जीवन को आनंदित कर सकता है और लोकप्रियता का शिखर छू सकता है। अनेक बार हम सब अपने जीवन में अनुभव करते हैं कि यात्रा के दौरान सामने की सीट पर बैठे किसी अपरिचित के प्रति सहज आकर्षण होता है। इसके उलट किसी को देखकर अच्छा भाव उत्पन्न नहीं होता। इस तरह की घटनाएं सबके जीवन में कहीं भी, कभी भी और किसी रूप में घटित होती ही है। कई बार कोई ऐसा व्यक्ति मदद के लिए खड़ा हो जाता है, जिससे अपेक्षा न थी। पर सजगता के अभाव में हम इस बात पर मनन नहीं कर पातें कि ऐसा क्यों होता है।

परमहंस योगानंद बीसवीं सदी के प्रारंभ में ही इस तरह के संकेतों को जीवन के लिए अहम् मानते थे। कहते थे कि ऐसे संकेतों से मिले सूत्रों की पहचान कर जीवन को उन्नत बनाया जाना चाहिए। इस संदर्भ में 22 जनवरी 1939 को कैलिफोर्निया स्थित सेल्फ-रियलाइजेशन फेलोशिप मंदिर का उनका व्याख्यान उल्लेखनीय है। उन्होंने कहा था कि दो अपरिचितों का एक दूसरे के प्रति सहज ही आकर्षित होना मित्रता बढ़ाने का दैवीय आदेश माना जाना चाहिए। ऐसा आकर्षण इस बात का द्योतक है कि उन दोनों के बीच पूर्व जन्म में मित्रता या कोई प्रिय संबंध रहा होगा। इसलिए पूर्व जन्म के संबंधों की नींव पर इस जन्म में महल खड़ा किया गया तो जीवन सुखमय और आनंदमय हो जाएगा। पर इसके साथ ही कहते थे कि दिव्य आकर्षण और सामान्य आकर्षण में भेद करने का विवेक होना चाहिए। इसलिए कि सामान्य आकर्षण का आधार दूषित इच्छाएं और स्वार्थी कार्य होते हैं।

इसी तरह परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती योग की शक्ति से स्मरण शक्ति बढ़ाने और पूर्व जन्म के संचित ज्ञान में अभिवृद्धि करने पर काफी बल देते थे। वे कहते थे कि ये दोनों ही बातें शास्त्रसम्मत तो हैं ही, विज्ञानसम्मत भी हैं। दरअसल, स्वामी सत्यानंद सरस्वती विभिन्न यौगिक विधियों का देश-विदेश में वैज्ञानिक विश्लेषण करने कराने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे। इसलिए वे बार-बार कहते थे कि योग की जरूरत सबसे ज्यादा बच्चों को है। आठ साल की उम्र से योगाभ्यास कराया जाना चाहिए। ताकि पीनियल ग्रंथि या योग की भाषा में आज्ञा चक्र जागृत हो जाए। नतीजतन, संचित कर्मों के आधार पर जिसमें जैसा बीज होगा, उस अनुपात में उसका बेहतर तरीके से प्रतिभा का विकास होगा। यदि संचित कर्म सही नहीं है तो उसका क्षय भी किया जा सकेगा। वे कहते थे कि विज्ञान आज न कल मानेगा, पर आत्मज्ञानी जानते हैं कि संचित कर्म जीवन में किस तरह फलित होता है। इस संदर्भ में स्वामी जी से ही जुड़े एक वाकए की चर्चा यहां प्रासंगिक है। सत्संग के दौरान उनसे किसी ने पूछ लिया कि आप संन्यासी क्यों बन गए? स्वामी जी का उत्तर था – संन्यासी कोई बनता नहीं, बनकर आता है। इस जन्म में तो योग साधानाओं के जरिए संचित कर्मों का केवल विकास करना होता है।

स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने फ्रांस रेडियो को दिए साक्षात्कार में कहा था – “मृत्यु केवल प्रस्थान है। जब भौतिक शरीर मर जाता है, सूक्ष्म और कारण शरीर, जीवात्मा या आपका अपना व्यक्तित्व एक साथ भौतिक शरीर को छोड़ देते हैं। तब आपकी कामनाओं और कर्मों की पूर्ति के लिए वे एक नया शरीर प्राप्त करते हैं।“ यानी पिछले जन्म में आप योगी रहे हैं तो इस जन्म में आपकी प्रवृत्ति स्वाभाविक रूप से उसी तरफ होगी। सिर्फ अवचेतन के तल तक पहुंच बनाकर इस प्रतिभा की पहचान और उसका विकास करना होता है। हम सब व्यवहार रूप में भी देखते हैं कि एक ही माता-पिता की चार संतानों की एक ही परिवेश में परिवरिश होने के बावजूद उनकी प्रतिभाएं, उनकी प्रवृत्तियां अलग-अलग होती हैं। योगी इसे संचित कर्मों का ही नतीजा मानते हैं।

उपरोक्त तथ्यों से साफ है कि संचित कर्मों में सफलता और विफलता के सूत्र छिपे हुए हैं और उन्हें योग की बदौलत डिकोड करने की जरूरत है। इस दृष्टिकोण से कोरोनाकाल में विपदाओं के मध्य स्वर्णिम भविष्य के लिए एक अवसर भी उपस्थित हुआ है। विश्वसनीय दवा के अभाव में लोगों को देशज चिकित्सा पद्धतियों खासतौर से योग से बड़ी आश्वस्ति मिली। अनेक लोग खुद को संकट से बाहर निकालने में सफल हुए। स्वस्थ्य लोग स्वस्थ्य बने रहें, इसलिए योग करते रहे। अब योगाभ्यास को उच्चतर स्तर पर ले जाने का वक्त आ गया है। यदि योग को स्वास्थ्य तक सीमित न रखकर उसके अगले स्तर के अभ्यासों की बदौलत आध्यात्मिक उत्थान का मार्ग प्रशस्त किया जाए या कम से कम आज्ञा चक्र को ही जागृत करने का प्रयास किया जाए तो अवचेतन के अच्छे गुणों का विकास करना आसान होगा, जो सुखद और आनंदमय जीवन की कुंजी है। योगियों के मुताबिक, इस काम के लिए प्रत्याहार, धारणा व ध्यान की क्रमिक साधना फलदायी होगी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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