श्रीकृष्ण की बांसुरी, गोपियां और स्वामी सत्यानंद की दिव्य-दृष्टि

रासलीला, श्रीकृष्ण की बांसुरी, उसकी सुमधुर धुन और गोपियां…. इस प्रसंग में बीती शताब्दी के महानतम संत परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की व्याख्या एक नई दृष्टि प्रदान करती है। यह शास्त्रसम्मत है, विज्ञानसम्मत भी है।

जन्माष्टमी के मौके पर विशेष तौर से ज्ञान मार्ग के लोगों के लिए एक प्रेरक कथा। परमगुरू और कोई सौ से ज्यादा देशों में विशाल वृक्ष का रूप धारण कर चुकी बिहार योग पद्धति के जन्मदाता परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती के श्रीमुख से सत्संग के दौरान अनेक भक्तों ने यह कथा सुनी होगी। फिर भी यह सर्वकालिक है। प्रासंगिक है।  

श्रीकृष्ण को अपनी बांसुरी से बेहद प्रेम था। सोते-जगते, उठते-बैठते हर समय उनके पास ही होती थी। कथा है कि उनकी दिव्य ऊर्जा के प्रभाव के कारण बांसुरी की ध्वनि इतनी शक्तिशाली हो गई थी कि संपूर्ण सृष्टि का निर्माण हो गया। श्रीकृष्ण के प्रेमरस के लिए व्याकुल रहने वाली गोपियों को बड़ा अजीब लगता था। सूखे और खोखले बांस से बनी बांसुरी श्रीकृष्ण को इतनी प्यारी क्यों है? उन सबसे रह न गया तो एक दिन सीधे-सीधे बांसुरी से ही पूछ लिया – बांसुरी, हमें सच-सच बताओ कि तुममें आखिर ऐसी क्या बात है कि भगवान तुम्हें दिन-रात अपने पास रखते हैं और तुम उनकी पटरानी की तरह साथ-साथ रहती हो? तुम तो जंगली और सूखे बांस से बनी हो, जिसका न तो कोई रंग, न रूप और न अन्य कोई आकर्षण। फिर तुमने ऐसा कौन-सा जादू कर दिया है कि भगवान तुम्हें अपने श्रीमुख से लगाते हैं तो तुमसे ऐसी सुमधुर आवाज निकलती है कि मोर पागलों की तरह नाचने लगते हैं। पहाड़ों में अजीब शांति छा जाती है। जीव-जंतु मूर्तिवत हो जाते हैं। तुमसे निकली सुरीली धुन से हम गोपियां भी सुध-बुध खो बैठती हैं और पागलों की तरह कृष्ण से मिलने दौड़ पड़ती हैं। ऐसा लगता है कि तुम बांसुरी नहीं, जादू की छड़ी हो।

बांसुरी तो अपने प्रियतम के प्रेमरस में सराबोर थी। उसे क्या पता जादू क्या होता है। उसे तो यह भी पता नहीं कि उससे इतनी सुरीली आवाज कैसे निकलती है कि गोपियों के मन में इतने सारे सवाल चल रहे हैं। लिहाजा उसने जबाव दिया – मुझे न तो जादू करना आता है और न सम्मोहन कला आती है। मैं तो जंगलों में पलती-बढ़ती हूं। अंदर से सदा खोखली ही रहती हूं। मेरे इष्टदेव को मेरी कमियों की जानकारी है। फिर भी वे प्रसन्न रहते हैं। वे एक ही बात कहते हैं – “अपने आप को खाली रखो, मैं तुम्हें भर दूंगा।“  मैं जिसे अपनी कमजोरी समझती रही हूं, भगवान की नजर में वही मेरी शक्ति है। इसलिए आपलोग भी अपने वैभव, अपनी सुंदरता व विद्वता के अभिमान से मुक्त होकर अपने को खाली कर दें तो भगवान दिव्य प्रेम से भर देंगे।“

श्री स्वामी जी कहते थे – श्रीकृष्ण की रासलीला वाली बात हम सबको पता है। कथा है कि श्रीकृष्ण आधी रात को जंगल में जा कर जब बांसुरी बजाने लगे तो उस बांसुरी की मधुर धुन सुनकर गोपिकाएं मदहोश हो गईं। जो जिस अवस्था में थीं, उसी अवस्था में जंगल की तरफ दौड़ पड़ीं और बांसुरी की सुरीली धुन पर नाचने लगी थीं। इस प्रसंग को इस तरह समझना चाहिए और यही शास्त्रसम्मत है, यही विज्ञानसम्मत भी है। यह शरीर भी सूक्ष्म रूप से कृष्ण की वंशी ही है। उसकी सुमधुर आवाज आत्मा है। इंद्रियों को वश में कर लेना गोपियां हैं। गो मतलब इंद्रिय और पी मतलब उसे पी जाना। अर्थात कृष्ण की मुरली के धुन पर गोपियों के खींचे चले आने से अभिप्राय है आत्मा की आवाज पर इंद्रियों का वश में हो जाना। योग साधक जब साधना में लीन होता है, ध्यानमग्न होता है तो उसकी अंतर्रात्मा की आवाज से इंद्रियां वशीभूत हो जाती हैं और झूमने लगती हैं, नाचने लगती हैं। यानी वे वश में आ जाती हैं। आत्मा में लीन हो जाती हैं। यही योग की पूर्णता है, यही भक्ति की पराकाष्ठा है, यही मनुष्य के जीवन का पूर्णत्व है। रासलीला का अभिप्राय यही है।“

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