ट्रिपल वायरस और योग की शक्ति

किशोर कुमार

नई दिल्ली में 13-14 मार्च को आयोजित योग महोत्‍सव के साथ योग दिवस के एक सौ दिन की उल्‍टी गिनती ऐसे समय में शुरू हो रही है, जब पूरा देश ट्रिपल वायरस के हमलों से जूझ रहा है। दो वायरस तो ऐसे हैं, जिनके नाम से हम सब परिचित हो चुके हैं। वे हैं – एच3एन2 इंफ्लुएंजा व कोरोनावायरस। तीसरा वायरस है – एडिनोवायरस। ज्यादातर बच्चे इस वायरस के शिकार हो रहे हैं। सभी वायरस के लक्षण लगभग एक जैसे हैं, जिनसे फेफड़ों पर प्रतिकूल असर हो रहा है। हमने दो साल पहले कारोनाकाल के दौरान विभिन्न स्तरों पर किए गए प्रयोगों और अनुभवों के आधार पर देखा कि श्वसन-तंत्र को वायरस के हमलों से बचाने में योग खासतौर से प्राणायाम और नेति-कुंजल कितने कारगर साबित हुए थे। ये योग विधियां ही मौजूदा संकट से भी बचाएंगी। इससलिए आयुष मंत्रालय का फोकस भी इन योग विधियों पर ज्यादा रहना है।  

भारत में कोरोना महामारी फैलने के बाद केंद्र सरकार के विज्ञान एवं प्रावैधिकी मंत्रालय को विभिन्न संस्थानों के लगभग पांच सौ ऐसे शोध-पत्र मिले थे, जिनमें दावा किया गया था कि यौगिक उपायों की बदौलत कोरोना संक्रमण से बचाव संभव है। उन शोध-पत्रों में एक नेति-कुंजल पर आधारित था। खास बात यह कि वह रिपोर्ट योग विज्ञानियों ने नहीं, बल्कि चिकित्सा विज्ञानियों ने शोध के बाद तैयार की थी। उन्होंने माना कि कोरोना संक्रमण या इंफ्लुएंजा से बचाव में नेति और कुंजल बड़े काम के हैं। राजस्थान के चार चिकित्सा संस्थानों एसएमएस मेडिकल कालेज के टीबी एवं चेस्ट रोग विभाग, इंटरनेशनल इंस्टीच्यूट ऑफ हेल्थ मैनेजमेंट रिसर्च (आईआईएचएमआर) के महामारी विज्ञान विभाग, आस्थमा भवन के शोध प्रभाग और राजस्थान हास्पीटल के छह चिकित्सकों ने कोई 28 दिनों तक अध्ययन किया था। उस दौरान नेति और कुंजल क्रियाओं के बेहतर परिणाम मिले थे।

इसी तरह फेफड़ों सहित तमाम श्वसन-तंत्र को संक्रमण के कुप्रभावों से बचाने और रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए प्राणायाम की सिफारिश पूरी दुनिया में की जा रही है। वैज्ञानिक तथ्यों के आलोक में यह जानना जरूरी है कि प्राणायाम का इतना महत्व क्यों है? योग रिसर्च फाउंडेशन के मुताबिक, सामान्य श्वास में ली गई पांच सौ मिली लीटर हवा में ऑक्सीजन का अनुपात 20.95 फीसदी, नाइट्रोजन का 79.01 फीसदी और कार्बन डायऑक्साइड का 4 फीसदी रहता है। पांच सौ मिली लीटर में डेड़ सौ मिली लीटर हवा श्वास नलिकाओं में रहती है। बाकी हवा वायु कोशों में पहुंचती है। उससे ऑक्सीजन रक्त में जाता है और रक्त से कार्बन डायऑक्साइड हवा में आता है। पर व्यवहार रूप श्वास के जरिए इतनी हवा अंदर जाती नहीं। महाराष्ट्र के लोनावाला स्थित कैवल्यधाम योग संस्थान में 204 स्वस्थ्य लोगों की श्वसन क्रिया का अध्ययन किया गया था। पाया गया कि उनमें से 174 लोगों की नासिकाओं में श्वास का असामान्य प्रवाह था। स्पष्ट है कि यौगिक श्वसन के अभाव में फेफड़े के काम करने की क्षमता बेहद कम होती है। यदि किसी बीमारी की वजह से फेफड़ा क्षतिग्रस्त हो गया तो मुश्किलें बढ़ जाती हैं। समस्याएं यहीं से शुरू हो जाती हैं।

योगियों का कहना है कि वायरसों को असरहीन बनाने में प्राणायाम इसलिए लाभकारी है कि वह रोग प्रतिरोधक क्षमता मजबूत रखता है, जिससे सर्दी, जुकाम और फेफड़े पर वायरस का असर नहीं होने देता है। शरीर में यदि वायरस के लक्षण प्रकट हुए भी तो उनके बेअसर होते देर नही लगती। इस संदर्भ में कुछ वैज्ञानिक अध्ययन रिपोर्ट गौर करने लायक हैं। नेशनल सेंटर फॉर बायोटेक्नोलॉजी इन्फॉर्मेशन के एक अध्ययन में बताया गया कि प्राणायाम के जरिए इम्यून सिस्टम को मजबूत किया जा सकता है। हॉवर्ड विश्वविद्यालय में कार्डियो फैकल्टी में शोध निर्देशक डॉ. हर्बर्ट वेनसन के मुताबिक नियमपूर्वक दस मिनट प्रतिदिन प्रणायाम किया जाए, तो शरीर में ऐसे बदलाव आने लगते हैं कि वह रोग और तनाव के आक्रमणों का मुकाबला करने लगता है।

जापान की ओसाका प्रेफेक्चर यूनिवर्सिटी के नैदानिक पुनर्वास विभाग ने मध्य आयुवर्ग के लोगों की श्वास-प्रश्वास संबंधी बीमारी पर प्राणायाम के प्रभावों पर अध्ययन किया है। पचास से पचपन साल उम्र वाले 28 ऐसे लोगों पर प्राणायाम का प्रभाव देखा गया जो शारीरिक रूप से निष्क्रिय जीवन व्यतीत कर रहे थे। इन्हें दो ग्रुपों में बांटकर एक ग्रुप को आठ सप्ताह तक प्राणायाम की विभिन्न विधियों खासतौर से अनुलोम विलोम, कपालभाति और भस्त्रिका का अभ्यास कराया गया। नतीजा हुआ कि योग ग्रुप के लोगों की श्वसन क्रिया दूसरे ग्रुप के लोगों की तुलना में काफी सुधर गई। साथ ही अन्य शारीरिक व्याधियों से भी मुक्ति मिल गई। शरीर के लचीलेपन में सुधार हुआ।

बीते चार दशकों में प्राणायाम के प्रभावों पर दुनिया भर में काफी अध्ययन किए गए। टेक्सास य़ूनिवर्सिटी न्यूरो वैज्ञानिक डॉ स्टीफन एलिएट ने अपने शोध से निष्कर्ष निकाला कि श्वास की गति का हृदय गति से सीधा संबंध है। उन्होंने इलेक्ट्रोमायोग्राफी की सहायता से प्रमाणित किया कि यौगिक श्वसन से हृदय को स्वस्थ रखा जा सकता है। योग रिसर्च फाउंडेशन के अध्ययनों के मुताबिक नाड़ी शोधन प्राणायाम से तनाव कम होता है। रक्तचाप सामान्य रहता है और फेफड़ों की शकित व क्षमता बढ़ती है। अमेरिका के बैचलर यूनिवर्सिटी के अनुसंधान के नतीजे भी कुछ ऐसे ही थे।

वैसे, प्राणायाम की महत्ता तो वैदिक काल से स्वयं सिद्ध है। श्रीमद्भगवतगीता में प्राणायाम का महत्व बतलाया गया है। शिव स्वरोदय ग्रंथ के मुताबिक, देवी भगवान शिव से पूछती हैं कि इस दुनिया में मनुष्य का सबसे बड़ा मित्र कौन है तो शिव कहते हैं – “प्राण परम मित्र है, प्राण परम सखा है।“ हम जानते हैं कि इस प्राण-शक्ति का आधार श्वसन की प्रक्रिया ही है। इसी प्रक्रिया की बदौलत फेफड़ों की आंतरिक संरचना को कार्य करते रहने की शक्ति मिलती है।

श्वेताश्वर उपनिषद् कहा गया है कि ज शरीर योग की प्रक्रियाओं से गुजरता है, वह वृद्धावस्था, रोग और मृत्यु से मुक्त हो जाता है। इस तरह हम देखते हैं कि प्राणायाम स्वास्थ्य जीवन के लिए बहुमूल्य निधि है और यौगिक विधियों द्वारा ऐसी अवस्था पाई जा सकती है। इसलिए योग को अपने जीवन का अनिवार्य अंग और नियमित आदत बनाना समय की मांग है। दिल्ली स्थित आनंदबोध योग संस्थान के निदेशक और बिहार योग विद्यालय के एल्युमिनी शिवचित्तम मणि कहते हैं कि यदि इन योग विधियों का अभ्यास किया जाता रहा तो विकराल दिख रही समस्या कोई समस्या नहीं रह जाएगी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

आशु के रंग में सराबोर होते भक्त

किशोर कुमार

आशुतोष महाराज कोई नौ वर्षों से भौतिक शरीर में नहीं हैं। पर उनकी आध्यात्मिक ऊर्जा और ब्रह्मज्ञान विद्या का जादू देखिए कि देश-विदेश में फैले उनके लाखों अनुयायी उनके ही रंग में सराबोर रहते हैं। महाराज जी ने वैदिक ज्ञान की तर्कपूर्ण व वैज्ञानिक व्याख्या करके उसके प्रचार के लिए दिव्य ज्योति जागृति संस्थान और ज्ञान-संपन्न साधु-साध्वियों को आगे करके दिव्य ज्योति जलाई थी। उसकी आध्यात्मिक ऊर्जा निरंतर घनीभूत होती दिखती है। गौर करने लायक बात यह है कि आशुतोष महाराज की भौतिक रूप से अनुपस्थिति और उनके दिव्य ज्योति जागृति संस्थान को लेकर लगातर विवाद खड़े किए जाने के बावजूद सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह बना हुआ है।

वैसे, शास्त्रों में भी समाधि को लेकर व्याख्याएं की गईं हैं, जो थोड़े भिन्न प्रतीत होते हैं। चौदहवी सदी में श्रृंगेरी शारदा पीठम् के जगद्गुरू माध्वाचार्य विद्यारण्य ने अद्वैत वेदांत की व्याख्या करते हुए श्रीपंचदशी में कहा है – यद्यप्यसौ चिरं कालं समाधिर्दुर्लभो नृणाम्। यानी मनुष्य समाधि की अवस्था में सदा नहीं रह सकता। दूसरी तरफ, शिव पुराण की वायवीय संहिता में कहा गया है कि समाधि की स्थिति में योगी का स्वरूप शून्यवत प्रतीत होता है। योगी गहनतम योगनिद्रा में होते हैं। फिर भी वे स्वेच्छा से उससे बाहर ने में सक्षम होते हैं।

यक्ष प्रश्न सदैव बना रहता है कि समाधि में हैं, किसी अन्य सूक्ष्मलोक में हैं या फिर भौतिक शरीर त्याग चुके हैं? चिकित्सकों ने समाधि की खबरों के दूसरे दिन ही यानी 29 जनवरी 2014 को उन्हें “क्लीनिकली डेथ” घोषित कर दिया था। अदालत ने भी इस रिपोर्ट पर मुहर लगा दी थी। संस्थान के संचालक इन बातों से सहमत न हुए। शरीर को क्षति न पहुंचे, इसलिए उन्होंने उसे नूरमहल आश्रम में शून्य डिग्री तापमान पर रख दिया है। महाराज जी के आध्यात्मिक मिशन को आगे ले जाने के लिए समर्पित साध्वियां ऐतिहासिक और वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर बतलाती हैं कि महाराज जी समाधि में ही हैं और भक्तों को कभी न कभी दर्शन जरूर देंगे।

साध्वियां सप्रमाण बतलाती हैं कि जब भी गुरू समाधि में जाते हैं तो वे स्वयं नहीं उठतें। उन्हें उनके शिष्य ही उठाते हैं। ऐसा हर युग में किसी न किसी रूप में घटित हुआ है। सद्गुरू मछन्दरनाथ इसके एक उदाहरण हैं। वे तो कोई बारह वर्षों तक अलोप रहे। पर उनके पट्शिष्य गोरखनाथ ने अलख जगाई तो गुरू को प्रकट होना पड़ा था। द्वैतवाद के प्रवर्तक माध्वाचार्य जी को भी इसी तरह अपने शिष्य सत्यतीर्थ की प्रबल पुकार से द्रवित होकर प्रकट होना पड़ा था। आशुतोष महाराज के मामले में भी होगा। शिष्यों का दिव्यपुंज जब इकट्ठा होगा और उनके अंतर्जगत में महाराज जी उतरेंगे तो नूरमहल भी प्रकाश-पुंज से नहा जाएगा। महाराज जी अपनी भौतिक देह में प्रकट हो जाएंगे।        

पर भौतिक शरीर को नूरमहल में सुरक्षित रखा जाना और सद्गुरू मछन्दरनाथ के उल्लेख से आशुतोष महाराज की समाधि को लेकर एक नवीन दृष्टि भी बनती है। “अखंड ज्योति” में श्रीराम शर्मा आचार्य ने लिखा है कि नाथ सम्प्रदाय के आदिगुरु मछन्दरनाथ अपने भौतिक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में प्रवेश करने की “परकाया प्रवेश विद्या” जानते थे। तभी उन्होंने अपने शिष्य गोरखनाथ को स्थूल शरीर की सुरक्षा का भार सौंपकर एक मृत राजा के शरीर में सूक्षम रूप से प्रवेश किया था। ‘महाभारत के शान्ति पर्व’ में वर्णन है कि सुलभा नामक विदुषी अपने योगबल की शक्ति से राजा जनक के शरीर में प्रविष्ट कर विद्वानों से शास्त्रार्थ करने लगी थीं। उन दिनों राजा जनक का व्यवहार भी स्वाभाविक न रह गया था। आदि शंकराचार्य के बारे में भी ऐसा ही उल्लेख मिलता है। ये तमाम ऐसे योगियों के उदाहरण हैं, जिन्होंने किसी खास मकसद से परकाया प्रवेश किया और काम पूरे होते ही अपना भौतिक शरीर धारण कर लिया था। आशुतोष महाराज के मामले में इस दृष्टि से भी विचार किया जाना चाहिए।

दिव्य ज्योति जागृति संस्थान भारत सहित कोई पैतीस देशों में फैला हुआ है और 350 शाखाएं हैं। मुख्य आश्रम लुधियाना जिले के नूरमहल में है। सन् 1991 में तो यह संगठन बना ही था। पर लगभग दो दशक बाद ही यानी 28 जनवरी 2014 को महाराज जी समाधि में चले गए थे। जाहिर है कि इतने कम समय में संस्थान का व्यापक विस्तार दिव्य-शक्ति की बदौलत ही संभव हुआ होगा। महाराज जी की समाधि और उसको लेकर विवाद खड़े होने के बाद लगा था कि पहिया उल्टी दिशा में घूम सकता है। पर संस्थान के कार्यक्रमों में होने वाली भीड़, ब्रह्मज्ञान साधना दीक्षा के लिए लगने वाली लंबी कतारें बताती हैं कि आशुतोष महाराज के मिशन को आगे बढ़ाने वाले साधु-साध्वी अपने गुरू की ऊर्जा इस्तेमाल सही ढंग से कर पा रहे हैं और अनुयायी महाराज जी की ऊर्जा का ताप महसूस करते हैं।

आखिर ऐसा क्या है, जो महाराज जी के शिष्य और अनुयायी किसी मजबूत डोर से बंधे हुए दिखते हैं? निसंदेह पहला आकर्षण तो संत की सूक्ष्म आध्यात्मिक ऊर्जा ही है। ब्रह्मज्ञान साधना का प्रभाव भी व्यापक रूप से दिखता है। संभवत: इसी साधना की बदौलत महाराज जी इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि परमात्मा अनुभवगम्य है। तभी उन्होंने आम लोगों में भी ईश्वर-दर्शन की प्रबल भावना जगाई थी। साथ ही दीक्षास्वरूप ब्रह्मज्ञान की यौगिक विधियां बतलाईं, जिसमें आज्ञाचक्र व अनहद नाद साधना, जपयोग व मंत्रयोग सदृश्य आदिनाम साधना और विंदु विसर्ग व सहस्रार साधना का समन्वय है। शक्तिपात इसका विशिष्ट पक्ष है।

आखिर क्यों खास है यह साधना? आर्ष-ग्रंथों में इसे ही ‘परा विद्या’ कहा गया है। गीता इसे ‘राजयोग’ कहती है। इसकी स्तुति में स्वयं योगीराज श्री कृष्ण का कथन है – यह राजविद्या है। अर्थात् सभी विद्याओं की राजेश्वरी या साम्राज्ञी है। पातंजल दर्शन ने इसे सर्वविषयक, सर्वथाविषयक, तारक ज्ञान का नाम दिया। वेदों का भी यही कहना है- ब्रह्मविद्याम् सर्वविद्याप्रतिष्ठाम्’ अर्थात् ब्रह्मविद्या सभी विद्याओं की आधारशिला है। इसलिए अंतर्जगत का यह विशिष्ठ विज्ञान दिव्य ज्योति जागृति संस्थान का भी आधारशिला है।  

बिहार के मधुबनी जिले में जन्मे आशुतोष महाराज की योग रूपी यह आधारशिला शिष्यों के अंतर्घट में कितनी बलशाली है, यह तो व्यक्तिगत अनुभव का विषय है। पर तमाम वाद-विवाद के बावजूद वैदिक ग्रंथों के संदेशों की बदौलत चरित्र-निर्माण अभियान और ब्रह्मज्ञान के द्वारा विश्व शांति अभियान का फैलता क्षितिज बड़ी उपलब्धि है।  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

धीरेंद्र ब्रह्मचारी : बेशकीमती यौगिक सूक्ष्म व्यायाम है

किशोर कुमार

अस्सी के दशक के बहुचर्चित योगी और महर्षि कार्तिकेय के शिष्य धीरेंद्र ब्रह्मचारी राजनीति और व्यापार के पचड़े में न पड़े होते तो उनके “विश्वायतन योगाश्रम” और “योग अनुसंधान संस्थान” का परचम लहरा रहा होता। अपने समय के प्रतिभाशाली हठयोगी होने के कारण शिखर पर पहुंच तो गए थे। पर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से संबंधों और अपनी कुछ गतिविधियों के कारण इतने विवादास्पद हुए कि योग को विज्ञान की कसौटी पर कसकर उसे जन-जन तक पहुंचाने के उनके अभियान को बड़ा धक्का लगा। लेखकों-पत्रकारों के एक बड़े वर्ग के लिए योग, यौगिक अनुसंधान व उससे मिलने वाले लाभ गौण हो गए और विवादास्पद प्रसंग महत्वपूर्ण हो गए।

वैसे, धीरेंद्र ब्रह्मचारी इकलौते योगी नहीं हैं, जो विवादास्पद बने। कई अन्य योगियों का भी अलग-अलग कारणों से विवादों से गहरा नाता रहा है। पर उनके मूल कार्यों पर ज्यादा असर नहीं पड़ा। इस मामले में धीरेंद्र ब्रह्मचारी भाग्यशाली नहीं निकले। श्रीमद्भगवतगीता में श्रीकृष्ण कहते हैं – “कर्मफल का आश्रय न लेकर जो कर्तव्य-कर्म करता है, वही संन्यासी तथा योगी है।“ हम जानते हैं कि संसार त्रिगुणों यानी तमस, रजस और सत्व गुणों की लीला भूमि है। कोई भी व्यक्ति इन गुणों से परे नहीं है। फर्क इतना है कि किसी में तमस गुण की प्रधानता है तो किसी में रजस गुण की। आत्मज्ञानी संतों में सत्व गुण की प्रधानता होती है। धीरेंद्र ब्रह्मचारी की जैसी जीवन-शैली थी, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि वे रजस गुण प्रधान योगाचार्य थे।

धीरेंद्र ब्रह्मचारी ने भी कभी नहीं कहा कि वे योगी या आत्मज्ञानी संत हैं। हमेशा खुद को हठयोग साधक या योगाचार्य बताते रहे। पर समस्या इसलिए भी खड़ी हुई कि हम उन्हें निवृत्ति मार्गी संन्यासी मानते हुए तदनुरूप व्यवहार की उम्मीद करने लगे। भूल गए कि योगाचार्य प्रोफेशनल भी हो सकता है। भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिक बिक्रम चौधरी तो हॉट योग के लिए दुनिया भर में मशहूर हैं। कारोबार पांच सौ करोड़ रूपए का है। विवादों से नाता बना रहता है। पर कारोबार पर कभी फर्क नहीं पड़ा।    

धीरेंद्र ब्रह्मचारी हठयोग विद्या में प्रवीण थे। तंत्र की शक्तियों से वाकिफ थे। तभी हठयोग और तंत्र में परस्पर संबंध बतलाते हुए तदनुरूप योगाभ्यास भी कराते थे। उन योगाभ्यासों से किसी न किसी दौर में राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह, प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, मोरारजी देसाई, राजीव गांधी, उप प्रधानमंत्री बाबू जगजीवन राम और लोकनायक जयप्रकाश नारायण जैसी शख्सियतों के अलावा लाखों लोग लाभान्वित हुए। सच तो यह है कि सन् 1956 में जेपी जब यौगिक उपचार से मधुमेह-मुक्त हुए तो उन्होंने ही धीरेंद्र ब्रह्मचारी को कलकत्ता से दिल्ली लाने में भूमिका निभाई थी। वरना धीरेंद्र ब्रह्चारी ज्यादातर कलकत्ते में ही लोगों को योगाभ्यास कराते थे। जाहिर है कि धीरेंद्र ब्रह्मचारी में कुछ खास बात निश्चित रूप से रही होगी। तभी चेतना के बेहतर तल पर जीने वाली शख्सियतें उनसे प्रभावित थीं।

धीरेंद्र ब्रह्मचारी योग का प्रचार-प्रसार विश्वायतन संस्था के बैनर तले करते थे। इस संस्था के बड़े योगाश्रम दिल्ली और जम्मू-कश्मीर में थे। दिल्ली का आश्रम अब भारत सरकार के अधीन मोरारजी देसाई राष्ट्रीय योग संस्थान बन चुका है। जम्मू के मंतलाई आश्रम का कायाल्प करके उसे अंतर्राष्ट्रीय योग केंद्र बनाया जा रहा है। टीवी के जरिए योग का प्रचार-प्रसार अब आम है। पर धीरेंद्र ब्रह्मचारी ने इसकी बुनियाद सत्तर के दशक में ही रख दी थी। दूरदर्शन पर “योगाभ्यास” नाम से कार्यक्रम प्रत्येक सप्ताह प्रसारित किया जाता था। वे कहते थे कि आत्मज्ञान योग का असल उद्देश्य है। पर यह विषय उनके एजेंडे में नहीं था। उनकी कोशिश इतनी भर थी कि लोग स्वस्थ्य एवं प्रसन्न रहें। इसलिए बहिरंग योग साधना उनका विषय था।

नई शिक्षा नीति में यौगिक क्रियाओं को अब जाकर स्थान मिला है। पर धीरेंद्र ब्रह्चारी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से अपने संबंधों का लाभ लेते हुए अस्सी के दशक में ही देश के सभी केंद्रीय विद्यालयों में योग शिक्षा आरंभ करवाई थी। ताकि छात्रों की प्रसुप्त क्षमताएं और प्रतिभाएं प्रकट हो सके। धीरेंद्र ब्रह्चारी संत भले न थे। पर संतों के प्रति अनुराग में कोई कमी न थी। इसे एक उदाहरण से समझिए। वे केंद्रीय विद्यालयों में योग शिक्षकों की बहाली के लिए खुद ही इंटरव्यू ले रहे थे। उनके समक्ष गेरू वस्त्र धारण किया हुआ एक अभ्यर्थी उपस्थित हुआ। उससे योग्यता प्रमाण-पत्र मांगा गया तो उसने बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती के साथ की अपनी तस्वीर प्रस्तुत कर दी। धीरेंद्र ब्रह्चारी ऐसे उछले मानो कोयला खान में हीरा मिल गया हो। उन्होंने कहा, “इतने बड़े संत का जिसे सानिध्य मिल चुका है, उसके चयन के लिए कागज के टुकड़े का क्या मोल। आपका चयन किया जाता है।“

धीरेंद्र ब्रह्मचारी बिहार के मधुबनी जिले में जन्मे थे। यह वही जिला है, जहां स्वयं भगवान शिव अपने भक्त विद्यापति पर कृपा करके उनके घर में लंबे समय तक उगना के रूप में नौकरी किया करते थे। उगना महादेव मंदिर आज भी उस ईश्वरीय लीला की याद दिलाते रहता है। कृष्ण-भक्त धीरेंद्र ब्रह्चारी कोई बारह साल के थे तो उन पर सद्गुरू महर्षि कार्तिकेय की दृष्टि गई थी। इसके कुछ समय बाद ही वैराग्य के लक्ष्ण प्रकट हुए तो महादेव की लीला भूमि मधुबनी से निकल कर किसी कृष्णधाम नहीं, बल्कि काशी धाम ऐसे गए मानो आदियोगी उन्हें खींच ले गए हों। वहीं से उन्नाव के गोपाल खेड़ा स्थित कार्तिकेय आश्रम चले गए और योग विद्या हासिल की थी। जब कर्मक्षेत्र में उतरे तो तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की नजर गई। फिर तो वे वैसे ही खिल गए, जैसे सूर्य की रोशनी पा कर सूरजमुखी के फूल खिल उठते हैं।

अब तो धीरेंद्र ब्रह्मचारी के गुजरे भी तीन दशक होने को हैं। उनके जीवन के श्याम पक्ष को पकड़ कर उसमें उलझे रहने का भी कोई सार नहीं है। सार है तो उनके यौगिक सूक्ष्म व्यायाम का, योगासन विज्ञान का। सन् 2024 धीरेंद्र ब्रह्मचारी का जन्मशताब्दी वर्ष है। उनकी यौगिक क्रियाओं का प्रचार-प्रसार करना और उन क्रियाओं को शोध का विषय बनाना योग को समृद्ध करना होगा। दिल्ली के बाद मंतलाई आश्रम का स्वरूप बदला जाना अच्छा कदम है। पर ध्यान रखा जाना चाहिए कि धीरेंद्र ब्रह्मचारी का योग-बल ही इन संस्थाओं की बुनियाद है। इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए। वरना इतिहास बदलने वाले कोई मौका कहां छोड़ते हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

प्रेम उठे तो स्वर्ग, गिरे तो नर्क

किशोर कुमार //

दुनिया भर में वेलेंटाइन वीक की धूम है। रोमांटिक शेर ओ शायरी से सोशल मीडिया अंटा पड़ा है। प्रेम का संदेश देने वाले भारतीय सूफी संत परंपरा के महान कवि बुल्लेशाह के प्रेम के रंग में रंगे दोहे भी सोशल मीडिया पर साझा किए जा रहे हैं। पचास साल पहले सुप्रसिद्ध भजन गायक नरेंद्र चंचल द्वारा राजकपूर की फिल्म “बॉबी” के लिए गाया गया गीत बैकग्राउंड में बज रहा है – बेशक मंदिर मस्जिद तोड़ो, बुल्लेशाह वे कहते। पर प्यार भरा दिल कभी न तोड़ो, इस दिल में दिलबर रहता…। हमें फिल्म का संदर्भ याद रह गया, गीत के बोल याद रह गए। पर उसकी आत्मा को हम नहीं समझ पाए। बुल्लेशाह ने तो आत्मा-परमात्मा के प्रेम की बात की थी। पर हम तो मानो श्रीरामचरित मानस की चौपाई “जिन्ह कें रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी” को चरितार्थ कर रहे हैं।  

इसे ऐसे समझिए। दुनिया के एक सौ से ज्यादा देशों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने वाले बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य और आधुनिक युग के वैज्ञानिक संत परमहंस निरंजनानंद सरस्वती लाखों भक्तों के गुरू हैं। पर उनका अध्ययन कीजिए तो पता चलेगा कि उनका दिल गुरूभक्ति से भरा हुआ है। किसी ने उनसे कहा कि मैं आपका शिष्य हूं…अभी वह अपनी बात पूरी कर पाता, इसके पहले ही स्वामी निरंजन बोल पड़े – “मैं चेला नहीं बनाता। मैं तो अपने गुरू के पद-चिन्हों पर बढ़े जा रहा हूं। चाहो तो तुम भी मेरे पीछे हो लो। जीवन धन्य हो जाएगा।” अनूठी है ऐसी गुरू-भक्ति, ऐसा प्रेम। हर वक्त गुरू के साए में ही जीते हैं। 14 फरवरी को उनका 63वां जन्मदिवस है। पर हमारी तरह खुद के लिए केक नहीं काटेंगे। रोज की तरह गुरूभक्ति में ही दिन बीतेगा।

दूसरी तरफ सांसारिक सुख चाहने वाले लड़के-लड़कियों ने एक दूसरे को वेलेंटाइन मानकर अपने प्रेम का इजहार करने के लिए विशेष दिन या सप्ताह चुन रखा है। इसमें कुछ गलत भी नहीं। सबके अपने-अपने प्रेमी या वेलेंटाइन होते हैं। गुण-धर्म भिन्न होने से पथ भी अलग-अलग हो जाते हैं। बात प्रेम करने, न करने की नहीं है। बात संस्कारयुक्त प्रेम की है। हम तो प्रेम की सत्ता को सनातन काल से स्वीकार करते रहे हैं। आज अनेक पश्चिमी देशों को प्रगतिशील कहा जाता हैं। पर हमारा देश तो अनुशासित तरीके से लीवइन का उदाहरण हजारो साल पहले पेश कर चुका है। भारद्वाज मुनि की बेटी लोपमुद्रा इसकी मिसाल है। महर्षि अगस्त्य से शादी तो बाद में हुई थी। स्वयंवर का भी प्रचलन था। सीता जी ने अपनी मर्जी से ही तो शादी की थी। दूसरी तरफ सोहिनी-महिवाल, सस्सी-पुन्नू, हीर-रांझा जैसी प्रेम कहानियां भी हैं। यानी, हम स्वतंत्र थे, प्रगतिशीलता की आड़ में स्वच्छंद नहीं।  

कालांतर में पश्चिम के उपभोक्तावादी युवाओं के दिलो-दिमाग में यह बात बैठाने में सफल रहे कि रोमन धर्म गुरू संत वेलेंटाइन की याद में प्रेम का इजहार करने से चूके तो जीवन व्यर्थ जाएगा। और यह भी कि प्रेम के इजहार के लिए वास्तविक फूल की जरूरत नहीं है, कागज के फूल यानी ग्रीटिंग कार्ड और दिल की आकृति वाली टॉफियां ही काफी हैं। नतीजतन, भारत में जिस प्रेम की जड़े गहरी थी, उसे हमने कुल्हाड़ी से काट दिया और प्रेम करने की नई वजह, नए तरीकों को आत्मसात कर लिया। नतीजा सामने है। प्रेम गिरा तो नर्क के द्वार खुल गए। तभी अधूरी या दुखद प्रेम कहानियों की खबरों से अखबार अंटे पड़े होते हैं।

सवाल हो सकता है कि आदर्श प्रेम क्या है? स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं – “प्रेम या इश्क की उत्पत्ति के दो केंद्र हैं – इश्क मजाजी और इश्क हकीकी। दोनों ही प्रेम है। पर इश्क हकीकी हृदय से प्रेरित होता है और इश्क मजाजी दिमाग से। आम आदमी जिस प्रेम का अनुभव करता है, वह इश्क मजाजी है। दिल की बात नहीं है, दिमाग की बात है औऱ दिमाग में तो वासनाएं हैं, कुछ न कुछ कामनाएं हैं। इसलिए दोस्ती दुश्मनी में बदलती रहती है। पर जब इश्क हकीकी हो तो प्रेम हृदय से फूटता है। वह पवित्र प्रेम होता है। ऐसे प्रेम में कोई कामना नहीं होती, कोई वासना नहीं होती। इच्छा होती है तो इतनी ही कि यह प्रेम अनवरत बढ़ता जाए। आदर्श प्रेम तो उसे कहेंगे, जिसकी ज्वाला में सभी द्वेष जलकर भस्म हो जाएं।“

फिर क्या किया जाए कि प्रेम की उत्पत्ति का केंद्र इश्क हकीकी ही रह जाए या प्रेम उसके ईर्द-गिर्द ही घूमे? महर्षि पजंतजलि के योगसूत्रों का पहला ही सूत्र है – अथ योगानुशासनम्। यानी अब योग की व्याख्या करते हैं। स्पष्ट है कि ऐसे लोगों को योग शिक्षा देने की बात है, जो यम और नियम का अभ्यास करके योग की पात्रता प्राप्त कर चुके हैं। नई पीढी युवाओं के जीवन में भी सुंदर फूल खिले और प्रेम परमात्मा सदृश्य बन जाए, इसके लिए योगमय जीवन जरूरी है। इसकी तैयारी समय रहते यानी बाल्यावस्था से हर माता-पिता को करानी होगी। शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक स्तर पर प्रशिक्षित करना होगा। समझना होगा कि केवल किताबी ज्ञान से बात नहीं बनती।

तैयारी किस तरह की होनी चाहिए? स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं कि बच्चे जब लगभग आठ साल के हो जाएं तो उनसे नियमित रूप से सूर्य नमस्कार, भ्रामरी प्राणायाम, नाड़ी शोधन प्राणायाम और गायत्री मंत्र का अभ्यास कराया जाना चाहिए। इससे पीनियल ग्रंथि बिल्कुल स्वस्थ रहेगी, विघटित नहीं होगी। वरना, बुद्धि और अंतर्दृष्टि के मूल स्थान वाली यह ग्रंथि किशोरावस्था में ही विघटित हुई तो बड़ी समस्या खड़ी हो जाएगी। कामवासना ऐसे समय में जागृत हो जाएगी, जब बच्चे मानसिक रूप से इसके लिए तैयार नहीं होते हैं। समस्या यहीं से शुरू हो जाएगी। प्रतिभा का समुचित विकास नहीं हो पाता।

योग जीवन को कैसे रूपांतरित कर देता है, इसके उदाहरण खुद स्वामी निरंजन ही हैं। उन्होंने कभी स्कूल का मुंह तक नहीं देखा, पर नासा के पांच सौ वैज्ञानिकों के समूह में शामिल हैं। मात्र बारह वर्ष की अवस्था में यूनिवर्सिटी ऑफ कैम्ब्रिज में बायोफीडबैक तकनीक के ऐसे तथ्य प्रस्तुत कर दिए, जिन्हें जानने के लिए वैज्ञानिक शोध करने वाले थे। उन्हें तमाम लौकिक-अलौकिक ज्ञान योगनिद्रा में गुरूकृपा से प्राप्त हो गई थी। पर इसके लिए उन्हें पात्र बनाना पड़ा था। प्रेम, श्रद्धा, करूणा और भक्ति से प्राण कोमल होने पर ही यौगिक बीज प्रस्फुटित हुआ। ऐसी प्रेममूर्ति, महान वैज्ञानिक संत को उनकी जयंती पर सादर नमन। आज जैसे हालात बने हैं, वे युवापीढ़ी के लिए प्रेरणा के स्रोत हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

आत्मज्ञानी संतों का मूल्यांकन भला कैसे हो!

किशोर कुमार //

भारत भूमि पर भक्ति आंदोलन के जितने भी आत्मज्ञानी संत हुए, उनमें से किसी ने भी मातृ-शक्ति की महत्ता को कमतर नहीं आंका और न ही ऐसा कोई काम किया, जिससे सामाजिक विभेद उत्पन्न हो। चाहे वे गौतम बुद्ध, संत ज्ञानेश्वर, संत नामदेव, संत तुकाराम, संत रविदास, गुरूनानक देव और चैतन्य महाप्रभु हों या फिर संत कबीर, मीराबाई, रहीम रसखान और संत तुलसीदास। जी हां, रामचरित मानस के रचयिता संत तुलसीदास भी।

जरा सोचिए कि विशिष्टाद्वैतवाद के समर्थक जिस आत्मज्ञानी संत की गुरू ही महिला रही हों, वह भला महिलाओं की ताड़ना-प्रताड़ना या सामाजिक विभेद पैदा करने वाली बातें कैसे कर सकता है? कालांतर में निश्चत रूप से किसी ने अपनी सुविधानुसार ऐसी पंक्तियां जोड़ी – घटाई गई होंगी, जिससे संदर्भ बदला तो अर्थ भी बदल गया या फिर हम अवधि में लिखे गए शब्दों की सही व्याख्या नहीं कर पा रहे हैं। वैसे, पांच सौ साल बाद महज थोथे तर्कों से हम किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सकते। बल्कि समग्रता में मूल्यांकन करके ही सत्य के करीब पहुंचा जा सकता है।

संत तुलसीदास को आत्मज्ञान मिलने की कहानी तो सबको पता ही है। वे अपनी पत्नी रत्नावली से बेहद प्यार करते थे। पत्नी मायके गईं तो तुलसीदास वियोग में इतने बावले हुए कि घनघोर वर्षा के बीच नदी पार कर ससुराल पहुंच गए थे। दरवाजा न खुला तो घर के पीछे रस्सी लटकी दिखी, जो वास्तव में सांप था। सांप को रस्सी सझकर उसी के सहारे दूसरे मंजिल के उस कमरे में पहुंच गए, जहां रत्नावली सो रही थीं। रत्नावली ने पति की ऐसी आसक्ति देखकर बरबस ही बोल पड़ी थीं – “हे नाथ! मेरी देह से जितना प्रेम करते हो, इतना प्रेम यदि राम से करते, तो आपका जीवन धन्य हो जाता।“ और इसी बात से उन्हें आत्मज्ञान हो गया। वे चित्रकूट जाकर तपस्या में तल्लीन हो गए थे।

बीसवीं सदी के महान संत और बिहार योग विद्यालय के स्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती अपने सत्संग में जब कभी गोस्वामी तुलसीदास की चर्चा आती थी, कहते थे – “यह मानने का कोई कारण नहीं कि गोस्वामी तुलसीदास ने नारी के असम्मान में कभी कुछ कहा होगा। या तो उनकी बातें समझी न गईं या किसी कारणवश चौपाइयों में जोड़-तोड़ किया गया होगा। तुलसी के रामायण में तो स्त्री मर्यादा को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। उसे देवी बतलाते हुए सुरसा को भी माता कहकर ही संबोधित किया गया है।“ सच है कि तुलसीदास खुद ही कहते हैं –  “एक नारिब्रतरत सब झारी। ते मन बच क्रम पतिहितकारी।“ यह स्त्री-पुरूष समानता वाली बात ही तो है। यही नहीं, उन्होंने नवधा भक्ति के आलोक में श्रीराम और माता शबरी का भी बेहद सुंदर वर्णन किया है।

सच तो यह है कि पूरे रामचरित मानस में सामाजिक सद्भाव की बात है। इसे तर्क करके नहीं समझा जा सकता। भक्ति कोई बुद्धि-विलास की वस्तु नहीं है। महर्षि अरविंद ने भक्ति के प्रसंग में कहा भी है –  तर्क एक सहारा था, अब तर्क एक अवरोध है। इस तार्किक बुद्धि के पार जाकर भावना से भक्ति के मर्म को समझा जा सकता है। भावना का संबंध बुद्धि से नहीं है। ओशो कहा करते थे –“शास्त्र को लाख पढ़ लो, चाहो तो अपने ही अर्थ निकाल लोगे। शास्त्र तुम्हें बदले न बदले, पर तुम शास्त्र को जरूर बदल सकते हो, क्योंकि तुम जो अर्थ चाहोगे, वही अर्थ निकाल लोगे। तुम्हारी व्याख्या शास्त्र पर सवार हो जाएगी।“ भारतीय इतिहास को जिस तरह तोड़े-मरोड़े जाने के दृष्टांत सामने आ रहे हैं, उनके आधार पर यह मानने का कोई कारण नहीं कि रामचरित मानस और अन्य धार्मिक ग्रंथों में सुविधानुसार तोड़-मरोड़ नहीं किया गया होगा। 

इसे महज संयोग ही कहिए कि इस महीने यानी फरवरी में तीन ऐसे आत्मज्ञानी संतों की जयंती मनाई जाती है, जिन्होंने भक्ति आंदोलन चलाकर सामाजिक समरसता के लिए अनूठे कार्य किए। उनमें से एक संत रविदास की जयंती तो हम मना चुके। भक्ति आंदोलन के महान संत स्वामी रामानंद के शिष्य संत रविदास ने अपने भक्ति आंदोलन के जरिए सामाजिक भेदभाव मिटाने में अहम् भूमिका निभाई थी। आज यानी 6 फरवरी को चैतन्य महाप्रभु के भक्ति आंदोलन को पुनर्जीवन प्रदान करके विश्वव्यापी बनाने में उत्प्रेरक की भूमिका निभाने वाले आध्यात्मिक नेता भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर की जयंती है और कोई बारह दिनों बाद यानी 18 फरवरी को श्रीचैतन्य महाप्रभु की जयंती है। इस लेख में भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर की बात होगी तो श्रीचैतन्य महाप्रभु के आंदोलन की झलक मिल ही जाएगी।

भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने अपने जीवन काल में देश भर में न केवल गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय की जड़ें मजबूत की थी, बल्कि अपने पट्ट शिष्य श्रील अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद को आगे करके दुनिया भर में भक्ति आंदोलन का ऐसा डंका बजवाया कि आज भी इस्कॉन और श्रीकृष्ण भावनामृत के रूप में उस आंदोलन की मजबूत उपस्थिति सर्वत्र देखी जा सकती है। श्रीचैतन्य महाप्रभु के मुख्यत: चार सूत्रों, जिनमें जाति भेद मिटाने, अंधविश्वास का परित्याग करने औऱ मानवता की सेवा को प्रमुखता देने की वजह से न केवल संप्रदायों के बीच विभेद कमा, बल्कि जाति-पांति और छुआ-छूत को लेकर भी आम लोगों का दृष्टिकोण बदला। नजीजा हुआ कि श्रीचैतन्य महाप्रभु द्वारा शुरू किया गया भक्ति आंदोलन, जो कालांतर में धीमा पड़ गया था, पुनर्जीवित हो उठा और देश भर में फैल गया।

श्रीचैतन्य महाप्रभु का पहली बार जगन्नाथपुरी में पदार्पण हुआ था तो उनकी संकीर्तन मंडली में सभी वर्गों के लोग इस तन्मयता से जुट गए कि लगा ही नहीं कि समाज में कोई जाति विभेद भी है। उनके शिष्यों में हरिदास ठाकुर शूद्र थे। पर वे श्रीचैतन्य महाप्रभु के अनूठे शिष्य थे। कथा है कि रविदास ठाकुर चाहते थे कि श्रीचैतन्य महाप्रभु के देह त्याग से पहले उन्हें अपना देह त्याग करने की अनुमति मिल जाए। इसलिए कि वे अपने गुरू का विरह बर्दाश्त नहीं कर पाएंगे। यह बात सुनते ही चैतन्य महाप्रभु ने हरिदास जी से कहा – “हरिदास, यदि तुम चले जाओगे तो मैं कैसे रहूंगा, हरिदास क्या तुम मुझे अपने संग से वंचित करना चाहते हो?  तुम्हारे जैसे भक्त को छोड़ मेरा और कौन है यहाँ?” इन प्रसंगों से स्पष्ट है कि भारत के किसी भी आत्मज्ञानी संत ने सामाजिक विभेद नहीं, बल्कि सामाजिक समरसता के लिए अपने-अपने तरीकों से काम किया। तभी देश में सर्वत्र अनेकता में एकता बनी हुई है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

महान संतों की चमत्कारिक शक्तियां

किशोर कुमार

भारत के महान संतों और योगियों ने कभी योग विद्या की बदौलत चमत्कार दिखाए जाने का समर्थन नहीं किया। पर यह भी सही है कि योग और अध्यात्म की विश्वसनीयता बताने या अपने संकटग्रस्त शिष्यों के कल्याण के लिए चमत्कारिक प्रभाव उत्पन्न करने वाली योग-शक्ति का प्रयोग किया जाता रहा है। आदिगुरू शंकराचार्य से लेकर तैलंग स्वामी और स्वामी शिवानंद सरस्वती तक ने अनेक मौकों पर अपनी योग-शक्ति से वैसे कार्यों को संभव कर दिया, जो सामान्य जनों की नजर में किसी चमत्कार से कम न थे।

यह बहस का विषय हो सकता है कि बागेश्वर धाम सरकार और हनुमान भक्त धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री के “चमत्कारों” की तुलना हाथ की सफाई दिखाने वाले सामान्य जादूगरों से की जानी चाहिए या नहीं। सच तो यह है चमत्कार जादूगर भी दिखाते हैं और योगी भी। पर दोनों चमत्कारों के कारण में बुनियादी फर्क है। मुझे नहीं मालूम कि धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री किस श्रेणी में आते हैं। पर वे भरी सभाओं में अपने अनुयायियों के कष्ट निवारण के लिए जो तरीके अपनाते हैं, जिन्हें चमत्कार कहा जा रहा है, वे तरीके कोई अनूठे और नए नहीं हैं। स्वामी विवेकानंद ने तो आज से कोई 122 साल पहले अमेरिका के लॉस एंजिल्स में भरी सभा में कहा था कि हम योगियों की जिन क्रियाओं को चमत्कार कहते हैं, वह कुछ और नहीं, बल्कि राजयोग का परिणाम होता है।

स्वामी विवेकानंद ने उसी सभा में अपने साथ घटित एक वाकया सुनाया था। उन्हें एक ऐसे व्यक्ति के बारे में पता चला, जो किसी के भी मन के गुप्त प्रश्नों को जान लेता था औऱ उसे कागज पर लिखकर समाधान भी बता देता था। उन्होंने उस व्यक्ति की परीक्षा लेने की ठानी। वे दो अन्य सहयोगियों के साथ उस व्यक्ति के पास गए। स्वामी जी का सवाल संस्कृत भाषा में और उनके सहयोगियों के सवाल क्रमश: ऊर्दू और जर्मन भाषा में थे। आसन पर बैठा व्यक्ति स्वामी जी को देखते ही कागज पर कुछ लिखा और उन्हें थमाकर पूछा, यही सवाल है न मन में? स्वामी जी का कहना था कि उन्होंने संस्कृत की जो पंक्तियां मन में बनाई थी, वही हू-ब-हू उस व्यक्ति द्वारा लिखित कागज पर थी। ऐसा ही बाकी दो सहयोगियों के साथ भी हुआ। कमाल यह कि वह व्यक्ति न संस्कृत जानता था, न ऊर्दू और न ही जर्मन। विवेकानंद समग्र में इस प्रसंग उल्लेख है।

धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री की तरह ही श्री पंडोखर महाराज भी हनुमान भक्त हैं। उनका धाम मध्य प्रदेश के दतिया जिले के पंडोखर गांव में है। विभिन्न दिशाओं से झांसी जाने वाली ट्रेनें पंडोखर महाराज के भक्तों से भरी होती हैं। वे भी अपने धाम में आए भक्तों के मन में चल रहे सवाल बिना बताए ही जान लेते हैं और उसे पर्चियों पर लिख भी देते हैं। फिर परेशानियां दूर करने के उपाय बतलाते हैं। मैं एक व्यक्ति को जानता हूं, जो अपनी समस्या के निवारण के लिए पंडोखर धाम गए थे। दरबार में बैठे थे तो पंडोखर महाराज की नजर उन पर गई और पास बुला लिया। वह सज्जन यह देखकर हैरान थे कि उनके मन में जो सवाल चल रहा था, उसे पंडोखर महाराज ने पहले से एक पर्ची पर लिख रखा था।

महान संत और हनुमान भक्त नीम करोली बाबा तो विश्वविख्यात हैं। उनके कैंचीधाम आश्रम में देश-विदेश की बड़ी-बड़ी हस्तियां भी जाती रहती हैं। बाबा के चमत्कार की किस्से भरे पड़े हैं। एक वाकया बहुप्रचारित है। बाबा ट्रेन से सफर कर रहे थे। पर उनके पास टिकट नहीं थी। नीम करोली गांव के पास ट्रेन किसी करण से जैसे ही रूकी, टिकट परीक्षक ने उन्हें ट्रेन से उतार दिया। पर बेवजह ट्रेन वहीं ठहर गई। ड्राइवर और तकनीशियनों की सारी कोशिशें बेकार गईं। तब किसी के मन में ख्याल आया कि शायद ट्रेन से उतार दिए गए बाबा की शक्ति से ट्रेन का पहिया थम गया हो। जब उन्हें ट्रेन पर चढ़ाया गया तो ट्रेन चलने लगी थी। बाद में उस जगह पर स्टेशन बना और उसका नाम बाबा के नाम पर रखा गया।  

आदिगुरू शंकराचार्य की कहानी तो हम सब जानते ही हैं। उन्होंने मशहूर विद्वान कुमारिल भट्‌ट के शिष्य और मिथिला के पंडित मंडन मिश्र को शास्त्रार्थ में हरा दिया था। पर मंडन मिश्र की पत्नी उभया भारती ने अपने पति की ओर से कमान संभाली और कामशास्त्र सें संबंधित सवाल किया तो वे फंस गए। उन्होंने उत्तर देने के लिए उभया भारती से कुछ वक्त मांगा। इसका उत्तर राजा सुधन्वा की पत्नी के पास था। पर समस्या थी कि उनकी पत्नी तक पहुंच कैसे बने? तभी पता चला कि राजा सुधन्वा के प्राण पखेरू उड़ चुके हैं। तब जगत्गुरू शंकराचार्य योग की गूढ़ परकाय प्रवेश विद्या की बदौलत राजा सुधन्वा के म़ृत शरीर में प्रवेश कर गए थे। भौतिक शरीर तो राजा सुधन्वा का था। पर उसमें प्राण आदिगुरू शंकराचार्य का था। इस तरह भौतिक रूप से राजा सुधन्वा बनकर उनकी पत्नी से कामशास्त्र का ज्ञान प्राप्त किया था। इसके बाद पुन: अपना भौतिक शरीर धारण करके उभया भारती से शास्त्रार्थ करने गए थे।

संत ज्ञानेश्वर को पंडितों से यह साबित करने की चुनौती मिली कि भौसे में और उनमें एक ही आत्मा भासित है तो उन्होंने भैसे की पीठ पर हाथ रखा और भैसां वेदपाठ करने लगा था। उस जमाने के ख्याति प्राप्त संत चांगदेव को देखने की इच्छा हुई तो संत ज्ञानेश्वर अपने भाई-बहन के साथ मिट्टी से बने जिस दीवार पर बैठे, वह मोटर गाड़ियों की तरह चलने लगा था। चांगदेव ने यह देखा तो वह संत ज्ञानेश्वर के चरणों में जा बैठा और उनका शिष्य बन गया था। बनारस के महान संत तैलंग स्वामी के चमत्कारों के किस्सों का उल्लेख तो बनारस गजेटियर में हैं। शहर में निर्वस्त्र विचरण करने के कारण अंग्रेज अधिकारी उन्हें जेल में बंद कर देते थे। पर वे अपनी योग-शक्ति से अपने विशालकाय भौतिक शरीर को सूक्ष्म बनाकर जेल से बाहर निकल जाते थे और खुलेआम सड़कों पर विचरण करते दिखते थे।

लाहिड़ी महाशय और स्वामी शिवानंद सरस्वती के अनुयायियों ने अनेक मौकों पर अनुभव किया कि उनके और गुरू के बीच की दूरी मिट गई, देशों के बीच की सीमाएं मिट गईं। गुरूजी एक ही समय में दो से अधिक स्थानों पर अपने प्रिय भक्त के पास मौजूद थे। मां आनंदमयी, योगीराज देवराहा बाबा, स्वामी विशुद्धानंद, स्वामी शिवानंद, रमण महर्षि और परमहंस योगानंद से लेकर परमहंस स्वामी सत्यानंद तक ने साधकों में योग-अध्यात्मक को लेकर भरोसा जगाने या उनकी मदद करने के लिए समय-समय पर चमत्कार दिखाते रहे। बीसवीं सदी के प्रसिद्ध आध्यात्मिक जिज्ञासु पॉल ब्रंटन उच्च आध्यात्मिक उपलब्धि प्राप्त लोगों की तलाश में भारत आए थे। उन्हें फर्जी साधु-फकीर मिले तो रमण महर्षि जैसे आत्मज्ञानी संत भी मिले। अंत में उन्हें कहना पड़ा था कि परमात्मा है और योगियों ने अद्भुत शक्तियां होती हैं, इन बातों पर अविश्वास करने की कोई वजह नहीं।

सदियों से मान्यता रही है कि मानव अस्तित्व के पीछे कोई रहस्यमय शक्ति छिपी है। प्राचीन काल के ऋषियों और योगियों से लेकर आधुनिक युग के वैज्ञानिक संत तक अपनी साधनाओं, अपने अनुसंधानों से इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि मानव के विचारों की उत्पत्ति व चेतना के विकास में सहायक रहस्यमय शक्ति का विवेचन सैद्धांतिक रूप से नहीं किया जा सकता है। यह अनुभवगम्य है। योग विज्ञान, मुख्यत: इसकी तांत्रिक क्रियाएँ उस अनुभव तक पहुंचाने का साधन हैं। जादू-टोना तो तंत्र का विकृत रूप है।

प्राचीन काल से योगी महसूस करके रहे हैं कि मन अविच्छिन्न है, विश्वव्यापी है और मानव विश्वव्यापी अविच्छिन्न मन का अंग है। इसी अविच्छिन्नता के कारण दूसरे के विचारों को जानना या अपने विचार को संप्रेषित करना संभव हो पाता है। पर सूक्ष्म रूप में घटित घटना का परिणाम बाह्य आकार मिले बिना दिखता नहीं। स्वामी विवेकानंद कहते थे कि इन सूक्ष्म शक्तियों पर काबू करके या काबू करने की प्रक्रिया में भी चमत्कारिक प्रभाव पैदा किए जाते हैं। बीमारियों से निजात दिलाने में मदद भी मिलती है।  

तुलसीदास कृत रामचरित मानस पर भी वाद-विवाद चलते रहता है। पर मानस के सुंदरकांड के प्रारंभ में ही हनुमान जी का पंचदशाक्षक मंत्र लिखा है। अनेक संतों और योगियों का अनुभव है कि उनकी सिद्धियों में पंचदशाक्षक मंत्र ने उत्प्रेरक का काम किया। खुद तुलसीदास कहते हैं कि उन्हें पंचदशाक्षक मंत्र के साथ हनुमान जी के पूजन से सिद्धियां मिली थीं। तंत्र और मंत्र के अलावा योग की अन्य विद्याएं जैसे, स्वरयोग विद्या, प्राण विद्या आदि की शक्तियां भी आमजन की नजर में चमत्कार ही पैदा करती है। योगी इन यौगिक विद्याओं के जरिए अपनी चेतना का विस्तार करके जनकल्याण करते रहे हैं।

प्राण चिकित्सा में उपचारक अपने हाथों के माध्यम से ब्रह्मांडीय प्राण ऊर्जा को ग्रहण कर हाथों द्वारा रोगी में ऊर्जा प्रक्षेपित करता है। स्वरयोग तो मस्तिष्क श्वसन का तांत्रिका विज्ञान है। पर सामान्य मामलों में इसका प्रभाव भी गजब है। यदि योगी का श्वास दायी नाक से चल रहा हो और प्रश्नकर्ता दाहिनी ओर से सवाल करे कि क्या अमुक काम हो जाएगा, तो उसका उत्तर “हां” में होगा। शिव स्वरोदय के मुताबिक इस योग से वाक् सिद्धि होने पर मुंख से निकली बात घटित हो जाती  है।

शक्तिपात योग बेहद शक्तिशाली है। अनेक योगी और महात्मा आज भी हमारे बीच मौजूद हैं, जिन्हें उनके गुरूओं ने शक्तिपात के जरिए योग और आध्यात्मिक मार्ग पर अग्रसर किया। ऋषिकेश के स्वामी शिवानंद सरस्वती ने अपने शिष्य परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती को शक्तिपात के जरिए ही योग का ज्ञान कराया था। इसलिए योगियों के आंतरिक जागरण की गहराई कोई ज्ञानी ही समझ सकता है। योगियों का गूढ़ ज्ञान सामान्य दृष्टि वालों की समझ से परे है।    

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

                                                                                                                                                                                                              

आयुष शिखर सम्मेलन : योगियों और चिकित्सा विज्ञानियों का महाकुंभ

किशोर कुमार //

वेदों में आचार, व्यवहार, आध्यात्मिक जीवन, ज्योतिष आदि जीवन के विविध आयाम हैं तो स्वास्थ्य – चिकित्सा भी एक महत्वपूर्ण आयाम है। सच कहिए तो चिकित्सा की पारंपरिक प्रणालियों की जड़ें वेदों में निहित है। चिकित्सा की जितनी भी पारंपरिक प्रणालियों से हम सब वाकिफ हैं, उन सबका संबंध किसी न किसी देवता से माना गया है। वेद ग्रंथों में इसका उल्लेख जगह-जगह मिलता है। जैसे, चरक संहिता हो या सुश्रुत संहिता, दोनों में ब्रह्मा जी को ही प्रथम उपदेष्टा माना गया है। इसी तरह भगवान शिव आदियोगी तो हैं हीं, ऋग्वेद में उनका वर्णन एक चिकित्सक के रूप में भी मिलता है। अश्विनी कुमार तो देवताओं के चिकित्सक ही थे। इसी तरह सूर्य, सोम, वरूण आदि देवताओं का भी उल्लेख है।   

यह सुखद है कि भारतीय चिकित्सा की इन पारंपरिक प्रणालियों का विज्ञानसम्मत तरीके से संवर्द्धन करके उन्हें जनोपयोगी बनाने के लिए कोशिशें की जा रही हैं। सरकार पूर्व की मन:स्थिति से बाहर निकल कर इन विद्याओं के विकास के लिए गंभीर पहल कर रही है। पर इसके साथ ही एक सवाल भी है कि क्या उनका वास्तविक संवर्द्धन केवल सरकार के भरोसे संभव है? इतिहास साक्षी है कि प्राचीन काल से ही इन विद्याओं के संवर्द्धन औऱ प्रसार में योगियों और चिकित्सा विज्ञानियों की भूमिका राजसत्ता से गुरूत्तर रही है। चिकित्सा की ये प्रणालियां आधुनिक युग की विशिष्ट मांग है। इसलिए जरूरी है कि गैर सरकारी स्तर पर भी वैज्ञानिक तरीके से इन विद्याओं का संवर्द्धन और प्रसार किया जाए।

इस बात को विस्तार देने से पहले स्वामी विवेकानंद से जुड़ा एक बहुप्रचारित प्रसंग। कन्याकुमारी स्थित समुद्र के तट पर पत्थर का एक टीला है। आजकल उसे विवेकानंद रॉक मेमोरियल कहा जाता है। शिव पुराण की कथा है कि माता पार्वती का पुण्याक्षी कन्याकुमारी के रूप मे जन्म हुआ था। बड़ी हुईं तो शिव जी से विवाह के लिए उसी रॉक पर बैठकर तपस्या की थी। स्वामी विवेकानंद अमेरिका में आयोजित विश्व धर्मसभा में भाग लेने जाने से पहले कन्याकुमारी गए तो समुद्र में तैरकर उसी रॉक पर जा पहुंचे थे। तीन दिनों तक लगातार तपस्या की। वहीं उन्हें प्रेरणा मिली थी कि भविष्य में जीनव का लक्ष्य क्या होना चाहिए और उसे हासिल करने के लिए क्या करना है।     

हम जानते हैं कि किसी भी साधना में या व्यापक बदलाव के लिए क्रांति-बीज बोने हेतु शब्द का और स्थान का बड़ा महत्व होता है। योगियों ने समान रूप से महसूस किया कि दीर्घकालीन मानवी गतिविधियां स्थानीय तरंगों की प्रकृति को अपने स्वभाव के अनुरूप ढाल देती है। दरअसल, जिस धरती पर पुण्य-कार्य होता है, वहां व्यापक रूप से सकारात्मक ऊर्जा तरंगों की प्रधानता होती है। आज भी कन्याकुमारी में उच्च चेतना के धरातल पर सकारात्मक ऊर्जा का सतत् प्रवाह स्पष्ट महसूस किया जाता है। यह सुखद है कि उसी धरती से चिकित्सा की पारंपरिक भारतीय प्रणालियों के संवर्द्धन और प्रसार के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर शंखनाद होने जा रहा है। तीन दिनों का अंतर्राष्ट्रीय आयुष शिखर सम्मेलन 27 – 29 जनवरी को होना है, जिसे योगियों, चिकित्सा विज्ञानियों और अनुंसधानकर्त्ताओं का महाकुंभ कहना ज्यादा उपयुक्त होगा। ऐसे में जाहिर है कि सकारात्मक ऊर्जा से परिपूर्ण स्थान से गुणीजन संदेश देंगे, भविष्य के लिए कुछ बेहतर करने की ठान लेंगे तो उसका असर दूर तक होगा।

अंतर्राष्ट्रीय आयुष शिखर सम्मेलन का उद्देश्य आयुष चिकित्सा प्रणालियों  यथा आयुर्वेद, योग व प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी, सिद्ध और होम्योपैथी के विविध आयामों पर गुणवत्तापूर्ण अनुसंधान और अर्थपूर्ण शैक्षणिक संवाद को बढ़ावा देना है। ताकि आयुष सेवाएं असरदार, विज्ञान की कसौटी पर खरी, किफायती और जनसुलभ बन सके। बात योग की करें तो इस शिखर सम्मेलन की गंभीरता का अंदाज इससे लगता है कि इसमें आसन, प्राणायाम से आगे की बात होनी है। मंथन इस बात को लेकर होनी है कि देश में बढ़ती मनोदैहिक बीमारियों के लिए योग की विधियों का समायोजन किस प्रकार किया जाए कि वे वैज्ञानिक रूप से स्वीकार्य हों। योग और प्राकृतिक चिकित्सा के बीच के अंतर्संबधों को वैज्ञानिक रूप से परिभाषित करके उसे जनसुलभ किस प्रकार बनाया जाए। आदि आदि।    

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर योग के विभिन्न पक्षों पर जितना शोध मौजूदा समय में हो रहा है, उतना पहले कभी नहीं हुआ। उस लिहाज से कहा जा सकता है कि यह योग विज्ञान के लिए स्वर्णिम काल है। पश्चिमी देशों में शोध का फलक भारत की तुलना में कई गुणा बड़ा है। दो कारणो से। पहला तो यह कि उनके पास बुनियादी ढ़ांचा हमसे कहीं ज्यादा है। दूसरा यह कि वे जान गए हैं कि दुनिया में ऐसा कोई विज्ञान नहीं है, जो शरीर, मन और चेतना के विकास के लिए एक साथ काम कर सके। बावजूद, मानव जीवन के कई ऐसे क्षेत्र हैं, जहां उनकी पहुंच नहीं बन पाई है। वे जीवन की कई घटनाओं के कारण और परिणाम के बीच संबंध जोड़ पाने में असमर्थ हैं।

पश्चिम के वैज्ञानिको के लिए आज भी यह रहस्य पूरी तरह सुलझा नहीं है कि संस्कृत सहित अनेक भाषाओं के विद्वान रहे आचार्य देवसेन को जिस पुस्तक को पढ़ने में सात दिन लग गए थे, उसी पुस्तक को स्वामी विवेकानंद ने महज आधा घंटा में किस तरह कंठस्थ कर लिया था। आचार्य देवसेन ने अपने संस्मरण में लिखा है – “मैंने स्वामी विवेकानंद से पूछा कि आपने आधा घंटा में पूरा किताब कैसे याद कर लिया? तो उन्होंने उत्तर दिया,  ‘जब तुम शरीर द्वारा अध्ययन करते हो तो एकाग्रता संभव नहीं है। जब तुम शरीर में बंधे नहीं होते, तो तुम किताब से सीधे—सीधे जुड़ते हो तुम्हारी चेतना सीधे—सीधे स्पर्श करती है। तब आधा घंटा भी पर्याप्त होता है।“

हम जानते हैं कि योग की एक प्राचीन संस्कृति रही है। पर कालांतर में यह संन्यासियों और योगियों तक ही सिमट कर रह गई।  स्वामी रामतीर्थ के एक प्रसंग से इस बात को समझा जा सकता है। स्वामी जी ने जापान के राजमहल में छोटे-से चिनार का पेड़ गमले में देखा तो हैरान रह गए। उन्हें यह जानकर और भी हैरानी कि वह पेड़ ढ़ाई सौ साल पुराना था। उन्होंने पूछा, “पेड़ जिंदा है क्या?” उन्हें बताया गया कि पेड़ जिंदा तो है, पर बढ़ नहीं सकता। इसलिए कि इसके नीचे की तीन जड़ें काटी जा चुकी हैं। यह सुनकर स्वामी रामतीर्थ ने कहा – लगता है कि मानव जाति का भी यही हाल है। उसकी भी तीन जड़े काटी जा चुकी हैं। इसलिए वह जिंदा तो है। पर आध्यात्मिक उन्नति नहीं कर पा रहा है।

सवाल है कि जड़ें किसने काटी? इस पर फिर कभी। बहरहाल, हमें भारतीय संतों का शुक्रगुजार होना चाहिए कि उनकी बदौलत समृद्ध योग की परंपरा बची रह गई। पर योग के मनीषियों के लिए यह चिंता का सबब बना हुआ कि दुनिया भर में फैले योग के अनेक कारोबारी अज्ञानता के कारण या व्यवसाय को आकर्षक बनाने के लिए योग विद्या के स्वरूप को विकृत कर दे रहे हैं। स्पष्टत: समय की मांग है कि हमें अपनी समृद्ध परंपरा को संरक्षित रखते हुए उसे उसी रूप में जनता तक पहुंचाने के लिए केवल सरकार के भरोसे नहीं रहकर गैर सरकारी स्तर पर ईमानदार कोशिशें करनी होगी। इस लिहाज से भी कन्याकुमारी में आयोजति अंतर्राष्ट्रीय आयुष शिखर सम्मेलन की महत्ता बढ़ जाती है। 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

महर्षि योगी के यौगिक शांतिदूत!

किशोर कुमार

बीसवीं सदी के महान योगी, भावातीत ध्यान योग और वैदिक शिक्षा के प्रणेता महर्षि महेश योगी की 12 जनवरी को 106वीं जयंती है। उनकी जयंती दुनिया भर में फैले महर्षि संस्थानों के साथ ही उनके अनुयायी ज्ञान युग दिवस के रूप में मनाते हैं। इस बार उस महान योगी की जयंती ऐसे वक्त पर मनाई जानी है, जब उनका भावातीत ध्यान योग अमेरिकी अखबारों की सुर्खियां बंटोर रहा है। दरअसल, भावातीत ध्यान और भावातीत ध्यान – सिद्धि सूत्र पर कोई सत्रह वर्षों के गहन व व्यापक फलक पर किए गए वैज्ञानिक अनुसंधानों और अध्ययनों के उत्साहजनक नतीजे सामने आए हैं। उसके मुताबिक, सामूहिक चेतना का विकास करके राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर शांति की स्थापना की जा सकती है। अमेरिका स्थित महर्षि इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी के मुख्यत: तीन वैज्ञानिकों की अगुआई में विभिन्न वैज्ञानिक संस्थानों के सहयोग अध्ययन व अनुसंधान किए गए थे।        

हालांकि यह पहला मौका नहीं है, जब महर्षि योगी की यौगिक विधियां विज्ञान की कसौटी पर खरी उतरी हैं। भावातीत ध्यान, सिद्धि कार्यक्रम और यौगिक उड़ान जैसी योग विधियों पर 32 देशों के 235 विश्वविद्यालयों  तथा स्वतंत्र शोध संस्थानों में अलग-अलग समय में सात सौ से अधिक वैज्ञानिक शोध व अनुसंधान करके पाया जा चुका है कि इनके अभ्यास से व्यक्ति की चेतना में प्राकृतिक नियमों की सत्ता अपनी पूर्णता में जागती है। तब वह वही काम करता है, जो धर्मानुकूल है।

वैसे, वैज्ञानिक अध्ययनों और अपनी साधना के अनुभवों के आधार पर महर्षि महेश योगी ने तो सात दशक पहले ही कह दिया था कि किसी भी देश में सामूहिक चेतना का विकास करके शांति स्थापित की जा सकती है। यही काम अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी संभव है। वे कहते थे कि जिस देश में वहां की जनसंख्या एक एक प्रतिशत वर्गमूल के बराबर भावातीत ध्यान के अभ्यासी यौगिक उड़ान का सामूहिक रूप से अभ्यास करते हैं, वहां की सामूहिक चेतना में सतोगुण बढ़ता है। बीमारियों, दुर्घटनाओं और हिंसक वारदातों में कमी आती है। साथ ही अर्थव्यवस्था में मजबूती और राजनीति में शुचिता होती है। यदि इन यौगिक अभ्यासों के साथ वैदिक अनुष्ठान भी हो तो सोने पे सुहागा।

ऋग्वेद की उद्घोषणा है कि ज्ञान चेतना में निहित है और योग विज्ञान कहता है कि चेतना बहुआयामी है। यानी हमारा ज्ञान का स्तर हमारी चेतना की गुणवत्ता पर निर्भर है। हम किसी चीज को किस रूप में देखते हैं, यह हमारी चेतना की गुणवत्ता पर निर्भर करता है। तुलसीदास ने भी कहा है – जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी। लिहाजा चेतना ही जीवन की प्रमुख प्रेरक शक्ति है। योगी कहते हैं कि चेतना कों संभाल लेने से बाकी सब कुछ संभल जाएगा। पर चेतना व्यवस्थित हो कैसे? योगियों से लेकर वैज्ञानिकों तक का मत प्रकारांतर से एक जैसा रहा है कि योग ही है चेतना का विज्ञान।  

भारतीय योगी सदियों से चेतना को व्यवस्थित करने के लिए अपने अनुभवों के आधार पर योग-सूत्रों को परिभाषित करके बतलाते रहे हैं। पर बीसवीं सदी के योगियों में महर्षि योगी की यौगिक विधियां चेतना को व्यवस्थित करने के लिहाज से समाज को दिया गया बड़ा उपहार है। ये विधियां दुनिया भर के वैज्ञानिकों को चमत्कृत करती रहती है। तभी उन यौगिक विधियों खासतौर से भावातीत ध्यान योग पर दुनिया के अनेक देशों में अध्ययन और अनुसंधान जारी रहता है। उसी का नतीजा है ताजा शोध प्रबंध। वर्ल्ड जर्नल ऑफ साइंस में प्रकाशित यह शोध पत्र भावातीत ध्यान, सिद्धि सूत्र और यौगिक उड़ान पर पूर्व में हुए अनुसंधानों से ज्यादा व्यापक है अर्थपूर्ण है। शोधकर्त्ताओं में एक डॉ डेविड ऑरमे जॉनसन का दावा है कि इन यौगिक विधियों का बड़े समूह में अभ्यास कराया गया तो राष्ट्रीय स्तर पर तनाव घट गया। पर समूह को छोटा किया जाने लगा तो उसी अनुपात में तनाव बढ़ता गया। इससे साफ हो गया कि यौगिक समूह प्रभाव पैदा कर रहा था।  

महर्षि महेश योगी ने साठ के दशक में पश्चिमी देशों में जिस “भावातीत ध्यान” का डंका बजाया था, उसका आधार मुख्यत: प्रत्याहार ही था। उसके साथ मंत्र योग का समन्वय करके उसे शक्तिशाली बनाया गया था। विभिन्न कारणों से अवसाद में डूबे पश्चिमी दुनिया के युवाओं को भावातीत ध्यान से इतने फायदे मिले कि वह अवसाद से उबारने की यौगिक दवा बन गई थी। इससे चिकित्सा विज्ञानी भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके थे। नतीजा हुआ कि दुनिया भर में भावातीत ध्यान के विभिन्न रोगों में प्रभावों पर शोध किए जाने लगे थे। शोधों के सकारात्मक नतीजों का ही असर है कि कोरोना महामारी के कारण अवसादग्रस्त लोगों को योगनिद्रा की तरह ही भावातीत ध्यान भी खूब भा रहा है।

महर्षि महेश योगी वैसे तो भावातीत ध्यान की खूबियां लोगों के मन-मिजाज को ध्यान में रखकर अलग-अलग तरह से गिनाते थे। पर एक बात सभी से कहते थे – “स्वर्ग का साम्राज्य तुम्हारे अंदर है। भावातीत ध्यान के जरिए उसे हासिल करो। फिर सब कुछ प्राप्त हो जाएगा।“ महर्षि महेश योगी को जानने वालों को याद ही है कि भावातीत ध्यान को लेकर इंग्लैंड के प्रसिद्ध रॉक बैंड ’द बीटल्स’ के कलाकारों की दीवानगी किस कदर बढ़ गई थी। तभी वे साठ के दशक में ध्यान सीखने महर्षि महेश योगी के ऋषिकेश स्थित आश्रम पहुंच गए थे। आज भी भारत सहित दुनिया के 126 देशों में इस ध्यान साधना की मजबूत उपस्थिति बनी हुई है। अब तो वैज्ञानिक इसे क्वांटम मैकेनिक्स औऱ थर्मोडाइनोमिक्स से जोड़कर देखने लगे हैं।

भावातीत ध्यान योग की उत्पत्ति की कहानी रोचक है। आजकल भूधंसाव को लेकर उत्तराखंड का जोशीमठ चर्चा में है। महर्षि योगी कभी वहीं के ज्योर्तिमठ के शंकराचार्य रहे स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती के शिष्य थे। अपने गुरूदेव के महाप्रयाण के बाद उत्तरकाशी की गुफा में गहन ध्यान साधना में थे तो कुछ अनुभूतियां प्राप्त हुईं। उसे उन्होंने भावातीत ध्यान यानी ट्रान्सेंडैंटल मेडिटेशन (टीएम) कहा। पर यह योग विधि पहली बार आम जनता को उपलब्ध हुई केरल में। वहीं प्रसिद्ध वैरिस्टर एएन मेनन और उनकी पत्नी ने महर्षि जी से दीक्षा ली और योग विधियां सीखी थी। खैर, अब समय आ गया है कि अपने देश में महर्षि जी की यौगिक विधियों को व्यापक रूप से अभ्यास में लाने के लिए हर स्तर पर प्रयास होना चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

नववर्ष का संकल्प औऱ प्रार्थना की शक्ति

किशोर कुमार //     

नववर्ष में कैसा हो संकल्प, कैसी हो प्रार्थना कि न केवल जीवन अर्थपूर्ण बन जाए, बल्कि वह विश्व के लिए राष्ट्र का संदेश बन जाए? स्वामी विवेकानंद ने कहा था – “प्रत्येक राष्ट्र का विश्व के लिए एक संदेश होता है, एक प्रेरणा होती है। जब तक वह संदेश आक्रांत नहीं होता, तब तक राष्ट्र जीवित रहता है। कभी रोम साम्राज्यलिप्सा का शिकार था। थोड़ा आघात हुआ तो छिन्न-भिन्न हो गया। यूनान की प्रेरणा बुद्धि थी। उस पर ज्योहिं आघात हुआ, उसकी इतिश्री हो गई। पर भारत का संदेश बहिर्यात्रा नहीं, अंतर्यात्रा रहा है। उसकी समृद्धि का आधार आध्यात्मिक संपदा है। यह संपदा जब तक हमारे पास है, राष्ट्र का गौरव बना रहेगा।“    

तो संकल्प और प्रार्थना के मामले में स्पष्टता जरूरी होती है।  प्रार्थना का मतलब इतना भर नहीं कि देवी-देवताओं की प्रतिमा के पास बैठ कर याचना करते रहें कि सब ठीक हो जाए। यद्यपि इसका भी अपना महत्व है। पर प्रार्थना की पूर्णता इस बात में है कि वह हमें आंतरिक संबल प्रदान करके निष्काम कर्म की ओर प्रवृत्त करे। साथ ही हमारे विचारो व इच्छाओं को सकारात्मक बनाकर निराशा और नकारात्मक भावों को नष्ट करे। जाहिर है कि यह यौगिक प्रार्थना की बात हो गई, जो व्यवहार रूप में की जाने वाली प्रार्थना से भिन्न है।  आईए, महान संतों के संदेशों के जरिए इस बात को समझते हैं।

बात परमहंस योगानंद जी से शुरू करते हैं। आज से कोई 78 साल पहले आज के ही दिन यानी 2 जवनवरी 1919 को परमहंस योगानंद कैलिफोर्निया के सेल्फ-रियलाइजेशन फेलोशिप मंदिर में थे। उन्होंने अपने अनुयायियों को बतलाया था कि नववर्ष की प्रार्थना कैसी हो? इसके बाद उन्होंने सामूहिक प्रार्थना की – हे परमपिता। नववर्ष में लिए गए सभी अच्छे संकल्पों को पूरा करने के लिए हमें शक्ति दें। अपने कार्यों द्वारा हम सदा आपको प्रसन्न करें। हमारी आत्माएं सहर्ष तत्पर हैं। नववर्ष में हमारी सभी उचित इच्छाओं को पूरा करने में हमारी सहायता करें। हम तर्क करेंगे, हम इच्छा करेंगे और कर्म करेंगे, परन्तु प्रत्येक उचित कार्य करने के लिए हमारे विवेक-बुद्धि का, इच्छा-शक्ति का और कर्मों का आप मार्ग-दर्शन करें। ताकि हम प्रत्येक कार्य को उचित ढंग से करें, जिसे हमें करना चाहिए।

ऋषिकेश में दिव्य जीवन संघ के संस्थापक और बीसवीं सदी महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती कहते थे कि नववर्ष का संकल्प होना चाहिए कि हम आज और अभी से योग और अध्यात्म का सहारा लेकर अपने जीवन का रूपांतरण करेंगे। गीता-दर्शन संसार में सभी के लिए उपयुक्त है। इसलिए गीता की शिक्षाओं को जीने का प्रयास करेंगे। रात्रि में सोने से पहले अपने दिन भर की वाणी, विचारों और कर्मों का पुनरावलोकन करके पता लगाएंगे कि आज मैंने किस दुर्गुण पर विजय प्राप्त की। आदि आदि। ऐसी प्रार्थनाओं से सभी प्रतिकूल परिस्थितियों से ऊपर उठने का साहस मिलता है। निराशा का भाव खत्म होता है और अच्छे कर्म करने की दृष्टि मिलती है। यह स्मरण रहना चाहिए कि तीनों लोक की धन-संपत्ति व्यर्थ है, यदि हम आध्यात्मिक संपदा के लिए प्रयत्नशील नहीं हैं।

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि नववर्ष आत्म-विश्लेषण, आत्म-विकास और आत्म-समपर्ण का दिन है। इसलिए शांति से बैठो, विचारो और नए संकल्प लो। यदि महान कार्य करना चाहते हो तो लघुतम से प्रयास करो। यदि महान बनाना चाहते हो तो अति विनम्र और छोटे बनो। यदि सिद्ध बनना चाहते हो तो सूक्ष्मतिसूक्ष्म अवगुण से उन्मूलन का अभियान प्रारंभ करो। यदि तुम कुछ बनना चाहते हो तो “मैं कुछ नहीं हू” बनो। जीवन में सुख-दुख लगा हुआ है। इसलिए चिंता बनी रहती है और यह एक ऐसी चीज है जो मनुष्य को आजीवन खो-खोर कर जलाती है। इससे मुक्ति का कलियुग में एक ही सरल उपाय है कि चित्त को एकाग्र करो। इसके लिए नाम और जप सदैव याद रखो।

श्रीमद्भगवतगीता में प्रार्थना की शक्ति बतलाई गई है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि सुख-दु:ख की उत्पत्ति इंद्रियों के कारण होती है। यानी जीवन में सुख-दु:ख का चक्र चलता रहेगा। इसलिए हमें समभाव से इन परिस्थियों का सामना करना चाहिए। इसके साथ ही कहते हैं कि जो अनन्यनिष्ठ लोग मेरा चिंतन कर मुझे भजते हैं, उन नित्य योगयुक्त पुरूषों का योग-क्षेम किया करता हूं। यहां योगयुक्त पुरूष से अभिप्राय ऐसे व्यक्ति से है, जो निष्काम बुद्धि से कर्म करता है। प्रार्थना की शक्ति को लेकर सभी संतों ने एक जैसी बातें कही है। और उन सबका सार यह है कि गुरूत्वाकर्षण की शक्ति जितना सत्य है, उतना ही सत्य है प्रार्थना की शक्ति भी। मीराबाई के किस्से हम जानते है कि कांटो की सेज फूल की सेज में बदल गई थी और सांप फूल की माला में तब्दील हो गया था। द्रौपदी ने संकट में भगवान को पुकारा तो वे उपस्थित हो गए थे।

आधुनिक युग में दृढ़ विश्वास और प्रार्थना की शक्ति का एक प्रसंग गौर करने लायक है। बात सन् 1919 की है, जब जापान में इंफ्लुएंजा कहर बरपा रहा था। महर्षि अरविन्द की शिष्या व सहचरी और फ्रांसीसी मूल की भारतीय आध्यात्मिक गुरु श्रीमां उस दौरान वही थीं। बड़ी संख्या में हो रही मौतों के कारण परिस्थितियों का ऐसा निर्माण हुआ कि योगमार्ग पर चलने वाली श्रीमां भी उससे अप्रभावित नहीं रह सकीं और बीमार हो गईं। पर उन्होंने कोई दवा न ली। योगी थीं और उन्हें पता था कि मन पर से नकारात्मक शक्तियों का प्रभुत्व जैसे ही समाप्त होगा, वे ठीक हो जाएंगी। इसलिए चित्त को एकाग्र करके ईश्वर से प्रार्थना करती रहीं। इसका असर देखिए कि सकारात्मक विचार खिंचा चला आया। तीसरे दिन कोई महिला उनसे मिलने आई और कहा कि इंफ्लुएंजा अब खत्म हो रही है। बीते तीन दिनों से कोई नहीं मरा। इस बात में सच्चाई नहीं थी। पर श्रीमां पर इस बात का असर जादू जैसा हुआ और वह ठीक हो गई थी।

हमने भी पूर्व में देखा कि जब संक्रमण उफान पर था तो प्रार्थना का ही विकल्प बच गया था और गृहस्थ जीवन जी रहे आम लोगों की प्रार्थना भी फलीभूत हुई थी। ऐसे में योगयुक्त प्रार्थना की शक्ति का सहज अंदाज लगाया जा सकता है। योगयुक्त प्रार्थना की तैयारी के तौर पर मंत्र साधना, प्राणायाम और योगनिद्रा बड़े काम के हैं। नववर्ष आनंदमय रहे, इसके लिए जरूरी है कि हम इन यौगिक क्रियाओं की शक्ति को याद रखें।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

क्यों न भाए भारत!

किशोर कुमार //

आध्यात्मिक गुरू और तिब्बत के चौदहवें दलाई लामा तेनजिन ग्यात्सो को भारत भूमि से इतना लगाव क्यों है? क्यों कहते हैं कि प्राण भी निकले तो भारत भूमि पर ही। ऐसे सवाल आते ही प्राय: राजनीतिक चर्चा शुरू हो जाती है। उनका आध्यात्मिक पक्ष गौण हो जाता है। पर सोचने की बात है कि जब दलाई लामा भारत आए थे, तो क्या उस समय उनके पास दूसरा कोई विकल्प नहीं था? राजनीतिक दृष्टिकोण से सोचे तो कहना होगा कि विकल्प था। पर आध्यात्मिक नजरिए मंथन करें तो कहना होगा कि भारत भूमि को छोड़कर ऐसी कोई भूमि नहीं थी, जहां उनकी आध्यात्मिक विचारधारा पल्लवित-पोषित हो सकती थी।

क्यों? बीसवीं सदी के महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती कहते थे – “धरती पर भारत ही इकलौता देश है, जिसके पास सृष्टि के आरंभ से दु:खों के विनाश, पूर्ण आनंद और शांति की महत्वपूर्ण आध्यात्मिक प्रणाली है। उसे पता है कि वह कौन-सा केंद्र है, जिस पर जीवन का नाटक खेला जा रहा है। वह अपनी अंतर्यात्रा की विलक्षण शक्ति की बदौलत उस वैदांतिक सत्य से साक्षात्कार करता रहा है।“ सच है कि मैं कौन हूं, कहां से आया हूं, जन्म का प्रयोजन क्या है और मृत्यु के पश्चात कहां जाऊंगा जैसे प्रश्न हमारी पुण्य भूमि पर खड़े किए गए और अंतर्यात्रा में उनके उत्तर मिल भी गए। संतो को इस बात की शिद्दत से अनुभूति होती रही है कि मानव को कुछ बनाने की जरूरत नहीं; क्योंकि वह जो भी हो सकता है, वह अभी हैं। सिर्फ धूल की परतों के कारण उसे इस सत्य से साक्षात्कार नहीं हो पता। धूल हटते ही उसका मूल स्वरूप प्रकट हो जाएगा। योग और अध्यात्म धूल हटाने की वैज्ञानिक विधि है।

दूसरी तरफ, तमाम वैज्ञानिक और आध्यात्मिक उपलब्धियों के बावजूद पश्चिमी दुनिया के लिए यह बात आज भी पहेली ही है। जर्मन वैज्ञानिक, नीतिशास्त्री और दार्शनिक इमानुएल कॉट ने नैतिक शुद्धता और कर्तव्य के लिए कर्तव्य का सिद्धांत लिखा। प्राणि तत्ववेत्ता डॉ हैकेल ने “द रिड्स ऑफ द यूनिवर्स” नामक पुस्तक लिखकर उस सिद्धांत को विस्तार दिया। मूर्धन्य साहित्यकार हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इसका अनुवाद किया था। पर यह विचार वेदांत के आसपास भी नहीं पहुंच सका। फिर जर्मनी के ही दार्शनिक आर्थर सोपेनहाइवर ने आगे की बात की। पर बात नहीं बन पाई। अंत में उन्होंने उपनिषदों की चर्चा करते हुए ईमनदारी से स्वीकारा कि संसार के इन अत्युत्तम ग्रंथों से कुछ विचार अपने ग्रंथों में लिए हैं। वे भगवान बुद्ध की शिक्षाओं को मानते थे और स्वयं को बौद्धधर्मी कहते थे। उन्होंने जीवन के आखिरी समय में कहा था – “मेरे जीवन में उपनिषदों से शान्ति मिली है; मृत्यु के समय भी उनसे ही शान्ति मिलेगी।”  

खैर, कहते हैं न कि फलदार वृक्ष झुका हुआ होता है। भारत की मूल प्रकृति भी कुछ ऐसी ही है। इतनी प्रचुर आध्यात्मिक संपदा होने के कारण इस देश में धार्मिक सहिष्णुता की भावना कूट-कूट कर भरी हुई है। तभी दलाई लामा कल भी मानते थे और आज भी मानते हैं कि भारत में सभी धर्मों का सम्मान है। रामकृष्ण परमहंस के वचनामृत से और भी स्पष्टता आ जाती है। वे कहते थे – “जरूरी चीज है छत तक पहुंचना। तुम पत्थर की सीढ़ी से चढ़कर जा सकते हो, बांस की सीढ़ी से चढ़कर जा सकते हो या फिर रस्सी से भी चढ़कर जा सकते हो। इसी तरह परमात्मा को किसी भी मार्ग से प्राप्त किया जा सकता है। सभी धर्म के मार्ग सत्य है।“ परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि हमने विभिन्न धर्मों के जितने भी संत-महात्माओं को जाना, उन सभी की उपलब्धियां और सिद्धियां समान थीं। यहां तक कि आध्यात्मिक अनुभूतियां भी समान थीं।

सर्व धर्म समभाव की ऐसी मिसाल भला और कहां मिलेगी? तभी दलाई लामा जैसे आध्यात्मिक गुरू को अध्यात्मशास्त्र की ब्रह्म या आत्मा की अवधारणा से इत्तेफाक न होने के बावजूद भारत की भूमि मातृभूमि जैसी जान पड़ती है। वैसे, दलाई लामा की कहानी तो इस युग की कहानी है। हजारों साल पहले ईसा मसीह भी आध्यात्मिक अनुभव प्राप्त करने के लिए भारत ही तो आए थे। आध्यात्मिक पुस्तकों यथा भविष्य पुराण और लद्दाख के हेमीस मठ के अभिलेखों जैसे अनेक अभिलेखों से यह तथ्य प्रमाणित है कि ईसा मसीह ने कोई बारह वर्षों तक भारत में रहकर संन्यासी जीवन व्यतीत किया था। इसी तरह सत्रहवीं शताब्दी के यहूदी संत सरमद ईरान में जन्मे-पले थे। भारत तो व्यापार करने आए थे। पर भारतीय संतों का सानिध्य मिला तो आध्यात्मिक अनुभव प्राप्त हो गया था।

खैर, आधुनिक युग में भी दलाई लामा इकलौते आध्यात्मिक गुरू नहीं हैं, जिन्हें भारत बेहद आकर्षित करता है। विदेशी आध्यात्मिक गुरूओ की फेहरिस्त लंबी है, जो भारत के संतों से विशिष्ट आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने के बाद या तो भारत के हो कर रह गए या स्वदेश वापसी के बावजूद मानसिक तौर पर भारत में ही रह गए। कैलिफोर्निया के सैन डिएगो में जन्मे और पले-पढ़े आचार्य मंगलानंद ऐसे ही आध्यात्मिक गुरू हैं। भारत की महानतम संत आनंदमयी मॉ से मिले तो दीक्षा लेने के लिए ब्याकुल हो गए थे। दीक्षित हुए तो ऐसे रूपांतरित हुए कि ओंकारेश्वर में ही रहकर कर्मयोग साधना में तल्लीन हैं। आस्ट्रेलिया के चिकित्सा स्वामी शंकरदेव सरस्वती भी वर्षों बिहार में रहे और परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती के सानिध्य में आध्यात्मिक साधना करते रहे। उनकी पुस्तक “रोग औऱ निरोग” सर्वाधिक चर्चित है। अब आस्ट्रेलिया में रहकर भी बिहार या सत्यानंद योग का ही प्रचार करते हैं। “सूरत शब्द योग” से हम सबको परिचित कराने वाले डॉ.जूलियन फिलीप मैथ्यू जॉनसन अमेरिका के ईसाई परिवार में जन्मे शल्य चिकित्सक थे। पर जब अध्यात्म की तरफ झुकाव हुआ तो सीधे भारत आ गए। यहां वे राधास्वामी सत्संग ब्यास के तत्कालीन प्रमुख सतगुरू महाराज सावन सिंह जी की संगति में वर्षों रहे। आध्यात्मिक अनुभूतियां हुईं तो कई यौगिक विधियों को सुगम बनाकर प्रस्तुत किया। उनसे संबंधित पुस्तकें लिखीं।   

अब तो विदेशों के आम युवा भी भारत की यौगिक व आध्यात्मिक शक्तियों से प्रभावित होकर शांति की तलाश में खींचे चले आ रहे हैं। सन् 2019 में प्रयागराज के कुंभ में इसका भव्य नजारा दिखा था। बड़ी संख्या में युवाओं ने संतो से आशीर्वाद लेकर आध्यात्मिक यात्रा शुरू की थी। समाचार एजेंसी एएनआई ने इस खबर को प्रमुखता से प्रसारित किया था। दरअसल, आज अमेरिका या यूरोप में अगर युवकों का बड़ा वर्ग विद्रोह कर रहा है शिक्षा से, संस्कृति से, समाज से, तो उसका मौलिक कारण यही है कि बुद्धि ने जो—जो आशाएं दी थीं, वे पूरी नहीं हुईं। भारत के महान संत श्रीअरविंद ने कहा था – “तर्क एक सहारा था, अब तर्क एक अवरोध है।“ अब तो विदेशी वैज्ञानिक भी प्रकारांतर से इस बात को स्वीकार करने लगे हैं। इसलिए विदेशी युवाओं को भारत की आजमायी हुई यौगिक व आध्यात्मिक जीवन-शैली रास आ रही है।

कोई सवाल कर सकता है कि इतनी आध्यात्मिक संपदा के बावजूद खुद भारतीयों में अभारतीय संस्कार क्यों अंकुरित होने लगा, जो पश्चिमी जगत के लिए अशांति का कारण है?  इसे एक कथा से समझिए। मगध की राजधानी राजगृह में भगवान बुद्ध के सत्संग में प्रतिदिन भाग लेने वाले एक व्यक्ति को यह जानने की उत्सुकता हुई कि निर्वाण-प्राप्ति पर प्रवचन सुनने वालों में कितने लोग उस पथ पर चलते होंगे? भगवान बुद्ध ने उस व्यक्ति की भावना समझते हुए कहा – तुम तो वैशाली के हो, जो परम वैभवशाली नगर है और वहां जाने की चाहत बहुतों को होती होगी। उनमें से कोई तुमसे वहां जाने का मार्ग पूछता होगा तो तुम खुशी-खुशी बता भी देते होगे। पर क्या कभी सोचा कि उनमें से कितने लोग वहां गए? वैसे ही मैंने निर्वाण नामक जिस सुंदर नगर के दर्शन किए थे, वहां का पता जिज्ञासुओं को बता देता हूं। अब वहां तक जाना न जाना उनके संकल्प पर निर्भर है। 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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