जब योग के प्रचारक बन गए थे जेपी

किशोर कुमार //

हम सब मोरारजी देसाई राष्ट्रीय योग संस्थान से तो परिचित हैं ही। भारत सरकार के आयुष मंत्रालय के अधीन एकमात्र स्वायत्तशासी संगठन है, जिसका उद्देश्य एक केंद्रीय एजेंसी के रूप में योग अनुसंधान, योग चिकित्सा, योग प्रशिक्षण और योग शिक्षा को बढ़ावा देना है। नई पीढ़ी के ज्यादातर लोगों को पता नहीं होगा कि योग के इस मंदिर की स्थापना महान योगी स्वामी धीरेंद्र ब्रह्मचारी की परिकल्पना औऱ उनके श्रमसाध्य प्रयासों का प्रतिफल है। तब यह विश्वायतन योगाश्रम के रूप में जाना जाता था। पर मैं आज स्वामी धीरेंद्र ब्रह्मचारी की जीवनी भी लिखने नहीं बैठा हूं। आज तो संपूर्ण क्रांति के जनक लोकनायक जयप्रकाश नारायण की जयंती है। उनके जीवन से जुड़े विविध पहलुओं पर प्रबुद्धजन अपने विचार प्रकट कर रहे हैं। उसी कड़ी में मैं भी केवल स्मरण करा रहा हूं कि धीरेंद्र ब्रह्मचारी को स्वामी धीरेंद्र ब्रह्चारी के रूप में स्थापित कराकर योग के प्रचार-प्रसार को गति दिलाने में लोकनायक का कितना बड़ा योगदान था।    

कैसे? इस विषय़ पर आने से पहले योग की महत्ता क्या है, शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य के लिए यह कितना अद्भुत टॉनिक है और इसका प्रत्यक्ष अनुभव लोकनायक जयप्रकाश नारायण को कब और कैसे हुआ था, सब कुछ उन्हीं के शब्दों में जानिए, जिसका उल्लेख धीरेंद्र ब्रह्मचारी की पुस्तक “यौगिक सूक्ष्म व्यायाम” में है – “योग-विद्या का कोई ज्ञान मुझे नहीं है। न योग वाङ्मय से ही परिचित हूँ। तथापि अन्य साधारण लोगों की तरह योग की अनन्त महिमाओं का वर्णन जब तब सुनता रहा हूँ। अभी हाल में विश्वायतन योगाश्रम, काश्मीर, के दो योगियों– श्री धीरेन्द्र ब्रह्मचारी और हरिभक्त चैतन्य से परिचय प्राप्त करने का सौभाग्य मिला।

मेरा स्वास्थ्य वर्षों से अच्छा नहीं रहता। इधर दो-ढाई साल से मधुमेह का शिकार रहा हूँ। कुछ महीने पूर्व कलकत्ते गया था, तो मित्रों से इन महात्माओं के विषय में सुना था। यह दोनों महात्मा लगभग एक वर्ष से यौगिक क्रियाओं का शिक्षण कलकते के नागरिकों को दे रहे हैं। इन क्रियाओं से अनेकों ने लाभ उठाया है और पुराने-पुराने रोग भी दूर हो गये हैं। यह सब मित्रों से सुनकर मैंने भी इन क्रियाओं का अनुभव लेने का निश्चय किया। कलकत्ते रहकर इन महात्माओं की कृपा से कुछ क्रियाओं का अभ्यास किया।

कुछ तो अद्भुत क्रियाएं हैं, जैसे “शंखप्रक्षालन” की क्रिया। सूक्ष्म व्यायाम भी अत्यन्त वैज्ञानिक लगते हैं। अभ्यास लगभग एक मास से जारी है। इस थोड़े समय में ही बहुत लाभ का अनुभव कर रहा हूँ। शरीर हल्का लग रहा है। मन अधिक प्रसन्न है। पेशाब में चीनी नहीं आ रही है। खून में भी चीनी पहले से कम है। निश्चित रूप से तो कुछ महीने बाद ही कहा जा सकता है कि स्वास्थ्य में क्या-क्या अन्तर पड़ा है, परन्तु २४-२५ दिनों के ही अभ्यास से जो लाभ हुआ, वह थोड़ा नहीं है ।

यहाँ योग की प्रशंसा करने नहीं बैठा हूँ। उसकी आवश्यकता ही क्या है? जब अनन्त ऋषि-मुनियों ने उसकी प्रशंसा गाई है, जब योगेश्वर श्रीकृष्ण ने उसकी बड़ाई की है और भगवान् बुद्ध ने योगाभ्यास से ज्ञान प्राप्त किया था, तो मुझ जैसे अदना और नानुभवी व्यक्ति के कथन का क्या महत्त्व हो सकता है?  मैं यहां इतना ही कहना चाहता हूँ कि यह दुःख की बात है कि यह प्राचीन भारतीय विद्या आज भारतीय जीवन से लुप्त हो गई है। पाश्चात्य सभ्यता, शिक्षा, चिकित्सा आदि का भूत इस तरह हम पर सवार है कि अपने देश की इस अनमोल वस्तु का हम तिरस्कार ही कर रहे हैं। इस विद्या के जानने वाले भी इस वातावरण से क्षुब्ध होकर जन-जीवन से दूर पड़ गये हैं।

इस अवस्था में यह प्रसन्नता का विषय है कि कुछ ऐसे योगी हैं, जो समाज में आकर फिर से इस दिव्य विद्या को फैलाने का शुभ प्रयास कर रहे हैं। इनमें ही विश्वायतन योगाश्रम के यह दो योगी हैं, जिनका जिक्र ऊपर आया है और जिन्होंने “यौगिक सूक्ष्म व्यायाम” पुस्तक को तैयार किया है। हिन्दी भाषा में इस विषय पर ऐसी दूसरी पुस्तक नहीं है। शायद अन्य किसी भाषा में भी न हो। हजारों वर्षों के अनुभवों और प्रयोगों का सार यहाँ संग्रहीत है। इस पुस्तक का अधिक-से-अधिक प्रचार हो, इसमें देश का कल्याण मैं मनाता है।“

स्वामी धीरेंद्र ब्रह्मचारी के निर्देशन में योगाभ्यास से लोकनायक जयप्रकाश नारायण को चमत्कारिक लाभ मिला तो उन्होंने उन्हें कलकत्ता के बदले दिल्ली को अपना केंद्र बनाने का सुझाव दिया। धीरेंद्र ब्रह्मचारी इसके लिए खुशी-खुशी तैयार भी हो गए। वे जब दिल्ली आए तो जेपी ने ही पंडित जवाहरलाल नेहरू से लेकर बाबू जगजीवन राम तक को धीरेंद्र ब्रह्चारी की विलक्षण यौगिक क्षमता से अवगत कराया। फिर तो धीरेंद्र ब्रह्मचारी की योगविद्या की खुशबू तुरंत ही फैल गई।

साठ के दशक में योग के प्रचार-प्रसार को गति दिलाने में उत्प्रेरक की भूमिका निभाने वाले लोकनायक जयप्रकाश नारायण को उनकी जयंती पर सादर नमन।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

धीरेंद्र ब्रह्मचारी : बेशकीमती यौगिक सूक्ष्म व्यायाम है

किशोर कुमार

अस्सी के दशक के बहुचर्चित योगी और महर्षि कार्तिकेय के शिष्य धीरेंद्र ब्रह्मचारी राजनीति और व्यापार के पचड़े में न पड़े होते तो उनके “विश्वायतन योगाश्रम” और “योग अनुसंधान संस्थान” का परचम लहरा रहा होता। अपने समय के प्रतिभाशाली हठयोगी होने के कारण शिखर पर पहुंच तो गए थे। पर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से संबंधों और अपनी कुछ गतिविधियों के कारण इतने विवादास्पद हुए कि योग को विज्ञान की कसौटी पर कसकर उसे जन-जन तक पहुंचाने के उनके अभियान को बड़ा धक्का लगा। लेखकों-पत्रकारों के एक बड़े वर्ग के लिए योग, यौगिक अनुसंधान व उससे मिलने वाले लाभ गौण हो गए और विवादास्पद प्रसंग महत्वपूर्ण हो गए।

वैसे, धीरेंद्र ब्रह्मचारी इकलौते योगी नहीं हैं, जो विवादास्पद बने। कई अन्य योगियों का भी अलग-अलग कारणों से विवादों से गहरा नाता रहा है। पर उनके मूल कार्यों पर ज्यादा असर नहीं पड़ा। इस मामले में धीरेंद्र ब्रह्मचारी भाग्यशाली नहीं निकले। श्रीमद्भगवतगीता में श्रीकृष्ण कहते हैं – “कर्मफल का आश्रय न लेकर जो कर्तव्य-कर्म करता है, वही संन्यासी तथा योगी है।“ हम जानते हैं कि संसार त्रिगुणों यानी तमस, रजस और सत्व गुणों की लीला भूमि है। कोई भी व्यक्ति इन गुणों से परे नहीं है। फर्क इतना है कि किसी में तमस गुण की प्रधानता है तो किसी में रजस गुण की। आत्मज्ञानी संतों में सत्व गुण की प्रधानता होती है। धीरेंद्र ब्रह्मचारी की जैसी जीवन-शैली थी, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि वे रजस गुण प्रधान योगाचार्य थे।

धीरेंद्र ब्रह्मचारी ने भी कभी नहीं कहा कि वे योगी या आत्मज्ञानी संत हैं। हमेशा खुद को हठयोग साधक या योगाचार्य बताते रहे। पर समस्या इसलिए भी खड़ी हुई कि हम उन्हें निवृत्ति मार्गी संन्यासी मानते हुए तदनुरूप व्यवहार की उम्मीद करने लगे। भूल गए कि योगाचार्य प्रोफेशनल भी हो सकता है। भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिक बिक्रम चौधरी तो हॉट योग के लिए दुनिया भर में मशहूर हैं। कारोबार पांच सौ करोड़ रूपए का है। विवादों से नाता बना रहता है। पर कारोबार पर कभी फर्क नहीं पड़ा।    

धीरेंद्र ब्रह्मचारी हठयोग विद्या में प्रवीण थे। तंत्र की शक्तियों से वाकिफ थे। तभी हठयोग और तंत्र में परस्पर संबंध बतलाते हुए तदनुरूप योगाभ्यास भी कराते थे। उन योगाभ्यासों से किसी न किसी दौर में राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह, प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, मोरारजी देसाई, राजीव गांधी, उप प्रधानमंत्री बाबू जगजीवन राम और लोकनायक जयप्रकाश नारायण जैसी शख्सियतों के अलावा लाखों लोग लाभान्वित हुए। सच तो यह है कि सन् 1956 में जेपी जब यौगिक उपचार से मधुमेह-मुक्त हुए तो उन्होंने ही धीरेंद्र ब्रह्मचारी को कलकत्ता से दिल्ली लाने में भूमिका निभाई थी। वरना धीरेंद्र ब्रह्चारी ज्यादातर कलकत्ते में ही लोगों को योगाभ्यास कराते थे। जाहिर है कि धीरेंद्र ब्रह्मचारी में कुछ खास बात निश्चित रूप से रही होगी। तभी चेतना के बेहतर तल पर जीने वाली शख्सियतें उनसे प्रभावित थीं।

धीरेंद्र ब्रह्मचारी योग का प्रचार-प्रसार विश्वायतन संस्था के बैनर तले करते थे। इस संस्था के बड़े योगाश्रम दिल्ली और जम्मू-कश्मीर में थे। दिल्ली का आश्रम अब भारत सरकार के अधीन मोरारजी देसाई राष्ट्रीय योग संस्थान बन चुका है। जम्मू के मंतलाई आश्रम का कायाल्प करके उसे अंतर्राष्ट्रीय योग केंद्र बनाया जा रहा है। टीवी के जरिए योग का प्रचार-प्रसार अब आम है। पर धीरेंद्र ब्रह्मचारी ने इसकी बुनियाद सत्तर के दशक में ही रख दी थी। दूरदर्शन पर “योगाभ्यास” नाम से कार्यक्रम प्रत्येक सप्ताह प्रसारित किया जाता था। वे कहते थे कि आत्मज्ञान योग का असल उद्देश्य है। पर यह विषय उनके एजेंडे में नहीं था। उनकी कोशिश इतनी भर थी कि लोग स्वस्थ्य एवं प्रसन्न रहें। इसलिए बहिरंग योग साधना उनका विषय था।

नई शिक्षा नीति में यौगिक क्रियाओं को अब जाकर स्थान मिला है। पर धीरेंद्र ब्रह्चारी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से अपने संबंधों का लाभ लेते हुए अस्सी के दशक में ही देश के सभी केंद्रीय विद्यालयों में योग शिक्षा आरंभ करवाई थी। ताकि छात्रों की प्रसुप्त क्षमताएं और प्रतिभाएं प्रकट हो सके। धीरेंद्र ब्रह्चारी संत भले न थे। पर संतों के प्रति अनुराग में कोई कमी न थी। इसे एक उदाहरण से समझिए। वे केंद्रीय विद्यालयों में योग शिक्षकों की बहाली के लिए खुद ही इंटरव्यू ले रहे थे। उनके समक्ष गेरू वस्त्र धारण किया हुआ एक अभ्यर्थी उपस्थित हुआ। उससे योग्यता प्रमाण-पत्र मांगा गया तो उसने बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती के साथ की अपनी तस्वीर प्रस्तुत कर दी। धीरेंद्र ब्रह्चारी ऐसे उछले मानो कोयला खान में हीरा मिल गया हो। उन्होंने कहा, “इतने बड़े संत का जिसे सानिध्य मिल चुका है, उसके चयन के लिए कागज के टुकड़े का क्या मोल। आपका चयन किया जाता है।“

धीरेंद्र ब्रह्मचारी बिहार के मधुबनी जिले में जन्मे थे। यह वही जिला है, जहां स्वयं भगवान शिव अपने भक्त विद्यापति पर कृपा करके उनके घर में लंबे समय तक उगना के रूप में नौकरी किया करते थे। उगना महादेव मंदिर आज भी उस ईश्वरीय लीला की याद दिलाते रहता है। कृष्ण-भक्त धीरेंद्र ब्रह्चारी कोई बारह साल के थे तो उन पर सद्गुरू महर्षि कार्तिकेय की दृष्टि गई थी। इसके कुछ समय बाद ही वैराग्य के लक्ष्ण प्रकट हुए तो महादेव की लीला भूमि मधुबनी से निकल कर किसी कृष्णधाम नहीं, बल्कि काशी धाम ऐसे गए मानो आदियोगी उन्हें खींच ले गए हों। वहीं से उन्नाव के गोपाल खेड़ा स्थित कार्तिकेय आश्रम चले गए और योग विद्या हासिल की थी। जब कर्मक्षेत्र में उतरे तो तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की नजर गई। फिर तो वे वैसे ही खिल गए, जैसे सूर्य की रोशनी पा कर सूरजमुखी के फूल खिल उठते हैं।

अब तो धीरेंद्र ब्रह्मचारी के गुजरे भी तीन दशक होने को हैं। उनके जीवन के श्याम पक्ष को पकड़ कर उसमें उलझे रहने का भी कोई सार नहीं है। सार है तो उनके यौगिक सूक्ष्म व्यायाम का, योगासन विज्ञान का। सन् 2024 धीरेंद्र ब्रह्मचारी का जन्मशताब्दी वर्ष है। उनकी यौगिक क्रियाओं का प्रचार-प्रसार करना और उन क्रियाओं को शोध का विषय बनाना योग को समृद्ध करना होगा। दिल्ली के बाद मंतलाई आश्रम का स्वरूप बदला जाना अच्छा कदम है। पर ध्यान रखा जाना चाहिए कि धीरेंद्र ब्रह्मचारी का योग-बल ही इन संस्थाओं की बुनियाद है। इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए। वरना इतिहास बदलने वाले कोई मौका कहां छोड़ते हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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