मन का मैल मिटे तो बने बात

किशोर कुमार

बीसवीं सदी के महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती से किसी शिष्य ने पूछ लिया – स्वामी जी, एक नई सभ्यता का निर्माण कैसे किया जाए, जो मानव जाति की शांति, समाज की खुशहाली और व्यक्ति की मुक्ति सुनिश्चित कर सकेगी? स्वामी जी ने जो उत्तर दिया था, वह वैश्विक स्तर पर पर्यावरणीय स्वास्थ्य को लेकर उत्पन्न परिस्थितियों के आलोक में भी बेहद प्रासंगिक है। उन्होंने कहा था – विचार मनुष्य को बनाता है और मनुष्य सभ्यता को। इतिहास की प्रत्येक महान घटना के पीछे एक शक्तिशाली विचार-शक्ति रही है। सभी खोजों और आविष्कारों के पीछे, सभी धर्मों और दर्शन-शास्त्रों के पीछे, सभी प्राण-रक्षक अथवा प्राण-विनाशक उपकरणों के पीछे विचार ही रहे हैं। जो धन और समय व्यर्थ के मंसूबों और विनाशकारी गतिविधियों में बर्वाद किया जाता है, उसका अंशमात्र भी यदि एक अच्छे विचार के सृजन में दिया जाए तो अभी और इसी वक्त एक नई सभ्यता का शुभागमन हो जाएगा।

पर विचार-शक्ति शक्तिशाली कैसे बने? यह एक ऐसा सवाल है, जिसका सभी धर्म-शास्त्रों में विशद वर्णन मिलता है। वेद से लेकर बाइबिल और कुरान तक में अस्तित्व की रक्षा के लिए शक्तिशाली विचार-शक्ति के सूत्र मिलते हैं। इस बात को कुछ वैदिक प्रसंगों के जरिए समझा जा सकता है। पर पहले विश्व पर्यावरण स्वास्थ्य दिवस की प्रासंगिकता की चर्चा। स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से पर्यावरण प्रदूषण के खतरों से हम सब वाकिफ हैं। देश-दुनिया में इसकी गंभीरता पर चर्चा होती रहती है। बीते एक दशक से हर साल सितंबर महीने में अलग-अलग थीमों पर विश्व पर्यावरण स्वास्थ्य दिवस मनाया जाता है। लिहाजा इस साल भी यह दिवस मनाया गया। इस साल का थीम “वैश्विक पर्यावरणीय सार्वजनिक स्वास्थ्य : हर दिन हर किसी के स्वास्थ्य की रक्षा के लिए खड़े होना” था। इस मौके पर हमें विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्टों के आधार पर बतलाया गया कि वाय़ु प्रदूषण से दिल की बीमारियां, स्ट्रोक, फेफड़ों का कैंसर, क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज (सीओपीडी) और तीव्र श्वसन संक्रमण आदि हो रही हैं। इसका संदेश यह कि अकेले वायु प्रदूषण ही इतना खतरनाक है तो सभी तरह के प्रदूषण से मानव जाति की क्या हालत बन रही होगी, इसकी कल्पना की जा सकती है।

यह दु:खद है कि जिस वैदिक ज्ञान की बदौलत हम विश्वगुरू रहे हैं, आधुनिक युग में उसी ज्ञान की अवहेलना हम ही कर रहे हैं। ईशावास्‍योपनिषद् में कहा गया है – ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्।। यानी जड़-चेतन प्राणियों वाली यह समस्त सृष्टि परमात्मा से व्याप्त है। मनुष्य इसके पदार्थों का आवश्यकतानुसार भोग करे, परंतु ‘यह सब मेरा नहीं है के भाव के साथ’ उनका संग्रह न करे। पर हकीकत में हम करते क्या हैं? ठीक इसके विपरीत। यह एक प्रकार का मानसिक प्रदूषण ही है, जिसके लिए भारतीय वैदिक जीवन-दर्शन में कोई स्थान नहीं है।

हमें तो वैदिक काल से शिक्षा दी जाती रही है कि प्रकृति का मात्र दोहन नहीं, बल्कि इसका पोषण भी करना है। प्रकृति वेदों के हर पहलू का एक अपरिहार्य हिस्सा है। वैदिक संस्कृति की सबसे बुनियादी अवधारणाओं में से एक की अवधारणा है पंचभूत – पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश। इसी पंच तत्वों से पूरी सृष्टि की रचना हुई और वैदिक मान्यताओं के मुताबिक, इन तत्वों का पूजन होना चाहिए। संतों का मान्यता रही है कि इस पूजन के पीछे का विचार पूरी तरह से पर्यावरणीय है। भारत वर्ष में अनेक धर्मों और संप्रदायों में प्रकृति के पूजन के लिए नाना प्रकार के अनुष्ठान का विधान है। वैदिक काल के बाद भारत में आए बौद्ध धर्म ने सत्य, अहिंसा और पेड़-पौधों और वनस्पतियों सहित सभी जीवित प्राणियों के प्रति प्रेम पर बहुत जोर दिया। बौद्ध धर्म के प्रत्येक अनुयायी को हर साल एक पेड़ लगाना था और उसे तब तक पोषित करना था जब तक कि वह एक पूर्ण विकसित पेड़ न बन जाए। महान राजा अशोक को जीवित प्राणियों के प्रति दया के कारण सिंहासन त्यागने और अहिंसा का उपदेश देने के लिए जाना जाता है।

पर हमारी सोच कैसे बदल गई? जिन प्राकृतिक संसाधनों का हमें रक्षक बनना था, उसका भक्षक मात्र बनकर क्यों रह गए? संत-महात्मा कहते हैं कि मन पर तमोगुण हावी है। इसलिए, संसार से जुड़ी हमारी भावनाएं घृणा, द्वेष, हिंसा आदि रूपों में परिवर्तित होती रहती है। इससे कूड़ा-कर्कट अंदर भरता है और मन दूषित होता है। वरना, आदियोगी शिव की जटाओं से निकली पवन पावनी गंगा और यमुना जैसी नदियां कदापि प्रदूषित नहीं रहतीं। मन में मैल है इसलिए करोड़ो खर्च करके भी गंगा को स्वच्छ बनाने का सपना साकार नहीं हो पा रहा। यह कोई सैद्धांतिक बात नहीं है। हम सब नंगी आंखों से नदियों की दुर्दशा देख रहे हैं। जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण हो या सांस्कृतिक प्रदूषण हर मामले में यही सिद्धांत लागू है।

अब सवाल है कि मन का मैल कैसे मिटे? योग में इसके लिए कई उपाय बतलाए गए हैं। पर यम-नियम ठोस समाधान है। महर्षि पतंजलि के अष्टांग योग का पहला चरण ही है यम और नियम। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्च और अपरिग्रह ये पांच यम हुए और शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान ये पांच नियम हैं। इन्हें ही संपूर्ण योग का आधार माना गया है। प्रश्नोपनिषद् में कथा है कि छह ब्रह्म जिज्ञासु सुकेशा, सत्यकाम, सौर्यायणि गार्ग्य, कौसल्य, भार्गव और कबंधी महर्षि पिप्पलाद के पास गए तो महर्षि ने उनसे वर्षों ब्रह्मचर्यपूर्वक तप करवाया था। वह कुछ और नहीं, बल्कि यम-नियम का उच्चाभ्यास ही था। यानी यम-नियम साधना बाद ही वे आध्यात्मिक ज्ञान के हकदार हो पाए थे।

परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने महर्षि पतंजलि के योगसूत्र के अपने भाष्य में कहा है कि योग का समस्त क्षेत्र अंतरंग और बहिरंग में विभक्त है। धारणा, ध्यान और समाधि अंतरंग योग है। महान संस्कारों के साथ जन्में कुछ लोगों की बात छोड़ दें तो अधिकांश लोगों को ध्यान तभी सध पाता है, जब प्रारंभ यम-नियम से हुआ होता है। यम-नियम के अभ्यास के बिना बहिरंग योग का तात्कालिक लाभ भले मिल जाए। पर मन का मैल तो बना ही रह जाता है। चूंकि समाज मानव मन की अभिव्यक्ति है, इसलिए भौतिक जगत की समस्याएं विकराल होती जाती हैं, जिसका हमारे शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव होता है। इसलिए स्वस्थ्य जीवन की आकांक्षा है तो सबसे पहले अष्टांग योग के प्रथम पायदान पर चढ़ना होगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

सनातन धर्म से निकला यौगिक अमृत है सूर्य नमस्कार

किशोर कुमार //

आदित्य एल1 मिसाइल के प्रक्षेपण के बाद सूर्यनमस्कार एक बार फिर चर्चा में है। आदित्य एल1 की खबर मीडिया में कुछ इस तरह थी – भारत चला सूर्यनमस्कार करने। अनेक योग व शिक्षण संस्थानो में सूर्यनमस्कार के लिए बड़े-बड़े आयोजन किए जा रहे हैं। सूर्य की महिमा का बखान करते हुए युवाओं से सूर्यनमस्कार अभ्यास को जीवन का अनिवार्य हिस्सा बनाने की अपील की जा रही है। इसलिए इस बार के कॉलम का विषय सूर्यनमस्कार ही चुना। पर जब लिखने बैठा तो जी20 शिखर सम्मेलन के 55 पृष्ठों वाले दस्तावेज पर नजर गई, जिसे किसी मित्र ने भेजा था। भारत के सांस्कृतिक व आध्यात्मिक चिंतन को दर्शाने वाले इस दस्तावेज ने बेहद प्रभावित किया। इसलिए उस दस्तावेज के सार-तत्व के आलोक में दो शब्द।   

जी20 शिखर सम्मेलन से हमने क्या खोया, क्या पाया, इसका राजनीतिक और आर्थिक विश्लेषण होता रहेगा। पर यह अच्छा हुआ कि इस शिखर सम्मेलन के बहाने हमने ने दुनिया को दिखाया कि भारत को विश्व गुरू क्यों कहा जाता था? यह भी कि हममें वे कौन से तत्व बीज रूप में मौजूद हैं कि हम फिर से विश्व-गुरू की पदवी पर अधिरूढ़ हो सकते हैं। आर्ष ग्रंथ इस बात के गवाह हैं कि हमारी चेतना इतनी विकसित और परिष्कृत थी कि हम खुद प्रकाशित तो थे ही, अपने प्रकाश से दुनिया को राह दिखाते रहे। भौतिक समृद्धि भी कुछ कम न थी। तभी तुर्कियों, यूनानियों और मुगलों के आक्रमणों और हजार वर्षों की लूट के बावजूद हमारा अस्तित्व बना रह गया।

आज सनातन धर्म को लेकर देश में बहस छिड़ी हुई है और पक्ष व विपक्ष में बहुत-सी बातें कही जा चुकी हैं। मैं उसके विस्तार में नहीं जाऊंगा। पर वैदिककालीन वैज्ञानिक ऋषि-मुनियों से लेकर आधुनिक युग के संत तक धर्म को परिभाषित करके मानते रहे हैं कि जीवन में धर्म की बड़ी अहमियत है। जैसे योग को जीने की कला माना जाता है, वैसे ही धर्म को भी जीने की कला और विज्ञान माना गया। संत जब धर्म की बात कहते हैं तो प्रकारांतर से अध्यात्म की भी बात कर रहे होते हैं। इसलिए कि कहीं न कहीं, सभी धर्मों की शुरुआत आध्यात्मिक प्रक्रिया के रूप में हुई है।

ओशो की एक बड़ी अच्छी पुस्तक है – मेरा स्वर्णिम भारत। इसकी बहुत-सी बातों से मत-मतांतर हो सकता है। पर नईपीढ़ी को प्रेरित करने वाली अनेक बाते हैं। उन्होंने लिखा है कि भारत एक सनातन यात्रा है, एक अमृत पथ है, जो अनंत से अनंत तक फैला हुआ है। भारत अपनी आंतरिक गरिमा और गौरव को,अपनी हिमाच्छादित ऊँचाईयों को पुनः पा लेगा, क्योंकि भारत के भाग्य के साथ पूरी मनुष्यता का भाग्य जुड़ा हुआ है। अब देखिए न। भारत जी20 शिखर सम्मेलन का अगुआ बना तो उसने फिर से “वसुधैव कुटुंबम्” के रूप में सनातन धर्म के मूल संस्कार व विचारधारा को मजबूती से दुनिया के समक्ष प्रस्तुत किया। कमाल यह कि इस पर पूरी दुनिया ने तालियां बजाईं।

भारत ने कोई नौ साल पहले जब योग को विश्व पटल पर प्रस्तुत किया तो उसका मकसद केवल अपना कल्याण नहीं था। मंशा तो यही थी कि पूरे विश्व का कल्याण हो। सभी खुशहाल रहें। इसलिए कि स्वस्थ तन-मन ही खुशहाली की कुंजी है। बीसवीं सदी के महान संत स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि सुखी, समृद्ध और स्वस्थ्य जीवन की चाहत है तो योगविद्या को जीवन का हिस्सा बनाना ही होगा। यह आजमाया हुआ है। प्राचीनकाल में भारत के लोग इसी विद्या के बल पर सुखी जीवन व्यतीत करते थे। उन्होंने सदैव समग्र योग पर बल दिया। पर भारत सरकार स्कूलों में सूर्यनमस्कार को ज्यादा ही अहमियत देती रही है तो इसकी खास वजह है।

दरअसल, सूर्यनमस्कार ही एक ऐसी योगविधि है, जिसके अभ्यास में समय कम और लाभ कई मिल जाते हैं। इसके अभ्यास से न केवल मानसिक बल प्राप्त होता है, बल्कि शारीरिक स्वास्थ्य प्राप्त होता है, शक्ति भी मिलती है। अब यह बात कोई सैद्धांतिक नहीं रह गई है, बल्कि लाखों लोगों का अनुभव है। योगियों का तो अनुभव है कि शारीरिक स्वास्थ्य के साथ ही चित्त को एकाग्र करने में भी बड़ी मदद मिलती है। आसन की बारह मुद्राओं वाले इस योगाभ्यास से शरीर की मांसपेशियां सबल होती हैं। रक्त-संचालन दुरूस्त रहता है। स्नायु-बल प्राप्त होता है और ग्रंथियां पुष्ट होती हैं। सूर्य की किरणों से कीटाणुओं का नाश होता है।

एक सूर्य नमस्कार से इतने साऱे लाभ मिलने के कारण ही शैक्षणिक संस्थानों का भी सूर्य नमस्कार पर ज्यादा जोर रहता है। छात्रों को भी यह खूब भाता है। बीते सप्ताह देहरादून में प्रयाग आरोग्य केंद्र के सहयोग से योगा स्पोर्ट्स फेडरेशन ने दो दिवसीय सूर्य नमस्कार कार्यक्रम का आयोजन किया था। इसे आशातीत सफलता मिली। इस मेगा इवेंंट में सात देशों और अठारह राज्यों के प्रतिनिधियों ने शिरकत की थी। विद्युत अभियंता से योगाचार्य बने प्रयाग आरोग्य केंद्र के संस्थापक प्रशांत शुक्ल योग को खेल बनाने के पक्ष में कभी नहीं रहे। पर खेल-खेल में योग के हिमायती रहे हैं। इसलिए मेगा इवेंट होने के बावजूद सूर्य नमस्कार अभ्यास व्यायाम भर नहीं रह गया था, बल्कि प्राणायाम, मुद्रा और मंत्रों के समिश्रण के कारण इसका पारंपरिक स्वरूप बना रहा। जाहिर है कि ऐसे अभ्यास के बड़े लाभ होते हैं। इस आयोजन की एक और विशिष्टता थी। इसमें भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों को ध्यान में रखते हुए “मिस योग इंडिया” प्रतियोगिता भी आयोजित की गई थी, जो योग की गौरवशाली संस्कृति की झांकी थी।

खैर, सूर्यनमस्कार के सैद्धांतिक और व्यवहारिक पक्षों मे स्पष्टता रहे, इसके लिए पुस्तकों का अध्ययन कर लेना ठीक ही रहता है। बाजार में अनेक बेहतरीन पुस्तकें उपलब्ध हैं। सूर्य नमस्कार पर स्वामी सत्यानंद सरस्वती की पुस्तक का कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। उसमें उन्होंने सूर्य नमस्कार के शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक पक्षों के बारे में विस्तार से बतलाया हुआ है। उनके मुताबिक, सूर्य नमस्कार के नियमित अभ्यास से होने वाले लाभ सामान्य शारीरिक व्यायामों की तुलना में बहुत अधिक हैं। साथ-ही-साथ इससे खेल से मिलने वाले आनन्द तथा शारीरिक मनोरंजन की मात्रा में भी वृद्धि होती है। इसका कारण है कि इससे शरीर की ऊर्जा पर सीधा शक्तिप्रदायक प्रभाव पड़ता है। यह सौर ऊर्जा मणिपुर चक्र में केन्द्रित रहती है तथा पिंगला नाड़ी से प्रवाहित होती है। जब यौगिक साधना के साथ सम्मिलित करते हुए अथवा प्राणायाम के साथ सूर्य नमस्कार का अभ्यास किया जाता है, तब शारीरिक तथा मानसिक दोनों स्तरों पर ऊर्जा संतुलित होती है।

योग-शास्त्रों में सूर्योपासना के प्रसंग तो जगह-जगह है। पर सूर्य नमस्कार किसके दिमाग की उपज है, यह पहेली है। आम धारणा रही है कि आधुनिक युग में सूर्य नमस्कार औंध (महाराष्ट्र) के राजा भवानराव श्रीनिवासराव पंत प्रतिनिधि की देन है। पर उपलब्ध साक्ष्य इस बात के खंडन करते हैं। जिस काल-खंड में भवानराव श्रीनिवासराव सूर्य नमस्कार का प्रचार कर रहे थे, उससे पहले मैसूर के प्रसिद्ध योगी टी कृष्णामाचार्य लोगों को सूर्य नमस्कार सिखाया करते थे। हां, यह सच है कि देश-विदेश में इसे प्रचार भवानराव श्रीनिवासराव के कारण ही मिला था। पर नामकरण उन्होंने नहीं किया था। कहा जाता है कि सन् 1608 में जन्मे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध सन्त , सूर्योपासक और छत्रपति शिवाजी महाराज के गुरु समर्थ रामदास योगासनों की एक श्रृखंला तैयार करके उसका अभ्यास किया करते थे। उनकी कालजयी पुस्तक  “दासबोध” में भी सूर्य की महिमा का उल्लेख मिलता है। ऐसा लगता है कि उन्होंने ही आसनों के समूह के लिए सूर्य नमस्कार शब्द दिया।   

उद्गम का स्रोत चाहे जो भी हो, पर सूर्य नमस्कार यौगिक अमृत है। तभी इसकी महत्ता आधुनिक युग के सभी योगियों से लेकर वैज्ञानिक तक स्वीकार रहे हैं। सनातन धर्म की खासियत है कि वह बिना किसी भेदभाव के मानव जाति को ऐसी जीवनोपयोगी विधियां उपलब्ध कराता है कि उस पर अमल किया जाए तो जीवन खुशहाल हो जाएगा। सूर्य नमस्कार इसका बेहतरीन उदाहरण है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

अध्यात्म-विज्ञान और ओपेनहाइमर

किशोर कुमार

श्रीमद्भगवतगीता के परिप्रेक्ष्य में अमेरिकी परमाणु विज्ञान के जनक माने जाने वाले आध्यात्मिक वैज्ञानिक जे रॉबर्ट ओपेनहाइमर की जीवनी पर बेहद लोकप्रिय और शिक्षाप्रद फिल्म बन सकती थी। दुनिया को बतलाया जा सकता था कि आध्यात्मिक शक्ति-संपन्न विज्ञान किस तरह कल्याणकारी होता है और इसका अभाव विध्वंस का कारण बन जाता है। पर मशहूर फिल्मकार क्रिस्टोफ़र एडवर्ड नोलेन ने गूढ़ार्थ समझे बिना श्रीमद्भगवतगीता को फिल्म में जिस तरह प्रस्तुत किया, उससे उनकी दुकानदारी भले चल गई। पर ओपेनहाइमर का आध्यात्मिक संदेश देने में नाकामयाब हो गए। साथ ही श्रीमद्भगवतगीता का गलत ढंग से प्रस्तुत करके करोड़ों लोगों की आस्था को ठेस भी पहुंचा दी।

भला हाथ में श्रीमद्भगवतगीता और कामवासना का विचार दोनों साथ-साथ कैसे चल सकता है? स्वयं श्रीमद्भगवतगीता का संदेश ऐसे आचरण के विरोध में है। इस ग्रंथ के सोलहवें अध्याय में कहा गया है कि काम, क्रोध और लोभ के मुहाने पर खड़ा जीव नरक रूपी नगरी के मुख्य साभागृह में प्रवेश करता है। जिस ओपेनहाइमर के बारे में कहा जाता है कि वे श्रीमद्भगवतगीता से बेहद प्रभावित थे, वे अपने वास्तविक जीवन में ऐसे रहे होंगे, जैसा कि फिल्म में दिखाया गया है, विश्वास नहीं होता। मैसाचुसेट्स विश्वविद्यालय प्रोफेसर जेम्स ए हिजिया की प्रसिद्ध पुस्तक है – द गीता ऑफ जे रॉबर्ट ओपेनहाइमर। इसमें बतलाया गया कि ओपेनहाइमर किस तरह श्रीमद्भगवतगीता से प्रभावित थे और गीता के अध्ययन के लिए संस्कृत भाषा सीखी थी। खुद ओपेनहाइमर के बयानों से भी यही साबित हुआ कि गीता के कर्मयोग-सिद्धांत का उनके जीवन पर गहरा असर था। उन्होंने कहा था, कि उन्होंने अपना धर्म निभाया था। परमाणु शक्ति का उपयोग किस तरह करना है, यह सरकार को सोचना था।    

परमाणु विज्ञान की विकास यात्रा में यही वह मोड़ है, जहां स्वामी विवेकानंद का कथन प्रासंगिक हो जाता है। स्वामी जी ने कहा था कि अध्यात्म और विज्ञान एक दूसरे का पूरक है। अध्यात्म के बिना विज्ञान अंधा है। विज्ञान को जहां अध्यात्म से मानवीयता की सीख लेने की जरूरत है, वहीं अध्यात्म के क्षेत्र में वैज्ञानिक पद्धतियों के प्रयोग की आवश्यकता है। पर पहले ओपेनहाइमर के बारे में थोड़ा और जान लीजिए। ओपेनहाइमर ही वह भौतिक विज्ञानी थे, जिन्होंने परमाणु बम बनाने की अमेरिका की एक गुप्त परियोजना की अगुआई की थी और उसका सफलतापूर्वक परीक्षण किया था। वही परमाणु बम सन् 1945 में जापान के लिए काल बन गया था।    

दरअसल, परमाणु परीक्षण के साथ ही ओपेनहाइमर को अहसास हो चुका था कि उन्होंने जो किया, वह दुनिया को विनाश के कगार पर पहुंचा दे सकता है। तभी उनके मुख से श्रीकृष्ण का यह वाक्य सहसा निकल पड़ा था – मैं काल हूँ और दुनिया का संहार करने वाला हूं। श्रीमद्भगवतगीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपना विराट स्वरूप दिखाते हुए कहा था – मैं वास्तव में काल हूँ और लोक-संहारके लिए ही बढ़ रहा हूँ। यह देखो, मेरे अनन्त मुख फैले हुए हैं और अब यह सम्पूर्ण विश्व मैं निगल जाऊँगा।” जापान पर परमाणु हमले के साथ ही ओपेनहाइमर की आशंका सत्य में तब्दील हो चुकी थी। वे उस घटना इतने विचलित हुए थे कि परमाणु बम के विरोध में मुखर होकर बोलने लगे थे।

खैर, इस घटना से साबित हुआ कि वास्तव में अध्यात्म के बिना विज्ञान अंधा है। तभी जिस शक्ति का उपयोग राष्ट्र के कल्याण के लिए किया जा सकता था, उसका प्रयोग विध्वंस के लिए कर दिया गया। इस घटना से द्वितीय विश्व युद्ध भले रूक गया। पर राष्ट्रों के बीच परमाणु हथियारों की होड़ शुरू हो गई थी। ओपेनहाइमर ने भले श्रीमद्भगवतगीता के ग्यारहवे अध्याय के 32वें श्लोक ऐसी घटना के लिए उद्धृत कर दिया। पर वह विध्वंसकारी घटना महाभारत के निहितार्थ से से बिल्कुल मेल नहीं खाती। श्रीकृष्ण अधर्म के विरूद्ध थे। उन्होंने अपनी यौगिक शक्तियों से देख लिया था कि कौरवों का हश्र क्या होना है। इसलिए अर्जुन को उस विध्वंस का केवल माध्यम बनना था। पर जापान के साथ तो अधर्म हुआ। अमेरिका के पास ऐसी आध्यात्मिक शक्ति नहीं थी, जो उसे भौतिक शक्तियों का दुरूपयोग करने से रोकती।   

अध्यात्मिक शक्ति बनाम वैज्ञानिक शक्ति पर मत-मतांतर सदैव चलता रहता है। हालांकि सुखद है कि बीते कुछ दशकों में परिस्थितियां बदली हैं। हमारे ऋषि कहते रहे हैं कि मानव की छिपी हुई क्षमता को मंत्रों की शक्ति से जागृत किया जा सकता है। आधुनिक युग में विभिन्न प्रयोगों के बाद पश्चिम के वैज्ञानिक भी मोटे तौर पर इसी निष्कर्ष पर हैं। पर आज भी ऐसे बुद्धिजीवी मिलते हैं, जो यह मानने को तैयार नहीं हैं कि महाभारत के दौरान कौरवों का हश्र पूर्व निर्धारित था, जबकि पश्चिम की प्रयोगशाला में ही साबित किया जा चुका है कि हमारे लिए जो घटनाएं भविष्य में घटित होती हैं, वे प्रकाश के जगत में पहले ही घटित हो चुकी होती हैं। वैदिक ग्रंथों में ऐसा दावा पहले से किया जाता रहा है। इसलिए विज्ञान की कसौटी पर भी मानना होगा कि श्रीकृष्ण ने कौरवों के काल में विनाश की जो तस्वीर प्रस्तुत की थी, वह उनकी कल्पना नहीं, बल्कि सच्चाई थी।

ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में डिलाबार प्रयोगशाला अनूठी है। वहां आध्यात्मिक उपलब्धियों के आधार पर कई सफल प्रयोग किए जा चुके हैं। वहां एक प्रयोग के दौरान वैज्ञानिकों ने देखा कि फूल की कली खिलने के पहले फूल की पत्तियों से जो किरणें निकल रही थी, वे खिल कर पंखुड़ियों के खिलने का रास्ता बनाने लगी थीं। यानी जो पंखुड़ियां हमारी नजर में बाद में खिली थीं, वे प्रकाश की किरणों में पहले ही खिल चुकी थीं। इस प्रयोग के बाद वैज्ञानिकों को भरोसा है कि मानव की मौत से महीनों पहले उसकी आभा धूमिल होने लगती होगी। इसलिए कि प्रयोग में देखा गया कि फूल खिलते समय प्रकाशमंडल की जो किरणें बाहर जा रही थी, उसके लौटकर अपने में गिरने के साथ ही फूल मुरझा गया था। इसी सिद्धांत के आधार पर मानव का जीवन भी चलता होगा।

बीसवीं शताब्दी में भारत के संतों ने भी पश्चिम का रूख शायद इसलिए किया था कि उन्हें भान था कि वैज्ञानिक उपलब्धियों वाले देशों में अध्यात्म की जरूरत ज्यादा है। इसके अभाव में उनकी शक्तियां अनर्थकारी हो जाएंगी। एक फिल्मकार के तौर पर क्रिस्टोफ़र एडवर्ड नोलेन के पास भी बेहतरीन अवसर था, पर वे चूक गए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)  

कैवल्यधाम योग संस्थान के 100 साल

किशोर कुमार //

गौरवशाली अतीत वाले योग व वैज्ञानिक अनुसंधान संस्थान कैवल्यधाम में अभी से जश्न का माहौल है। यह संस्थान अपनी स्थापना के एक सौ साल पूरे करने जा रहा है। महाराष्ट्र के लोनावाला में सन् 1924 में कोई 180 एकड़ में स्थापित कैवल्यधाम के शताब्दी समारोह को यादगार बनाने के लिए बड़े पैमान पर तैयारियां की जा रही हैं। गौरवशाली इतिहास वाले इस योग व वैज्ञानिक अनुसंधान के शताब्दी समारोह के लिए विशेष लोगो जारी किया जा चुका है। दूरदर्शन ने हाल ही इस संस्थान के एक सौ साल के इतिहास को समेटता हुआ एक वृत्तचित्र तैयार किया है, जिसे रिलीज किया जा चुका है।  

शताब्दी समारोह के दौरान 365 दिन यानी साल भर वैश्विक स्तर पर 150 शहरों में 650 से अधिक कार्यक्रमों के आयोजन किए जाने हैं। देश में आयोजित भारत योग माला कार्यक्रम के लिए स्थलों का चयन इस तरह किया जाना है ताकि भारत का मानचित्र बन जाए। ‘योग म्यूजियम ऑन व्हील्स’ सभी कार्यक्रम स्थलों को कवर करते हुए कोई बारह हजार किमी की यात्रा तय करेगा। इससे कैवल्यधाम के एक सौ वर्षों की योग परंपरा की झांकी मिलेगी। शताब्दी समारोह के दौरान लोग देखेंगे कि बीसवीं सदी के प्रारंभ में योग विधियों पर शोध करके यौगिक चिकित्सा का अलख जगाने वाले स्वामी कुवलयानंद की ज्ञान-गंगा का प्रवाह किस किस मजबूती से जारी है।

स्वामी कुवल्यानंद ने जब योग-मार्ग पर यात्रा शुरू की थी तो योग जब साधु-संतों तक ही सीमित था और गृहस्थों के बीच उसको लेकर नाना प्रकार की भ्रांतियां थीं। पर जब उन्होंने आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर साबित कर दिया कि यह विश्वसनीय विज्ञान है तो देश-विदेश के लोग बरबस ही उस ओर आकृष्ट हुए। एक तरफ महात्मा गांधी ने उनकी योग विद्या का लाभ लिया तो दूसरी तरफ मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू और पंडित मदनमोहन मालवीय से लेकर देश-विदेश की कई हस्तियां स्वामी कुवलयानंद के कैवल्यधाम आश्रम पहुंच गईं थीं।

स्वामी कुवल्यानंद आधुनिक युग के संभवत: पहले वैज्ञानिक योगी थे, जिन्होंने मानव शरीर पर यौगिक प्रभावों को जानने के लिए एक्स-रे, ईसीजी और उस समय रोग परीक्षणों के लिए उपलब्ध अन्य मशीनों के जरिए अपने ही शरीर पर अनेक परीक्षण किए। उन्होंने इन प्रयोगों के लिए खुद की प्रयोगशाला बनाई। प्रयोग सफल होने लगे तो अपनी संस्था कैवल्यधाम के लिए अधिकारपूर्वक सूत्र-वाक्य लिखा – “कैवल्यधाम, जहां योग परंपरा और विज्ञान का मिलन होता है।“ वाकई, उन्होंने 20वीं सदी के प्रारंभिक वर्षों में योग की परंपरा औऱ विज्ञान का ऐसा अद्भुत मिलन कराया कि एक मकान से शुरू उनकी यौगिक अनुसंधान को समर्पित संस्था कैवल्यधाम वट-वृक्ष की तरह अपने देश की सरहद के बाहर भी फैलती गई। कैवल्यधाम परिवार यौगिक व आध्यात्मिक गतिविधियों का ऐसा केंद्र है, जिसमें एक साथ योग विज्ञान सें संबंधित कई शाखाएं व प्रशाखाएं समाहित हैं।

स्वामी कुवलयानंद ने सबसे पहले उड्डियान, नौलि, सर्वांगासन आदि योग विधियों का मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव जानने के लिए शोध किया था। थॉयराइड ग्रंथियों पर योग के प्रभाव संबंधी अध्ययन उस काल के लिहाज से अनूठा था। इन अध्ययनों के नतीजे उनकी त्रैमासिक पत्रिका के पहले अंक में प्रकाशित किए गए थे। रेडियो और सूक्ष्म तरंगों की प्रकाशिकी पर काम करने वाले प्रथम वैज्ञानिक डॉ॰ जगदीश चन्द्र बसु ने स्वामी कुवलयानंद के यौगिक अनुसंधानों को देखकर कहा था, “मुझे यह कहने में कोई संदेह नहीं कि आप सही रास्ते पर हैं।“ मौजूदा समय में इस अनुसंधान केंद्र को भारत सरकार के वैज्ञानिक संगठनों से लेकर विश्व विद्यालायों तक से संबद्धता प्राप्त है। मौजूदा समय में केंद्रीय आयुष मंत्रालय का सेंट्रल काउंसिल फॉर रिसर्च इन योगा एंड नेचुरोपैथी कैवल्यधाम संस्थान से मिलकर यौगिक अनुसंधान पर काम कर रहा है। इनके अलावा भी अनेक सरकारी गैर सरकारी एजेंसियों के साथ यौगिक अनुसंधान की परियोजनाएं इस परिसर में चलती रहती हैं।

योग अनुसंधान के साथ ही साहित्य के क्षेत्र में कैवल्यधाम में अनेक अनूठे कार्य किए गए। अप्रतीम व्यक्तित्व के धनी रहे योगमार्ग के उन्नायक महायोगी गोरखनाथ द्वारा विरचित ग्रंथों में एक सौ श्लोकों वाला गोरक्षशतकम् हठयोग का महत्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है। गोरक्षनाथ ने गोरक्षशतकम् के लिए जितने भी श्लोक लिखे, हस्तलिखित थे और विखरे पड़े थे। कई बार तो प्रमाणित करना भी मुश्किल होता था कि उनके नाम से प्रचलित श्लोक वाकई प्रमाणिक हैं भी या नहीं। स्वामी कुवल्यानंद ने अपने सहयोगियों की मदद से एक सौ श्लोक संग्रहित किया और उनकी भाषा व दर्शन के आधार पर माना कि वे गोरक्षनाथ द्वारा विरचित ही होने चाहिए। हैरान करने वाली बात यह रही कि चुने गए सौ श्लोक ही सौ श्लोकों वाली गोरक्षशतक के हस्तलेख में भी पाए गए थे। इस एकमात्र हस्तलेख को ‘इंडिया ऑफिस लायब्ररी’, लन्दन से हासिल किया गया था।

कैवल्यधाम परंपरा के अग्रणी योगी ओमप्रकाश तिवारी ने भी स्वामी कुवल्यानंद की परंपरा को बनाए रखा है। उदाहरण के तौर पर, हठयोग मंजरी हठयोग के अभ्यासों का सांगोपांग वर्णन करने वाला महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। इसे ब्रह्मज्ञान विद्यार्थी ने लिखा था। पर कसरती स्टाइल के योग के जमाने में यह अनूठा ग्रंथ बाजार से गायब हो गया। कैवल्यधाम ने इसके पुर्नप्रकाशन का बीड़ा उठाया और यह ग्रंथ फिर से योग साधकों के लिए सुलभ हो गया। कैवल्यधाम ने वसिष्ठसंहिता के योगकांड पर भी काफी काम किया है। ताकि वह संपूर्णता में पाठकों को सुलभ हो सके। दरअसल, स्वामी कुवल्यानंद इस विचार के थे कि योग से सम्बन्धित कोई भी जानकारी प्राप्त हो तो उसे आम लोगों तक पहुंचाना अपना कर्तव्य समझना चाहिए।

अंत में एक मजेदार प्रसंग। पंडित जवाहरलाल नेहरू कैवल्यधाम आश्रम गए तो उन्हें पता चला कि स्वामी कुवलयानंद के पास विदेशी विश्वविद्यालयों से साथ जुड़कर काम करने के लिए कई प्रस्ताव आ चुके हैं। पंडित नेहरू बेहद चिंतित हो गए। उन्हें लगा कि स्वामी कुवलयानंद कहीं विदेश न चले जाएं। लिहाजा, उन्होंने स्वामी कुवलयानंद को पूर्ण सहयोग का भरोसा दिलाया और आश्रम छोड़ने से पहले आगंतुक रजिस्टर में लिख दिया कि यदि स्वामी कुवलयानंद भारत छोड़ देंगे तो यह मेरे लिए दुखदायी होगा। पर आजादी के दीवाने कुवलयानंद विदेशी संस्थानों के मोहपाश में कहां फंसने वाले थे। वे जीवन पर्यंत भारत भूमि पर रहकर ही योग को समृद्ध करते रहे। योग विज्ञान के क्षेत्र में अपनी उपलब्धियों के कारण उनका नाम अमर हो गया और उनका कैवल्यधाम मानव जाति के लिए वरदान साबित हो रहा है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

पाचन प्रक्रिया का द्वार खोलता योग

किशोर कुमार //

पुरानी कहावत है – ताड़ से गिरे, खजूर पर अटके। भारत कोविड-19 से तो बहुत हद तक मुक्ति पा चुका हैं। पर उसका आफ्टर इफेक्ट कहर बरपा रहा है। कोराना महामारी के शिकार हुए लोग अब हृदय रोग, गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल रोग, फेफड़े की समस्या आदि से दो-चार हो रहे हैं। बीते दो वर्षों में विभिन्न स्तरों में किए गए अध्ययनों से ये तथ्य सामने आए हैं। इनमें पेट की समस्या ज्यादा ही विकट है।

चिकित्सा विज्ञान के मुताबिक, फंक्शनल गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल डिसॉर्डर्स (जठरांत्र विकार), हाइपोथायरायडिज्म, पिट्यूटरी ग्रंथि में विकार, मानसिक तनाव और मधुमेह अनियंत्रित होने से भी पेट संबंधी रोग प्रकट हो रहे हैं। हाल ही स्वीडेन के गोथेनबर्ग यूनिवर्सिटी के अध्ययन से पता चला है कि केवल फंक्शनल गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल डिसॉर्डर्स यानी जठरांत्र विकार की वजह से ही भारत सहित दुनिया के 33 देशों के औसतन दस में से चार लोग परेशान हैं। इस संबंध में 73,000 लोगों पर अध्ययन किया गया।

श्रीश्री रविशंकर के अगुआई वाले आर्ट ऑफ लिविंग के मुताबिक, हाइपोथायरायडिज्म यानी अंडरएक्टिव थाइरायड भी पेट की बीमारी में बड़ी भूमिका निभा रहा है। यह ग्रंथि जब पर्याप्त थॉइरायड नहीं बना पाती है तो शरीर में मेटाबॉलिज्म यानी चयापचय गतिविधियां नियंत्रित नहीं रह पाती हैं। इस वजह से वजन बढ़ता है और कब्ज की समस्या आती है। मुंबई स्थित द योगा इस्टीच्यूट के मुताबिक अनियंत्रित मधुमेह पाचन तंत्र को बिगाड़ने में बड़ी भूमिका निभा रही है। ऐसा इसलिए कि मधुमेह के मरीजों में इंसुलिन हार्मोन का स्तर अपर्याप्त होने पर ब्लड सूगर यानी रक्त शर्करा प्रभावित होता है। रक्त शर्करा में वृद्धि नसों को नुकसान पहुंचाती है, जिससे कब्ज होता है। इस तरह समझा जा सकता है कि पेट की सामान्य-सी दिखने वाली समस्या कई बड़ी बीमारियों की वजह हो सकती है।

बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने तो साठ के दशक में ही अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “समस्या पेट की, समाधान योग का” में पेट संबंधी विकारों को लेकर वे सारी बातें स्पष्ट कर दी थीं, जो बातें अब वैज्ञानिक अनुसंधानों से सामने आ रहे हैं। पुस्तक में कहा गया है कि षट्कर्म की दो क्रियाओं के अलावा आसनों में शवासन, सर्वांगासन, शशांकासन, पश्चिमोत्तानासन, भुजंगासन, धनुरासन व पवन मुक्तासन, प्राणायाम की विधियों में कपालभाति, उज्जायी और भ्रामरी प्राणायाम और प्रत्याहार की विधियों में केवल योगनिद्रा का अभ्यास ही कर लिया जाए तो पेट सहित कोविड-19 के बाद के कई कुप्रभावों से बचा जा सकता है या उनके प्रभावों को कम किया जा सकता है।

षट्कर्म में मुख्य रूप से कुजल और शंखप्रक्षालन की अनुशंसा की गई है। कुछ समय पहले कुंजल क्रिया खूब चर्चा में थी। अमेरिका के एक कंप्यूटर प्रोफेसनल ने दावा किया था कि वे कुंजल क्रिया की बदौलत कोरोनामुक्त हो गए थे। कुंजल अपच, गैस, एसिडिटी, विषाक्त भोजन, अजीर्ण आदि रोगों के उपचार में भी सहायक है। पेट की बीमारी खासतौर से कब्ज से मुक्ति दिलाने में शंखप्रक्षालन की बड़ी भूमिका होती है। आसन पेट संबंधी बीमारियों के लिए बड़े काम के होते हैं। इस बात को लेकर देश-विदेश में कई अनुसंधान हुए। सबका सार यह कि योगासनों से उदर प्रदेश के पाचन अंगों में जब दबाव बढ़ता-घटता है तो रक्त संचार भी का तरीका बदल जाता है। दबाव पड़ते ही रक्त संचार बंद हो जाता है और दबाव हटते ही रक्त तेजी से पाचन अंगों में भर जाता है। इस तरह पाचन अंगों की गंदगी हटती है और उसे शुद्ध आक्सीजन और पोषक तत्व मिल जाते हैं।

मिसाल के तौर पर भुजंगासन को ही ले लीजिए। यह आसन मस्तिष्क के तंत्रिका तंत्र के साथ ही पाचन तंत्र के लिए भी प्रभावी और लाभदायक है। यह पेट की मांसपेशियों को मजबूत करता है और पूरे पाचन तंत्र को साफ करता है। कब्ज और अपच की समस्या को ठीक करता है। यदि थॉइराइड ग्रंथि के कारण पेट की समस्या है तो सर्वांगासन सर्वाधिक उपयोगी माना जाता है। इस आसन से पड़ने वाला दबाव थाइराइड ग्रंथियों को सुचारू रूप से कार्य करने के लिए प्रोत्साहित करता है। इन ग्रंथियों को नियंत्रित करने में पीयूष (पिट्यूटरी) व पीनियल ग्रंथियों की बड़ी भूमिका होती है। यह आसन इन ग्रंथियों को भी सही तरीके से कार्य करने में सहायता करता है।

पश्चिमोत्तानासन कब्ज और पाचन संबंधी विकारों के लिए एक उत्कृष्ट आसन है। इससे पेट पर गहरा दबाव पड़ने के कारण पेट की मालिश हो जाती है और कब्ज, कमजोर पाचन तंत्र और सुस्त जिगर से संबंधित परेशानियों से राहत मिल जाती है। योग के अभ्यासों से अधिकतम लाभ प्राप्त करने के लिए एकाग्रता काफी मायने रखती है। जिस तरह आधुनिक विज्ञान मानव शरीर को मुख्यत: ग्यारह तंत्रों या संस्थानों में विभाजित करता है। उसी तरह योग शास्त्र के मुताबिक शरीर में मूलाधार पिंड से लेकर ऊपर तक सात चक्र होते हैं। नीचे से तीसरा है मणिपुर चक्र। यह पाचन और चयापचय (मेटाबालिज्म) का मुख्य केंद्र है। पश्चिमोत्तानासन का अभ्यास करते समय ध्यान मणिपुर चक्र पर केंद्रित रखने से आसन का पूरा फल मिलता है। जिस आसनों या अन्य योगाभ्यासों का संबंध जिन चक्रों से है, उन सबके लिए यह बात लागू है। पश्चिमोत्तानासन उच्च रक्तचाप, हृदयरोग और स्पॉडिलाइटिस से पीड़ित लोगों को यह आसन नहीं करने की सलाह दी जाती है।

आसनों की तरह प्राणायम का भी पाचन तंत्र पर असर होता है। योग रिसर्च फाउंडेशन अपने अनुसंधानों से इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि योग मन व प्राणमय शरीर को परिचालित करके ही पाचन संबंधी समस्याओं का इतना प्रभावशाली उपचार करने में सफल हो पाता है। सच तो यह है कि पेट संबंधी योग साधना का मुख्य उद्देश्य मणिपुर चक्र को जाग्रत करना ही होता है। ताकि मणिपुर चक्र से जठराग्नि को पर्याप्त प्राण-शक्ति मिलती रहे। इसके लिए आमतौर पर कपालभाति, उज्जायी और भ्रामरी प्राणायाम की अनुशंसा की जाती है। बिहार योग विद्यलय पेट संबंधी बीमारियों में प्रत्याहार की विधियों में योग निद्रा पर ज्यादा जोर देता है। उसके मुताबिक पेट संबंधी बीमारियों में मानसिक तनाव और नकारात्मक दृष्टिकोण की बड़ी भूमिका होती है।

इस तरह स्पष्ट है कि जीवनशैली में बड़ा बदलाव किए बिना योगाभ्यासों की बदौलत प्राकृतिक रूप से पेट और उससे जुड़ी अन्य समस्याओं से छुटकारा पाया जा सकता है। यह जरूरी भी है। इसलिए कि साबित हो चुका है कि गठिया से लेकर अनेक प्रकार के कैंसर तक में पाचन तंत्र के विकारों की बड़ी भूमिका होती है। 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

योग की स्वीकार्यता बढ़ी, गुणवत्ता भी बढ़े

किशोर कुमार

फिटनेस और वेलनेस की गारंटी देने वाला योग कम से कम बीस फीसदी मामलों में शारीरिक कष्ट का कारण बन रहा है। कारण कई हैं। पर एक बड़ा कारण है योगाभ्यास के दौरान योग साधकों और योग प्रशिक्षकों में दक्षता और सतर्कता का अभाव। योग साधक दक्ष नहीं हैं तो बात समझ में आती है। पर योग प्रशिक्षकों की दक्षता पर सवाल उठे तो यह चिंताजनक है। अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस की शुरूआत हुई थी तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इस बात का भान हुआ होगा कि दक्ष योग प्रशिक्षक नहीं होंगे तो योग साधकों को कैसी परेशानियां झेलने पड़ेगी। तभी उन्होंने कहा था कि प्रशिक्षित योग शिक्षकों को तैयार करना बड़ी चुनौती है। सच है कि वह चुनौती कमोबेश आज भी बनी हुई है।

देश को योग्य योग प्रशिक्षक मिल सकें, इसके लिए केंद्रीय आयुष मंत्रालय के अधीन योग सर्टिफिकेशन बोर्ड का गठन किया गया था। ताकि योग प्रशिक्षण केंद्र नियमों के दायरे में चलें और कुशल योग प्रशिक्षक तैयार हो सकें। पर योग की बढ़ती लोकप्रियता के बीच योगाभ्यासों से हानि होने की घटनाएं जिस तेजी से बढ़ रही हैं, उसको देखते हुए कहना होगा कि योग प्रशिक्षण की गुणवत्ता में काफी सुधार की जरूरत है। इसके साथ ही योग सर्टिफिकेशन बोर्ड के तौर-तरीकों की भी समीक्षा होनी चाहिए। ताकि भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया भर के योग पेशेवरों के ज्ञान और कौशल में तालमेल, गुणवत्ता और एकरूपता लाने का सपना पूरा हो सके। केंद्रीय आयुष मंत्री सर्वानंद सोनोवाल ने हाल ही सभी कॉर्पोरेट घरानों से अपने कार्यालय परिसर में एक ‘योग सेल’ शुरू करने की अपील की थी। ताकि कार्यस्थल में कायाकल्प और दक्षता को अधिकतम करने में मदद मिल सके। पर यह सपना भी तभी पूरा होगा, जब हमारे पास गुणवत्तापूर्ण योग प्रशिक्षण होंगे।

इसे ऐसे समझिए। आसनो में भुजंगासन को सर्वरोग विनाशनम् कहा गया है। दुनिया के अनेक भागों में इस पर अनुसंधान हुआ तो पता चला कि इसके लाभों के बारे में हम जितना जानते रहे हैं, वह काफी कम है। इस आसन से शरीर के अंगों को नियंत्रित करने वाला तंत्रिका तंत्र यानी नर्वस सिस्टम दुरूस्त रहता है। यही नहीं, इसका शक्तिशाली प्रभाव शरीर के सात में से चार चक्रों स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपुर चक्र, अनाहत चक्र और विशुद्धि चक्र पर भी पड़ता है। पर कल्पना कीजिए कि हर्निया, पेप्टिक अल्सर, आंतों की टीबी, हाइपर थायराइड,  कार्पल टनल सिंड्रोम या फिर रीढ़ की हड्डी के विकारों से लंबे समय से ग्रस्त व्यक्ति या कोई गर्भवती यह आसन कर ले तो क्या होगा?  लेने के देने पड़ जाएंगे।

इस संदर्भ में एक वाकया प्रासंगिक है। कुछ साल पहले की बात है। विदेशों में भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए कोई दो सौ योग शिक्षकों का इंटरव्यू हुआ था। हैरान करने वाली बात यह हुई कि मात्र पांच योग शिक्षक ही ऐसे थे जो मानदंड के अनुरूप थे। यानी वे कठिन आसनों के साथ ही अच्छे प्रकार से योग की कक्षा ले सकते थे। अंतरराष्ट्रीय सहयोग परिषद की शासकीय परिषद के सदस्य डॉ. वरुण वीर ने इस बात का खुलासा किया तो योग विद्या के मर्म को समझने वालों के चेहरे पर बल पड़ जाना स्वाभाविक था। दरअसल डॉ वीर ने खुद ही इन योग शिक्षकों का इंटरव्यू लिया था। ऐसी स्थिति इसलिए बनी कि कायदा-कानूनों को ताक पर रखकर चलाए जाने वाले योग प्रशिक्षण संस्थानों से दो-चार महीनों का प्रशिक्षण लेने वाले योग प्रशिक्षक बन बैठे थे। आम जनता में योग के प्रति जाकरूकता की कमी का लाभ उन्हें मिल रहा था। वाणिज्यिक मानकों पर कसा गया तो असलियत सामने आ गई थी।

हठयोग के प्रतिपादकों महर्षि घेरंड और महर्षि स्वात्माराम के साथ ही देश के प्रख्यात योगियों के शोध प्रबंधों पर गौर फरमाएं और योगाभ्यास करते लोगों को देखें तो स्पष्ट हो जाएगा कि योगकर्म में कैसी-कैसी गलतियां की जा रही हैं। मसलन, हठयोग में सबसे पहला है षट्कर्म। इसके बाद का क्रम है – आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा और ध्यान। यदि कोई योगाभ्यासी षट्कर्म की कुछ जरूरी क्रियाएं नहीं करता तो आगे के योगाभ्यासों में बाधा आएगी या अपेक्षित परिणाम नहीं मिलेंगे। इसी तरह प्राणायाम का अभ्यास किए बिना प्रत्याहार व धारणा के अभ्यासों से अपेक्षित लाभ नहीं मिलेगा। ऐसे में ध्यान लगने की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती।

हठयोग के बाद राजयोग की बारी आती है, जिसका प्रतिपादन महर्षि पतंजलि ने किया था। उसमें खासतौर से आसनों का नियम बदल जाता है। पर व्यवहार रूप में देखा जाता है कि अनेक योग प्रशिक्षक हठयोग के अभ्यासक्रम को तो बदलते ही हैं, राजयोग के साथ घालमेल भी कर देते हैं। जबकि हठयोग में गयात्मक अभ्यास होते हैं और राजयोग में इसके विपरीत। जहां तक सावधानियों की बात है तो धनुरासन को ही ले लीजिए। यह भुजंगासन और शलभासन से मेल खाता हुआ आसन है। इन तीनों में कई समानताएं हैं। लाभ के स्तर पर भी और सावधानियों के स्तर पर भी। इस आसन से जब मेरूदंड लचीला होता है तो तंत्रिका तंत्र का व्यवधान दूर हो जाता है। पर हृदय रोगी, उच्च रक्तचाप के रोगी, हार्निया, कोलाइटिस और अल्सर के रोगियों के लिए यह आसन वर्जित है।

प्राणायामों के बारे में योग शास्त्रों में स्पष्ट उल्लेख है कि इसे आसनों के बाद और शुद्धि क्रियाएं करके किया जाना चाहिए। पहले नाड़ी शोधन, फिर कपालभाति और अंत में भस्त्रिका का अभ्यास किया जाना चाहिए। नाड़ी शोधन के लिए भी शर्त है। यदि सिर में दर्द हो या किन्हीं अन्य कारणों से मन बेचैन हो तो वैसे में यह अभ्यास कष्ट बढ़ा देगा। उसी तरह हृदय रोग, उच्च रक्तचाप, मिर्गी, हर्निया और अल्सर के मरीज यदि कपालभाति करेंगे तो हानि हो जाएगी। जिनके फुप्फुस कमजोर हों, उच्च या निम्न रक्त दबाव रहता हो, कान में संक्रमण हो, उन्हें भस्त्रिका प्राणायाम से दूर रहना चाहिए। हृदय रोगियों को तो भ्रामरी प्राणायाम में भी सावधानी बरतनी होती है। उन्हें बिना कुंभक के यह अभ्यास करने की सलाह दी जाती है।

पर इन तमाम योग विधियों और उनसे संबंधित सावधानियों की अवहेलना होगी तो समस्याएं खड़ी होना लाजिमी ही है। पर योग्य प्रशिक्षक न होंगे, तो समस्याएं बनी रहेंगी। सरकार यदि सर्टिफिकेशन बोर्ड के कामकाज को ज्यादा असरदार बनाते हुए योगाभ्यासियों से फीडबैक लेने का प्रबंध कर दे तो यह बेहतरी की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम होगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

अजपा जप : कई मर्ज की एक दवा

किशोर कुमार //

नींद क्यों नहीं आती? क्यों बच्चे तक अनिद्रा के शिकार हो रहे हैं? इन सवालों का सीधा-सा जबाव है कि स्ट्रेस हार्मोन कर्टिसोल का स्तर बढ़ जाता है और मेलाटोनिन का स्राव कम हो जाता है तो नींद समस्या खड़ी होती है। स्पील एप्निया, इंसोमनिया आदि कई प्रकार की बीमारियों के लक्षण प्रकट हो जाते हैं। पिछले लेखों में इस पर व्यापक रूप से चर्चा हुई थी। इससे बचने के आसान यौगिक उपायों जैसे योगनिद्रा, अजपा जप और भ्रामरी प्राणायाम की भी चर्चा हुई थी। पाठक चाहते थे कि योगनिद्रा और अजपा जप पर विस्तार से प्रकाश डाला जाए। योगनिद्रा के बारे में बीते सप्ताह विस्तार से चर्चा की गई थी। इस बार अजपा जप का विश्लेषण प्रस्तुत है।    

इस विश्लेषण का आधार बिहार योग विद्यालय का अध्ययन और अनुसंधान है। ब्रिटिश दैनिक अखबार “द गार्जियन” ने बीते साल भारत के दस शीर्ष योग संस्थानों के नाम प्रकाशित किए थे और उनमें पहला स्थान बिहार योग विद्यालय का था। बीसवीं सदी के महान संत और ऋषिकेश स्थित डिवाइन लाइफ सोसाइटी के संस्थापक स्वामी शिवानंद के पट्शिष्य परमहंस स्वामी  सत्यानंद सरस्वती ने पचास के दशक में बिहार के मुंगेर में उस संस्थान की स्थापना की थी। उसके बाद दुनिया भर की प्रयोगशालाओं के सहयोग से योग की विभिन्न विधियों का मानव शरीर पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन किया। इसके बाद ही अजपा जप के बारे में कहा था – यह योग की ऐसी विधि है, जो नींद नहीं आती तो ट्रेंक्विलाइजर है, दिल की बीमारी है तो कोरामिन है और सिर में दर्द है तो एनासिन है।

अजपा जप की साधना तो किसी योग्य योग प्रशिक्षक से निर्देशन लेकर ही की जानी चाहिए। अजपा जप में आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार और धारणा या ध्यान सभी योग विधियों का अभ्यास एक साथ ही हो जाता है। इस तरह कहा जा सकता है कि अजपा जप स्वयं में एक पूर्ण अभ्यास है। महर्षि पतंजलि के योगसूत्र से भी इस बात की पुष्टि होती है। उसमें कहा गया है कि सबसे पहले खुले नेत्रों से किसी स्थूल वस्तु पर मन को एकाग्र करना पड़ता है। इसके बाद उसी वस्तु पर बंद नेत्रों से एकाग्रता का अभ्यास करना होता है। अजपा जप के अभ्यास के दौरान भी उन दोनों स्थितियों का अभ्यास हो जाता है। इस योग विधि में तीन महत्वपूर्ण बिंदुएं होती हैं। जैसे, गहरा श्वसन, विश्रांति और पूर्ण सजगता। आरामदायक आसन जैसे सुखासन में बैठकर शरीर और मन में सामंजस्य स्थापित करने के लिए सजगतापूर्वक श्वसन का उपयोग किया जाता है। इससे श्वसन लंबा और गहरा बन जाता है। इससे कई बीमारियां तो स्वत: दूर हो जाती हैं। अध्ययन बतलाता है कि आयु में भी वृद्धि होती है।

अजपा जप के छह चरण होते हैं। पहला है सोSहं मंत्र के साथ श्वास को मिलाना और दूसरा चरण है श्वास के साथ “हं” को मिलाना। इसे ऐसे समझिए। पहले चरण में अंदर जाने वाली श्वास के साथ “सो” और बाहर जाने वाली श्वास के साथ “हं” की ध्वनि को आंतरिक रूप से देखना होता है। दूसरे चरण में यह प्रक्रिया उलट जाती है। श्वास छोड़ते समय “हं” और श्वास लेते समय  “सो“ का मानसिक दर्शन करना होता है। फिर चेतना को त्रिकुटी यानी अनाहत चक्र में ले जा कर पूर्ण सजगजता के साथ ध्यान करना होता है। इस अभ्यास को सधने में कोई एक महीने का वक्त लग जाता है। इसी तरह छह चरणों में यह अभ्यास पूरा होता है। ध्यान साधना की एक विधि के तौर पर अजपा जप बेहद सरल है। पर तन-मन पर उसका प्रभाव बहुआयामी है। पौराणिक ग्रंथों के अनेक प्रसंगों में इसकी महत्ता तो बतलाई ही गई है, आधुनिक विज्ञान भी इसके महत्व को स्वीकारता है।

बाल्मीकि रामायण के मुताबिक, लंका जलाने के बाद हनुमानजी का मन अशांत था। वे इस आशंका से घिर गए थे कि हो सकता है कि सीता माता को भी क्षति हुई होगी। उन्हें आत्मग्लानि हुई। तभी जंगल में उनकी नजर व्यक्ति पर गई, जो गहरी नींद में था। पर उसके मुख से राम राम की ध्वनि निकल रही थी। इसे कहते हैं स्वत: स्फूर्त चेतना। यही अजपा जप है। जब नामोच्चारण मुख से होता है तो वह जप होता हैं और जब हृदय से होता है तो वह अजपा होता है। अजपा का महत्व हनुमान जी तो जानते ही थे। उनके मुख से अचानक ही निकला – “हे प्रभु। इस व्यक्ति जैसा मेरा दिन कब आएगा?”  गीता में भी अजपा जप की महत्ता बतलाई गई है। आधुनिक युग में योगियों और वैज्ञानिकों ने शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए इस योग विधि को बेहद उपयोगी माना है।

कुछ साल पहले ही केंद्रीय मंत्री श्रीपद यसो नायक का बंगलुरू स्थित स्वामी विवेकानंद योग अनुसंधान संस्थान इंस्टीच्यूट के दौरे के दौरान ऐसे मरीजों से साक्षात्कार हुआ, जिन्हें इन योग विधियों के नियमित अभ्यास के फलस्वरू कैंसर जैसी घातक बीमारी से निजात पाने में बड़ी मदद मिली थी। आस्ट्रेलिया के कैंसर शोध संस्थान के चिकित्सकों ने कैंसर के छह मरीजों को जबाव दे दिया था। कहते हैं न कि मरता क्या न करता। सो, उन लोगों ने योग का सहारा लिया। वे नियमित रूप से योगनिद्रा, प्राणायाम और अजपा जप का अभ्यास करने लगे। नतीजा हुआ कि उनके चौदह वर्षों तक जीवित रहने के प्रमाण हैं।  

अनुसंधानकर्त्ता इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि अजपा जप से अधिक मात्रा में प्राण-शक्ति आक्सीजन के जरिए शरीर में प्रवेश करती है। फिर वह सभी अंगों में प्रवाहित होती है। रक्त नाड़ियों में अधिक समय तक उसका ठहराव होता है। प्राण-शक्ति शरीर में ज्यादा होने से मनुष्य स्वस्थ्य और दीर्घायु होता है। वैसे तो प्राण-शक्ति हर आदमी के शरीर में प्रवाहित होती रहती है। पर जिसके शरीर में अधिक मात्रा में प्रवाहित होती है, वह स्वस्थ्य, प्रसन्न, शांत, सौम्य होते हैं। यदि कोई रोग लगा भी तो उसे ठीक होते देर नहीं लगती है। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे – “अजपा का अभ्यास ठीक ढंग से और पूरी तत्परता से किया जाए तो यह हो नहीं सकता कि रोग ठीक न हो। मात्र अजपा के अभ्यास से मनुष्य काल और मृत्यु को जीत सकता है। तात्पर्य यह कि कोई कोई काल से प्रभावित हुए बिना रह सकता है और चाहे तो इच्छा मृत्यु को प्राप्त कर सकता है।“  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

“योगनिद्रा” का कमाल तो देखिए!

किशोर कुमार

मैंने बीते सप्ताह इस कॉलम में लिखा था कि योगनिद्रा अनिद्रा से निजात पाने की अचूक दवा है। इस दावे के समर्थन में देश-विदेश में हुए शोधों के परिणामों और योग रिसर्च फाउंडेशन की पुस्तक योगनिद्रा को आधार बनाया था। लेख के प्रकाशन के बाद आशातीत प्रतिक्रियाएं हुई हैं। अब तक सैकड़ों पाठकों ने मैसेंजर के जरिए योगनिद्रा को लेकर कई सवाल किए हैं। प्रत्याहार को शोध कर तैयार की गई इस योगनिद्रा विधि के जनक ब्रह्मलीन परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती के प्रवचनों और योग रिसर्च फाउंडेशन के दस्तावेजों को आधार बनाकर उन सारे सवालों के जबाव देने का प्रयास कर रहा हूं। इससे पता चलेगा कि योगनिद्रा की नियमित साधना हो तो अनिद्रा तो क्या कैंसर सहित अनेक घातक बीमारियों से उबरने में भी मदद मिल सकती है। साथ ही आपराधिक मनोवृत्ति का भी शमन हो सकता है।  

सबसे पहले सामान्य निद्रा और योगनिद्रा में अंतर समझिए। योगनिद्रा शब्द से प्राय: समझ लिया जाता है कि यह गहरी निद्रा में सोने का अभ्यास है, जबकि ऐसा नहीं है। इस अभ्यास के दौरान बार-बार यह संकल्प लेने का निर्देश दिया जाता है कि नींद में सोना नहीं है। दरअसल, जागृत और स्वप्न के बीच जो स्थिति होती है, उसे ही योगनिद्रा कहते है। जब हम सोने जाते हैं तो चेतना इन दोनों स्तरों पर काम कर रही होती है। हम न नींद में होते हैं और जगे होते हैं। यानी मस्तिष्क को अलग करके अंतर्मुखी हो जाते हैं। पर एक सीमा तक बाह्य चेतना भी बनी रहती है। वजह यह है कि हम अभ्यास के दौरान अनुदेशक से मिलने वाले निर्देशों को सुनते हुए मानसिक रूप से उनका अनुसरण भी करते रहते हैं। ऐसा नहीं करने से सजगता अचेतन में चली जाती है और मन निष्क्रिय हो जाता है। फिर गहरी निद्रा घेर लेती है, जिसे हम सामान्य निद्रा कहते हैं।

अब जानिए कि योगनिद्रा के दौरान मस्तिष्क किस तरह काम करता है? अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) ने तो अनिद्रा पर योगनिद्रा के प्रभावों पर शोध किया है। पर योगनिद्रा के वृहत्तर परिणामों पर जापान में वर्षों पहले शोध हुआ था। उसके जरिए जानकारी इकट्ठी की गई कि साधारण निद्रा और योगनिद्रा की अवस्था में मस्तिष्क की तरंगें किस तरह काम करती हैं। इस अध्ययन की अगुआई डॉ हिरोशी मोटोयामा ने की थी। उन्होंने देखा कि गहरी निद्रा की स्थिति में डेल्टा तरंगें उत्पन्न होती हैं और ध्यान की अवस्था में अल्फा तरंगें निकालती हैं। यही नहीं, योगाभ्यास के दौरान बीटा और थीटा तरंगे परस्पर बदलती रहती हैं। यानी योगाभ्यासी की चेतना अंतर्मुखता औऱ बहिर्मुखता के बीच ऊपर-नीचे होती रहती है। चेतना जब बहिर्मुख होती है तो मन उत्तेजित हो जाता है औऱ अंतर्मुख होते ही सभी उत्तेजनाओं से मुक्ति मिल जाती है। इस तरह साबित हुआ कि योगनिद्रा के दौरान बीटा औऱ थीटा की अदला-बदली होने की वजह से ही मन काबू में आ जाता है, शिथिल हो जाता है।

कई पाठकों ने सवाल किया कि योगनिद्रा के अभ्यास की उपयुक्त विधि क्या है? दरअसल, योगनिद्रा का अभ्यास सदैव शवासन (लेटकर) में किया जाना चाहिए है। लगभग आधा घंटा के इस अभ्यास को प्रारंभ में योग्य प्रशिक्षक के निर्देशन में करना बेहद लाभदायक होता है। योगाभ्यास का निर्देशन यूट्यूब पर भी उपलब्ध है। बिना बाह्य सहायता लिए योगनिद्रा का अभ्यास तभी किया जाना चाहिए जब पूरी विधि पूरी तरह याद हो और योगाभ्यास के दौरान याद करने में दिमाग लगाने की नौबत न आनी हो। पर व्यवहार रूप में देखा जाता है कि ज्यादातर योगाभ्यासियों के लिए योगनिद्रा विधि पूरी तरह याद रखना संभव नहीं हो पाता है और वे अभ्यास के दौरान जैसे ही भूलते हैं या याद करने के लिए दिमाग पर जोर देते हैं, दिमाग में अनावश्यक तनाव व उत्तेजना होती है। इससे योगनिद्रा का अभ्यास फायदे की जगह नुकसानदेह साबित होने लगता है।

हम अपने दैनिक जीवन में शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रुप से थक जाते हैं। इससे स्नायविक, मानसिक और भावनात्मक तनाव बढ़ते हैं। इनसे शरीर में नाड़ी मंडल, श्वसन मंडल और पाचन मंडल प्रभावित होते हैं। योगनिद्रा के दैनिक अभ्यास से ये तनाव शिथिल हो जाते हैं या फिर समूल नष्ट हो जाते हैं। विज्ञान की स्थापित मान्यता है कि अस्सी फीसदी बीमारियां मानसिक तनावों के कारण होती हैं और तनावों के नियंत्रण में योगनिद्रा का चमत्कारिक प्रभाव अनेक स्तरों पर परखा जा चुका है। मानसिक शिथलीकरण के मामले में इसकी महत्ता का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि आध्यात्मिक साधक भी विभिन्न विधियों से योगनिद्रा का अभ्यास अनिवार्य रूप से करते हैं।

योगनिद्रा ज्ञान अर्जन में किस तरह मददगार है, यह जानना बड़ा दिलचस्प होगा। शरीर में तीन महत्वपूर्ण धाराएं हैं। वे हैं – अनुकंपी, परानुकंपी और केंद्रीय नाड़ी मंडल। योग की भाषा में इन्हें इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना कहते हैं। तंत्र की भाषा में प्राणशक्ति, मानसिक शक्ति औऱ आध्यात्मिक शक्ति कहते हैं। यह स्थापित सत्य है कि इड़ा और पिंगला आवश्यक संवेदनाएं निरंतर मस्तिष्क में भेजती रहती हैं। तभी मस्तिष्क वस्तु, ध्वनि, विचार आदि को जानने में समर्थ होता है।

योग रिसर्च फाउंडेशन के मुताबिक प्रत्याहार में इतनी शक्ति है कि इड़ा और पिंगला नाड़ियों को अवरूद्ध कर मस्तिष्क से उनका संबंध विच्छेद किया जा सकता है। इस क्रिया के पूर्ण होते ही प्राय: सुषुप्तावस्था में रहने वाली सुषुम्ना नाड़ी को जागृत करना आसान हो जाता है। योगनिद्रा के अभ्यास के दौरान सुषुम्ना या केंद्रीय नाड़ी मंडल क्रियाशील रहकर पूरे मस्तिष्क को जागृत कर देता है। इससे इड़ा और पिंगला नाड़ियों का काम ज्यादा बेहतर तरीके से होने लगता है। मस्तिष्क को अतिरिक्त ऊर्जा, प्राण और उत्तेजना प्राप्त होने लगती है। अनुभव भी विशिष्ट प्रकार के होते हैं। यह ज्ञान अर्जन के लिए आदर्श स्थिति होती है।

यह जानना बेहद जरूरी है कि योगनिद्रा का अभ्यास किन लोगों को हरगिज नहीं करना चाहिए। साथ ही किन लोगों के लिए यह योगाभ्यास कोरामिन की तरह है। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहा करते थे कि मिर्गी या अवसाद के पुराने मरीजों को योगनिद्रा का अभ्यास नहीं करना चाहिए। इस तरह हम कह सकते हैं कि योगनिद्रा मानव कल्याण के लिए अनुपम उपहार है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

अनिद्रा से मुक्ति दिलाएंगी ये योग विधियां

किशोर कुमार

कोरोना महामारी के बाद अनिद्रा की समस्या से पीड़ित और अवसादग्रस्त लोगों की बढ़ती तादाद स्वास्थ्य से जुड़ी बड़ी समस्या बनकर उभरी है। जब बच्चे अनिद्रा की शिकायत करने लगें और तनावग्रस्त हो जाएं तो मान लेना चाहिए कि पानी सिर से ऊपर बह रहा है। आर्थिक महाशक्ति बनने का सपना देखने वाले भारत के लिए यह चिंता का विषय है। इसलिए कि इस समस्या का सीधा संबंध हमारी अर्थ-व्यवस्था से भी है। मेलाटोनिन हार्मोन का न बनना अनिद्रा की सबसे बड़ी वजह है। पर अनिद्रा की समस्या दूर हो जाए तो स्वास्थ्य संबंधी बहुत सारी समस्याओं से मुक्ति मिल जाएगी। भारत के योगी सदियों से बतलाते रहे हैं कि प्राकृतिक तौर पर मेलाटोनिन के उत्पादन में किसी कारण से बाधा आती है तो उसका यौगिक समाधान है। पर मेलोटोनिन स्राव के लिए दवा तैयार करने वाली कंपनियों का धंधा जिस तरह चमका है, वह चिंताजनक है। इसलिए कि इसके परिणाम अधिक घातक होने वाले हैं।

महाभारत की एक कथा इस संदर्भ में प्रासंगिक है। श्रीकृष्ण महाभारत युद्ध से पूर्व कौरवों के पास संधि प्रस्ताव लेकर गए थे। कहा था, क्यों आपस में झगड़ने पर आमादा हो? पांच राज्य नहीं, तो पांच गांव ही दे दो। दुर्योधन तैयार न हुआ तो श्रीकृष्ण ने उसे राजधर्म की याद दिलाई। इसके प्रत्युत्तर में दुर्योधन ने जो कहा, वह गौर करने लायक है। वह कहता है – “राजधर्म क्या है, मैं जानता हूं। पर उस ओर मेरी प्रवृत्ति नहीं है। अधर्म क्या है, मैं उसको भी जानता हूं। पर अधर्मों से अपने को दूर नहीं रख पाता। पता नहीं, वह कौन-सी शक्ति है, जो मेरे भीतर बैठकर पापकर्म कराती है।“ श्रीमद्भगवतगीता में अर्जुन इस बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि तमोगुणी व्यक्ति बड़ा ही अहंकारी होता है, अज्ञानी होता है। उसमें “मैं” की भावना प्रबल होती है। इस वजह से सज्जनों की बातों से राजी होने को तैयार नहीं होता, बल्कि इसके उलट काम करता है। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि मानसिक शांति से ही मैपन छूटेगा, अहंकार टूटेगा, तमोगुण मिटेगा और जीवन सुखमय होगा। इसके लिए उपाय एक ही है और वह है – अभ्यास योगेन तत: मामिच्छाप्तुं धनंजय। यानी योगाभ्यास।

आज के संदर्भ में हम सबकी स्थिति भी कुछ दुर्योधन जैसी ही हो गई है। तभी यौगिक उपायों का ज्ञान होते हुए भी हम सब दवाओं के पीछे भागे चले जा रहे हैं। इसके कुपरिणाम तक झेलने को तैयार हैं। यह बात किसी से छिपी नहीं रही कि अनिद्रा दूर करने वाला कृत्रिम मेलाटोनिन कुछ समय बाद अनिद्रा का ही कारण बन जाता है। अठारहवीं सदी के लखनवी शायर लाला मौजी राम मौजी ने लिखा था – “दिल के आइने में हैं तस्वीरें यार, जब जरा गर्दन झुकाई देख ली।“ हम सब भी नजरिया बदल लें तो बात बन जाएगी। योगाभ्यास से प्राकृतिक तौर पर मेलाटोनिन का उत्पादन होने लगेगा। इसके विस्तार में जाने से पहले जानना जरूरी है कि आखिर मेलाटोनिन हार्मोन होता क्या है? अनुसंधानों से पता चल चुका है कि भ्रू-मध्य के ठीक पीछे मस्तिष्क में अवस्थित पीयूष या पीनियल ग्रंथि के भीतर की पीनियलोसाइट्स कोशिकाओं से मेलाटोनिन हॉर्मोन बनना बंद हो जाता है तो अनुकंपी (पिंगला) और परानुकंपी (इड़ा) नाड़ी संस्थान के बीच का संतुलन बिगड़ जाता है।

इसके उलट यदि मेलाटोनिन हार्मोन का स्राव होते रहता है तो अनिद्रा की समस्या आती ही नहीं। अब तो यह भी पता चल चुका है कि इंफ्लूएंजा जैसी संक्रामक बीमारी के विरूद्ध प्रतिरोधक क्षमता तैयार करने में भी इसकी बड़ी भूमिका होती है। टी-सेल्स श्वेत रक्त-कोशिकाएं होती हैं, जो कि हमारी इम्युनिटी में बेहद अहम भूमिका निभाती हैं। ये ऐंटीबॉडी रिलीज करती हैं, जिससे वायरस मरता है। जब हम रात्रि में कमरे की लाइटें बंद करके विश्राम करते हैं तो मेलाटोनिन का स्राव होने लगता है। यदि कमरे में रोशनी रही तो इस कार्य में बाधा आती है। मेलाटोनिन का स्राव जितना गहरा होता है, नींद भी उतनी ही गहरी होती है। चार घंटों की नींद भी आठ घंटों की नींद जैसी जान पड़ती है। इससे शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य दुरूस्त रहता है। रोग प्रतिरोधक क्षमता का विकास होता है।

शास्त्रों में भी नींद की महत्ता बतलाई गई है। भविष्य पुराण, पदंम पुराण और मनुस्मृति में बतलाया गया है कि रात्रि में विश्राम की तैयारी किस तरह हो कि गहरी नींद आए। पर यदि नींद में बाधा है तो योग के साथ ही मंत्रों की अहमियत भी बतलाई गई है। कहा गया है कि “या देवी सर्वभूतेषु निद्रा-रूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः“ मंत्र का नींद से संबंध है। इस मंत्र का जप श्रद्धापूर्वक करने से निद्रा में व्यवधान खत्म होता है। पर मंत्रयोग हो या योग की कोई अन्य विधि, लाभ तो तभी होगा, जब हम अनुशासित जीवन-शैली के लिए तैयार रहेंगे। कैफीन का सेवन करने वालों को भला कौन-सी युक्ति काम आएगी?   

खैर, जहां तक नींद के लिए यौगिक उपायों का सवाल है तो यह विज्ञानसम्मत है कि यदि योगनिद्रा, अजपा जप, भ्रामरी प्राणायाम, सोऽहं मंत्र के साथ नाडी शोधन प्राणायाम आदि योग विधियों में से किसी एक का भी निरंतर अभ्यास किया जाए, तो अनिद्रा की समस्या जाती रहेगी। अवसाद से भी छुटकारा मिलेगा। चिकित्सकीय परीक्षणों से साबित हुआ कि योगनिद्रा के अभ्यास के दौरान बीटा और थीटा तरंगे परस्पर बदलती रहती हैं। यानी चेतना अंतर्मुखता और बहिर्मुखता के बीच ऊपर-नीचे होती रहती है। चेतना के अंतर्मुख होते ही मन तमाम तनावों, उत्तेजनाओं से मुक्त हो जाता है। यह गहरी निद्रा से भी आगे सूक्ष्म निद्रा की अवस्था होती है। बीटा और थीटा की यही अदला-बदली योगनिद्रा का रहस्य है। तभी कई गंभीर बीमारियों से जूझते मरीजों पर यह कमाल का असर दिखाता है।

सत्यानंद योग पद्धति में कहा गया है कि अजपा योग की ऐसी विधि है, जो नींद नहीं आती तो ट्रेंक्विलाइजर है, दिल की बीमारी है तो कोरामिन है और सिर में दर्द है तो एनासिन है। इसी तरह भ्रामरी प्राणायाम है। बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं कि रात में नींद खुल जाए तो तीन बार विधि पूर्वक भ्रामरी प्राणायाम कीजिए, नींद आ जाएगी। इसलिए कि इससे भी मेलाटोनिन का स्राव होने लगता है। पर योगनिद्रा तुरंत-तुरंत के लाभ के लिए बेहद उपयोगी है। वैसे, इन योग विधियों का नींद के लिए उपयोग वैसा ही जैसे सुई का काम तलवार से लिया जाए। पर संकट गहरा है तो तलवार से ही काम लेने में ही बुद्धिमानी है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

नवरात्रि और मंत्रयोग

किशोर कुमार

चैत्र नवरात्रि का पावन पर्व इस महीने 22 मार्च से शुरू हो रहा है और 30 मार्च को रामनवमी के साथ ही समापन होगा। यह संभवत: पहला मौका है जब चैत्र नवरात्रि को लेकर राजनीति शुरू हो गई है। दरअसल, उत्तर प्रदेश सरकार ने ऐलान कर दिया है कि नवरात्रों के दौरान राज्य में जिला स्तर से लेकर प्रखंड स्तर तक एक-एक मंदिर में दुर्गासप्तशती का पाठ कराया जाएगा और रामनवमी के दिन रामायण पाठ होगा। इस कार्य के लिए प्रत्येक जिला के लिए एक-एक लाख रूपए का आवंटन किया गया है। राज्य सरकार का कहना है कि यह सांस्कृतिक आयोजन है और इस पर किसी को क्यों आपत्ति होनी चाहिए। दूसरे धर्मों के आयोजनों पर भी तो सरकार के पैसे खर्च होते हैं। खैर, यह विवाद अपनी जगह। इस लेख में तो केवल मंत्रों की वैज्ञानिकता और उसके लाभों की चर्चा होनी है।       

हम सब जानते हैं कि दुर्गासप्तशती मार्कण्डेय पुराण की सबसे बड़ी देन है। इसमें कुल सात सौ श्लोकों में भगवती दुर्गा के चरित का वर्णन किया गया है। वैसे तो सामान्य जनों के लिए दुर्गासप्तशती पूजा-पाठ का एक ग्रंथ है। पर मंत्र विज्ञान के आलोक में व्याख्या हो तो पता चलता है कि यह शक्ति की आराधना का अद्भुत ग्रंथ है। शास्त्रों में शक्ति की महिमा जगह-जगह मिलती है। श्रुति और स्मृति आधारित ग्रंथों में भिन्नता दिखती है। पर अर्थ नहीं बदलता। ऋग्वेद के अनेक मंत्रों में इस शक्ति से संबंधित स्तवन मिलते हैं। उनमें इस शक्ति को समग्र सृष्टि की मूल परिचालिका बतलाकर विश्व जननी के रूप में स्तुति की गई है। इस शक्ति के द्वारा अनेक मौकों पर देवताओं को त्राण मिला और तभी से देवी सर्वविद्या के रूप में पूजित होती आ रही हैं।

इसी तरह शास्त्रों में राम नाम की शक्ति का उल्लेख भी जगह-जगह है। कुछ प्रचलित कथाएं भी हैं। जैसे, कबीरदास ने अपने पुत्र कमाल को तुलसीदास के पास भेजा। तुलसीदास ने कमाल के सामने ही तुलसी के एक पत्ते पर राम नाम लिखा और उस पत्ती का रस पांच सौ कुष्ठ रोगियों पर छिड़क दिया। कमाल के आश्चर्य का ठिकाना न रहा कि सारे कुष्ठ रोगी ठीक हो गए थे। फिर कबीरदास ने कमाल को सूरदास के पास भेजा। सूरदास ने कमाल को नदी में बहती एक लाश को उठा लाने को कहा। कमाल आज्ञा का पलन किया और लाश ले आया। सूरदास ने उस लाश के एक कान में राम कहा और लाश में प्राणों का समावेश हो गया था। पांडवों का लाक्षागृह जलकर राख हो गया। पर पांडव जले नहीं। इसलिए कि उन्हें रामनाम में अटूट श्रद्धा थी। राक्षसों ने हनुमान की पूंछ में आग लगा दी थी। किन्तु वे जले नहीं। इसलिए का राम में अदभुत विश्वास था।

सच है कि मंत्रयोग का अपना स्वतंत्र विज्ञान है। शब्द तत्व की ऋषियों ने ब्रह्म की संज्ञा दी है। शब्द से सूक्ष्म जगत में जो हलचल मचती है, उसी का उपयोग मंत्र विज्ञान में किया गया है। ऋषियों ने इसी विद्या पर सबसे अधिक खोजें की थीं। तभी यह विद्या इतनी लोकप्रिय हो पाई थी कि जीवन के हर क्षेत्र में इसका उपयोग किया जाता था। जल की वर्षा करने वाले वरूणशास्त्र, भयंकर अग्नि उगलने वाले आग्नेयास्त्र, संज्ञा शून्य बनाने वाले सम्मोहनशास्त्र, लकवे की तरह जकड़ने वाले नागपाश, इंजन, भाप, पेट्रोल कि बिना आकाश, भूमि और जल में चलने वाले रथ, सुरसा की तरह शरीर का बड़ा आकार करना, हनुमान की तरह मच्छर के समान अति लघु रूप धारण करना, समुद्र लांघना, पर्वत उठाना, नल की तरह पानी पर तैरने वाले पत्थरों का पुल बनाना आदि अनेकों अद्भुत कार्य इसी मंत्र शक्ति की साधना से किए जाते थे।

वेदों के मुताबिक नाद सृष्टि का पहला व्यक्त रूप है। अ, ऊ और म इन तीन ध्वनियों के योग से ऊं शब्द की उत्पत्ति हुई। ऋषियों और योगियों का अनुभव है कि इस मंत्र के जप से बहिर्मुखी चेतना को अंतर्मुखी बनाकर चेतना के मूल स्रोत तक पहुंचा जा सकता है। आधुनिक विज्ञान भी इस बात को स्वीकार रहा है। आजकल दुनिया भर में आशांत मन को सांत्वना प्रदान करने के लिए ध्यान योग पर बहुत जोर है। पर चित्त-वृत्तियों का निरोध किए बिना ध्यान कैसे घटित हो? अष्टांग योग में इस स्तर पर पहुंचने के लिए क्रमिक योग साधनाओं का सुझाव दिया जाता है। पर मंत्रयोग से राह थोड़ी छोटी हो सकती है। कहा गया है – मननात् त्रायते इति मंत्र: यानी मंत्र वह है, जो मन को मुक्त कर देता है। स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं कि जिस प्रकार प्रत्येक विचार से एक रूप जुड़ा होता है, उसी प्रकार प्रत्येक रूप से एक नाद, स्पंदन या ध्वनि जुड़ी होती है। उसे ही मंत्र कहते हैं। हम जिस संसार को जानते हैं, उसका सभी स्तरों पर निर्माण मंत्रों या ध्वनि-स्पंदनों द्वारा हुआ है।

आधुनिक युग में कोई भी व्यक्ति अपनी प्राचीन मान्यताओं को केवल विश्वास के आधार पर मानने को तैयार नहीं है। इसलिए मंत्रों पर वैज्ञानिक अनुसंधान समय की मांग है। दुनिया भर में इस दिशा में कार्य किए जा रहे हैं और सबके परिणाम शास्त्रों के अनुरूप ही हैं। स्पेन की राजधानी मैड्रिड में कुछ साल पहले मंत्र के प्रभावों को लेकर बड़ा शोध हुआ था। एक हॉल में एक हजार लोगों को बैठाया और महामृत्युंजय मंत्र का जप करने का निर्देश दिया। दूसरी ओर दूसरी तरफ वैज्ञानिकों को निर्देश दिया कि वे पांच सौ क्वांटम मशीनों से मंत्रों की फ्रिक्वेंसी को मानिटर करें। मंत्रोच्चारण के प्रभाव से मशीनों में कंपन शुरू हो गया। वैज्ञानिकों की आंखें खुली रह गईं जब उन्होंने देखा कि मंत्र की शक्ति से फ्रिक्वेंसी का विशाल फील्ड तैयार हो चुका है।

अपने देश में अगले तीस सालों में अल्जाइमर्स के रोगियों की संख्या में तीन गुणा इजाफा होने की आशंका है। तमाम वैज्ञानिक खोजों के बावजूद कारगर इलाज संभव नहीं हो सका है। मंत्रयोग की शक्ति नई राह दिखा रही है। ऐसे में वैज्ञानिक तथ्यों को धर्म की चाशनी में लपेट कर राजनीति करना उचित नहीं। इसका खामियाजा हम पहले ही भुगत चुके हैं। सदियों पुराने ज्ञान को मिट्टी में मिला चुके हैं। सरकार यदि मंत्रयोग की शक्ति से जनता को अवगत कराने के मामले में वाकई गंभीर है तो उसे इस काम के लिए योग संस्थानों की मदद करनी चाहिए, जो मंत्रयोग की शक्ति को सही तरह से परिभाषित करने में सक्षम हैं। ऐसी संस्थाएं यदि मंत्रयोग की शक्ति से जनता को अवगत कराएंगी तो उसकी सार्थकता होगी। किसी को कोई संदेह भी न रहेगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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