धीरेंद्र ब्रह्मचारी : बेशकीमती यौगिक सूक्ष्म व्यायाम है

किशोर कुमार

अस्सी के दशक के बहुचर्चित योगी और महर्षि कार्तिकेय के शिष्य धीरेंद्र ब्रह्मचारी राजनीति और व्यापार के पचड़े में न पड़े होते तो उनके “विश्वायतन योगाश्रम” और “योग अनुसंधान संस्थान” का परचम लहरा रहा होता। अपने समय के प्रतिभाशाली हठयोगी होने के कारण शिखर पर पहुंच तो गए थे। पर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से संबंधों और अपनी कुछ गतिविधियों के कारण इतने विवादास्पद हुए कि योग को विज्ञान की कसौटी पर कसकर उसे जन-जन तक पहुंचाने के उनके अभियान को बड़ा धक्का लगा। लेखकों-पत्रकारों के एक बड़े वर्ग के लिए योग, यौगिक अनुसंधान व उससे मिलने वाले लाभ गौण हो गए और विवादास्पद प्रसंग महत्वपूर्ण हो गए।

वैसे, धीरेंद्र ब्रह्मचारी इकलौते योगी नहीं हैं, जो विवादास्पद बने। कई अन्य योगियों का भी अलग-अलग कारणों से विवादों से गहरा नाता रहा है। पर उनके मूल कार्यों पर ज्यादा असर नहीं पड़ा। इस मामले में धीरेंद्र ब्रह्मचारी भाग्यशाली नहीं निकले। श्रीमद्भगवतगीता में श्रीकृष्ण कहते हैं – “कर्मफल का आश्रय न लेकर जो कर्तव्य-कर्म करता है, वही संन्यासी तथा योगी है।“ हम जानते हैं कि संसार त्रिगुणों यानी तमस, रजस और सत्व गुणों की लीला भूमि है। कोई भी व्यक्ति इन गुणों से परे नहीं है। फर्क इतना है कि किसी में तमस गुण की प्रधानता है तो किसी में रजस गुण की। आत्मज्ञानी संतों में सत्व गुण की प्रधानता होती है। धीरेंद्र ब्रह्मचारी की जैसी जीवन-शैली थी, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि वे रजस गुण प्रधान योगाचार्य थे।

धीरेंद्र ब्रह्मचारी ने भी कभी नहीं कहा कि वे योगी या आत्मज्ञानी संत हैं। हमेशा खुद को हठयोग साधक या योगाचार्य बताते रहे। पर समस्या इसलिए भी खड़ी हुई कि हम उन्हें निवृत्ति मार्गी संन्यासी मानते हुए तदनुरूप व्यवहार की उम्मीद करने लगे। भूल गए कि योगाचार्य प्रोफेशनल भी हो सकता है। भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिक बिक्रम चौधरी तो हॉट योग के लिए दुनिया भर में मशहूर हैं। कारोबार पांच सौ करोड़ रूपए का है। विवादों से नाता बना रहता है। पर कारोबार पर कभी फर्क नहीं पड़ा।    

धीरेंद्र ब्रह्मचारी हठयोग विद्या में प्रवीण थे। तंत्र की शक्तियों से वाकिफ थे। तभी हठयोग और तंत्र में परस्पर संबंध बतलाते हुए तदनुरूप योगाभ्यास भी कराते थे। उन योगाभ्यासों से किसी न किसी दौर में राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह, प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, मोरारजी देसाई, राजीव गांधी, उप प्रधानमंत्री बाबू जगजीवन राम और लोकनायक जयप्रकाश नारायण जैसी शख्सियतों के अलावा लाखों लोग लाभान्वित हुए। सच तो यह है कि सन् 1956 में जेपी जब यौगिक उपचार से मधुमेह-मुक्त हुए तो उन्होंने ही धीरेंद्र ब्रह्मचारी को कलकत्ता से दिल्ली लाने में भूमिका निभाई थी। वरना धीरेंद्र ब्रह्चारी ज्यादातर कलकत्ते में ही लोगों को योगाभ्यास कराते थे। जाहिर है कि धीरेंद्र ब्रह्मचारी में कुछ खास बात निश्चित रूप से रही होगी। तभी चेतना के बेहतर तल पर जीने वाली शख्सियतें उनसे प्रभावित थीं।

धीरेंद्र ब्रह्मचारी योग का प्रचार-प्रसार विश्वायतन संस्था के बैनर तले करते थे। इस संस्था के बड़े योगाश्रम दिल्ली और जम्मू-कश्मीर में थे। दिल्ली का आश्रम अब भारत सरकार के अधीन मोरारजी देसाई राष्ट्रीय योग संस्थान बन चुका है। जम्मू के मंतलाई आश्रम का कायाल्प करके उसे अंतर्राष्ट्रीय योग केंद्र बनाया जा रहा है। टीवी के जरिए योग का प्रचार-प्रसार अब आम है। पर धीरेंद्र ब्रह्मचारी ने इसकी बुनियाद सत्तर के दशक में ही रख दी थी। दूरदर्शन पर “योगाभ्यास” नाम से कार्यक्रम प्रत्येक सप्ताह प्रसारित किया जाता था। वे कहते थे कि आत्मज्ञान योग का असल उद्देश्य है। पर यह विषय उनके एजेंडे में नहीं था। उनकी कोशिश इतनी भर थी कि लोग स्वस्थ्य एवं प्रसन्न रहें। इसलिए बहिरंग योग साधना उनका विषय था।

नई शिक्षा नीति में यौगिक क्रियाओं को अब जाकर स्थान मिला है। पर धीरेंद्र ब्रह्चारी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से अपने संबंधों का लाभ लेते हुए अस्सी के दशक में ही देश के सभी केंद्रीय विद्यालयों में योग शिक्षा आरंभ करवाई थी। ताकि छात्रों की प्रसुप्त क्षमताएं और प्रतिभाएं प्रकट हो सके। धीरेंद्र ब्रह्चारी संत भले न थे। पर संतों के प्रति अनुराग में कोई कमी न थी। इसे एक उदाहरण से समझिए। वे केंद्रीय विद्यालयों में योग शिक्षकों की बहाली के लिए खुद ही इंटरव्यू ले रहे थे। उनके समक्ष गेरू वस्त्र धारण किया हुआ एक अभ्यर्थी उपस्थित हुआ। उससे योग्यता प्रमाण-पत्र मांगा गया तो उसने बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती के साथ की अपनी तस्वीर प्रस्तुत कर दी। धीरेंद्र ब्रह्चारी ऐसे उछले मानो कोयला खान में हीरा मिल गया हो। उन्होंने कहा, “इतने बड़े संत का जिसे सानिध्य मिल चुका है, उसके चयन के लिए कागज के टुकड़े का क्या मोल। आपका चयन किया जाता है।“

धीरेंद्र ब्रह्मचारी बिहार के मधुबनी जिले में जन्मे थे। यह वही जिला है, जहां स्वयं भगवान शिव अपने भक्त विद्यापति पर कृपा करके उनके घर में लंबे समय तक उगना के रूप में नौकरी किया करते थे। उगना महादेव मंदिर आज भी उस ईश्वरीय लीला की याद दिलाते रहता है। कृष्ण-भक्त धीरेंद्र ब्रह्चारी कोई बारह साल के थे तो उन पर सद्गुरू महर्षि कार्तिकेय की दृष्टि गई थी। इसके कुछ समय बाद ही वैराग्य के लक्ष्ण प्रकट हुए तो महादेव की लीला भूमि मधुबनी से निकल कर किसी कृष्णधाम नहीं, बल्कि काशी धाम ऐसे गए मानो आदियोगी उन्हें खींच ले गए हों। वहीं से उन्नाव के गोपाल खेड़ा स्थित कार्तिकेय आश्रम चले गए और योग विद्या हासिल की थी। जब कर्मक्षेत्र में उतरे तो तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की नजर गई। फिर तो वे वैसे ही खिल गए, जैसे सूर्य की रोशनी पा कर सूरजमुखी के फूल खिल उठते हैं।

अब तो धीरेंद्र ब्रह्मचारी के गुजरे भी तीन दशक होने को हैं। उनके जीवन के श्याम पक्ष को पकड़ कर उसमें उलझे रहने का भी कोई सार नहीं है। सार है तो उनके यौगिक सूक्ष्म व्यायाम का, योगासन विज्ञान का। सन् 2024 धीरेंद्र ब्रह्मचारी का जन्मशताब्दी वर्ष है। उनकी यौगिक क्रियाओं का प्रचार-प्रसार करना और उन क्रियाओं को शोध का विषय बनाना योग को समृद्ध करना होगा। दिल्ली के बाद मंतलाई आश्रम का स्वरूप बदला जाना अच्छा कदम है। पर ध्यान रखा जाना चाहिए कि धीरेंद्र ब्रह्मचारी का योग-बल ही इन संस्थाओं की बुनियाद है। इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए। वरना इतिहास बदलने वाले कोई मौका कहां छोड़ते हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

भक्ति योग और रामायण के यौगिक संदेश

भारत के योगियों औऱ संत-महात्माओं ने श्रीराम की शिक्षाओं को दो अलग-अलग संदर्भों में देखा है। एक है भक्ति मार्ग और दूसरा है भक्ति योग। भारतीय चिंतन परंपरा में इसकी स्पष्ट व्याख्या की गई है। श्रीमद्भागवत के मुताबिक भक्ति मार्ग नवधा भक्ति है। इसके मुताबिक श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन और वंदन ये छह विधियां हैं, जिनके द्वारा व्यक्ति दिव्यता के स्रोत से जुड़ पाता है। अपने अराध्य के साथ आंतरिक संबंध विकसति करता है। इसका अनुभव सातवें और आठवें चरण में होता है और नवें चरण में पूर्ण आत्म-समर्पण सिद्ध होता है। भक्ति योग इससे बिल्कुल अलग है। इसके तहत भावनाओं का अवलोकन, दिशांतरण और परिष्कार किया जाता है।

प्रधानमंत्री ने अयोध्या में भव्य राम मंदिर के निर्माण  के लिए आयोजित भूमिपूजन अनुष्ठान के बाद अपने संबोधन में मर्यादा पुरूषोत्तम राम से प्रेऱणा लेने संबंधी युवाओं से जो अपील की, उसे आध्यात्मिक आलोक में देखा जाए तो गहरे अर्थ हैं और वे भक्ति योग की बातें हैं। पिछली शताब्दी के महानतम संत और बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती और उनके आध्यात्मिक उत्तराधिकारी परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती श्रीराम और रामायण के यौगिक संदेशों पर विस्तार से संदेश देते रहे हैं। स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे, राम का जीवन और रामायण की बातें पग-पग पर हमारे जीवन की विषमता और कटुता, युद्ध और भय, मृत्यु और जीवन के प्रति सतर्क करती रही हैं। रामायण का एक ही संदेश है – जागते रहो।

संकेतों को पकड़े तो समझना आसान होगा कि हमारे अंदर जो आत्मा, आत्म-स्फूर्ति और आत्म-शक्ति है, वही राम है। सीता बुद्धि और शास्त्रोक्त ज्ञान एवं तर्कशीलता की प्रतीक हैं। रावण के दस सिर जीव की दस इंद्रियों के प्रतीक हैं। रावण का निवास जिस तरह सोने की लंका में था, हमारी आत्मा भी भौतिक शरीर में सूक्ष्म रूप से उसी तरह रहती है। असंख्य रानियों के बावजूद रावण में पर स्त्री की कामना बनी रहती थी। यह इस बात का द्योतक है कि इंद्रियों की भोग-तृप्ति की कोई सीमा नहीं है। मेघनाद मन है और सतर्कता और ब्रह्मचर्य लक्ष्मण हैं।

अयोध्या को आत्म-निकेतन कहना चाहिए। श्रीराम अध्योध्या से निकल कर जिस तरह वनगमन करते हैं, उसी तरह आत्मा अपने आत्म-निकेतन से निकल कर संसार वन में भटकती है। इस संसार वन में हमारे अंदर के तुच्छ विचार, तामसी प्रवृत्तियां ही खरदूषण और मरीच की तरह हम पर आक्रमण करती है। श्रीराम ने सीता और लक्ष्मण को गुफा में भेजकर इन राक्षसों को अकेले ही मारा था। इस प्रसंग से सीख मिलती है कि हमें आपात् स्थिति में तर्क-वितर्क में फंसकर आत्मबल का सहारा लेना चाहिए। रावण इंद्रियों का प्रतीक है तो मारीच इच्छा का प्रतीक है। तभी मारीच रावण के बहकावे में आ जाता है।

राम सीता के वियोग में वन में शोकाकुल होकर भटकते हैं। इसका संदेश यह है कि जब आत्मा का ज्ञान और बुद्धि से संपर्क टूट जाता है तो आत्मा जगह-जगह ठोकरें खाती फिरती है। ऐसे में आत्मा को सत्संग और भक्ति का सहारा लेना होता है। समुद्र में सेतुबंध सत्संग का औऱ हनुमान का साथ भक्ति का प्रतीक है। इंद्रियों की पराजय का अनूठा उदाहरण रावण के दरबार में देखने को मिलता है, जब अंगद रावण को चुनौती देते हैं कि दरबार को कोई उसका पैर उठा दे तो राम पराजय मान लेंगे। पर अंगद के पांव शक्तिशाली रावण सहित कोई न उठा पाया। मतलब यह कि अंगद के आत्मबल के आगे दुष्प्रवृत्तियों (राक्षसों) की अगुआई करने वाली इंद्रियां (रावण) तक पराजित हो जाती हैं।

रावण का भाई कुंभकर्ण आलस्य और शोषण का प्रतीक है। आलस्य के नाश के लिए आत्मबल की जरूरत होती है। श्रीराम के आत्मबल से कुंभकर्ण मारा जाता है। उधर रावण का पुत्र मेघनाद मन की दूषित भावनाओं और कुटिलता का प्रतीक है। ये दोनों ही बातें इतनी बलशाली होती हैं कि कई बार सतर्कता और साधना को भी मात दे देती हैं। तभी मेघनाद का वाण लक्ष्मण को लग जाता है। तब ब्रह्मचर्य का तेज और संयम का चमत्कार दिखता है। हनुमान जी अपनी इन शक्तियों से मन की कुटिलताओं को पराजित कर देते हैं।

रावण इंद्रियों का प्रतीक है और आधुनिक मनोविज्ञान भी कहता है कि दमन करके इंद्रियों का नाश आसान नहीं है। तभी जब-जब रावण के सिर काटे जाते थे, वे उभर आते थे। खून की एक-एक बूंद से रावण उत्पन्न हो जाता था। ऐसे ही समय में आते हैं विभीषण, जो सद्विवेक और सद्वृत्तियों के प्रतीक हैं। इंद्रियों के बोझ से दबी सद्वृत्तियों का साक्षात्कार आत्मबल औऱ आत्म-दृढ़ता से होता है तो दुष्प्रवृत्तियों के विनाश का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। इसलिए श्रीराम रावण की नाभि से जैसे ही अमृत रूपी वासना और लिप्सा को खींचते हैं, रावण का अंत हो जाता है। इस तरह हमें ज्ञात होता है कि इंद्रियों और दुष्प्रवृत्तियों द्वारा उत्पन्न की गईं बाधाओं को किस तरह कुचल कर आत्मा के सर्वांगीण विकास का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है।

श्रीराम के जीवन पर आधारित रामायण में ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं, जिनसे हमें आदर्श जीवन जीने के संदेश मिलते हैं। श्रीराम के मजूबत यौगिक संदेशों का असर ही है कि गांव-गांव में जिन्हें अक्षर ज्ञान तक नहीं है, वे भी रामायण की चौपाइयां बेधड़क बोलते हैं और उसके मायने भी बताते हैं। पांडवानी लोक गायिकों और गायिकाओं के मामले में भी यही बात लागू है। उनके बीच रामायण बेहद लोकप्रिय है, जबकि उनमें से ज्यादातर पढ़ना-लिखना नहीं जानतें। श्री राम के आदर्श आज भी प्रासंगिक हैं।   

परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं, भक्ति योग के तहत श्रीराम के यौगिक मार्म का अनुसरण करने से हृदय की प्रतिभाओं का विकास होता है। स्वयं को इस मार्ग पर स्थापित कर लेने के बाद भावनाएं अंतरात्मा की खोज में दिशांतरित हो जाती हैं। ऐसे में जब अंतरात्मा से साक्षात्कार होगा तो समझ में आ जाएगा कि जीवात्मा परमात्मा का ही प्रतिबिंब है और यही भक्ति की परिणति है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)   

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