महर्षि अरविंद : स्वतंत्रता संग्राम के संत सेनानी

किशोर कुमार //

श्री अरविंद से किसी ने एक बार यह पूछा कि आप भारत की आजादी के युद्ध में अग्रणी सेनानी थे, लड़ रहे थे, फिर अचानक ही पलायनवादी कैसे हो गए? अपनी आंखें बंद कर पुडुचेरी में क्यों बैठ गए? एक सच्चा योगी के लिए इस तरह पलायन उचित है? आपने तो श्रीमद्भगवतगीता का सुंदर भाष्य लिखा है। क्या आपको स्मरण नहीं कि श्रीकृष्ण ने अर्जुन को पलायन न करने की शिक्षा दी थी? क्या आपको लगता हैं कि अब करने के लिए कुछ नहीं बचा? श्री अरविंद ने जवाब में बस इतना ही कहा था, “मैं कुछ कर रहा हूं। पहले जो काम मैं कर रहा था, वह पर्याप्त नहीं था। अब जो काम मैं कर रहा हूं, वह पर्याप्त है।“

इस ऐतिहासिक प्रसंग के बाद देश के हालात बदले, परिस्थितियां बदलीं। देश आजाद हुआ और वह अमृतकाल में प्रवेश कर चुका है। दूसरी तरफ श्री अरविंद की 150वीं जयंती पर देश भर में न जाने कितने ही आयोजन हुए। स्वतंत्रता संग्राम और योग व अध्यात्म के क्षेत्र में उनके योगदान को याद किया गया। समय का पहिया घूमता गया और अब हम फिर 15 अगस्त को स्वाधीनता दिवस और श्री अरविंद की जयंती मनाने के लिए प्रस्तुत हैं। ऐसे में युवा पीढ़ी के मन में सहज सवाल हो सकता है कि श्री अरविंद ने ऐसा क्या किया था जो स्वाधीनता संग्राम में उनकी सीधी भागीदारी से बढ़कर था? वैसे, आने वाली पीढ़ियां भी ऐसा ही सवाल करेंगी और इस पर चिंतन-मनन आध्यात्मिक आंदोलन को गति देकर प्रकारांतर से देश की सेवा करना होगा।

ओशो जब अपने शिष्यों को बता रहे थे कि धर्म और अध्यात्म से किस तरह राष्ट्र का कल्याण हो सकता है, तो किसी शिष्य ने श्री अरविंद को लेकर सवाल कर दिया। वही सवाल पूछा जो हर पीढ़ी के लिए नया सवाल बनकर खड़ा हो जाता है। ओशो प्रत्युत्तर में कहा था कि श्री अरविंद ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से पलायन किया, लेकिन फिर भी हम इसे पलायन इसलिए नहीं कह सकते, क्योंकि वह इसके समाधान के लिए जीवन के कुछ अछूते तलों पर गए, जहां समाधान के अनजाने सूत्र सन्निहित थे। भारत की आजादी में अरविंद का जितना योगदान है, उतना किसी का भी नहीं है। लेकिन वह चरित्र दिखाई नहीं पड़ सकता। उसे देखना कठिन है। और उसे सिद्ध करना तो बिल्कुल असंभव है, क्योंकि उसको सिद्ध करने का कोई उपाय नहीं है। जो प्रकट स्थूल में नहीं दिखाई पड़ता, उसे सूक्ष्म में सिद्ध करने का भी कोई उपाय नहीं है। इसलिए इसके बारे में कोई लिखता भी नहीं।

सच है कि महर्षि अरविंद स्वतंत्रता संग्राम के संत सेनानी थे। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में असंख्य स्थूल प्रयासों के पीछे सूक्ष्म प्रयास भी कार्यरत था। महर्षि अरविंद के योगदान को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। इसलिए कि आत्मिक जागृति व उत्थान के बिना पूर्ण रूप से राष्ट्र की सेवा लगभग असंभव हो जाता है। निःस्वार्थ, सद्भावना और सकारात्मक ऊर्जा रखने वाले जितने भी अग्रणी और महान सेनानियों पर नजर दौड़ाएं, तो पता चलता है कि इन सबके पीछे अध्यात्म की शक्ति ही काम कर रही थी। महर्षि अरविंद ने भी अपने आध्यात्मिक बल से स्वतंत्रता संग्राम को प्राणवान बनाया था। स्वयं महर्षि अरविंद ने कहा था कि यह पूर्ण स्वराज केवल अध्यात्म द्वारा ही आएगा।

जब देश पराधीनता की बेड़ियों से मुक्त हो गया, तो महर्षि अरविंद ने उस दिन संदेश दिया था- ‘…अगस्त 15, 1947, स्वतंत्र भारत का जन्मदिन और दैवीय इच्छा से यह मेरा जन्मदिन भी है। आज देश स्वतंत्र जरूर हुआ है, पर भारतीयों को आंतरिक स्वतंत्रता मिलनी बाकी है, जो कि भारत की एकता, अखण्डता, पुनरुत्थान और मानव सभ्यता की प्रगति के लिए बेहद जरूरी है। भविष्य में पूरी दुनिया भारत के आध्यात्मिक उपहार से पोषित हो सके तो बड़ी बात होगी। मानव की चेतना के जागरण और उसके आंतरिक विकास से ही सार्वभौमिक विकास संभव है। मैं आशा करता हूँ कि भारत आत्मिक क्रांति का केंद्र बनेगा! वन्दे मातरम्।‘

हम जानते हैं कि अपने देश में हजार से ज्यादा वर्षों तक आध्यात्मिक और भौतिक जीवन पास-पास चलते रहे है। पर उनके बीच कोई समन्वय नहीं बन पाया। महर्षि अरविंद कहते थे कि दरअसल, साधु-संतों ने वैयक्तिक पूर्णता या मुक्ति को लक्ष्य मान लिया और साधारण कर्मों से एक प्रकार का संबंध-विच्छेद कर लिया। इसकी तात्कालिक वजह थी। उस वक्त जो संसार की वास्तविक दशा थी उसमें इस समझौते की उपयोगिता पर संदेह नहीं किया जा सकता। इसने भारतवर्ष में एक ऐसे समाज को सुरक्षित रखा जिसने आध्यात्मिकता की रक्षा एवं पूजा की; यह एक ऐसा देश बना रहा, जिसमें एक किले की भांति सर्वोच्च आध्यात्मिक आदर्श अपनी अत्यधिक पूर्ण विशुद्धता के साथ अपने-आपको बनाए रख सका, इस किले में वह अपने चारों ओर की शक्तियों के आक्रमण से सुरक्षित रहा।

पर जब परिस्थितियां बदली, तब तक वे भूल चुके थे कि व्यक्ति केवल अपने अन्दर ही नहीं, बल्कि समूह में भी निवास करता है। इसलिए अपने अन्दर दिव्य प्रतीक को चरितार्थ करने के बाद, इस पूर्णता का प्रयोजन इसमें था कि इसे दूसरों में भी साधित करें, इसे बढ़ाए तथा अन्त में इस विश्वव्यापी बना दें। खैर, यह सुखद है कि हमने महर्षि अरविंद की 150वीं जयंती ऐसे समय में मनाई, जब दुनिया के कोने-कोने में भारतीय योग और अध्यात्म का डंका सुनाई देने लगा था। विभिन्न स्तरों पर विज्ञानसम्मत तरीके से वैदिक ज्ञान का प्रचार-प्रसार हो रहा है। पर चिंताजनक बात यह है कि साधनाओं में योग-समन्वय का घोर अभाव दिखता है। कोई हठयोग में जुटा हुआ है तो जीवन से राजयोग गायब है। यही हाल बाकी योग पद्धतियों के मामलों में भी है। हालात ऐसे ही रहे तो आध्यात्मिक उन्नति और विकास में एक तीव्र प्रकार की असंगति पैदा हो जाएगी, जिसकी चिंता महर्षि अरविंद सदैव किया करते थे।

इसमें कोई संदेह नहीं कि सतत यौगिक व आध्यात्मिक साधना की दिव्य ऊर्जा के सूक्ष्म प्रभाव, असंख्य बलिदानों और निष्काम योगदानों से हमारा देश स्वतंत्र हो गया था। पर इस बाह्य स्वराज से संतुष्ट हो जाने का कोई औचित्य नहीं। आंतरिक स्वराज का स्वप्न अभी अधूरा है और जैसा कि श्री अरविंद कहते थे कि पूर्ण स्वराज केवल अध्यात्म द्वारा ही आएगा। इसलिए समन्वित योग साधना समय की जरूरत है। इसके बल पर ही भारत दुनिया भर के लिए आत्मिक क्रांति का केंद्र बनेगा और यही महर्षि अरविंद को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

धीरेंद्र ब्रह्मचारी : बेशकीमती यौगिक सूक्ष्म व्यायाम है

किशोर कुमार

अस्सी के दशक के बहुचर्चित योगी और महर्षि कार्तिकेय के शिष्य धीरेंद्र ब्रह्मचारी राजनीति और व्यापार के पचड़े में न पड़े होते तो उनके “विश्वायतन योगाश्रम” और “योग अनुसंधान संस्थान” का परचम लहरा रहा होता। अपने समय के प्रतिभाशाली हठयोगी होने के कारण शिखर पर पहुंच तो गए थे। पर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से संबंधों और अपनी कुछ गतिविधियों के कारण इतने विवादास्पद हुए कि योग को विज्ञान की कसौटी पर कसकर उसे जन-जन तक पहुंचाने के उनके अभियान को बड़ा धक्का लगा। लेखकों-पत्रकारों के एक बड़े वर्ग के लिए योग, यौगिक अनुसंधान व उससे मिलने वाले लाभ गौण हो गए और विवादास्पद प्रसंग महत्वपूर्ण हो गए।

वैसे, धीरेंद्र ब्रह्मचारी इकलौते योगी नहीं हैं, जो विवादास्पद बने। कई अन्य योगियों का भी अलग-अलग कारणों से विवादों से गहरा नाता रहा है। पर उनके मूल कार्यों पर ज्यादा असर नहीं पड़ा। इस मामले में धीरेंद्र ब्रह्मचारी भाग्यशाली नहीं निकले। श्रीमद्भगवतगीता में श्रीकृष्ण कहते हैं – “कर्मफल का आश्रय न लेकर जो कर्तव्य-कर्म करता है, वही संन्यासी तथा योगी है।“ हम जानते हैं कि संसार त्रिगुणों यानी तमस, रजस और सत्व गुणों की लीला भूमि है। कोई भी व्यक्ति इन गुणों से परे नहीं है। फर्क इतना है कि किसी में तमस गुण की प्रधानता है तो किसी में रजस गुण की। आत्मज्ञानी संतों में सत्व गुण की प्रधानता होती है। धीरेंद्र ब्रह्मचारी की जैसी जीवन-शैली थी, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि वे रजस गुण प्रधान योगाचार्य थे।

धीरेंद्र ब्रह्मचारी ने भी कभी नहीं कहा कि वे योगी या आत्मज्ञानी संत हैं। हमेशा खुद को हठयोग साधक या योगाचार्य बताते रहे। पर समस्या इसलिए भी खड़ी हुई कि हम उन्हें निवृत्ति मार्गी संन्यासी मानते हुए तदनुरूप व्यवहार की उम्मीद करने लगे। भूल गए कि योगाचार्य प्रोफेशनल भी हो सकता है। भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिक बिक्रम चौधरी तो हॉट योग के लिए दुनिया भर में मशहूर हैं। कारोबार पांच सौ करोड़ रूपए का है। विवादों से नाता बना रहता है। पर कारोबार पर कभी फर्क नहीं पड़ा।    

धीरेंद्र ब्रह्मचारी हठयोग विद्या में प्रवीण थे। तंत्र की शक्तियों से वाकिफ थे। तभी हठयोग और तंत्र में परस्पर संबंध बतलाते हुए तदनुरूप योगाभ्यास भी कराते थे। उन योगाभ्यासों से किसी न किसी दौर में राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह, प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, मोरारजी देसाई, राजीव गांधी, उप प्रधानमंत्री बाबू जगजीवन राम और लोकनायक जयप्रकाश नारायण जैसी शख्सियतों के अलावा लाखों लोग लाभान्वित हुए। सच तो यह है कि सन् 1956 में जेपी जब यौगिक उपचार से मधुमेह-मुक्त हुए तो उन्होंने ही धीरेंद्र ब्रह्मचारी को कलकत्ता से दिल्ली लाने में भूमिका निभाई थी। वरना धीरेंद्र ब्रह्चारी ज्यादातर कलकत्ते में ही लोगों को योगाभ्यास कराते थे। जाहिर है कि धीरेंद्र ब्रह्मचारी में कुछ खास बात निश्चित रूप से रही होगी। तभी चेतना के बेहतर तल पर जीने वाली शख्सियतें उनसे प्रभावित थीं।

धीरेंद्र ब्रह्मचारी योग का प्रचार-प्रसार विश्वायतन संस्था के बैनर तले करते थे। इस संस्था के बड़े योगाश्रम दिल्ली और जम्मू-कश्मीर में थे। दिल्ली का आश्रम अब भारत सरकार के अधीन मोरारजी देसाई राष्ट्रीय योग संस्थान बन चुका है। जम्मू के मंतलाई आश्रम का कायाल्प करके उसे अंतर्राष्ट्रीय योग केंद्र बनाया जा रहा है। टीवी के जरिए योग का प्रचार-प्रसार अब आम है। पर धीरेंद्र ब्रह्मचारी ने इसकी बुनियाद सत्तर के दशक में ही रख दी थी। दूरदर्शन पर “योगाभ्यास” नाम से कार्यक्रम प्रत्येक सप्ताह प्रसारित किया जाता था। वे कहते थे कि आत्मज्ञान योग का असल उद्देश्य है। पर यह विषय उनके एजेंडे में नहीं था। उनकी कोशिश इतनी भर थी कि लोग स्वस्थ्य एवं प्रसन्न रहें। इसलिए बहिरंग योग साधना उनका विषय था।

नई शिक्षा नीति में यौगिक क्रियाओं को अब जाकर स्थान मिला है। पर धीरेंद्र ब्रह्चारी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से अपने संबंधों का लाभ लेते हुए अस्सी के दशक में ही देश के सभी केंद्रीय विद्यालयों में योग शिक्षा आरंभ करवाई थी। ताकि छात्रों की प्रसुप्त क्षमताएं और प्रतिभाएं प्रकट हो सके। धीरेंद्र ब्रह्चारी संत भले न थे। पर संतों के प्रति अनुराग में कोई कमी न थी। इसे एक उदाहरण से समझिए। वे केंद्रीय विद्यालयों में योग शिक्षकों की बहाली के लिए खुद ही इंटरव्यू ले रहे थे। उनके समक्ष गेरू वस्त्र धारण किया हुआ एक अभ्यर्थी उपस्थित हुआ। उससे योग्यता प्रमाण-पत्र मांगा गया तो उसने बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती के साथ की अपनी तस्वीर प्रस्तुत कर दी। धीरेंद्र ब्रह्चारी ऐसे उछले मानो कोयला खान में हीरा मिल गया हो। उन्होंने कहा, “इतने बड़े संत का जिसे सानिध्य मिल चुका है, उसके चयन के लिए कागज के टुकड़े का क्या मोल। आपका चयन किया जाता है।“

धीरेंद्र ब्रह्मचारी बिहार के मधुबनी जिले में जन्मे थे। यह वही जिला है, जहां स्वयं भगवान शिव अपने भक्त विद्यापति पर कृपा करके उनके घर में लंबे समय तक उगना के रूप में नौकरी किया करते थे। उगना महादेव मंदिर आज भी उस ईश्वरीय लीला की याद दिलाते रहता है। कृष्ण-भक्त धीरेंद्र ब्रह्चारी कोई बारह साल के थे तो उन पर सद्गुरू महर्षि कार्तिकेय की दृष्टि गई थी। इसके कुछ समय बाद ही वैराग्य के लक्ष्ण प्रकट हुए तो महादेव की लीला भूमि मधुबनी से निकल कर किसी कृष्णधाम नहीं, बल्कि काशी धाम ऐसे गए मानो आदियोगी उन्हें खींच ले गए हों। वहीं से उन्नाव के गोपाल खेड़ा स्थित कार्तिकेय आश्रम चले गए और योग विद्या हासिल की थी। जब कर्मक्षेत्र में उतरे तो तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की नजर गई। फिर तो वे वैसे ही खिल गए, जैसे सूर्य की रोशनी पा कर सूरजमुखी के फूल खिल उठते हैं।

अब तो धीरेंद्र ब्रह्मचारी के गुजरे भी तीन दशक होने को हैं। उनके जीवन के श्याम पक्ष को पकड़ कर उसमें उलझे रहने का भी कोई सार नहीं है। सार है तो उनके यौगिक सूक्ष्म व्यायाम का, योगासन विज्ञान का। सन् 2024 धीरेंद्र ब्रह्मचारी का जन्मशताब्दी वर्ष है। उनकी यौगिक क्रियाओं का प्रचार-प्रसार करना और उन क्रियाओं को शोध का विषय बनाना योग को समृद्ध करना होगा। दिल्ली के बाद मंतलाई आश्रम का स्वरूप बदला जाना अच्छा कदम है। पर ध्यान रखा जाना चाहिए कि धीरेंद्र ब्रह्मचारी का योग-बल ही इन संस्थाओं की बुनियाद है। इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए। वरना इतिहास बदलने वाले कोई मौका कहां छोड़ते हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

महान संतों की चमत्कारिक शक्तियां

किशोर कुमार

भारत के महान संतों और योगियों ने कभी योग विद्या की बदौलत चमत्कार दिखाए जाने का समर्थन नहीं किया। पर यह भी सही है कि योग और अध्यात्म की विश्वसनीयता बताने या अपने संकटग्रस्त शिष्यों के कल्याण के लिए चमत्कारिक प्रभाव उत्पन्न करने वाली योग-शक्ति का प्रयोग किया जाता रहा है। आदिगुरू शंकराचार्य से लेकर तैलंग स्वामी और स्वामी शिवानंद सरस्वती तक ने अनेक मौकों पर अपनी योग-शक्ति से वैसे कार्यों को संभव कर दिया, जो सामान्य जनों की नजर में किसी चमत्कार से कम न थे।

यह बहस का विषय हो सकता है कि बागेश्वर धाम सरकार और हनुमान भक्त धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री के “चमत्कारों” की तुलना हाथ की सफाई दिखाने वाले सामान्य जादूगरों से की जानी चाहिए या नहीं। सच तो यह है चमत्कार जादूगर भी दिखाते हैं और योगी भी। पर दोनों चमत्कारों के कारण में बुनियादी फर्क है। मुझे नहीं मालूम कि धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री किस श्रेणी में आते हैं। पर वे भरी सभाओं में अपने अनुयायियों के कष्ट निवारण के लिए जो तरीके अपनाते हैं, जिन्हें चमत्कार कहा जा रहा है, वे तरीके कोई अनूठे और नए नहीं हैं। स्वामी विवेकानंद ने तो आज से कोई 122 साल पहले अमेरिका के लॉस एंजिल्स में भरी सभा में कहा था कि हम योगियों की जिन क्रियाओं को चमत्कार कहते हैं, वह कुछ और नहीं, बल्कि राजयोग का परिणाम होता है।

स्वामी विवेकानंद ने उसी सभा में अपने साथ घटित एक वाकया सुनाया था। उन्हें एक ऐसे व्यक्ति के बारे में पता चला, जो किसी के भी मन के गुप्त प्रश्नों को जान लेता था औऱ उसे कागज पर लिखकर समाधान भी बता देता था। उन्होंने उस व्यक्ति की परीक्षा लेने की ठानी। वे दो अन्य सहयोगियों के साथ उस व्यक्ति के पास गए। स्वामी जी का सवाल संस्कृत भाषा में और उनके सहयोगियों के सवाल क्रमश: ऊर्दू और जर्मन भाषा में थे। आसन पर बैठा व्यक्ति स्वामी जी को देखते ही कागज पर कुछ लिखा और उन्हें थमाकर पूछा, यही सवाल है न मन में? स्वामी जी का कहना था कि उन्होंने संस्कृत की जो पंक्तियां मन में बनाई थी, वही हू-ब-हू उस व्यक्ति द्वारा लिखित कागज पर थी। ऐसा ही बाकी दो सहयोगियों के साथ भी हुआ। कमाल यह कि वह व्यक्ति न संस्कृत जानता था, न ऊर्दू और न ही जर्मन। विवेकानंद समग्र में इस प्रसंग उल्लेख है।

धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री की तरह ही श्री पंडोखर महाराज भी हनुमान भक्त हैं। उनका धाम मध्य प्रदेश के दतिया जिले के पंडोखर गांव में है। विभिन्न दिशाओं से झांसी जाने वाली ट्रेनें पंडोखर महाराज के भक्तों से भरी होती हैं। वे भी अपने धाम में आए भक्तों के मन में चल रहे सवाल बिना बताए ही जान लेते हैं और उसे पर्चियों पर लिख भी देते हैं। फिर परेशानियां दूर करने के उपाय बतलाते हैं। मैं एक व्यक्ति को जानता हूं, जो अपनी समस्या के निवारण के लिए पंडोखर धाम गए थे। दरबार में बैठे थे तो पंडोखर महाराज की नजर उन पर गई और पास बुला लिया। वह सज्जन यह देखकर हैरान थे कि उनके मन में जो सवाल चल रहा था, उसे पंडोखर महाराज ने पहले से एक पर्ची पर लिख रखा था।

महान संत और हनुमान भक्त नीम करोली बाबा तो विश्वविख्यात हैं। उनके कैंचीधाम आश्रम में देश-विदेश की बड़ी-बड़ी हस्तियां भी जाती रहती हैं। बाबा के चमत्कार की किस्से भरे पड़े हैं। एक वाकया बहुप्रचारित है। बाबा ट्रेन से सफर कर रहे थे। पर उनके पास टिकट नहीं थी। नीम करोली गांव के पास ट्रेन किसी करण से जैसे ही रूकी, टिकट परीक्षक ने उन्हें ट्रेन से उतार दिया। पर बेवजह ट्रेन वहीं ठहर गई। ड्राइवर और तकनीशियनों की सारी कोशिशें बेकार गईं। तब किसी के मन में ख्याल आया कि शायद ट्रेन से उतार दिए गए बाबा की शक्ति से ट्रेन का पहिया थम गया हो। जब उन्हें ट्रेन पर चढ़ाया गया तो ट्रेन चलने लगी थी। बाद में उस जगह पर स्टेशन बना और उसका नाम बाबा के नाम पर रखा गया।  

आदिगुरू शंकराचार्य की कहानी तो हम सब जानते ही हैं। उन्होंने मशहूर विद्वान कुमारिल भट्‌ट के शिष्य और मिथिला के पंडित मंडन मिश्र को शास्त्रार्थ में हरा दिया था। पर मंडन मिश्र की पत्नी उभया भारती ने अपने पति की ओर से कमान संभाली और कामशास्त्र सें संबंधित सवाल किया तो वे फंस गए। उन्होंने उत्तर देने के लिए उभया भारती से कुछ वक्त मांगा। इसका उत्तर राजा सुधन्वा की पत्नी के पास था। पर समस्या थी कि उनकी पत्नी तक पहुंच कैसे बने? तभी पता चला कि राजा सुधन्वा के प्राण पखेरू उड़ चुके हैं। तब जगत्गुरू शंकराचार्य योग की गूढ़ परकाय प्रवेश विद्या की बदौलत राजा सुधन्वा के म़ृत शरीर में प्रवेश कर गए थे। भौतिक शरीर तो राजा सुधन्वा का था। पर उसमें प्राण आदिगुरू शंकराचार्य का था। इस तरह भौतिक रूप से राजा सुधन्वा बनकर उनकी पत्नी से कामशास्त्र का ज्ञान प्राप्त किया था। इसके बाद पुन: अपना भौतिक शरीर धारण करके उभया भारती से शास्त्रार्थ करने गए थे।

संत ज्ञानेश्वर को पंडितों से यह साबित करने की चुनौती मिली कि भौसे में और उनमें एक ही आत्मा भासित है तो उन्होंने भैसे की पीठ पर हाथ रखा और भैसां वेदपाठ करने लगा था। उस जमाने के ख्याति प्राप्त संत चांगदेव को देखने की इच्छा हुई तो संत ज्ञानेश्वर अपने भाई-बहन के साथ मिट्टी से बने जिस दीवार पर बैठे, वह मोटर गाड़ियों की तरह चलने लगा था। चांगदेव ने यह देखा तो वह संत ज्ञानेश्वर के चरणों में जा बैठा और उनका शिष्य बन गया था। बनारस के महान संत तैलंग स्वामी के चमत्कारों के किस्सों का उल्लेख तो बनारस गजेटियर में हैं। शहर में निर्वस्त्र विचरण करने के कारण अंग्रेज अधिकारी उन्हें जेल में बंद कर देते थे। पर वे अपनी योग-शक्ति से अपने विशालकाय भौतिक शरीर को सूक्ष्म बनाकर जेल से बाहर निकल जाते थे और खुलेआम सड़कों पर विचरण करते दिखते थे।

लाहिड़ी महाशय और स्वामी शिवानंद सरस्वती के अनुयायियों ने अनेक मौकों पर अनुभव किया कि उनके और गुरू के बीच की दूरी मिट गई, देशों के बीच की सीमाएं मिट गईं। गुरूजी एक ही समय में दो से अधिक स्थानों पर अपने प्रिय भक्त के पास मौजूद थे। मां आनंदमयी, योगीराज देवराहा बाबा, स्वामी विशुद्धानंद, स्वामी शिवानंद, रमण महर्षि और परमहंस योगानंद से लेकर परमहंस स्वामी सत्यानंद तक ने साधकों में योग-अध्यात्मक को लेकर भरोसा जगाने या उनकी मदद करने के लिए समय-समय पर चमत्कार दिखाते रहे। बीसवीं सदी के प्रसिद्ध आध्यात्मिक जिज्ञासु पॉल ब्रंटन उच्च आध्यात्मिक उपलब्धि प्राप्त लोगों की तलाश में भारत आए थे। उन्हें फर्जी साधु-फकीर मिले तो रमण महर्षि जैसे आत्मज्ञानी संत भी मिले। अंत में उन्हें कहना पड़ा था कि परमात्मा है और योगियों ने अद्भुत शक्तियां होती हैं, इन बातों पर अविश्वास करने की कोई वजह नहीं।

सदियों से मान्यता रही है कि मानव अस्तित्व के पीछे कोई रहस्यमय शक्ति छिपी है। प्राचीन काल के ऋषियों और योगियों से लेकर आधुनिक युग के वैज्ञानिक संत तक अपनी साधनाओं, अपने अनुसंधानों से इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि मानव के विचारों की उत्पत्ति व चेतना के विकास में सहायक रहस्यमय शक्ति का विवेचन सैद्धांतिक रूप से नहीं किया जा सकता है। यह अनुभवगम्य है। योग विज्ञान, मुख्यत: इसकी तांत्रिक क्रियाएँ उस अनुभव तक पहुंचाने का साधन हैं। जादू-टोना तो तंत्र का विकृत रूप है।

प्राचीन काल से योगी महसूस करके रहे हैं कि मन अविच्छिन्न है, विश्वव्यापी है और मानव विश्वव्यापी अविच्छिन्न मन का अंग है। इसी अविच्छिन्नता के कारण दूसरे के विचारों को जानना या अपने विचार को संप्रेषित करना संभव हो पाता है। पर सूक्ष्म रूप में घटित घटना का परिणाम बाह्य आकार मिले बिना दिखता नहीं। स्वामी विवेकानंद कहते थे कि इन सूक्ष्म शक्तियों पर काबू करके या काबू करने की प्रक्रिया में भी चमत्कारिक प्रभाव पैदा किए जाते हैं। बीमारियों से निजात दिलाने में मदद भी मिलती है।  

तुलसीदास कृत रामचरित मानस पर भी वाद-विवाद चलते रहता है। पर मानस के सुंदरकांड के प्रारंभ में ही हनुमान जी का पंचदशाक्षक मंत्र लिखा है। अनेक संतों और योगियों का अनुभव है कि उनकी सिद्धियों में पंचदशाक्षक मंत्र ने उत्प्रेरक का काम किया। खुद तुलसीदास कहते हैं कि उन्हें पंचदशाक्षक मंत्र के साथ हनुमान जी के पूजन से सिद्धियां मिली थीं। तंत्र और मंत्र के अलावा योग की अन्य विद्याएं जैसे, स्वरयोग विद्या, प्राण विद्या आदि की शक्तियां भी आमजन की नजर में चमत्कार ही पैदा करती है। योगी इन यौगिक विद्याओं के जरिए अपनी चेतना का विस्तार करके जनकल्याण करते रहे हैं।

प्राण चिकित्सा में उपचारक अपने हाथों के माध्यम से ब्रह्मांडीय प्राण ऊर्जा को ग्रहण कर हाथों द्वारा रोगी में ऊर्जा प्रक्षेपित करता है। स्वरयोग तो मस्तिष्क श्वसन का तांत्रिका विज्ञान है। पर सामान्य मामलों में इसका प्रभाव भी गजब है। यदि योगी का श्वास दायी नाक से चल रहा हो और प्रश्नकर्ता दाहिनी ओर से सवाल करे कि क्या अमुक काम हो जाएगा, तो उसका उत्तर “हां” में होगा। शिव स्वरोदय के मुताबिक इस योग से वाक् सिद्धि होने पर मुंख से निकली बात घटित हो जाती  है।

शक्तिपात योग बेहद शक्तिशाली है। अनेक योगी और महात्मा आज भी हमारे बीच मौजूद हैं, जिन्हें उनके गुरूओं ने शक्तिपात के जरिए योग और आध्यात्मिक मार्ग पर अग्रसर किया। ऋषिकेश के स्वामी शिवानंद सरस्वती ने अपने शिष्य परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती को शक्तिपात के जरिए ही योग का ज्ञान कराया था। इसलिए योगियों के आंतरिक जागरण की गहराई कोई ज्ञानी ही समझ सकता है। योगियों का गूढ़ ज्ञान सामान्य दृष्टि वालों की समझ से परे है।    

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

                                                                                                                                                                                                              

इस मर्ज की दवा है योग

भारत में मधुमेह पर पहली बार वैज्ञानिक शोध करने वाले परमहंस सत्यानंद सरस्वती कहते थे, “योग और औषधि के तालमेल से हम एक नए और बेहतर विश्व का निर्माण कर सकते हैं, जिसमें हमारी शारीरिक, भावनात्मक, मानसिक और अधिमानसिक आवश्यकताओं पर पूरा ध्यान दिया जा सकेगा। योग और अन्य चिकित्सा-पद्धतियां एक दूसरे की पूरक हैं। वे परस्पर विरोधी नहीं हैं। यदि दवाओं के साथ योग का समन्वय किया जाए तो यह मधुमेह के निदान में एक शक्तिशाली क्रिया होगी।”

किशोर कुमार

एक तरफ कोरोना की मार तो दूसरी तरफ कहर बरपाता मधुमेह। योग की जन्मभूमि में यह हाल है, जबकि वैज्ञानिक शोधों से भी पता चल चुका है कि मधुमेह से बचाव में योग की बड़ी भूमिका है। सफलता की कहानियां भरी पड़ी हैं कि किस तरह समन्वित योग यानी षट्कर्म, आसन, प्राणायाम और सजगता के नियमित अभ्यासों से दो महीनों के भीतर प्राकृतिक रूप से शरीर में इंसुलिन बनने लगा और इंसुलिन के इंजेक्शन से मुक्ति मिल गई। बावजूद विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 7.7 करोड़ लोग इस बीमारी के शिकार हैं। इतना ही नहीं, वैश्विक पैमाने पर हर छठा भारतीय व्यक्ति इस रोग की गिरफ्त में हैं। यह चिंताजनक है।

पूरे देश में आजकल बहस चल रही है कि बीमरियों के इलाज में कौन-सी पैथी बेहतर या कारगर। पर विशेषज्ञ जानते हैं कि हर पैथी, हर उपचारात्मक विधियों की सीमाएं हैं। यह बात योग के साथ भी लागू है। हम जानते हैं कि योग विशुद्ध रूप से रोग-निवारण की पद्धति नहीं है। तभी मधुमेह के यौगिक उपचार के दौरान भी आधुनिक चिकित्सा पद्धति की दवाओं की जरूरत बनी रहती है। पर यह भी सत्य है कि अनेक मामलों में यौगिक क्रियाएं आधुनिक चिकित्सा प्रणाली की सीमाओं को लांघ जाती है। बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस सत्यानंद सरस्वती ने तो साठ के दशक में ही कहा था – “योग और औषधि के तालमेल से हम एक नए और बेहतर विश्व का निर्माण कर सकते हैं, जिसमें हमारी शारीरिक, भावनात्मक, मानसिक और अधिमानसिक आवश्यकताओं पर पूरा ध्यान दिया जा सकेगा।“  वे बार-बार कहते थे कि योग और अन्य चिकित्सा-पद्धतियां एक दूसरे की पूरक हैं। वे परस्पर विरोधी नहीं हैं।

तभी उन्होंने सत्तर के दशक में उड़ीसा में संबलपुर के बुर्ला स्थित मेडिकल कालेज के साथ मिलकर मधुमेह से बचाव के लिए यौगिक अनुसंधान किया था। इसके नतीजे ऐसे रहे कि चिकित्सा विज्ञान भी चौंका। साबित हुआ कि आधुनिक चिकित्सा पद्धति की सहायता लेकर चालीस दिनों के यौगिक अभ्यास से इंसुलिन लेने वाले मधुमेह रोगियों को पहले इंसुलिन से और बाद में मधुमेह से ही मुक्ति मिल सकती है। बिहार योग की इस पद्धति से बड़ी संख्या में मधुमेह रोगी स्वस्थ्य होने लगे तो भारत के विभिन्न योग संस्थानों से लेकर विदेशों में भी इस पद्धति को मधुमेह रोगियों पर आजमाया गया। विवेकानंद योग केंद्र के प्रमुख एचआर नगेंद्र ने अपने कन्याकुमारी स्थित केंद्र में सबसे पहले 15 मधुमेह रोगियों पर यौगिक प्रभावों को देखा और पाया कि इंसुनिल पर निर्भर मरीज ठीक हो गए थे। झारखँड के बोकारो इस्पात संयंत्र में एके श्रीवास्तव नाम के एक वास्तुविद हुआ करते थे। उनका मधुमेह इतना गंभीर था कि एक दिन में 40-50 यूनिट इंसुलिन लेना पड़ता था। यौगिक उपायों से दवाओं पर निर्भरता कम होती गई और कुछ महीनों बाद से ब्लड शुगर सामान्य हो गया था।

योग पब्लिकेशन ट्रस्ट ने इन अध्ययनों के आधार पर सन् 1977 में एक पुस्तक प्रकाशित की थी – “यौगिक मैनेजमेंट ऑफ आस्थमा एंड डायबेट्स।” उसमें बताया गया कि मधुमेह के मरीजों को प्रारंभिक एक महीना हर सप्ताह तक कौन-सी यौगिक क्रियाएं करनी हैं और दवाओं व भोजन का प्रबंधन किस प्रकार करना है? इसके बाद बिना दवा लिए रक्त शर्करा यानी ब्लड शुगर सामान्य हो जाने के बाद किन योग विधियों को अपने जीवन का हिस्सा बना लेना है। शुद्धिकरण की क्रियाओं में शंखप्रक्षालन तथा कुंजल व नेति; आसनों में पश्चिमोत्तानासन, अर्द्ध मत्स्येंद्रासन, भुंजगासन, धनुरासन, सर्वांगासन और हलासन; प्राणायामो में नाड़ी शोधन, भ्रामरी और भस्त्रिका और ध्यान के अभ्यासों में योगनिद्रा व अजपाजप करने की सलाह दी गई है। पर साप्ताहिक अभ्यास में पवनमुक्तासन (सत्यानंद योग पद्धति) पर बल दिया गया है। ऐसा इसलिए कि कभी योगाभ्यास नहीं करने वाले मरीजों को योग करने योग्य तैयार किया जा सके। वैसे यह आसन वातरोग, गठिया, उच्च रक्तचाप, हृदय रोग के मरीजों को काफी फायदा पहुंचाता है।                                                    

मधुमेह की रोकथाम में शंखप्रक्षालन और कुंजल क्रियाओं की बड़ी भूमिका होती है। आमतौर पर अंतड़ियों में कचरा और मल भरा रहता है उसके भीतरी दीवारों पर इकट्ठा होता जाता है। यह सूखता जाता है और अति कठोर होता जाता है। यह खून को विषाक्त बनाता है। इन यौगिक क्रियाओं से अन्न पथ की पूर्ण सफाई हो जाती है और अधिक ग्लुकोज का उपभोग न किया जाए तो ब्लड शुगर का स्तर नियंत्रित रखने में मदद मिलती है। कुंजल क्रिया से अधिक मात्रा में खाए हुए भोजन और शरीर में सड़े भोजन से बचाव होता है। मधुमेह में तंत्रिका तंत्र को क्षति होती है। डायबिटिक पेरिफेरल न्यूरोपैथी इसी वजह से होती है। आसन का प्रभाव यह है कि तंत्रिका आवेगों और ग्रंथि क्षेत्रों में रक्त के समुचित वितरण हो जाता है। इससे मधुमेह से संबंधित अवयवों की क्रियाएं समायोजित होती हैं। प्राणायाम से शरीर के उन भागों में ऊर्जा पहुंचने लगती है, जहां इसकी कमी की वजह से रोग में इजाफा हो रहा होता है। मस्तिष्क से ले कर पैक्रियाज तक को फायदा पहुंचता है।  

अंतर्राष्ट्रीय योग शिक्षा और अनुसंधान केन्द्र, पुदुचेरी के अध्यक्ष योगाचार्य डॉ. आनंद बालयोगी भवनानी के मुताबिक इन्स और विन्सेन्ट की एक व्यापक समीक्षा में योग से कई जोखिम सूचकों में लाभदायक बदलाव पाए गए। जैसे ग्लूकोस सहिष्णुता, इंसुलिन संवेदनशीलता, लिपिड प्रोफाइल, एन्थ्रोपोमेट्रिक विशेषताओं, रक्तचाप, ऑक्सीडेटिव तनाव,  कोग्यूलेशन प्रोफाइल, सिम्पेथेटिक एक्टिवेशन और पलमोनरी फंक्शन में इसे काफी फायदेमंद पाया गया। योगाभ्‍यास से मधुमेह के रखरखाव और उसकी रोकथाम में सहायता होती है तथा उच्‍च रक्‍तचाप और डिसलिपिडेमिया जैसी परिस्थितियों से बचाव होता है। लंबे समय तक योगाभ्‍यास करने से इन्‍सुलिन के प्रति संवेदनशीलता बढ़ती है और शरीर के वजन या कमर के घेरे तथा इन्‍सुलिन संवेदनशीलता के बीच का नकारात्‍मक संबंध घट जाता है। 

गौर करने लायक बात यह है कि मधुमेह केवल जीवन-शैली से जुड़ी बीमारी नहीं रही, बल्कि प्रदूषण इस बीमारी को महामारी में तब्दील करने में बड़ी भूमिका निभा रहा है। वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण और ध्वनि प्रदूषण के साथ ही प्रदूषित भोज्य पदार्थ इसकी जड़ में हैं। विश्वव्यापी शोधों से यह बात साबित हो चुकी है। पश्चिम के अनेक देश इस दिशा ठोस काम कर रहे हैं। पर भारत में इस दिशा में काम होना बाकी है। रिसर्च सोसाइटी फॉर डायबिटीज इन इंडिया ने इस दिशा में पहल की है। इस संगठन के झारखंड चैप्टर के अध्यक्ष डॉ एनके सिंह ने अध्ययनों के बाद विस्तृत रिपोर्ट तैयार की है, जिसे सरकार को सौंपा जा चुका है। जाहिर है कि मधुमेह से बचना है तो योगमय जीवन तो अपना ही होगा। साथ ही रसायनयुक्त भेज्य पदार्थों से भी बचना होगा।

आधुनिक चिकित्सा विज्ञान अभी मधुमेह का रामबाण इलाज नहीं ढ़ूंढ़ पाया है। इसुलिन ही सहारा है। पर योगमय जीवन हो तो इंसुलिन पर से निर्भरता समाप्त भी हो जा सकती है। हमने देखा कि कोरोना संक्रमण के कारण मधुमेह के मरीजों पर किस तरह कहर बरपा। यह सिलासिला आज भी जारी है। यदि हमारे जीवन में योग के लिए थोड़ी भी जगह होती तो मधुमेह रोगियों के लिए कोरोना महामारी इतनी बड़ी चुनौती न बनी होती।  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)    

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