किशोर कुमार
आशुतोष महाराज कोई नौ वर्षों से भौतिक शरीर में नहीं हैं। पर उनकी आध्यात्मिक ऊर्जा और ब्रह्मज्ञान विद्या का जादू देखिए कि देश-विदेश में फैले उनके लाखों अनुयायी उनके ही रंग में सराबोर रहते हैं। महाराज जी ने वैदिक ज्ञान की तर्कपूर्ण व वैज्ञानिक व्याख्या करके उसके प्रचार के लिए दिव्य ज्योति जागृति संस्थान और ज्ञान-संपन्न साधु-साध्वियों को आगे करके दिव्य ज्योति जलाई थी। उसकी आध्यात्मिक ऊर्जा निरंतर घनीभूत होती दिखती है। गौर करने लायक बात यह है कि आशुतोष महाराज की भौतिक रूप से अनुपस्थिति और उनके दिव्य ज्योति जागृति संस्थान को लेकर लगातर विवाद खड़े किए जाने के बावजूद सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह बना हुआ है।
वैसे, शास्त्रों में भी समाधि को लेकर व्याख्याएं की गईं हैं, जो थोड़े भिन्न प्रतीत होते हैं। चौदहवी सदी में श्रृंगेरी शारदा पीठम् के जगद्गुरू माध्वाचार्य विद्यारण्य ने अद्वैत वेदांत की व्याख्या करते हुए श्रीपंचदशी में कहा है – यद्यप्यसौ चिरं कालं समाधिर्दुर्लभो नृणाम्। यानी मनुष्य समाधि की अवस्था में सदा नहीं रह सकता। दूसरी तरफ, शिव पुराण की वायवीय संहिता में कहा गया है कि समाधि की स्थिति में योगी का स्वरूप शून्यवत प्रतीत होता है। योगी गहनतम योगनिद्रा में होते हैं। फिर भी वे स्वेच्छा से उससे बाहर ने में सक्षम होते हैं।
यक्ष प्रश्न सदैव बना रहता है कि समाधि में हैं, किसी अन्य सूक्ष्मलोक में हैं या फिर भौतिक शरीर त्याग चुके हैं? चिकित्सकों ने समाधि की खबरों के दूसरे दिन ही यानी 29 जनवरी 2014 को उन्हें “क्लीनिकली डेथ” घोषित कर दिया था। अदालत ने भी इस रिपोर्ट पर मुहर लगा दी थी। संस्थान के संचालक इन बातों से सहमत न हुए। शरीर को क्षति न पहुंचे, इसलिए उन्होंने उसे नूरमहल आश्रम में शून्य डिग्री तापमान पर रख दिया है। महाराज जी के आध्यात्मिक मिशन को आगे ले जाने के लिए समर्पित साध्वियां ऐतिहासिक और वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर बतलाती हैं कि महाराज जी समाधि में ही हैं और भक्तों को कभी न कभी दर्शन जरूर देंगे।
साध्वियां सप्रमाण बतलाती हैं कि जब भी गुरू समाधि में जाते हैं तो वे स्वयं नहीं उठतें। उन्हें उनके शिष्य ही उठाते हैं। ऐसा हर युग में किसी न किसी रूप में घटित हुआ है। सद्गुरू मछन्दरनाथ इसके एक उदाहरण हैं। वे तो कोई बारह वर्षों तक अलोप रहे। पर उनके पट्शिष्य गोरखनाथ ने अलख जगाई तो गुरू को प्रकट होना पड़ा था। द्वैतवाद के प्रवर्तक माध्वाचार्य जी को भी इसी तरह अपने शिष्य सत्यतीर्थ की प्रबल पुकार से द्रवित होकर प्रकट होना पड़ा था। आशुतोष महाराज के मामले में भी होगा। शिष्यों का दिव्यपुंज जब इकट्ठा होगा और उनके अंतर्जगत में महाराज जी उतरेंगे तो नूरमहल भी प्रकाश-पुंज से नहा जाएगा। महाराज जी अपनी भौतिक देह में प्रकट हो जाएंगे।
पर भौतिक शरीर को नूरमहल में सुरक्षित रखा जाना और सद्गुरू मछन्दरनाथ के उल्लेख से आशुतोष महाराज की समाधि को लेकर एक नवीन दृष्टि भी बनती है। “अखंड ज्योति” में श्रीराम शर्मा आचार्य ने लिखा है कि नाथ सम्प्रदाय के आदिगुरु मछन्दरनाथ अपने भौतिक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में प्रवेश करने की “परकाया प्रवेश विद्या” जानते थे। तभी उन्होंने अपने शिष्य गोरखनाथ को स्थूल शरीर की सुरक्षा का भार सौंपकर एक मृत राजा के शरीर में सूक्षम रूप से प्रवेश किया था। ‘महाभारत के शान्ति पर्व’ में वर्णन है कि सुलभा नामक विदुषी अपने योगबल की शक्ति से राजा जनक के शरीर में प्रविष्ट कर विद्वानों से शास्त्रार्थ करने लगी थीं। उन दिनों राजा जनक का व्यवहार भी स्वाभाविक न रह गया था। आदि शंकराचार्य के बारे में भी ऐसा ही उल्लेख मिलता है। ये तमाम ऐसे योगियों के उदाहरण हैं, जिन्होंने किसी खास मकसद से परकाया प्रवेश किया और काम पूरे होते ही अपना भौतिक शरीर धारण कर लिया था। आशुतोष महाराज के मामले में इस दृष्टि से भी विचार किया जाना चाहिए।
दिव्य ज्योति जागृति संस्थान भारत सहित कोई पैतीस देशों में फैला हुआ है और 350 शाखाएं हैं। मुख्य आश्रम लुधियाना जिले के नूरमहल में है। सन् 1991 में तो यह संगठन बना ही था। पर लगभग दो दशक बाद ही यानी 28 जनवरी 2014 को महाराज जी समाधि में चले गए थे। जाहिर है कि इतने कम समय में संस्थान का व्यापक विस्तार दिव्य-शक्ति की बदौलत ही संभव हुआ होगा। महाराज जी की समाधि और उसको लेकर विवाद खड़े होने के बाद लगा था कि पहिया उल्टी दिशा में घूम सकता है। पर संस्थान के कार्यक्रमों में होने वाली भीड़, ब्रह्मज्ञान साधना दीक्षा के लिए लगने वाली लंबी कतारें बताती हैं कि आशुतोष महाराज के मिशन को आगे बढ़ाने वाले साधु-साध्वी अपने गुरू की ऊर्जा इस्तेमाल सही ढंग से कर पा रहे हैं और अनुयायी महाराज जी की ऊर्जा का ताप महसूस करते हैं।
आखिर ऐसा क्या है, जो महाराज जी के शिष्य और अनुयायी किसी मजबूत डोर से बंधे हुए दिखते हैं? निसंदेह पहला आकर्षण तो संत की सूक्ष्म आध्यात्मिक ऊर्जा ही है। ब्रह्मज्ञान साधना का प्रभाव भी व्यापक रूप से दिखता है। संभवत: इसी साधना की बदौलत महाराज जी इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि परमात्मा अनुभवगम्य है। तभी उन्होंने आम लोगों में भी ईश्वर-दर्शन की प्रबल भावना जगाई थी। साथ ही दीक्षास्वरूप ब्रह्मज्ञान की यौगिक विधियां बतलाईं, जिसमें आज्ञाचक्र व अनहद नाद साधना, जपयोग व मंत्रयोग सदृश्य आदिनाम साधना और विंदु विसर्ग व सहस्रार साधना का समन्वय है। शक्तिपात इसका विशिष्ट पक्ष है।
आखिर क्यों खास है यह साधना? आर्ष-ग्रंथों में इसे ही ‘परा विद्या’ कहा गया है। गीता इसे ‘राजयोग’ कहती है। इसकी स्तुति में स्वयं योगीराज श्री कृष्ण का कथन है – यह राजविद्या है। अर्थात् सभी विद्याओं की राजेश्वरी या साम्राज्ञी है। पातंजल दर्शन ने इसे सर्वविषयक, सर्वथाविषयक, तारक ज्ञान का नाम दिया। वेदों का भी यही कहना है- ब्रह्मविद्याम् सर्वविद्याप्रतिष्ठाम्’ अर्थात् ब्रह्मविद्या सभी विद्याओं की आधारशिला है। इसलिए अंतर्जगत का यह विशिष्ठ विज्ञान दिव्य ज्योति जागृति संस्थान का भी आधारशिला है।
बिहार के मधुबनी जिले में जन्मे आशुतोष महाराज की योग रूपी यह आधारशिला शिष्यों के अंतर्घट में कितनी बलशाली है, यह तो व्यक्तिगत अनुभव का विषय है। पर तमाम वाद-विवाद के बावजूद वैदिक ग्रंथों के संदेशों की बदौलत चरित्र-निर्माण अभियान और ब्रह्मज्ञान के द्वारा विश्व शांति अभियान का फैलता क्षितिज बड़ी उपलब्धि है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)