आशु के रंग में सराबोर होते भक्त

किशोर कुमार

आशुतोष महाराज कोई नौ वर्षों से भौतिक शरीर में नहीं हैं। पर उनकी आध्यात्मिक ऊर्जा और ब्रह्मज्ञान विद्या का जादू देखिए कि देश-विदेश में फैले उनके लाखों अनुयायी उनके ही रंग में सराबोर रहते हैं। महाराज जी ने वैदिक ज्ञान की तर्कपूर्ण व वैज्ञानिक व्याख्या करके उसके प्रचार के लिए दिव्य ज्योति जागृति संस्थान और ज्ञान-संपन्न साधु-साध्वियों को आगे करके दिव्य ज्योति जलाई थी। उसकी आध्यात्मिक ऊर्जा निरंतर घनीभूत होती दिखती है। गौर करने लायक बात यह है कि आशुतोष महाराज की भौतिक रूप से अनुपस्थिति और उनके दिव्य ज्योति जागृति संस्थान को लेकर लगातर विवाद खड़े किए जाने के बावजूद सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह बना हुआ है।

वैसे, शास्त्रों में भी समाधि को लेकर व्याख्याएं की गईं हैं, जो थोड़े भिन्न प्रतीत होते हैं। चौदहवी सदी में श्रृंगेरी शारदा पीठम् के जगद्गुरू माध्वाचार्य विद्यारण्य ने अद्वैत वेदांत की व्याख्या करते हुए श्रीपंचदशी में कहा है – यद्यप्यसौ चिरं कालं समाधिर्दुर्लभो नृणाम्। यानी मनुष्य समाधि की अवस्था में सदा नहीं रह सकता। दूसरी तरफ, शिव पुराण की वायवीय संहिता में कहा गया है कि समाधि की स्थिति में योगी का स्वरूप शून्यवत प्रतीत होता है। योगी गहनतम योगनिद्रा में होते हैं। फिर भी वे स्वेच्छा से उससे बाहर ने में सक्षम होते हैं।

यक्ष प्रश्न सदैव बना रहता है कि समाधि में हैं, किसी अन्य सूक्ष्मलोक में हैं या फिर भौतिक शरीर त्याग चुके हैं? चिकित्सकों ने समाधि की खबरों के दूसरे दिन ही यानी 29 जनवरी 2014 को उन्हें “क्लीनिकली डेथ” घोषित कर दिया था। अदालत ने भी इस रिपोर्ट पर मुहर लगा दी थी। संस्थान के संचालक इन बातों से सहमत न हुए। शरीर को क्षति न पहुंचे, इसलिए उन्होंने उसे नूरमहल आश्रम में शून्य डिग्री तापमान पर रख दिया है। महाराज जी के आध्यात्मिक मिशन को आगे ले जाने के लिए समर्पित साध्वियां ऐतिहासिक और वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर बतलाती हैं कि महाराज जी समाधि में ही हैं और भक्तों को कभी न कभी दर्शन जरूर देंगे।

साध्वियां सप्रमाण बतलाती हैं कि जब भी गुरू समाधि में जाते हैं तो वे स्वयं नहीं उठतें। उन्हें उनके शिष्य ही उठाते हैं। ऐसा हर युग में किसी न किसी रूप में घटित हुआ है। सद्गुरू मछन्दरनाथ इसके एक उदाहरण हैं। वे तो कोई बारह वर्षों तक अलोप रहे। पर उनके पट्शिष्य गोरखनाथ ने अलख जगाई तो गुरू को प्रकट होना पड़ा था। द्वैतवाद के प्रवर्तक माध्वाचार्य जी को भी इसी तरह अपने शिष्य सत्यतीर्थ की प्रबल पुकार से द्रवित होकर प्रकट होना पड़ा था। आशुतोष महाराज के मामले में भी होगा। शिष्यों का दिव्यपुंज जब इकट्ठा होगा और उनके अंतर्जगत में महाराज जी उतरेंगे तो नूरमहल भी प्रकाश-पुंज से नहा जाएगा। महाराज जी अपनी भौतिक देह में प्रकट हो जाएंगे।        

पर भौतिक शरीर को नूरमहल में सुरक्षित रखा जाना और सद्गुरू मछन्दरनाथ के उल्लेख से आशुतोष महाराज की समाधि को लेकर एक नवीन दृष्टि भी बनती है। “अखंड ज्योति” में श्रीराम शर्मा आचार्य ने लिखा है कि नाथ सम्प्रदाय के आदिगुरु मछन्दरनाथ अपने भौतिक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में प्रवेश करने की “परकाया प्रवेश विद्या” जानते थे। तभी उन्होंने अपने शिष्य गोरखनाथ को स्थूल शरीर की सुरक्षा का भार सौंपकर एक मृत राजा के शरीर में सूक्षम रूप से प्रवेश किया था। ‘महाभारत के शान्ति पर्व’ में वर्णन है कि सुलभा नामक विदुषी अपने योगबल की शक्ति से राजा जनक के शरीर में प्रविष्ट कर विद्वानों से शास्त्रार्थ करने लगी थीं। उन दिनों राजा जनक का व्यवहार भी स्वाभाविक न रह गया था। आदि शंकराचार्य के बारे में भी ऐसा ही उल्लेख मिलता है। ये तमाम ऐसे योगियों के उदाहरण हैं, जिन्होंने किसी खास मकसद से परकाया प्रवेश किया और काम पूरे होते ही अपना भौतिक शरीर धारण कर लिया था। आशुतोष महाराज के मामले में इस दृष्टि से भी विचार किया जाना चाहिए।

दिव्य ज्योति जागृति संस्थान भारत सहित कोई पैतीस देशों में फैला हुआ है और 350 शाखाएं हैं। मुख्य आश्रम लुधियाना जिले के नूरमहल में है। सन् 1991 में तो यह संगठन बना ही था। पर लगभग दो दशक बाद ही यानी 28 जनवरी 2014 को महाराज जी समाधि में चले गए थे। जाहिर है कि इतने कम समय में संस्थान का व्यापक विस्तार दिव्य-शक्ति की बदौलत ही संभव हुआ होगा। महाराज जी की समाधि और उसको लेकर विवाद खड़े होने के बाद लगा था कि पहिया उल्टी दिशा में घूम सकता है। पर संस्थान के कार्यक्रमों में होने वाली भीड़, ब्रह्मज्ञान साधना दीक्षा के लिए लगने वाली लंबी कतारें बताती हैं कि आशुतोष महाराज के मिशन को आगे बढ़ाने वाले साधु-साध्वी अपने गुरू की ऊर्जा इस्तेमाल सही ढंग से कर पा रहे हैं और अनुयायी महाराज जी की ऊर्जा का ताप महसूस करते हैं।

आखिर ऐसा क्या है, जो महाराज जी के शिष्य और अनुयायी किसी मजबूत डोर से बंधे हुए दिखते हैं? निसंदेह पहला आकर्षण तो संत की सूक्ष्म आध्यात्मिक ऊर्जा ही है। ब्रह्मज्ञान साधना का प्रभाव भी व्यापक रूप से दिखता है। संभवत: इसी साधना की बदौलत महाराज जी इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि परमात्मा अनुभवगम्य है। तभी उन्होंने आम लोगों में भी ईश्वर-दर्शन की प्रबल भावना जगाई थी। साथ ही दीक्षास्वरूप ब्रह्मज्ञान की यौगिक विधियां बतलाईं, जिसमें आज्ञाचक्र व अनहद नाद साधना, जपयोग व मंत्रयोग सदृश्य आदिनाम साधना और विंदु विसर्ग व सहस्रार साधना का समन्वय है। शक्तिपात इसका विशिष्ट पक्ष है।

आखिर क्यों खास है यह साधना? आर्ष-ग्रंथों में इसे ही ‘परा विद्या’ कहा गया है। गीता इसे ‘राजयोग’ कहती है। इसकी स्तुति में स्वयं योगीराज श्री कृष्ण का कथन है – यह राजविद्या है। अर्थात् सभी विद्याओं की राजेश्वरी या साम्राज्ञी है। पातंजल दर्शन ने इसे सर्वविषयक, सर्वथाविषयक, तारक ज्ञान का नाम दिया। वेदों का भी यही कहना है- ब्रह्मविद्याम् सर्वविद्याप्रतिष्ठाम्’ अर्थात् ब्रह्मविद्या सभी विद्याओं की आधारशिला है। इसलिए अंतर्जगत का यह विशिष्ठ विज्ञान दिव्य ज्योति जागृति संस्थान का भी आधारशिला है।  

बिहार के मधुबनी जिले में जन्मे आशुतोष महाराज की योग रूपी यह आधारशिला शिष्यों के अंतर्घट में कितनी बलशाली है, यह तो व्यक्तिगत अनुभव का विषय है। पर तमाम वाद-विवाद के बावजूद वैदिक ग्रंथों के संदेशों की बदौलत चरित्र-निर्माण अभियान और ब्रह्मज्ञान के द्वारा विश्व शांति अभियान का फैलता क्षितिज बड़ी उपलब्धि है।  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

शक्ति इतनी कि जीवन में चार चांद लगा दे यह प्राणायाम

इस कॉलम में बात शुरू हुई थी प्रतिभा के विकास के लिए उपनयन संस्कार के यौगिक आयामो की महत्ता को लेकर और उस कड़ी में यह तीसरा आलेख है – यह बताने के लिए कि आज्ञा चक्र, जिसका पीनियल और पिट्यूटरी ग्रन्थियों से अन्योन्याश्रय संबंध है, बच्चों में मामूली रूप से भी उदीप्त रहे तो मस्तिष्क ज्यादा क्रियाशील रहेगा और प्रतिभा का विकास बेहतर तरीके से हो सकेगा। तब केवल डिग्रियां हासिल करने तक बात सीमित नहीं रहेगी। जीवन को सृजनात्मक तरीके से जीने की राह बन सकती है। योग विज्ञानी कहते हैं कि योगमय जीवन की शुरूआत आठ साल की उम्र से होनी चाहिए। अब तक हुए शोधों से भी इस बात की पुष्टि होती है। सच है कि यदि हम बेहतर राष्ट्र का निर्माण चाहते हैं तो इस दिशा में कदम बढ़ाना ही होगा। योग बच्चों के लिए बड़े महत्व का है।  

बच्चों के उपनयन संस्कार के समय सूर्य नमस्कार, नाड़ी शोधन प्राणायाम और गायत्री मंत्र के जप की शिक्षा देने की परंपरा रही है। बीते अंक में सूर्य नमस्कार की बात हुई थी। इस बार नाड़ी शोधन प्राणायाम की बात। पर इसके पहले आज्ञा चक्र के उदीप्त होने से मिलने वाली अतीन्द्रिय शक्तियों के चमत्कारों की बात। थिओडोर “टेड” जुड सीरियोस अमेरिका में एक साधारण व्यक्ति था। पर उसकी अतीन्द्रिय शक्तियां असाधारण थीं। सन् 2006 में परलोक सिधारने से पहले कोई चार दशकों तक अपनी अतीन्द्रिय शक्तियों की बदौलत ऐसे-ऐसे काम किए कि अमेरिका और यूरोप के वैज्ञानिकों के लिए चुनौती बन गया था। उसे केंद्र में रखकर योग की शक्ति और शारीरिक संरचना में सूक्ष्म व भौतिक अस्तित्वविहीन चक्रों के चमत्कारिक प्रभावों पर कई फिल्में बनीं। “द अमेजिंग वर्ल्ड ऑफ साइकिक फेनोमेना” नामक कोई नब्बे मिनटों की एक डक्यूमेंट्री भी काफी लोकप्रिय हुई, जो टेड के जीवन पर आधारित है।

मजेदार यह कि टेड सेरियोस न तो वैज्ञानिक था औऱ न ही आध्यात्मिक। सामान्य व्यक्ति था। उसे न तो पीनियल ग्रंथि का ज्ञान था न ही आज्ञा चक्र का। अतीन्द्रिय शक्तियों यानी साइकिक पावर्स के बारे में पढ़ा भर था। प्राचीन काल के वैज्ञानिक संतों की माने तो बिना यौगिक क्रियाओं के भी कई लोगों की कुंडलिनी जागृत होती है। पूर्व जन्म के संचित संस्कार के उभर आने से ऐसा होता है। टेड सेरियोस के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था। वह हजारो मील दूर की घटनाओं को न केवल देख-सुन सकता था, बल्कि उसकी आंखें कैमरे की तरह उस घटना को कैद करने में सक्षम थीं। आंख की उन तस्वीरों को कैमरे में ट्रांसफर करके उसका प्रिंट लिया जा सकता था। वह हजारो किलोमीटर दूर के भी जिस किसी वस्तु का ध्यान करता था, उसका प्रतिबिंब उसकी आंखों में बन जाता था। यह न तो सम्मोहन का कमाल होता था और न ही फोटोग्राफी की कोई ट्रिक।

अमेरिका में मनोविज्ञान तथा अति मानवीय चेतना संबंधी शोध करने वाली संस्था इलिनाइस सोसायटी फॉर साइकिक रिसर्च की उपाध्यक्ष पालिन ओहलर और वैज्ञानिकों, फोटोग्राफरों व बुद्धिजीवियों की उपस्थिति में टेड सेरियोस ने ऐसे कई कारनामे कर दिखाए तो तहलका मच गया। इस घटना से एक साल पहले यानी सन् 1962 में टेड सेरियोस को भारतवर्ष का नक्शा देखने को मिला था। उसे उस नक्शे के आधार पर कुछ प्रसिद्ध स्थानों के कल्पनिक चित्र उतारने को कहा गया। टेड सेरियोस ने फटाफट दो चित्र बना डाले। उनके बारे में तहकीकात की गई तो पता चला कि वे फतेहपुर सीकरी की मस्जिद के मुख्य द्वार और दिल्ली के लाल किले के दीवाने-ए-आम के मानसिक चित्र थे। श्रीमद्भगवतगीता में संजय की दिव्य-दृष्टि के बारे में तो हम सब जानते ही हैं। वह तो सैकड़ों किलो मीटर दूर बैठकर कुरूक्षेत्र के युद्ध का आंखो देखा हाल ऐसा बयां करते जा रहा था मानों उसकी आंखों के सामने क्लोज सर्किट टीवी लगा हो। यह बात कई लोगों को कपोल-कल्पना लग सकती है। पर ऐसे ही अनेक उदाहरण हैं, जो इस युग में घटित हुए।

इतिहास के पन्ने ऐसे उदाहरणों से भरे पड़े हैं, जिनकी शिक्षा-दीक्षा कुछ खास नहीं थी। पर अतीन्द्रिय शक्तियां ऐसी थी कि उनके सामने बड़े-बड़े ज्ञानी भी पानी भरते थे। अमेरिका का विलियम पॉवेल लीयर पढ़ा-लिखा कुछ खास नहीं था। उसने अपना जीवन चतुर्थवर्गीय कर्मचारी के तौर पर शुरू किया था। पर वह अपने दफ्तर में लोगों को बड़ी-बड़ी योजनाओं पर बात करते सुनता तो उसे ऐसा लगता था कि मानो इसके बारे में वह पहले भी सुन रखा है। उसने अवचेतन मन की बातें योग के जरिए चेतन तल पर लाने की ठानी। नतीजतन, उसका जीवन बदल गया। उसने बैटरी एलिमिनेटर का भी आविष्कार किया। 8-ट्रैक कारतूस और एक ऑडियो टेप सिस्टम विकसित किया। बाद में जेट बनाने लगा। उसकी इन उपलब्धियों से अवाक् “लॉस एंजलिस टाइम्स” के प्रथम संपादक डिग्बी डायल, जिनकी सन् 2017 में मृत्यु हो गई, ने विलियम पॉवेल लीयर का इंटरव्यू किया तो अमेरिका में तहलका मच गया। उसने बताया कि अतीन्द्रिय शक्ति जागृत होने के बाद उसे दिशा मिलने लगी और क्षमता का विकास हुआ। यही उसकी सफलता का राज है। 

मन पर हो रहे अध्ययनों से साबित हुआ है कि वह एक ऐंटेना या रेडियो के समान है, जो समस्वरित होता है तो अचानक किसी ऐसे केंद्र से जुड़ जाता है, जहां की बातें मानस पटल पर आ जाती हैं। जब तरंग संयोजक क्षीण होता है तो उस केंद्र से संपर्क करना मुश्किल होता है। आत्मा या अतीन्द्रिय भौतिक चीज नहीं, जिसे देखा जा सके। इसका स्वरूप अनुभव ही होता है। अनेक देशों की सेना आधुनिक संचार माध्यमों का उपयोग किए बिना विचारों के संप्रेषण की संभावनाओं पर काम कर रही है। नासा अंतरिक्ष में भेजे गए वैज्ञानिकों से विचारों के संप्रेषण के जरिए संबंध बनाने, यहां तक कि उनकी चिकित्सा करने तक की संभावनाओं पर काम कर रहा है। इस काम में पांच सौ वैज्ञानिकों के दल में बिहार योग विद्यालय के निवृत्त परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती भी शामिल हैं।

सोवियत संघ की सेना ने अतीन्द्रिय शक्तियों का प्रभाव जानने के लिए सबसे पहले मादा खरगोश पर प्रयोग किया था। एक मादा खरगोश को रिसर्च सेंटर में रखा गया। उसके माथे पर इलेक्ट्रोड्स लगा दिए गए। ताकि उसके मानसिक तरंगों की मानिटरिंग की जा सके। उसके आठ बच्चों को समुद्री मार्ग से सैकड़ो किलोमीटर दूर ले जाया गया। वहां उस पर जैसे ही वार किया गया, रिसर्च सेंटर में रखी गई खरगोश विचलित हो उठी। उसके मस्तिष्क पर तीब्र आवृत्ति वाली तरंगे उत्पन्न होने लगीं। इससे साबित हुआ कि जानवरों में भी भावनात्मक संबंध होता है। मानव पर अतीन्द्रिय शक्ति का असर तो अक्सर देखने को मिलता है। कोई बच्चा दूर देश में गंभीर रूप से बीमार होता है और इधर उसकी मां की अतीन्द्रिय शक्ति उस समय मामूली रूप से भी सक्रिय होती है तो उसके मन में तरंग उठता है और किसी अनिष्ट की आशंका से मन विचलित हो उठता है।

दरअसल, शरीर की मुख्य तीन नाड़ियों इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना का मिलन आज्ञा चक्र में होता है। योगियों का मानना है कि पीनियल ग्रंथि का आज्ञा चक्र से निकट संबंध है। यह अंतर्ज्ञान के क्षेत्र है। इसलिए आज्ञा चक्र को जागृत करने के किसी भी उपाय से पीनियल ग्रंथि भी प्रभावित होता है। विज्ञान साबित कर चुका है कि आमतौर पर मस्तिष्क के दस में से एक भाग ही सही तरीके से काम करता है। शेष नौ भाग सुषुप्तावस्था में होता है। बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती इस बात की व्याख्या कुछ ऐसे करते थे – मस्तिष्क का क्रियाशील भाग तो इड़ा और पिंगला की शक्ति से काम करता है। पर शेष नौ भागों में केवल पिंगला की ही शक्ति मिलती है। पिंगल जीवन है और इड़ा चेतना। यदि कोई व्यक्ति जीवित हो और वह सोचने में असमर्थ हो तो यही कहा जाएगा कि उसमें प्राण-शक्ति तो है, किन्तु मनस शक्ति नहीं है। यही स्थिति मस्तिष्क के निष्क्रिय हिस्से की होती है। उसमें प्राण तो होता है, किन्तु मनस शक्ति नहीं होती।

योग से संबंधित अतीन्द्रिय पक्षों पर सोवियत संघ की दो महिला मनोवैज्ञानिकों शीला ओस्ट्रांडेर और लिन्न श्रोएडर ने सत्तर के दशक में ही एक पुस्तक लिखी थी – “साइकिक डिस्कवरीज बिहाइंड द आयरन कर्टेन।“ इसके बाद तो दुनिया भर में इस विषय पर सैकड़ों पुस्तकों का प्रकाशन हुआ, जो अनुसंधानों पर आधारित हैं। ज्यादातर पुस्तकों में अतीन्द्रिय शक्तियों को टेलीपैथी या टेलीसाइकिक्स बताते हुए व्याख्या की हैं। भारत के योग रिसर्च फाउंडेशन ने दुनिया के कई देशों के साथ मिलकर इस विषय पर अध्ययन किया। स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने अध्ययन के नतीजों की व्याख्या की है। उनके मुताबिक, पंचमहाभूतों में एक होता है आकाश तत्व। उसी में अग्नि तत्व व्याप्त होता है, जिस तेज या ऊर्जा कहते हैं। आदमी जो भी कर्म या विचार करता है, उसका स्पंदन वायुमंडल के द्वारा आकाश तत्व में फैलता है। ठीक वैसे ही जैसे पानी में पत्थर फेंकने पर तरंगें उत्पन्न होती हैं। यदि कोई व्यक्ति या यंत्र उन स्पंदनों को पकड़ने में सक्षम है तो वह जान सकता है कि उन स्पंदनों के मूल में कौन से विचार हैं। इसे ही टेलीपैथी कहते हैं। पर उसी स्पंदन को चेतना के सूक्ष्म क्षेत्र में ग्रहण कर एक रूप दिया जाता है तो जो हो रहा है या अतीत में जो हुआ उसे अंतर्दृष्टि से स्पष्ट रूप से देखने की शक्ति मिल जाती है। इसे कहते हैं दिव्य-दृष्टि। जिस प्रकार एक तरंग का रूप परिवर्तित होने से हम दूर के दृश्यों और आवाज को टेलीविजन पर देख-सुन पाते हैं। उसी तरह योग की परंपरा में कुछ ऐसे उपाय हैं, जिनकी सहायता से तृतीय नेत्र को जागृत किया जा सकता है। इससे पदार्थ, नाम और रूप को देखने वाली दृष्टि अतीन्द्रिय दृष्टि में बदल जाती है। उन्हीं उपायों में एक है नाड़ी शोधन प्राणायाम।

आधुनिक विज्ञान से उलट तंत्र शास्त्र के मुताबिक मस्तिष्क छह भागों में विभक्त है और उनकी अलग-अलग शक्तियां होती हैं। उन्हीं शक्तियों में एक है अतीन्द्रिय शक्ति। हम सब अनुभव करते हैं कि कोई आदमी किसी विषय में प्रखर होता है तो कोई किसी विषय में। इसकी वजह ये शक्तियां ही होती हैं। योग साधक हों या प्रतिभा के विकास के आकांक्षी छात्र, आज्ञा चक्र उनके लिए काफी मायने रखता है। चक्र साधना का प्रवेश द्वार ही आज्ञा चक्र को माना जाता है। उसे साधे बिना बाकी चक्रों की साधना दुष्कर होता है। आम आदमी विशेष रूप से छात्रों के आज्ञा चक्र के जागृत रहने से चेतना का रूपांतरण होता है और बुद्धि प्रखर होती है। दिलचस्प बात यह है कि आमतौर पर पुरूषों की तुलना में महिलाओं का आज्ञा चक्र ज्यादा क्रियाशील होता है। इसलिए वे अधिक सूक्ष्म, संवेदनशील और ग्रहणशील होती हैं। नतीजतन, घटनाओं की भविष्यवाणी कर पाती है। पर छात्रों के मामले में यौगिक अभ्यासों की बदौलत आज्ञा चक्र ज्यादा क्रियाशील रहने से पीनियल ग्रंथि और उससे जुड़ी पिट्यूटरी आदि ग्रंथियां स्वस्थ रहती हैं तो प्रतिभा का समुचित विकास होता है।

दूसरी तरफ, अनुसंधानों से पता चल चुका है कि लगभग आठ साल तक पीनियल ग्रंथि बिल्कुल स्वस्थ रहती है। उसके बाद यह ग्रंथि कमजोर होने लगती है। बुद्धि और अंतर्दृष्टि के मूल स्थान वाली यह ग्रंथि किशोरावस्था में अक्सर विघटित हो जाती है। परिणामस्वरूप अनुकंपी (पिंगला) और परानुकंपी (इड़ा) नाड़ी संस्थान के बीच का संतुलन बिगड़ जाता है। पिट्यूटरी ग्रंथि से हॉरमोन का रिसाव शुरू होकर शरीर के रक्तप्रवाह में मिलने लगता है। इससे बाल मन में उथल-पुथल मच जाता है। नतीजतन, प्रतिभा का समुचित लाभ नहीं मिल पता। नाड़ी शोधन प्राणायाम का अंत:स्रावी संस्थान पर आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ता है।

योग शास्त्र के मुताबिक, प्राणायाम का मुख्य उद्देश्य है सुषुम्ना नाड़ी को जगाना। कुंभक यानी श्वास अधिक समय तक रोकने के अभ्यास से तो इसमें सफलता मिलती ही है, एक नाक से श्वास लेने औऱ दूसरे से छोड़ देने की क्रिया से भी सुषुम्ना को जागृत करना संभव है। पर यह तभी संभव है जब श्वास अधिक लंबा, गहरा होगा। यदि अभ्यास करके पंद्रह सेकेंड में श्वास लेना और उतनी देरी में छोड़ना संभव हुआ तो जीवन में क्रांतिकारी बदलाव संभव है। इसलिए कि मूलाधार चक्र में माया का आवरण ओढ़कर चिर निद्रा में सोई सुषुम्ना शक्ति जागृत होकर ऊपर की ओर बढ़ने लगती है तो सामान्य लोगों को स्वस्थ्य काया मिलती है, प्रतिभा का विकास होता है। पर आध्यात्मिक लोगों के मामले में जीवात्मा का परमात्मा से मिलन हो जाता है। इन तथ्यों के आलोक में बच्चों को आठ साल की उम्र से ही नाड़ी शोधन प्राणायाम का अभ्यास कराने के फायदों को समझा जा सकता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

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