क्यों न भाए भारत!

किशोर कुमार //

आध्यात्मिक गुरू और तिब्बत के चौदहवें दलाई लामा तेनजिन ग्यात्सो को भारत भूमि से इतना लगाव क्यों है? क्यों कहते हैं कि प्राण भी निकले तो भारत भूमि पर ही। ऐसे सवाल आते ही प्राय: राजनीतिक चर्चा शुरू हो जाती है। उनका आध्यात्मिक पक्ष गौण हो जाता है। पर सोचने की बात है कि जब दलाई लामा भारत आए थे, तो क्या उस समय उनके पास दूसरा कोई विकल्प नहीं था? राजनीतिक दृष्टिकोण से सोचे तो कहना होगा कि विकल्प था। पर आध्यात्मिक नजरिए मंथन करें तो कहना होगा कि भारत भूमि को छोड़कर ऐसी कोई भूमि नहीं थी, जहां उनकी आध्यात्मिक विचारधारा पल्लवित-पोषित हो सकती थी।

क्यों? बीसवीं सदी के महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती कहते थे – “धरती पर भारत ही इकलौता देश है, जिसके पास सृष्टि के आरंभ से दु:खों के विनाश, पूर्ण आनंद और शांति की महत्वपूर्ण आध्यात्मिक प्रणाली है। उसे पता है कि वह कौन-सा केंद्र है, जिस पर जीवन का नाटक खेला जा रहा है। वह अपनी अंतर्यात्रा की विलक्षण शक्ति की बदौलत उस वैदांतिक सत्य से साक्षात्कार करता रहा है।“ सच है कि मैं कौन हूं, कहां से आया हूं, जन्म का प्रयोजन क्या है और मृत्यु के पश्चात कहां जाऊंगा जैसे प्रश्न हमारी पुण्य भूमि पर खड़े किए गए और अंतर्यात्रा में उनके उत्तर मिल भी गए। संतो को इस बात की शिद्दत से अनुभूति होती रही है कि मानव को कुछ बनाने की जरूरत नहीं; क्योंकि वह जो भी हो सकता है, वह अभी हैं। सिर्फ धूल की परतों के कारण उसे इस सत्य से साक्षात्कार नहीं हो पता। धूल हटते ही उसका मूल स्वरूप प्रकट हो जाएगा। योग और अध्यात्म धूल हटाने की वैज्ञानिक विधि है।

दूसरी तरफ, तमाम वैज्ञानिक और आध्यात्मिक उपलब्धियों के बावजूद पश्चिमी दुनिया के लिए यह बात आज भी पहेली ही है। जर्मन वैज्ञानिक, नीतिशास्त्री और दार्शनिक इमानुएल कॉट ने नैतिक शुद्धता और कर्तव्य के लिए कर्तव्य का सिद्धांत लिखा। प्राणि तत्ववेत्ता डॉ हैकेल ने “द रिड्स ऑफ द यूनिवर्स” नामक पुस्तक लिखकर उस सिद्धांत को विस्तार दिया। मूर्धन्य साहित्यकार हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इसका अनुवाद किया था। पर यह विचार वेदांत के आसपास भी नहीं पहुंच सका। फिर जर्मनी के ही दार्शनिक आर्थर सोपेनहाइवर ने आगे की बात की। पर बात नहीं बन पाई। अंत में उन्होंने उपनिषदों की चर्चा करते हुए ईमनदारी से स्वीकारा कि संसार के इन अत्युत्तम ग्रंथों से कुछ विचार अपने ग्रंथों में लिए हैं। वे भगवान बुद्ध की शिक्षाओं को मानते थे और स्वयं को बौद्धधर्मी कहते थे। उन्होंने जीवन के आखिरी समय में कहा था – “मेरे जीवन में उपनिषदों से शान्ति मिली है; मृत्यु के समय भी उनसे ही शान्ति मिलेगी।”  

खैर, कहते हैं न कि फलदार वृक्ष झुका हुआ होता है। भारत की मूल प्रकृति भी कुछ ऐसी ही है। इतनी प्रचुर आध्यात्मिक संपदा होने के कारण इस देश में धार्मिक सहिष्णुता की भावना कूट-कूट कर भरी हुई है। तभी दलाई लामा कल भी मानते थे और आज भी मानते हैं कि भारत में सभी धर्मों का सम्मान है। रामकृष्ण परमहंस के वचनामृत से और भी स्पष्टता आ जाती है। वे कहते थे – “जरूरी चीज है छत तक पहुंचना। तुम पत्थर की सीढ़ी से चढ़कर जा सकते हो, बांस की सीढ़ी से चढ़कर जा सकते हो या फिर रस्सी से भी चढ़कर जा सकते हो। इसी तरह परमात्मा को किसी भी मार्ग से प्राप्त किया जा सकता है। सभी धर्म के मार्ग सत्य है।“ परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि हमने विभिन्न धर्मों के जितने भी संत-महात्माओं को जाना, उन सभी की उपलब्धियां और सिद्धियां समान थीं। यहां तक कि आध्यात्मिक अनुभूतियां भी समान थीं।

सर्व धर्म समभाव की ऐसी मिसाल भला और कहां मिलेगी? तभी दलाई लामा जैसे आध्यात्मिक गुरू को अध्यात्मशास्त्र की ब्रह्म या आत्मा की अवधारणा से इत्तेफाक न होने के बावजूद भारत की भूमि मातृभूमि जैसी जान पड़ती है। वैसे, दलाई लामा की कहानी तो इस युग की कहानी है। हजारों साल पहले ईसा मसीह भी आध्यात्मिक अनुभव प्राप्त करने के लिए भारत ही तो आए थे। आध्यात्मिक पुस्तकों यथा भविष्य पुराण और लद्दाख के हेमीस मठ के अभिलेखों जैसे अनेक अभिलेखों से यह तथ्य प्रमाणित है कि ईसा मसीह ने कोई बारह वर्षों तक भारत में रहकर संन्यासी जीवन व्यतीत किया था। इसी तरह सत्रहवीं शताब्दी के यहूदी संत सरमद ईरान में जन्मे-पले थे। भारत तो व्यापार करने आए थे। पर भारतीय संतों का सानिध्य मिला तो आध्यात्मिक अनुभव प्राप्त हो गया था।

खैर, आधुनिक युग में भी दलाई लामा इकलौते आध्यात्मिक गुरू नहीं हैं, जिन्हें भारत बेहद आकर्षित करता है। विदेशी आध्यात्मिक गुरूओ की फेहरिस्त लंबी है, जो भारत के संतों से विशिष्ट आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने के बाद या तो भारत के हो कर रह गए या स्वदेश वापसी के बावजूद मानसिक तौर पर भारत में ही रह गए। कैलिफोर्निया के सैन डिएगो में जन्मे और पले-पढ़े आचार्य मंगलानंद ऐसे ही आध्यात्मिक गुरू हैं। भारत की महानतम संत आनंदमयी मॉ से मिले तो दीक्षा लेने के लिए ब्याकुल हो गए थे। दीक्षित हुए तो ऐसे रूपांतरित हुए कि ओंकारेश्वर में ही रहकर कर्मयोग साधना में तल्लीन हैं। आस्ट्रेलिया के चिकित्सा स्वामी शंकरदेव सरस्वती भी वर्षों बिहार में रहे और परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती के सानिध्य में आध्यात्मिक साधना करते रहे। उनकी पुस्तक “रोग औऱ निरोग” सर्वाधिक चर्चित है। अब आस्ट्रेलिया में रहकर भी बिहार या सत्यानंद योग का ही प्रचार करते हैं। “सूरत शब्द योग” से हम सबको परिचित कराने वाले डॉ.जूलियन फिलीप मैथ्यू जॉनसन अमेरिका के ईसाई परिवार में जन्मे शल्य चिकित्सक थे। पर जब अध्यात्म की तरफ झुकाव हुआ तो सीधे भारत आ गए। यहां वे राधास्वामी सत्संग ब्यास के तत्कालीन प्रमुख सतगुरू महाराज सावन सिंह जी की संगति में वर्षों रहे। आध्यात्मिक अनुभूतियां हुईं तो कई यौगिक विधियों को सुगम बनाकर प्रस्तुत किया। उनसे संबंधित पुस्तकें लिखीं।   

अब तो विदेशों के आम युवा भी भारत की यौगिक व आध्यात्मिक शक्तियों से प्रभावित होकर शांति की तलाश में खींचे चले आ रहे हैं। सन् 2019 में प्रयागराज के कुंभ में इसका भव्य नजारा दिखा था। बड़ी संख्या में युवाओं ने संतो से आशीर्वाद लेकर आध्यात्मिक यात्रा शुरू की थी। समाचार एजेंसी एएनआई ने इस खबर को प्रमुखता से प्रसारित किया था। दरअसल, आज अमेरिका या यूरोप में अगर युवकों का बड़ा वर्ग विद्रोह कर रहा है शिक्षा से, संस्कृति से, समाज से, तो उसका मौलिक कारण यही है कि बुद्धि ने जो—जो आशाएं दी थीं, वे पूरी नहीं हुईं। भारत के महान संत श्रीअरविंद ने कहा था – “तर्क एक सहारा था, अब तर्क एक अवरोध है।“ अब तो विदेशी वैज्ञानिक भी प्रकारांतर से इस बात को स्वीकार करने लगे हैं। इसलिए विदेशी युवाओं को भारत की आजमायी हुई यौगिक व आध्यात्मिक जीवन-शैली रास आ रही है।

कोई सवाल कर सकता है कि इतनी आध्यात्मिक संपदा के बावजूद खुद भारतीयों में अभारतीय संस्कार क्यों अंकुरित होने लगा, जो पश्चिमी जगत के लिए अशांति का कारण है?  इसे एक कथा से समझिए। मगध की राजधानी राजगृह में भगवान बुद्ध के सत्संग में प्रतिदिन भाग लेने वाले एक व्यक्ति को यह जानने की उत्सुकता हुई कि निर्वाण-प्राप्ति पर प्रवचन सुनने वालों में कितने लोग उस पथ पर चलते होंगे? भगवान बुद्ध ने उस व्यक्ति की भावना समझते हुए कहा – तुम तो वैशाली के हो, जो परम वैभवशाली नगर है और वहां जाने की चाहत बहुतों को होती होगी। उनमें से कोई तुमसे वहां जाने का मार्ग पूछता होगा तो तुम खुशी-खुशी बता भी देते होगे। पर क्या कभी सोचा कि उनमें से कितने लोग वहां गए? वैसे ही मैंने निर्वाण नामक जिस सुंदर नगर के दर्शन किए थे, वहां का पता जिज्ञासुओं को बता देता हूं। अब वहां तक जाना न जाना उनके संकल्प पर निर्भर है। 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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