आत्मज्ञानी संतों का मूल्यांकन भला कैसे हो!

किशोर कुमार //

भारत भूमि पर भक्ति आंदोलन के जितने भी आत्मज्ञानी संत हुए, उनमें से किसी ने भी मातृ-शक्ति की महत्ता को कमतर नहीं आंका और न ही ऐसा कोई काम किया, जिससे सामाजिक विभेद उत्पन्न हो। चाहे वे गौतम बुद्ध, संत ज्ञानेश्वर, संत नामदेव, संत तुकाराम, संत रविदास, गुरूनानक देव और चैतन्य महाप्रभु हों या फिर संत कबीर, मीराबाई, रहीम रसखान और संत तुलसीदास। जी हां, रामचरित मानस के रचयिता संत तुलसीदास भी।

जरा सोचिए कि विशिष्टाद्वैतवाद के समर्थक जिस आत्मज्ञानी संत की गुरू ही महिला रही हों, वह भला महिलाओं की ताड़ना-प्रताड़ना या सामाजिक विभेद पैदा करने वाली बातें कैसे कर सकता है? कालांतर में निश्चत रूप से किसी ने अपनी सुविधानुसार ऐसी पंक्तियां जोड़ी – घटाई गई होंगी, जिससे संदर्भ बदला तो अर्थ भी बदल गया या फिर हम अवधि में लिखे गए शब्दों की सही व्याख्या नहीं कर पा रहे हैं। वैसे, पांच सौ साल बाद महज थोथे तर्कों से हम किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सकते। बल्कि समग्रता में मूल्यांकन करके ही सत्य के करीब पहुंचा जा सकता है।

संत तुलसीदास को आत्मज्ञान मिलने की कहानी तो सबको पता ही है। वे अपनी पत्नी रत्नावली से बेहद प्यार करते थे। पत्नी मायके गईं तो तुलसीदास वियोग में इतने बावले हुए कि घनघोर वर्षा के बीच नदी पार कर ससुराल पहुंच गए थे। दरवाजा न खुला तो घर के पीछे रस्सी लटकी दिखी, जो वास्तव में सांप था। सांप को रस्सी सझकर उसी के सहारे दूसरे मंजिल के उस कमरे में पहुंच गए, जहां रत्नावली सो रही थीं। रत्नावली ने पति की ऐसी आसक्ति देखकर बरबस ही बोल पड़ी थीं – “हे नाथ! मेरी देह से जितना प्रेम करते हो, इतना प्रेम यदि राम से करते, तो आपका जीवन धन्य हो जाता।“ और इसी बात से उन्हें आत्मज्ञान हो गया। वे चित्रकूट जाकर तपस्या में तल्लीन हो गए थे।

बीसवीं सदी के महान संत और बिहार योग विद्यालय के स्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती अपने सत्संग में जब कभी गोस्वामी तुलसीदास की चर्चा आती थी, कहते थे – “यह मानने का कोई कारण नहीं कि गोस्वामी तुलसीदास ने नारी के असम्मान में कभी कुछ कहा होगा। या तो उनकी बातें समझी न गईं या किसी कारणवश चौपाइयों में जोड़-तोड़ किया गया होगा। तुलसी के रामायण में तो स्त्री मर्यादा को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। उसे देवी बतलाते हुए सुरसा को भी माता कहकर ही संबोधित किया गया है।“ सच है कि तुलसीदास खुद ही कहते हैं –  “एक नारिब्रतरत सब झारी। ते मन बच क्रम पतिहितकारी।“ यह स्त्री-पुरूष समानता वाली बात ही तो है। यही नहीं, उन्होंने नवधा भक्ति के आलोक में श्रीराम और माता शबरी का भी बेहद सुंदर वर्णन किया है।

सच तो यह है कि पूरे रामचरित मानस में सामाजिक सद्भाव की बात है। इसे तर्क करके नहीं समझा जा सकता। भक्ति कोई बुद्धि-विलास की वस्तु नहीं है। महर्षि अरविंद ने भक्ति के प्रसंग में कहा भी है –  तर्क एक सहारा था, अब तर्क एक अवरोध है। इस तार्किक बुद्धि के पार जाकर भावना से भक्ति के मर्म को समझा जा सकता है। भावना का संबंध बुद्धि से नहीं है। ओशो कहा करते थे –“शास्त्र को लाख पढ़ लो, चाहो तो अपने ही अर्थ निकाल लोगे। शास्त्र तुम्हें बदले न बदले, पर तुम शास्त्र को जरूर बदल सकते हो, क्योंकि तुम जो अर्थ चाहोगे, वही अर्थ निकाल लोगे। तुम्हारी व्याख्या शास्त्र पर सवार हो जाएगी।“ भारतीय इतिहास को जिस तरह तोड़े-मरोड़े जाने के दृष्टांत सामने आ रहे हैं, उनके आधार पर यह मानने का कोई कारण नहीं कि रामचरित मानस और अन्य धार्मिक ग्रंथों में सुविधानुसार तोड़-मरोड़ नहीं किया गया होगा। 

इसे महज संयोग ही कहिए कि इस महीने यानी फरवरी में तीन ऐसे आत्मज्ञानी संतों की जयंती मनाई जाती है, जिन्होंने भक्ति आंदोलन चलाकर सामाजिक समरसता के लिए अनूठे कार्य किए। उनमें से एक संत रविदास की जयंती तो हम मना चुके। भक्ति आंदोलन के महान संत स्वामी रामानंद के शिष्य संत रविदास ने अपने भक्ति आंदोलन के जरिए सामाजिक भेदभाव मिटाने में अहम् भूमिका निभाई थी। आज यानी 6 फरवरी को चैतन्य महाप्रभु के भक्ति आंदोलन को पुनर्जीवन प्रदान करके विश्वव्यापी बनाने में उत्प्रेरक की भूमिका निभाने वाले आध्यात्मिक नेता भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर की जयंती है और कोई बारह दिनों बाद यानी 18 फरवरी को श्रीचैतन्य महाप्रभु की जयंती है। इस लेख में भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर की बात होगी तो श्रीचैतन्य महाप्रभु के आंदोलन की झलक मिल ही जाएगी।

भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने अपने जीवन काल में देश भर में न केवल गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय की जड़ें मजबूत की थी, बल्कि अपने पट्ट शिष्य श्रील अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद को आगे करके दुनिया भर में भक्ति आंदोलन का ऐसा डंका बजवाया कि आज भी इस्कॉन और श्रीकृष्ण भावनामृत के रूप में उस आंदोलन की मजबूत उपस्थिति सर्वत्र देखी जा सकती है। श्रीचैतन्य महाप्रभु के मुख्यत: चार सूत्रों, जिनमें जाति भेद मिटाने, अंधविश्वास का परित्याग करने औऱ मानवता की सेवा को प्रमुखता देने की वजह से न केवल संप्रदायों के बीच विभेद कमा, बल्कि जाति-पांति और छुआ-छूत को लेकर भी आम लोगों का दृष्टिकोण बदला। नजीजा हुआ कि श्रीचैतन्य महाप्रभु द्वारा शुरू किया गया भक्ति आंदोलन, जो कालांतर में धीमा पड़ गया था, पुनर्जीवित हो उठा और देश भर में फैल गया।

श्रीचैतन्य महाप्रभु का पहली बार जगन्नाथपुरी में पदार्पण हुआ था तो उनकी संकीर्तन मंडली में सभी वर्गों के लोग इस तन्मयता से जुट गए कि लगा ही नहीं कि समाज में कोई जाति विभेद भी है। उनके शिष्यों में हरिदास ठाकुर शूद्र थे। पर वे श्रीचैतन्य महाप्रभु के अनूठे शिष्य थे। कथा है कि रविदास ठाकुर चाहते थे कि श्रीचैतन्य महाप्रभु के देह त्याग से पहले उन्हें अपना देह त्याग करने की अनुमति मिल जाए। इसलिए कि वे अपने गुरू का विरह बर्दाश्त नहीं कर पाएंगे। यह बात सुनते ही चैतन्य महाप्रभु ने हरिदास जी से कहा – “हरिदास, यदि तुम चले जाओगे तो मैं कैसे रहूंगा, हरिदास क्या तुम मुझे अपने संग से वंचित करना चाहते हो?  तुम्हारे जैसे भक्त को छोड़ मेरा और कौन है यहाँ?” इन प्रसंगों से स्पष्ट है कि भारत के किसी भी आत्मज्ञानी संत ने सामाजिक विभेद नहीं, बल्कि सामाजिक समरसता के लिए अपने-अपने तरीकों से काम किया। तभी देश में सर्वत्र अनेकता में एकता बनी हुई है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

महान संतों की चमत्कारिक शक्तियां

किशोर कुमार

भारत के महान संतों और योगियों ने कभी योग विद्या की बदौलत चमत्कार दिखाए जाने का समर्थन नहीं किया। पर यह भी सही है कि योग और अध्यात्म की विश्वसनीयता बताने या अपने संकटग्रस्त शिष्यों के कल्याण के लिए चमत्कारिक प्रभाव उत्पन्न करने वाली योग-शक्ति का प्रयोग किया जाता रहा है। आदिगुरू शंकराचार्य से लेकर तैलंग स्वामी और स्वामी शिवानंद सरस्वती तक ने अनेक मौकों पर अपनी योग-शक्ति से वैसे कार्यों को संभव कर दिया, जो सामान्य जनों की नजर में किसी चमत्कार से कम न थे।

यह बहस का विषय हो सकता है कि बागेश्वर धाम सरकार और हनुमान भक्त धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री के “चमत्कारों” की तुलना हाथ की सफाई दिखाने वाले सामान्य जादूगरों से की जानी चाहिए या नहीं। सच तो यह है चमत्कार जादूगर भी दिखाते हैं और योगी भी। पर दोनों चमत्कारों के कारण में बुनियादी फर्क है। मुझे नहीं मालूम कि धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री किस श्रेणी में आते हैं। पर वे भरी सभाओं में अपने अनुयायियों के कष्ट निवारण के लिए जो तरीके अपनाते हैं, जिन्हें चमत्कार कहा जा रहा है, वे तरीके कोई अनूठे और नए नहीं हैं। स्वामी विवेकानंद ने तो आज से कोई 122 साल पहले अमेरिका के लॉस एंजिल्स में भरी सभा में कहा था कि हम योगियों की जिन क्रियाओं को चमत्कार कहते हैं, वह कुछ और नहीं, बल्कि राजयोग का परिणाम होता है।

स्वामी विवेकानंद ने उसी सभा में अपने साथ घटित एक वाकया सुनाया था। उन्हें एक ऐसे व्यक्ति के बारे में पता चला, जो किसी के भी मन के गुप्त प्रश्नों को जान लेता था औऱ उसे कागज पर लिखकर समाधान भी बता देता था। उन्होंने उस व्यक्ति की परीक्षा लेने की ठानी। वे दो अन्य सहयोगियों के साथ उस व्यक्ति के पास गए। स्वामी जी का सवाल संस्कृत भाषा में और उनके सहयोगियों के सवाल क्रमश: ऊर्दू और जर्मन भाषा में थे। आसन पर बैठा व्यक्ति स्वामी जी को देखते ही कागज पर कुछ लिखा और उन्हें थमाकर पूछा, यही सवाल है न मन में? स्वामी जी का कहना था कि उन्होंने संस्कृत की जो पंक्तियां मन में बनाई थी, वही हू-ब-हू उस व्यक्ति द्वारा लिखित कागज पर थी। ऐसा ही बाकी दो सहयोगियों के साथ भी हुआ। कमाल यह कि वह व्यक्ति न संस्कृत जानता था, न ऊर्दू और न ही जर्मन। विवेकानंद समग्र में इस प्रसंग उल्लेख है।

धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री की तरह ही श्री पंडोखर महाराज भी हनुमान भक्त हैं। उनका धाम मध्य प्रदेश के दतिया जिले के पंडोखर गांव में है। विभिन्न दिशाओं से झांसी जाने वाली ट्रेनें पंडोखर महाराज के भक्तों से भरी होती हैं। वे भी अपने धाम में आए भक्तों के मन में चल रहे सवाल बिना बताए ही जान लेते हैं और उसे पर्चियों पर लिख भी देते हैं। फिर परेशानियां दूर करने के उपाय बतलाते हैं। मैं एक व्यक्ति को जानता हूं, जो अपनी समस्या के निवारण के लिए पंडोखर धाम गए थे। दरबार में बैठे थे तो पंडोखर महाराज की नजर उन पर गई और पास बुला लिया। वह सज्जन यह देखकर हैरान थे कि उनके मन में जो सवाल चल रहा था, उसे पंडोखर महाराज ने पहले से एक पर्ची पर लिख रखा था।

महान संत और हनुमान भक्त नीम करोली बाबा तो विश्वविख्यात हैं। उनके कैंचीधाम आश्रम में देश-विदेश की बड़ी-बड़ी हस्तियां भी जाती रहती हैं। बाबा के चमत्कार की किस्से भरे पड़े हैं। एक वाकया बहुप्रचारित है। बाबा ट्रेन से सफर कर रहे थे। पर उनके पास टिकट नहीं थी। नीम करोली गांव के पास ट्रेन किसी करण से जैसे ही रूकी, टिकट परीक्षक ने उन्हें ट्रेन से उतार दिया। पर बेवजह ट्रेन वहीं ठहर गई। ड्राइवर और तकनीशियनों की सारी कोशिशें बेकार गईं। तब किसी के मन में ख्याल आया कि शायद ट्रेन से उतार दिए गए बाबा की शक्ति से ट्रेन का पहिया थम गया हो। जब उन्हें ट्रेन पर चढ़ाया गया तो ट्रेन चलने लगी थी। बाद में उस जगह पर स्टेशन बना और उसका नाम बाबा के नाम पर रखा गया।  

आदिगुरू शंकराचार्य की कहानी तो हम सब जानते ही हैं। उन्होंने मशहूर विद्वान कुमारिल भट्‌ट के शिष्य और मिथिला के पंडित मंडन मिश्र को शास्त्रार्थ में हरा दिया था। पर मंडन मिश्र की पत्नी उभया भारती ने अपने पति की ओर से कमान संभाली और कामशास्त्र सें संबंधित सवाल किया तो वे फंस गए। उन्होंने उत्तर देने के लिए उभया भारती से कुछ वक्त मांगा। इसका उत्तर राजा सुधन्वा की पत्नी के पास था। पर समस्या थी कि उनकी पत्नी तक पहुंच कैसे बने? तभी पता चला कि राजा सुधन्वा के प्राण पखेरू उड़ चुके हैं। तब जगत्गुरू शंकराचार्य योग की गूढ़ परकाय प्रवेश विद्या की बदौलत राजा सुधन्वा के म़ृत शरीर में प्रवेश कर गए थे। भौतिक शरीर तो राजा सुधन्वा का था। पर उसमें प्राण आदिगुरू शंकराचार्य का था। इस तरह भौतिक रूप से राजा सुधन्वा बनकर उनकी पत्नी से कामशास्त्र का ज्ञान प्राप्त किया था। इसके बाद पुन: अपना भौतिक शरीर धारण करके उभया भारती से शास्त्रार्थ करने गए थे।

संत ज्ञानेश्वर को पंडितों से यह साबित करने की चुनौती मिली कि भौसे में और उनमें एक ही आत्मा भासित है तो उन्होंने भैसे की पीठ पर हाथ रखा और भैसां वेदपाठ करने लगा था। उस जमाने के ख्याति प्राप्त संत चांगदेव को देखने की इच्छा हुई तो संत ज्ञानेश्वर अपने भाई-बहन के साथ मिट्टी से बने जिस दीवार पर बैठे, वह मोटर गाड़ियों की तरह चलने लगा था। चांगदेव ने यह देखा तो वह संत ज्ञानेश्वर के चरणों में जा बैठा और उनका शिष्य बन गया था। बनारस के महान संत तैलंग स्वामी के चमत्कारों के किस्सों का उल्लेख तो बनारस गजेटियर में हैं। शहर में निर्वस्त्र विचरण करने के कारण अंग्रेज अधिकारी उन्हें जेल में बंद कर देते थे। पर वे अपनी योग-शक्ति से अपने विशालकाय भौतिक शरीर को सूक्ष्म बनाकर जेल से बाहर निकल जाते थे और खुलेआम सड़कों पर विचरण करते दिखते थे।

लाहिड़ी महाशय और स्वामी शिवानंद सरस्वती के अनुयायियों ने अनेक मौकों पर अनुभव किया कि उनके और गुरू के बीच की दूरी मिट गई, देशों के बीच की सीमाएं मिट गईं। गुरूजी एक ही समय में दो से अधिक स्थानों पर अपने प्रिय भक्त के पास मौजूद थे। मां आनंदमयी, योगीराज देवराहा बाबा, स्वामी विशुद्धानंद, स्वामी शिवानंद, रमण महर्षि और परमहंस योगानंद से लेकर परमहंस स्वामी सत्यानंद तक ने साधकों में योग-अध्यात्मक को लेकर भरोसा जगाने या उनकी मदद करने के लिए समय-समय पर चमत्कार दिखाते रहे। बीसवीं सदी के प्रसिद्ध आध्यात्मिक जिज्ञासु पॉल ब्रंटन उच्च आध्यात्मिक उपलब्धि प्राप्त लोगों की तलाश में भारत आए थे। उन्हें फर्जी साधु-फकीर मिले तो रमण महर्षि जैसे आत्मज्ञानी संत भी मिले। अंत में उन्हें कहना पड़ा था कि परमात्मा है और योगियों ने अद्भुत शक्तियां होती हैं, इन बातों पर अविश्वास करने की कोई वजह नहीं।

सदियों से मान्यता रही है कि मानव अस्तित्व के पीछे कोई रहस्यमय शक्ति छिपी है। प्राचीन काल के ऋषियों और योगियों से लेकर आधुनिक युग के वैज्ञानिक संत तक अपनी साधनाओं, अपने अनुसंधानों से इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि मानव के विचारों की उत्पत्ति व चेतना के विकास में सहायक रहस्यमय शक्ति का विवेचन सैद्धांतिक रूप से नहीं किया जा सकता है। यह अनुभवगम्य है। योग विज्ञान, मुख्यत: इसकी तांत्रिक क्रियाएँ उस अनुभव तक पहुंचाने का साधन हैं। जादू-टोना तो तंत्र का विकृत रूप है।

प्राचीन काल से योगी महसूस करके रहे हैं कि मन अविच्छिन्न है, विश्वव्यापी है और मानव विश्वव्यापी अविच्छिन्न मन का अंग है। इसी अविच्छिन्नता के कारण दूसरे के विचारों को जानना या अपने विचार को संप्रेषित करना संभव हो पाता है। पर सूक्ष्म रूप में घटित घटना का परिणाम बाह्य आकार मिले बिना दिखता नहीं। स्वामी विवेकानंद कहते थे कि इन सूक्ष्म शक्तियों पर काबू करके या काबू करने की प्रक्रिया में भी चमत्कारिक प्रभाव पैदा किए जाते हैं। बीमारियों से निजात दिलाने में मदद भी मिलती है।  

तुलसीदास कृत रामचरित मानस पर भी वाद-विवाद चलते रहता है। पर मानस के सुंदरकांड के प्रारंभ में ही हनुमान जी का पंचदशाक्षक मंत्र लिखा है। अनेक संतों और योगियों का अनुभव है कि उनकी सिद्धियों में पंचदशाक्षक मंत्र ने उत्प्रेरक का काम किया। खुद तुलसीदास कहते हैं कि उन्हें पंचदशाक्षक मंत्र के साथ हनुमान जी के पूजन से सिद्धियां मिली थीं। तंत्र और मंत्र के अलावा योग की अन्य विद्याएं जैसे, स्वरयोग विद्या, प्राण विद्या आदि की शक्तियां भी आमजन की नजर में चमत्कार ही पैदा करती है। योगी इन यौगिक विद्याओं के जरिए अपनी चेतना का विस्तार करके जनकल्याण करते रहे हैं।

प्राण चिकित्सा में उपचारक अपने हाथों के माध्यम से ब्रह्मांडीय प्राण ऊर्जा को ग्रहण कर हाथों द्वारा रोगी में ऊर्जा प्रक्षेपित करता है। स्वरयोग तो मस्तिष्क श्वसन का तांत्रिका विज्ञान है। पर सामान्य मामलों में इसका प्रभाव भी गजब है। यदि योगी का श्वास दायी नाक से चल रहा हो और प्रश्नकर्ता दाहिनी ओर से सवाल करे कि क्या अमुक काम हो जाएगा, तो उसका उत्तर “हां” में होगा। शिव स्वरोदय के मुताबिक इस योग से वाक् सिद्धि होने पर मुंख से निकली बात घटित हो जाती  है।

शक्तिपात योग बेहद शक्तिशाली है। अनेक योगी और महात्मा आज भी हमारे बीच मौजूद हैं, जिन्हें उनके गुरूओं ने शक्तिपात के जरिए योग और आध्यात्मिक मार्ग पर अग्रसर किया। ऋषिकेश के स्वामी शिवानंद सरस्वती ने अपने शिष्य परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती को शक्तिपात के जरिए ही योग का ज्ञान कराया था। इसलिए योगियों के आंतरिक जागरण की गहराई कोई ज्ञानी ही समझ सकता है। योगियों का गूढ़ ज्ञान सामान्य दृष्टि वालों की समझ से परे है।    

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

                                                                                                                                                                                                              

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