वैश्विक आध्यात्मिकता महोत्सव का संदेश

किशोर कुमार //

योग और अध्यात्म के दृष्टिकोण से मार्च का महीना भारत के लिए खास है। एक तरफ योग नगरी हरिद्वार में गंगा के तट पर सप्ताह व्यापी अंतरराष्ट्रीय योग महोत्सव 15 मार्च से प्रारंभ हो चुका है तो हैदराबाद के कान्हा शांति वनम् का ऐतिहासिक अंतर्राष्ट्रीय आध्यात्मिकता महोत्सव 17 मार्च को संपन्न हो गया। इन महोत्सवों के ठीक पहले यानी 13 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस -2024 की 100 दिनों की उलटी गिनती के उपलक्ष्य में दिल्ली के विज्ञान भवन में योग महोत्सव-2024, कार्यक्रम का आयोजन किया गया। हम जानते हैं कि अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस प्रत्येक वर्ष 21 जून को मनाया जाता है और इस वर्ष 10 वां अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाया जाएगा। इसके अलावा विभिन्न स्तरों पर योग और अध्यात्म से संबंधित दर्जन भर कार्यक्रम मार्च में ही आयोजित होने हैं।

पर इन महोत्सवों में विश्व आध्यात्मिकता महोत्सव खास है। मेरा कहने का अभिप्राय यह कदापि नहीं कि बाकी महोत्सवों मूल्य कमतर है, बल्कि वे इतने खास हैं कि हमारे वार्षिक कैलेंडर का हिस्सा बनकर बेहद सकारात्मक प्रभाव डालते हैं। विश्व आध्यात्मिकता महोत्सव बड़े महत्व का इस लिए बन पड़ा कि न केवल इसका फलक व्यापक था, बल्कि इसका संदेश भी ऐसा है, जिसकी गूंज पूरी दुनिया में लंबे समय तक सुनाई देती रहेगी। ठीक वैसे ही, जैसे विश्व धर्म महासभा के नाम से सभाएँ दुनिया भर में सभाएं तो कई हुईं। पर सन् 1893 में शिकागो की विश्व धर्म महासभा यादगार रह गई। स्वामी विवेकानंद ने धर्म संसद में कहा था, “दुनिया में सहिष्णुता का विचार पूरब के देशों खासतौर से भारत से फैला है। पर हम सिर्फ़ सार्वभौमिक सहिष्णुता पर ही विश्वास नहीं करते, बल्कि, हम सभी धर्मों को सच के रूप में स्वीकार करते हैं।“ भारत ने कोई सवा सौ साल बाद अंतर्राष्ट्रीय आध्यात्मिकता महोत्सव के जरिए आज के परिप्रेक्ष्य में सैद्धांतिक ज्ञान और उसके व्यावहारिक अनुप्रयोगों से दुनिया को न केवल विश्व गुरू होने का भान कराया, बल्कि सप्रमाण बताया कि मानव की आंतरिक शांति से विश्व शांति का मार्ग किस तरह प्रशस्त होगा।

हालांकि भारत के योगी अपनी आध्यात्मिक उपलब्धियों के आधार पर सदियों से अध्यात्म को विश्व शांति की कारगर दवा बतलाते। आधुनिक युग के संन्यासियों में स्वामी विवेकानंद से लेकर परमहंस योगानंद, अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, अरविंद घोष, रमण महर्षि, महर्षि महेश योगी, ओशो, ब्रह्माकुमारी, स्वामी शिवानंद सरस्वती योग परंपरा के परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती, श्रीराम शर्मा आचार्य आदि प्रमुख हैं, जो वेद-वेदांग और विज्ञान का आलंबन लेकर अध्यात्म की शक्ति से दुनिया को अवगत कराते रहे हैं। पर पहली बार ऐसा हुआ कि प्रत्येक वर्ष सितंबर में मनाए जाने वाले विश्व शांति दिवस से पहले ही विश्व शांति की तड़प लिए एक सौ से ज्यादा देशों के तीन सौ से ज्यादा आध्यात्मिक संस्थाओं, संगठनों के प्रतिनिधि और आध्यात्मिक व वैज्ञानिक गतिविधियों से जुड़े एक लाख से ज्यादा लोग विश्व आध्यात्मिकता महोत्सव में जुट गए। इसलिए कि उन्होंने शिद्दत से महसूस किया है कि आध्यात्मिकता विश्व शांति के लिए रामबाण दवा हो सकती है।

इस संदर्भ में एक प्रसंग उल्लेखनीय है। किसी शिष्य ने वेदान्त के महान आचार्य और सनातन धर्म के विख्यात नेता स्वामी शिवानंद सरस्वती से पूछ लिया था कि विश्व शांति का उपाय क्या है? स्वामी जी ने कहा था, अज्ञान की निवृत्ति ही एकमात्र उपाय है। इसी निवृति से प्रेम, दान और सेवा की भावना विकसित होगी। पर प्रथमत: देश के कर्णधारों में इन गुणों का विकसित होना ज्यादा जरूरी है। इसलिए कहता हूं कि दुनिया के सभी प्रधानमंत्रियों को वेदांत और योग संबंधी शिक्षा हासिल करनी चाहिए। ऐसी शिक्षा के लिए भारत ही एकमात्र उपयुक्त स्थान है। विश्व आध्यात्मिकता महोत्सव में चार दिनों तक विविध विषयों पर मंथन के लिए दो दर्जन से ज्यादा सत्र आयोजित किए गए थे। और खास बात यह रही कि सात-आठ दशक पूर्व स्वामी शिवानंद सरस्वती ने विश्व शांति के लिए जो एक प्रमुख दवा सुझाई थी, दुनिया भर के आध्यात्मिक गुरुओं और दार्शनिकों ने शिद्दत से महसूस किया कि उस दवा की जरूरत आज कहीं ज्यादा है। यही वजह है कि महोत्सव के एक सत्र का विषय रखा गया था – रोल ऑफ स्पिरिचुअलिटी फॉर ऐन इफेक्टिव लीडर। यानी प्रभावशाली नेतृत्वकर्ता के लिए अध्यात्म की भूमिका क्या हो सकती है।

अपनी तरह का पहला एक भव्य आध्यात्मिक उत्सव का आयोजन भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय ने  हार्टफुलनेस के सहयोग के किया था। हार्टफुलनेस अपनी लोकप्रिय ध्यान पद्धति के लिए दुनिया भर में मशहूर है। इसकी खोज फतेहगढ़ के योगी लाला जी उर्फ रामचंद्र जी ने की थी। महोत्सव में आंतरिक शांति से विश्व शांति पर परिचर्चा शुरू हुई तो इसी संगठन के मौजूदा अध्यक्ष दादा जी उर्फ कमलेश पटेल ने विषय प्रवेश कराया। इसके बाद तो इस्कॉन, ब्रह्मकुमारीज, रामकृष्ण मिशन, हार्टफुलनेस, इंटरनेशनल बुद्ध कंफेडरेशन, हैदराबाद के आर्कबिशप, महाबोधि इंटरनेशनल मेडिटेशन सेंटर, लद्दाख, श्रीमद् राजचंद्र मिशन, आनंदम् धाम वृंदावन, शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी, दरगाह अजमेर शरीफ जी के गद्दीनसीन हाजी सैयद सलमान चिश्ती, सिडनी विश्वविद्यालय के डॉ एलिजाबेथ डेनले सहित कोई दो तीन दर्जन से ज्यादा विश्व प्रसिद्ध वक्ताओं ने अपने अनुभवों के आधार पर विचार व्यक्त किए। पूरे महोत्सव के दौरान मनुष्य की आंतरिक शांति के लिए अनेक यौगिक समाधान प्रस्तुत किए गए। पर महर्षि महेश योगी का विज्ञानसम्मत भावातीत ध्यान और लालाजी का हार्टफुलनेस ध्यान छाया रहा। महोत्सव का उद्घाटन राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने किया था। 

यदि एक लाइन में कहा जाए कि आध्यात्मिकता महोत्सव से दुनिया को क्या संदेश मिला, तो एक बेहद लोकप्रिय तमिल कविता का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा।  …..जब भगवान ने पूछा कि इस दुनिया में दुर्लभ क्या है, तो ओवैयार संत ने कहा – “मनुष्य के रूप में जन्म लेना दुर्लभ है। भले ही किसी का जन्म मनुष्य के रूप में हुआ हो, विकृति के बिना जन्म लेना दुर्लभ है। भले ही कोई बिना किसी विकृति के पैदा हुआ हो, स्वयं और संसार का ज्ञान और कला में विशेषज्ञता प्राप्त करना दुर्लभ है। भले ही कोई इन गुणों से संपन्न हो, जरूरतमंदों को देने की आदत दुर्लभ है…..।“ यही आध्यात्मिक संदेश दुनिया को दिया गया। दानशीलता ही वह धर्मसम्मत गुण है, जिसकी बदौलत सत्व की प्राप्ति होती है, जो अध्यात्म का लक्ष्य है। योग साधनाएं इन भावनाओं के विकास में उत्प्रेरक की भूमिका निभाती हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

योग और स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती

किशोर कुमार

अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस अगले महीने ही है। उसे व्यापक स्तर पर मनाने की तैयारियां जोर-शोर से की जा रही हैं। जोर इस बात पर है कि शरीर को स्वस्थ्य रखने के लिए योगाभ्यास किया जाना चाहिए। योग के जरिए ईश्वरानुभूति की बात आम आदमी के संदर्भ में बेमानी प्रतीत होती है, इसलिए यह मुद्दा गौण प्राय: ही है। पर बीसवीं सदी के महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती और योग की कुछ अन्य परंपराओं के साधक सदैव योग का अंतिम लक्ष्य ईश्वर-दर्शन मानते रहे हैं। आज भी स्वामी सत्यानंद सरस्वती, स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती, स्वामी नित्यानंद आदि योग परंपराओं में योग का महान लक्ष्य ईश्वरानुभूति ही माना जाता है।  

चिन्मय मिशन के लिहाज से मई बड़े महत्व का है। इसलिए इस लेख में बात स्वामी चिन्मयानंद जी की और योग से संबंधित उनके कुछ विचार। बीसवीं सदी के महान संत स्वामी शिवानंद सरस्वती के शिष्य, हिन्दू धर्म व संस्कृति के मूलभूत सिद्धान्त वेदान्त दर्शन के एक महान प्रवक्ता और चिन्मय मिशन के संस्थापक स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती का जन्म कोई 106 साल पहले इसी महीने में हुआ था। उनके महानिर्वाण के भी कोई तीन दशक बीत चुके हैं। पर उनके संदेशों की प्रासंगिकता आज भी उतनी है, जितनी उनके जीवनकाल में थी। योग-दर्शन पर व्याख्यान करते हुए वे ऐसी उपमा देतें थे कि बात लोगों के जेहन में उतरती चली जाती थी। उन्होंने प्राणायाम की चर्चा करते हुए कहा था कि यह सर्वविदित है कि इसका उद्देश्य इंद्रिय संयम है। यदि प्राणायाम का अभ्यास बिना वैराग्य भाव के किया जाए तो यह बच्चों का एक व्यायाम मात्र रह जाता है। जैसे एक मछुआरा श्वास-प्रश्वास को नियंत्रित कर मछली पकड़ने के लिए समुद्र में गोता लगाता है, उसी प्रकार लोग कुंभक व पूरक का अभ्यास शरीर को स्वस्थ्य रखने के लिए करते हैं, ताकि विषय भोगों का अधिक समय तक आनंद ले सकें। प्राणायाम का अंतिम लक्ष्य यह कदापि नहीं होना चाहिए।

स्वामी चिन्मयानंद जी ने भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया के अनेक देशों में ज्ञान की ऐसी अविरल धारा प्रवाहित की थी कि उनकी एक पहचान दूसरे स्वामी विवेकानंद के रूप में भी बनी। स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती जीवन पर्यंत वेदांत दर्शन के जरिए विकृत हो चुकी धार्मिक मान्यताओं की सुस्पष्ट व्याख्या करके ज्ञान यज्ञों और अपने गुरू के मूलमंत्र प्रेम, सेवा व दान के मानक बनकर समाज की दशा-दिशा को नए आयाम देने में जुटे रहे। उनमें राष्ट्रप्रेम की भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी। उन्होंने स्नातक तक की शिक्षा तो मद्रास विश्वविद्यालय हासिल की थी। पर स्नातकोत्तर की पढाई लखनऊ विश्वविद्यालय में की थी। आजादी के आंदोलन में उत्तर प्रदेश में ही सक्रिय रहे। जेल भी गए। बाद में अंग्रेजों के खिलाफ स्वर को धार देने के लिए नेशनल हेराल्ड अखबार के पत्रकार बने। उनकी जीवनी में छात्र जीवन में उनके आध्यात्मिक रूझानों के बारे में ज्यादा कुछ उल्लेख नहीं मिलता। पर उनके मन में अक्सर ये ख्याल आता था कि संतजन कहते हैं कि परोक्ष से प्रेम करो। इसलिए कि प्रत्यक्ष बहुधा भ्रामक होता है। दूसरी तरफ आधुनिक विज्ञान संतों की बातों को मानता तो है। पर आंशिक रूप से। वह प्रत्यक्ष से आगे उतना ही सत्य मानता है, जितना पदार्थ विद्या के अविष्कृत यंत्रों से दिखता है।

स्वामी चिन्मयानंद को सत्य से साक्षात्कार का कोई मार्ग नहीं सूझ रहा था। तभी उनके मन में एक विचार आया। वे आधुनिक युग के शीर्षस्थ ज्ञानयोगी रमण महर्षि से मिलने उनके आश्रम गए। नाम तो स्मरण नहीं। पर मैंने एक विदेशी लेखक की पुस्तक में पढ़ा था कि रमण महर्षि उनसे कुछ बोले नहीं। वे उन्हें काफी देर तक एकटक देखते रहे। कहते हैं कि इसका असर शक्तिपात जैसा हुआ। बालकृष्ण मेनन यानी स्वामी चिन्मयानंद की आध्यात्मिक साधना की भूख बलवती हो गई। इस भूख को मिटाने के लिए ऋषिकेश में स्वामी शिवानंद सरस्वती की शरण में पहुंच गए। वहां स्वामी शिवानंद जी की शिक्षा-अच्छा बनो, अच्छा करो तथा सेवा, प्रेम, आत्मशुद्धि, ध्यानानुभव तथा मुक्ति के संदेश से बेहद प्रभावित हुए। नतीजतन, महाशिवरात्रि के पवित्र दिन 25 फरवरी 1949 को संन्यास की दीक्षा ले ली। इसके साथ ही बालकृष्ण मेनन से स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती बन गए। कुछ समय बाद अपने गुरू के आदेश से वेदांत शिक्षा ग्रहण करने स्वामी तपोवन महाराज के पास उत्तरकाशी चले गए।

ईश्वरीय प्रेम और त्याग व संवेदना के प्रतीक स्वामी चिन्मयानंद अपनी वेदांत शिक्षा के बाद डॉ एस राधाकृष्णन की तरह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि भारत के राष्ट्रीय अस्तित्व और स्वरूप को कायम रखने के लिए उपनिषदों का अध्ययन-अध्यापन और उसके संदेशों का प्रचार-प्रसार जरूरी है। उन्हें गुरूओं के सानिध्य में रहते हुए उत्तर मिल चुका था कि इंद्रियां, मन आदि किसी अदृश्य शक्ति के नियम में बंधकर कार्य करती हैं। वह शक्ति इंद्रियगोचर है और उसे इंद्रियों से नहीं जाना जा सकता। वह मन की गति से भी परे है। साधारण लोग भ्रम में पड़कर परमात्मा के स्थान पर जहान की पूजा करते हैं। जबकि सच यह है कि इंद्रियों में देखने, सुनने, छूने, सूंघने, चखने का जो सामर्थ्य है, मन में मनन की जो शक्ति है, वह सब उस जगन्नियंता की देन है।

इस आत्मानुभूति के बाद ही उन्होंने चिन्मय मिशन की स्थापना की औऱ श्रीमद्भगवत गीता व उपनिषदों का संदेश जन-जन तक पहुंचाने के लिए गीता ज्ञान यज्ञ का श्रीणेश किया। उनका पहला यज्ञ सन् 1951 में महाराष्ट्र के पुणे में हुआ था। इसके बाद तो उन्होंने अपने जीवन काल में लगभग छह सौ ज्ञान यज्ञ किए। बड़ी संख्या में वैदिक ग्रंथों के भाष्य लिखे औऱ पुस्तकें लिखीं। उनकी प्रेरणा से देश-दुनिया में शैक्षणिक संस्थान स्थापित किए गए, जिनके जरिए लोगों तक वैदिक ज्ञान पहुंचाना आसान हुआ। एक छोटी-सी घटना उनका संदेश समझने के लिए पर्याप्त है। ज्ञान यज्ञ में बत्ती बुझ गई। सबने इसे अशुभ माना। तब स्वामी चिन्मयानंद ने कहा था, “बत्ती बुझ गई तो क्या हुआ? बाहरी रौशनी ही तो बुझी, आंतरिक प्रकाश चालू है। वैसे भी, भारतीय दर्शन और अध्यात्म का तेज बड़े-बड़े झंझावातों से भी कम न हुआ तो एक बत्ती बुझने से भला क्या होना है।” स्वामी जी अलौकिक सामर्थ्य के धनी थे। उनका वेदांतिक संदेश आज भी प्रासंगिक है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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