शाम्भवी क्रिया करने वालों में तनाव को कम करने वाला हार्मोन नियंत्रण में रहता है : सद्गुरू जग्गी वासुदेव

शांभवी मुद्रा बेहद प्रभावशाली योग मुद्रा है। “योगी कथामृत” के लेखक और पश्चिमी दुनिया में क्रिया योग का प्रचार करने वाले परमहंस योगानंद से किसी ने पूछ लिया – “क्रियायोग के अतिरिक्त और कोई वैज्ञानिक विधि है, जो साधक को ईश्वर की ओर ले जा सके?” पहमहंस जी बोले, “अवश्य। परमात्मा को पाने का एक पक्का और द्रुतगामी रास्ता है अपने भ्रूमध्य स्थित कूटस्थ चैतन्य पर ध्यान करना।“  पुराणों से लेकर विज्ञान तक की बातों और नए-पुराने योगियों के मंतव्यों से शांभवी महामुद्रा की अहमियत का सहज अंदाज लगाया जा सकता है।  

महानिर्वाण तंत्र में एक कथा है। आदियोगी शिव जी ने पार्वती जी को चित्त की एकाग्रता, मन की शांति के लिए शांभवी मुद्रा का अभ्यास बताया था। अवसाद की विश्वव्यापी समस्या के आलोक में अमेरिका के कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में इस योग मुद्रा की शास्त्रसम्मत व्याख्या, उसके प्रभाव और उन प्रभावों की वैज्ञानिकता का अध्ययन किया गया तो खुद वैज्ञानिक चौंक उठे। इसलिए कि पुराण की बातें विज्ञान की कसौटी पर सच साबित होती दिखीं। शोध के दौरान भावनात्मक संतुलन, आंतरिक शांति और मानसिक स्पष्टता के अलावा मानव शरीर पर इसके कई अन्य सकारात्मक प्रभाव भी दिखे। अब तो पश्चिम का अशांत मन इसके पीछे दौड़ पड़ा है।

ईशा फाउंडेशन के संस्थापक और आध्यात्मिक गुरू सद्गुरू जग्गी वासुदेव के लिए वैज्ञानिक शोध के नतीजों से चौंकने जैसी कोई बात नहीं थी। वे तो योग शास्त्र और उसकी वैज्ञानिकता को पढ़ते, समझते व अनुभव करते ही इस मुकाम तक पहुंचे हैं। बात केवल महामुद्रा की जन स्वीकार्यता की थी। अनुभव बताता है कि विज्ञान जिस बात को हां कह दे, हम उसे आंख मूंदकर स्वीकार कर लेते हैं। लिहाजा, उन्होंने शांभवी मुद्रा और प्राणायाम की विधियों को अपने अनुभवों के आधार पर शोध कर योग की एक तकनीक विकसित कर दी। नाम दिया – इनर इंजीनियरिंग। इस लेख में इन्हीं बातों का विश्लेषण है।

पहले शांभवी मुद्रा की ऐतिहासिकता और उसके परिणामों की बात। कथा के मुताबिक, पार्वती जी ने शिव जी को अपने मन की उलझन बताई। कहा, “स्वामी मन बड़ा चंचल है। एक जगह टिकता नहीं।“ फिर उपाय पूछा, “क्या करूं? किसी विधि समस्या से निजात मिलेगी?” शिव जी एक सरल उपाय बता दिया – “दृष्टि को दोनों भौंहों के मध्य स्थिर कर चिदाकाश में ध्यान करें। मन शांत होगा, त्रिनेत्र जागृत हो जाएगा। इसके बाद बाकी सिद्धि के लिए कुछ शेष नहीं रह जाएगा।“ उन्होंने इस क्रिया को नाम दिया – शांभवी मुद्रा। पार्वती जी का एक नाम शांभवी भी है। ऐसा संभव है कि उन्होंने इस क्रिया का नामकरण अपनी पत्नी के नाम को ध्यान में रखकर और उन्हें खुश करने के लिए किया होगा। कहते हैं कि पार्वती जी ने भ्रूमध्य में आसानी से ध्यान लगाने के लिए बिंदी लगाई थी। तभी से महिलाओं में बिंदी लगाने का चलन शुरू हुआ।

खैर, हठयोग की इस गुप्त महामुद्रा से लोग अनजान थे। सत्रहवीं शताब्दी के वैष्णव संत महर्षि घेरंड ने शांभवी मुद्रा की विस्तृत व्याख्या की। स्वात्माराम ने अपनी हठयोग प्रदीपिका में इसकी चर्चा की। इस तरह लोगों को इसके बारे में पता चला। आधुनिक युग के अनेक संतों ने इन दोनों ऋषियों के योग साहित्य का भाष्य लिखा। स्वामी निरंजनानंद सरस्वती का भाष्य सरल व  गाह्रय है। उनके मुताबिक, शांभवी मुद्रा महामुद्रा इसलिए है कि जैसा कि महर्षि घेरंड ने कहा है, उसका स्थान वेद, शास्त्र और पुराण से भी ऊपर है। जब इसे जन-कल्याण के लिए उपलब्ध कराया गया तो बताया गया कि इसका अभ्यास करते समय आंखों की गति को नियंत्रित करके उसे श्वास के साथ जोड़ लिया जाना चाहिए। सावधानी इतनी कि जिनकी आंखों की शल्य-क्रिया हुई हो या ग्लूकोमा हो तो कुशल मार्ग-दर्शन में ही इसका अभ्यास करना है।

योग रिसर्च फाउंडेशन ने कई दशक पहले शांभवी महामुद्रा पर अध्ययन कर लिया था। इसलिए बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती और उनके आध्यात्मिक उत्तराधिकारी परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती लगातर कहते रहे कि शांभवी मुद्रा की क्रिया आज्ञा चक्र को जागृत करने की शक्तिशाली क्रिया है। दरअसल, इस क्रिया से अल्फा तरंगों में वृद्धि हो जाती है। तंत्रिका तंत्र और अंत:स्रावी ग्रंथियां संतुलित ढंग से काम करती हैं। पीयूष ग्रंथि के ह्रास की रफ्तार धीमी हो जाती है। शरीर के ऊर्जा केंद्र, जिन्हें चक्र कहा जाता है, जागृत होते हैं और उनसे निकले वाली ऊर्जा, जिसे योग में प्राण-शक्ति कहा जाता है, पुन: शरीर में स्थापित हो जाती है। फलस्वरूप चेतन मन शांत होता है। रचनात्मकता व एकाग्रता बढ़ती है। अवसाद व अनिद्रा की समस्या नहीं रह जाती।

योग शास्त्र के मुताबिक शरीर में मौजूद प्रमुख सात चक्र वास्तव में ऊर्जा केंद्र हैं और भावनाओं को नियंत्रित करने के लिए जाने जाते हैं। वे रीढ़ की हड्डी के बहुत अंत से शुरू होकर सिर के शिखर तक हैं। आत्मा, शरीर और स्वास्थ्य के बीच संतुलन बनाने में इन चक्रों की बड़ी भूमिका होती है। शांभवी मुद्रा की साधना उच्च स्तर की हो तो आज्ञा चक्र के पीछे और आगे के चक्रों यथा विशुद्धि चक्र और बिंदु के बीच संपर्क बन जाता है। मन और प्राण संयत होता है। एकाग्रता और मानसिक स्थिरता आती है। तनाव, क्रोध और चिंता का निवारण हो जाता है। आंखों की पेशियां मजबूत हो जाती हैं। आज्ञा चक्र पर शांभवी मुद्रा के विशेष प्रभावों के कारण ही इसे बच्चों और छात्रों के लिए सर्वाधिक उपयुक्त माना गया है।

कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के अध्ययन के परिणाम भी प्रकारांतर से योग रिसर्च फाउंडेशन के नतीजों जैसे ही हैं। फर्क केवल भाषा का है। एक योग की भाषा है तो दूसरा विज्ञान की। कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के मुताबिक शाम्भवी मुद्रा का अभ्यास करने वालों के मस्तिष्क में न्यूरल रिसाइकिलिंग सामान्य की तुलना में 241 फीसदी ज्यादा होती है। दूसरी तरफ पीनियल ग्रंथि के कमजोर होने की प्रक्रिया धीमी हो जाती है। तंत्रिका तंत्र और अंत:स्रावी ग्रंथियों के बीच बेहतर समन्वय बनता है। कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में 536 लोगों पर शांभवी मुद्रा के प्रभावों के अध्ययन किया गया था। एकाग्रता में 77 फीसदी, मानसिक स्पष्टता में 98 फीसदी, भावनात्मक संतुलन में 92 फीसदी, ऊर्जा के स्तर में 84 फीसदी, आंतरिक शांति में 94 फीसदी और आत्मबल में 82 फीसदी की वृद्धि हो गई थी।

सद्गुरू ने शांभवी महामुद्रा की वैज्ञानिकता और समय की नजाकत को ध्यान में रखकर ऑनलाइन प्रशिक्षण की तकनीक विकसित कर दी है। पर उन्होंने इसका नाम ऐसा रखा है कि सबको सहज स्वीकार्य हो जाए। वरना कई बार धार्मिक मान्यताएं आड़े आ जाती हैं। पहले नाम का फिर उसके प्रभाव का असर है कि भारत ही नहीं, दुनिया के अनेक देशों में शांभवी मुद्रा पर आधारित इनर इंजीनियरिंग एक खास वर्ग के बीच धूम मचा रही है। आईआईटी और सर गंगाराम अस्पताल ने मिलकर ईईजी के जरिए ईशा योग का प्रभाव देखा है। सद्गुरू जग्गी वासुदेव वैज्ञानिक शोध के आधार पर कहते हैं कि शाम्भवी क्रिया करने वालों में कार्टिसोल (तनाव को कम करने वाला हार्मोन) नियंत्रण में रहता है।

जाहिर है कि शांभवी मुद्रा बेहद प्रभावशाली योग मुद्रा है। “योगी कथामृत” के लेखक और पश्चिमी दुनिया में क्रिया योग का प्रचार करने वाले परमहंस योगानंद से किसी ने पूछ लिया – “क्रियायोग के अतिरिक्त और कोई वैज्ञानिक विधि है, जो साधक को ईश्वर की ओर ले जा सके?” पहमहंस जी बोले, “अवश्य। परमात्मा को पाने का एक पक्का और द्रुतगामी रास्ता है अपने भ्रूमध्य स्थित कूटस्थ चैतन्य पर ध्यान करना।“  पुराणों से लेकर विज्ञान तक की बातों और नए-पुराने योगियों के मंतव्यों से शांभवी महामुद्रा की अहमियत का सहज अंदाज लगाया जा सकता है।  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

योग को पुनर्जीवन देने में योगिनियों और संन्यासिनियों की बड़ी भूमिका रही

संत परंपरा में महिला संतों का बड़ा योगदान रहा है। पर उन्हें साहित्य में वह स्थान नहीं मिल पाया, जिसकी वे हकदार थीं। इसके उलट संन्यास-मार्ग पर चलने की इच्छा रखने वाली मातृ-शक्ति को सामाजिक कारणों से प्रोत्साहित नहीं किया गया। फिर भी अदिति से लेकर शतरूपा तक और गार्गी से लेकर मैत्रेयी व भामती तक की प्रेरणा और दैवयोग से अनेक महिलाएं संन्यास मार्ग के पथरीले रास्तों से आगे बढ़ गईं। इनमें मीराबाई, अक्का महादेवी, शारदा मॉ, संत अवैय्यार, भैरवी ब्राह्मणी, संत आंडाल, जूना अखाड़ा की सुखमन गिरि, भगवती माई, सुभद्रा माता, विष्णु गिरि , साध्वी ऋतंभरा, स्वामी सत्यसंगानंद सरस्वती, योगिनी शांभवी, साध्वी भगवती सरस्वती, गुरूमाई चिद्वविलासानंद, महंत दिव्या गिरि आदि उल्लेखनीय हैं। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस और महाशिवरात्रि के आलोक में महिला संतों और योगियों की भूमिकाओं की एक झांकी प्रस्तुत है।   

योग के आदिगुरू शिव हैं, यह निर्विवाद है। पर कल्पना कीजिए कि शक्ति-स्वरूपा पार्वती ने यदि मानव जाति के कल्याण के लिए, आत्म-रूपांतरण के लिए शिव से 112 समस्याओं का समाधान न पूछा होता तो क्या योग जैसी गुप्त विद्या सर्व सुलभ होने का आधार तैयार हुआ होता? मत्स्येंद्रनाथ का प्रादुर्भाव हुआ होता? गोरखनाथ और नाथ संप्रदाय के साथ ही पाशुपत योग के रूप में हठयोग, राजयोग, भक्तियोग, कर्मयोग आदि से आमजन परिचित हुए होते? कदापि नहीं। सच तो यह है कि योग की जितनी भी शाखाएं हैं, सबका आधार शिव-पार्वती संवाद ही है। अलग-अलग काल खंडों में भी योग को पुनर्जीवन देने में योगिनियों और संन्यासिनियों की भी बड़ी भूमिका रही। पर उन्हें योगियों की तुलना में समुचित स्थान नहीं मिल पाया। समाज में पुरूषों की प्रधानता इसकी बड़ी वजह रही होगी।

महिला दिवस पर मातृ-शक्ति का अभिवादन। तीन दिन बाद ही महाशिवरात्रि भी है। मुझे लगता है कि इन दोनों ही दिवसों के आलोक में शिव-शक्ति की महिमा को एक अलग दृष्टिकोण देखने का मकूल समय है। तब योग और अध्यात्म की दुनिया मे संन्यस्थ महिलाओं के योगदान की अनिवार्यता और उसके महत्व को समझना आसान होगा। तंत्रशास्त्रके मुताबिक शिव अर्थात पुरूष या शुद्ध चेतना और प्रकृति अर्थात देवी या शक्ति शरीर में होती हैं। इन दोनों ही शक्तियों का जागरण और उनका मिलन ही योग का महान लक्ष्य है। शक्ति शरीर के मूलाधार चक्र में सोई रहती है, जिसे यौगिक क्रियाओं से जागृत करके ऊपर सहस्रार चक्र तक ले जाना होता है। दूसरी तरफ शिव यानी शुद्ध चेतना की जागृति होती है तो शिव और शक्ति का मिलन होता है। इससे त्रिगुणात्मक सृष्टि की रचना होती है। पर इन दोनों को अलग कर देने से शून्य की, निर्वाण की, मोक्ष की स्थिति आती है। तंत्र आधारित योग का यही मार्ग है। इसलिए ध्यान के समय कल्पना की जाती है कि शुद्ध चेतना ऊर्ध्वगामी है। ताकि दोनों शक्तियों का मिलन हो सके।

आध्यात्मिक उत्थान और योग के सर्वाधिक लाभों के लिहाज से शिवरात्रि का बड़ा महत्व है। “मीरा के प्रभु गहर गंभीरा, हृदय धरो जी धीरा। आधी रात प्रभु दरसन दीन्हों, प्रेम नदी के तीरा।।“ परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती मीराबाई के इस पद के जरिए महाशिवरात्रि का महत्व समझाते थे। वे कहते थे कि चेतना के लिए भी दिन, शाम और रात निर्धारित है। जागृत अवस्था में चेतना बाहर की ओर विचरण कर रही होती है तो दिन। इंद्रियों का संबंध बाहर से टूट जाए और केवल विचार रह जाए तो शाम। इंद्रियों का संबंध बाहर से टूट जाए और विचार भी न रहे तो रात। शिवरात्रि में यहीं अंतिम अवस्था रहती है। यानी इस अवस्था में जन्मों-जन्मों की वृत्त्तियों और खराब संस्कारों से मुक्ति पाने का विधान बताया गया है। शिवजी की बारात में भूत-पिशाच की उपस्थिति प्रतिकात्मक है। वे जन्मो की वृत्तियों के प्रतीक हैं। आधी रात को साधना के जरिए उनसे मुक्ति मिलनी होती है। इस लिहाज से शिवरात्रि आध्यात्मिक उत्थान और योग-शक्ति के जागरण का अनुष्ठान है।   

अब बात आध्यात्मिक दुनिया में मातृ-शक्ति की उपस्थिति और उनकी भूमिकाओं की। वैदिक काल में महिलाओं की श्रेष्ठता सहज स्वीकार्य थी। कम से कम 21 विदुषी महिलाओं का स्थान ऋषियों के समतुल्य था। इनमें अदिति से लेकर शतरूपा तक और गार्गी से लेकर मैत्रेयी, चिन्न मुकुंदा व भामती तक के नाम हैं। वे पुरूषों के साथ शास्त्रार्थ तक करती थीं। योग के ज्ञात इतिहास में नाथ संप्रदाय की योगिनियों की बड़ी भूमिका रही है। उन योगिनियों का सशक्त संप्रदाय हुआ करता था। पथ विचलन न हो, इसके लिए योगियों के कानों की यौन नाड़ियों पर भी छिद्र बनाकर कुंडल और योगिनियों को बाली पहना दिया जाता था। आज भी ओड़ीशा के दो और मध्य प्रदेश के दो चौसठ योगिनी मंदिर योगिनियों की मजबूत उपस्थिति के जीवंत प्रमाण हैं। भारत में तंत्र विद्या का जैसे-जैसे लोप होता गया, योगिनी संप्रदाय सिकुड़ता गया।

कालांतर में आदिगुरू शंकराचार्य द्वारा स्थापित दशनामी संन्यास परंपरा के तहत महिलाओं को दीक्षित करने की परंपरा शुरू की गई। इन्हें संन्यासिनी कहा गया। पर फिर परिस्थितियां कुछ इस तरह निर्मित हुईं कि योग महिलाओं के लिए मानो वर्जित विषय होता गया। उनकी आध्यात्मिक उन्नति के मार्ग लगभग बंद कर दिए गए। बावजूद दैवयोग से कई महिला संतों ने अपनी विशिष्ठ जगह बनाई। बारहवीं शताब्दी में केरल की महादेवी अक्का और सोलहवीं शताब्दी में संत रविदास की शिष्या मीराबाई भक्ति-मार्ग की महत्वपूर्ण संत हुईं। संत लल्लेश्वरी, सहजोबाई, दयाबाई, मुक्ताबाई, बहिनाबाई, महारानी चुड़ाला, चिन्न मुकुंदा, शारदा मॉ, उभया भारती, संत अवैय्यार, भैरवी ब्राह्मणी, संत आंडाल, जूना अखाड़ा की सुखमन गिरि, भगवती माई, सुभद्रा माता, विष्णु गिरि आदि की भी मजबूत उपस्थिति रही। पर इन्हें अपवाद स्वरूप ही समझा जाना चाहिए। इन संतों में चिन्न मुकुंदा आदिगुरू शंकराचार्य की तांत्रिक गुरू थीं तो भैरवी ब्राह्मणी रामकृष्ण परमहंस की तांत्रिक गुरू थीं। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की तांत्रिक गुरू जूना अखाड़े की सुखमन गिरि थीं। 

बीसवीं सदी में मॉ आनंदमयी की मजबूत उपस्थिति से परिस्थितियां तेजी से बदली। सन् 1896 में पूर्वी बंगाल में जन्मी मॉ आनंदमयी सर्वाधिक प्रभावी व तेजस्वी आध्यात्मिक विभूति थीं। सन् 1982 में भौतिक शरीर त्यागने तक महिलाओं की संन्यास परंपरा को मजबूती प्रदान किया। उस दौरान बड़ी संख्या में महिलाओं को संन्यास की दीक्षा मिली। उधर पुरूष संन्यासियों में स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने महिलाओं को संन्यासिनी बनाने में अग्रणी भूमिका निभाई। वरना बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ तक गिनती की तपस्विनियों, संन्यासिनियों को छोड दें तो महिला संन्यासी व योगी ढूंढ़े नहीं मिलती थीं। ले देकर लातविया मूल की इंद्रा देवी का नाम इसलिए लिया जाने लगा था कि उन्होंने आधुनिक युग में हठयोग के पितामह माने जाने वाले टीकृष्णामाचार्य से योग-शिक्षा हासिल करके उसे पश्चिमी दुनिया में फैलाया था। 

खैर, इक्कीसवीं शताब्दी महिलाओं के दृष्टिकोण से योग और अध्यात्म की जमीन काफी उर्वर दिख रही है। वृंदावन में वात्सल्य ग्राम के सपने को साकार करने वाली साध्वी ऋतंभरा और रिखियापीठ (देवघर, झारखंड) की प्रमुख संन्यासी स्वामी सत्संगानंद सरस्वती लेकर महाराष्ट्र में भगवान नित्यानंद की सिद्ध योग परंपरा की अगुआई करने वाली गुरूमाई चिद्विलासानंद तक अनेक महिला संन्यासी और योगी लाखों लोगों के जीवन को योगमय और सुखमय बनाने में तल्लीन हैं। योगिनी शांभवी और साध्वी भगवती सरस्वती ऋषिकेश में विशेष तौर से महिलाओं के आध्यात्मिक उत्थान के लिए सक्रिय हैं। महामहोपाध्याय स्वामिनी ब्रह्मप्रकाशानंद सरस्वती वेदांत दर्शन के प्रचार में उल्लेखनीय भूमिका निभा रही हैं। ऐसे और भी कई नाम हैं। अब तो जूना अखाड़े से संबंधित माई बाड़ा भी महंत दिव्या गिरि की अगुआई में बड़ी संख्या में महिलाओं को संन्यास-मार्ग पर आगे बढ़ाने के काम में जुटा हुआ है।

मौजूदा समय में प्राण-शक्ति के निम्नतर स्तर के कारण लोग नाना प्रकार की समस्याओं से जूझ रहे हैं। वैसे में जीवन को व्यवस्थित करने के लिए माता पार्वती द्वारा शिव से पूछे गए प्रारंभिक नौ सवालों की अहमियत बढ़ गई है। वे श्वास-प्रश्वास यानी प्राण-शक्ति की अभिवृद्धि से संबंधित हैं। जाहिर है कि यह वक्त योगिनियों और संन्यासिनियों की अहमियत को स्वीकारते हुए उनके संदेशों को जन-जन तक ले जाने का भी है। 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

स्वामी विवेकानंद और महर्षि महेश योगी के यौगिक मंत्र

तंत्रशास्त्र में भी कहा गया है कि प्रत्याहार की अवस्था में जप योग की आध्यात्मिक चेतना के विकास में बड़ी भूमिका होती है। सदियों से योगी अनुभव करते रहे हैं कि चेतना की विशिष्ट अवस्था में मंत्र की ध्वनि से शरीर के प्रमुख छह चक्र प्रभावित होते हैं। इनमें मूलाधार चक्र यानी कोक्सीजेल सेंटर से लेकर आज्ञा चक्र यानी मेडुला सेंटर तक शामिल हैं। इसलिए मंत्र को चेतना की ध्वनि कहा जाता है। आधुनिक विज्ञान भी इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि चक्र प्रणाली का प्रत्येक स्तर शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और अतीन्द्रिय तत्वों का सम्मिश्रण है। इसलिए सभी चक्रों का संबंध किसी न किसी स्नायु तंत्र और अंत:स्रावी ग्रंथि से होता ही है। ऐसे में चक्रों के किसी भी प्रकार से स्पंदित होने पर उसका असर व्यापक होता है। भावातीत ध्यान इसलिए बड़े काम का है।

योग और अध्यात्म की दृष्टि से जनवरी महीने की बड़ी अहमियत है। अपने वेदांत दर्शन के कारण दुनिया में भारत का मान बढ़ाने वाले सर्वकालिक संत स्वामी विवेकानंद और योगबल की बदौलत दुनिया को चमत्कृत करने वाले आधुनिक युग के वैज्ञानिक योगी महर्षि महेश योगी की जयंती इस महीने में एक ही दिन यानी 12 जनवरी को मनाई जाती है। उनकी शिक्षा की प्रासंगिकता बनी ही रहती है। पर कोरोना महामारी के आलोक में मानसिक सजगता को लेकर उनके विचार, योग की विधि बड़े काम के हैं।

चाहे युवा-शक्ति के अभ्युत्थान की बात हो या फिर बंगाल में 1899 में आए प्लेग से उत्पन्न पीड़ाएं, स्वामी विवेकानंद अपना अनुभव साझा करते हुए कहते थे – “सजगता की शक्ति ऐसी है कि वह ज्ञान की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त तो करती ही है, मानसिक पीड़ाओं से भी मुक्ति दिलाती है। हम देखते हैं कि सभी लोग नईपीढ़ी से कहते हैं कि अच्छे बनो, विवेकशील बनो। पर बताते नहीं कि ऐसा किस तरह संभव होगा। यदि मन अपने वश में न होगा तो कोई कब तक अच्छा या विवेकशील बना रह सकता है? मन की सजगता औऱ उसकी बुनियाद पर एकाग्रता का महल तभी खड़ा होगा, जब सजगता (प्रत्याहार) और एकाग्रता (धारणा) की किसी एक विधि को भी अपनी जीवन-शैली का हिस्सा बनाया जाएगा। “

महर्षि महेश योगी ने साठ के दशक में पश्चिमी देशों में जिस “भावातीत ध्यान” का डंका बजाया था, उसका आधार मुख्यत: प्रत्याहार ही था। उसके साथ मंत्र योग का समन्वय करके उसे शक्तिशाली बनाया गया था। विभिन्न कारणों से अवसाद में डूबे पश्चिमी दुनिया के युवाओं को भावातीत ध्यान से इतने फायदे मिले कि वह अवसाद से उबारने की यौगिक दवा बन गई थी। इससे चिकित्सा विज्ञानी भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके थे। नतीजा हुआ कि दुनिया भर में भावातीत ध्यान के विभिन्न रोगों में प्रभावों पर शोध किए जाने लगे थे। अब तक सात सौ से ज्यादा शोध-कार्य किए जा चुके हैं। उनके सकारात्मक नतीजों का ही असर है कि कोरोना महामारी के कारण अवसादग्रस्त लोगों को योगनिद्रा की तरह ही भावातीत ध्यान भी खूब भा रहा है। योगनिद्रा भी प्रत्याहार की ही एक क्रिया है। इसे बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने आज की जरूरतों के लिहाज से विकसित करके प्रस्तुत किया था।

योगशास्त्र में कहा गया है कि इंद्रियों को अंतर्मुखी करने की कला यानी Withdrawal of Senses ही प्रत्याहार है। चूंकि आमतौर पर सबकी चेतना बहुर्मुखी होती है और मन इंद्रियों का दास बनकर उसके इशारे पर नाच रहा होता है। इसलिए तरह-तरह की मानसिक समस्याएं खड़ी होती रहती हैं। जीवात्मा के लिए अपने भीतर की परमसत्ता यानी आत्मा या चेतना के अनंत पक्षों को जान पाना कठिन होता है। स्वामी विवेकानंद कहते थे – “कुछ क्षण बैठें और मन को इधर-उधर दौड़ने दें। मन सदैव बुलबुलाता रहता है। वह उस कूदते हुए बंदर के समान है। बंदर को जितना कूदना है, कूदने दो; आप केवल रुककर देखते रहिए। एक लोकोक्ति के अनुसार, ज्ञान ही शक्ति है, और यह बिल्कुल सत्य है। जब तक आप यह नहीं जानते कि आपका मन क्या कर रहा है, आप उसको नियंत्रित नहीं कर सकते। उसे लगाम दीजिए; आपके भीतर कई घृणित विचार आ सकते हैं। आपको यह जानकार आश्चर्य होगा कि आपके लिए ऐसा सोचना कैसे संभव था? परंतु आप देखेंगे कि प्रत्येक दिन मन की सनक धीरे-धीरे कम हिंसात्मक हो रही है, प्रत्येक दिन वह शांत हो रहा है।“ 

आमतौर पर माना जाता है कि चेतना की तीन अवस्थाएं हैं। पहली जागृति की चेतना। इस दौरान मन और शरीर दोनों ही क्रियाशील रहते हैं। दूसरी, स्वप्न की चेतना। इसमें मन और शरीर आंशिक रूप से क्रियाशील रहते हैं। तीसरी है, सुषुप्ति की चेतना। इसमें मन और शरीर विश्राम की अवस्था में होते हैं। महर्षि महेश योगी कहते थे कि चेतना की चौथी अवस्था भी होती है और वह है भावातीत चेतना। इसे विश्रामपूर्ण जागृति भी कहा जा सकता है। इसलिए कि इस अवस्था में हम मानसिक रूप से पूर्ण सजग और शारीरिक रूप से गहन विश्राम की अवस्था में रहते हैं। ऐसी अवस्था में गुरूमंत्र या किसी भी मंत्र का जप चलते रहने का चमत्कारिक प्रभाव होता है। मानव चेतना के सवाल ऋषियों और संतों की स्थापनाओं पर आधुनिक युग के वैज्ञानिकों ने काफी शोध किया है। इस संदर्भ में वैज्ञानिक आध्यात्मवाद के प्रसिद्ध अमेरिकी लेखक माइकेल टालबोट की शोधपरक पुस्तक “मिस्टिसिज्म एंड द न्यू फिजिक्स” उल्लेखनीय है। इसमें कई शोधों के आधार पर भारतीय तंत्रशास्त्र और योगविद्या की वैज्ञानिकता पर विस्तार से चर्चा की गई है।    

तंत्रशास्त्र में भी कहा गया है कि प्रत्याहार की अवस्था में जप योग की आध्यात्मिक चेतना के विकास में बड़ी भूमिका होती है। वैसे तो त्राटक, नादयोग,संगीत, कीर्तन आदि भी इंद्रियों को अंतर्मुखी बनाने के लिए बेहद प्रभावशाली हैं। पर सदियों से योगी अनुभव करते रहे हैं कि चेतना की विशिष्ट अवस्था में मंत्र की ध्वनि से शरीर के प्रमुख छह चक्र बेहद प्रभावित होते हैं। इनमें मूलाधार चक्र यानी कोक्सीजेल सेंटर से लेकर आज्ञा चक्र यानी मेडुला सेंटर तक शामिल हैं। इसलिए मंत्र को चेतना की ध्वनि कहा जाता है। आधुनिक विज्ञान भी इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि चक्र प्रणाली का प्रत्येक स्तर शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और अतीन्द्रिय तत्वों का सम्मिश्रण है। इसलिए सभी चक्रों का संबंध किसी न किसी स्नायु तंत्र और अंत:स्रावी ग्रंथि से होता ही है। ऐसे में चक्रों के किसी भी प्रकार से स्पंदित होने पर उसका असर व्यापक होता है।

महर्षि महेश योगी वैसे तो भावातीत ध्यान की खूबियां लोगों के मन-मिजाज को ध्यान में रखकर अलग-अलग तरह से गिनाते थे। पर एक बात सभी से कहते थे – “स्वर्ग का साम्राज्य तुम्हारे अंदर है। भावातीत ध्यान के जरिए उसे हासिल करो। फिर सब कुछ प्राप्त हो जाएगा। यह कुछ और नहीं, बल्कि चेतना का विज्ञान है। चेतना विज्ञान की शिक्षा सार्वभौम सत्ता या चेतना के प्रत्यक्ष अनुभव से आरंभ होनी चाहिए। जब सृष्टि के हर पक्ष को धारण करने वाली विशुद्ध चेतना व्यावहारिक स्तर पर आएगी, तब ही जीवन में पूर्णता आएगी, हर रहस्य से पर्दा उठेगा।“ उनकी इन बातों की पुष्टि आधुनिक विज्ञान भी करने लगा तो विभिन्न कारणों से तनावपूर्ण जीवन जी रहे पश्चिमी दुनिया के युवा भावातीत ध्यान की ओर आकर्षित हुए बिना नहीं रह सके। फिर तो इंग्लैंड के प्रसिद्ध रॉक बैंड ’द बीटल्स’ के कलाकार भी इसके दीवाने हो गए थे और साठ के दशक में ध्यान सीखने ऋषिकेश जा पहुंचे थे। आज भी भारत सहित दुनिया के 126 देशों में इस ध्यान साधना की मजबूत उपस्थिति बनी हुई है। अब तो वैज्ञानिक इसे क्वांटम मैकेनिक्स औऱ थर्मोडाइनोमिक्स से जोड़कर देखने लगे हैं।

स्वामी विवेकानंद सर्वकालिक प्रासंगिक रहे हैं। पर कोरोनाकाल में महर्षि महेश योगी का भावातीत ध्यान विशेष तौर से पश्चिमी जगत के युवाओं के लिए कोरामिन की तरह साबित हुआ।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)  

योगनिद्रा और उज्जायी प्राणायाम के चमत्कार तो देखिए!

अनुसंधान के दौरान देखा गया कि उच्च रक्तचाप के नियंत्रण में योग निद्रा उज्जायी प्राणायाम से भी ज्यादा असरदार है। जिन मरीजों का उज्जायी प्राणायाम के बाद सिस्टोलिक ब्लड प्रेशर 138 था, वह घटकर 128 रह गया था। डायास्टोलिक ब्लड प्रेशर 89 से घटकर 82 हो गया था। पर सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात हर्ट रेट को लेकर थी। प्राणायाम से ब्लड प्रेशर तो कम होता था। पर हर्ट रेट कम होने के बजाए थोड़ा बढ़ ही जाता था। चिकित्सा विज्ञान के मुताबिक ऐसा घटे हुए ब्डल प्रेशर को कंपेन्सेट करने के लिए होता है। आदर्श स्थिति यह है कि प्रेशर कम हो तो हर्ट रेट भी उसी अनुपात में कम रहे। ताकि हृदय को अधिक विश्रम मिल सके। योग निद्रा के दौरान देखा गया कि ब्लड प्रशेर कम हुआ तो हर्ट रेट भी कम हो गया था। जाहिर है कि योग निद्रा ज्यादा प्रभावी साबित हुआ।

कोरोनाकाल उच्च रक्तचाप के मरीजों के लिए ज्यादा ही घातक साबित हो रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक उच्च रक्तचाप से प्रभावित लोगों की मृत्यु दर 8.4 फीसदी है। अनेक अध्ययन इस बात के प्रमाण हैं कि अंग्रेजी दवाएं भले उच्च रक्तचाप से मुक्ति न दिला पाए। पर योग की कई विधियां रामबाग की तरह हैं। उनमें उज्जायी प्राणायाम और योग निद्रा प्रमुख हैं।

अपने देश में हर दस में तीन व्यक्ति उच्च रक्तचाप की चपेट में हैं। स्वस्थ्य मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक देश में होने वाली सभी मौतों में से 17.5 फीसदी मौतों और साथ ही 9.7 फीसदी अक्षमता-समायोजित जीवन वर्ष (डीएएलवाईएस) के लिए उच्च रक्तचाप जिम्मेदार है। डीएएलवाईएस कुल बीमारी के बोझ और विकलांगता, बीमारियों और प्रारंभिक मौत के कारण खो गए वर्षों को मापता है। इस बीमारी को लेकर दुनिया भर में अनुसंधान हुए और हो रहे हैं। जड़ कहां है, इसकी काफी हद तक पड़ताल की जा चुकी है।

योग रिसर्च फाउंडेशन (वाईआरएफ) और भारत हेवी इलेक्ट्रिकल लिमिटेड (भेल) के संयुक्त तत्वावधान में हुए अनुसंधान के नतीजों से पुष्टि हो चुकी है कि उज्जायी प्राणायाम और योगनिद्रा उच्च रक्तचाप के मरीजों के लिए बेहद फायदेमंद हैं। वाईआरएफ-भेल ने इस विषय पर अपनी महत्वाकांक्षी परियोजना के तहत उच्च रक्तचाप के 48 मरीजों का चयन किया था। इनमें से इनमें से 34 मरीजों का योग ग्रुप बनाया गया और 14 मरीजों का कंट्रोल ग्रुप। भेल के भोपाल स्थित परिसर में हुए इस अनुसंधान के दौरान दोनों ही ग्रुपों के मरीज एक ही चिकित्सक की लिखी दवा लेते रहे। खानपान की एक समान रहा। फर्क इतना कि योग ग्रुप के मरीजों के लिए सप्ताह में छह दिन नब्बे मिनट तक कक्षा चलती थी।

मरीजों की औसत उम्र 55 साल थी औऱ उनमें से आधे मरीजों की फैमिली हिस्ट्री में उच्च रक्तचाप था। योग ग्रुप के मरीजों में से दस को मधुमेह और 11 को हृदय रोग था। सात मरीजों को थॉयराइड की समस्या थी। इन सबको आसनों में पवन मुक्तासन भाग एक व दो, ताड़ासन, तिर्यक् ताड़ासन, कटिचक्रासन, बद्धहस्तोत्थानासन और मार्जरी कराए जाते थे। प्राणायाम में श्वास की सजगता का अभ्यास, उदर स्वसन, नाड़ीशोधन, भ्रामरी और उज्जायी प्राणायाम तथा प्राण मुद्रा व हृदय मुद्रा का अभ्यास कराया जाता था। प्रत्याहार में कायास्थैर्यम्, अजपाजप और योग निद्रा का अभ्यास।

इन योगाभ्यासों के बेहतर नतीजे मिलने शुरू हुए तो अनुसंधानकर्ताओं की यह जानने की इच्छा हुई कि इतने सारे योगाभ्यासों में कौन-कौन से योगाभ्यास ज्यादा लाभदायक हैं। वे कई महीनों के प्रयोग के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि उज्जायी प्राणायाम, नाड़ीशोधन प्राणायाम, भ्रामरी और योगनिद्रा उच्च रक्तचाप पर काबू पाने के लिए रामबाण की तरह हैं। उज्जायी प्राणायाम और योगनिद्रा के परिणाम तो बेहद चौंकाने वाले थे। अनुसंधानकर्ता योग ग्रुप के मरीजों को पांच मिनट उज्जायी प्राणायाम कराते और दो मिनट विश्राम देते। इस दौरान हर मिनट रक्तचाप की जांच के दौरान देखा गया कि सिस्टोलिक यानी ऊपर वाला रीडिंग सात मिनटों में 166 से घटकर 142 हो गया। इसी तरह डायास्टोलिक यानी नीचे वाला रक्तचाप 87 से घटकर 82 हो गया था।

अनुसंधान के दौरान देखा गया कि उच्च रक्तचाप के नियंत्रण में योग निद्रा उज्जायी प्राणायाम से भी ज्यादा असरदार है। जिन मरीजों का उज्जायी प्राणायाम के बाद सिस्टोलिक ब्लड प्रेशर 138 था, वह घटकर 128 रह गया था। डायास्टोलिक ब्लड प्रेशर 89 से घटकर 82 हो गया था। पर सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात हर्ट रेट को लेकर थी। प्राणायाम से ब्लड प्रेशर तो कम होता था। पर हर्ट रेट कम होने के बजाए थोड़ा बढ़ ही जाता था। चिकित्सा विज्ञान के मुताबिक ऐसा घटे हुए ब्डल प्रेशर को कंपेन्सेट करने के लिए होता है। आदर्श स्थिति यह है कि प्रेशर कम हो तो हर्ट रेट भी उसी अनुपात में कम रहे। ताकि हृदय को अधिक विश्रम मिल सके। योग निद्रा के दौरान देखा गया कि ब्लड प्रशेर कम हुआ तो हर्ट रेट भी कम हो गया था। जाहिर है कि योग निद्रा ज्यादा प्रभावी साबित हुआ।

दूसरी तरफ कंट्रोल ग्रुप के मरीजों का ब्लड प्रेशर नियमित दवाओं के बावजूद एक साल के भीतर 141 से बढ़कर 142 हो गया था। डायास्टोलिक प्रेशर 90 ही रह गया था। अब यह जानना दिलचस्प होगा कि एक साल के अनुसंधान के बाद मरीजों की अंग्रेजी दवाओं पर कितनी निर्भरता रह गई थी। योग ग्रुप के 34 मरीजों में से सिर्फ दो मरीजों को ज्यादा दवाएं लेनी पड़ी थी। तेरह लोगों की दवाएँ बेहद कम हो गईं और चार लोगों की दवाएं बंद हो गईं। कंट्रोल ग्रुप के चार लोगों को नियमित दवाओं के अलावा चार दवाएं लेनी पड़ी। बाकी दस लोग साल भर पहले की तरह दवाओं के डोज लेते रहने को मजबूर थे।

उच्च रक्तचाप की वजहें कई हैं। मुंबई की विख्यात चिकित्सक रह चुकीं बिहार योग विद्याय की संन्यासी और “यौगिक मैनेजमेंट ऑफ कैंसर” की लेखिका डॉ. स्वामी निर्मलानंद सरस्वती का कहना है कि धमनियों के सिकुड़ जाने से उच्च रक्तचाप और हृदयरोग को सीधा निमंत्रण मिलता है। अस्वस्थ्यकर जीवन पद्धति और खानपान की वजह से आदमी मोटा होता है तो धमनियां सिकुड़ जाती है। यह काम उम्र के साथ भी होता है। कोलेस्ट्रॉल और कैल्शियम धमनियों में डिपाजिट होने से भी धमनियां सिकुड़ जाती हैं। फिर तो मधुमेह भी अपनी चपेट में ले लेता है। दरअसल उच्च रक्तचाप, मधुमेह और हृदय रोग – ये तीनों सगे भाई-बहनों की तरह हैं। उनके माता-पिता तनाव, मोटापा, चिड़चिड़ा स्वभाव और गलत रहन-सहन हैं। आजकल इन बीमारियों की छोटी बहन भी आ गई हैं। वह हैं – थायरॉयड।

स्पष्ट है कि उच्च रक्तचाप अपने आप में कोई बीमारी न होते हुए भी बेहद खतरनाक है, जानलेवा है। यह रोग कोई दबे पैर आता नहीं है। लंबे समय तक संकेत देते रहता है। पर अशांत मन इस आहट को भांपने नहीं देता। सजगता और सतर्कता इसके लिए बैरियर का काम कर सकती हैं।    

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं)  

मानसिक शांति व चेतना के विकास के लिए बड़े काम का है अजपा जप

“जो लोग तनावों और समस्याओं से भरे होते हैं, उनके लिए अजपा जप बड़ा लाभकारी अभ्यास है। अध्ययन और मानसिक कार्य करने वाले भी इस विधि से काफी लाभान्वित होते हैं। जब श्वास में मंत्र जागृत होता है तो उससे पूरा शरीर आवेशित हो जाता है। नाड़ियों में संचित विषाक्त तत्व बाहर निकलते हैं तथा अनेक अवरोध, जो मानसिक बीमारियों के मूल कारण होते हैं, दूर होते हैं। दरअसल, अजपा जप में प्रयुक्त मंत्र की शक्ति से सुषुम्ना नाड़ी जागृत होती है। इससे जब इड़ा नाड़ी तरंगित होती है तो मन सक्रिय होता है और पिंगला नाड़ी तरंगित होती है तो प्राण-शक्ति सक्रिय होती है। नतीजतन, पूरे शरीर में ऊर्जा प्रवाहित होने लगती है। सच तो यह है कि अजपा जप क्रियायोग का आधार है। इसमें कुशलता प्राप्ति से प्रत्याहार, धारणा तथा एकाग्रता की प्राप्ति होती है। यहीं से ध्यान योग प्रारंभ होता है।“

कोरोनाकाल में मानसिक अशांति बड़ी समस्या बनकर उभरी है। इसकी वजह से कई अन्य बीमारियां जन्म ले रही हैं। हम जानते हैं कि योग बहुआयामी विज्ञान है और इसका संबंध तन, मन, भावना के साथ ही आत्मा के विकास से भी है। योग की अनेक विधियां हैं, जो मानसिक शांति के लिए बड़े काम की हैं। पर ध्यान साधना की एक विधि के तौर पर अजपा जप योग एक ऐसी विधि है, जो सरल तो है। पर तन-मन पर उसका प्रभाव बहुआयामी है। पौराणिक ग्रंथों के अनेक प्रसंगों में इसकी महत्ता तो बतलाई ही गई है, आधुनिक विज्ञान भी इस बात की पुष्टि करता है।

बाल्मीकि रामायण के मुताबिक, लंका जलाने के बाद हनुमानजी का मन अशांत था। वे इस आशंका से घिर गए थे कि हो सकता है कि सीता माता को भी क्षति हुई होगी। उन्हें आत्मग्लानि हुई। तभी जंगल में उनकी नजर व्यक्ति पर गई, जो गहरी नींद में था। पर उसके मुख से राम राम की ध्वनि निकल रही थी। इसे कहते हैं स्वत: स्फूर्त चेतना। यही अजपा जप है। जब नामोच्चारण मुख से होता है तो वह जप होता हैं और जब हृदय से होता है तो वह अजपा होता है। अजपा का महत्व हनुमान जी तो जानते ही थे। उनके मुख से अचानक ही निकला – “हे प्रभु। इस व्यक्ति जैसा मेरा दिन कब आएगा?”  

गीता में कहा गया है कि नासिका प्रदेश में प्राण व अपान में समानता रखते हुए अंदर जाने वाली औऱ बाहर आने वाली श्वास को नासिका छिद्रों में समय एवं लंबाई की दृष्टि से संतुलित रखें। समय व लंबाई में समानता होनी चाहिए। बिहार योग के जनक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की अगुआई में योग रिसर्च फाउंडेशन ने अजपा पर देश-विदेश में काफी शोध किए। उसके आधार पर शोध-पत्र प्रकाशित किए गए थे। उसमें कहा गया है कि अजपा शरारीरिक व मानसिक तनाव तो दूर करने की कारगर यौगिक विधि तो ही है, यह रोगोपचार, चेतना के विस्तार और संस्कारों के प्रकटीकरण का सशक्त माध्यम भी हो सकता है। संतों का वर्षों-वर्षों का अनुभव है कि ध्यान जितना गहरा होता है, उसके लिहाज से भूत और भविष्य के रिकार्ड खुलते जाते हैं। इससे पूर्व जन्म की घटनाओं की स्मृतियां प्रकट होती हैं तो भविष्य की घटनाओं की झलक भी मिलती है। योगशास्त्र की इसी आधार पर मान्यता है कि मनुष्य भविष्य के संस्कारों का बीजारोपण भी स्वयं करता है।

विभिन्न रोगों में अजपा जप के प्रयोग के नतीजे बेहद शक्तिशाली साबित होते रहे हैं। यदि इसका अभ्यास योगनिद्रा और प्राणायाम के साथ हो तो कैंसर जैसी बीमारी में फायदा होता है। इस बात के कुछ प्रमाण भी हैं। केंद्रीय मंत्री श्रीपद यसो नायक का बंगलुरू स्थित स्वामी विवेकानंद योग अनुसंधान संस्थान इंस्टीच्यूट के दौरे के दौरान ऐसे मरीजों से साक्षात्कार हुआ, जिन्हें नियमित योगाभ्यास के जरिए कैंसर जैसी घातक बीमारी से निजात मिल गई थी। उन्होंने अपने भाषण में इस बात का उल्लेख किया था, जो अखबारों की सुर्खियां बनी। एक उदाहरण आस्ट्रेलिया का है। वहां के कैंसर शोध संस्थान के चिकित्सकों ने कैंसर के छह मरीजों को जबाव दे दिया था। उनका बचना संभव न था। कहते हैं न कि मरता क्या न करता। सो, उन लोगों ने योग का सहारा लिया। सत्यानंद योग पद्धति से उन्हें योगनिद्रा, प्राणायाम और अजपा जप का अभ्यास कराया गया। लगभग तीन महीनों में बेहतर स्वस्थ्य के लक्षण मिलने लगे थे और कुछ महीनों बाद बिल्कुल ही ठीक हो गए थे। इसके बाद चौदह वर्षों तक जीवित रहने के प्रमाण हैं।   

अजपा जप योग को लेकर विश्व के अनेक शोध संस्थानों में हुए शोधों के निष्कर्ष चौंकाने वाले हैं। उनके मुताबिक यह योग साधना अनिद्रा के शिकार मरीजों के लिए ट्रेंक्विलाइजर है तो हृदय रोगियों के लिए कोरेमिन। यदि सामान्य कारणों से सिर में दर्द है तो यह दर्द निवारक दवा का भी काम करता है। हिस्टीरिया और उच्च रक्तचाप के मरीजों पर इसका सकारात्मक प्रभाव है। पर सबसे चमकारिक असर है मोटापे की वजह से उत्पन्न बीमारियों के मामलों में है। अनुसंधानों से साबित हुआ कि अजपा जप योग मनुष्य के शरीर की चर्बी जला देता है। मनुष्य के शरीर की चर्बी जलने से जिन प्रमुख गंभीर बीमारियों से मुक्ति मिलती है, वे हृदय, किडनी, डायबिटीज, और ब्लड प्रेशर से संबंधित हैं।

अनुसंधानकर्त्ता इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि अजपा जप से अधिक मात्रा में प्राण-शक्ति आक्सीजन के जरिए शरीर में प्रवेश करती है। फिर वह सभी अंगों में प्रवाहित होती है। रक्त नाड़ियों में अधिक समय तक उसका ठहराव होता है। प्राण-शक्ति शरीर में ज्यादा होने से मनुष्य स्वस्थ्य और दीर्घायु होता है। वैसे तो प्राण-शक्ति हर आदमी के शरीर में प्रवाहित होती रहती है। पर जिसके शरीर में अधिक मात्रा में प्रवाहित होती है, वह स्वस्थ्य, प्रसन्न, शांत, सौम्य होते हैं। यदि कोई रोग लगा भी तो उसे ठीक होते देर नहीं लगती है।

कुछ बीमारियां ऐसी भी हैं, जिनका चिकित्सा शास्त्र में उपाय नहीं है। जैसे, मानसिक विकार यानी वैमनस्य, ईर्ष्या आदि। योग-निद्रा की तरह ही अजपा की क्रिया मनोकायिक है। अजपा जप मन को नियंत्रित करता है। विज्ञान की कसौटी पर साबित हो चुका है कि बीमारियों का कारण प्राय: मानसिक होता है। इसलिए योग विज्ञान दवाओं से पहले मन के उपचार पर बल देता है। अजपा जप शक्ति केंद्रों का भंडारगृह यानी सुषुम्ना नाड़ी में गर्मी पैदा करता है। इसके साथ ही बीमारियों पर वार शुरू हो जाता है।

इस तरह समझा जा सकता है कि बीमारियों के लिहाज से योग-निद्रा योग के बाद अजपा जप कितनी महत्वपूर्ण योग साधना है। स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे – “अजपा का अभ्यास ठीक ढंग से और पूरी तत्परता से किया जाए तो यह हो नहीं सकता कि रोग ठीक न हो। मात्र अजपा के अभ्यास से मनुष्य काल और मृत्यु को जीत सकता है। तात्पर्य यह कि कोई कोई काल से प्रभावित हुए बिना रह सकता है और चाहे तो इच्छा मृत्यु को प्राप्त कर सकता है।“   

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

इस वायरस की दवा वैक्सीन नहीं, योग है

कोरोनाकाल में सेक्स की लत बड़ी समस्या बनकर उभरी है। अपनी ऊर्जा का इस्तेमाल मौजूदा संकट को अवसर के रूप में तब्दील करने में करना था। पर ऊर्जा का अपव्यय हो गया। कंपल्सिव सेक्शुअल बिहेवियर यानी बाध्यकारी यौन व्यवहार चिंता का विषय बन गया। रामचरित मानस में एक प्रसंग है, लक्ष्मण जी कहते हैं – काहु न कोउ सुख -दु:ख कर दाता, निज कृत करम भोग सबु भ्राता यानी कोई किसी को सुख-दुःख का देने वाला नहीं है। सब अपने ही किए हुए कर्मों का फल भोगते हैं। आधुनिक मनोवैज्ञानिक भी संचित कर्मों के फल मिलने की बात प्रकारांतर से स्वीकार करते हैं। पर साथ ही कहते हैं कि हमारे कर्मों के कारण जो सुख-दु:ख निर्मित होता है, मौजूदा जीवन में उसका असर कितना होगा, यह इस बात पर निर्भर होता है कि हम किसी भी समस्या का समाधान कितनी तत्परता से और कितने सूझ-बूझ के साथ करते हैं। हम सब दैनिक जीवन में ऐसा महसूस भी करते हैं। पर हमारे दिमाग में यदि कोई ऐसा वायरस है, जो सोचने-समझने की शक्ति खत्म कर देता है तो विश्वव्यापी संकट का कुप्रभाव ज्यादा गहरा होने से कौन रोक सकता है?  

सिद्धासन, सिद्धयोनि आसान और मूलबंध। इन यौगिक क्रियाओं की बात आते ही ऐसा लगता है मानो आध्यात्मिक जागरण की बात शुरू होने वाली है। पर नहीं, इस बार आध्यात्मिक जागरण की बात हाशिए पर है। बात एक ऐसी महामारी की होनी है, जो कोरोना से कम खतरनाक नहीं है। फर्क इतना कि कोरोना वायरस का खौफ है। पर इस वायरस से लोगों को प्रेम हो गया है। यह है सेक्स अडिक्शन यानी सेक्स की लत। जी हां, आपने सही सुना। पूरे लॉकडाउन के दौरान ज्यादातर लोगों ने घरों में दुबक कर कोरोना वायरस से अपना बचाव करने का तो भरपूर इंतजाम किया। पर इस वायरस से मन-मंदिर को बीमार होने दिया। ज्यादातर मामलों में इसकी परिणति कंपल्सिव सेक्शुअल बिहेवियर के रूप में हुई। हालात ऐसे बने हैं कि विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) को भी इसकी चिंता करनी पड़ गई है।

जानकर हैरानी होगी कि भारत लॉकडाउन के दौरान अश्लील वेबसाइट्स के ट्राफिक के मामले में अमेरिका और इंग्लैंड के बाद तीसरे स्थान पर था। सरकार ने साढ़े तीन हजार अश्लील बेवसाइट्स को प्रतिबंधित कर दिया। बावजूद भारत कनाडा को पछाड़कर तीसरे पायदान पर पहुंच गया। महिलाओ ने भी इस मामले में पिछले तमाम रिकार्ड तोड़ दिए। उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक अश्लील वेबसाइट्स पर जाने वालों में तीस फीसदी महिलाएं थीं। चिंताजनक बात यह कि बच्चों की भी ऐसी वेबसाइट्स तक पहुंच बनी। संकट काल में शरीर की ऊर्जा का उपयोग सकारात्मक कार्यों के लिए करना था। पर दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हो सका। महर्षि पतंजलि ने कहा है – योगश्चित्तवृत्ति निरोध: यानी चित्त वृत्तियों का निरोध ही योग है। कोरोना संकट आया और मानसिक रोगियों की संख्या बढ़ने लगी तो योगाचार्यों ने ध्यान साधना पर काफी जोर दिया। ताकि चित्त वृत्तियों का निरोध हो सके। मन-मंदिर को विश्रांत किया जा सके। तब किसी ने सोचा भी न था कि दूसरी तरह का मनसिक रोग भी खतरनाक रूप लेगा।

इस वायरस का इलाज योग से ही संभव है। पुरूषों के लिए सिद्धासन, महिलाओं के लिए सिद्धयोनि आसान और सबके लिए मूलबंध असरदार साबित होंगे। पहले आमतौर पर इन यौगिक क्रियाओं को केवल और केवल ब्रह्मचर्य धारण करने वालों, आध्यात्मिक साधकों के लिए ही उपयुक्त माना जाता था। कैवल्यधाम, लोनावाला के संस्थापक स्वामी कुवल्यानंद और बिहार योग विद्याल के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सररस्वती ने सिद्धासन, सिद्धयोनि आसन को लेकर भ्रांतियां दूर की। इसके साथ ही स्वामी सत्यानंद सररस्वती ने मूलबंध पर विस्तृत शोध करके पुस्तक लिखी तो योग विद्या मानो फिर से परिभाषित हो गई। देश-विदेश में अनेक शोध किए गए तो गृहस्थों के लिए भी इनकी उपयोगिता साबित हुई।

स्वामी कुवल्यानंद की योगासन पर लिखी गई एक पुस्तक में सिद्धासन को लेकर उनकी अवधारणा की बड़ी स्पष्टता के साथ व्याख्या है। एक बात बता दूं कि स्वामी कुवल्यानंद बड़े वैज्ञानिक योगी थे और अपने शरीर को प्रयोगशाला की तरह उपयोग में लाया करते थे। उनकी बातें विज्ञान की कसौटी पर कसी हुई होती हैं। खैर, उन्होनें अपनी पुस्तक में कहा है – “योग संबंधी कुछ देशी पुस्तकों में उल्लेख है कि सिद्धासन या सिद्धयोनि आसन से काम-शक्ति पर अहितकर प्रभाव पड़ता है। पर मेरी नजर में ऐसा एक भी मामला नहीं आया। हां, यह जरूर है कि योग्य योगाचार्य से मार्ग-दर्शन लेकर ही अधिकतम एक घंटे तक इन आसनों का अभ्यास किया जाना चाहिए।“ 

पहले मूलबंध के फायदे समझते हैं। स्वामी सत्यानंद सरस्वती की पुस्तक “मूलबंध-द मास्टर की” के मुताबिक मूलबंध अन्य योग-क्रियाओं की तरह केवल एक क्रिया मात्र नहीं है। कुंडलिनी जागरण में इसका बड़ा महत्व है। यह शरीर और मन को विश्रांत करने की शक्तिशाली विधि है। तभी सिजोफ्रेनिया के मरीजों को भी काफी लाभ मिलता है। यदि शरीर स्वस्थ है तो परानुकंपी व तंत्रिका-तंत्र की क्रियाशीलता बढती है। साथ ही श्वसन गति, हृदय गति और रक्तचाप नियंत्रित होता है। ऐसा अल्फा, बीटा, थीटा जैसे मानसिक तरंगों के स्थिर हो जाने के कारण होता है। यौन समस्याओं के समाधान और स्वस्थ यौन संबंधों को बनाए रखने व उनके संपोषण में अहम् भूमिका को कई स्तरों पर परखा जा चुका है। टेस्टोस्टेरोन स्राव व शुक्र निर्माण नियंत्रित होने से कमोत्तेजना शांत होती है। महिलाओं की रजोनिवृत्ति के बाद की समस्याओं का समाधान भी होता है।

बिहार योग विद्यालय के निवृत परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने घेरंड संहिता के अपने भाष्य में मूलबंध की चर्चा करते हुए उसका नाड़ियों पर प्रभाव का विश्लेषण कुछ इस तरह किया है – प्राचीन काल की यह गुप्त विद्या इतनी शक्तिशाली है कि इससे वृद्धावस्था नष्ट होती है। यानी वृद्धावस्था को अधिक समय तक टालना संभव हो पाता है। यदि मूलाधार चक्र को मेरूदंड के निचले भाग में स्थित मानें तो मस्तिष्क के भीतर भी एक ऐसा केंद्र होता है जो मूलाधार के स्पंदन से प्रभावित होकर जाग्रत होता है। नाड़ियों से होकर संवेदना मस्तिष्क तक जाती है औऱ मस्तिष्क के उसी क्षेत्र को जाग्रत करती है, जिसका संबंध मूलाधार से है। इसी काऱण शरीर के निचले भाग में अपान वायु के प्रवाह की दिशा भी बदल जाती है। प्राण-शक्ति का संरक्षण होता है और लंबी आयु मिलती है। मूलबंध से ऐसी शक्ति मिलती है कि इससे चाहे तो पूरी तरह ब्रह्मचर्य का पालन कर सकते हैं और चाहें तो भौतिक संबंध बना सकते हैं। यानी इस मामले में सब कुछ अपने नियंत्रण में और इंद्रियों के दास बने रहने से मुक्ति।

अब सिद्धासन और सिद्धयोनि आसनों की बात। आधुनिक योग की आयंगार शैली के जनक बीकेएस आयंगार ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “लाइन ऑन योगा” में 84 लाख आसनों में सिद्धासन को महत्वपूर्ण माना है। अय्यंगार के मुताबिक, “ सिद्ध के समान आसन नहीं, केवल के समान कुंभक नहीं, खेचड़ी के समान मुद्रा नहीं और नाद के समान लय (मन की लयता) नहीं।“ योग के अनेक ग्रंथों में इस बात का उल्लेख है कि प्राचीनकाल में भी जितने भी सिद्ध योगी हुए, प्राय: सिद्धासन में बैठकर ही साधना किया करते थे। जापान में इस आसन की लोकप्रियता इतनी हुई है कि उसके आधार पर दारूमा डॉल्स बनाए जाने लगे। उस खिलौने की खासियत है कि उसे चाहे जिस तरह भी रख दें, सिद्धासन की मुद्रा में बैठ जाएगा। ऐसा उसमें भरे गए पारे के कारण होता है। अब तो हृदय रोग के अनेक चिकित्सक हृदय कार्यों में स्थिरता लाने के लिए सिद्धासन करने की सलाह देने लगे हैंं।

हम जानते हैं कि गुरूत्वाकर्षण के कारण पृथ्वी प्राण-शक्ति को नीचे की तरफ खींचती है। पर मेरूदंड, रीढ़ औऱ मस्तिष्क एक सीध में रहे और मूलबंध व प्राणायाम के कारण प्राण-शक्ति ऊर्ध्वगामी हो जाती है। शरीर के दो छोर हैं – नीचे है मूलाधार। इसे काम-केंद्र कह सकते हैं और ऊपर है सहस्रार। योगशास्त्र में कहा गया है कि जानवरों के लिए मूलाधार चक्र श्रेष्ठ होता है। पर मानव के लिए यह सबसे निचला पायदान है। ज्यादातर लोगों के जीवन पर इस चक्र का खासा प्रभाव होता है। लिहाजा, बिना किसी प्रयास के काम-शक्ति उपलब्ध होती है। प्राण-शक्ति का ह्रास होते रहता है। योग साधना करके ही शक्ति संचय हो पाता है। इसलिए योग प्राणिक ऊर्जा को ऊर्ध्वगामी बनाने की बात करता है। जब सिद्धासन में शरीर पर गुरूत्वाकर्षण का प्रभाव कम होता है तो इस प्रयास में सफलता मिलने लगती है।        

वैज्ञानिकों ने सिद्धासन के अभ्यासियों का अध्ययन किया तो पाया कि उनके शरीर से ऊर्जा का ह्रास बहुत ही कम हो रहा था। ऊर्जा का ज्यादा भाग शरीर में ही संरक्षित हो रहा था। ऐसा इसलिए भी कि इस साधना से स्वत: मूलबंध लग रहा था। सिद्धयोनि आसन के लाभ भी सिद्धासन जैसे ही दिखे।आमतौर पर योगासनों के दौरान गुरूत्वाकर्षण के कारण शरीर से काफी मात्रा में ऊर्जा का ह्रास होता है। सिद्धासन में बैठे लोगों में मामले में पाया गया कि ऊर्जा शरीर के भीतर एक वार्तुल में घूमती रहती थी। वर्तुल पूरा होते ही यह चक्राकार घूमने लगती थी।

योग विज्ञानियों के मुताबिक, ऊर्जा ऊपर की तरफ उठने से स्वाभाविक रूप से कामवासना को लेकर मन में विचार उठने बंद होते हैं। मन-मस्तिष्क उच्चतम स्तर पर काम करने लगता है। चूंकि शरीर के सभी चक्र स्वतंत्र रूप से काम करते हैं। इसलिए मूलबंध का भी परिणाम देने वाले सिद्धासन में बैठकर प्राणायाम किया जए तो मूलाधार चक्र का जागरण होने की संभावना बढ़ जाती है, जिसका असर सहस्रास चक्र तक होता है, जिसे परम चेतना का स्थान माना जाता है। इन तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि केवल सिद्धासन की साधना भी इस तरह की जाए कि मूलबंध लग जाए तो सेक्स अडिक्शन और कंपल्सिव सेक्शुअल बिहेवियर से मुक्ति मिल जाएगी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

विज्ञान के लिए चुनौती है ब्रह्मर्षि कृष्णदत्त की सूक्ष्म शक्तियां

ब्रह्मर्षि कृष्णदत्त महाराज कई मायनों में अनूढे थे। शवासन की अवस्था में भौतिक रूप से समाज के बीच होते हुए भी चेतना के स्तर पर किसी और लोक में चले जाते थे। तब ऐसा लगता मानों वे कोई बड़े ऋषि हैं, जो तपस्वियों को संबोधित कर रहे हैं। वे प्राचीन काल के ऋषियों जैसी शास्त्रसम्मत बातें करते थे। कठिन यौगिक साधनाओं की बात करते और अपने एक खास शिष्य महानंद के सवालों का जबाव भी देतें। हैरतंगेज बात यह कि महानंद की आवाज भी महाराज के मुख से ही निकलती थी। दोनों की आवाज अलग-अलग होने से आसानी से पहचान हो जाती थी। तुरीयावस्था कितनी देर बनी रहेगी, यह निश्चित नहीं होता था। पर इस अवस्था से बाहर होते ही अति सामान्य व्यक्ति होते थे, जिन्हें न लिखना आता था, न पढ़ना। वे अब इस दुनिया में नहीं हैं। पर विज्ञान के लिए चुनौती बने हुए हैं। मानव चेतना पर बड़े स्तरों पर वैज्ञानिक शोध हुए हैं। पर ब्रह्मर्षि कृष्णदत्त की विशिष्ट अतीन्द्रिय शक्तियां अब भी रहस्यमय ही हैं।    

योगबल की बदौलत आत्म-दर्शन होने से मनुष्य में देवत्व का उदय होना असाधारण बात तो है, पर दुर्लभ नहीं। पुनर्जन्म, परकाया प्रवेश और एक ही काया को कई स्थानों पर उपस्थित कर देने के भी उदाहरण हैं। अक्षर ज्ञान न होते हुए भी शास्त्रों का ज्ञान होने के उदाहरण तो भरे पड़े हैं। योग की बदौलत मिलने वाली इन शक्तियों का वैज्ञानिक आधार प्रस्तुत किया जाता रहा है। परं पिछले कई युगों के ऋषियों जैसे ज्ञान के साथ शरीर धारण करना, तुरीयावस्था में वह ज्ञान प्रकट करना और दो लोगों के बीच का संवाद एक ही मुख से उच्चारित होना इस युग के लिए दुर्लभ बात है। गाजियाबाद जिले के एक गांव में अति सामान्य परिवार मे जन्मे ब्रह्मर्षि कृष्णदत्त जी ऐसे ही दुर्लभ संयोग की देन थे। 

कृष्णदत्त जी बेपढ़ थे। यौगिक साधनाओं से दूर-दूर का वास्ता न था। पर शवासन में होते ही कई युगों में मौजूद रहे देवतुल्य ऋषियों जैसी बातें करने लगते थे। वेद और उपनिषद की बातें, शुद्ध संस्कृत शब्दों के उच्चारण के साथ धाराप्रवाह बोलते जाते थे। योग के शास्त्रीय पक्षों पर खूब बोलते थे। यौगिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण शरीर के चक्रों की वैज्ञानिक बातें करते थे। पर शवासन से उठते ही एक ऐसा व्यक्ति होते थे, जिसका शास्त्रीय ज्ञान से दूर-दूर का नाता न होता था। अनेक विश्लेषणों के आधार पर माना गया कि वे जागृत चक्रों के साथ पूर्व जन्मों के ऋषियों वाले वैदिक ज्ञान के साथ जन्मे थे।

शवासन में जब उनकी अतीन्द्रिय शक्तियां (साइकिक पावर्स) जागृत होती थीं तो ऐसा लगता था कि वे इस लोक में नहीं हैं। वे कभी सत्ययुग की तो कभी त्रेतायुग तो कभी द्वापर युग की बात करने लगते। कलियुग की प्राचीन बातें भी करते थे। कई बार उनकी आवाज और बोलने का अंदाज बदल जाता था। विश्लेषण से पता चला कि वे जब महानंद नाम के अपने किसी शिष्य के साथ वार्तालाप कर रहे होते थे तब ऐसी स्थिति बनती थी। यानी गुरू-शिष्य की आवाज एक ही भौतिक शरीर से निकलती थी। उनका मुख उस स्पीकर की तरह हो जाता था, जिससे जुड़ी माइक में जो भी बोलता है, उसकी आवाज सुनाई देती है।

ब्रह्मर्षि कृष्णदत्त जी अवचेतन मन से नाता जुड़ते ही ऐसे बोलने लगतें मानों वे नहीं, किसी ऋषि की आत्मा बोल रही हो। एक बार अचानक बोल पड़े – “पूज्यपाद गुरुदेव ने कहा जाओ, लघु मस्तिष्क में प्रवेश कर जाओ। मैने बारह वर्षों तक अनुष्ठान करके लघु मस्तिष्क को दृष्टिपात किया तो ब्रह्माण्ड, लोक-लोकान्तर वाली प्रतिभाएं मेरे समीप आने लगी। इसके पश्चात् पूज्यपाद के चरणों में विद्यमान हो गया। मैंने कहा कि प्रभु! मैं लघु मस्तिष्क मे चला गया हूँ। मैं लघु मस्तिष्क में सूर्यों की गणना करता रहा, लघु मस्तिष्क में पृथ्वियों की गणना करता रहा, सौर मण्डलों में प्रवेश कर गया। हे प्रभु! मैं अनन्तमयी ब्रह्माण्ड में प्रवेश कर गया। हे प्रभु! मैं विचित्र-सा अनुभव करने लगा हूं। मुझे और मार्ग में प्रवेश कराइए।….”

कृष्णदत्त जी के ज्यादातर प्रवचनों की वॉयस रिकार्डिंग की जा चुकी है। शवासन अवस्था वाले कृष्णदत्त जी महाराज शांत स्वभाव वाले ज्ञानी ऋषि की तरह होते थे। वहीं उनका शिष्य महानंद बेहद आक्रामक होता था। ऐसा लगता था कि महानंद की आत्मा कलियुग के किसी काल-खंड की यादों के साथ उपस्थित होती थी, जिसे समाज की विकृतियां बेचैन रखती थीं। तभी कृष्णदत्त जी जब किसी अन्य युगों की बात कर रहे होते थे तो वह दखल देता और कहता, गुरूदेव, आपकी बात कोई नहीं समझेगा, आप इस युग के लिहाज से बोलिए। एक और चौंकाने वाली बात यह कि कृष्णदत्तजी जब मुनिवरो शब्द का प्रयोग करते हुए संबोधन शुरू करते तो ऐसा लगता था कि वे अन्य युगों के मुनियों के बीच प्रवचन कर रहे हैं। इसके साथ ही वे कभी महाभारतकालीन घटनाओं का आंखो देखा हाल बयां करने लगते तो कभी राजा दशरथ के लिए श्रृंगी ऋषि के पुत्रेष्टि यज्ञ का। योग की शक्तियों का बखान तो अक्सर करते थे।

धरती पर ऐसे संतों की कमी नहीं रही, जिन्हें अक्षर ज्ञान तो नहीं था। पर वे शास्त्रसम्मत बातें, विज्ञानसम्मत बातें करते थे। कबीर पर तो न जाने कितने ही शोध होते रहते हैं। पर उसी कबीर ने अपने बारे में कहा था – “मसि कागद छुयो नहीं, कलम गह्यी नहीं हाथ।“ इतनी पुरानी बात छोड़ भी दें तो चित्रकूट की धरती एक संत थे। नाम था परमहंस परमानंद। प्रसिद्ध थे। लेकिन एक बार उनके हस्ताक्षर की जरूरत पड़ी तो अजीब संकट खड़ा हो गया। इसलिए कि अक्षर ज्ञान बिल्कुल नहीं था। शिष्यों को नाम लिखने का अभ्यास कराना पड़ा था। पर सन् 1969 में शरीर त्यागने से पहले धर्म की रूढ़ीवादी प्रथाओं पर चोट करते रहे और अपनी अलौकिक शक्तियों से जन-कल्याण करते रहे। वेदों और उपनिषदों के वैज्ञानिक व व्यवहारिक ज्ञान की बाते करते थे।

पुनर्जन्म होता है, इसके भी कई उदाहरण हैं। धनबाद में कोयला खदान मालिक की पत्नी को तीन जन्मों की बातें याद थीं। इससे उनका जीवन आशांत होता जा रहा था। बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की शरण में जाने के बाद राहत मिली थी। स्वामी सत्यानंद जी की पुस्तकों में इस बात का उल्लेख है। पूर्व जन्म की बात गीता में भी है। श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, “हे अर्जुन! तेरे औऱ मेरे बहुत से जन्म बीत चुके हैं। तू नहीं जानता, मैं जानता हूं….।” शरीर से ऊर्जा और चेतना को पृथक करके महीनों बाद उसे संयुक्त करने के भी उदाहरण हैं। इस संदर्भ में राजा रणजीत सिंह के दरबार के साधु हरीदास का नाम उल्लेखनीय है। फ्रांस और यूरोप के चिकित्सकों ने साधु हरीदास की इस शक्ति का चिकित्सीय परीक्षण किया था और पाया कि मृत शरीर कई महीनों बाद जीवित हो उठता था। परमहंस योगानंद ने विदेशी चिकित्सकों की फाइलों तक पहुंच बनाकर उन्हें सार्वजनिक किया था। संतों के सूक्ष्म रूप से एक ही साथ एक ही समय में दो विपरीत दिशाओं वाले स्थानों पर उपस्थिति के भी उदाहरण हैं। ऋषिकेश में दिव्य जीवन संघ के संस्थापक स्वामी शिवानंद सरस्वती से जुड़े ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं। अमेरिका के टेड सीरियो की अतीन्द्रिय शक्ति ऐसी थी कि उसकी आंखें हजारो मील दूर की तस्वीरें लेने में सक्षम थी।         

परमहंस योगानंद कहा करते थे कि महान संत मृत्युलोक में कुछ अधूरा कार्य छोड़ जाते हैं तो उन्हें दोबारा जन्म लेना होता है। शास्त्रों के मुताबिक कुछ ऋषि किसी श्राप के कारण भी मृत्युलोक मे जन्म लेते हैं, कर्मफल भुगतने के लिए। जो ऋषि मृत्युलोक में भौतिक शरीर धारण करते हैं उनके तुरीयावस्था में चले जाने का उल्लेख भी योगशास्त्र की पुस्तकों में मिलता है। उसके मुताबिक तुरीयावस्था के अनुभव देवलोक के अनुभव माने जाते हैं। जैसे, अमुक ऋषि स्वर्गलोक पहुंच गए, वहां विष्णुजी से उनका साक्षात्कार हुआ, फिर लक्ष्मीजी या शिवजी से साक्षात्कार हुआ आदि आदि। कृष्णदत्त जी भी अक्सर ऐसी ही बातें किया करते थे।

ब्रह्मर्षि कृष्णदत्त जी अब शरीर त्याग चुके हैं। उनके अनुयायी उन्हें श्रृंगी ऋषि का अवतार मानते हुए उनके संदेशों को प्रसाद स्वरूप ग्रहण करते रहते हैं। श्रृंगी ऋषि वेद विज्ञान प्रतिष्ठान कृष्णदत्त जी महाराज की रिकार्ड की गई बातों को पुस्तकाकार देकर उनके संदेशों को प्रचारित करता है। डॉ कृष्णावतार और उनके सहयोगी पूरी तल्लीनता से इस काम को आगे बढ़ा रहे हैं। पर कृष्णदत्त जी महाराज की विशिष्ट अतीन्द्रिय शक्ति को आधुनिक विज्ञान के लिहाज से सही-सही परिभाषित किया जाना बाकी है। मानव चेतना पर बड़े स्तरों पर वैज्ञानिक शोध हुए हैं। सेरीब्रल कार्टेक्स और थैलेमस के साथ उसकी कार्य-प्रणाली पर हुए शोधों से चेतना की कई परतें खुली हैं। सेक्रल प्लेक्सस तंत्रिका तंतुओं यानी नर्वस सिस्टम का नेटवर्क होता है, जो शरीर के निचले अंगों पेल्विस और लोअर लिंब को त्वचा और मांसपेशियों की आपूर्ति करता है। सेरीब्रल कार्टेक्स और थैलेमस का एक दूसरे सें गहरा नाता है। अध्ययनों से संकेत मिला है कि चेतना की उपस्थिति और इससे जुड़े अन्य मामलों में थैलेमस की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। अब तक मानव चेतना के विस्तार संबंधी जो सूत्र मिल रहे हैं, उनको ध्यान में रखते हुए लगता है कि भविष्य में चेतना के किसी खास स्तर पर कृष्णदत्त जी की खास अवस्था प्राप्त कर लेने के रहस्यों का भेद मिल ही जाएगा।

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वैसे, कुछ घटनाओं और शरीर के चक्रो की यौगिक विवेचना से प्रतीत होता है कि शरीर की सूक्ष्म ऊर्जा के खास तरीके से प्रवाहित होने से कृष्णदत्त जी की चेतना पूर्व जन्मों की चेतना के साथ समस्वरित हो जाती रही होगी। योगशास्त्र के मुताबिक, शरीर के मुख्य सात चक्रों में स्वाधिष्ठान चक्र का एक गुण वीडियो कैमरे की तरह होता है, जो जन्म-जन्मांतर की बातों को संग्रहित करके रखता है। गणित के विद्वान श्रीनिवास रामानुजन के बारे में कौन नहीं जानता। उनसे पूछा गया कि सवाल करो नहीं कि जबाव जाहिर। यह चमत्कार कैसे होता है? उनका उत्तर था – “मैं नहीं जानता। तुम मुझसे प्रश्न करते हो तो कहीं नीचे से उत्तर आता है, सिर से नहीं।” उनके इस उत्तर से भी स्वाधिष्ठान चक्र का ही संकेत मिलता है। स्वाधिष्ठान चक्र का स्थान शरीर में रीढ़ की हड्डी के सबसे निचले छोड़ पर स्थित है। इसका संबंध सेक्रल प्लेक्सस से है, जो अचेतन मन को नियंत्रित करता है।

आज्ञा चक्र को शिव का नेत्र या तीसरी आंख भी कहा जाता है। यह अतीन्द्रिय अनुभूतियों का स्थान है, जहां व्यक्ति में उसके संस्कार और मानसिक प्रवृत्तियों के अनुसार अनेकानेक सिद्धियां प्रकट होती हैं। दरअसल, यह चक्र मुख्य रूप से मन का चक्र है, जो चेतना की उच्च अवस्था का प्रतिनिधित्व करता है। इसके जागृत होने से स्वाधिस्थान चक्र की संग्रहित बातों को प्रकट करना संभव हो पाता है। यह चक्र रीढ़ की हड्डी के ऊपर और भ्रूमध्य के ठीक पीछे होता है। इसका संबंध पीनियल ग्रंथि से है। इसका एक अन्य महत्वपूर्ण काम शरीर की पेशियों और काम-प्रवृत्ति को नियंत्रित करना भी है। योग साधाना में इसका बड़ा महत्व है। इतिहास गवाह है कि अनेक संत जागृत चक्रों के साथ जन्मे। पर ब्रह्मर्षि कृष्णदत्त जी का मामला केवल चक्रों के जागरण तक सीमित नहीं है। कई गूढ़ बातें और भी हैं, जिन्हें विज्ञान की कसौटी पर परिभाषित किया जाना बाकी है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

शक्ति इतनी कि जीवन में चार चांद लगा दे यह प्राणायाम

इस कॉलम में बात शुरू हुई थी प्रतिभा के विकास के लिए उपनयन संस्कार के यौगिक आयामो की महत्ता को लेकर और उस कड़ी में यह तीसरा आलेख है – यह बताने के लिए कि आज्ञा चक्र, जिसका पीनियल और पिट्यूटरी ग्रन्थियों से अन्योन्याश्रय संबंध है, बच्चों में मामूली रूप से भी उदीप्त रहे तो मस्तिष्क ज्यादा क्रियाशील रहेगा और प्रतिभा का विकास बेहतर तरीके से हो सकेगा। तब केवल डिग्रियां हासिल करने तक बात सीमित नहीं रहेगी। जीवन को सृजनात्मक तरीके से जीने की राह बन सकती है। योग विज्ञानी कहते हैं कि योगमय जीवन की शुरूआत आठ साल की उम्र से होनी चाहिए। अब तक हुए शोधों से भी इस बात की पुष्टि होती है। सच है कि यदि हम बेहतर राष्ट्र का निर्माण चाहते हैं तो इस दिशा में कदम बढ़ाना ही होगा। योग बच्चों के लिए बड़े महत्व का है।  

बच्चों के उपनयन संस्कार के समय सूर्य नमस्कार, नाड़ी शोधन प्राणायाम और गायत्री मंत्र के जप की शिक्षा देने की परंपरा रही है। बीते अंक में सूर्य नमस्कार की बात हुई थी। इस बार नाड़ी शोधन प्राणायाम की बात। पर इसके पहले आज्ञा चक्र के उदीप्त होने से मिलने वाली अतीन्द्रिय शक्तियों के चमत्कारों की बात। थिओडोर “टेड” जुड सीरियोस अमेरिका में एक साधारण व्यक्ति था। पर उसकी अतीन्द्रिय शक्तियां असाधारण थीं। सन् 2006 में परलोक सिधारने से पहले कोई चार दशकों तक अपनी अतीन्द्रिय शक्तियों की बदौलत ऐसे-ऐसे काम किए कि अमेरिका और यूरोप के वैज्ञानिकों के लिए चुनौती बन गया था। उसे केंद्र में रखकर योग की शक्ति और शारीरिक संरचना में सूक्ष्म व भौतिक अस्तित्वविहीन चक्रों के चमत्कारिक प्रभावों पर कई फिल्में बनीं। “द अमेजिंग वर्ल्ड ऑफ साइकिक फेनोमेना” नामक कोई नब्बे मिनटों की एक डक्यूमेंट्री भी काफी लोकप्रिय हुई, जो टेड के जीवन पर आधारित है।

मजेदार यह कि टेड सेरियोस न तो वैज्ञानिक था औऱ न ही आध्यात्मिक। सामान्य व्यक्ति था। उसे न तो पीनियल ग्रंथि का ज्ञान था न ही आज्ञा चक्र का। अतीन्द्रिय शक्तियों यानी साइकिक पावर्स के बारे में पढ़ा भर था। प्राचीन काल के वैज्ञानिक संतों की माने तो बिना यौगिक क्रियाओं के भी कई लोगों की कुंडलिनी जागृत होती है। पूर्व जन्म के संचित संस्कार के उभर आने से ऐसा होता है। टेड सेरियोस के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था। वह हजारो मील दूर की घटनाओं को न केवल देख-सुन सकता था, बल्कि उसकी आंखें कैमरे की तरह उस घटना को कैद करने में सक्षम थीं। आंख की उन तस्वीरों को कैमरे में ट्रांसफर करके उसका प्रिंट लिया जा सकता था। वह हजारो किलोमीटर दूर के भी जिस किसी वस्तु का ध्यान करता था, उसका प्रतिबिंब उसकी आंखों में बन जाता था। यह न तो सम्मोहन का कमाल होता था और न ही फोटोग्राफी की कोई ट्रिक।

अमेरिका में मनोविज्ञान तथा अति मानवीय चेतना संबंधी शोध करने वाली संस्था इलिनाइस सोसायटी फॉर साइकिक रिसर्च की उपाध्यक्ष पालिन ओहलर और वैज्ञानिकों, फोटोग्राफरों व बुद्धिजीवियों की उपस्थिति में टेड सेरियोस ने ऐसे कई कारनामे कर दिखाए तो तहलका मच गया। इस घटना से एक साल पहले यानी सन् 1962 में टेड सेरियोस को भारतवर्ष का नक्शा देखने को मिला था। उसे उस नक्शे के आधार पर कुछ प्रसिद्ध स्थानों के कल्पनिक चित्र उतारने को कहा गया। टेड सेरियोस ने फटाफट दो चित्र बना डाले। उनके बारे में तहकीकात की गई तो पता चला कि वे फतेहपुर सीकरी की मस्जिद के मुख्य द्वार और दिल्ली के लाल किले के दीवाने-ए-आम के मानसिक चित्र थे। श्रीमद्भगवतगीता में संजय की दिव्य-दृष्टि के बारे में तो हम सब जानते ही हैं। वह तो सैकड़ों किलो मीटर दूर बैठकर कुरूक्षेत्र के युद्ध का आंखो देखा हाल ऐसा बयां करते जा रहा था मानों उसकी आंखों के सामने क्लोज सर्किट टीवी लगा हो। यह बात कई लोगों को कपोल-कल्पना लग सकती है। पर ऐसे ही अनेक उदाहरण हैं, जो इस युग में घटित हुए।

इतिहास के पन्ने ऐसे उदाहरणों से भरे पड़े हैं, जिनकी शिक्षा-दीक्षा कुछ खास नहीं थी। पर अतीन्द्रिय शक्तियां ऐसी थी कि उनके सामने बड़े-बड़े ज्ञानी भी पानी भरते थे। अमेरिका का विलियम पॉवेल लीयर पढ़ा-लिखा कुछ खास नहीं था। उसने अपना जीवन चतुर्थवर्गीय कर्मचारी के तौर पर शुरू किया था। पर वह अपने दफ्तर में लोगों को बड़ी-बड़ी योजनाओं पर बात करते सुनता तो उसे ऐसा लगता था कि मानो इसके बारे में वह पहले भी सुन रखा है। उसने अवचेतन मन की बातें योग के जरिए चेतन तल पर लाने की ठानी। नतीजतन, उसका जीवन बदल गया। उसने बैटरी एलिमिनेटर का भी आविष्कार किया। 8-ट्रैक कारतूस और एक ऑडियो टेप सिस्टम विकसित किया। बाद में जेट बनाने लगा। उसकी इन उपलब्धियों से अवाक् “लॉस एंजलिस टाइम्स” के प्रथम संपादक डिग्बी डायल, जिनकी सन् 2017 में मृत्यु हो गई, ने विलियम पॉवेल लीयर का इंटरव्यू किया तो अमेरिका में तहलका मच गया। उसने बताया कि अतीन्द्रिय शक्ति जागृत होने के बाद उसे दिशा मिलने लगी और क्षमता का विकास हुआ। यही उसकी सफलता का राज है। 

मन पर हो रहे अध्ययनों से साबित हुआ है कि वह एक ऐंटेना या रेडियो के समान है, जो समस्वरित होता है तो अचानक किसी ऐसे केंद्र से जुड़ जाता है, जहां की बातें मानस पटल पर आ जाती हैं। जब तरंग संयोजक क्षीण होता है तो उस केंद्र से संपर्क करना मुश्किल होता है। आत्मा या अतीन्द्रिय भौतिक चीज नहीं, जिसे देखा जा सके। इसका स्वरूप अनुभव ही होता है। अनेक देशों की सेना आधुनिक संचार माध्यमों का उपयोग किए बिना विचारों के संप्रेषण की संभावनाओं पर काम कर रही है। नासा अंतरिक्ष में भेजे गए वैज्ञानिकों से विचारों के संप्रेषण के जरिए संबंध बनाने, यहां तक कि उनकी चिकित्सा करने तक की संभावनाओं पर काम कर रहा है। इस काम में पांच सौ वैज्ञानिकों के दल में बिहार योग विद्यालय के निवृत्त परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती भी शामिल हैं।

सोवियत संघ की सेना ने अतीन्द्रिय शक्तियों का प्रभाव जानने के लिए सबसे पहले मादा खरगोश पर प्रयोग किया था। एक मादा खरगोश को रिसर्च सेंटर में रखा गया। उसके माथे पर इलेक्ट्रोड्स लगा दिए गए। ताकि उसके मानसिक तरंगों की मानिटरिंग की जा सके। उसके आठ बच्चों को समुद्री मार्ग से सैकड़ो किलोमीटर दूर ले जाया गया। वहां उस पर जैसे ही वार किया गया, रिसर्च सेंटर में रखी गई खरगोश विचलित हो उठी। उसके मस्तिष्क पर तीब्र आवृत्ति वाली तरंगे उत्पन्न होने लगीं। इससे साबित हुआ कि जानवरों में भी भावनात्मक संबंध होता है। मानव पर अतीन्द्रिय शक्ति का असर तो अक्सर देखने को मिलता है। कोई बच्चा दूर देश में गंभीर रूप से बीमार होता है और इधर उसकी मां की अतीन्द्रिय शक्ति उस समय मामूली रूप से भी सक्रिय होती है तो उसके मन में तरंग उठता है और किसी अनिष्ट की आशंका से मन विचलित हो उठता है।

दरअसल, शरीर की मुख्य तीन नाड़ियों इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना का मिलन आज्ञा चक्र में होता है। योगियों का मानना है कि पीनियल ग्रंथि का आज्ञा चक्र से निकट संबंध है। यह अंतर्ज्ञान के क्षेत्र है। इसलिए आज्ञा चक्र को जागृत करने के किसी भी उपाय से पीनियल ग्रंथि भी प्रभावित होता है। विज्ञान साबित कर चुका है कि आमतौर पर मस्तिष्क के दस में से एक भाग ही सही तरीके से काम करता है। शेष नौ भाग सुषुप्तावस्था में होता है। बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती इस बात की व्याख्या कुछ ऐसे करते थे – मस्तिष्क का क्रियाशील भाग तो इड़ा और पिंगला की शक्ति से काम करता है। पर शेष नौ भागों में केवल पिंगला की ही शक्ति मिलती है। पिंगल जीवन है और इड़ा चेतना। यदि कोई व्यक्ति जीवित हो और वह सोचने में असमर्थ हो तो यही कहा जाएगा कि उसमें प्राण-शक्ति तो है, किन्तु मनस शक्ति नहीं है। यही स्थिति मस्तिष्क के निष्क्रिय हिस्से की होती है। उसमें प्राण तो होता है, किन्तु मनस शक्ति नहीं होती।

योग से संबंधित अतीन्द्रिय पक्षों पर सोवियत संघ की दो महिला मनोवैज्ञानिकों शीला ओस्ट्रांडेर और लिन्न श्रोएडर ने सत्तर के दशक में ही एक पुस्तक लिखी थी – “साइकिक डिस्कवरीज बिहाइंड द आयरन कर्टेन।“ इसके बाद तो दुनिया भर में इस विषय पर सैकड़ों पुस्तकों का प्रकाशन हुआ, जो अनुसंधानों पर आधारित हैं। ज्यादातर पुस्तकों में अतीन्द्रिय शक्तियों को टेलीपैथी या टेलीसाइकिक्स बताते हुए व्याख्या की हैं। भारत के योग रिसर्च फाउंडेशन ने दुनिया के कई देशों के साथ मिलकर इस विषय पर अध्ययन किया। स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने अध्ययन के नतीजों की व्याख्या की है। उनके मुताबिक, पंचमहाभूतों में एक होता है आकाश तत्व। उसी में अग्नि तत्व व्याप्त होता है, जिस तेज या ऊर्जा कहते हैं। आदमी जो भी कर्म या विचार करता है, उसका स्पंदन वायुमंडल के द्वारा आकाश तत्व में फैलता है। ठीक वैसे ही जैसे पानी में पत्थर फेंकने पर तरंगें उत्पन्न होती हैं। यदि कोई व्यक्ति या यंत्र उन स्पंदनों को पकड़ने में सक्षम है तो वह जान सकता है कि उन स्पंदनों के मूल में कौन से विचार हैं। इसे ही टेलीपैथी कहते हैं। पर उसी स्पंदन को चेतना के सूक्ष्म क्षेत्र में ग्रहण कर एक रूप दिया जाता है तो जो हो रहा है या अतीत में जो हुआ उसे अंतर्दृष्टि से स्पष्ट रूप से देखने की शक्ति मिल जाती है। इसे कहते हैं दिव्य-दृष्टि। जिस प्रकार एक तरंग का रूप परिवर्तित होने से हम दूर के दृश्यों और आवाज को टेलीविजन पर देख-सुन पाते हैं। उसी तरह योग की परंपरा में कुछ ऐसे उपाय हैं, जिनकी सहायता से तृतीय नेत्र को जागृत किया जा सकता है। इससे पदार्थ, नाम और रूप को देखने वाली दृष्टि अतीन्द्रिय दृष्टि में बदल जाती है। उन्हीं उपायों में एक है नाड़ी शोधन प्राणायाम।

आधुनिक विज्ञान से उलट तंत्र शास्त्र के मुताबिक मस्तिष्क छह भागों में विभक्त है और उनकी अलग-अलग शक्तियां होती हैं। उन्हीं शक्तियों में एक है अतीन्द्रिय शक्ति। हम सब अनुभव करते हैं कि कोई आदमी किसी विषय में प्रखर होता है तो कोई किसी विषय में। इसकी वजह ये शक्तियां ही होती हैं। योग साधक हों या प्रतिभा के विकास के आकांक्षी छात्र, आज्ञा चक्र उनके लिए काफी मायने रखता है। चक्र साधना का प्रवेश द्वार ही आज्ञा चक्र को माना जाता है। उसे साधे बिना बाकी चक्रों की साधना दुष्कर होता है। आम आदमी विशेष रूप से छात्रों के आज्ञा चक्र के जागृत रहने से चेतना का रूपांतरण होता है और बुद्धि प्रखर होती है। दिलचस्प बात यह है कि आमतौर पर पुरूषों की तुलना में महिलाओं का आज्ञा चक्र ज्यादा क्रियाशील होता है। इसलिए वे अधिक सूक्ष्म, संवेदनशील और ग्रहणशील होती हैं। नतीजतन, घटनाओं की भविष्यवाणी कर पाती है। पर छात्रों के मामले में यौगिक अभ्यासों की बदौलत आज्ञा चक्र ज्यादा क्रियाशील रहने से पीनियल ग्रंथि और उससे जुड़ी पिट्यूटरी आदि ग्रंथियां स्वस्थ रहती हैं तो प्रतिभा का समुचित विकास होता है।

दूसरी तरफ, अनुसंधानों से पता चल चुका है कि लगभग आठ साल तक पीनियल ग्रंथि बिल्कुल स्वस्थ रहती है। उसके बाद यह ग्रंथि कमजोर होने लगती है। बुद्धि और अंतर्दृष्टि के मूल स्थान वाली यह ग्रंथि किशोरावस्था में अक्सर विघटित हो जाती है। परिणामस्वरूप अनुकंपी (पिंगला) और परानुकंपी (इड़ा) नाड़ी संस्थान के बीच का संतुलन बिगड़ जाता है। पिट्यूटरी ग्रंथि से हॉरमोन का रिसाव शुरू होकर शरीर के रक्तप्रवाह में मिलने लगता है। इससे बाल मन में उथल-पुथल मच जाता है। नतीजतन, प्रतिभा का समुचित लाभ नहीं मिल पता। नाड़ी शोधन प्राणायाम का अंत:स्रावी संस्थान पर आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ता है।

योग शास्त्र के मुताबिक, प्राणायाम का मुख्य उद्देश्य है सुषुम्ना नाड़ी को जगाना। कुंभक यानी श्वास अधिक समय तक रोकने के अभ्यास से तो इसमें सफलता मिलती ही है, एक नाक से श्वास लेने औऱ दूसरे से छोड़ देने की क्रिया से भी सुषुम्ना को जागृत करना संभव है। पर यह तभी संभव है जब श्वास अधिक लंबा, गहरा होगा। यदि अभ्यास करके पंद्रह सेकेंड में श्वास लेना और उतनी देरी में छोड़ना संभव हुआ तो जीवन में क्रांतिकारी बदलाव संभव है। इसलिए कि मूलाधार चक्र में माया का आवरण ओढ़कर चिर निद्रा में सोई सुषुम्ना शक्ति जागृत होकर ऊपर की ओर बढ़ने लगती है तो सामान्य लोगों को स्वस्थ्य काया मिलती है, प्रतिभा का विकास होता है। पर आध्यात्मिक लोगों के मामले में जीवात्मा का परमात्मा से मिलन हो जाता है। इन तथ्यों के आलोक में बच्चों को आठ साल की उम्र से ही नाड़ी शोधन प्राणायाम का अभ्यास कराने के फायदों को समझा जा सकता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

योगियों के अमृत मंथन से निकला सूर्य नमस्कार!

किसके दिमाग की उपज है सूर्य नमस्कार, जिसकी महत्ता आधुनिक युग के सभी योगियों से लेकर वैज्ञानिक तक स्वीकार रहे हैं? आम धारणा है कि सूर्य नमस्कार औंध (महाराष्ट्र) के राजा भवानराव श्रीनिवासराव पंत प्रतिनिधि की देन है। पर उपलब्ध साक्ष्य इस बात के खंडन करते हैं। जिस काल-खंड में भवानराव श्रीनिवासराव सूर्य नमस्कार का प्रचार कर रहे थे, उससे पहले मैसूर के प्रसिद्ध योगी टी कृष्णामाचार्य लोगों को सूर्य नमस्कार सिखाया करते थे। हां, यह सच है कि देश-विदेश में इसे प्रचार भवानराव श्रीनिवासराव के कारण ही मिला था। पर नामकरण उन्होंने नहीं किया था। कहा जाता है कि सन् 1608 में जन्मे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध सन्त , सूर्योपासक और छत्रपति शिवाजी महाराज के गुरु समर्थ रामदास योगासनों की एक श्रृखंला तैयार करके उसका अभ्यास किया करते थे। उनकी कालजयी पुस्तक “दासबोध” में भी सूर्य की महिमा का उल्लेख मिलता है। ऐसा लगता है कि उन्होंने ही आसनों के समूह के लिए सूर्य नमस्कार शब्द दिया।  

किशोर कुमार

इस बार सूर्य नमस्कार की बात। हठयोग की एक ऐसी शक्तिशाली विद्या की बात, जो प्राचीन काल में हठयोग का हिस्सा नहीं था। पर उसकी क्रियाएं मौजूद थीं और सूर्य उपासना मानव की आंतरिक अभिव्यक्तियों का एक अत्यंत सहज रूप थी। इनका समन्वय करके बनाई गई योग विधि ही आधुनिक युग का सूर्य नमस्कार है। मंत्र योग के बाद शायद यह इकलौती योग विधि है, जिसका धार्मिक वजहों से विवादों से नाता बना रहता है। बावजूद लोकप्रियता बढ़ती ही जा रही है। योग विज्ञानी इसे मानव शरीर में सूर्य की ऊर्जाओं को व्यवस्थित करने का बेहतरीन तरीका मानते हैं, जिनसे हमारा जीवन संचालित है। इसकी सत्यता का पता लगाने के लिए वैज्ञानिक अनुसंधान होने लगे तो विज्ञान को भी इसकी अहमियत स्वीकारनी पड़ी है।

जीवन-शक्ति प्रदायक इस योग विधि से जुड़ी महत्वपूर्ण बातों पर चर्चा होगी। इसके पहले जानते हैं कि जिस सूर्य नमस्कार को अपने आप में पूर्ण योग साधना माना जाता, उसे मौजूदा स्वरूप कब और कहां मिला? आसनों के समूह को एक साथ किसने गूंथा? इसे लोकप्रियता किसने दिलाई? वैसे तो सूर्योपासना आदिकाल से की जाती रही है। सूर्योपनिषद् में कहा गया है कि जो व्यक्ति सूर्य को ब्रह्म मानकर उसकी उपासना करता है, वह शक्तिशाली, क्रियाशील, बुद्धिमान और दीर्घजीवी होता है। पर योग के आयामों पर शोध करने वाले अमेरिकी मानव विज्ञानी जोसेफ एस अल्टर की पुस्तक “योगा इन मॉडर्न इंडिया” के मुताबिक सूर्य नमस्कार 19वीं शताब्दी से पहले किसी भी हठयोग शास्त्र का हिस्सा नहीं था। इस बात की पुष्टि स्वात्माराम कृत हठप्रदीपिका और महर्षि घेरंड की घेरंड संहिता से भी होती है। यहां तक कि हठयोग के लिए ख्यात नाथ संप्रदाय के प्रवर्तक गोरक्षनाथ के गोरक्षशतक में भी सूर्य नमस्कार का उल्लेख नहीं है। फिर यह वजूद में आया कैसे?

श्रुति व स्मृति के आधार पर उपलब्ध दस्तावेजों और अन्य साक्ष्यों से पता चलता है कि महाराष्ट्र के प्रसिद्ध सन्त और छत्रपति शिवाजी महाराज के गुरु समर्थ रामदास योगासनों की एक श्रृखंला तैयार करके उसका प्रतिदिन अभ्यास किया करते थे। वे सूर्य के उपासक थे और सूर्योदय के साथ ही सूर्य को प्रणाम करके योगासन करते थे। माना जाता है कि वही कालांतर में सूर्य नमस्कार के रूप में प्रसिद्ध हुआ। वैदिक काल से चली आ रही सूर्य उपासना समर्थ रामदास के जीवन का हिस्सा इस तरह बनी थी कि उन्होंने अपनी कालजयी पुस्तक “दासबोध” में इसकी महिमा का बखान करने के लिए एक अध्याय ही लिख दिया था। हालांकि उनकी पुस्तक में कहीं भी आसनों के समूह को सूर्य नमस्कार नहीं कहा गया है। पर मैसूर और औंध प्रदेश में लगभग एक ही काल-खंड में जिस तरह सूर्य नमस्कार लोकप्रिय होने लगा था, उससे ऐसा लगता है कि समर्थ रामदास ने ही आसनों के समूह के लिए सूर्य नमस्कार शब्द दिया होगा।

विख्यात योगी की कहानी, सद्गुरू जग्गी वासुदेव की जुबानी

कर्नाटक के योग शिक्षक थे – राघवेंद्र राव। वे रोज 1008 बार सूर्य नमस्कार करते थे। जब नब्बे साल के हुए तो 108 बार सूर्य नमस्कार करने लगे थे। यह कटौती अपनी आध्यात्मिक साधना के कारण कर दी थी। वे बेहतरीन आयुर्वेदिक चिकित्सक भी थे। नब्ज छू कर बता देते थे कि अगले 10-15 वर्षों में किस तरह की बीमारी हो सकती है। उनका आश्रम था, जहां प्रत्येक सोमवार की सुबह से शाम तक मरीज देखते थे। इसके लिए रविवार की शाम को ही आश्रम पहुंच जाते थे। उनकी एक और खास बात थी। गंभीर से गंभीर मरीज को चुटकुला सुनाकर खूब हंसाते थे। इससे मरीजों से भरे आश्रम में उत्सव जैसा माहौल बन जाता था।
उनके समर्पण की एक दास्तां यादगार रह गई। वे एक बार अपने दो साथियों के साथ आश्रम से 75 किमी की दूरी पर फंस गए। दरअसल, ट्रेन रद्द हो गई थी। आश्रम हर हाल में पहुंचना था। रात्रि में ट्रेन के अलावा दूसरा कोई साधन न था। लिहाजा उन्होंने 83 साल की उम्र में फैसला किया कि रेलवे टैक पर दौड़ते हुए आश्रम पहुंचेंगे। ताकि सुबह-सुबह मरीजों का इलाज कर सकें। ऐसा ही हुआ। वे चार बजे सुबह आश्रम पहुंच गए और समय से मरीजों को देखने के लिए उपलब्ध हो गए। उनके दो साथी अगले दिन ट्रेन से आश्रम पहुंचे तो राघवेंद्र राव की दास्तां सुनाई। वे 106 वर्षों तक जीवित रहे और प्राण त्यागने के दिन तक योग सिखाते रहे।

योग साहित्य के ज्यादातर जानकार बताते है कि देश की आजादी से पहले औंध (मौजूदा पुणे के आसपास का इलाका) के राजा भवानराव श्रीनिवासराव पंत प्रतिनिधि की वजह से सूर्य नमस्कार देश-विदेश में लोकप्रिय हुआ था। पर इस बात के भी सबूत हैं कि भवानराव श्रीनिवासराव के प्रचार से कोई दो दशक पहले प्रख्यात योगी टी कृष्णामाचार्य की वजह से तत्कालीन मैसूर प्रांत के लोग सूर्य नमस्कार से परिचित हो चुके थे। भवानराव श्रीनिवासराव ने 1920 के आसपास सूर्य नमस्कार का प्रचार शुरू किया था, जबकि टी कृष्णामाचार्य की पुस्तक व्यायाम प्रदीपिका का प्रकाशन 1896 में हो चुका था, जिसमें सूर्य नमस्कार के आसनों की विस्तार से चर्चा है।   बीकेएस अयंगर और के पट्टाभि जोइस टी कृष्णामाचार्य के ही शिष्य थे। इन बातों का उल्लेख नॉर्मन ई सोजमन की पुस्तक “द योग ट्रेडिशन ऑफ मैसूर पैलेस” में है। कैनेडियन नागरिक सोजमन संस्कृत व वैदिक शास्त्रों के अध्ययन तथा योग के प्रशिक्षण के लिए कोई 14 वर्षों तक भारत में रहे। उसके मुताबिक मैसूर के राजा कृष्णराज वाडियार हिमालय के योगी राममोहन ब्रह्मचारी के शिष्य कृष्णामाचार्य से बेहद प्रभावित थे।

प्रसिद्ध गांधीवादी लेखक और राजनयिक अप्पा साहेब पंत पूर्व औंध प्रदेश के राजा भवानराव श्रीनिवासराव के ही पुत्र थे। उन्होंने अपने पिता पर एक पुस्तक लिखी थी – ऐन अनयूजुअल राजा। उसमें सूर्य नमस्कार के प्रचार के बारे में विस्तार से चर्चा है। इसमें मुताबिक, औंध से सटे मिराज राज्य, जो अब महाराष्ट्र का हिस्सा है, के राजा की सलाह पर भवानराव श्रीनिवासराव नियमित रूप से सूर्य नमस्कार का अभ्यास करने लगे थे। उन्हें प्रारंभिक दिनों से ही खेलकूद के प्रति गहरी अभिरूचि तो थी ही, जर्मन बॉडी बिल्डर और शोमैन यूजेन सैंडो से भी खासे प्रभावित थे। जब उन्हें इसके लाभ दिखने लगे तो दीवानगी बढ़ गई। नतीजतन, उन्होंने न केवल देश से बाहर भी सूर्य नमस्कार का प्रचार किया, बल्कि अखबारों में लेख लिखे और मराठी में एक पुस्तक भी लिख डाली, जिसका बाद में अंग्रेजी में अनुवाद हुआ था। उसका नाम है – “द टेन प्वाइंट वे टू हेल्थ।“ इसे 1923 में इंग्लैंड के एक प्रकाशक ने प्रकाशित किया था।

हरियाणा के संदीप आर्य सबसे ज्यादा समय तक सूर्य नमस्कार करने का वर्ल्ड रिकार्ड बना चुके हैं। उन्होंने बीते साल लखनऊ में आयोजित वर्ल्ड योगा चैंपियनशिप में 36 घंटे 21 मिनट तक सूर्य नमस्कार करके अपना ही रिकार्ड तोड दिया था। इसके पहले 17 घंटे 30 मिनट तक सूर्य नमस्कार का वर्ल्ड रिकार्ड उन्हीं के नाम था। वे अपनी इन उपलब्धियों के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह और उत्तर प्रदेश की राज्यपाल आनंदी बेन पटेल और हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर से सम्मानित हो चुके हैं।  

हम सब जानते हैं कि सूर्य नमस्कार में मुख्यत: सात मुद्राएं होती हैं। पांच मुद्राओं की पुनरावृत्ति होती है। इस तरह बारह मुद्राएं हो गईं। आध्यात्मिक गुरू और ईशा फाउंडेशन के प्रमुख सद्गुरू जग्गी वासुदेव के कहते हैं कि ऐसा होना महज संयोग नहीं है। सूर्य का चक्र लगभग सवा बारह साल का होता है। इस बात को ध्यान में रखकर ही बारह आसनों की श्रृंखला बनाई गई। ताकि हमारे शरीर के चक्रों का सौर चक्र से तालमेल हो सके। बिहार योग विद्यालय के निवृत्त परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने आधुनिक युग की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए जिस तरह योग विधियों को मिलाकर यौगिक कैप्सूल तैयार किया। समझा जाता है सूर्य नमस्कार भी कुछ ऐसे ही विचारों की देन है। इन्हें योगियों का अमृत मंथन कहना समीचीन होगा। सच तो यह है कि बेहद असरदार योग विधि मानव जाति के लिए अमृत से कम नहीं है।

बीते सप्ताह उपनयन संस्कार के वक्त बच्चों को दी जाने वाली योग शिक्षाओं की चर्चा की गई थी। उनमें सूर्य नमस्कार प्रमुख था। विभिन्न अनुसंधानों के नतीजों से साबित हो चुका है कि योग की यह प्रभावशाली विधि अंत:स्रावी ग्रंथियों पर सकारात्मक प्रभाव डालती है। उनमें शरीर की सबसे महत्वपूर्ण पीयूषिका ग्रंथि शामिल है। सूर्य नमस्कार इस ग्रंथि के क्रिया-कलापों का नियमन करने वाले हॉइपोथैलेमस को उद्दीप्त करता है। इस कॉलम में पीनियल ग्रंथि की बार-बार चर्चा हुई है। सूर्य नमस्कार से उसके क्षय होने की प्रक्रिया भी मंद पड़ती है। मासिक धर्म संबंधी अनियमितताओं और उससे उत्पन्न तनावों से मुक्ति दिलाने में यह योगासन बेहद प्रभावकारी है। रीढ़ के रोगों से बचाव के लिए यह सबसे उत्तम विधि मानी जाती है।

कई व्याधियों में सूर्य नमस्कार बेहद प्रभावी है। वे हैं – अंत:स्रावी ग्रंथियों में असंतुलन, मासिक धर्म व रोग निवृत्ति संबंधी समस्याएं, दमा व फेफड़े की विकृतियां, पाचन संस्थान की व्याधियां, निम्न रक्तचाप, मिर्गी व मधुमेह, मानसिक व्याधियां, गठिया, गुर्दे संबंधी व्याधियां, यकृत की क्रियाशीलता में कमी, सामान्य सर्दी-जुकाम से बचाव आदि। मतलब यह कि शरीर के ऊर्जा संस्थानों में संतुलन लाने के लिए यह लाभदायक है। यदि किसी का ऊर्जा संस्थान असंतुलित है तो व्याधियों से मुक्त रह पाना नामुमकिन है।  

पंचमढ़ी का सूर्य नमस्कार पार्क

स्वास्थ्य खासतौर से कैलोरी को लेकर सतर्क लोग आर्ट ऑफ लिविंग के संस्थापक तथा आध्यात्मिक गुरू श्रीश्री रविशंकर के एक शोध के नतीजों से सूर्य नमस्कार के महत्व को आसानी से समझा जा सकता है। शोध के मुताबिक, 30 मिनट में भारोत्तोलन से 199 कैलोरी, टेनिस से 232 कैलोरी, बास्केटबाल से 265 कैलोरी, बीच वॉलीबाल से 265 कैलोरी, फुटबॉल से 298 कैलोरी, 24 किमी प्रति घंटा की रफ्तार से साइकिल चलाने से 331 कैलोरी, पर्वतारोहण से 364 कैलोरी, दौड़ने से 414 कैलोरी (यदि रफ्तार 12 किमी प्रति घंटा हो) और सूर्य नमस्कार से 417 कैलोरी का उपयोग होता है। सूर्य नमस्कार के 12 सेट 12 से 15 मिनट में 288 शक्तिशाली योग आसनो के समान है।

सूर्य नमस्कार के मामले में एक खास बात यह है कि धार्मिक आधार पर विवाद होने के बावजूद थोड़े संशोधनों के साथ इसकी स्वीकार्यता बढ़ती जा रही है। शारीरिक औऱ मानसिक संकटों से जूझते लोगों के जीवन में इसका सकारात्मक प्रभाव होता है तो उन्हें यह स्वीकार करने में तनिक भी कठिनाई नहीं होती कि योग विज्ञान है और इसका किसी मजहब ले लेना-देना नहीं है। यही वजह है कि इस्लामिक देशों में भी सूर्य नमस्कार योग को लेकर पहले जैसा आग्रह नहीं रहा। पाकिस्तान के प्रमुख योग गुरू शमशाद हैदर खुद ही हजारों लोगो को एक साथ सूर्य नमस्कार का अभ्यास कराते हैं। केवल “ऊँ” की जगह “अल्लाह हू” बोलते हैं। वे मानते हैं कि योग का कोई धर्म नहीं होता।

यह सच है कि मानव जिन पांच तत्वों पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से बना है, उनका भला क्या धर्म हो सकता है। मानव शरीर को स्वस्थ्य रखने के उपायों का भी कोई धर्म नहीं हो सकता। सूर्य नमस्कार शरीर की आंतरिक रहस्यपूर्ण प्रणालियों पर नियंत्रण प्राप्त करने और उनके बीच सामंजस्य लाने का एक सशक्त साधन है। यौगिक अमृत है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

उपनयन संस्कार : कर्म-कांड नहीं, यह योगमय जीवन का मामला है

भारत के परंपरागत योग का लक्ष्य केवल बीमारियों से मुक्ति कभी नहीं रहा। जीवन में पूर्णत्व योग का लक्ष्य रहा है। तभी बच्चों की उम्र आठ साल होते ही योगमय जीवन की शुरूआत कराने के लिए उपनयन संस्कार करवाया जाता था। उस मौके पर सूर्य नमस्कार, नाड़ी शोधन प्राणायाम और गायत्री मंत्र के जप की शिक्षा दी जाती थी। कालांतर में इसका स्वरूप बदला और कर्म-कांड मुख्य हो गया। पर वक्त के थपेड़ों ने हमें उस मुकाम पर पहुंचा दिया है कि हमें बच्चों के योगमय जीवन की शुरूआत समय से करानी ही होगी। तभी पीनियल ग्रंथि का क्षय रूकेगा। पिट्यूटरी ग्रंथि सुरक्षित रह पाएगी। मस्तिष्क के कार्य, व्यवहार व ग्रहणशीलता को नियंत्रित रखने के साथ ही बौद्धिक विकास और जीवन में स्पष्टता लाने के लिए यह जरूरी है।

कोरोना महामारी के कारण पूरी दुनिया में मचे कोहराम के बीच उपनयन संस्कार की बात बेमौके शहनाई बजाने जैसी लग सकती है। पर बच्चों का भविष्य सुरक्षित रहे, इस लिहाज से इस विषय पर चर्चा समय की मांग है। उपनयन संस्कार योग विज्ञान से जुड़ा मामला है। समय के अनुसार भले इसका मकसद बदल गया, स्वरूप बिगड़ गया और उपनयन संस्कार केवल और केवल कर्म-कांड में तब्दील हो कर एक दायरे में सिमट गया। पर बच्चों के हित में, समाज के हित में और राष्ट्र के हित में यह गलत हो गया। तभी जीवन की चुनौतियां भारी पड़ जाती हैं। फोर्ब्स पत्रिका में एक सर्वे प्रकाशित हुआ है कि अमेरिका में तीन से सत्रह साल तक के 7.1 फीसदी बच्चे मानसिक रूप से अस्वस्थ हो गए हैं। यूनिसेफ, इंडियन एसोसिएशन फॉर चाइल्ड एंड एडोल्सेंट मेंटल हेल्थ और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंस (नीमहांस) ने अपने-अपने स्तरों पर अध्ययन करके लगभग ऐसे ही नतीजे भारत के संदर्भ में भी प्रस्तुत किए हैं। वजह है कोरोना महामारी और उसके कुप्रभाव।

भारत की प्रचीन परंपरा रही है कि बच्चे जब आठ साल के होते थे तो उनका उपनयन संस्कार कराया जाता था। इसके तहत चार वर्षों यानी बारह साल की उम्र तक के लिए मुख्य रूप से सूर्य नमस्कार, नाडी शोधन प्राणायाम और गायत्री मंत्र का अभ्यास प्रारंभ करवाया जाता था। यह संस्कार लड़के और लड़कियों दोनों को दिया जाता था।  ऋषि-मुनि योग की वैज्ञानिकता के बारे में जानते थे। उन्हें पता था कि योगाभ्यास न केवल बच्चों के शरीर को लचीला बनाता है, बल्कि उनमें अनुशासन और मानसिक सक्रियता भी लाता है। इससे साथ ही एकाग्रता बढ़ती है और सृजनात्मक प्रेरणा प्राप्त होती है। पर दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि आधुनिक विज्ञान की बदौलत योग की महिमा को जानते हुए भी हम उसे बच्चों के जीवन का हिस्सा बनवाने में मदद नहीं करते।

शारीरिक रोग प्रबल, कष्टदायक एवं तिरस्काणीय होने के कारण हमारे सक्रिय प्रतिरोध को जागृत करते हैं और हम उनका इलाज व्यायाम, आहार-नियंत्रण, दवाइयों अथवा रोग-मुक्ति की किसी अन्य निश्चित विधि द्वारा खोजते हैं। पर मनुष्य के समस्त दु:खों का मूल कारण होते हुए भी मनोवैज्ञानिक रोगों का तत्काल पूर्वनिर्धारण या उपचार नहीं किया जाता। इस तरह उन्हें हमारे जीवन को क्षतिग्रस्त एवं बरबाद करने दिया जाता है। शिक्षाविद् आध्यात्मिक सिद्धांतों को विद्यालयों में नहीं बता पातें। इसलिए कि परस्पर विरोधी धार्मिक मतों के कारण उलझन में पड़े रहते हैं।

यह जानना बड़े महत्व का है कि उपनयन संस्कार के साथ ही योगमय जीवन शुरू करने के लिए आठ साल की उम्र को ही क्यों उपयुक्त माना जाता था। दरअसल, मस्तिष्क के केंद्र में स्थित पीनियल ग्रंथि बच्चों की चेतना के विस्तार के लिहाज से बेहद जरूरी है। अनुसंधानों के मुताबिक आठ साल तक के बच्चों में पीनियल ग्रंथि बिल्कुल स्वस्थ रहती है। उसके बाद कमजोर होने लगती है। किशोरावस्था आते-आते में अक्सर विघटित हो जाती है। पीनियल ग्रंथि का क्षय प्रारंभ होते ही पिट्यूटरी ग्रंथि या पीयूष ग्रंथि और संपूर्ण अंत:स्रावी प्रणालियां अनियंत्रित होती जाती हैं। इस वजह से असमय यौवनारंभ हो जाता है, जबकि बच्चों की मानसिक अवस्था इसके लिए उपयुक्त नहीं होती है। यही हाल लड़कियों के मामले में होता है। उनकी पीनियल ग्रंथि का क्षय होने से स्तन ग्रंथियां, डिंबाशय और गर्भाशय सभी सक्रिय हो जाते हैं, जबकि अल्पवयस्क लड़कियां समयपूर्व बदलाव से निबटने के लिए शारीरिक तौर पर तैयार नहीं रहतीं।

आठ साल की उम्र में उपनयन संस्कार करने के पीछे दो और प्रमुख बातें हैं। पहला, आठ साल की उम्र तक फेफड़ों के अंदर हवा की सूक्ष्म थैलियों की संख्या बढ़ती जाती है। आठ साल के बाद थैलियों का आकार तो बढता है, पर उनकी संख्या बढ़नी बंद हो जाती हैं। दूसरा, शैशवावस्था में शरीर की कोशिकीय संरक्षण प्रणाली व उसकी कार्यशीलता तेज होती है। पर बच्चों के लगभग आठ वर्ष पूरे होते ही फेफड़ों की जड़ और हृदय के आधार में लिपटी हुई बाल्य ग्रंथि (थाइमस ग्लैंड) व लसिकाभ (लिम्फाय़ड) का क्षय होने लगता है। वैसे में दमा, एलर्जी, गठिया यहां तक कि कैंसर भी हो जाता है।

मंत्र का संबंध किसी देवी-देवता से नहीं है। यह नाद सिद्धांत है, जो नाद शक्ति का एक रूप है। जैसे विद्युत चुंबकीय शक्ति है, रेडियोधर्मी और अन्य प्रकार की शक्तियां हैं, उसी प्रकार नाद की भी एक शक्ति है। यह नाद अप्रकट है। जब प्रकट रूप में आता है तो मंत्र कहलाता है। उसकी मदद से चेतना-क्षेत्र में विस्तार किया जा सकता है। मंत्र बीज रूप में होता है। मन और नाद में संयोग होता है तो कंपन पैदा होता है। वही आंतरिक अन्वेषण का साधन बन जाता है।

यूएस नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन के दस्तावेजों के मुताबिक अनेक योग और चिकित्सा संस्थानों की ओर से पीनियल ग्रंथी पर शोध करवाए जा चुके हैं। हाल ही मुंबई स्थित इंटरनेशनल अहिंसा रिसर्च एंड ट्रेनिंग इंस्टीच्यूट ऑफ स्पीरिचुअल टेक्नालॉजी के निदेशक प्रताप संचेती और जोधपुर स्थित संचेती हास्पीटल एंड रिसर्च इंस्टीच्यूट के ओन्‍कोलॉजी विभाग से संबद्ध सुरेश सी संचेती का “रिलेवेंस ऑफ पीनियल ग्लैंड – साइंस वर्सेज रिलीजन” शीर्षक से शोध पत्र प्रकाशित हुआ। इसके पहले न्यूयार्क एकेडेमी ऑफ सांसेज ने “स्ट्रक्चरल एंड फंक्शनल ईवलूशन ऑफ द पीनियल मेलाटोनिन सिस्टम इन वर्टेब्रेट्स” शीर्षक से शोध पत्र प्रकाशित किया था। सभी शोधों और अध्ययनों के नतीजे यही कि पीनियल ग्रंथि विघटित होकर पिट्यूटरी ग्रंथि को क्रियाशील करती है। यौन हिंसा के मामले में अब छोटे बच्चे भी अपवाद नहीं होते तो इसकी मुख्य वजह यही है। पर हम ऐसी स्थितियों के लिए आमतौर पर बच्चों के मां-पिता को या बच्चों की खराब संगति को जिम्मेवार मानकर समस्या की जड़ तक नहीं पहुंच पातें।

स्पेन के बार्सिलोना शहर में वहां के वैज्ञानिकों ने बिहार योग विद्यालय के निवृत परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती के निर्देशन में मंत्र के प्रभावों पर प्रयोग किया था। उस प्रयोग की सफलता का नतीजा यह हुआ कि अस्पतालों में आपरेशन से पहले मंत्रों के जरिए तनाव दूर करके भावनात्मक संतुलन बनाना अनिवार्य कर दिया गया है। स्वामी निरंजन कहते हैं, “उपनयन संस्कार के वक्त गायत्री मंत्र का नियमित जप करने के लिए इसलिए कहा जाता था कि इससे प्रतिभा के द्वार खुलते हैं।“ योगशास्त्र के मुताबिक, पीयूष ग्रंथि वाली जगह को ही योग की भाषा में आज्ञा चक्र कहा जाता है। इसे ही प्रतिभा का द्वार कहा जाता है। मंत्र के स्पंदन का सीधा प्रभाव इस ग्रंथि पर पड़ता है तो उसके सकारात्मक नतीजे मिलते हैं। स्वामी निरंजन कहते हैं, “हम जानते हैं कि मंत्र ध्वनि का विज्ञान है। वेदों और उपनिषदों में बार-बार कहा गया है कि ऊं नाद है और गायत्री प्राण है। गायत्री की उत्पत्ति ऊं से हुई है। गायत्री मंत्र का नियमित अभ्यास करने से प्राणमय कोश को समन्वित और जागृत करने में सहायता मिलती है।“

बच्चों को योगाभ्यास के लिए प्रेरित करते हैं तो सबसे पहले सूर्य नमस्कार, नाड़ी शोधन प्राणायाम और गायत्री मंत्र सिखलाइए। मैं किसी दस-बारह साल के बच्चे को शीर्षासन या मयूरासन करते देखता हूं तो अच्छा नहीं लगता। इच्छा होती है कि उनके अभिभावकों से कह दूं कि बच्चों से ऐसे योगासन करवाने हैं तो इन्हें सर्कस में नौकरी दिलवाने की सोचिए। वैसे, इस उम्र में बच्चों के जीवन के साथ इसे खिलवाड़ ही कहा जाएगा। सुंदर, स्वस्थ्य और सफल जीवन का सपना साकार नहीं होगा।  

सूर्य नमस्कार स्वयं में पूर्ण साधना है। इसलिए कि इसमें आसनों के साथ ही प्राणायाम, मंत्र और ध्यान की विधियों का समावेश है। शरीर के सभी आंतरिक अंगों की मालिश करने का एक प्रभावी तरीका है। आसन का प्रभाव शरीर के विशेष अंग, ग्रंथि और हॉरमोन पर होता है। इसके साथ ही इस योगाभ्यास से पीनियल ग्रंथि का क्षय रूकता नतीजतन, जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है कि पिट्यूटरी ग्रंथि से निकलने वाला हार्मोन नियंत्रित रहता है। उपनयन संस्कार का तीसरा अंग है नाड़ी शोधन प्राणायाम। योगशास्त्र के मुताबिक शरीर में कुल बहत्तर हजार नाड़ियों में इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना प्रमुख हैं। उपनयन संस्कार केवल लड़कों का ही नहीं, लड़कियों भी होता रहा है। उन्हें जो जनेऊ धारण कराया जाता था, उनके तीन धागे भी इन्हीं नाड़ियों की ओर संकेत करते हैं। इड़ा दिमाग के एक हिस्से से और पिंगला दिमाग के दूसरे हिस्से से जुड़ा होता है। इसे विज्ञान साबित कर चुका है। स्पष्ट है कि प्राण और मन के बीच परस्पर संबंध होता है। प्राणों पर नियंत्रण स्थापित कर लेने से मन पर नियंत्रण हो जाता है। इस क्रम में शरीर को पर्याप्त ऑक्सीजन भी मिल जाता है।

अबूधाबी में रहने वाले भारतीय मूल के लड़के और लड़की का उपनयन संस्कार इंदौर में हुआ। फोटो-हरिभूमि

नाड़ी शोधन प्राणायाम बच्चों पर किस तरह काम करता है उसकी एक बानगी पर गौर कीजिए। ‘त्वरित शिक्षा के जनक’ और बुल्गेरियाई वैज्ञानिक डॉ जॉर्जी लोज़ानोव अमेरिका में बच्चों के मन और मस्तिष्क की बेहतर ग्रहणशीलता पर काम कर रहे थे। उनके प्रोजेक्ट का नाम था सिस्टम ऑफ एक्सीलरेटेड लर्निंग एंड ट्रेनिंग। स्वामी निरंजनानंद सरस्वती उसी दौरान अमेरिका गए हुए थे। किसी कार्यक्रम में दोनों की मुलाकात हो गई। डॉ लोज़ानोव स्वामी निरंजन की इस बात से हैरान थे कि मस्तिष्क और मन की ग्रहणशीलता का संबंध श्वास से रहता है। उन्होंने इस बात को फिर से साबित करने के लिए स्वामी निरंजन के निर्देशन में प्रयोग किया। एक छात्र के सामने पेंडुलम वाली घड़ी रख दी गई। फिर छात्र को कहा गया कि वह पेंडुलम की गति के साथ अपने श्वास की गति को मिलाए। यानी पेंडुलम दाहिनी तरफ जाए तो श्वास अंदर करे और पेंडुलम बाईं ओर जाए तो श्वास छोड़ दे। स्वामी निरंजन ने जैसा कहा था, उसी के अनुरूप इस प्रयोग का परिणाम निकाला था। 

उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि उपनयन संस्कार का यौगिक आयाम बेहद महत्वपूर्ण रहा है। बच्चे भविष्य के कर्णधार होते हैं। यदि सही उम्र में उन्हें योगमय जीवन के लिए संस्कारित न किया जाएगा तो शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक विकास सही तरीके से होना मुश्किल ही है। इसलिए कर्म-कांड अपनी जगह, योगमय जीवन की शुरूआत आठ साल की उम्र से जरूर कराई जानी चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

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