स्वामिनारायण संप्रदाय और प्रमुखस्वामी महाराज

किशोर कुमार

दुनिया भर के लोगों में धर्मानुकूल आचरण की शिक्षा प्रसारित करने वाले और भगवान स्वामिनारायण के पांचवें आध्यात्मिक उत्तराधिकारी प्रमुखस्वामी महाराज के बारे में जो सुना और पढ़ा, उसके आधार पर उनकी उपलब्धियों की झांकी भी नहीं मिल सकती। ऐसा इसलिए कि वे तो उस हिमशैलों की तरह थे, जिनका थोड़ा-सा भाग ही दृष्टिगोचर होता है। शेष भाग पानी में ही डूबा रहता है। अलौकिक दृष्टि वाले उस दिव्यात्मा के जन्मशताब्दी वर्ष पर अहमदाबाद में एक महीना तक चलने वाला भव्य समारोह का आयोजन किया गया है। उसमें स्वामिनारायण संप्रदाय और प्रमुखस्वामी महाराज की उपलब्धियों को व्यापक फलक पर प्रस्तुत करने की कोशिश है। पर, वहां भी कुछ शेष रह गया है।

श्रीमद्भगवत गीता के ज्ञान में ब्रह्म विद्या, ब्रह्मसूत्रों, उपनिषदों और योग शास्त्रों का ज्ञान छिपा हुआ है। पर क्या कोई भी दावे के साथ कह सकता है कि श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जो संदेश दिए थे, उसके वास्तविक भाव और अर्थ पूरी समग्रता से फलां भाष्य में है? शायद किसी भाष्यकार संत ने भी कभी इस बात का दावा न किया होगा। महान संतों के मामले में भी कुछ ऐसी ही बातें लागू होती हैं। प्रमुखस्वामी महाराज की आध्यात्मिक उपलब्धियां कितनी उच्च कोटि की थी, इसकी झलक पूर्व राष्ट्रपति ड़ॉ एपीजे अब्दुल कलाम की पुस्तक आरोहण – प्रमुखस्वामीजी के साथ मेरा आध्यात्मिक सफर में उद्धृत दृष्टांतों से मिल जाती है। इसी तरह प्रमुखस्वामी महाराज की प्रेरणा से बोचासनवासी अक्षर पुरुषोत्तम स्वामिनारायण (बीएपीएस) संस्था के जरिए वैदिक उपासना हेतु दिल्ली के भव्य अक्षरधाम मंदिर निर्माण का मामला हो, जो भारतीय शिल्प व वास्तुकला का उत्कृष्ट उदाहरण है, या फिर धार्मिक व सांस्कृतिक वैविध्य के रक्षण व प्रोत्साहन की बात, कहना होगा कि धर्म का भारतीय प्रतिमान पूरी तरह प्रस्तुत हुआ।  

महाभारत के शांति पर्व में कहा गया है, सर्वेषां य: सवहृन्नित्यं सर्वेषां च हिते रत:। कर्मणा मनसा वाचा स धर्मं वेद जाजले।। महर्षि अरविंद घोष, जिनकी 150वीं जयंती मनाई जा रही है, ने लिखा है कि इस श्लोक में संतों के सिद्धावस्था में किए गए कर्मयोग का उद्घोष है। श्लोक में जाजले शब्द उसके लिए है, जिसने धर्म के वास्तविक स्वरूप को जाना तथा मन, कर्म और वाणी से सबका हित करता है, जो सभी का नित्य स्नेही है। श्रीमद्भगवत गीता से लेकर भगवान स्वामिनारायण तक ने भक्तों-संतों के कुछ लक्षण बतलाए हैं। कहना चाहिए कि प्रमुखस्वामी महाराज इन सभी कसौटियों पर खरे थे। उनमें ताउम्र कामना रहित भक्ति नित्य-निरंतर बनी रही। उन्होंने सदैव सर्वे भवन्तु सुखिन:, सर्वे संतु निरामया: को ध्येय वाक्य मानते व्यक्ति के विकास के लिए आध्यात्मिक विकास की आवश्यकता पर बल दिया। इसके लिए सुनिश्चित किया कि वर्गभेद मिटे, राष्ट्र निर्माण के लिए बालकों व युवकों का परिपोषण व प्रशिक्षण मिले। जन्मशताब्दी समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रमुखस्वामी महाराज के बारे में ठीक ही कहा कि उनके विचार शाश्वत हैं, सार्वभौमिक हैं। उनका एक ही संदेश होता था कि जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य सेवा ही होना चाहिए।

भावी पीढ़ियां धर्मानुकूल कैसे रहें, प्रमुखस्वामी महाराज को ऐसी शिक्षा विरासत में मिली थी। प्रमुखस्वामी महाराज के बचपन का नाम शांतिलाल था। उनकी माता दीवालीबाई और पिता मोतीभाई गुजरात के बड़ोदरा जिले के चाणसद गांव में खेती-किसानी करके जीवन जीते थे। पर उनके भगवत् प्रेम में कोई कमी न थी। इस तरह पूर्व जन्मों के अच्छे संस्कार और शैशवावस्था से ही माता-पिता से मिले संस्कार का असर हुआ कि शांतिलाल में बाल्यावस्था से ही प्रवज्या योग के लक्षण स्पष्ट परिलक्षित होने लगे थे। उन्हें संतों का सत्संग खूब रास आता था। सुगंधित पुष्प की तरह उनके भगवत् प्रेम की खुशबू फैली तो स्वामिनारायण परंपरा के तत्कालीन प्रमुख शास्त्रीजी महाराज की दृष्टि उन पर गई। शांतिलाल जब दस साल के हुए तो उन्हें एक दिन शास्त्रीजी महाराज का पत्र मिला। उसमें लिखा था – साधु बनने के लिए आ जाओ। शांतिलाल ने भी बिना देर किए गृहत्याग दिया और शास्त्रीजी महाराज के हृदय के दुलारे बनकर संत परंपरा की अनमोल कड़ी में जुड़ गए थे।

प्रमुखस्वामी महाराज की आध्यात्मिक उपलब्धियों की झांकी डॉ एपीजे अब्दुल कलाम के संस्मरण से मिलती है। उन्होंने “आरोहण” में लिखा हैं कि 11 मार्च 2014 को प्रमुखस्वामी महाराज से मिला था। उसी रात में आदतन सोने से पहले एक पुस्तक पढ रहा था। तभी मेरा मन किसी उच्चावस्था में चला गया। तब मैं न तो सोया था, न जगा। उसी दौरान स्पष्ट संदेश मिलने लगे – ‘उठो, ओ प्रसन्न अजनबी। तुमने अपना लक्ष्य पा लिया है,’ मैंने एक आवाज़़ सुनी। ‘मैं कहाँ हूँ?’ मैंने पूछा। ‘स्वर्ग में।’ ‘और धरती?’ ‘वह तुम्हारे पीछे है।’ ‘मुझे यहाँ कौन लाया?’ ‘वही, जिससे तुम आज मिले।’ ‘आप कौन हैं?’ ‘मैं वही हूँ।’ ‘तो क्या आप प्रमुख स्वामीजी हैं? लेकिन आप बोलते हैं, वो तो आज नहीं बोले।’

‘पर वह मुस्कुराये तो।’ ‘क्यों?’ ‘ताकि हमारी दुनिया में मुस्कुराहट लाई जा सके। तुम ही वह धन्य व्यक्ति हो जिनके हाथों में मैं एक पवित्र किताब देना चाहता हूँ, जो दुनिया के लिए लिखी जाए।’ ‘कौन-सी किताब?’ ‘वह किताब, जो मानवता को शब्दों की भूलभुलैया से बाहर का रास्ता दिखा सके।’ ‘पर मैं ही क्यों?’ ‘सिर्फ़ तुम ही ऐसा कर सकते हो, क्योंकि तुम सही देखते हैं और सही बोलते हैं। तुम सिर्फ़ मुझे देखते हो और सिर्फ़ मेरी बात ही बोलते हो।’ ‘क्या व्यक्त करना है?’ ‘कि दुनिया की मुस्कुराहट खो गई है। इसने ख़ुद को ‘मैं’ और ‘मेरे’ की गाँठों में बन्द कर लिया है। दुनिया बन्दि‍शों और बाड़ों में बँट गई है। चारों तरफ ‘मैं’ के खम्भे खड़े हैं और हेठी लोगों को बाँट रही है। मानवता पीड़ित है और जार-जार हो चुकी है। कलाम, इन बाधाओं को तोड़ने और लोगों को जोड़ने के लिए लिखो, और ‘मैं’ द्वारा उत्पन्न किये गए हर बँटवारे को हटा दो। ऊपर उठो, ‘आरोहण’ लिखो।….और इस तरह “आरोहण” जैसा विशिष्ट पुस्तक हम सबके लिए उपलब्ध हो सका।

महात्मा गांधी ने अलबर्ट आइंस्टीन के बारे में कहा था – भविष्य की पीढ़ी शायद ही यह विश्वास करे कि हाड़-मांस से बना यह व्यक्ति क्या कभी धरती पर था भी? भविष्य में प्रमुखस्वामी महाराज के बारे में भी ऐसी ही धारणा बन जाए, तो हैरानी न होगी। जन्मशताब्दी के मौके पर उस महान संत को सादर नमन।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

विज्ञान के लिए चुनौती है ब्रह्मर्षि कृष्णदत्त की सूक्ष्म शक्तियां

ब्रह्मर्षि कृष्णदत्त महाराज कई मायनों में अनूढे थे। शवासन की अवस्था में भौतिक रूप से समाज के बीच होते हुए भी चेतना के स्तर पर किसी और लोक में चले जाते थे। तब ऐसा लगता मानों वे कोई बड़े ऋषि हैं, जो तपस्वियों को संबोधित कर रहे हैं। वे प्राचीन काल के ऋषियों जैसी शास्त्रसम्मत बातें करते थे। कठिन यौगिक साधनाओं की बात करते और अपने एक खास शिष्य महानंद के सवालों का जबाव भी देतें। हैरतंगेज बात यह कि महानंद की आवाज भी महाराज के मुख से ही निकलती थी। दोनों की आवाज अलग-अलग होने से आसानी से पहचान हो जाती थी। तुरीयावस्था कितनी देर बनी रहेगी, यह निश्चित नहीं होता था। पर इस अवस्था से बाहर होते ही अति सामान्य व्यक्ति होते थे, जिन्हें न लिखना आता था, न पढ़ना। वे अब इस दुनिया में नहीं हैं। पर विज्ञान के लिए चुनौती बने हुए हैं। मानव चेतना पर बड़े स्तरों पर वैज्ञानिक शोध हुए हैं। पर ब्रह्मर्षि कृष्णदत्त की विशिष्ट अतीन्द्रिय शक्तियां अब भी रहस्यमय ही हैं।    

योगबल की बदौलत आत्म-दर्शन होने से मनुष्य में देवत्व का उदय होना असाधारण बात तो है, पर दुर्लभ नहीं। पुनर्जन्म, परकाया प्रवेश और एक ही काया को कई स्थानों पर उपस्थित कर देने के भी उदाहरण हैं। अक्षर ज्ञान न होते हुए भी शास्त्रों का ज्ञान होने के उदाहरण तो भरे पड़े हैं। योग की बदौलत मिलने वाली इन शक्तियों का वैज्ञानिक आधार प्रस्तुत किया जाता रहा है। परं पिछले कई युगों के ऋषियों जैसे ज्ञान के साथ शरीर धारण करना, तुरीयावस्था में वह ज्ञान प्रकट करना और दो लोगों के बीच का संवाद एक ही मुख से उच्चारित होना इस युग के लिए दुर्लभ बात है। गाजियाबाद जिले के एक गांव में अति सामान्य परिवार मे जन्मे ब्रह्मर्षि कृष्णदत्त जी ऐसे ही दुर्लभ संयोग की देन थे। 

कृष्णदत्त जी बेपढ़ थे। यौगिक साधनाओं से दूर-दूर का वास्ता न था। पर शवासन में होते ही कई युगों में मौजूद रहे देवतुल्य ऋषियों जैसी बातें करने लगते थे। वेद और उपनिषद की बातें, शुद्ध संस्कृत शब्दों के उच्चारण के साथ धाराप्रवाह बोलते जाते थे। योग के शास्त्रीय पक्षों पर खूब बोलते थे। यौगिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण शरीर के चक्रों की वैज्ञानिक बातें करते थे। पर शवासन से उठते ही एक ऐसा व्यक्ति होते थे, जिसका शास्त्रीय ज्ञान से दूर-दूर का नाता न होता था। अनेक विश्लेषणों के आधार पर माना गया कि वे जागृत चक्रों के साथ पूर्व जन्मों के ऋषियों वाले वैदिक ज्ञान के साथ जन्मे थे।

शवासन में जब उनकी अतीन्द्रिय शक्तियां (साइकिक पावर्स) जागृत होती थीं तो ऐसा लगता था कि वे इस लोक में नहीं हैं। वे कभी सत्ययुग की तो कभी त्रेतायुग तो कभी द्वापर युग की बात करने लगते। कलियुग की प्राचीन बातें भी करते थे। कई बार उनकी आवाज और बोलने का अंदाज बदल जाता था। विश्लेषण से पता चला कि वे जब महानंद नाम के अपने किसी शिष्य के साथ वार्तालाप कर रहे होते थे तब ऐसी स्थिति बनती थी। यानी गुरू-शिष्य की आवाज एक ही भौतिक शरीर से निकलती थी। उनका मुख उस स्पीकर की तरह हो जाता था, जिससे जुड़ी माइक में जो भी बोलता है, उसकी आवाज सुनाई देती है।

ब्रह्मर्षि कृष्णदत्त जी अवचेतन मन से नाता जुड़ते ही ऐसे बोलने लगतें मानों वे नहीं, किसी ऋषि की आत्मा बोल रही हो। एक बार अचानक बोल पड़े – “पूज्यपाद गुरुदेव ने कहा जाओ, लघु मस्तिष्क में प्रवेश कर जाओ। मैने बारह वर्षों तक अनुष्ठान करके लघु मस्तिष्क को दृष्टिपात किया तो ब्रह्माण्ड, लोक-लोकान्तर वाली प्रतिभाएं मेरे समीप आने लगी। इसके पश्चात् पूज्यपाद के चरणों में विद्यमान हो गया। मैंने कहा कि प्रभु! मैं लघु मस्तिष्क मे चला गया हूँ। मैं लघु मस्तिष्क में सूर्यों की गणना करता रहा, लघु मस्तिष्क में पृथ्वियों की गणना करता रहा, सौर मण्डलों में प्रवेश कर गया। हे प्रभु! मैं अनन्तमयी ब्रह्माण्ड में प्रवेश कर गया। हे प्रभु! मैं विचित्र-सा अनुभव करने लगा हूं। मुझे और मार्ग में प्रवेश कराइए।….”

कृष्णदत्त जी के ज्यादातर प्रवचनों की वॉयस रिकार्डिंग की जा चुकी है। शवासन अवस्था वाले कृष्णदत्त जी महाराज शांत स्वभाव वाले ज्ञानी ऋषि की तरह होते थे। वहीं उनका शिष्य महानंद बेहद आक्रामक होता था। ऐसा लगता था कि महानंद की आत्मा कलियुग के किसी काल-खंड की यादों के साथ उपस्थित होती थी, जिसे समाज की विकृतियां बेचैन रखती थीं। तभी कृष्णदत्त जी जब किसी अन्य युगों की बात कर रहे होते थे तो वह दखल देता और कहता, गुरूदेव, आपकी बात कोई नहीं समझेगा, आप इस युग के लिहाज से बोलिए। एक और चौंकाने वाली बात यह कि कृष्णदत्तजी जब मुनिवरो शब्द का प्रयोग करते हुए संबोधन शुरू करते तो ऐसा लगता था कि वे अन्य युगों के मुनियों के बीच प्रवचन कर रहे हैं। इसके साथ ही वे कभी महाभारतकालीन घटनाओं का आंखो देखा हाल बयां करने लगते तो कभी राजा दशरथ के लिए श्रृंगी ऋषि के पुत्रेष्टि यज्ञ का। योग की शक्तियों का बखान तो अक्सर करते थे।

धरती पर ऐसे संतों की कमी नहीं रही, जिन्हें अक्षर ज्ञान तो नहीं था। पर वे शास्त्रसम्मत बातें, विज्ञानसम्मत बातें करते थे। कबीर पर तो न जाने कितने ही शोध होते रहते हैं। पर उसी कबीर ने अपने बारे में कहा था – “मसि कागद छुयो नहीं, कलम गह्यी नहीं हाथ।“ इतनी पुरानी बात छोड़ भी दें तो चित्रकूट की धरती एक संत थे। नाम था परमहंस परमानंद। प्रसिद्ध थे। लेकिन एक बार उनके हस्ताक्षर की जरूरत पड़ी तो अजीब संकट खड़ा हो गया। इसलिए कि अक्षर ज्ञान बिल्कुल नहीं था। शिष्यों को नाम लिखने का अभ्यास कराना पड़ा था। पर सन् 1969 में शरीर त्यागने से पहले धर्म की रूढ़ीवादी प्रथाओं पर चोट करते रहे और अपनी अलौकिक शक्तियों से जन-कल्याण करते रहे। वेदों और उपनिषदों के वैज्ञानिक व व्यवहारिक ज्ञान की बाते करते थे।

पुनर्जन्म होता है, इसके भी कई उदाहरण हैं। धनबाद में कोयला खदान मालिक की पत्नी को तीन जन्मों की बातें याद थीं। इससे उनका जीवन आशांत होता जा रहा था। बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की शरण में जाने के बाद राहत मिली थी। स्वामी सत्यानंद जी की पुस्तकों में इस बात का उल्लेख है। पूर्व जन्म की बात गीता में भी है। श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, “हे अर्जुन! तेरे औऱ मेरे बहुत से जन्म बीत चुके हैं। तू नहीं जानता, मैं जानता हूं….।” शरीर से ऊर्जा और चेतना को पृथक करके महीनों बाद उसे संयुक्त करने के भी उदाहरण हैं। इस संदर्भ में राजा रणजीत सिंह के दरबार के साधु हरीदास का नाम उल्लेखनीय है। फ्रांस और यूरोप के चिकित्सकों ने साधु हरीदास की इस शक्ति का चिकित्सीय परीक्षण किया था और पाया कि मृत शरीर कई महीनों बाद जीवित हो उठता था। परमहंस योगानंद ने विदेशी चिकित्सकों की फाइलों तक पहुंच बनाकर उन्हें सार्वजनिक किया था। संतों के सूक्ष्म रूप से एक ही साथ एक ही समय में दो विपरीत दिशाओं वाले स्थानों पर उपस्थिति के भी उदाहरण हैं। ऋषिकेश में दिव्य जीवन संघ के संस्थापक स्वामी शिवानंद सरस्वती से जुड़े ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं। अमेरिका के टेड सीरियो की अतीन्द्रिय शक्ति ऐसी थी कि उसकी आंखें हजारो मील दूर की तस्वीरें लेने में सक्षम थी।         

परमहंस योगानंद कहा करते थे कि महान संत मृत्युलोक में कुछ अधूरा कार्य छोड़ जाते हैं तो उन्हें दोबारा जन्म लेना होता है। शास्त्रों के मुताबिक कुछ ऋषि किसी श्राप के कारण भी मृत्युलोक मे जन्म लेते हैं, कर्मफल भुगतने के लिए। जो ऋषि मृत्युलोक में भौतिक शरीर धारण करते हैं उनके तुरीयावस्था में चले जाने का उल्लेख भी योगशास्त्र की पुस्तकों में मिलता है। उसके मुताबिक तुरीयावस्था के अनुभव देवलोक के अनुभव माने जाते हैं। जैसे, अमुक ऋषि स्वर्गलोक पहुंच गए, वहां विष्णुजी से उनका साक्षात्कार हुआ, फिर लक्ष्मीजी या शिवजी से साक्षात्कार हुआ आदि आदि। कृष्णदत्त जी भी अक्सर ऐसी ही बातें किया करते थे।

ब्रह्मर्षि कृष्णदत्त जी अब शरीर त्याग चुके हैं। उनके अनुयायी उन्हें श्रृंगी ऋषि का अवतार मानते हुए उनके संदेशों को प्रसाद स्वरूप ग्रहण करते रहते हैं। श्रृंगी ऋषि वेद विज्ञान प्रतिष्ठान कृष्णदत्त जी महाराज की रिकार्ड की गई बातों को पुस्तकाकार देकर उनके संदेशों को प्रचारित करता है। डॉ कृष्णावतार और उनके सहयोगी पूरी तल्लीनता से इस काम को आगे बढ़ा रहे हैं। पर कृष्णदत्त जी महाराज की विशिष्ट अतीन्द्रिय शक्ति को आधुनिक विज्ञान के लिहाज से सही-सही परिभाषित किया जाना बाकी है। मानव चेतना पर बड़े स्तरों पर वैज्ञानिक शोध हुए हैं। सेरीब्रल कार्टेक्स और थैलेमस के साथ उसकी कार्य-प्रणाली पर हुए शोधों से चेतना की कई परतें खुली हैं। सेक्रल प्लेक्सस तंत्रिका तंतुओं यानी नर्वस सिस्टम का नेटवर्क होता है, जो शरीर के निचले अंगों पेल्विस और लोअर लिंब को त्वचा और मांसपेशियों की आपूर्ति करता है। सेरीब्रल कार्टेक्स और थैलेमस का एक दूसरे सें गहरा नाता है। अध्ययनों से संकेत मिला है कि चेतना की उपस्थिति और इससे जुड़े अन्य मामलों में थैलेमस की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। अब तक मानव चेतना के विस्तार संबंधी जो सूत्र मिल रहे हैं, उनको ध्यान में रखते हुए लगता है कि भविष्य में चेतना के किसी खास स्तर पर कृष्णदत्त जी की खास अवस्था प्राप्त कर लेने के रहस्यों का भेद मिल ही जाएगा।

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वैसे, कुछ घटनाओं और शरीर के चक्रो की यौगिक विवेचना से प्रतीत होता है कि शरीर की सूक्ष्म ऊर्जा के खास तरीके से प्रवाहित होने से कृष्णदत्त जी की चेतना पूर्व जन्मों की चेतना के साथ समस्वरित हो जाती रही होगी। योगशास्त्र के मुताबिक, शरीर के मुख्य सात चक्रों में स्वाधिष्ठान चक्र का एक गुण वीडियो कैमरे की तरह होता है, जो जन्म-जन्मांतर की बातों को संग्रहित करके रखता है। गणित के विद्वान श्रीनिवास रामानुजन के बारे में कौन नहीं जानता। उनसे पूछा गया कि सवाल करो नहीं कि जबाव जाहिर। यह चमत्कार कैसे होता है? उनका उत्तर था – “मैं नहीं जानता। तुम मुझसे प्रश्न करते हो तो कहीं नीचे से उत्तर आता है, सिर से नहीं।” उनके इस उत्तर से भी स्वाधिष्ठान चक्र का ही संकेत मिलता है। स्वाधिष्ठान चक्र का स्थान शरीर में रीढ़ की हड्डी के सबसे निचले छोड़ पर स्थित है। इसका संबंध सेक्रल प्लेक्सस से है, जो अचेतन मन को नियंत्रित करता है।

आज्ञा चक्र को शिव का नेत्र या तीसरी आंख भी कहा जाता है। यह अतीन्द्रिय अनुभूतियों का स्थान है, जहां व्यक्ति में उसके संस्कार और मानसिक प्रवृत्तियों के अनुसार अनेकानेक सिद्धियां प्रकट होती हैं। दरअसल, यह चक्र मुख्य रूप से मन का चक्र है, जो चेतना की उच्च अवस्था का प्रतिनिधित्व करता है। इसके जागृत होने से स्वाधिस्थान चक्र की संग्रहित बातों को प्रकट करना संभव हो पाता है। यह चक्र रीढ़ की हड्डी के ऊपर और भ्रूमध्य के ठीक पीछे होता है। इसका संबंध पीनियल ग्रंथि से है। इसका एक अन्य महत्वपूर्ण काम शरीर की पेशियों और काम-प्रवृत्ति को नियंत्रित करना भी है। योग साधाना में इसका बड़ा महत्व है। इतिहास गवाह है कि अनेक संत जागृत चक्रों के साथ जन्मे। पर ब्रह्मर्षि कृष्णदत्त जी का मामला केवल चक्रों के जागरण तक सीमित नहीं है। कई गूढ़ बातें और भी हैं, जिन्हें विज्ञान की कसौटी पर परिभाषित किया जाना बाकी है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

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